यज्ञोपवीत 2
#षोडश_संस्काराः_खंड_१३८~
#कानपर_यज्ञोपवीत_रखनेका_रहस्य-->
यज्ञोपवीत को शौचादिके समय कानपर रखने में कारण यह हैं-- (#ऊर्ध्वं_नाभेर्मेध्यतरः_पुरुषः_परिकीर्तितः||मनु १/९२||) 'पुरुष' नाभिसे ऊपर पवित्र हैं,नाभि के नीचे अपवित्र हैं | इस प्रमाण से नाभि का निचला भाग मल-मूत्रधारक होने से विशेषतः शौच के समय अपवित्र होता हैं | इसलिये उस समय पवित्र यज्ञोपवीत को वहाँ न रखकर -> (#तस्मान्मेध्यतमं_त्वस्य_मुखमुक्तं_स्वयम्भुवा ||१/९२||) इस प्रमाण से अत्यन्त पवित्र तथा ज्ञान का भण्डार होने से बोधायन के अनुसार सिरपर अथवा अन्य महर्षियों के अनुसार सीरके भाग कानपर रखा जाता हैं | दाहिने कान की पवित्रता उसमें (ब्रह्मोपदेश)दीक्षा के समय आचार्यद्वारा गुप्त मन्त्रोपदेश होने से तथा - (#मरुतः_सोम_इन्द्राग्नी_मित्रावरुणौ_तथैव_च | #एते_सर्वे_च_विप्रस्य_श्रोत्रे_तिष्ठन्ति_दक्षिणे ||गोभिल गृ०संग्र० २/९०||) "वायु, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, मित्र, तथा वरुण" -- ये सब देवता ब्राह्मण के दाहिने कानमें रहतें हैं | इत्यादि प्रमाणों से देव- निवास के कारण सूचित होती हैं | (#क्षुते_निष्ठीवने_चैव_दन्तोच्छिष्टे_तथानृते | #पतितानां_च_सम्भाषे_दक्षिणं_श्रवणं_स्पृशेत् ||गृह्य सं० २/८९||) "छींकने, थूकने, दाँतके जूँठे होने, मुँह से झूठी बात निकलने तथा पतितों से बातचीत करनेपर अपने दाहिने कान का स्पर्श करना चाहिये | इसी कारण अपराधी लोग भी अपनी शुद्धि के लिये दाहिने कान को पकड़ते या छूतें हैं | अन्य बात यह हैं कि हमारे शरीर में "पार्थिव इन्द्रिय- नासिका, जलीय इन्द्रिय- जिह्वा, तैजस इन्द्रिय - आँख, वायव्य इन्द्रिय- त्वचा, तथा आकाशीय इन्द्रिय - कान हैं | देश काल अनुसार श्मशानादि रूप में पृथिवी, मद्यादि योगसे गङ्गाजलादि रूप में जल, श्मशानाग्निरूप में तेज, पुरीषालयादिरूप में वायु ये चार भूत अशुद्ध हो जातें हैं; पर आकाश किसी भी दशा में अपवित्र नहीं होता | हमारे शरीर में उसकी प्रतिनिधिभूत इन्द्रिय कान हैं | उससे शौचादि समय यज्ञोपवीत का सम्बन्ध कर देने से वह अशुद्ध नहीं होता | #वैज्ञानिकशोधानुसार भी यह उचित है। वैज्ञानिकतर्कान्तर्गत कर्ण में कुछ ऐसी नाडियाँ होतीं हैं जिनपर दबाव से मलमुत्र पूर्णरूपेण बिना किसी व्याधा के बाहर हो जाते हैं। अतः कर्ण पर ब्रह्मसूत्र बाँधना वैज्ञानिकों को भी मान्य है। अतः यह न केवल आध्यात्मिक बल्कि वैज्ञानिक विषय भी है।यही यज्ञोपवीत सम्बन्धी वैज्ञानिक रहस्य जान लेने चाहिये |
#कानपर_यज्ञोपवीत_रखनेका_रहस्य-->
यज्ञोपवीत को शौचादिके समय कानपर रखने में कारण यह हैं-- (#ऊर्ध्वं_नाभेर्मेध्यतरः_पुरुषः_परिकीर्तितः||मनु १/९२||) 'पुरुष' नाभिसे ऊपर पवित्र हैं,नाभि के नीचे अपवित्र हैं | इस प्रमाण से नाभि का निचला भाग मल-मूत्रधारक होने से विशेषतः शौच के समय अपवित्र होता हैं | इसलिये उस समय पवित्र यज्ञोपवीत को वहाँ न रखकर -> (#तस्मान्मेध्यतमं_त्वस्य_मुखमुक्तं_स्वयम्भुवा ||१/९२||) इस प्रमाण से अत्यन्त पवित्र तथा ज्ञान का भण्डार होने से बोधायन के अनुसार सिरपर अथवा अन्य महर्षियों के अनुसार सीरके भाग कानपर रखा जाता हैं | दाहिने कान की पवित्रता उसमें (ब्रह्मोपदेश)दीक्षा के समय आचार्यद्वारा गुप्त मन्त्रोपदेश होने से तथा - (#मरुतः_सोम_इन्द्राग्नी_मित्रावरुणौ_तथैव_च | #एते_सर्वे_च_विप्रस्य_श्रोत्रे_तिष्ठन्ति_दक्षिणे ||गोभिल गृ०संग्र० २/९०||) "वायु, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, मित्र, तथा वरुण" -- ये सब देवता ब्राह्मण के दाहिने कानमें रहतें हैं | इत्यादि प्रमाणों से देव- निवास के कारण सूचित होती हैं | (#क्षुते_निष्ठीवने_चैव_दन्तोच्छिष्टे_तथानृते | #पतितानां_च_सम्भाषे_दक्षिणं_श्रवणं_स्पृशेत् ||गृह्य सं० २/८९||) "छींकने, थूकने, दाँतके जूँठे होने, मुँह से झूठी बात निकलने तथा पतितों से बातचीत करनेपर अपने दाहिने कान का स्पर्श करना चाहिये | इसी कारण अपराधी लोग भी अपनी शुद्धि के लिये दाहिने कान को पकड़ते या छूतें हैं | अन्य बात यह हैं कि हमारे शरीर में "पार्थिव इन्द्रिय- नासिका, जलीय इन्द्रिय- जिह्वा, तैजस इन्द्रिय - आँख, वायव्य इन्द्रिय- त्वचा, तथा आकाशीय इन्द्रिय - कान हैं | देश काल अनुसार श्मशानादि रूप में पृथिवी, मद्यादि योगसे गङ्गाजलादि रूप में जल, श्मशानाग्निरूप में तेज, पुरीषालयादिरूप में वायु ये चार भूत अशुद्ध हो जातें हैं; पर आकाश किसी भी दशा में अपवित्र नहीं होता | हमारे शरीर में उसकी प्रतिनिधिभूत इन्द्रिय कान हैं | उससे शौचादि समय यज्ञोपवीत का सम्बन्ध कर देने से वह अशुद्ध नहीं होता | #वैज्ञानिकशोधानुसार भी यह उचित है। वैज्ञानिकतर्कान्तर्गत कर्ण में कुछ ऐसी नाडियाँ होतीं हैं जिनपर दबाव से मलमुत्र पूर्णरूपेण बिना किसी व्याधा के बाहर हो जाते हैं। अतः कर्ण पर ब्रह्मसूत्र बाँधना वैज्ञानिकों को भी मान्य है। अतः यह न केवल आध्यात्मिक बल्कि वैज्ञानिक विषय भी है।यही यज्ञोपवीत सम्बन्धी वैज्ञानिक रहस्य जान लेने चाहिये |
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
#भुक्तायैव_सुतामुपोषितनरो_दद्याच्च_सावित्रिका #मारब्धोत्सवके_यदा_जनिमृति_स्यातां_स्वगोत्रे_क्वचित् |
#साङ्गं_तं_विदधित_वाजमपरेऽस्मादारभेत्पूर्वतो #यज्ञोद्वाहन_चौल_मौञ्जिकमहः_सुस्वर्गदिक्_त्रित्रिषु ||मर्हूतमार्तण्ड ४/४३||
कन्यादानकर्ता स्वयं उपवासी रहकर भोजन किये हुए वर को (भोजन की हुई)कन्या दैं और आचार्य स्वयं उपवास पर रहकर भोजन(दूध-भात या खीर =ब्रह्मौदन) किये हुए बटु को उपनयन में सावित्रि(गायत्रीमंत्र का उपदेश) दैं | बिना भोजन किये वर पत्नीग्रहण और बटु सावित्री ग्रहण न करैं |
उत्सव के प्रारम्भ हो जाने पर यदि अपने गोत्र में कहीं जन्म या मरण हो जाय तो वहाँ उस कर्म को साङ्गोपाङ्ग पूरा करना ही चाहिये | परन्तु उसमें हवनादि कर्मका अन्न आदि अन्य असगोत्रको करना चाहिये | ऐसा करनेपर अशौच का दोष नहीं लगता |
अब उत्सव का आरम्भ कब होता हैं?---> #एकविंशतिहर्यज्ञे_विवाहे_दशवासराः | #त्रिं_षट्_चौलोपनयने_नान्दीश्राद्धं_विधियते || #नान्दीश्राद्धं_विवाहादौ_श्राद्धे_पाकपरिक्रिया | #आरम्भो_वरणं_यज्ञे_सङ्कल्पो_व्रतसत्रयोः ||
#आरंभे_सूतकं_नास्ति_अनारंभे_तु_सूतकम् ||इति
निर्णय- कर्म के प्रधान नियत दिन से यज्ञ में २१ दिन पहले, विवाह में १० दिन पहले, चूडाकरण में ३ दिन पहले और उपनयन में ६ दिन पहले उस उत्सव का आरम्भ हो जाता हैं | यज्ञ में ऋत्विक् आदि का वरण करना,बडे सत्रों में ---भागवत आदि पुराणों के सत्रों आदि में प्रधानसंकल्प करने से, विवाह आदि संस्कारों में नान्दीश्राद्ध और श्राद्ध में पाकारम्भ यह उस कार्य का आरम्भ कहा है | कार्य के आरम्भ हो जाने के बाद अशौच नहीं लगता, जहाँतक कार्य का आरम्भ न हो तबतक में कोई अशौच आदि आ जाये तो अशौच लगता हैं |
#साङ्गं_तं_विदधित_वाजमपरेऽस्मादारभेत्पूर्वतो #यज्ञोद्वाहन_चौल_मौञ्जिकमहः_सुस्वर्गदिक्_त्रित्रिषु ||मर्हूतमार्तण्ड ४/४३||
कन्यादानकर्ता स्वयं उपवासी रहकर भोजन किये हुए वर को (भोजन की हुई)कन्या दैं और आचार्य स्वयं उपवास पर रहकर भोजन(दूध-भात या खीर =ब्रह्मौदन) किये हुए बटु को उपनयन में सावित्रि(गायत्रीमंत्र का उपदेश) दैं | बिना भोजन किये वर पत्नीग्रहण और बटु सावित्री ग्रहण न करैं |
उत्सव के प्रारम्भ हो जाने पर यदि अपने गोत्र में कहीं जन्म या मरण हो जाय तो वहाँ उस कर्म को साङ्गोपाङ्ग पूरा करना ही चाहिये | परन्तु उसमें हवनादि कर्मका अन्न आदि अन्य असगोत्रको करना चाहिये | ऐसा करनेपर अशौच का दोष नहीं लगता |
अब उत्सव का आरम्भ कब होता हैं?---> #एकविंशतिहर्यज्ञे_विवाहे_दशवासराः | #त्रिं_षट्_चौलोपनयने_नान्दीश्राद्धं_विधियते || #नान्दीश्राद्धं_विवाहादौ_श्राद्धे_पाकपरिक्रिया | #आरम्भो_वरणं_यज्ञे_सङ्कल्पो_व्रतसत्रयोः ||
#आरंभे_सूतकं_नास्ति_अनारंभे_तु_सूतकम् ||इति
निर्णय- कर्म के प्रधान नियत दिन से यज्ञ में २१ दिन पहले, विवाह में १० दिन पहले, चूडाकरण में ३ दिन पहले और उपनयन में ६ दिन पहले उस उत्सव का आरम्भ हो जाता हैं | यज्ञ में ऋत्विक् आदि का वरण करना,बडे सत्रों में ---भागवत आदि पुराणों के सत्रों आदि में प्रधानसंकल्प करने से, विवाह आदि संस्कारों में नान्दीश्राद्ध और श्राद्ध में पाकारम्भ यह उस कार्य का आरम्भ कहा है | कार्य के आरम्भ हो जाने के बाद अशौच नहीं लगता, जहाँतक कार्य का आरम्भ न हो तबतक में कोई अशौच आदि आ जाये तो अशौच लगता हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ ||
#यज्ञोपवीत_प्राक्_गर्भाधानादि_संस्काराणां
#अतिक्रान्त_प्रायश्चित्त_एवं_लोपसंस्कारविधि
#सहित_यज्ञोपवीत_संस्कार(अवधि ब्राह्मणों-८से १५/ क्षत्रियों-११ से २१/ और वैश्य द्विजों को १२ से २३ वर्ष तक की अवधि में)|
#अतिक्रान्त_प्रायश्चित्त_एवं_लोपसंस्कारविधि
#सहित_यज्ञोपवीत_संस्कार(अवधि ब्राह्मणों-८से १५/ क्षत्रियों-११ से २१/ और वैश्य द्विजों को १२ से २३ वर्ष तक की अवधि में)|
#विधानम्--- यज्ञोपवीत-मुर्हूतदिनात् प्राक् दिने कुलधर्मानुसारेण जातकर्मादि यज्ञोपवीत संस्काराङ्ग गणपतिपूजनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं मोदादिषड्विनायकानां-पूजनं,मण्डपमातृकापूजनं ग्रहशान्ति विधानम् (ग्रहशांतौ पुण्याह वाचने आदित्याद्याग्रहाः प्रीयन्ताम्) समाप्य | कालातिक्रम संस्काराणां प्रायश्चित्तं कुर्यात् ---->
(जो संस्कार यथा काल और क्रमसे न हुए हो उनका प्रायश्चित्त करके विधिसे लोप हुए संस्कारों को करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए यह विधान हैं,,,,, जिसमें संकल्प कर मूलप्रायश्चित्त अथवा तद्रूप प्रत्याम्नाय का आचरण करने का निश्चय करना हैं )
#कालातिक्रम_संस्काराणां_प्रायश्चित् --- > देशकालौ संकीर्त्य... अस्य कुमारस्य जन्मपूर्वे गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतोन्नयन-संस्काराणां तथा च जन्मतः जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,कर्णवेध, चौलान्तानां संस्काराणां स्व स्व काले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अनादिष्टं प्रायश्चित्तं होष्ये....
(जो संस्कार यथा काल और क्रमसे न हुए हो उनका प्रायश्चित्त करके विधिसे लोप हुए संस्कारों को करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए यह विधान हैं,,,,, जिसमें संकल्प कर मूलप्रायश्चित्त अथवा तद्रूप प्रत्याम्नाय का आचरण करने का निश्चय करना हैं )
#कालातिक्रम_संस्काराणां_प्रायश्चित् --- > देशकालौ संकीर्त्य... अस्य कुमारस्य जन्मपूर्वे गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतोन्नयन-संस्काराणां तथा च जन्मतः जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,कर्णवेध, चौलान्तानां संस्काराणां स्व स्व काले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अनादिष्टं प्रायश्चित्तं होष्ये....
अरत्निमात्रे स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य||अग्निं ध्यात्वा| ब्रह्मोपवेशनादि कुशकंडिकां वर्ज्य| आज्यं निरुप्य| अधिश्रित्य| स्रुवं प्रताप्य| तदग्रमूलमध्यानि शोधयित्वा पुनः प्रताप्य " स्वदक्षिणे कुशानामुपरि निधाय" आज्योद्वास्य कुशरूपे द्वेपवित्रे कृत्वा पवित्राभ्यां आज्यस्य त्रिरोत्पूय आज्यमवेक्ष्य" जलेन ईशान कोणादारभ्य ऐशानपर्यन्तं पर्युक्षणं कृत्वा न इतरथावृत्तिः विट् नामाग्नये नमः इति सम्पूज्य० जुहुयात्- (ब्रह्मोपवेशनादि अभावात् त्यागदानं न किन्तुपठनमेव) गर्भाधानअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|पुंसवनअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|सीमन्तोन्नयन अनादिष्टं होष्ये" ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|जातकर्मअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"| नामकरणअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|निष्क्रमण अनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|अन्नप्राशन अनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|कर्णवेधअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|चूडाकरण अनादिष्टं होष्ये--- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|
ॐ त्वन्नो अग्ने वरुणस्य०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने वमो०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐअयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदं अग्नये अयसे न मम" ॐ जेते शतंवरुण० इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम"ॐ उदुत्तमं वरुणपाश०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यायादितये च न मम"ॐप्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" अनेन अनादिष्टप्रायश्चित्त होम कृतेन गर्भाधानादि चौलान्तानां संस्काराणां कालातिक्रम दोष परिहारोस्तु|
पुनर्जलमादाय- अस्य कुमारस्य जन्मपूर्वे गर्भाधान संस्कारस्य स्व काले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारारार्थं कालातिक्रम दोष निवृत्यर्थं च पादकृच्छ्रं वा तद्रूपं सहस्र गायत्रीजपं प्रत्याम्नायेन स्वयं वा ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये...(१००० जप)|
पुनः अस्य कुमारस्य जन्मपूर्वे स्वकाले पुंसवन,सीमंतोन्नयन,
जन्मतः जातकर्म, नामकर्म, निष्क्रमणान्नप्राशन, कर्णवेधान्तानां संस्काराणां स्व स्व काले अकरण जनित दोष प्रत्यवाय परिहारार्थं कालातिक्रम दोष निवृत्यर्थं च प्रतिसंस्कारं पादकृच्छ्रस्य द्विगुणं वा तद्रूपं सहस्रद्वय/सहस्रद्वय गायत्रीजपं प्रत्याम्नायेन स्वयं वा ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये |
पुनः अस्य कुमारस्य चूडाकरण संस्कारस्य स्वकाले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अर्धकृच्छ्रस्य द्विगुणं वा तद्रूपं चतुःसहस्र गायत्रीजपं प्रत्याम्नायेन स्वयं वा ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये | अनेन प्रायश्चित्तेन अस्य कुमारस्य गर्भाधानादि सीमंतोन्नयनान्त संस्काराणां च जातकर्मादि चूडाकरणान्तानां संस्काराणां कालातिक्रम दोष निवृत्तिरस्तु | जातकर्मादि चूडाकरणान्तानां संस्काराणां अधिकारोस्तु |
ॐ त्वन्नो अग्ने वरुणस्य०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने वमो०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐअयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदं अग्नये अयसे न मम" ॐ जेते शतंवरुण० इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम"ॐ उदुत्तमं वरुणपाश०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यायादितये च न मम"ॐप्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" अनेन अनादिष्टप्रायश्चित्त होम कृतेन गर्भाधानादि चौलान्तानां संस्काराणां कालातिक्रम दोष परिहारोस्तु|
पुनर्जलमादाय- अस्य कुमारस्य जन्मपूर्वे गर्भाधान संस्कारस्य स्व काले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारारार्थं कालातिक्रम दोष निवृत्यर्थं च पादकृच्छ्रं वा तद्रूपं सहस्र गायत्रीजपं प्रत्याम्नायेन स्वयं वा ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये...(१००० जप)|
पुनः अस्य कुमारस्य जन्मपूर्वे स्वकाले पुंसवन,सीमंतोन्नयन,
जन्मतः जातकर्म, नामकर्म, निष्क्रमणान्नप्राशन, कर्णवेधान्तानां संस्काराणां स्व स्व काले अकरण जनित दोष प्रत्यवाय परिहारार्थं कालातिक्रम दोष निवृत्यर्थं च प्रतिसंस्कारं पादकृच्छ्रस्य द्विगुणं वा तद्रूपं सहस्रद्वय/सहस्रद्वय गायत्रीजपं प्रत्याम्नायेन स्वयं वा ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये |
पुनः अस्य कुमारस्य चूडाकरण संस्कारस्य स्वकाले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अर्धकृच्छ्रस्य द्विगुणं वा तद्रूपं चतुःसहस्र गायत्रीजपं प्रत्याम्नायेन स्वयं वा ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये | अनेन प्रायश्चित्तेन अस्य कुमारस्य गर्भाधानादि सीमंतोन्नयनान्त संस्काराणां च जातकर्मादि चूडाकरणान्तानां संस्काराणां कालातिक्रम दोष निवृत्तिरस्तु | जातकर्मादि चूडाकरणान्तानां संस्काराणां अधिकारोस्तु |
जातकर्मादि चूडाकरण पर्यन्तके सभी संस्कार क्रमसे करैं- प्रतिसंस्कार के संकल्प पश्चात् "तदङ्गत्वेन पञ्चोपचारैः गणपतिपूजनं(स्व स्व कर्मांग देवतानुद्दिश्य स्वस्तिपुण्याह वाचनं प्रतिसंस्कारादौ समाप्य|
(#उपनयनविधानम्)- गर्भाधानादि चूडाकरणान्त संस्काराः विधिवत् कृते*(जन्मसे पहले गर्भाधानादि तथा जन्मके बाद जातकर्मसे चूडाकरण पर्यंतके संस्कार शास्त्रोक्त विधानसे क्रमसे कियें हों तो उम्रवर्ष ब्राह्मण-१५,क्षत्रिय २१, वैश्य२३,वर्षतक)"|
ज्योतिःशास्त्रोक्त सुमुर्हूते उपनयनदिनात् प्राक् दिने प्रातः नित्यक्रियः(संध्यावंदनादि)यजमानः गणपतिपूजनं(मोदादिषड्विनायकपूजनं-वैश्वदेवसंकल्पं)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं मंडपारोपणं (कुलधर्मानुसारेण गृह्योक्त कर्माणि विधाय)। ग्रहशांतिं( ग्रहशांत्यङ्गत्वेन पुण्याह वाचने(कर्मांग देवता आदित्यादि ग्रहाः)विधानेन च समाप्य। द्वितीयेह्नौ सुमुर्हूते यजमानः पत्नीकुमाराभ्यां सह अहतवाससी परिधाय अलंकृत्य धृततिलको बहिःशालायां शुभासने प्राङ्गमुखोपविश्य।। स्वदक्षिणतः पत्नीं तद्दक्षिणतः संस्कार्यं बटुं चोपवेश्य।। आचम्य प्राणानायम्य।। सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा।। प्रायश्चित्त संकल्पों करैं-(कृच्छ्रत्रयं चोपनेता च त्रीन्कृच्छ्रांश्च बटुश्चरेत्।आचार्यो दशसाहस्रं गायत्रीं प्रजपेत्तथा।।)"कुमारके उपनयन संस्कार करवाने अधिकार हेतु कृच्छ्रत्रयात्मक व्रतरूप १२०००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका अथवा ब्राह्मणद्वारा करवाने का- अद्येत्यादि००० मम अस्य कुमारस्य"(चूडाकरण किये हुए बालकका पर्याय)"स्वस्योपनयन नेतृत्व अधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्र गायत्रीमंत्रजपं स्वयं करिष्ये(ब्राह्मणद्वारा कारयिष्ये)। अनेन मम कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारसिद्धिरस्तु।।१।।
कुमारस्यापि प्रायश्चितं कारयेत्-(उपनयनसे पहले निषिद्ध आचरण-निषिद्धवक्तव्य-निषिद्धभोजन आदि के प्रायश्चित्त हेतु कुमारसे तीनकृच्छ्रव्रतकेरूप १२००० गायत्रीमंत्रजप करनेका संकल्प करवायें)-"मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादि दोषोपनोदनार्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्रगायत्री मंत्रजपं स्वयं करिष्ये। तेन मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादिदोषनिवृत्ति पूर्वक उपनयनसंस्कार कर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।(आचार्यभी यजमानके पुत्रको उपनयन संस्कार करवानेके अधिकारत्व हेतु १००००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका संकल्प करैं)-"आचार्यो हस्ते जलमादाय- अमुकशर्मा आचार्यो$हं अमुकशर्मणो यजमानसुतस्य उपनयनसंस्कार कर्माधिकारार्थं द्वादशसहस्र गायत्री मंत्र जपमहं करिष्ये।"(अब देंखलों👀!-समुहयज्ञोपवीत में प्रत्येक बटुककें आचार्यत्व कर्म करनेके लिये प्रतिबटुक बारहहजार/बारहहजार गायत्री मंत्र जप कहीं भी नहीं होता)"।
***#प्रधान संकल्प- अद्येत्यादि०००मम अस्य कुमारस्य द्विजत्वसिद्ध्यै वेदाध्ययनाधिकारार्थम् उपनयनाख्यं कर्म करिष्ये। तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता इन्द्रः)च करिष्ये। गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं आचार्यवरणं च समाप्य। ततःकुमारस्य वपनं कारयेत्(शिखा रखवाकर बटुकका वपन करवायें)संकल्प- देशकालौ संकीर्त्य मम अस्य कुमारस्य उपनयनं कर्तुं तत् प्राच्याङ्गभूतं वपनं कारयिष्ये।एवं वपनं कारयित्वा स्नापयेत्(वपन हो जानेके बाद कुमारको स्नान करायें)ततो ब्राह्मणत्रयभोजनम्(मात्रा सहोपनयने विवाहे भार्यया सह। अन्यत्र सह भुक्तिश्चेत्पातित्यं प्राप्नुयान्नरः।।संग्रहे।।-"उपनयनमें माताकेसाथ,विवाहमें पत्नीकेसाथ,भोजन करनेमें दोष नहीं अन्यत्र साथमे(एकपात्रमें)भोजन करनेसे दोष लगता हैं चान्द्रायणव्रतसे शुद्धि होती हैं। तीन ब्राह्मणोंकी पङ्क्तिमें कुमारको बैठाकर माताके साथ दूधभात का भोजन और साथमें तीन उपनीत ब्राह्मणोंका भोजन करवाईयैं)"संकल्प-अद्येत्यादि०मम अस्य कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारार्थं त्रिभ्यो$धिकान् ब्राह्मणान् अद्याहं भोजयिष्ये।तेन मम अस्य कुमारस्य उपनयनकर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।ततो कुमारपिता बहिःशालायां वेद्युपरि पंचभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं स्थापयेत्।(पुष्पमालादिसे अलंकृत बटुकको आचार्यकी समिप लायें)।-"ततः पुष्पमालादिभिरलंकृतं बटुम् आचार्य समीपमानयति।।(आचार्य!आये हुए बटुकको अग्निके पश्चिममेंसे अपनी दायी बाजू खडा रखै)-"ततः आचार्य आनीतं कुमारम् अग्नेः पश्चात् स्वदक्षिणतः अवस्थापयेत्।(अग्नि और बटुकके अंतरमें अंतर्पट रखकर ब्राह्मणों मंगल श्लोकोंका पठन करैं)-"ततः मध्ये$न्तर्पटं धारयित्वा। ब्राह्मणाः सुमंगलपद्यानि पठेयुः।(मंगलपाठके बाद आचार्य बटुकपर अक्षत प्रक्षेप करैं)मंगल पद्यानि पठनान्तरं ॐमनोजूति०।ॐसुमूर्हूते सुप्रतिष्ठितमस्तु।।(आचार्य अंतर्पटको हटा दैं)-"ततः आचार्य अंतर्पटं उत्तरे निस्सार्य।(बटुक आचार्यके चरण स्पर्श करैं-"व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।)"कुमारं आचार्यपादौ प्रणमति।(अपनी दायीं औरसे आचार्य बटुकको अग्निके पश्चिममें आसनपर बिठाईये)-"स्वदक्षिणतः पश्चादग्नेस्तमवस्थापयेत्।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-कुमारं प्रति आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचर्यमागाम्"(बटुक आचार्यसे कहैं)- कुमारो ब्रूयात्"ॐब्रह्मचर्यमागाम्"।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचार्यसानि।(बटुक भी आचार्य के प्रति कहैं)कुमारमपि वदति-"ॐब्रह्मचार्यसानि।(आचार्य बटुकको मंत्रपढकर सफेद वस्त्र धारण करवायें)-"अथैनं माणवकम् आचार्यो वासः परिधापयति।। येनेन्द्रायेति आङ्गिरसऋषिः बृहतीच्छंदः बृहस्पतिर्देवता वासः परिधाने विनियोगः-"ॐ येनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासःपर्यदधादमृतम्। तेनत्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।।(कुमार को आचमन कैसे करना हैं वह सिखाकर आचमन करवायें)-आचमनम्(आचार्य बटुककी कमरमें त्रीरावृत्त और प्रवरके अनुसार ग्रन्थिलगाकर यथोक्त मेखला बंधन मंत्र पढकर करैं)-ततः आचार्यो ब्रह्मचारिणः कटिप्रदेशे यथोक्त मेखलां यथाप्रवरग्रन्थियुतां प्रदक्षिणं त्रिर्वेष्टयित्वा बध्नाति-(इयं दुरुक्तं इत्यस्य वामदेवर्षिः त्रिष्टुप् छंदः मेखला देवता मेखला बंधने विनियोगः-"ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनतीम$आगात्।प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्व सादेवी सुभगा मेखलेयम्।।मेखलेयम्।।
(#उपनयनविधानम्)- गर्भाधानादि चूडाकरणान्त संस्काराः विधिवत् कृते*(जन्मसे पहले गर्भाधानादि तथा जन्मके बाद जातकर्मसे चूडाकरण पर्यंतके संस्कार शास्त्रोक्त विधानसे क्रमसे कियें हों तो उम्रवर्ष ब्राह्मण-१५,क्षत्रिय २१, वैश्य२३,वर्षतक)"|
ज्योतिःशास्त्रोक्त सुमुर्हूते उपनयनदिनात् प्राक् दिने प्रातः नित्यक्रियः(संध्यावंदनादि)यजमानः गणपतिपूजनं(मोदादिषड्विनायकपूजनं-वैश्वदेवसंकल्पं)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं मंडपारोपणं (कुलधर्मानुसारेण गृह्योक्त कर्माणि विधाय)। ग्रहशांतिं( ग्रहशांत्यङ्गत्वेन पुण्याह वाचने(कर्मांग देवता आदित्यादि ग्रहाः)विधानेन च समाप्य। द्वितीयेह्नौ सुमुर्हूते यजमानः पत्नीकुमाराभ्यां सह अहतवाससी परिधाय अलंकृत्य धृततिलको बहिःशालायां शुभासने प्राङ्गमुखोपविश्य।। स्वदक्षिणतः पत्नीं तद्दक्षिणतः संस्कार्यं बटुं चोपवेश्य।। आचम्य प्राणानायम्य।। सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा।। प्रायश्चित्त संकल्पों करैं-(कृच्छ्रत्रयं चोपनेता च त्रीन्कृच्छ्रांश्च बटुश्चरेत्।आचार्यो दशसाहस्रं गायत्रीं प्रजपेत्तथा।।)"कुमारके उपनयन संस्कार करवाने अधिकार हेतु कृच्छ्रत्रयात्मक व्रतरूप १२०००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका अथवा ब्राह्मणद्वारा करवाने का- अद्येत्यादि००० मम अस्य कुमारस्य"(चूडाकरण किये हुए बालकका पर्याय)"स्वस्योपनयन नेतृत्व अधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्र गायत्रीमंत्रजपं स्वयं करिष्ये(ब्राह्मणद्वारा कारयिष्ये)। अनेन मम कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारसिद्धिरस्तु।।१।।
कुमारस्यापि प्रायश्चितं कारयेत्-(उपनयनसे पहले निषिद्ध आचरण-निषिद्धवक्तव्य-निषिद्धभोजन आदि के प्रायश्चित्त हेतु कुमारसे तीनकृच्छ्रव्रतकेरूप १२००० गायत्रीमंत्रजप करनेका संकल्प करवायें)-"मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादि दोषोपनोदनार्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्रगायत्री मंत्रजपं स्वयं करिष्ये। तेन मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादिदोषनिवृत्ति पूर्वक उपनयनसंस्कार कर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।(आचार्यभी यजमानके पुत्रको उपनयन संस्कार करवानेके अधिकारत्व हेतु १००००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका संकल्प करैं)-"आचार्यो हस्ते जलमादाय- अमुकशर्मा आचार्यो$हं अमुकशर्मणो यजमानसुतस्य उपनयनसंस्कार कर्माधिकारार्थं द्वादशसहस्र गायत्री मंत्र जपमहं करिष्ये।"(अब देंखलों👀!-समुहयज्ञोपवीत में प्रत्येक बटुककें आचार्यत्व कर्म करनेके लिये प्रतिबटुक बारहहजार/बारहहजार गायत्री मंत्र जप कहीं भी नहीं होता)"।
***#प्रधान संकल्प- अद्येत्यादि०००मम अस्य कुमारस्य द्विजत्वसिद्ध्यै वेदाध्ययनाधिकारार्थम् उपनयनाख्यं कर्म करिष्ये। तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता इन्द्रः)च करिष्ये। गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं आचार्यवरणं च समाप्य। ततःकुमारस्य वपनं कारयेत्(शिखा रखवाकर बटुकका वपन करवायें)संकल्प- देशकालौ संकीर्त्य मम अस्य कुमारस्य उपनयनं कर्तुं तत् प्राच्याङ्गभूतं वपनं कारयिष्ये।एवं वपनं कारयित्वा स्नापयेत्(वपन हो जानेके बाद कुमारको स्नान करायें)ततो ब्राह्मणत्रयभोजनम्(मात्रा सहोपनयने विवाहे भार्यया सह। अन्यत्र सह भुक्तिश्चेत्पातित्यं प्राप्नुयान्नरः।।संग्रहे।।-"उपनयनमें माताकेसाथ,विवाहमें पत्नीकेसाथ,भोजन करनेमें दोष नहीं अन्यत्र साथमे(एकपात्रमें)भोजन करनेसे दोष लगता हैं चान्द्रायणव्रतसे शुद्धि होती हैं। तीन ब्राह्मणोंकी पङ्क्तिमें कुमारको बैठाकर माताके साथ दूधभात का भोजन और साथमें तीन उपनीत ब्राह्मणोंका भोजन करवाईयैं)"संकल्प-अद्येत्यादि०मम अस्य कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारार्थं त्रिभ्यो$धिकान् ब्राह्मणान् अद्याहं भोजयिष्ये।तेन मम अस्य कुमारस्य उपनयनकर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।ततो कुमारपिता बहिःशालायां वेद्युपरि पंचभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं स्थापयेत्।(पुष्पमालादिसे अलंकृत बटुकको आचार्यकी समिप लायें)।-"ततः पुष्पमालादिभिरलंकृतं बटुम् आचार्य समीपमानयति।।(आचार्य!आये हुए बटुकको अग्निके पश्चिममेंसे अपनी दायी बाजू खडा रखै)-"ततः आचार्य आनीतं कुमारम् अग्नेः पश्चात् स्वदक्षिणतः अवस्थापयेत्।(अग्नि और बटुकके अंतरमें अंतर्पट रखकर ब्राह्मणों मंगल श्लोकोंका पठन करैं)-"ततः मध्ये$न्तर्पटं धारयित्वा। ब्राह्मणाः सुमंगलपद्यानि पठेयुः।(मंगलपाठके बाद आचार्य बटुकपर अक्षत प्रक्षेप करैं)मंगल पद्यानि पठनान्तरं ॐमनोजूति०।ॐसुमूर्हूते सुप्रतिष्ठितमस्तु।।(आचार्य अंतर्पटको हटा दैं)-"ततः आचार्य अंतर्पटं उत्तरे निस्सार्य।(बटुक आचार्यके चरण स्पर्श करैं-"व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।)"कुमारं आचार्यपादौ प्रणमति।(अपनी दायीं औरसे आचार्य बटुकको अग्निके पश्चिममें आसनपर बिठाईये)-"स्वदक्षिणतः पश्चादग्नेस्तमवस्थापयेत्।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-कुमारं प्रति आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचर्यमागाम्"(बटुक आचार्यसे कहैं)- कुमारो ब्रूयात्"ॐब्रह्मचर्यमागाम्"।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचार्यसानि।(बटुक भी आचार्य के प्रति कहैं)कुमारमपि वदति-"ॐब्रह्मचार्यसानि।(आचार्य बटुकको मंत्रपढकर सफेद वस्त्र धारण करवायें)-"अथैनं माणवकम् आचार्यो वासः परिधापयति।। येनेन्द्रायेति आङ्गिरसऋषिः बृहतीच्छंदः बृहस्पतिर्देवता वासः परिधाने विनियोगः-"ॐ येनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासःपर्यदधादमृतम्। तेनत्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।।(कुमार को आचमन कैसे करना हैं वह सिखाकर आचमन करवायें)-आचमनम्(आचार्य बटुककी कमरमें त्रीरावृत्त और प्रवरके अनुसार ग्रन्थिलगाकर यथोक्त मेखला बंधन मंत्र पढकर करैं)-ततः आचार्यो ब्रह्मचारिणः कटिप्रदेशे यथोक्त मेखलां यथाप्रवरग्रन्थियुतां प्रदक्षिणं त्रिर्वेष्टयित्वा बध्नाति-(इयं दुरुक्तं इत्यस्य वामदेवर्षिः त्रिष्टुप् छंदः मेखला देवता मेखला बंधने विनियोगः-"ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनतीम$आगात्।प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्व सादेवी सुभगा मेखलेयम्।।मेखलेयम्।।
अत्रावसरे आचारात् यज्ञोपवीतदानम्-।।(यज्ञोपवीतसंस्कार धारणकरवाना)-"ततो यज्ञोपवीतपरिधानम्।।(पहलेआचार्य ही (पूर्वाह्नमें बनाया हुआ यज्ञोपवीत)का प्रक्षालन करैं)-"तत्रादौ आचार्येण(आपोहिष्ठेति तिसृणां सिंधुद्वीप ऋषिः गायत्री छंदः आपोदेवता यज्ञोपवीत प्रक्षालने विनियोगः ॐआपोहिष्ठा० ॐजोवः शिवतमो० ॐतस्मा$अरङ्ग०।।इति त्रिभिमन्त्रैर्यज्ञोपवीतं प्रक्षाल्य।(हाथोंका सम्पुटबनाकर दशगायत्रीमंत्रसे अभिमंत्रित करैं)-"करसम्पुटे धृत्वा दशधा गायत्र्या अभिमंत्र्य।।(ब्रह्मविष्णुरुद्र तीनमंत्रों पढकर उपवीतमें अपने हाथका दायाँ अँगुठा प्रदक्षिणरितिसे घूमाईयैं)-"अंगुष्ठं उपवीते भ्रामयेत् एभिर्मन्त्रैः-ॐब्रह्मजज्ञानं०।ॐइदं व्विष्णुर्वि०।ॐ नमस्ते रुद्र०।(अब यज्ञोपवीतके तंतुओंके देवताओंका आवाहन अक्षतसें करैं)-प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छंदः परमात्मादेवता प्रथमतन्तौ ॐकारावाहने विनियोगः-(१)ॐ प्रथमतन्तौ ॐकाराय नमः-ॐकारं आवाहयामि।(२)-अग्निन्दूतमिति मेधातिथिर्ऋषिः गायत्रीछंदः अग्निर्देवता द्वितीयतन्तौ अग्न्यावाहने विनियोगः-ॐअग्निन्दूतं०।द्वितीयतन्तौ अग्नये नमः अग्निं आवाहयामि।(३)नमो$स्तु सर्पेभ्य इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः सर्पा देवताः अनुष्टुप् छंदः तृतीयतन्तौ सर्पावाहने विनियोगः।ॐ नमो$स्तु सर्प्पेब्भ्यो०।तृतीयतन्तौ सर्पेभ्यो नमः सर्पान् आवाहयामि।(४)-वय गूँ सोमेत्यस्य बन्धुर्ऋषिः सोमोदेवता गायत्रीछंदः चतुर्थतन्तौ सोमावाहने विनियोगः।ॐ व्वय गूँ सोम०।चतुर्थतन्तौ सोमाय नमः सोमं आवाहयामि।(५)-उदीरतामित्यस्य शङ्खऋषिः पितरो देवता त्रिष्टुप् छंदः पञ्चमतन्तौ पित्रावाहने विनियोगः।ॐ उदीरतामवर$०।पञ्चमतन्तौ पितृभ्यो नमः पितॄन् आवाहयामि|(६)-प्रजापतेइत्यस्य हिरण्यगर्भ ऋषिः प्रजापतिर्देवता त्रिष्टुप् छंदः षष्ठतन्तौ प्रजापत्यावाहने विनियोगः| ॐप्रजापतेनत्त्व०||षष्ठतन्तौ प्रजापतये नमः प्रजापतिं आवाहयामि|(७)-आनोनियुद्भिरित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः अनिलो देवता त्रिष्टुप् छंदः सप्तमतन्तौ अनिलावाहने विनियोगः| ॐआनोनियुद्भिः०|सप्तमतन्तौ अनिलाय नमः अनिलं आवाहयामि|(८)-सुगावइत्यस्य अत्रिर्ऋषिः गृहपतयो देवता आर्षीत्रिष्टुप् छंदः अष्टमतन्तौ यमावाहने विनियोगः|ॐसुगावोदेवाःसदनाऽ०|अष्टमतन्तौ यमाय नमः यमं आवाहयामि|(९)-विश्वेदेवासऽआगत इत्यस्य मधुच्छन्दा ऋषिः विश्वेदेवा देवताः त्रिष्टुप् छंदः नवमतन्तौ विश्वेषां देवानामावाहने विनियोगः|ॐविश्श्वेदेवासऽ०|नवमतन्तौ विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः विश्वान्देवान् आवाहयामि|(१०)ब्रह्मजज्ञानमित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः ब्रह्मा देवता गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मावाहने विनियोगः| ॐब्रह्मजज्ञानं०|ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणं आवाहयामि|(११)- इदं विष्णुरित्यस्य मेधातिथिर्ऋषिः गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये विष्णवावाहने विनियोगः|ॐइदं व्विष्ण्णु०|ग्रन्थिमध्ये विष्णवे नमः विष्णुं आवाहयामि|(१२)- त्र्यम्बकमित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः रुद्रो देवता अनुष्टुप् छंदः ग्रन्थिमध्ये रुद्रावाहने विनियोगः|ॐ त्र्यम्बकं०| ग्रन्थिमध्ये रुद्राय नमः रुद्रं आवाहयामि|***ध्यानम्*** ॐप्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्| ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्रम्||इति ध्यात्वा||(गंधाक्षतपुष्पसे यज्ञोपवीतका पूजन करैं)-"ॐप्रणवादिनवतंतुदेवता सहित ब्रह्मविष्णुरुद्रेभ्यो नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षत पुष्पाणि समर्पयामि इति सम्पूज्य ||(उदुत्यं०इस मंत्रसे आचार्य सूर्य नारायणको यज्ञोपवीत दिखलायैं- दूसरैं अनुपवीतीओं तथा स्त्रियाँ यज्ञोपवीतका स्पर्श न करैं)-आचार्यो-उदुत्यमिति सूर्याय दर्शयेत्-"उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिः गायत्री छंदः सूर्यो देवता सूर्यावलोकने विनियोगः-"ॐउदुत्त्यञ्जात०|| यज्ञोपवीतमिति परमेष्ठि ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः लिंगोक्ता देवता "श्रौत स्मार्त कर्मानुष्ठान सिद्ध्यर्थे यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः|ॐयज्ञोपवीतं परमं पवित्रं०यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्यत्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि||(दायाँ हाथ अंदर तथा सिरसे बायें कन्धेपर आयें ऐसे यज्ञोपवीत धारण करायैं)-" इतिं मंत्रं पठित्वा दक्षिणबाहुमुद्धृत्य वामस्कंधे यज्ञोपवीतं धारयेत्||(विधिसे आचमन करायें)।
(आचार्य बटुकको उत्तरीयके लिए अजिन धारण करायैं-(अथवा उपवस्त्रका द्वितीय यज्ञोपवीत)।-"अथाचार्यो माणवकस्याजिनं प्रयच्छति।अजिन धारणे मित्रस्य चक्षुरित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता अजिनधारणे विनियोगः।ॐ मित्रस्य चक्षुर्द्धरुणं बलीयस्तेजो यशस्विस्थविर गूँ समिद्धम्। अनाहनस्यं वसनञ्जरिष्णुःपरीदम्वाज्यजिन्दधेहम्।।(विधिसे आचमन करायें)।आचमनम्।"(आचार्य बटुकको यथोक्त काष्ठका दंड प्रदान करैं बटुक दायें हाथसे दंड ग्रहण करैं)"ततः आचार्यो माणवकस्य दंडं प्रयच्छति-"योमेदंड इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः दंडो देवता दंड धारणे विनियोगः।ॐयो मे दंडः परापतद् वैहाय सोधि भूम्याम्। तमहम्पुनरादधाम्यायुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय।।दंडं प्रतिगृह्णामि इति माणवको ब्रूयात्।(आचार्य बटुकको दोनो हाथोसे अंजली बनानेके लिए कहैं तथा आचार्य स्वयं अपने दोनों हाथोकी अंजलीमें जल ग्रहण करकें बटुक की अंजलीमें जल प्रदान करैं।।)"तत आचार्यः स्वांजलिना अद्भिः बटोः अंजलिं पूरयति।(आचार्य आपोहिष्ठा०के तीन मंत्रों क्रमसे पढकर बटुकसे सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करायें)"-आचार्य पठितैस्त्रिभिर्मन्त्रैः माणवकः सूर्याय अर्घत्रयं दद्यात्।ॐ आपोहिष्ठामयो०। श्री सूर्यायनमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।ॐ जोवः शिवतमो०। श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम। ॐ तस्मा$अरङ्ग०।श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।"(आचार्य बटुकको सूर्यनारायणका दर्शन करनेके लिए कहैं।)"ततः आचार्यो माणवकं प्रेषयति "सूर्यं उदीक्षस्व"।"(बटुक सूर्यनारायणका दर्शन करैं)"ततो माणवकः तच्चक्षुरिति सूर्यं पश्यति।तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः उष्णिक् छंदः सूर्यो देवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः।ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं०।(आचार्य अपना दायाँ हाथ बटुकके दायें कन्धेपर हाथ रखकर बटुकके हृदयतक लें जायैं।) "तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिणस्कंधोपरि हस्तं नीत्वा तस्य हृदयं आलभते।। मम व्रतेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः बृहस्पतिर्देवता हृदयालंभने विनियोगः।ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तन्ते$अस्तु। मम वाचमेकमनाजुषस्व बृहस्पतिष्ट्वानियुनक्तु मह्यम्।।"(आचार्य बटुकका दायाँ हाथ पकडकर उन्हैं प्रश्न पुछैं।)"तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिण हस्तं गृहित्वा$$ह।।(को नामासि?-"हे कुमार तेरा क्या नाम हैं?)"। एवं पृष्टे माणवकः प्रत्याह।।(बटुक अपने नामके पीछे शर्मा,वर्मा,गुप्त लगाकर नाम कहैं->अमुक शर्मा अहं भोः।)"। फिरसे आचार्य बटुकको प्रश्न करैं-"पुनराचार्यः पृच्छति माणवकम्"(कस्य ब्रह्मचार्यसि?-आप किसके ब्रह्मचारी हो?)"बटुक आचार्यसे कहैं"(भवतः-मैं आपका ब्रह्मचारी हूं)"इत्युच्यमाने माणवकेन तं प्रत्याचार्यो ब्रूयात्।(बटुकका ऐसा कहनेपर आचार्य बटुकको कहैं-)"इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यस्तवासौ अमुकशर्मन्,वर्मन्,गुप्त।(आप इन्द्रके ब्रह्मचारी हो,अग्नि तेरा आचार्य हैं,और मैं आपका आचार्य हूं-"फिर आचार्य पाँचभूतो के रक्षण हेतु बटुकके शरीरका स्पर्श करैं)"अथैनं माणवकं भूतेभ्यः परिददाति-आचार्यः।यथा-प्रजापतये इत्यादीनां मन्त्राणां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता कुमाररक्षणे विनियोगः।ॐ प्रजापतयेत्वापरिददामि देवायत्वासवित्रे परिददाम्यद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वापरिददामि विश्वेभ्यस्त्वादेवेभ्यः परिददामि सर्वेभ्यस्त्वाभूतेभ्यः परिददाम्यरिष्ट्यै।।इत्याचार्य पठित मन्त्रेण माणवकरक्षणम्।
ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं चरुवर्जं कृत्वा।। जातवेदसनामाग्निं सम्पूज्य।।(बटुकसे उपनयनप्रधान होम करवायें)-"भूर्भुवःस्वरिति महाव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवता उपनयनाङ्ग प्रधान होमे विनियोगः।ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"। ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"। ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम"।ॐत्वन्नो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐसत्त्वनो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐअयाश्चाग्ने०००स्वाहा-इदं अग्नये अयसे न मम। ॐजेतेशतं०००स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐउदुत्तमं०००स्वाहा-इदं वरुणायादित्यादितये च न मम।ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम।ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम्।।
यज्ञोपवीतवेदारम्भौ(४)- (आचार्य बटुकको उपदेश दैं)"-तत आचार्यः कुमारं शिक्षयति।। आचार्यः(ब्रह्मचार्यसि?-आप ब्रह्मचारी हो?)।"बटुक आचार्यसे कहैं-"कुमारः(ब्रह्मचारी भवानि-(आपकी कृपासे)मैं ब्रह्मचारी बनुंगा)"।आचार्यः"(अपो$शान-आचमन करो)।कुमारः"(अशानि-में आचमन कर लेता हूं)। आचार्यः"(कर्मकुरु-अबसे आप वैदिक कर्म करो)।कुमारः"(करवाणि-आपकी कृपासे शयनतक सारे दिन वैदिक कर्म करुंगा)। आचार्यः"(मा दिवा सुषुप्थाः- अबसे आप दिनमें नहीं सोयेंगे)।कुमारः"(न स्वपानि- मैं दिनमें नहीं सोऊंगा)।आचार्यः"(वाचं यच्छ- ऐसा हो तो मुजे वचन दो आप वाणीको नियमनमें रखैंगे और सत्य बोलेंगे)। कुमारः"(यच्छामि- मैं आपको वचन देता हूं-मैं वाणीको नियमनमें रखुंगा और में सत्य बोलुंगा)।आचार्यः"(समिधमाधेहि-अबसे आप अग्निकी उपासनाके लिए समिध धारण करौंगे)।कुमारः"(आदधानि-मैं समिध धारण करुंगा)।आचार्यः"(अपो$शान-आप "किसीभी वैदिक कर्म करनेसे पहले पवित्र बनने"आचमन करैं)। कुमारः"(अशानि-मैं आचमन करुंगा)।(इस बटुकको गायत्री उपदेश देनेके लिए अग्निकी उत्तर में स्त्री तथा कोई दूसरा सुन न पाये ऐसे दूर आसनपर बीठाईए)"।आचार्यो$ग्नेरुत्तरतो प्रत्यङ्गमुखोपविष्टाय पादोपसंग्रहणपूर्वकमुपसन्नाय समीक्षमाणाय समीक्षिताय सावित्रीं ब्रूयात्।अथोपदेशः तत्रादौ(आचार्य-आचारसे कांसीके पात्रमें तंडुल पसारकें तंडुलोंमे सोनेकी शलाकासे अथवा कुशसे ॐकार तीनों व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र लिखै)। आचार्यः आचारात् कांस्यपात्रे तंडुलान्प्रसार्य तत्र सुवर्णशलाकया ॐकार पूर्वकं गायत्रीमंत्रं लिखित्वा)।(बटुक दायें हाथमें जल रखें)-"बटुर्जलं गृहित्वा" अद्येत्यादि० मम ब्रह्मवर्चस सिद्धि पूर्वक वेद अध्ययन अधिकार सिद्धि अर्थं गायत्री उपदेश अंग विहितं गायत्री पूजनं आचार्य पूजनं च करिष्ये।"(पहले गंधाक्षतपुष्पसे गणपतिका पूजन करनें फिरसे दायें हाथमें जल रखें)। तत्रादौ गणपतेः गंधाक्षतपुष्पैः पूजनं करिष्ये।(बटुक अपने हाथमें गंधाक्षतपुष्प रखैं)।ॐ गणानान्त्वा०।। इति मंत्रेण गणपतिं सम्पूज्य।(कांसीके पात्रमें लिखे हुए गायत्रीमंत्रकी प्रतिष्ठा करैं)। अक्षतैः ॐमनोजूति०।। इति गायत्रीं प्रतिष्ठाप्य।।ध्यानम्-मुक्ता विद्रुमहेमनील००।ॐभूर्भुवःस्वः गायत्र्यै नमः इति नाममन्त्रेण लाभोपचारैः संपूज्य।आचार्यं गंधादिभिः पादोपसंग्रहणपूर्वकं च सम्पूज्य। आचार्यः-(१,अस्य श्री ब्रह्मशाप विमोचन मंत्रस्य ब्रह्माऋषिः भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्मशापविमोचनी गायत्रीशक्तिर्देवता गायत्री छंदः ब्रह्मशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः| तां पश्यन्ति धीराः सुमनसा वाचामग्रतः|| ॐवेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि| तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्|| ॐदेवि गायत्री त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव|====
२), अस्य श्री वसिष्ठशाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठऋषिः वसिष्ठानुगृहिता गायत्रीशक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छंदः वसिष्ठशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐसोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः|आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतिरसोऽस्म्यहम् |योनिमुद्रां दर्शयन् त्रीवारं मनसा गायत्रीं जपित्वा-ॐदेवि गायत्री त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव | ====
३), अस्य श्री विश्वामित्रशाप विमोचन मन्त्रस्य नुतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषि विश्वामित्रानुगृहिता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छंदः विश्वामित्रशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः| देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये| यन्मुखान्निःसृतोऽखिलवेदगर्भः|| ॐदेवि गायत्री त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव | इति शापरहिता गायत्रीं कृत्वा)| (सफेद सूतीके वस्त्र से बटुक और आचार्य आच्छादित होकर त्रीपदा गायत्री मंत्रका सार्थ सान्वय उपदेश बटुकको दैं.... जब तक बटुकको पुरा मंत्र शुद्ध मुखपाठ नहीं हो जाता तबतक"( "प्रथमतः पादं पादम्"-पहले एक एक पद करकें," पुनरर्द्धम्"- फिर आधा आधा,"पुनः समग्रं पठेत्"-फिर मुख पाठ करवाँकर पुरा गायत्रीमंत्र कंठस्थ करायैं_)पढातें रहैं |एक एक चरण पढायैं पहला चरण कंठस्थ हो जायैं तो "ॐस्वस्ति" बुलवायैं-फिल दूसरा चरण मुखपाठ हो जानेपर पुनः "ॐस्वस्ति"|तीसरा चरण मुखपाठ हो जाने पर पुनः" ॐस्वस्ति " बुलवायैं| फिर आधा मंत्र मुखपाठ होजाने पर पुनः"ॐस्वस्ति"| फिरसे दूसरा आधा मंत्रान्त पूर्ण हो जानेपर पुनः"ॐस्वस्ति "| पुरा मंत्र मुखपाठ हो जानेपर" ॐस्वस्ति " बुलवायैं_| इति गायत्री उपदेशम् ||
(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।।
अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।। अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।। (बटुक मौन रहते हुए अपने हाथोंके तलवों अग्निपर तपायैं)"-ततः तूष्णीं पाणी प्रतप्य"( बटुक अपने मुख पर तपायायें हुए दौनों तलवोंका स्पर्श करैं इन सात मंत्रो से)-" तनूपा$ग्नेसि इत्यादि सप्तभिर्मन्त्रैः प्रतिमंत्रं मुखविमर्शनं करोति ब्रह्मचारी"-ॐ तनूपा$ग्नेसि तन्वम्मे पाहि।।१।। ॐ आयुर्दा$ग्नेस्यायुर्मे देहि।।२।। ॐ वर्च्चोदा$ग्नेसि वर्च्चो मे देहि।।३।। ॐ अग्ने जन्मे तन्वा$ऊनन्तन्म$आपृेण।।४।। ॐ मेधाम्मे देवः सविता$आदधातु।।५।। ॐ मेधाम्मे देवी सरस्वती$आदधातु।।६।। ॐ मेधामश्विनौदेवा वाधत्तां पुख्करस्रजौ।।७।।"(शिष्ट आचरणके लिए पवित्र अंगादिको रखनेके लिए)"-अत्र शिष्टाचारतो$नुष्ठेयाः पदार्थाः, अङ्गानि च आप्यायताम् इति शिरः प्रभृति पादांत सर्वांगानि आलभते।-"ॐ अंगानि च इत्यादिनां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिंगोक्ता देवता अंगाप्यायने विनियोगः।(बटुक अपने शरीरके अंगोपर दौनों हाथके तलवों का शिरसे पैरतक स्पर्श करैं- सभी अंग परमात्माके कार्योमें लगाने हेतु पवित्र रखना हैं)-ॐ अंगानि च आप्यायताम्"इति सर्वांगानि,-"(पवित्र वाणी रखकर विवेक भाषा का वक्तव्य करने हेतु मुखका स्पर्श)-"ॐ वाक्चम$आप्यायताम् इति मुखे"-(प्राणायामसे शरीरके प्राणोको पवित्र रखने हेतु नासिका का स्पर्श)-"ॐ प्राणश्चम$आप्यायताम् इति नासिकयोः"-(दृष्टि से आँखो की पवित्रता बनाने हेतु आँखोका स्पर्श)-"ॐ चक्षुश्चम$आप्यायताम् इति नेत्रयोः"-(शुभ विचारोंको ही सुनने के लिए दायें कानका स्पर्श)-"ॐ श्रोत्रञ्चम$आप्यायताम्"इति दक्षिण कर्णे -(बायें कानका स्पर्श)ॐश्रोत्रञ्चम$आप्यायताम् इति वामकर्णे"-( निष्कलंक बनने और ब्रह्मचर्यसे ऊर्जा(वीर्य)रक्षण पाने के लिए परमात्मासे प्रार्थना)"-ॐ यशोबलञ्चम$आप्यायताम् इति मंत्रपाठः।। (बटुक अपने बायें हाथमें भस्म लेकर दायें हाथसे मलकर अँगुठेके पासवाली (कनिष्ठिका रहित)तीनों अँगुलीयोंसे शरीरके यथा यथा पाँच स्थानपर भस्म का त्रिपुंड्र धारण करैं)-"ततस्त्रायुखाणि करोति भस्मना"-त्र्यायुखमिति नारायण ऋषिः उष्णिक् छंदः अग्निर्देवता भस्मना त्रिपुंड्र करणे विनियोगः-"( ललाटमें-ॐ त्र्यायुखञ्जमदग्नेः इति ललाटे)"-"(गलेपर-ॐकश्श्यपस्य त्र्यायुखम् इति ग्रीवायां)"-"(दायी और बाई भुजाओंपर-ॐ जद्देवेखु त्र्यायुखम् इति दक्षिणांसे च वामांसे)"-"(हृदयपर-ॐतन्नो$अस्तु त्र्यायुखम् इति हृदि)"त्रिपुंड्रकाणि धारयित्वा।(बटुकको अपने गोत्र के ऋषि, प्रवर,वेद,शाखासे परिचित करवाँकर इन ऋषियों के आदर्श जीवन तथा अपने गृह्यसूत्रोंका स्मरण रखतें हुए अपना जीवन व्यतित करना हैं, बटुक अपना गोत्र तथा शर्मान्त,आदि वर्णविशेष उच्चारण द्वारा आचारसे "दक्षिण पादमालभ्य पाणिना दक्षिणेन च। सव्येन सव्यविष्टभ्य अभिवादन कर्मणि।।याज्ञ्यवल्क्यः।।"अभिवादन करैं -"अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धो$पसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।)"ततो गोत्रनामादि पूर्वकं वैश्वानरादिनाम् अभिवादनम्-" अमुक गोत्रः अमुक शर्मा अहं"(अग्निनारायण को अभिवादन-"भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य "-"( अपने कुलगुरुको-भो गुरो त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(आचार्यको-भो आचार्य त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(माता-पिताको"- भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि)मातापितरौ-आयुष्मान्भव सौम्य"(सूर्य चन्द्रमाको-भो सूर्यचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(सभी ब्राह्मणोंको-सर्वान्ब्राह्मणान् अभिवादयामि)ब्राह्मणाः आयुष्मान्भव सौम्य"-इत्यभिवादनम्।।संध्यावंदनाधिकारो$स्तु।।(नित्य नियमित त्रिकाल संध्यासे रहित न हों इस लिए आचार्य संक्षिप्त संध्या की शिक्षा बटुकको दैं, यहाँ सूत्रोक्त त्रिकाल संध्याके विशेष प्रमुख सूत्रोको अपनायें-(१)भस्मधारणम्,
(२)आचमनम्,(गायत्रीमंत्रसे या (ॐभूर्भुवःस्वः) व्याहृतिसे,
(३)शिखाबन्धनम्,(गायत्रीमंत्रसे),
(४)प्राणायामः
(५)संकल्पःतत्सत् श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं संध्योपासनं करिष्ये,
(६)अभिषेचनम्(गायत्री मंत्रसे),
(७) अर्घ्यदानम्,
(८)उपस्थानम्(गायत्रीमंत्रसे),
(९)गायत्रीमंत्रजपः,
(१०) जप कर्मणा सूर्यनारायणः प्रीयताम्।।
।।अथ भिक्षाचर्यचरणम्।।(भिक्षा लेकर गुरुको समर्पित करकें गुरुसे प्रदत्त शेष भिक्षा ग्रहण करना, ब्रह्मचारीका स्वधर्म होनेसे, वह दण्ड तथा आचार्यसे प्रदत्त भिक्षापात्र लेकर)"-ब्रह्मचारी दण्डं भिक्षापात्रं प्रतिगृह्य।(सावित्री(गायत्री)तथा आदित्यको प्रणाम करकें अग्निकी प्रदक्षिणाकर पहली भिक्षा माता से ग्रहण करैं)-"सावित्र्या सवितारं उपस्थाय अग्निं प्रदक्षिणी कृत्य प्रथमं मातरं भिक्षेत्।।(भिक्षाका अन्न कच्चा ही होना चाहिये चोकलेट,गोली,बरफी,पैंडे नहीं ब्राह्मण द्विजातियोंसे ही भिक्षा ग्रहण करै)भिक्षाद्रव्यं सदैवमामम्।।(भिक्षा की अपेक्षासे ब्राह्मणब्रह्मचारी कहैं)-"ॐ भवति भिक्षां देहि।।दाता ॐस्वस्ति।। प्रतिग्राही ब्रह्मचारी ॐस्वस्ति इति प्रतिवचनम्।इति ब्राह्मणः।।"(क्षत्रिय ब्रह्मचारी स्ववर्ण तथा वैश्यों से ही भिक्षा ग्रहण करैं)"-भिक्षां भवति देहि।। दाता-स्वस्ति।।प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति क्षत्रियः।।(वैश्य वैश्यसे ही भिक्षा ग्रहण करैं)-"भिक्षां देहि भवति।।दाता-स्वस्ति। प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति वैश्यः।। (तीन,छह या बारह अथवा यथेष्ट सद्गृहस्थीओंकी ही भिक्षा ग्रहण करैं।)"-तिस्रः षट् द्वादश वा अपरिमिता भिक्षा ग्राह्याः।(भिक्षामें आया सब कुछ निःशेष आचार्य(गुरु)को निवेदितकर आचार्य(गुरु)की आज्ञासे भिक्षा ब्रह्मचारीको स्वयं भोजन बनाने हेतु ग्रहण करनी चाहिये)-"आचार्याय भैक्ष्यं निवेदयित्वा(भुंक्ष्व"इति आचार्यानुज्ञातो भिक्षां स्वीकुर्यात्।।ब्रह्मचारी-नियमाः-"यावद्व्रतं तावदग्निरक्षणं त्रिरात्रं वा।(जबतक वेदव्रत समाप्तिका समावर्तन संस्कार न हो तबतक यह औपासनाग्निका रक्षण करकें नित्य नियमित सायंकाल और प्रातःकाल (संध्यावंदन करकें)इस अग्निमें ईंधन और समिधादान करतें रहना अथवा तीनरात्रितक अग्निका रक्षण करैं)।"-अत आरभ्य आ ब्रह्मचर्यसमाप्ते र्ब्रह्मचारिणो नियमाः कथ्यन्ते आचार्येण।(आचार्यके कहैं हुए नियमों का ब्रह्मचर्यकी समाप्तितक स्वधर्मसे पालन करैं)। "अधःशयीत।। अक्षारलवणाशीस्यात्।।दंडधारणम्। अग्निपरिचरणं समिदाधानं कर्तव्यम्। गुरुशुश्रुषा कर्तव्या।भिक्षाचर्यं कर्तव्यम्। मधुमांसाशनं कर्तव्यम्।मज्जनं न कर्तव्यम्। पर्यासने नोपविशेत्। स्त्रीणां मध्ये$अवस्थानं न कर्तव्यम्। अदत्तं न गृह्णीयात्। अनृतं न वदेत्। अस्तसमये भास्करावलोकनं न कुर्यात्। कांस्यपात्रे मृण्मयपात्रे(मिट्टीसे बना पात्र थूंक आदिसे उच्छिष्ट होतें हैं)भोजनं न कुर्यात्। तांबूलभक्षणं न कुर्यात्। अभ्यंगं अक्ष्णोःरंजनं उपानच्छत्र- आदर्शं च वर्जयेत्। इति नियमाः।।
पिता हस्ते जलमादाय-"कृतस्य मम पुत्रस्य उपनयनाख्यस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् पंचाशत् संख्याकान् ब्राह्मणान् यथाकाले यथा संपन्नेन अन्नेन अहं भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवताः प्रीयन्ताम् (ब्रह्मभोजन "ब्रह्मार्पण करने वालें ब्राह्मणोंसे ही सम्पन्न होता हैं)।ॐ लंबोदर नमस्तुभ्यं०००।यस्यस्मृत्या०००।। यथा शक्त्या उपनयन विधेः परिपूर्णता$स्तु।।
(आचार्य बटुकको उत्तरीयके लिए अजिन धारण करायैं-(अथवा उपवस्त्रका द्वितीय यज्ञोपवीत)।-"अथाचार्यो माणवकस्याजिनं प्रयच्छति।अजिन धारणे मित्रस्य चक्षुरित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता अजिनधारणे विनियोगः।ॐ मित्रस्य चक्षुर्द्धरुणं बलीयस्तेजो यशस्विस्थविर गूँ समिद्धम्। अनाहनस्यं वसनञ्जरिष्णुःपरीदम्वाज्यजिन्दधेहम्।।(विधिसे आचमन करायें)।आचमनम्।"(आचार्य बटुकको यथोक्त काष्ठका दंड प्रदान करैं बटुक दायें हाथसे दंड ग्रहण करैं)"ततः आचार्यो माणवकस्य दंडं प्रयच्छति-"योमेदंड इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः दंडो देवता दंड धारणे विनियोगः।ॐयो मे दंडः परापतद् वैहाय सोधि भूम्याम्। तमहम्पुनरादधाम्यायुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय।।दंडं प्रतिगृह्णामि इति माणवको ब्रूयात्।(आचार्य बटुकको दोनो हाथोसे अंजली बनानेके लिए कहैं तथा आचार्य स्वयं अपने दोनों हाथोकी अंजलीमें जल ग्रहण करकें बटुक की अंजलीमें जल प्रदान करैं।।)"तत आचार्यः स्वांजलिना अद्भिः बटोः अंजलिं पूरयति।(आचार्य आपोहिष्ठा०के तीन मंत्रों क्रमसे पढकर बटुकसे सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करायें)"-आचार्य पठितैस्त्रिभिर्मन्त्रैः माणवकः सूर्याय अर्घत्रयं दद्यात्।ॐ आपोहिष्ठामयो०। श्री सूर्यायनमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।ॐ जोवः शिवतमो०। श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम। ॐ तस्मा$अरङ्ग०।श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।"(आचार्य बटुकको सूर्यनारायणका दर्शन करनेके लिए कहैं।)"ततः आचार्यो माणवकं प्रेषयति "सूर्यं उदीक्षस्व"।"(बटुक सूर्यनारायणका दर्शन करैं)"ततो माणवकः तच्चक्षुरिति सूर्यं पश्यति।तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः उष्णिक् छंदः सूर्यो देवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः।ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं०।(आचार्य अपना दायाँ हाथ बटुकके दायें कन्धेपर हाथ रखकर बटुकके हृदयतक लें जायैं।) "तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिणस्कंधोपरि हस्तं नीत्वा तस्य हृदयं आलभते।। मम व्रतेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः बृहस्पतिर्देवता हृदयालंभने विनियोगः।ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तन्ते$अस्तु। मम वाचमेकमनाजुषस्व बृहस्पतिष्ट्वानियुनक्तु मह्यम्।।"(आचार्य बटुकका दायाँ हाथ पकडकर उन्हैं प्रश्न पुछैं।)"तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिण हस्तं गृहित्वा$$ह।।(को नामासि?-"हे कुमार तेरा क्या नाम हैं?)"। एवं पृष्टे माणवकः प्रत्याह।।(बटुक अपने नामके पीछे शर्मा,वर्मा,गुप्त लगाकर नाम कहैं->अमुक शर्मा अहं भोः।)"। फिरसे आचार्य बटुकको प्रश्न करैं-"पुनराचार्यः पृच्छति माणवकम्"(कस्य ब्रह्मचार्यसि?-आप किसके ब्रह्मचारी हो?)"बटुक आचार्यसे कहैं"(भवतः-मैं आपका ब्रह्मचारी हूं)"इत्युच्यमाने माणवकेन तं प्रत्याचार्यो ब्रूयात्।(बटुकका ऐसा कहनेपर आचार्य बटुकको कहैं-)"इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यस्तवासौ अमुकशर्मन्,वर्मन्,गुप्त।(आप इन्द्रके ब्रह्मचारी हो,अग्नि तेरा आचार्य हैं,और मैं आपका आचार्य हूं-"फिर आचार्य पाँचभूतो के रक्षण हेतु बटुकके शरीरका स्पर्श करैं)"अथैनं माणवकं भूतेभ्यः परिददाति-आचार्यः।यथा-प्रजापतये इत्यादीनां मन्त्राणां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता कुमाररक्षणे विनियोगः।ॐ प्रजापतयेत्वापरिददामि देवायत्वासवित्रे परिददाम्यद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वापरिददामि विश्वेभ्यस्त्वादेवेभ्यः परिददामि सर्वेभ्यस्त्वाभूतेभ्यः परिददाम्यरिष्ट्यै।।इत्याचार्य पठित मन्त्रेण माणवकरक्षणम्।
ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं चरुवर्जं कृत्वा।। जातवेदसनामाग्निं सम्पूज्य।।(बटुकसे उपनयनप्रधान होम करवायें)-"भूर्भुवःस्वरिति महाव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवता उपनयनाङ्ग प्रधान होमे विनियोगः।ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"। ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"। ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम"।ॐत्वन्नो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐसत्त्वनो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐअयाश्चाग्ने०००स्वाहा-इदं अग्नये अयसे न मम। ॐजेतेशतं०००स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐउदुत्तमं०००स्वाहा-इदं वरुणायादित्यादितये च न मम।ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम।ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम्।।
यज्ञोपवीतवेदारम्भौ(४)- (आचार्य बटुकको उपदेश दैं)"-तत आचार्यः कुमारं शिक्षयति।। आचार्यः(ब्रह्मचार्यसि?-आप ब्रह्मचारी हो?)।"बटुक आचार्यसे कहैं-"कुमारः(ब्रह्मचारी भवानि-(आपकी कृपासे)मैं ब्रह्मचारी बनुंगा)"।आचार्यः"(अपो$शान-आचमन करो)।कुमारः"(अशानि-में आचमन कर लेता हूं)। आचार्यः"(कर्मकुरु-अबसे आप वैदिक कर्म करो)।कुमारः"(करवाणि-आपकी कृपासे शयनतक सारे दिन वैदिक कर्म करुंगा)। आचार्यः"(मा दिवा सुषुप्थाः- अबसे आप दिनमें नहीं सोयेंगे)।कुमारः"(न स्वपानि- मैं दिनमें नहीं सोऊंगा)।आचार्यः"(वाचं यच्छ- ऐसा हो तो मुजे वचन दो आप वाणीको नियमनमें रखैंगे और सत्य बोलेंगे)। कुमारः"(यच्छामि- मैं आपको वचन देता हूं-मैं वाणीको नियमनमें रखुंगा और में सत्य बोलुंगा)।आचार्यः"(समिधमाधेहि-अबसे आप अग्निकी उपासनाके लिए समिध धारण करौंगे)।कुमारः"(आदधानि-मैं समिध धारण करुंगा)।आचार्यः"(अपो$शान-आप "किसीभी वैदिक कर्म करनेसे पहले पवित्र बनने"आचमन करैं)। कुमारः"(अशानि-मैं आचमन करुंगा)।(इस बटुकको गायत्री उपदेश देनेके लिए अग्निकी उत्तर में स्त्री तथा कोई दूसरा सुन न पाये ऐसे दूर आसनपर बीठाईए)"।आचार्यो$ग्नेरुत्तरतो प्रत्यङ्गमुखोपविष्टाय पादोपसंग्रहणपूर्वकमुपसन्नाय समीक्षमाणाय समीक्षिताय सावित्रीं ब्रूयात्।अथोपदेशः तत्रादौ(आचार्य-आचारसे कांसीके पात्रमें तंडुल पसारकें तंडुलोंमे सोनेकी शलाकासे अथवा कुशसे ॐकार तीनों व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र लिखै)। आचार्यः आचारात् कांस्यपात्रे तंडुलान्प्रसार्य तत्र सुवर्णशलाकया ॐकार पूर्वकं गायत्रीमंत्रं लिखित्वा)।(बटुक दायें हाथमें जल रखें)-"बटुर्जलं गृहित्वा" अद्येत्यादि० मम ब्रह्मवर्चस सिद्धि पूर्वक वेद अध्ययन अधिकार सिद्धि अर्थं गायत्री उपदेश अंग विहितं गायत्री पूजनं आचार्य पूजनं च करिष्ये।"(पहले गंधाक्षतपुष्पसे गणपतिका पूजन करनें फिरसे दायें हाथमें जल रखें)। तत्रादौ गणपतेः गंधाक्षतपुष्पैः पूजनं करिष्ये।(बटुक अपने हाथमें गंधाक्षतपुष्प रखैं)।ॐ गणानान्त्वा०।। इति मंत्रेण गणपतिं सम्पूज्य।(कांसीके पात्रमें लिखे हुए गायत्रीमंत्रकी प्रतिष्ठा करैं)। अक्षतैः ॐमनोजूति०।। इति गायत्रीं प्रतिष्ठाप्य।।ध्यानम्-मुक्ता विद्रुमहेमनील००।ॐभूर्भुवःस्वः गायत्र्यै नमः इति नाममन्त्रेण लाभोपचारैः संपूज्य।आचार्यं गंधादिभिः पादोपसंग्रहणपूर्वकं च सम्पूज्य। आचार्यः-(१,अस्य श्री ब्रह्मशाप विमोचन मंत्रस्य ब्रह्माऋषिः भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्मशापविमोचनी गायत्रीशक्तिर्देवता गायत्री छंदः ब्रह्मशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः| तां पश्यन्ति धीराः सुमनसा वाचामग्रतः|| ॐवेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि| तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्|| ॐदेवि गायत्री त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव|====
२), अस्य श्री वसिष्ठशाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठऋषिः वसिष्ठानुगृहिता गायत्रीशक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छंदः वसिष्ठशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐसोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः|आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतिरसोऽस्म्यहम् |योनिमुद्रां दर्शयन् त्रीवारं मनसा गायत्रीं जपित्वा-ॐदेवि गायत्री त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव | ====
३), अस्य श्री विश्वामित्रशाप विमोचन मन्त्रस्य नुतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषि विश्वामित्रानुगृहिता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छंदः विश्वामित्रशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः| देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये| यन्मुखान्निःसृतोऽखिलवेदगर्भः|| ॐदेवि गायत्री त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव | इति शापरहिता गायत्रीं कृत्वा)| (सफेद सूतीके वस्त्र से बटुक और आचार्य आच्छादित होकर त्रीपदा गायत्री मंत्रका सार्थ सान्वय उपदेश बटुकको दैं.... जब तक बटुकको पुरा मंत्र शुद्ध मुखपाठ नहीं हो जाता तबतक"( "प्रथमतः पादं पादम्"-पहले एक एक पद करकें," पुनरर्द्धम्"- फिर आधा आधा,"पुनः समग्रं पठेत्"-फिर मुख पाठ करवाँकर पुरा गायत्रीमंत्र कंठस्थ करायैं_)पढातें रहैं |एक एक चरण पढायैं पहला चरण कंठस्थ हो जायैं तो "ॐस्वस्ति" बुलवायैं-फिल दूसरा चरण मुखपाठ हो जानेपर पुनः "ॐस्वस्ति"|तीसरा चरण मुखपाठ हो जाने पर पुनः" ॐस्वस्ति " बुलवायैं| फिर आधा मंत्र मुखपाठ होजाने पर पुनः"ॐस्वस्ति"| फिरसे दूसरा आधा मंत्रान्त पूर्ण हो जानेपर पुनः"ॐस्वस्ति "| पुरा मंत्र मुखपाठ हो जानेपर" ॐस्वस्ति " बुलवायैं_| इति गायत्री उपदेशम् ||
(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।।
अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।। अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।। (बटुक मौन रहते हुए अपने हाथोंके तलवों अग्निपर तपायैं)"-ततः तूष्णीं पाणी प्रतप्य"( बटुक अपने मुख पर तपायायें हुए दौनों तलवोंका स्पर्श करैं इन सात मंत्रो से)-" तनूपा$ग्नेसि इत्यादि सप्तभिर्मन्त्रैः प्रतिमंत्रं मुखविमर्शनं करोति ब्रह्मचारी"-ॐ तनूपा$ग्नेसि तन्वम्मे पाहि।।१।। ॐ आयुर्दा$ग्नेस्यायुर्मे देहि।।२।। ॐ वर्च्चोदा$ग्नेसि वर्च्चो मे देहि।।३।। ॐ अग्ने जन्मे तन्वा$ऊनन्तन्म$आपृेण।।४।। ॐ मेधाम्मे देवः सविता$आदधातु।।५।। ॐ मेधाम्मे देवी सरस्वती$आदधातु।।६।। ॐ मेधामश्विनौदेवा वाधत्तां पुख्करस्रजौ।।७।।"(शिष्ट आचरणके लिए पवित्र अंगादिको रखनेके लिए)"-अत्र शिष्टाचारतो$नुष्ठेयाः पदार्थाः, अङ्गानि च आप्यायताम् इति शिरः प्रभृति पादांत सर्वांगानि आलभते।-"ॐ अंगानि च इत्यादिनां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिंगोक्ता देवता अंगाप्यायने विनियोगः।(बटुक अपने शरीरके अंगोपर दौनों हाथके तलवों का शिरसे पैरतक स्पर्श करैं- सभी अंग परमात्माके कार्योमें लगाने हेतु पवित्र रखना हैं)-ॐ अंगानि च आप्यायताम्"इति सर्वांगानि,-"(पवित्र वाणी रखकर विवेक भाषा का वक्तव्य करने हेतु मुखका स्पर्श)-"ॐ वाक्चम$आप्यायताम् इति मुखे"-(प्राणायामसे शरीरके प्राणोको पवित्र रखने हेतु नासिका का स्पर्श)-"ॐ प्राणश्चम$आप्यायताम् इति नासिकयोः"-(दृष्टि से आँखो की पवित्रता बनाने हेतु आँखोका स्पर्श)-"ॐ चक्षुश्चम$आप्यायताम् इति नेत्रयोः"-(शुभ विचारोंको ही सुनने के लिए दायें कानका स्पर्श)-"ॐ श्रोत्रञ्चम$आप्यायताम्"इति दक्षिण कर्णे -(बायें कानका स्पर्श)ॐश्रोत्रञ्चम$आप्यायताम् इति वामकर्णे"-( निष्कलंक बनने और ब्रह्मचर्यसे ऊर्जा(वीर्य)रक्षण पाने के लिए परमात्मासे प्रार्थना)"-ॐ यशोबलञ्चम$आप्यायताम् इति मंत्रपाठः।। (बटुक अपने बायें हाथमें भस्म लेकर दायें हाथसे मलकर अँगुठेके पासवाली (कनिष्ठिका रहित)तीनों अँगुलीयोंसे शरीरके यथा यथा पाँच स्थानपर भस्म का त्रिपुंड्र धारण करैं)-"ततस्त्रायुखाणि करोति भस्मना"-त्र्यायुखमिति नारायण ऋषिः उष्णिक् छंदः अग्निर्देवता भस्मना त्रिपुंड्र करणे विनियोगः-"( ललाटमें-ॐ त्र्यायुखञ्जमदग्नेः इति ललाटे)"-"(गलेपर-ॐकश्श्यपस्य त्र्यायुखम् इति ग्रीवायां)"-"(दायी और बाई भुजाओंपर-ॐ जद्देवेखु त्र्यायुखम् इति दक्षिणांसे च वामांसे)"-"(हृदयपर-ॐतन्नो$अस्तु त्र्यायुखम् इति हृदि)"त्रिपुंड्रकाणि धारयित्वा।(बटुकको अपने गोत्र के ऋषि, प्रवर,वेद,शाखासे परिचित करवाँकर इन ऋषियों के आदर्श जीवन तथा अपने गृह्यसूत्रोंका स्मरण रखतें हुए अपना जीवन व्यतित करना हैं, बटुक अपना गोत्र तथा शर्मान्त,आदि वर्णविशेष उच्चारण द्वारा आचारसे "दक्षिण पादमालभ्य पाणिना दक्षिणेन च। सव्येन सव्यविष्टभ्य अभिवादन कर्मणि।।याज्ञ्यवल्क्यः।।"अभिवादन करैं -"अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धो$पसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।)"ततो गोत्रनामादि पूर्वकं वैश्वानरादिनाम् अभिवादनम्-" अमुक गोत्रः अमुक शर्मा अहं"(अग्निनारायण को अभिवादन-"भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य "-"( अपने कुलगुरुको-भो गुरो त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(आचार्यको-भो आचार्य त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(माता-पिताको"- भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि)मातापितरौ-आयुष्मान्भव सौम्य"(सूर्य चन्द्रमाको-भो सूर्यचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(सभी ब्राह्मणोंको-सर्वान्ब्राह्मणान् अभिवादयामि)ब्राह्मणाः आयुष्मान्भव सौम्य"-इत्यभिवादनम्।।संध्यावंदनाधिकारो$स्तु।।(नित्य नियमित त्रिकाल संध्यासे रहित न हों इस लिए आचार्य संक्षिप्त संध्या की शिक्षा बटुकको दैं, यहाँ सूत्रोक्त त्रिकाल संध्याके विशेष प्रमुख सूत्रोको अपनायें-(१)भस्मधारणम्,
(२)आचमनम्,(गायत्रीमंत्रसे या (ॐभूर्भुवःस्वः) व्याहृतिसे,
(३)शिखाबन्धनम्,(गायत्रीमंत्रसे),
(४)प्राणायामः
(५)संकल्पःतत्सत् श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं संध्योपासनं करिष्ये,
(६)अभिषेचनम्(गायत्री मंत्रसे),
(७) अर्घ्यदानम्,
(८)उपस्थानम्(गायत्रीमंत्रसे),
(९)गायत्रीमंत्रजपः,
(१०) जप कर्मणा सूर्यनारायणः प्रीयताम्।।
।।अथ भिक्षाचर्यचरणम्।।(भिक्षा लेकर गुरुको समर्पित करकें गुरुसे प्रदत्त शेष भिक्षा ग्रहण करना, ब्रह्मचारीका स्वधर्म होनेसे, वह दण्ड तथा आचार्यसे प्रदत्त भिक्षापात्र लेकर)"-ब्रह्मचारी दण्डं भिक्षापात्रं प्रतिगृह्य।(सावित्री(गायत्री)तथा आदित्यको प्रणाम करकें अग्निकी प्रदक्षिणाकर पहली भिक्षा माता से ग्रहण करैं)-"सावित्र्या सवितारं उपस्थाय अग्निं प्रदक्षिणी कृत्य प्रथमं मातरं भिक्षेत्।।(भिक्षाका अन्न कच्चा ही होना चाहिये चोकलेट,गोली,बरफी,पैंडे नहीं ब्राह्मण द्विजातियोंसे ही भिक्षा ग्रहण करै)भिक्षाद्रव्यं सदैवमामम्।।(भिक्षा की अपेक्षासे ब्राह्मणब्रह्मचारी कहैं)-"ॐ भवति भिक्षां देहि।।दाता ॐस्वस्ति।। प्रतिग्राही ब्रह्मचारी ॐस्वस्ति इति प्रतिवचनम्।इति ब्राह्मणः।।"(क्षत्रिय ब्रह्मचारी स्ववर्ण तथा वैश्यों से ही भिक्षा ग्रहण करैं)"-भिक्षां भवति देहि।। दाता-स्वस्ति।।प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति क्षत्रियः।।(वैश्य वैश्यसे ही भिक्षा ग्रहण करैं)-"भिक्षां देहि भवति।।दाता-स्वस्ति। प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति वैश्यः।। (तीन,छह या बारह अथवा यथेष्ट सद्गृहस्थीओंकी ही भिक्षा ग्रहण करैं।)"-तिस्रः षट् द्वादश वा अपरिमिता भिक्षा ग्राह्याः।(भिक्षामें आया सब कुछ निःशेष आचार्य(गुरु)को निवेदितकर आचार्य(गुरु)की आज्ञासे भिक्षा ब्रह्मचारीको स्वयं भोजन बनाने हेतु ग्रहण करनी चाहिये)-"आचार्याय भैक्ष्यं निवेदयित्वा(भुंक्ष्व"इति आचार्यानुज्ञातो भिक्षां स्वीकुर्यात्।।ब्रह्मचारी-नियमाः-"यावद्व्रतं तावदग्निरक्षणं त्रिरात्रं वा।(जबतक वेदव्रत समाप्तिका समावर्तन संस्कार न हो तबतक यह औपासनाग्निका रक्षण करकें नित्य नियमित सायंकाल और प्रातःकाल (संध्यावंदन करकें)इस अग्निमें ईंधन और समिधादान करतें रहना अथवा तीनरात्रितक अग्निका रक्षण करैं)।"-अत आरभ्य आ ब्रह्मचर्यसमाप्ते र्ब्रह्मचारिणो नियमाः कथ्यन्ते आचार्येण।(आचार्यके कहैं हुए नियमों का ब्रह्मचर्यकी समाप्तितक स्वधर्मसे पालन करैं)। "अधःशयीत।। अक्षारलवणाशीस्यात्।।दंडधारणम्। अग्निपरिचरणं समिदाधानं कर्तव्यम्। गुरुशुश्रुषा कर्तव्या।भिक्षाचर्यं कर्तव्यम्। मधुमांसाशनं कर्तव्यम्।मज्जनं न कर्तव्यम्। पर्यासने नोपविशेत्। स्त्रीणां मध्ये$अवस्थानं न कर्तव्यम्। अदत्तं न गृह्णीयात्। अनृतं न वदेत्। अस्तसमये भास्करावलोकनं न कुर्यात्। कांस्यपात्रे मृण्मयपात्रे(मिट्टीसे बना पात्र थूंक आदिसे उच्छिष्ट होतें हैं)भोजनं न कुर्यात्। तांबूलभक्षणं न कुर्यात्। अभ्यंगं अक्ष्णोःरंजनं उपानच्छत्र- आदर्शं च वर्जयेत्। इति नियमाः।।
पिता हस्ते जलमादाय-"कृतस्य मम पुत्रस्य उपनयनाख्यस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् पंचाशत् संख्याकान् ब्राह्मणान् यथाकाले यथा संपन्नेन अन्नेन अहं भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवताः प्रीयन्ताम् (ब्रह्मभोजन "ब्रह्मार्पण करने वालें ब्राह्मणोंसे ही सम्पन्न होता हैं)।ॐ लंबोदर नमस्तुभ्यं०००।यस्यस्मृत्या०००।। यथा शक्त्या उपनयन विधेः परिपूर्णता$स्तु।।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
#स_पवित्रेण_हस्तेन_कुर्यादाचमन_क्रियाम् | #नोच्छिष्टं_तत्पवित्रं_तु_भुक्तोच्छिष्टं_तु_संत्यजेत् ||
कुशसे बनी पवित्री धारण करके ही आचमन विधि करें,वह पवित्री जूठी नहीं होनी चाहिये,भोजन के बाद कुशसे बनी पवित्री का शुद्ध जगहपर त्याग करना चाहिये |
#सहितांगुलिना_तोयं_गृहित्वा_पाणिना_द्विजः | #मुक्तांगुष्ठकनिष्ठेण_शेषेणाचमनं_चरेत् ||
हाथ की अंगुलीयाँ के सहित हाथकी अंजली में जल आ जायँ ऐसे तथा कनिष्ठिका और अंगूठा खूला रखकर शेष अंगुलीयाँ सीधे रखकर द्विजों को आचमन करना चाहिये.
#माषमात्र_सुवर्णस्य_यत्र_मज्जन्ति_वै_मणिः | #एतदाचमनं_प्रोक्तं_पवित्रं_काय_शोधनम् ||
कुशसे बनी पवित्री धारण करके ही आचमन विधि करें,वह पवित्री जूठी नहीं होनी चाहिये,भोजन के बाद कुशसे बनी पवित्री का शुद्ध जगहपर त्याग करना चाहिये |
#सहितांगुलिना_तोयं_गृहित्वा_पाणिना_द्विजः | #मुक्तांगुष्ठकनिष्ठेण_शेषेणाचमनं_चरेत् ||
हाथ की अंगुलीयाँ के सहित हाथकी अंजली में जल आ जायँ ऐसे तथा कनिष्ठिका और अंगूठा खूला रखकर शेष अंगुलीयाँ सीधे रखकर द्विजों को आचमन करना चाहिये.
#माषमात्र_सुवर्णस्य_यत्र_मज्जन्ति_वै_मणिः | #एतदाचमनं_प्रोक्तं_पवित्रं_काय_शोधनम् ||
माष(दशार्घगुजं प्रवदन्ति माषम् ) ढाई ग्राम सुवर्णका मणि डूब जाय इतना पवित्र जल लेकर आचमन करने से शरीर शुद्ध होता हैं |
@ (अपः पाणि नखे स्पृट्वा आचामेद्यस्तु वै द्विजः | सुरापानेन तत्तुल्यमित्येवमृषिरब्रवीत् ||)
हाथसे या नाखुन से स्पर्श किये हुए जल से आचमन करने से सुरापान समान हो जाता हैं ऐसा ऋषियों का कथन हैं |
@ (पादप्रक्षालन शेषेण नाचामेद्वारिणा द्विजः | शुद्धाभावे पिबेत् किंचित् त्यक्त्वा भूमौ तु तज्जलम् ||)
पैर धुले हुए शेष जल से आचमन नहीं करना चाहिये, यदि शुद्घ जल का अभाव हो तो उसी जल में से थोडासा जल भूमी पर छोड़कर आचमन कर सकतें हैं |
हाथसे या नाखुन से स्पर्श किये हुए जल से आचमन करने से सुरापान समान हो जाता हैं ऐसा ऋषियों का कथन हैं |
@ (पादप्रक्षालन शेषेण नाचामेद्वारिणा द्विजः | शुद्धाभावे पिबेत् किंचित् त्यक्त्वा भूमौ तु तज्जलम् ||)
पैर धुले हुए शेष जल से आचमन नहीं करना चाहिये, यदि शुद्घ जल का अभाव हो तो उसी जल में से थोडासा जल भूमी पर छोड़कर आचमन कर सकतें हैं |
@(द्वयंगुलं मूलवलयं ग्रन्थिरेकांगुलो भवेत् | चतुरंगुलमग्रं स्यात्पवित्रं स्यात्प्रमाणतः || )
दो अँगुल के छीद्र और चार अंगुलका अग्रभाग छोड कर एक अंगुलकी ग्रन्थि लगाने से कुश पवित्री बनती हैं |
@(चतुर्दर्भ पिंजूलै र्ब्राह्मणस्य पवित्रकम् | सर्वेषां वा भवेद् द्वाभ्यां पवित्रं ग्रन्थितं न वा ||)
चार कुशों की पवित्री ब्राह्मण के लिए,तथा सभी के लिए दो दो कुशों की ग्रन्थि लगाकर पवित्री बनानी चाहिये..
@(द्विरावृत्याथ मध्ये वै अर्धवृत्यान्तदेशतः | ग्रन्थि प्रदक्षिणावर्ति सा ग्रन्थि ब्रह्म सूचकः ||)
कुशों के अग्रभाग को सीधे रखकर कुशमध्यमें दो अँगुली रखकर मूलोंसे कुशाग्रोंको लपैटकर दोबार छीद्रों के अन्तरावर्ति तथा बहार कुशमूलों को लाकर कुशाग्रोंसे मीलाकर ग्रन्थि लगाने से ब्रह्मग्रन्थि होंगी |
@ (अनामिकामूल देशे पवित्रं धारयेत् द्विजः || )
अनामिका अँगुली की जड़ में पवित्री को धारण करना चाहिये..
@(माषाणां षोडशादूर्ध्वं कुर्याद्धेम पवित्रकम् | तेभ्यः स्वल्पतरं न्यूनं न कुर्वीत कदाचन || हीन कर्मणि चोच्छिष्टे कुशधृत पवित्रकम् | निर्माल्यं तत्र संप्राप्तं न तु हेम्नः पवित्रके ||)
कमसे कम ४ ग्राम सुवर्ण से अथवा इससे ज्यादा सुवर्ण की सोनेकी अँगूठी बनायें,(४ग्राम)इससे कम मान की अँगूठी कभी भी नहीं बनवानी चाहिये | हीन कर्मों में धारण की हुई कुशपवित्री जूठी हो जाती हैं परंतु सोनेकी पवित्री अपवित्र नहीं होतीं अतः इसका त्याग करना उचित नहीं |
#कात्यायन_परिशिष्ट--->
प्रतिदिन हाथ पैर धोकर,शिखा बाँधकर एकान्त एवं पवित्र स्थान में पूरब या उत्तर मुँह बैठकर,दोनों घुटनों के बीच हाथों को रखकर पवित्र जलसे आचमन करें |फेनिल या बुलबुले वाले पानी से आचमन न करें | अलग अलग होठों सें,विरल अँगुलीयों से, खडे खडे या हँसते हुए आचमन कदापि न करें |
(प्रक्षालितपाणिपादः शुचौ देश उपविश्य नित्यं बद्धशिखी यज्ञोपवीती प्राङ्गमुखो वा भूत्वा जान्वोर्मध्ये करौ कृत्वाऽशूद्रानीतोदकैर्द्विजातयो यथाक्रमं हृत्कंठतालुगैराचामन्ति | न तद्भिन्नोष्ठेन न विरलाङ्गुलिभिर्न तिष्ठन्नैव हसन्नापि फेनबुद्बुद्यनतम् |कात्यायन परि०) ||
दो अँगुल के छीद्र और चार अंगुलका अग्रभाग छोड कर एक अंगुलकी ग्रन्थि लगाने से कुश पवित्री बनती हैं |
@(चतुर्दर्भ पिंजूलै र्ब्राह्मणस्य पवित्रकम् | सर्वेषां वा भवेद् द्वाभ्यां पवित्रं ग्रन्थितं न वा ||)
चार कुशों की पवित्री ब्राह्मण के लिए,तथा सभी के लिए दो दो कुशों की ग्रन्थि लगाकर पवित्री बनानी चाहिये..
@(द्विरावृत्याथ मध्ये वै अर्धवृत्यान्तदेशतः | ग्रन्थि प्रदक्षिणावर्ति सा ग्रन्थि ब्रह्म सूचकः ||)
कुशों के अग्रभाग को सीधे रखकर कुशमध्यमें दो अँगुली रखकर मूलोंसे कुशाग्रोंको लपैटकर दोबार छीद्रों के अन्तरावर्ति तथा बहार कुशमूलों को लाकर कुशाग्रोंसे मीलाकर ग्रन्थि लगाने से ब्रह्मग्रन्थि होंगी |
@ (अनामिकामूल देशे पवित्रं धारयेत् द्विजः || )
अनामिका अँगुली की जड़ में पवित्री को धारण करना चाहिये..
@(माषाणां षोडशादूर्ध्वं कुर्याद्धेम पवित्रकम् | तेभ्यः स्वल्पतरं न्यूनं न कुर्वीत कदाचन || हीन कर्मणि चोच्छिष्टे कुशधृत पवित्रकम् | निर्माल्यं तत्र संप्राप्तं न तु हेम्नः पवित्रके ||)
कमसे कम ४ ग्राम सुवर्ण से अथवा इससे ज्यादा सुवर्ण की सोनेकी अँगूठी बनायें,(४ग्राम)इससे कम मान की अँगूठी कभी भी नहीं बनवानी चाहिये | हीन कर्मों में धारण की हुई कुशपवित्री जूठी हो जाती हैं परंतु सोनेकी पवित्री अपवित्र नहीं होतीं अतः इसका त्याग करना उचित नहीं |
#कात्यायन_परिशिष्ट--->
प्रतिदिन हाथ पैर धोकर,शिखा बाँधकर एकान्त एवं पवित्र स्थान में पूरब या उत्तर मुँह बैठकर,दोनों घुटनों के बीच हाथों को रखकर पवित्र जलसे आचमन करें |फेनिल या बुलबुले वाले पानी से आचमन न करें | अलग अलग होठों सें,विरल अँगुलीयों से, खडे खडे या हँसते हुए आचमन कदापि न करें |
(प्रक्षालितपाणिपादः शुचौ देश उपविश्य नित्यं बद्धशिखी यज्ञोपवीती प्राङ्गमुखो वा भूत्वा जान्वोर्मध्ये करौ कृत्वाऽशूद्रानीतोदकैर्द्विजातयो यथाक्रमं हृत्कंठतालुगैराचामन्ति | न तद्भिन्नोष्ठेन न विरलाङ्गुलिभिर्न तिष्ठन्नैव हसन्नापि फेनबुद्बुद्यनतम् |कात्यायन परि०) ||
अंगूठे के मूल से तीन बार आचमन करें,दो बार उसे धोकर साफ करें--> (ब्रह्मतीर्थेन त्रिः पिबेत् द्विः परिमृजेत् )) |
हाथ में रहने वालें तीर्थ---> ब्राह्मणों के दाहिने हाथ में पाँच तीर्थों का वास हैं | (१)अङ्गुठे की जड़ में "ब्रह्मतीर्थ" (२) कनिष्ठिका की जड़ में "प्रजापति तीर्थ" (३) तर्जनी और अँगूठे के बीच के भाग में "पितृतीर्थ" (४) अँगुलीयों के अगले भाग में "देवतीर्थ" और (५) हाथ के बीच में "अग्नितीर्थ" हैं | ------>
{ ब्राह्मणस्य दक्षिणहस्ते पञ्चतीर्थानि भवन्ति ---> (१)अङ्गुष्ठमूले ब्रह्मतीर्थं, (२) कनिष्ठिकाङ्गुलिमूले प्रजापतितीर्थं (३) तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमूले पितृतीर्थं (४) अङ्ंगुल्यग्रे देवतीर्थं (५) मध्येऽग्नितीर्थमित्येतानि तीर्थानि भवन्ति ||कात्या०परि०शौ-सू २||)
==========================================
पहली बार आचमन का जल पीने से ऋग्वेद प्रसन्न होतें हैं | दूसरी बार जल पीने से यजुर्वेद प्रसन्न होतें हैं | तीसरी बार जल पीने से सामवेद प्रसन्न होतें हैं | यदि चौथी बार जल पीया जायँ तो अथर्ववेद,इतिहास और पुराण प्रसन्न होतें हैं |अँगुलियों से पानी चुआने पर नाग,यक्ष,कुबेर और सभी वेद प्रसन्न होतें हैं --->
{प्रथमं यत्पिबति तेन ऋग्वेदं प्रीणाति द्वितीयं यत्पिबति तेन यजुर्वेदं प्रीणाति तृतीयं यत्पिबति तेन सामवेदं प्रीणाति चतुर्थं यदि पिबेत् तेनाथर्ववेदेतिहासपुराणानि प्रीणन्ति यदङ्गुलिभ्यः स्रवति तेन नागयक्षकुबेराः सर्वे वेदाः प्रीणन्ति ||कात्या०परि०शौ०सू ३||}
हाथ में रहने वालें तीर्थ---> ब्राह्मणों के दाहिने हाथ में पाँच तीर्थों का वास हैं | (१)अङ्गुठे की जड़ में "ब्रह्मतीर्थ" (२) कनिष्ठिका की जड़ में "प्रजापति तीर्थ" (३) तर्जनी और अँगूठे के बीच के भाग में "पितृतीर्थ" (४) अँगुलीयों के अगले भाग में "देवतीर्थ" और (५) हाथ के बीच में "अग्नितीर्थ" हैं | ------>
{ ब्राह्मणस्य दक्षिणहस्ते पञ्चतीर्थानि भवन्ति ---> (१)अङ्गुष्ठमूले ब्रह्मतीर्थं, (२) कनिष्ठिकाङ्गुलिमूले प्रजापतितीर्थं (३) तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमूले पितृतीर्थं (४) अङ्ंगुल्यग्रे देवतीर्थं (५) मध्येऽग्नितीर्थमित्येतानि तीर्थानि भवन्ति ||कात्या०परि०शौ-सू २||)
==========================================
पहली बार आचमन का जल पीने से ऋग्वेद प्रसन्न होतें हैं | दूसरी बार जल पीने से यजुर्वेद प्रसन्न होतें हैं | तीसरी बार जल पीने से सामवेद प्रसन्न होतें हैं | यदि चौथी बार जल पीया जायँ तो अथर्ववेद,इतिहास और पुराण प्रसन्न होतें हैं |अँगुलियों से पानी चुआने पर नाग,यक्ष,कुबेर और सभी वेद प्रसन्न होतें हैं --->
{प्रथमं यत्पिबति तेन ऋग्वेदं प्रीणाति द्वितीयं यत्पिबति तेन यजुर्वेदं प्रीणाति तृतीयं यत्पिबति तेन सामवेदं प्रीणाति चतुर्थं यदि पिबेत् तेनाथर्ववेदेतिहासपुराणानि प्रीणन्ति यदङ्गुलिभ्यः स्रवति तेन नागयक्षकुबेराः सर्वे वेदाः प्रीणन्ति ||कात्या०परि०शौ०सू ३||}
आचमनम्-- ॐभूःऋग्वेदाय नमः / ॐ भुवः यजुर्वेदाय नमः/ ॐ स्वः सामवेदाय नमः/ ॐभूर्भुवःस्वः अथर्वेदेतिहासपुराणेभ्यो नमः ||
हस्तप्रक्षालनम् --- ॐ नागयक्षकुबेरवेदेभ्यो नमः ||
पैरों पर जल का अभ्युक्षण-- (यत्पादाभ्युक्षणं पितरस्तेन प्रीणन्ति) पितर प्रसन्न होतें हैं| बाएँ हाथ में जल लेकर दाएँ हाथ की अँगुलीयों से क्रमानुसार----->
@ मध्यमा और अनामिका से मुख का स्पर्श (मध्यमानामिकया यन्मुखंमुपस्पृशत्यग्नि स्तेन प्रीणाति) अग्नि प्रसन्न होतें हैं |
@तर्जनी और अंगूठे से नाक (तर्जन्यङ्गुष्ठेन यन्नासिके उपस्पृशति वायु स्तेन प्रीणाति) वायु प्रसन्न होतें हैं |
@ मध्यमा और अँगूठे से आँखों (मध्यमाङ्गुष्ठेन यच्चक्षुरूपस्पृशति सूर्यस्तेन प्रीणाति) सूर्य प्रसन्न होतें हैं |
@ अनामिका और अँगूठे से कान ( अनामिकाङ्गुष्ठेन यच्छ्रोत्रमुपस्पृशति दिशस्तेन प्रीणन्ति) दिशाएँ प्रसन्न होती हैं |
@ कनिष्ठिका और अँगूठेसे नाभि (कनिष्ठिकाङ्गुष्ठेन यन्नाभिमुपस्पृशति ब्रह्मा तेन प्रीणाति) ब्रह्मा प्रसन्न होतें हैं |
@ छतें हाथ से हृदय ( हस्तेन यद्धृदयमुपस्पृशति तेन परमात्मा प्रीणाति) परमात्मा प्रसन्न होतें हैं |
@ सभी अँगुलीयों से शिर ( सर्वाङ्गुलिभिः यच्छिर उपस्पृशति रुद्रस्तेन प्रीणाति) रुद्र प्रसन्न होतें हैं |
@ सभी अँगुलीयों से दोनों बाहू( यद्बाहू उपस्पृशति विष्णुस्तेन प्रीणाति) विष्णु प्रसन्न होतें हैं | इत्यसौ
#सर्वदेवमयो_ब्राह्मणो_देहिनामित्याह_भगवान्_कात्यायनः || सभी देहधारियों में ब्राह्मण को सर्वदेवमय कहा गया हैं ऐसा भगवान् कात्यायन ऋषि का कथन हैं |
हस्तप्रक्षालनम् --- ॐ नागयक्षकुबेरवेदेभ्यो नमः ||
पैरों पर जल का अभ्युक्षण-- (यत्पादाभ्युक्षणं पितरस्तेन प्रीणन्ति) पितर प्रसन्न होतें हैं| बाएँ हाथ में जल लेकर दाएँ हाथ की अँगुलीयों से क्रमानुसार----->
@ मध्यमा और अनामिका से मुख का स्पर्श (मध्यमानामिकया यन्मुखंमुपस्पृशत्यग्नि स्तेन प्रीणाति) अग्नि प्रसन्न होतें हैं |
@तर्जनी और अंगूठे से नाक (तर्जन्यङ्गुष्ठेन यन्नासिके उपस्पृशति वायु स्तेन प्रीणाति) वायु प्रसन्न होतें हैं |
@ मध्यमा और अँगूठे से आँखों (मध्यमाङ्गुष्ठेन यच्चक्षुरूपस्पृशति सूर्यस्तेन प्रीणाति) सूर्य प्रसन्न होतें हैं |
@ अनामिका और अँगूठे से कान ( अनामिकाङ्गुष्ठेन यच्छ्रोत्रमुपस्पृशति दिशस्तेन प्रीणन्ति) दिशाएँ प्रसन्न होती हैं |
@ कनिष्ठिका और अँगूठेसे नाभि (कनिष्ठिकाङ्गुष्ठेन यन्नाभिमुपस्पृशति ब्रह्मा तेन प्रीणाति) ब्रह्मा प्रसन्न होतें हैं |
@ छतें हाथ से हृदय ( हस्तेन यद्धृदयमुपस्पृशति तेन परमात्मा प्रीणाति) परमात्मा प्रसन्न होतें हैं |
@ सभी अँगुलीयों से शिर ( सर्वाङ्गुलिभिः यच्छिर उपस्पृशति रुद्रस्तेन प्रीणाति) रुद्र प्रसन्न होतें हैं |
@ सभी अँगुलीयों से दोनों बाहू( यद्बाहू उपस्पृशति विष्णुस्तेन प्रीणाति) विष्णु प्रसन्न होतें हैं | इत्यसौ
#सर्वदेवमयो_ब्राह्मणो_देहिनामित्याह_भगवान्_कात्यायनः || सभी देहधारियों में ब्राह्मण को सर्वदेवमय कहा गया हैं ऐसा भगवान् कात्यायन ऋषि का कथन हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः_खंड_१३९_उपनयनम् (पतितसावित्रिक प्रायश्चित्तानि)
#आषोडशाद्वर्षाद्_ब्राह्मणस्यानतीतः_कालो_भवति ||पा-गृ२/५/३६|| #आद्वाविंशाद्_राजन्यस्य||पा-गृ२/५/३७|| #आचतुर्विंशाद्_वैश्यस्य||पा-गृ२/५/३८||
#आषोडशाद्वर्षाद्_ब्राह्मणस्यानतीतः_कालो_भवति ||पा-गृ२/५/३६|| #आद्वाविंशाद्_राजन्यस्य||पा-गृ२/५/३७|| #आचतुर्विंशाद्_वैश्यस्य||पा-गृ२/५/३८||
ब्राह्मण बालक के उपनयन संस्कार की अवधि सोलह वर्ष तक ही है. क्षत्रिय कुमार के उपनयन की अवधि बाइस वर्ष की ही है और वैश्य कुमार के उपनयन की अन्तिम अवधि चौबीस वर्ष की ही है.
पारस्करादि गृह्यसूत्रों के सिद्धांत की सम्पुष्टि मनुने भी की है--->
#आषोडशाद्_ब्राह्मणस्य_सावित्री_नातिवर्तते | #आद्वाविंशेः_क्षत्रबन्धोः_आचतुर्विंशतेर्विशः ||मनु२||
अब गृह्यसूत्रों तथा वैदिक मत से- #अत_ऊर्ध्वं_पतितसावित्रीका_भवन्ति ||पा-गृ२/५/३९||
ऊपर कही गयी अवधि के बाद वे पतितसावित्री वाले हो जातें है.
#नैनानुपनयेयुर्नाध्यापयेयुर्न_याजयेयुर्न_चैभिर्व्यवहरेयुः ||पा-गृ२/५/४०||
पारस्करादि गृह्यसूत्रों के सिद्धांत की सम्पुष्टि मनुने भी की है--->
#आषोडशाद्_ब्राह्मणस्य_सावित्री_नातिवर्तते | #आद्वाविंशेः_क्षत्रबन्धोः_आचतुर्विंशतेर्विशः ||मनु२||
अब गृह्यसूत्रों तथा वैदिक मत से- #अत_ऊर्ध्वं_पतितसावित्रीका_भवन्ति ||पा-गृ२/५/३९||
ऊपर कही गयी अवधि के बाद वे पतितसावित्री वाले हो जातें है.
#नैनानुपनयेयुर्नाध्यापयेयुर्न_याजयेयुर्न_चैभिर्व्यवहरेयुः ||पा-गृ२/५/४०||
इन पतितसावित्री वालें कुमारों का कोई आचार्य ! #व्रात्यप्रायश्चित् के बिना उपनयन-संस्कार न कराए, इन्हें वेदादि न पढाए, इनसे यज्ञादि न कराए और इन लोगों के साथ किसी तरह का व्यवहार न करे.
(यहाँ गृह्यसूत्रकारों ने वेदाज्ञासे कहा है कि ऐसे पतितसावित्री को के साथ व्यवहार न करे, इसका मतलब हैं कि व्यवहार न करने से यह लोगों को पश्चाताप होगा और दूसरे इन लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे अतः सावध रहैंगे,उक्तसमय में संस्कार करवायेंगे, परंतु आज के आचार्यों का क्या कहना; ऐसे कुमारों को व्यवहार में रखतें है और तो और बिना प्रायश्चित्त किये विवाह के समय अगले दिन उपवीतसंस्कार करवाँ देतें है.यह कठोर वेदाज्ञापर आघात है.)
(यहाँ गृह्यसूत्रकारों ने वेदाज्ञासे कहा है कि ऐसे पतितसावित्री को के साथ व्यवहार न करे, इसका मतलब हैं कि व्यवहार न करने से यह लोगों को पश्चाताप होगा और दूसरे इन लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे अतः सावध रहैंगे,उक्तसमय में संस्कार करवायेंगे, परंतु आज के आचार्यों का क्या कहना; ऐसे कुमारों को व्यवहार में रखतें है और तो और बिना प्रायश्चित्त किये विवाह के समय अगले दिन उपवीतसंस्कार करवाँ देतें है.यह कठोर वेदाज्ञापर आघात है.)
सत्रहवेंवर्ष- #सावित्री_पतिता_यस्य_दश_वर्षाणि_पञ्च_च |
#सशिख_वपनं_कृत्वा_व्रतं_कुर्यात्समाहितः ||१|| #एकविंशति_रात्रं_च_पिबेत्प्रसृति_यावकम् | #हविषा_भोजयेचैव_ब्राह्मणान्सप्त_पञ्च_वा ||२|| #ततो_यावक_शुद्धस्य_तस्योपनयनं_स्मृतम् | #इदं_चातिक्रान्त_षोडशवर्षस्य_सप्तदशेवर्षे -
#उपनयने_दृष्टव्यम् ||वीर मित्रोदये यमः||
#सशिख_वपनं_कृत्वा_व्रतं_कुर्यात्समाहितः ||१|| #एकविंशति_रात्रं_च_पिबेत्प्रसृति_यावकम् | #हविषा_भोजयेचैव_ब्राह्मणान्सप्त_पञ्च_वा ||२|| #ततो_यावक_शुद्धस्य_तस्योपनयनं_स्मृतम् | #इदं_चातिक्रान्त_षोडशवर्षस्य_सप्तदशेवर्षे -
#उपनयने_दृष्टव्यम् ||वीर मित्रोदये यमः||
जिस ब्राह्मण कुमारके सोलहवर्ष की अंतिम अवधिपर भी यज्ञोपवीत-संस्कार न करवायाँ हो, उन ब्राह्मण कुमार को यम के वचन से १७वें वर्ष में उपनयन करवाना हो तो शिखासहित वपन करवाँकर २१दिनों का यावक व्रत करना चाहिये.उन्हें ब्रह्मचर्य-संयम- दिवाजागरण- आदि का पालन करतें हुए २१दिन रात्रिकाल समय यवसे बनीं हुई प्रवाही(रबडी़) प्रसृतिमात्रा अर्थात् १२०ग्राम ही पीना चाहिये.इसके अतिरिक्त और कुछ खाना-पीना नहीं चाहिये.आवश्यकता अनुसार एकदो गुँट पानी पीएँ परंतु वारंवार पानी पीने से व्रत भंग हो न जाय यह ध्यान रखें(आपत्ति में अर्थात् कंठ सुखने पर ही गुँट पानी पीए).तथा ब्राह्मण से प्रतिदिन गायत्रीमंत्रोका जप करवायें..या कुमारके पिता स्वयं गायत्रीजप कमसे कम १०८ संख्या में करे. और हविष्यान्न से पवित्रता का ध्यान रखकर सात या पाँच ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन करायें. ऐसे यावकव्रत से शुद्ध कुमारका शुभमुर्हूत में उपनयन जल्दी से १८ वर्ष प्रारंभ होनेसे से पहले करवाये.
#अष्टादशेब्दे- #अष्टादशेब्दे_तूपनयने_प्राजापत्यत्रयम् ||वीरमित्रोदय-सं०|| #येषां_द्विजानां_सावित्री_नानूच्येत_यथा_विधि | #तांश्चारयित्वा_त्रीन_कृच्छ्रान्यथाविध्युपनापयेत् ||मनुः||
अथवा - #गवां_दानेन_भूम्या_वा_प्राजापत्यत्रयेण_वा | #चान्द्रायणेन_वा_शुद्धास्ते_भवन्तीह_सत्तमाः ||आश्वालायन || #गवां_तिसृणां||वीरमित्रोदय||
अथवा - #गवां_दानेन_भूम्या_वा_प्राजापत्यत्रयेण_वा | #चान्द्रायणेन_वा_शुद्धास्ते_भवन्तीह_सत्तमाः ||आश्वालायन || #गवां_तिसृणां||वीरमित्रोदय||
ब्राह्मण कुमार के १७ वर्ष बीत जानेपर भी उपनयन संस्कार न हुए हो तो ऐसे पतितसावित्रीक कुमारों को मनुजी की आज्ञा से तीन प्राजापत्य व्रत करने चाहिये.
कृच्छ्र(प्राजापत्य)व्रत-
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||
इस कृच्छ्रव्रतमें कुकडीके अंडे के मापसे निवाला (सहजतासे मुखमें प्रवेश हो)उतने सायंकाल ३२ग्रास, सुबह(मध्याह्न)में २६ग्रास, बिना माँगे भोजन मिलनेपर भी २४ग्रास, निवाले भी शास्त्र संमत शुद्ध प्रमाणसे होने चाहिये..जैसे रात्रि और दिनमें तथा बिना माँगे तीनों प्रकारमें हविष्यान्न ही ग्रहण करना चाहिये.तथा चौथे तीन दिन उपवास बिना कुछ खाये पीयें करना यह प्रमाणित कृच्छ्र(प्राजापत्य) जानें.
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||
व्रतार्थी प्रतिदिन ब्राह्मणद्वारा या पिता से (ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम/ ॐभुवःस्वाहा- इदं वायवे न मम/ ॐस्वः स्वाहा-इदं सूर्याय न मम/ ॐ भूर्भुवःस्वःस्वाहा -इदं प्रजापतये न मम) इन महाव्याहृतिमंत्रोसे विट् नामक अग्निमें अपने सूत्रके विधानसे होम करै..
और स्वयं अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..
और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
ब्राह्मण द्वारा या कुमार के पिता को
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८गायत्रीजप ),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह विधि मान्य हैं.
अथवा - आश्वालायन ऋषि के कहानुसार तीन गायों का दान करे, अथवा भूमि का दान करें, अथवा चान्द्रायण व्रत करें..
और स्वयं अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..
और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
ब्राह्मण द्वारा या कुमार के पिता को
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८गायत्रीजप ),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह विधि मान्य हैं.
अथवा - आश्वालायन ऋषि के कहानुसार तीन गायों का दान करे, अथवा भूमि का दान करें, अथवा चान्द्रायण व्रत करें..
#चान्द्रायणव्रत- यह व्रत पाँच प्रकार का होता हैं इनमेंसे किसी एक प्रकारका करना हैं.
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.
चान्द्रायण करनेवाले द्विजको ग्रास लेते समय इस मंत्रसे प्रतिग्रासको कुमार के पिता; अभिमंत्रित करके कुमार को देना चाहिये..
{ॐभूर्भुवःस्वः तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिवः(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)नमः स्वाहा " }कुमार मौन रहते हुआ ग्रास का भोजन करें और व्रतार्थीओं के उपर कहे हुए नियमों का पालन करें..
ऐसे मनुजी के अथवा आश्वालायन ऋषि के बतायें हुए प्रायश्चित्त से शुद्ध होनेवाले कुमार को जल्द से जल्द वर्णानुसार १८ वर्ष पुरे होनेसे पहले शुभ मुर्हूत में उपनयन- संस्कार करवाये...
#एकोनविंशऽब्द_उपनयने_त्वापस्तम्बः-
अतिक्रान्ते सावित्र्याः काले - ऋतुं (द्वौ मासौ- ऋत्वारम्भ एव व्रतारम्भः) त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्यं चरेदथोपनयनं ततः संवत्सरमुदकोपस्पर्शनमथाध्याप्य इति || अग्निपरिचर्यामध्ययनं सुश्रूषामिति त्रयं परिहाय सकलं ब्रह्मचारिधर्मं चरेत् ||
ब्राह्मण कुमार का १८ वें वर्ष पूर्ण होनेपर भी यज्ञोपवीत संस्कार न किये हो तो "आपस्तंब" के कहानुसार किसी भी ऋतु के प्रारंभ से यथा (मकर,कुंभ की सूर्यसंक्रांति शिशीरऋतु, मीन,मेष की वसंत, वृष,मीथुन की ग्रीष्म, कर्क,सिंह की वर्षा, कन्या,तुला की शरद, वृश्चिक,धन संक्रांति की हेमन्तऋतु)----> व्रतारम्भ कर दो मास तक - "अग्निपरिचरण", "वेदाध्ययन", और "गुरुसुश्रूषा", किए बिना ब्रह्मचारी के सभी धर्म का पालन करतें हुए ब्रह्मचर्य व्रत करें बाद में १९ वें वर्ष को पूर्ण होने से पहले उपनयन करायें- फिर एक वर्ष जलका स्पर्श करकें गायत्रीमंत्रका कम से कम १०८ जप करें, और वेदाध्ययन भी करैं |
#विंशेऽब्दे_उपनयने-
मनुक्तं त्रैमासिकमुपपातक सामान्य प्रायश्चित्तम् ||
यथा- १९ वें वर्ष पूर्ण होने पर भी ब्राह्मण कुमार को यदि उपनयन संस्कार न करवायें हो तो "तीन चान्द्रायण" व्रत उपर कहे हुए नियमानुसार करवाकर २० वें वर्ष पूर्ण होने से पहले उपनयन करवायें..
#एकविंशेऽब्दे_उपनयने- चातुर्मासिकमुद्दालक व्रतं चरेत् |---> वसिष्ठः -- पतित सावित्रीक उद्दालक व्रतं चरेत् द्वौ मासौ यावकेन वर्तयेन्मासं पयसाऽर्ध मासमामिक्षयाऽष्टरात्रं घृतेन षड्रात्रमयाचितेन त्रिरात्रमब्भक्षोऽहोरात्रमुपवासश्चेति |||
वीसवें वर्ष पूर्ण होने पर यदि ब्राह्मण कुमार को उपनयन न करवाया हो तो "उद्दालक" व्रत करवायें महर्षि वसिष्ठ के कहानुसार दो-मास सिर्फ जौ(यव)+गुड से बना प्रवाहीका सेवन और कुछ नहीं प्यास लगनेपर केवल गूँटभर पानी पीना, एक-मास गाय का दूध और कुछ नहीं, पंद्रहदिन गायके दूध से बना दहीं का सेवन, आठरात्रि में ही गाय के घी का सेवन दिन में कुछ नहीं, छहरात्रि बिना माँगे भोजन दिन में कुछ नहीं, तीन रात्रि तक केवल पानी दिन में कुछ नहीं और एकदिन-रात =२४ घंटो सूर्योदयसे दूसरे सूर्योदय तक उपवास पानी भी नहीं, सभी विकल्पों में प्यास लगने पर केवल गूँटभर पानी पीएँ.... कुल १२३ दिन का व्रत होगा.. फिर २१ वें वर्ष पूर्ण होने से पहले उपनयन करवायें...
#द्वाविंशेऽब्दे_उपनयने--> अश्वमेधावभृथस्नानम् | यदाह---> वसिष्ठः ~ अश्वमेधावभृथं वा गच्छेदिति || २० वें वर्ष पूर्ण होनेपर भी ब्राह्मण कुमार का उपनयन न करवाया हो तो वसिष्ठजी के कहानुसार अश्वमेध-यज्ञ में कुमार को अवभृथ(उत्तराभिषेक) स्नान करना चाहिये- परंतु कलिकाल में अश्वमेध शास्त्र से वर्जित हैं--
#अश्वमेधं_गवालम्भं_सन्न्यासं_पलपैत्रिकम् |
#देवराच्च_सुतोत्पत्तिः_कलौ_पंच_विवर्जयेत् ||
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.
चान्द्रायण करनेवाले द्विजको ग्रास लेते समय इस मंत्रसे प्रतिग्रासको कुमार के पिता; अभिमंत्रित करके कुमार को देना चाहिये..
{ॐभूर्भुवःस्वः तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिवः(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)नमः स्वाहा " }कुमार मौन रहते हुआ ग्रास का भोजन करें और व्रतार्थीओं के उपर कहे हुए नियमों का पालन करें..
ऐसे मनुजी के अथवा आश्वालायन ऋषि के बतायें हुए प्रायश्चित्त से शुद्ध होनेवाले कुमार को जल्द से जल्द वर्णानुसार १८ वर्ष पुरे होनेसे पहले शुभ मुर्हूत में उपनयन- संस्कार करवाये...
#एकोनविंशऽब्द_उपनयने_त्वापस्तम्बः-
अतिक्रान्ते सावित्र्याः काले - ऋतुं (द्वौ मासौ- ऋत्वारम्भ एव व्रतारम्भः) त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्यं चरेदथोपनयनं ततः संवत्सरमुदकोपस्पर्शनमथाध्याप्य इति || अग्निपरिचर्यामध्ययनं सुश्रूषामिति त्रयं परिहाय सकलं ब्रह्मचारिधर्मं चरेत् ||
ब्राह्मण कुमार का १८ वें वर्ष पूर्ण होनेपर भी यज्ञोपवीत संस्कार न किये हो तो "आपस्तंब" के कहानुसार किसी भी ऋतु के प्रारंभ से यथा (मकर,कुंभ की सूर्यसंक्रांति शिशीरऋतु, मीन,मेष की वसंत, वृष,मीथुन की ग्रीष्म, कर्क,सिंह की वर्षा, कन्या,तुला की शरद, वृश्चिक,धन संक्रांति की हेमन्तऋतु)----> व्रतारम्भ कर दो मास तक - "अग्निपरिचरण", "वेदाध्ययन", और "गुरुसुश्रूषा", किए बिना ब्रह्मचारी के सभी धर्म का पालन करतें हुए ब्रह्मचर्य व्रत करें बाद में १९ वें वर्ष को पूर्ण होने से पहले उपनयन करायें- फिर एक वर्ष जलका स्पर्श करकें गायत्रीमंत्रका कम से कम १०८ जप करें, और वेदाध्ययन भी करैं |
#विंशेऽब्दे_उपनयने-
मनुक्तं त्रैमासिकमुपपातक सामान्य प्रायश्चित्तम् ||
यथा- १९ वें वर्ष पूर्ण होने पर भी ब्राह्मण कुमार को यदि उपनयन संस्कार न करवायें हो तो "तीन चान्द्रायण" व्रत उपर कहे हुए नियमानुसार करवाकर २० वें वर्ष पूर्ण होने से पहले उपनयन करवायें..
#एकविंशेऽब्दे_उपनयने- चातुर्मासिकमुद्दालक व्रतं चरेत् |---> वसिष्ठः -- पतित सावित्रीक उद्दालक व्रतं चरेत् द्वौ मासौ यावकेन वर्तयेन्मासं पयसाऽर्ध मासमामिक्षयाऽष्टरात्रं घृतेन षड्रात्रमयाचितेन त्रिरात्रमब्भक्षोऽहोरात्रमुपवासश्चेति |||
वीसवें वर्ष पूर्ण होने पर यदि ब्राह्मण कुमार को उपनयन न करवाया हो तो "उद्दालक" व्रत करवायें महर्षि वसिष्ठ के कहानुसार दो-मास सिर्फ जौ(यव)+गुड से बना प्रवाहीका सेवन और कुछ नहीं प्यास लगनेपर केवल गूँटभर पानी पीना, एक-मास गाय का दूध और कुछ नहीं, पंद्रहदिन गायके दूध से बना दहीं का सेवन, आठरात्रि में ही गाय के घी का सेवन दिन में कुछ नहीं, छहरात्रि बिना माँगे भोजन दिन में कुछ नहीं, तीन रात्रि तक केवल पानी दिन में कुछ नहीं और एकदिन-रात =२४ घंटो सूर्योदयसे दूसरे सूर्योदय तक उपवास पानी भी नहीं, सभी विकल्पों में प्यास लगने पर केवल गूँटभर पानी पीएँ.... कुल १२३ दिन का व्रत होगा.. फिर २१ वें वर्ष पूर्ण होने से पहले उपनयन करवायें...
#द्वाविंशेऽब्दे_उपनयने--> अश्वमेधावभृथस्नानम् | यदाह---> वसिष्ठः ~ अश्वमेधावभृथं वा गच्छेदिति || २० वें वर्ष पूर्ण होनेपर भी ब्राह्मण कुमार का उपनयन न करवाया हो तो वसिष्ठजी के कहानुसार अश्वमेध-यज्ञ में कुमार को अवभृथ(उत्तराभिषेक) स्नान करना चाहिये- परंतु कलिकाल में अश्वमेध शास्त्र से वर्जित हैं--
#अश्वमेधं_गवालम्भं_सन्न्यासं_पलपैत्रिकम् |
#देवराच्च_सुतोत्पत्तिः_कलौ_पंच_विवर्जयेत् ||
इसलिए उपर कहे हुए एकवीसवें वर्ष का उद्दालक-व्रत और १७वें वर्ष वाला २१ दिन का "यावक" व्रत करें ...फिर बाईसवें वर्ष पूर्ण होने से पहले उपनयन करवायें..
#त्रयोविंशेऽब्दे_उपनयने---> व्रात्यस्तोम प्रायश्चित्तम्
२२ वर्ष पूर्ण होने पल भी ब्राह्मण बालकका उपनय संस्कार न किया हो तो तेईसवें वर्ष में व्रात्यस्तोम नामक यज्ञ करवाएँ--> इसका विवेचन "कात्यायन श्रौत-सूत्र" के २२ वें अध्याय की चौथी कण्डिका में वर्णित हैं--- #व्रात्यस्तोमेनेष्ट्वा व्रात्यभावाद् विरमेयुः ||२२/४/३९/सू४०|| इस याग में "ता०ब्रा०१७/१/१४-१५|| के अनुसार निम्नलिखित वस्तुओं का दान मागध-ब्राह्मण या व्रात्यकर्म-तत्परब्राह्मण को दान देना होता हैं--- तिरछी बँधी हुई पगड़ी, चाबुक, ज्याहीन धनुष, कालावस्त्र, अल्पवय-घोडों से युक्त रथ, चाँदी का कण्ठाभरण, मेष का चर्म(मेष के रोम से निर्मित वस्त्र), रस्सी, काले जूते, ३३ गौदान / निन्दितम व्रात्य (अनुपनीत- पिता और पितामह) को ६६ गौदान करे तब संस्कार्य हो सकता हैं....
#एवम्_क्षत्रिय_वैश्ययोरपि- द्वाविंशाच्चतुर्विंशाब्दादूर्ध्वं यथोक्त क्रमेणैतानि प्रायश्चित्तानि पाद पाद हान्या योज्यानि | अत ऊर्ध्वम् आतृतीय काल समाप्ति र्वात्यस्तोम एव दक्षिणाधिक्य पक्षाश्रयेण योजनीयः ||वीरमित्रोदये|| ऐसे क्षत्रिय कुमार के २२ और वैश्य कुमार के २४ वर्ष पूर्ण होनेपर भी उपनयन न हुए हो तो उचित क्रमसे एक/एक- पाद रहित सभी व्रतों को नियत काल के अवधी तक करवायें इन दोनों को तीसरेकाल की समाप्ति पर व्रात्यस्तोम करवाना चाहिये जैसे क्षत्रिय को ३२ वाँ वर्ष और वैश्य को ३५ वाँ वर्ष तीसराकाल हुआ, फिर अधिक दक्षिणा के नियम से व्रात्यस्तोम करवाकर संस्कार्य करवा सकतें हैं...
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ.
#त्रयोविंशेऽब्दे_उपनयने---> व्रात्यस्तोम प्रायश्चित्तम्
२२ वर्ष पूर्ण होने पल भी ब्राह्मण बालकका उपनय संस्कार न किया हो तो तेईसवें वर्ष में व्रात्यस्तोम नामक यज्ञ करवाएँ--> इसका विवेचन "कात्यायन श्रौत-सूत्र" के २२ वें अध्याय की चौथी कण्डिका में वर्णित हैं--- #व्रात्यस्तोमेनेष्ट्वा व्रात्यभावाद् विरमेयुः ||२२/४/३९/सू४०|| इस याग में "ता०ब्रा०१७/१/१४-१५|| के अनुसार निम्नलिखित वस्तुओं का दान मागध-ब्राह्मण या व्रात्यकर्म-तत्परब्राह्मण को दान देना होता हैं--- तिरछी बँधी हुई पगड़ी, चाबुक, ज्याहीन धनुष, कालावस्त्र, अल्पवय-घोडों से युक्त रथ, चाँदी का कण्ठाभरण, मेष का चर्म(मेष के रोम से निर्मित वस्त्र), रस्सी, काले जूते, ३३ गौदान / निन्दितम व्रात्य (अनुपनीत- पिता और पितामह) को ६६ गौदान करे तब संस्कार्य हो सकता हैं....
#एवम्_क्षत्रिय_वैश्ययोरपि- द्वाविंशाच्चतुर्विंशाब्दादूर्ध्वं यथोक्त क्रमेणैतानि प्रायश्चित्तानि पाद पाद हान्या योज्यानि | अत ऊर्ध्वम् आतृतीय काल समाप्ति र्वात्यस्तोम एव दक्षिणाधिक्य पक्षाश्रयेण योजनीयः ||वीरमित्रोदये|| ऐसे क्षत्रिय कुमार के २२ और वैश्य कुमार के २४ वर्ष पूर्ण होनेपर भी उपनयन न हुए हो तो उचित क्रमसे एक/एक- पाद रहित सभी व्रतों को नियत काल के अवधी तक करवायें इन दोनों को तीसरेकाल की समाप्ति पर व्रात्यस्तोम करवाना चाहिये जैसे क्षत्रिय को ३२ वाँ वर्ष और वैश्य को ३५ वाँ वर्ष तीसराकाल हुआ, फिर अधिक दक्षिणा के नियम से व्रात्यस्तोम करवाकर संस्कार्य करवा सकतें हैं...
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ.
तैत्तिरीयोपनिषद् की शीक्षावल्ली में आचार्य अपने शिष्य से कहतें हैं -- > *#यान्यनवद्यानि_कर्माणि | #तानि_सेवितव्यानि | #नो_इतरणानि | #यान्यस्माकं_सुचरितानि | #तानि_त्वयोपास्यानि | #नो_इतरणानि ||अनु०११||*
अर्थात् जो-जो निर्दोष कर्म हैं, उन्हीं का तुम्हें सेवन करना चाहिये; दूसरे (दोषयुक्त) कर्मों का कभी आचरण नहीं करना चाहिये | हमारे (आचरणों में से भी) जो-जो अच्छे आचरण हैं, उनका ही तुमको सेवन करना चाहिये, दूसरों का कभी नहीं |
सद्गुरु का आचार्य नाम भी सर्वथा अन्वर्थक हैं | महर्षि आपस्तम्ब ने अपने धर्मसूत्र में आचार्य का लक्षण- (#यस्मात्_धर्मान्_आचिनोति_स_आचार्यः || १/१/१४||) बतलाया हैं कि शिष्यगण जिसके संस्कारयुक्त चरित्र से प्रभावित होकर अपने रहन-सहन, आचार-विचार, संयम-साधना, भाषा-भाव और सभ्यता-संस्कृति को संस्कारित कर सकें, उस संस्कारसमन्वित चरित्रवान् विद्वान् को आचार्य कहा जाता हैं |
त्रैवर्णिकों के मुख्य संस्कारों में मुख्य संस्कार उपनयन हैं | उपनयन संस्कार होनेपर ही त्रैवर्णिक बालक द्विज कहलाता हैं | शास्त्रोक्त मत हैं कि इस संस्कार से बालक का ज्ञानमय जन्म होता हैं | इस ज्ञानमय जन्म के पिता #आचार्य हैं तथा माता #गायत्री हैं | जिस प्रकार अच्छे बीज से अच्छे अन्न की उत्पत्ति होती हैं, उसी प्रकार ज्ञानमय जन्म में अच्छे विद्वान आचार्य रहनेपर विशुद्ध ज्ञान होता हैं | महर्षि आपस्तम्ब ने भी कहा हैं -- *#तमसो_वा_एष_तमः_प्रविशति #यमविद्वानुपनयते_यश्चाविद्वानिति #हि_ब्राह्मणम् ||आप० धर्म० १/१/११||*
अर्थात् जिसका अविद्वान् आचार्य के द्वारा उपनयन-संस्कार कराया जाता हैं, वह अन्धकार से अन्धकार में ही जाता हैं | अतएव निरुक्तकार यास्क ने आचार्य शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा हैं कि --> *#आचार्यः_कस्मात् ? #आचारं_ग्राहयति_आचिनोत्यर्थान् #आचिनोति_बुद्धिमिति_वा ||*
अर्थात् जो-जो निर्दोष कर्म हैं, उन्हीं का तुम्हें सेवन करना चाहिये; दूसरे (दोषयुक्त) कर्मों का कभी आचरण नहीं करना चाहिये | हमारे (आचरणों में से भी) जो-जो अच्छे आचरण हैं, उनका ही तुमको सेवन करना चाहिये, दूसरों का कभी नहीं |
सद्गुरु का आचार्य नाम भी सर्वथा अन्वर्थक हैं | महर्षि आपस्तम्ब ने अपने धर्मसूत्र में आचार्य का लक्षण- (#यस्मात्_धर्मान्_आचिनोति_स_आचार्यः || १/१/१४||) बतलाया हैं कि शिष्यगण जिसके संस्कारयुक्त चरित्र से प्रभावित होकर अपने रहन-सहन, आचार-विचार, संयम-साधना, भाषा-भाव और सभ्यता-संस्कृति को संस्कारित कर सकें, उस संस्कारसमन्वित चरित्रवान् विद्वान् को आचार्य कहा जाता हैं |
त्रैवर्णिकों के मुख्य संस्कारों में मुख्य संस्कार उपनयन हैं | उपनयन संस्कार होनेपर ही त्रैवर्णिक बालक द्विज कहलाता हैं | शास्त्रोक्त मत हैं कि इस संस्कार से बालक का ज्ञानमय जन्म होता हैं | इस ज्ञानमय जन्म के पिता #आचार्य हैं तथा माता #गायत्री हैं | जिस प्रकार अच्छे बीज से अच्छे अन्न की उत्पत्ति होती हैं, उसी प्रकार ज्ञानमय जन्म में अच्छे विद्वान आचार्य रहनेपर विशुद्ध ज्ञान होता हैं | महर्षि आपस्तम्ब ने भी कहा हैं -- *#तमसो_वा_एष_तमः_प्रविशति #यमविद्वानुपनयते_यश्चाविद्वानिति #हि_ब्राह्मणम् ||आप० धर्म० १/१/११||*
अर्थात् जिसका अविद्वान् आचार्य के द्वारा उपनयन-संस्कार कराया जाता हैं, वह अन्धकार से अन्धकार में ही जाता हैं | अतएव निरुक्तकार यास्क ने आचार्य शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा हैं कि --> *#आचार्यः_कस्मात् ? #आचारं_ग्राहयति_आचिनोत्यर्थान् #आचिनोति_बुद्धिमिति_वा ||*
वस्तुतः वेद में वर्णित संस्कारविधि के द्वारा यदि माता-पिता अपने बच्चों को सुसंस्कृत करें तो वह बालक वास्तविक मानव बन सकता हैं | वेदविरुद्ध आचरण होनेपर मानव का मानवधर्म निभाना असम्भव हैं | मनुष्य की मनुष्यता वेदानुकुल आचरण करने में ही सिद्ध होती हैं | योगवासिष्ठ का यह श्लोक इस तथ्य को सम्पुष्ट करता हैं -- *( येषां गुणेष्वसन्तोषो रागो येषां श्रुतं प्रति | सत्यव्यवसनिनो ये च ते नराः पशवोऽपरे ||)*
अतः *#आचारहीनं_न_पुनन्ति_वेदाः ||अत्रि ||* कहने का आशय यह हैं कि आचारहिन व्यक्ति न पवित्र होतें हैं और न पवित्र आचरण करतें हैं, क्योंकि *#यन्नवे_भाजने_लग्नः_संस्कारो_नान्यथा_भवेत् ||* बाल्यावस्था में जो संस्कार प्राप्त होता हैं वह अमिट होता हैं |
व्यासजी बताते हैं कि सन्ध्याविहीन व्यक्ति नित्य अपवित्र ही रहता हैंं, वह सभी विहित कर्मों के अयोग्य रहता हैं, वह जो भी कर्म करता हैं, उसका फल प्राप्त नहीं होता --->
*#सन्ध्याहिनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः_सर्वकर्मसु | #यदन्यत्_कुरुते_कर्म_न_तस्य_फलमाप्नुयात् ||लघुव्यास १/२७||*
सन्ध्योपासना न करनेवालें, प्याज,लहसुन,गाजर,सलगम, आदि खाने वालें आचार्यों से #उपनयन_संस्कार नहीं करवाना चाहिए ----> यदि अनजाने में हो भी गया हो तो आचार्य के निमित्त प्रायश्चित्त मृत्तिका,गोमय,भस्मादि से स्नान कर (नित़्यकर्मलोप के)६० प्राजापत्य तथा अभक्ष्यादि के निमित्त चारकृच्छ्र या चान्द्रायण अथवा एक एक प्राजापत्यके के ४/४हजार कुल २,५६,००० गायत्री जप अथवा १,२८,०० तिलाज्य की गायत्री मंत्र से वीट् नामक अग्नि में होम का संकल्प करकें #पुनर्यज्ञोपवीत-संस्कार किसी शुद्ध-आचार्य से करवाना चाहिये... तत्पश्चात् संकल्पित प्रायश्चित्त का आचरण करें...
स्वगोत्रादि सम्बन्धित #स्वशाखा_को_छोड़कर #अन्य_शाखा की पद्धति अनुसार किए हुए उपनयन का भी १६वर्ष की उम्र से पहिले पुनर्यज्ञोपवीत अनिवार्य हैं.......
व्यासजी बताते हैं कि सन्ध्याविहीन व्यक्ति नित्य अपवित्र ही रहता हैंं, वह सभी विहित कर्मों के अयोग्य रहता हैं, वह जो भी कर्म करता हैं, उसका फल प्राप्त नहीं होता --->
*#सन्ध्याहिनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः_सर्वकर्मसु | #यदन्यत्_कुरुते_कर्म_न_तस्य_फलमाप्नुयात् ||लघुव्यास १/२७||*
सन्ध्योपासना न करनेवालें, प्याज,लहसुन,गाजर,सलगम, आदि खाने वालें आचार्यों से #उपनयन_संस्कार नहीं करवाना चाहिए ----> यदि अनजाने में हो भी गया हो तो आचार्य के निमित्त प्रायश्चित्त मृत्तिका,गोमय,भस्मादि से स्नान कर (नित़्यकर्मलोप के)६० प्राजापत्य तथा अभक्ष्यादि के निमित्त चारकृच्छ्र या चान्द्रायण अथवा एक एक प्राजापत्यके के ४/४हजार कुल २,५६,००० गायत्री जप अथवा १,२८,०० तिलाज्य की गायत्री मंत्र से वीट् नामक अग्नि में होम का संकल्प करकें #पुनर्यज्ञोपवीत-संस्कार किसी शुद्ध-आचार्य से करवाना चाहिये... तत्पश्चात् संकल्पित प्रायश्चित्त का आचरण करें...
स्वगोत्रादि सम्बन्धित #स्वशाखा_को_छोड़कर #अन्य_शाखा की पद्धति अनुसार किए हुए उपनयन का भी १६वर्ष की उम्र से पहिले पुनर्यज्ञोपवीत अनिवार्य हैं.......
|| जय श्री राम ||
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड१३४-
#अस्वास्थ्ये_गौणस्नानम्
अतिबालक,अतिवृद्ध अवस्थामें तथा स्नानके लिए पर्याप्त जल न मिलनेपर तथा रोगी अवस्थामें जहाँतक शरीरके अंग सशक्त हो वहाँतक सन्ध्योपासनाका त्याग नहीं करना चाहिये.. ऐसी अवस्थाओमें भी ऋषियोंकी आज्ञा हैं कि-"#गौणस्नान_"करके भी सन्ध्योपासना मानसिक या सजल की जायँ..
#असामर्थ्याच्छरीरस्य_देशकालाद्यपेक्षया.| #मन्त्रस्नानादिकाः_सप्त_केचिदिच्छन्ति_सूरयः.|
क्योंकि सन्ध्योपासना न करनेसे द्विज पतित होकर शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं.यह गौण स्नान में से किसी भी एक प्रकारका स्नानकर नित्यसन्ध्योपासना करैं...
#गुणा_दश_स्नानपरस्य_नित्यं_रूपं_च_तेजश्च_बलं_च_शौचम्.|
#आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं_दुःस्वप्ननाशश्च_यशश्च_मेधा..||
नित्यस्नान करनेवालेको-" रूप,तेज,बल,पवित्रता, आयुष्य, आरोग्य,मनकी स्थैर्यता, दुःस्वप्नका नाश, यश और मेधाकी वृद्धि ऐसे दश प्रकारके लाभ होतें हैं..
#अथ_गौण_स्नानानि..||
(१)आपोहिष्ठेति तिसृभिर्मंत्रैः अङ्गानां प्रोक्षणं इतिमंत्रस्नानम्..||
#ॐआपोहिष्ठामयो_भुवस्तानऽ_ऊर्जेदधातन|#महेरणायचक्षसे||१||
#ॐजोवःशिवतमो_रसस्तस्य_भाजयते_हनः||
#उशतीरिवमातरः||२||
#ॐतस्म्माऽ_अरङ्गमामवो_जस्यक्षयायजिन्न्वथ||
#आपो_जनयथाचनः||३|| इन तीनों मंत्रोंसे शरीर पर जल छींडककर प्रोक्षण किया हुआ #मंत्रस्नान" हैं.
(२)गायत्र्या दशकृत्वो जलमभिमंत्र्य तेन सर्वाङ्गप्रोक्षणं इति गायत्रम्.| गायत्रीमंत्रसे दशबार अभिमंत्रित किया हुआ जल सारे शरीरपर छींडकनेसे गायत्रस्नान कहलाता है.
(३)अग्निरितिभस्मेत्यादि मन्त्रैरङ्गेषु भस्मलेपनम् इति आग्नेयम्.|
#ॐअग्निरिति_भस्म_वायुरिति_भस्म_जलमिति_भस्म_स्थलमिति_भस्म_व्योमेति_भस्म_सर्वंहवाऽइदं_भस्म
#मन_एतानि_चक्षूँषि_भस्मानि.|| इस मंत्रसे शरीरके अङ्गोपर भस्ममलनेसे आग्नेय स्नान होता हैं.
(४)आर्द्रवस्त्रेणाङ्गमार्जनम् इति कापिलम्.|
शुद्धजलमें गिले हुए कपड़ेसे अङ्गोका पोंछना कापिल स्नान हैं.
(५)गोरजसाम् अङ्गे लेपनं इति वायव्यम्.|
गौओंकी खुरी जहाँ अंकित हुई हो वहाँ की मिट्टीसे शरीरके अंगोका लेपन करनेसे वायव्य स्नान होता हैं.
(६)मृदा लम्भम् इति पार्थिवम्.|
पवित्र मिट्टी से शरीरके अंगोपर मलने से पार्थिव स्नान होता है.
(७)सातपवर्षेण स्नानम् इति दिव्यम्..
वर्षा चालु हो और चालुवर्षामें स्नान करना दिव्य स्नान हैं.
(८)आत्मचिन्तनं इति मानसम्..
हमारी आत्मा पवित्र हैं, विशुद्ध हैं,उसमें परमात्माका वास हैं,अतः मैं भी पवित्र हूँ. ऐसा चिन्तन करतें रहनेसे मानसिक स्नान होता हैं.
(९)विष्णुपादोदकविप्रपादोदकप्रोक्षण,विष्णुध्यानादिभिश्च स्नान्तराणि सन्ति...
विष्णुपादोदक,वेदज्ञपंडितके चरणोंदक का प्रोक्षण, क्षिरसागरमें शेषशैयापर स्थित विष्णुजीके चरणसेवा करतीं हुई महालक्ष्मी ऐसे शांताकार विष्णुके स्मरणसे भी गौण स्नानकी पूर्ति मानी गयी हैं..
#तेषां_मध्ये_यथासंभवं_विधेयम्.|
इस प्रकार गौणस्नानों में से किसी एक प्रकारका स्नान कर नित्य सन्ध्योपासना विकट परिस्थितिमें भी की जा सकती है.
आचमन-(मानसिक भी कर सकतें हो दायें कानका तीनबार स्पर्श करकें)
संकल्पः(मानसिक भी कर सकतें हो)-ॐतत् सत् श्री परमेश्वरप्रीत्यर्थं संध्याधिकारार्थं(अमुक)स्नानं करिष्ये... संकल्पमें अमुकके स्थानपर जिस प्रकारका गौण स्नान करना हो वह निश्चय करना हैं.
#गौणस्नानैर्जपसंध्यादौ_शुद्धिर्न_तु_श्राद्धदेवार्चनादौ.|
गौणस्नान करनेसे सन्ध्योपासना तथा जपकर्म(गायत्रीमंत्र)करने के लिए शुद्धि प्राप्त होती हैं, परंतु गायत्री मंत्र जप करमालापर करैं अक्षमाला पर नहीं..
श्राद्ध देवपूजामें गौणस्नान से शुद्धि नहीं होती...
#ब्रह्मयज्ञे_विकल्पः.| गौणस्नान के बाद ब्रह्मयज्ञ यदि कंठस्थ हो तो कर सकतें हैं.. वैदिक ग्रन्थोसे नहीं..इति
अतिबालक,अतिवृद्ध अवस्थामें तथा स्नानके लिए पर्याप्त जल न मिलनेपर तथा रोगी अवस्थामें जहाँतक शरीरके अंग सशक्त हो वहाँतक सन्ध्योपासनाका त्याग नहीं करना चाहिये.. ऐसी अवस्थाओमें भी ऋषियोंकी आज्ञा हैं कि-"#गौणस्नान_"करके भी सन्ध्योपासना मानसिक या सजल की जायँ..
#असामर्थ्याच्छरीरस्य_देशकालाद्यपेक्षया.| #मन्त्रस्नानादिकाः_सप्त_केचिदिच्छन्ति_सूरयः.|
क्योंकि सन्ध्योपासना न करनेसे द्विज पतित होकर शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं.यह गौण स्नान में से किसी भी एक प्रकारका स्नानकर नित्यसन्ध्योपासना करैं...
#गुणा_दश_स्नानपरस्य_नित्यं_रूपं_च_तेजश्च_बलं_च_शौचम्.|
#आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं_दुःस्वप्ननाशश्च_यशश्च_मेधा..||
नित्यस्नान करनेवालेको-" रूप,तेज,बल,पवित्रता, आयुष्य, आरोग्य,मनकी स्थैर्यता, दुःस्वप्नका नाश, यश और मेधाकी वृद्धि ऐसे दश प्रकारके लाभ होतें हैं..
#अथ_गौण_स्नानानि..||
(१)आपोहिष्ठेति तिसृभिर्मंत्रैः अङ्गानां प्रोक्षणं इतिमंत्रस्नानम्..||
#ॐआपोहिष्ठामयो_भुवस्तानऽ_ऊर्जेदधातन|#महेरणायचक्षसे||१||
#ॐजोवःशिवतमो_रसस्तस्य_भाजयते_हनः||
#उशतीरिवमातरः||२||
#ॐतस्म्माऽ_अरङ्गमामवो_जस्यक्षयायजिन्न्वथ||
#आपो_जनयथाचनः||३|| इन तीनों मंत्रोंसे शरीर पर जल छींडककर प्रोक्षण किया हुआ #मंत्रस्नान" हैं.
(२)गायत्र्या दशकृत्वो जलमभिमंत्र्य तेन सर्वाङ्गप्रोक्षणं इति गायत्रम्.| गायत्रीमंत्रसे दशबार अभिमंत्रित किया हुआ जल सारे शरीरपर छींडकनेसे गायत्रस्नान कहलाता है.
(३)अग्निरितिभस्मेत्यादि मन्त्रैरङ्गेषु भस्मलेपनम् इति आग्नेयम्.|
#ॐअग्निरिति_भस्म_वायुरिति_भस्म_जलमिति_भस्म_स्थलमिति_भस्म_व्योमेति_भस्म_सर्वंहवाऽइदं_भस्म
#मन_एतानि_चक्षूँषि_भस्मानि.|| इस मंत्रसे शरीरके अङ्गोपर भस्ममलनेसे आग्नेय स्नान होता हैं.
(४)आर्द्रवस्त्रेणाङ्गमार्जनम् इति कापिलम्.|
शुद्धजलमें गिले हुए कपड़ेसे अङ्गोका पोंछना कापिल स्नान हैं.
(५)गोरजसाम् अङ्गे लेपनं इति वायव्यम्.|
गौओंकी खुरी जहाँ अंकित हुई हो वहाँ की मिट्टीसे शरीरके अंगोका लेपन करनेसे वायव्य स्नान होता हैं.
(६)मृदा लम्भम् इति पार्थिवम्.|
पवित्र मिट्टी से शरीरके अंगोपर मलने से पार्थिव स्नान होता है.
(७)सातपवर्षेण स्नानम् इति दिव्यम्..
वर्षा चालु हो और चालुवर्षामें स्नान करना दिव्य स्नान हैं.
(८)आत्मचिन्तनं इति मानसम्..
हमारी आत्मा पवित्र हैं, विशुद्ध हैं,उसमें परमात्माका वास हैं,अतः मैं भी पवित्र हूँ. ऐसा चिन्तन करतें रहनेसे मानसिक स्नान होता हैं.
(९)विष्णुपादोदकविप्रपादोदकप्रोक्षण,विष्णुध्यानादिभिश्च स्नान्तराणि सन्ति...
विष्णुपादोदक,वेदज्ञपंडितके चरणोंदक का प्रोक्षण, क्षिरसागरमें शेषशैयापर स्थित विष्णुजीके चरणसेवा करतीं हुई महालक्ष्मी ऐसे शांताकार विष्णुके स्मरणसे भी गौण स्नानकी पूर्ति मानी गयी हैं..
#तेषां_मध्ये_यथासंभवं_विधेयम्.|
इस प्रकार गौणस्नानों में से किसी एक प्रकारका स्नान कर नित्य सन्ध्योपासना विकट परिस्थितिमें भी की जा सकती है.
आचमन-(मानसिक भी कर सकतें हो दायें कानका तीनबार स्पर्श करकें)
संकल्पः(मानसिक भी कर सकतें हो)-ॐतत् सत् श्री परमेश्वरप्रीत्यर्थं संध्याधिकारार्थं(अमुक)स्नानं करिष्ये... संकल्पमें अमुकके स्थानपर जिस प्रकारका गौण स्नान करना हो वह निश्चय करना हैं.
#गौणस्नानैर्जपसंध्यादौ_शुद्धिर्न_तु_श्राद्धदेवार्चनादौ.|
गौणस्नान करनेसे सन्ध्योपासना तथा जपकर्म(गायत्रीमंत्र)करने के लिए शुद्धि प्राप्त होती हैं, परंतु गायत्री मंत्र जप करमालापर करैं अक्षमाला पर नहीं..
श्राद्ध देवपूजामें गौणस्नान से शुद्धि नहीं होती...
#ब्रह्मयज्ञे_विकल्पः.| गौणस्नान के बाद ब्रह्मयज्ञ यदि कंठस्थ हो तो कर सकतें हैं.. वैदिक ग्रन्थोसे नहीं..इति
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