संस्कारविमर्श
#संस्कारविमर्श -४ "(गर्भाधान)"
जीवन में संस्कारों का इतना महत्त्व हैं कि महर्षि आश्वालायनने तो यहाँ तक कह दिया हैं कि जिसे संस्कार प्राप्त नहीं हो सके, उसका जन्म निरर्थक हैं -- *"(#संस्काररहिता_ये_तु_तेषां_जन्म_निरर्थकम्।।)"*
जीवन को सार्थक बनाने के लिये संस्कार आवश्यक हैं। संस्कार के अभाव में मनुष्य पशु के समान जीता हैं। संस्कार व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाते हैं।
मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो संस्कार मनमें प्रस्थापित आदर्श हैं, जो जीवन-व्यवहार के नियामक और प्रेरक होतें हैं । मनुष्य अपने जीवन में सत् असत् का निर्णय इन आदर्शों के आधारपर ही करता हैं। मनुष्य में मानवोचित गुण-कर्म-स्वभाव की प्रेरणा इन्हीं संस्कारों की देन हैं। यदि चरित्र वृक्ष हैं तो संस्कार उसका बीज हैं। अवचेतन मन संस्कार नामक इस बीज का क्षेत्र हैं और अनुकूल परिवेश उसका हवा-पानी तथा धूप हैं। इस प्रकार हम कह सकतें हैं कि अवचेतन मनमें प्रतिष्ठित संकल्प का नाम संस्कार हैं। इन संकल्प में अपरिमित सम्भावनाएँ निहित होती हैं। ये संकल्प इतने शक्तिशाली होते हैं कि केवल एक जन्म में ही नहीं, जन्मान्तर में भी गतिशील होते हैं। संस्कार मन का उदात्तीकरण करते हैं एवं कर्मशुद्धि, भावशुद्धि और विचारशुद्धि के साथ ही अभ्युदय तथा निःश्रेयस के हेतु होतें हैं।
संस्कार के महत्त्व को जान लेने के बाद अब प्रश्न यह हैं कि संस्कारों का स्रोत क्या हैं और ये मनुष्य को कहाँ से प्राप्त होते हैं ? संस्कारों का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत आनुवंशिकता हैं। आनुवंशिकता चरित्र का निर्णायक तत्त्व माना जाता हैं।
माता-पिता से केवल शरीर ही प्राप्त नहीं होता, मन भी प्राप्त होता हैं और संस्कार भी प्राप्त होतें हैं। जैसा आचार,विचार, प्रवृत्ति-अभ्यास, आस्था तथा आदतें माता-पिता की होती हैं, प्रायः वैसा ही स्वभाव और आदतें संतान में भी देखी जाती हैं तो उसे "आनुवंशिक संस्कार" कहा जाता हैं। जातिगत संस्कार आनुवंशिकता की श्रेणी में ही आते हैं। आधुनिक जैव-प्रौद्योगिकी संस्कार का मूल स्रोत "गुणसूत्र" बतलाती हैं। योद्धा का बेटा योद्धा हो सकता हैं, भजनानन्दी माँ-बाप के संस्कार उनकी संतानपर होते हैं। हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद को भक्ति के संस्कार माता कयाधू से और कयाधू को नारद से मिले। इस प्रकार संस्कारों का एक और महत्त्वपूर्ण स्रोत हमारे समक्ष माँ के रूप में स्पष्ट हो जाता हैं।
व्यास जी का कथन हैं कि १-गर्भाधान, २-पुंसवन, ३- सीमंत, ४- जातकर्म, ५ नामकरण, ६- निष्क्रमण, ७-अन्नप्राशन, ८- चूडाकरण,९-कर्णवेध, १०- यज्ञोपवीत,११- वेदारम्भ, १२- केशांत,१३-समावर्तन,१४-विवाह,१५-अग्निसंग्रह और १६ -त्रेताग्निसंग्रह -- यह सोलह संस्कार हैं --> "( गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च । नामक्रिया निष्क्रमोन्नप्राशनं वपनक्रिया।। कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः। केशान्तस्नानमुद्वाहो विवाहादिपरिग्रहः।। त्रेताग्निसंग्रहश्चैव संस्काराः षोडशस्मृताः।।व्यासः।।)" -- अपने अपने गोत्र के वेद-शाखानुसार गृह्यसूत्रों के अनुसार १२-चारोंवेदव्रत ,१३-केशांतगोदान,१४-समावर्तन,१५-विवाह और १६-मृतिसंस्कार का भी समन्वय सोलह संस्कारों में हैं । इसमें से कर्णवेध तक के नौ संस्कार स्त्रीयों को बिनावेदमंत्र (अमंत्रक) पुराणोक्त विधा से होते हैं । विवाह समन्त्रक और शूद्रों के दशसंस्कार भी बिनावेदमंत्र पुराणोक्त होतें हैं --> "(नवैताः कर्णवेधान्ता मन्त्रवर्जं स्त्रीयाँ क्रियाः। विवाहेमन्त्रतस्तस्याः शूद्रस्यामन्त्रतो दश।।व्यासः।।)"
यम कहतें हैं इस प्रकार शूद्रों के गर्भाधान से विवाहतक क्रम से दशसंस्कार बिना वेदमंत्र के अर्थात् पुराणोक्त मंत्र वा नाममंत्रेण से होता हैं। कारण की ब्रह्माजी ने किसी वेदमंत्र से भी उसकी रचना नहीं की --"( शूद्रोप्येवंविधः कार्यो विनामंत्रेण संस्कृतः। न केनचित्समसृजच्छन्दसा त प्रजापतिः।।यम।। छन्दसा मन्त्रेण)"
द्विजातियों के सोलह संस्कार हैं, और शूद्रों के द्वादश तथा वर्णसंकर जातियों के पाँच संस्कार हैं -"( द्विजानां षोडशैव स्युः शुद्राणां द्वादशैव हि। पञ्चैव मिश्रजातीनां संस्काराः कुलधर्मतः।। शार्ङ्गधर।।)"
विवाह संस्कार ही स्त्रीयों के लिए उपनयन के समान हैं, पति ही स्त्री का गुरु हैं पतिसेवा गुरुगृहवास अर्थात् गुरुकुल है और गृहकार्य, धर्मार्थ नित्यकर्मों में पति को सहायक बनना, अतिथि के लिए भोजन बनाना, पति की निश्छलता से सेवा करना आदि अग्नि की सेवा हैं --"( वैवाहिकोविधिः स्त्रीणामौपानायनिकः परः। पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया।।मनुः।।)"
गर्भाधान,पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूडाकर्म,कर्णवेध और विवाह ये दश शूद्रों के संस्कार बिना वेद मंत्र से यथा नाममंत्रेण और पुराणोक्त विधा से होतें हैं। नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, विवाह और पौनर्भव-विवाह -- ये पाँच वर्णसंकर के संस्कार हैं -- "( अष्टमांगल्यमाद्यःस्यान्नामकर्म तथैव च। अन्नप्राशन चौले च विवाहः पञ्चमःस्मृतः।।सुमेधा।।)"
जगद्गुरु भारत ने न केवल लोहा-लक्कड़ आदि जड़ पदार्थों के ठीक-ठाक करने मात्र के कारखाने खोलने में ही कर्तव्यता समझी थी, बल्कि जहाँ वह मनोवेग से चलने वाले महामहिम पुष्पक जैसे विमान बनाने में,शतयोजन विस्तीर्ण समुद्रोंपर सेतुबंध डालने में और वीर्यजंतुओं को गर्भ की भाँति सुरक्षित रखकर सौ कौरवो , साठ हजार सगरपुत्रों को जन्म दे सकनेयोग्य "घृतकुम्भ" नामक महायन्त्रों को बनाने में सिद्धहस्त था, वहाँ "नर को नारायण" बन सकनेयोग्य बनाने के लिये भी संस्कार नामक तत्तद् धर्मानुष्ठानों से लाभान्वित होता था।
आज पाश्चात्य देशों को अपने कल-कारखानों पर गर्व हो सकता हैं,विनाशकारी बमोंपर अभिमान हो सकता हैं; परंतु ये सब आविष्कार जिन अनुसंधायकों के मस्तिष्कों ने किये हैं, उन मस्तिष्कों के निर्माणकर्ता नारायण के सारूप्य को प्राप्त हो जानेयोग्य मानवों को बनाने की - आध्यात्मिक विज्ञानशालाएँ यदि किसी देश में खुलीं तो देश एकमात्र भारतवर्ष हैं। हमें गर्व हैं कि भारत में आज भी तादृश नरनिर्माण के अमोघ रचनात्मक प्रयोग विद्यमान हैं, जिनसे कि ध्रुव, प्रह्लाद,अभिमन्यु, जुझावर,जोरावर,प्रतापी राजाएँ, वीरांगनाएँ जैसे बालक उत्पन्न किये जा सकतें हैं।
स्वतन्त्र सिद्धांत हैं कि हमारा दाम्पत्य सम्बन्ध विषयवासना की पूर्ति के लिये नहीं, किंतु पदं पदं कटु अनुभव प्राप्ति के क्षेत्रभूत गृहस्थ में सहैतुक निर्वेदद्वारा विषयवैराग्य प्राप्त करके "कञ्चनकामिनी" रूप दौनों घाटियों को लाँघकर सायुज्य का निष्कण्टक मार्ग प्रस्तुत करने के लिये हैं।
आज भले ही विषयासक्त माता-पिताओं को स्वप्न में भी यह ध्यान नहीं होता कि हम क्या करने चले हैं, केवल विषयानन्द की सीमातक ही उनका यह प्रयास होता हैं। आज का सहवास भी उद्देशशून्य हैं और उस से समुत्पन्न संतान भी आज की भाषा में "ऐक्सिडैंटल" संतान ही कही जा सकती हैं। जिस क्रिया संस्कार का प्रयोजन धर्मप्रजा को प्राप्त करने का महत्वांग संतानोत्पत्ति का गर्भाधान संस्कार था उससे भिन्न केवल आज स्वेच्छाचार, विषयासक्त और संस्काररहित होकर कामप्रजा को ही उत्पन्न करता हैं।
उत्तम संतान के लिये माता-पिता के शुद्धाचरण की आवश्यकता रहती हैं। भगवान् वासुदेव मे कहा हैं कि यज्ञरहित पुरुष के लिये यह लोक ही सुखदायक नहीं हैं,फिर परलोक की चर्चा ही क्या हैं ? -- "( नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यःकुरुसत्तमः।।गीता।।)" तथा यज्ञ के साथ प्रजा की सृष्टि करके प्रजापति ने पहिले कहा कि इसी से तुम लोग बढ़ो और यह तुमलोंगो के लिये कामधेनु हो --"( सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाचः प्रजापतिं। अनेन प्रविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।गीता।।)
उस यज्ञरूपी कामधेनु के चरणों के त्याग से ही संसार विपत्ति के गर्त में पडा़ हुआ हैं और हजार प्रयत्न करनेपर भी उसके कल्याण का मार्ग निरर्गल नहीं हो रहा हैं।जिस संतान के लिये पूर्वपुरुषों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ की हैं,उसी संतान की वृद्धि संसार ऊब उठा हैं, संतानों के आचरण से अत्यन्त असंतुष्ट हैं, यहाँतक कि गर्भनिरोधक के लिये नयी नयी ओषधियों का तथा उपचारों का आविष्कार किया जा रहा हैं और उनके प्रचार के लिये सब ओर से प्रोत्साहन भी मिल रहा हैं। अब प्रश्न यह हैं कि क्या इस उपाय से अभीष्ट की प्राप्ति सम्भव हैं ? क्या कृत्रिम उपाय से गर्भनिरोध गर्भपातन के समकक्ष पाप नहीं हैं ?( शुक्र का व्यर्थीकार भी तो सामान्य पाप नहीं हैं --- #व्यर्थीकारेण_शुक्रस्य_ब्रह्महत्यामवाप्नुयात्।।आश्वालायनः।।)", क्या इससे कुसंतान और सुसंतान की समस्या हल हो सकती हैं ? कहना होगा कि कदापि नहीं। संतानबाहुल्य #दशास्यां_पुत्रानाधेहि।।ऋक्।। शास्त्रसम्मत हैं। कुसंतान होना दोषावह हैं और यह रोका जा सकता हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा हैं कि यज्ञ के लिये ही कर्म होना चाहिये । जितने कर्म हैं, उनका अनुष्ठान यज्ञरूप से ही होना चाहिये। इसी से हिन्दू धर्म में दैनिकक्रियाएँ उठना,नहाना,खाना,सोना सब यज्ञरूप हैं --> "( यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।)"
छान्दोग्य श्रुति कहती हैं - हे गौतम ! पुरुष अग्नि हैं,उसकी वाणी ही समित् हैं, प्राण धूम हैं, जिह्वा ज्वाला हैं, आँख अङ्गारे हैं, कान चिनगारियाँ हैं, उसी अग्नि में देवता अन्न का होम करतें हैं उस आहुति से वीर्य होता हैं ।
हे गौतम ! स्त्री अग्नि हैं उसका उपस्थ समित् हैं, जो उस समय (रतिसमय)बात करता हैं वह धूम हैं, योनि ज्वाला हैं, प्रसङ्ग अङ्गारे हैं, सुख चिनगारी हैं, उसी अग्नि में देवतालोग वीर्य का होम करतें हैं। उस आहुति से गर्भ होता हैं ---> /// पुरुषो वाव गौतमाग्निस्तस्य वागेव समित्प्राणो धूमो जिह्वार्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिङ्गाः । तस्मिन्नेतस्मन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः संभवति।।
योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ इव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः । तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति।। ////
एवं स्त्रीप्रसंग अथवा गर्भाधान भी यज्ञ हैं, यह विहित देश-काल तथा पात्र पाकर ही करना चाहिये।
इस भाँति भोजन भी यज्ञ हैं, इसका अनुष्ठान विहित देश-काल में होना चाहिये अर्थात् भोजन किसका, किसके हाथ का, कहाँ, किस समय, कौनसी स्थिति में सिर तरह,कौनसे वेश में आदि का नियम और उचित निषेध के पालन पूर्वक विधा से किये हुए अनुष्ठान को ही भोजन कहा हैं। केवल पातितादि दोष रहित और द्रव्यशुद्धि युक्त शुद्ध अन्न की आहुति (शरीर की जठराग्नि में मुख द्वारा)देनी चाहिये , इससे वीर्य उत्पन्न होता हैं। जहाँ जो पातकी, अनुचितों आदि का जो मिला , उसे खा लेने से यज्ञ नष्ट हो जाता हैं और #न_हि_यज्ञसमो_रिपुः। वही यज्ञ अपना शत्रु हो जाता हैं और नाना प्रकार के अनर्थ का कारण होता हैं।
एवं स्त्रीप्रसंग अथवा गर्भाधान भी यज्ञ हैं, यह विहित देश-काल तथा पात्र पाकर ही करना चाहिये, नहीं तो इसका परिणाम अतीव भयंकर होता हैं, शरीर में दारुण व्याधियाँ उत्पन्न होती हो जाती हैं, कुसंतान की उत्पत्ति से कुल कलंकित होता हैं और यावज्जीवन अत्युग्र यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं।
संतान की जन्मकुण्डली की बड़ी चिन्ता माता-पिता को होती हैं, परंतु कुण्डली के मूलाधार गर्भाधान-संस्कारकाल की कोई चिन्ता ही नहीं होती। बच्चों के नव संस्कार - गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,नामकरण, अन्नप्राशन,चूडाकरण और उपनयन को यथा समय और क्रम से माता-पिता को करने पड़तें हैं। इन सब के लिये उत्तम से उत्तम मुर्हूत बड़े से बड़े विप्र-ज्योतिषी से दिखलाया जाता हैं,परंतु सबसे मुख्य और प्रथम संस्कार , जिसे गर्भाधान कहतें हैं, हँसी-खेल की वस्तु समझा जाता हैं। सभ्य समाज में उसकी चर्चा भी उठायी नहीं जा सकती,उसका नाम लेना अश्लीलता हैं। उचित तो यह था कि उसके नियम मनुष्य मात्र को हस्तामलक होते, स्त्री-पुरुष सब उनसे परिचित होते और उनके उलङ्घन करने में सौ बार विचार करना पड़ता।
किस कार्य के लिये कौन सा मुर्हूत शुभ हैं और कौन अशुभ हैं, इसका विज्ञान ही पृथक् हैं, जिसे फलित शास्त्र कहतें हैं। आजकल फलितशास्त्र की खिल्ली उड़ानेवाले भी कम नहीं हैं, पर काम पड़नेपर मुर्हूत दिखलाकर ही सब लोग कार्य करते हैं। औरंगजैब जैसा बादशाह भी मुर्हूत दिखलाकर ही सिंहासनारूढ़ हुआ। फलाफल के तारतम्य के विचार में भले ही कभी चूक हो जाय, पर ग्रह-नक्षत्रगण का प्रभाव तो पृथ्वीपर स्थूल दृष्टि से भी उपलक्षित होता हैं। शिशु के भूमिष्ठ होने के समय जैसी ग्रहस्थिति होती हैं,उसका जैसा प्रभाव नवजात शिशुपर पड़ता हैं, वह यावज्जीवन के लिये उसका साथी हो जाता हैं; पर इसका भी मूल कारण गर्भाधान का समय हैं। अतः गर्भाधान भूलकर भी अविहित समय में नहीं होना चाहिये। गर्भाधान काल के दोष से ही काश्यपजी के द्वारा दिति देवी के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु सरीखे क्रूरकर्मा दैत्य उत्पन्न हुए थे।
बहुत काल से यह भावना नष्ट हो गयी हैं। इसको जाग्रत् करने के लिये बहुत समय और आयास की अपेक्षा हैं, पर यदि संसार में सुख-शान्ति लानी हैं तो इसे जाग्रत् करना ही पड़ेगा। ज्योतिष के ग्रन्थों में --- इच्छीत संतान प्राप्ति के लिये कुछ नियम और निश्चित्त समय दिएँ हैं। पहिले तो यह समजना उचित हैं कि वीर्य की आधिक्यता होने से पुत्र , रज की आधिक्यता होने से पुत्री और दौनों का समत्व होने से नपुंसक संतान होती हैं - इसलिये शुभ संतान चाहने वाले पिता को अपने वीर्य की रक्षा यत्न से करनी चाहिये। यह इस तरह से पहिले संभव था कि उपनयन के बाद कुमार गुरुकुल में ब्रह्मचर्य के कड़े से कड़े नियमों का पालन करता हुआ अपने गुरु की सेवा करता हुआ वेदाध्ययन करता था। सामान्यतः विवाह के बाद भी शास्त्र की आज्ञा हैं कि जबतक गर्भाधान का उचित मुर्हूत न प्राप्त हो तब तक - विवाह के दिन से तीन दिन तक वर और वधू को कोई खारे पदार्थ या नमकीन भोजन नहीं करना चाहिए। उसे खटिया पर भी नहीं सोना चाहिए। तीन दिनों तक उसे धरती पर सोना चाहिए। अथवा उचित गर्भाधान के मुर्हूत की प्रतिक्षा हो तब तक बारहदिन , छः दिन या एकवर्ष तक भी संयमपूर्वक सहवास न करें -- "( त्रिरात्रमक्षारलवणाशिनौ स्यातामधः शयीयातां संवत्सरं न मिथुनमुपेयातां द्वादशरात्रं षड्रात्रं त्रिरात्रमन्ततः।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/८/२१।।)"
इसी सूत्र में हरिहरभाष्यकार का मत हैं कि "अनन्तः" शब्द का प्रयोग किया गया हैं। इसका अर्थ हैं चतुर्थीकर्म । जबतक चतुर्थीकर्म "( चतुर्थ्यामपररात्रेऽभ्यन्तरतः ।।गदाधरः।।)" विवाह के चौथे दिन समाप्त नहीं हो जाता , तबतक वधू भार्या नहीं हो सकती "(पत्नी चातुर्थीकर्मणि।।)" अतः पारस्करने चतुर्थीकर्म तक ब्रह्मचर्य का अनिवार्यरूप से पालन करने का निर्देश दिया हैं। वस्तुतः इस विचार में सभी आचार्य एकमत हैं -- "( चतुर्थीकर्मानन्तरं पञ्चम्यादिरात्रावभिगमनं , चतुर्थीकर्मणः प्राक् तस्या भार्यात्वमेव न संवृत्तं विवाहैकदेशत्वाच्चतुर्थीकर्मणः।।हरिहरः।।)"
हायनरत्न में कहा हैं कि पुरुष या स्त्री की जन्मकुंडली में ५,९ स्थानोंपर किसी भी राशिका बुध या गुरु का गोचर हो तब स्त्री को गर्भ ठहर सकता हैं।
वर्ष कुंडली में गुरु ५ या ११ वें स्थान पर हो तो गुरु की हीनांशा दशा में अथवा जिस मास में पुनः गुरु ५,११ या ९ वें स्थान पर अथवा लग्न में आएँ उस मास में गर्भ ठहरता हैं। (जन्मकुंडली में पंचमेश मंगल वर्ष कुंडली में ५ या ११ स्थान पर हो तथा जिस मास की कुंडली में ५ या ११ स्थान पर मंगल हो उस मास में अथवा मंगल की हीनांशा दशा में गर्भ रहता हैं - यह नियम केवल धन और कर्क लग्न में संभव हैं)"
स्त्री की जन्मराशि से चंद्र अनुपचय १-२-४-५-७-८-९ और १२ इस स्थान में से किसी भी स्थान का हो और उस चंद्रपर मंगल की दृष्टि हो उस समय यदि स्त्री को रजोदर्शन हो तो वह रजोदर्शन की सोलहरात्रि गर्भधारण के लिये सक्षम हैं। पुरुष की जन्मराशि से चंद्र उपचय ३-६-१०-११ स्थान में से किसी भी स्थान में हो और इस चंद्र को गुरु की दृष्टि प्राप्त हो तो उत्तम योग रहता हैं - इस प्रकार स्त्री और पुरुष जन्मराशि का विचार भी करना चाहिये। प्रश्नकुंडली की तरह आधानकुंडली बनाकर निश्चित्त गर्भाधान का मुर्हूत निकालने से पुत्र, पुत्री या यमल का जन्म भी संभव हैं।
जिस तरह यत्न से ब्रह्मचर्य का पालन करकें वीर्य का संरक्षण करना पुरुषों के लिये उचित हैं इसी तरह स्त्रीयों को रजोदर्शन के समय भी जो अस्पृश्यता, पहनने के कपड़े, उठने बैठने ,सोने का आचार भी आवश्यक हैं क्योंकि संतान प्राप्ति में स्त्रीरज भी सहायक अंग हैं।
गृह्यसूत्रों तथा धर्मग्रन्थों में गर्भाधान मुर्हूत का बड़ा विस्तार हैं, पर मुर्हूतचिन्तामणि के दो श्लोकों में संक्षेपरूप से सभी कुछ कह दिया गया हैं --
नक्षत्र,तिथि तथा लग्न के गण्डान्त, निधनतारा, जन्मतारा,मूल,भरणी,अश्विनी,रेवती, ग्रहणदिन, व्यतीपात्त, वैधृति, माता-पिता का श्राद्धदिन, दिन का समय, परिघयोग के आदि का आधा भाग, उत्पात से दूषित नक्षत्र,जन्मराशि या जन्मनक्षत्र से आठवाँ लग्न, पाप युक्त नक्षत्र, जन्मराशि या जन्मनक्षत्र से आठवा लग्न, पाप युक्त नक्षत्र या लग्न, भद्रा,षष्ठी,चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, सन्ध्या के दौनों समय, मंगलवार, रविवार और शनिवार, रजोदर्शन से आरम्भ करके चारदिन - ये सब पत्नीगमन में वर्जित हैं। शेष तिथियाँ ,सोमवार,गुरुवार,शुक्र, बुधवार, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा और शततारा - ये गर्भाधान के लिये शुभ हैं ---> "( गण्डान्तं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं , दास्त्रं पौष्णमथोपरागदिवसं पाते तथा वैधृतिम्। पित्रोः श्राद्धदिनं दिवा। च परिघाद्यर्धं स्वपत्नीगमे, भान्युत्पातहतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम्।। भद्राषष्ठीपर्वरिक्ताश्च सन्ध्या,भौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्रः। गर्भाधानं त्र्युत्तरेन्द्वर्कमैत्र, ब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुपे सत्।।)"
जो द्विज अनाचरणीय पतित होने के दोष से पतित हो चूकें हो उसे उचित प्रायश्चित्त करने के बाद स्वशाखीय-पुनःउपनयन पश्चात् ही उचित मुर्हूत में गर्भाधान करना चाहिये । इस तरह अशुभकाल-स्थिति में प्रथमरजोदर्शन हुआ हो तो स्त्री के लिये भुवनेश्वरी-शांति विधान करवा कर बाद में उचित गर्भाधान के मुर्हूत पर विचार करना आवश्यक हैं।
इसमें सदेह नहीं कि ऋतुदान के समय निर्णय के लिये किसी विद्वान् विप्र-ज्योतिषी की सहायता अपेक्षा हैं, इससे जितना बड़ा अपना हित,वंश का हित,राष्ट्र का हित सम्भव हैं,उतना हित अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं।
गर्भनिरोध के प्रचार से व्यभिचार के मार्ग को निरर्गल करने के इच्छुकों को, विषय के गीधों को निःसन्देह यह सुझाव निःसार , अश्लील और अव्यवहार्य मालूम पड़ेगा, परंतु उन लोगों को मालूम होना चाहिये कि यह लाभदायक संस्कार भारत में प्रचलित था और आज भी कुछ द्विज अवश्य इस संस्कार को साङ्गोपाङ्ग करवा रहे हैं। इसी के लोप से देश का जगद्गुरु के पद से पतन हो गया। बड़े बड़े असम्भव कार्यों को सम्भव कर दिखलानेवालें देश के कर्णधार इस ओर ध्यान दे, बड़े बड़े ब्रह्मचर्याश्रम खोलनेवाले देश के महोपदेशक इसका प्रचार करें।
भगवद्गीता का प्रचार इस समय बढ़ रहा हैं,उसी भगवद्गीता को आँख खोलकर देखने की और देखकर आचरने की आवश्यकता हैं। यदि गीताध्यायी अपने कर्मों को यज्ञरूप में परिणत नहीं कर सका, अपने भोजन-शयनादि व्यवहार को यज्ञ का रूप नहीं दे सका तो गीता का अध्ययन ही व्यर्थ हैं। गीता के कारण तो युद्ध भी यज्ञरूप में परिणत हो गया - "(धर्माद्विरुद्ध भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ)" कहकर भगवान् ने तो सीधे-सीधे गर्भाधान को यज्ञ का रूप दिया हैं, नहीं तो काम को शत्रु बतलाया हैं और उससे सावधान रहने के लिये आदेश है, यथा "(विद्ध्येनमिह वैरिणम्)" यह वैरी सर्वनाश करता हैं। कुसंतान की बाढ़ से जगत् व्याकुल हो उठता हैं।
शास्त्र विहित देश,काल और पात्र का विचार रखने से ही काम ईश्वर की विभूति ह जाता हैं। उससे अचिन्त्य कल्याण होता हैं,लोक परलोक सब बन जाता हैं,सदाचारी होकर यश प्राप्त करता हैं, सुसंतान उत्पन्न करके आत्महित,वंशहित तथा राष्ट्रहित करता हैं। अतः माता-पिता का सदाचार ही उत्तमसंतानोत्पत्ति का कारण होता हैं।
वस्तुतः बालक के चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया गर्भाधान से प्रारम्भ हो जाती हैं। जैसे - मकान बनाने से पहिले उसकी योजना बनाकर उसके लिये अपेक्षित उत्तम प्रकार की सामग्री का होना नितान्त आवश्यक हैं, वैसे ही उत्तम संतान प्राप्त करने के लिये उसके उपादान रज-वीर्य का उत्तम कोटि का होना नितान्त आवश्यक हैं।
चरकसंहिता में उक्त बात को निम्न प्रकार से व्यक्त किया हैं - जिस प्रकार का अच्छा या बुरा बीज बोया जायगा, फल भी वैसा ही होगा जैसे व्रीहि को बोने से व्रीहि और जौ को बोने से जौ उत्पन्न होता हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष का रज-वीर्य जैसा होगा , वैसी ही शुभाशुभ संतान होगी -- "( यथा हि बीजमनुपतप्तमुप्तं त्वां त्वां प्रकृतिमनुविधीयते व्रीहिर्वा व्रीहित्वं यवो वा यवत्वं तथा स्त्रीपुरुषावपि यथोक्तं हेतुविभागमनुविधीयते।। शारीर स्थान ८/२०)"
गर्भाधान संस्कार बालक नहीं, अपितु सुयोग्य बालक बनाने का संस्कार हैं। इसलिये इस संसार में धर्म का भाव यथावत् आवश्यकरूप से बना रहना चाहिये। *(गर्भाधान की क्रिया के समय माता-पिता की शारीरिक तथा मानसिक स्थिति जैसी शुद्ध और पवित्र होगी, बालक का शरीर और मन भी वैसा ही बनेगा , यदि गर्भाधान के दिनों के आसपास के दिनों अपने कुलाचार्य से ,गुरुओं से, शास्त्रों से, गाय से आदि से द्वेष होगा अथवा गर्भाधान से लेकर बालक के जन्म होने के बाद भी जबतक बालक माँ का स्तनपान करता हैं इस समय में भी उक्त महानुभावों के प्रति दुर्भाव रहेगा तो समझिये की संतान भी बड़ी होकर इन्हीं महानुभावों के आदर करने में दुर्भाव ही व्यक्त करेगी)* अतः गर्भाधान के समय माता-पिता के मन का स्वस्थ एवं धर्मान्वित होना अत्यन्त आवश्यक हैं ,बालक के जन्म के बाद उपनयन होने तक तो महानुभावों के साथ दुर्भाव का साधन न हो इस बात को यथायोग्य ध्यान में रखना चाहिये , बालक के उपनयन के बाद यदि गुरुकुल में गुरु के पास वेदाध्ययनादि शिक्षा को प्राप्त करे तो तो अवश्य सोने में सुहागा की बात हैं, परंतु गुरुकुल में किसी परिस्थितिवश न भी जाय तो अपनी अपनी वेद-शाखा के नित्यकर्म(षट्कर्म) तथा अपनी वेद-शाखा के अनुसार गर्भाधानादि मृतिसंस्कारों को तो अनिवार्यरूप से किसी आचार्य के समीप सीखना चाहिये, ऐसी स्थिति में घर को ही उचित गुरुकुल के अनुसार बना देना नितान्त आवश्यक हैं अतः यहाँ भी बालक सोलहवर्ष की आयु का न हो जाय तबतक उक्त महानुभावों के साथ दुर्भाव नहीं रखना चाहिये।
सुश्रुतसंहिता में कहा हैं कि स्त्री-पुरुष जैसे आहार-विहार और चेष्टा आदि से युक्त होकर परस्पर समागम करतें हैं, संतान भी वैसी ही होती हैं । इसलिये स्त्री-पुरुष को संतानोत्पत्ति के लिये गर्भाधान में सर्वथा निर्दोष हो प्रवृत्त होना चाहिये - "( आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितौ। स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः।। शारीरस्थान २/४६।।)" सरल उपाय हैं कि विवाह के बाद उत्तम संतान की इच्छा से --- ब्राह्मणों को - ऋषिमुनिचरित, शंकराचार्यचरित, आचार्यों के चरितों , क्षत्रियों को वीर-प्रतापीपुरुषों,वीरांगना के चरितों, वैश्यों को भक्तचरित, और शूद्रों को नवधाभक्ति में से दास्यभक्ति का यथायोग्य ग्रन्थों से तथा स्व-स्व वर्णाश्रमधर्मों का तथा सतीचरित और पातिव्रत्य धर्मों का सभी को अध्ययन करके उसका मनन करते हुए पहिले से ही अपने शरीर को धर्माकार बना देना चाहिये।
गर्भाधान एक अत्यधिक महत्त्व पूर्णह एवं सूक्ष्म प्रभावोत्पादक संस्कार हैं। इतिहास में आता हैं कि अपने समान गुणयुक्त संतान उत्पन्न करने के लिये सपत्नीक श्रीकृष्ण ने बदरिकाश्रम में बारहवर्ष तक तप किया - "( व्रतं चचार धर्मात्मा कृष्णो द्वादशवार्षिकम्।। महाभारत अनु० १३९/१०।।)"
।। जय श्री राम।।
#संस्कारविमर्श - ५ (गर्भाधान -खंड २)-
भारतीय संस्कृति में मानव का चरम लक्ष्य पूर्णता तथा आनन्दस्वरूपता को माना गया हैं।भारतीय दर्शनों में ज्ञान को पूर्णता तथा निरतिशय आनन्द की प्राप्ति का प्रमुख साधन निर्धारित किया गया हैं। ज्ञान के समुचित विकास से युक्त होने के कारण मानवीय समुदाय को संस्कृतभाषा में "समाज"-संज्ञा(अमरकोष २/५/४२,पाणिनीसूत्र ३/६/६९)- से अभिहित किया गया हैं। भारतीय विचार दृष्टि से उसी समाज की सुदृढ़ता तथा पूर्णता मानी जाती हैं, जिस में स्वास्थ्य,शिक्षा,धैर्य,बल, सम्पत्ति तथा भोग -इन छः पदार्थों का समानरूप से भलिभाँति ध्यान रखा जाता हैं। इस संदर्भ में तैत्तरीयोपनीषद् २,८,२ का उपदेश हैं - *#युवा_स्यात्_साधुयुवाध्यापक_आशिष्ठो #द्रढिष्ठो_बलिष्ठस्तस्येयं_पृथिवी_सर्वा #वित्तस्य_पूर्णा_स्यात्। #स_एको_मानुषः_आनन्दः।।*
उक्त छः पदार्थों में किसी एक की अतिशयता अथवा किसी एक की हानि से कोई भी समाज शिथिल तथा अपूर्ण हो जाता हैं, यह भारतीय दृष्टि हैं;क्योंकि ये छः पदार्थ ही समुदितरूप से मानव के आनन्द हैं। भारतीय आर्ष सामाजिक व्यवस्था इन छः पदार्थों का समानरूप से आदर करती हैं। अतः आचार्यों ने समाज के स्वरूप में पूर्णत्व के प्रापक ज्ञान-तत्त्व को आश्रय माना हैं, साथ ही न्यायदर्शन की दृष्टि से प्राप्तव्य आत्मगुण नामक धर्मतत्त्व के अन्तर्गत आनन्द को भी समाज के आश्रय के रूप में स्वीकार किया हैं।
इस प्रकार ज्ञान तथा धर्म के द्वारा पूर्णता एवं आनन्द का विशिष्ट संतुलन भारतीय समाज की विशेषता हैं।अन्य विचारकों की दृष्टि में धर्म तथा व्यवहार का पार्थक्य हैं। अतः लौकिक व्यवहार में प्रत्यक्षदृष्ट के प्रति ही विश्वास के कारण आधुनिकों की दृष्टि में शारीरिक विषयसुख ही आनन्द हैं एवं उस सुख-सुविधा के लिये ही समाज की व्यवस्था निरूपित हैं, परंतु भारतीय संस्कृति में धर्म का व्यापक तथा व्यावहारिक स्वरूप हैं। भारतीय धर्म मात्र ईश्वर,अतीन्द्रिय तत्त्व अथवा परलोक के विषय में ही सीमित नहीं हैं, अपितु मानव के प्रत्येक दैनन्दिन कार्य में धर्म का सम्बन्ध भारतीय परम्परा में माना गया हैं। एतदर्थ महाभारत में स्पष्ट उल्लेख हैं - "(लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम्)"
यह व्यावहारिक धर्म आत्मदर्शन का साधन हैं। फलतः भारतीय समाज व्यवस्था केवल विषयसुख की सुविधा के लिये प्रवृत्त नहीं हैं, अपितु आनन्दमय पथ से आत्मदर्शनरूपी ज्ञान के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हैं। अतः "गागाभट्ट" ने धर्म की यह परिभाषा प्रस्तुत की हैं -- /// अलौकिकश्रेयस्साधनत्वेन विहितक्रियात्वं विहितत्वं वा धर्मत्वम्।। ///
लौकिक जीवन में मानुष-आनन्द का संचय करते हुए च्युतिरहित चरम लक्ष्य की प्राप्ति संस्कारों के फल में हैं - "( संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुत्तरैरनुसंस्कृतः। ब्राह्मण पदमवाप्नोति यस्मान्न च्यवते पुनः।। शङ्ख-लिखित स्मृति।।)"
संस्कारों की परिगणना में गर्भाधानं संस्कार प्रथम हैं। इस संस्कार को प्राथमिकता देना भौतिकवादियों की दृष्टि से भारतीय धर्म का आश्चर्यजनक प्रारम्भ माना जा सकता हैं। परंतु वस्तुतः वही संस्कार मानव के प्रादुर्भाव में प्राथमिक पवित्रता एवं शुद्ध भावना का बीजारोपण करता हैं। अन्य समाजों की भाँति भारतीय समाज में मानव के उद्भव को भौतिकपदार्थों की संयोगजन्य क्रिया अथवा विकार के रूप में नहीं माना गया हैं, अपितु मानवीय उत्पत्ति को भारतीय ऋषियों ने धर्म की दृष्टि से प्रतिपादित किया हैं। इसी प्रकार विश्व की अन्य सभ्यताओं में विवाह के नियम दृष्ट अथवा प्रत्यक्षफल (सामाजिक सुविधा, शारीरिक सुख तथा संतानसुख आदि) को आधार मानकर ही निरूपित हैं, परंतु भारतीय आर्षशास्त्रों में विज्ञान तथा दर्शन - दोनों के समन्वय से दृष्ट एवं अदृष्ट फलों के आधारपर स्त्री-पुरुषों के विवाह आदि पारस्परिक नियम निश्चित किये गये हैं। विवाह के अनन्तर भौतिकवादियों की दृष्टि में गर्भाधान के संदर्भ में भी सृष्टि की धारा का क्रमिक विकास तथा विस्तार ही एक उद्देश्य हैं, परंतु वैदिक संस्कृति इसके द्वारा ऐहिक तथा पारलौकिक द्विविध अभ्युन्नति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। पितृऋण से मुक्ति की इच्छा गर्भाधानं संस्कार का पवित्र एवं आध्यात्मिक उद्देश्य हैं। पितृऋण से मुक्ति क् अनन्तर ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव हैं। मनुस्मृति का कथन हैं - "(ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।।)। इस कर्तव्यबुद्धि से गर्भाधान जैसा नैसर्गिक तथा नितान्त भौतिक कर्म भी पवित्र दायित्व का स्वरूप प्राप्त कर प्रकाशित हो उठता हैं।
गर्भाधान-संस्कार के अनुष्ठान की प्रक्रिया में अन्य पूर्वाङ्ग विधियों (विवाह के चौथे दिन चतुर्थीकर्म)के अनन्तर आचार्य पारस्कर ने पति द्वारा समस्त हानियों के निरास के लिये देवताओं से प्रार्थना के मन्त्रों का उल्लेख किया हैं। इस में पत्नी की सर्वविध पुष्टि की प्रार्थना पति द्वारा की जाती हैं। पति-पत्नी के परस्पर अतिशय आत्मीय सम्बन्ध की प्रार्थना करते हुए पत्नी को पति यज्ञीय पाक खिलाता है - प्रथम ग्रास से "हे वधू ! मैं अपने प्राणों से तुम्हारे प्राणों को ,हड्डियों से हड्डियों को , मांस से मांस को , चमड़ी से चमड़ी को एक साथ मिलाता हूँ -----> "स्थालीपाकं प्राशयति।। ।। "( प्राणैस्ते प्राणान्त्संदधाम्यस्थिभिरस्थिनि माँसैर्मांसानि त्वचा त्वचम्।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/११/५।।)"
निश्छल प्रेम का यह पवित्र उत्कर्ष गर्भाधानं संस्कार को अलौकिक स्वरूप प्रदान करता हैं। पति एक अन्य मन्त्र द्वारा पत्नी के हृदय का स्पर्श करते हुए उसके मन को समझने की कामना करता हैं।
इस प्रकार गर्भाधानसंस्कार में देवोपासना के द्वारा आध्यात्मिक विशुद्ध वातावरण की पीठिका निर्मित करते हुए दम्पती की परस्पर दैहिक तथा मानसिक स्थितियों को समन्वित किया जाता हैं। इस उत्तम सम्बन्ध तथा पवित्र आध्यात्मिक भावना से भगवान् विष्णु गर्भ को विकारों से विपरित , गुणयुक्त तथा तेजस्वी बनाया जाता हैं।
गर्भाधान का स्वरूप देवमूर्तियों में प्रतिष्ठा कर्म की भाँति आधिदैविक हैं। चैतन्य का अधिष्ठान मानव-शरीर देवायतन हैं । मन्दिर में देवता के प्रतिष्ठापन के लिये जिस प्रकार मन्त्रों से शुद्धि की जाती हैं, उसी प्रकार के गर्भाधान-संस्कार विधा के अनुष्ठान द्वारा जीव में चैतन्यरूपिणी महते शक्ति के प्रतिष्ठापन की योग्यता उत्पन्न की जाती हैं। यह शब्दशक्ति के प्रवाह एवं संकल्प युक्त क्रिया के द्वारा सम्पन्न होती हैं। भारतीय परम्परा में प्रत्येक जीव को परतत्त्व का अंशभूत तथा चिच्छक्ति से सम्पन्न माना गया हैं।उस व्यष्टिगत चैतन्य का आवाहन तथा प्रतिष्ठापन इस प्राथमिक गर्भाधानं संस्कार में किया जाता हैं। देवोपासना की यह भावना गर्भाधान को आधिदैविक रूप प्रदान करती हैं।
मानव-सुलभ दोषों के परिहार के लिय् जिस प्रकार देवमूर्तियों का संस्कार विहित हैं, उसी प्रकार धरित्री के रत्नस्वरूप जीव को संस्कार के द्वारा निर्दोष तथा समाज में विद्योतमान बनाया जाता हैं। मनुस्मृति २-२७ में गर्भाधान आदि संस्कारों का यही प्रयोजन निर्दिष्ट हैं की बीजगत तथा क्षेत्रगत दोषों की निवृत्ति के साथ जीवन को ब्रह्मप्राप्ति योग्य बनाना इन संस्कारों का पावन उद्देश्य हैं।
चराचर समस्त भूतों का रस-सार अथवा आधार पृथिवी हैं, पृथिवी का रस जल हैं, जल का रस-- उसपर निर्भर करनेवाली ओषधियाँ हैं, ओषधियों का रस-सार पुष्प हैं, पुष्प का रस फल हैं,फल का रस -आधार पुरुष हैं, पुरुष का रस सार शुक्र हैं , इस प्रकार स्त्री में रज हैं।
प्रजापति ने विचार किया कि इस शुक्र की उपयुक्त प्रतिष्ठा के लिये कोई आधार चाहिये; इसलिये उन्होंने स्त्री की सृष्टि की और उसके अधोभाग सेवन का विधान किया।(यहाँ यदि यह कहा जाय कि इस पाशविक क्रिया में तो प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति हैं,इसके लिये विधान क्यों किया गया हैं, तो इसका उत्तर यह हैं कि यह विधान इसीलिये बनाया गया कि जिस में पुरुषों की स्वेच्छाचारिता का निरोध हो और इस विज्ञान से विवाह-संस्कार से सम्पन्न अपने पति के ही द्वारा केवल श्रेष्ठ संतानोत्पत्ति के लिये ही इसका सेवन किया जाय)
इसके लिये प्रजापति ने प्रजननेन्द्रिय को उत्पन्न किया। अतएव इस विषय से घृणा नहीं करनी चाहिये।
अरुण के पुत्र विद्वान् उद्दालक और नाक-मौद्गल्य तथा कुमारहारीत ऋषि ने भी कहा हैं कि *बहुत से ऐसे मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मण हैं जो निरिन्द्रिय, सुकृतहीन, मैथुन-विज्ञान से अपरिचित होकर भी मैथुनकर्म में आसक्त होतें हैं। उनकी परलोक में दुर्गति होती हैं। (इसी से अशास्त्रीय तथा अबाध मैथुनकर्म का पापहेतुत्व सूचित किया गया हैं)-- विवाह के बाद उचितगर्भाधान के मुर्हूत तक ब्रह्मचर्यपूर्वक पुरुष को पत्नी के ऋतुकाल की प्रतिक्षा करनी चाहिये। यदि इस बीच में मध्य स्वप्नादिदोष के द्वारा शुक्रक्षरण हो जाय तो उसकी पुनः प्राप्ति तथा वृद्धि के लिये उचित मन्त्रजप से स्वप्नदोषादि व्याधियोंका का नाश होता हैं।
स्त्रीयों को प्रतिमास सोलहरात का स्वाभाविक ऋतुकाल कहा हैं, उस सोलह रात्रियों में से पहली चार और ग्यारहवीं तथा तेरहवीं रात्रि स्त्रीसंगम में निंदित हैं। इसके अतिरिक्त दशरात्रि उत्तम हैं । युग्मरात्रि(6,8,10,12,14,16) में स्त्रीगमन करने से पुत्र और अयुग्म रात्रियों (5,7,9,15)में पुत्री की प्राप्ति होती हैं। पुरुष के वीर्य की मात्रा अधिक हो तो पुत्र और स्त्री का रज अधिक हो तो पुत्री तथा वीर्य और रज की मात्रा समान हो तो नपुंसक अथवा स्त्री-पुरुष का जोडा़ तथा दौनों के वीर्य और रज साररहित हो तो गर्भ नहीं रहता ---> "(ऋतुः स्वाभाविक स्त्रीणां रात्रयः षोडशः स्मृताः। चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः।। तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या। त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दशरात्रयः।। युग्मासु पुत्री जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु। तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्।। पुमान् पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रीयाः। समेऽपुमान् पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः।। मनुः ३/४६-४९।।)"
वैदिकदृष्टि से गर्भाधान-संस्कार का स्वरूप याज्ञिक हैं। शतपथब्राह्मण १४/९/४/३ में इसे वाजपेयी याग के समान महत्त्वपूर्ण बतलाया गया हैं -- "( यावान् ह वै वाजपेयेन लोको भवति तावानस्य लोको भवति।।)"
इस संस्कार में प्रयुक्त प्रत्येक अङ्ग यज्ञ के साधन माने गये हैं। तथा इस मन्थ की याज्ञिक प्रक्रिया के द्वारा यजमान को सुकृत एवं उत्तम लोक की प्राप्ति होती हैं।
पारस्कर गृह्यसूत्र में आवस्थ्याग्नि में नित्यहोम करनेवाले यजमान को सायं और प्रातःकाल यदि पुत्र की इच्छा हो तो पति के दायें हाथ को स्पर्श करतें हुए पति द्वारा "पुमां सौ""" ० आदि मंत्र से आहुति देकर पत्नी को इस तरह इसी मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिये कि ---> श्रेष्ठ पुरुष, मित्र और वरुण, दोनों अश्विनीकुमार इन्द्र और सूर्य मेरे गर्भाशय में पुरुषरूप में संयुक्त हो।
पारस्कर -गृह्यसूत्र के १/११/७ वें सूत्र में कहा हैं कि वधू को उद्वाह कर निर्दिष्ट ऋतुकाल में (संतान की प्राप्ति की कामना से) प्रवेशन अर्थात् अभिगमन करना चाहिये --> #तामुदुह्य_यथर्त्तुप्रवेशनम्।।पार०गृह्य०- १/११/७।।
और यदि संतान प्राप्त हो चूकी हो तब नारी जब रमण करने की इच्छा अभिव्यक्त करे, तब उसके साथ सहवास करना चाहिये। क्योंकि नारियों ने देवराज इन्द्र से ब्रह्महत्या का प्रतिग्रहण करने पर , यह वर माँग लिया था कि जब हम चाहे ,अपने पति के साथ सहवास करें। यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि संतान की कामना से ऋतुकाल और बिना ऋतुकाल में अपनी इच्छा से नहीं अपितु पत्नी की इच्छा से सहवास करना चाहिये ---> "(यथाकामी वा काममाविजनितोः सम्भवामेति वचनात्।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/११/८।। तैत्तरीय श्रुति -- स इन्द्रः स्त्रीषंससाद००आदि ।।
अष्टांग-हृदय अध्या१- शारीरस्थान २७ में पुत्र की इच्छा से पुत्रेष्टियज्ञ को आचरने को कहा हैं - "( उपाध्यायोऽथ पुत्रीयं कुर्वीतविधिवद्विधिम् ।)"
इस यज्ञ को करने से पहिले स्त्री या पुरुष में रहे दोषों की शान्ति के लिये "रुद्रस्नान-विधा" अनिवार्य हैं। (पुत्रेष्टि याग की विधा गर्भाधान की जानकारियाँ और षोडश संस्काराः नामक फेसबुक पृष्ठद्वय पर रुद्रस्नान सहित सम्पूर्णविधा को अकिंत किया हैं)
साधुपुरुषों का वचन हैं कि सन्तान की इच्छासे (समाज के लोंगों की इच्छा से नहीं)स्त्री पुरुष एकान्त में सहवास करें, संतान की कामना से अद्यतन " हॉटलों को जाकर - हनीमुन" नामक स्वेच्छाचार करतें हैं - उससे अनेकानेक कामादि अश्लील दोषों का भी यापन गर्भ में हो जाता हैं,बड़े कुल में उत्पन्न भी बुरी सन्तान समस्त कुल को नाश करनेवाली अर्थात् कुलमर्यादा-संस्कारों आदि का नाश करती हैं - इससे बचकर संस्कृति के संस्कारों को आचरना चाहिये),नित्योकर्मोपासना की शुभ ऊर्जा के वातावरण और उत्तम-गर्भाधानसंस्कार के होम से शुद्ध हुई ऊर्जा वाला वातावरण अधिक शुभता को प्रदान करता हैं-- "( सन्तोह्यायुरपत्यार्थं दम्पत्योः सङ्गतिं रहः। दुरपत्यं कुलाङ्गारो गोत्र जाते महत्यपि।।अष्टांग हृद० १ /२९।।)
जिस भावना से योनि में वीर्य डाला जाता हैं, उसी भाव से युक्त संतान होती हैं। इसलिये मनुष्य को गर्भाधान करने पहिले ही अपने आचरण को अपने वर्ण और आश्रम के धर्मों से सज्ज-होना अत्यावश्यक हैं, वहाँ उचित हैं कि विद्वान् ब्राह्मण से अपने अपने वर्णाश्रम के धर्मों और नित्यकर्मों को गर्भाधान से पहिले जानकर तदनुसार आचरण करें। वही वर्णाश्रम और नित्यकर्म के धर्मों को आचरनेवाली संतान हो,आचरण सहित इस शुभ भावना युक्त होना ही धर्म की संतान को प्राप्त करना कहा हैं, तदभिन्न तो कामप्रजा- अनाचारी होती हैं - अष्टांग हृदय में भी कहा हैं कि वर्ण,स्थान,आकृति आदि में -आचार अनुसार तथा श्रद्धा,श्रुत,सत्य,आर्जव,दान,दया,दाक्षिण्य,स्वधर्म प्रति नैष्ठिकता,स्वभाव आदि -चरण अनुसार महापुरुषों का चिन्तन करें, और ऐसे ही आचरण को पालें,और उसी जैसी वेशभूषा धारण करें --- > "( यादृशेन हि भावेन योनौ शुक्रं समुत्सृजेत्। तादृशेन हि भावेन संतानं सम्भवेदिति।। नारद पुराण २/२७/२९-३०।। इच्छेतां यादृशं पुत्रं तद्रूपंचरितांश्च तौ। चिन्तयेतां जनपदांस्तदाचारपरिच्छदौ।। अष्टां०हृ १/३०।।)"
व्यास ने कहा हैं कि ऋतुकाल की चौथी रात्रि में गर्भ रहे तो अल्पायु धनहीन पुत्र, पाँचवी में पुत्रवती कन्या, छठी में मध्यम पुत्र, सातवी में सन्तानहीन कन्या, आठवी में ऐश्वर्यवान् पुत्र, नौमी में सुभगा कन्या, दशमी में श्रेष्ठ पुत्र, ग्यारहवा में धर्महीन कन्या, बारहवीं में श्रेष्ठ पुत्र , *तेरहवी में पापिनी और वर्णसंकरता करनेवाली कन्या*, ///// *चौदहवी में धर्मज्ञाता कृतज्ञ आत्मज्ञानी, दृढसंकल्पवाला पुत्र,////* ।।।। *पन्द्रहवी में पतिव्रता कन्या ।।।* //// *सोलहवी में सब भूतों की रक्षा करनेवाला पुत्र उत्पन्न होता हैं ---* "( रात्रौ चतुर्थ्यां पुत्रः स्यादल्पायुर्धनवर्जितः। पञ्चम्यां पुत्रिणी नारी षष्ठ्यां पुत्रस्तु मध्यमः।। सप्तम्यां सप्रजा योषिदष्टम्यामीश्वरः पुमान्। नवम्यां सुभगा नारी दशम्यां प्रवरः सुतः।। एकदश्यामधर्मा स्त्री द्वादश्यां पुरुषोत्तमः।। त्रयोदश्यां सुता पापा वर्णसङ्करकारिणी।। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च आत्मवेदी दृढव्रतः। प्रजापतिश्चतुर्दश्यां पञ्चदश्यां पतिव्रता। आश्रयः सर्वभूतानां षोडश्यां जायते पुमान्।। व्यासः।।)"
उचित मुर्हूतों में पति अपनी कामना के अनुसार पत्नी को रात्रिकाल में एकांत में कहे कि " देखो , मैं प्राण हूँ और तुम प्राणरूप मेरे अधीन वाक् हो। मैं साम हूँ और तुम साम का आधाररूप ऋक् हो, मैं आकाश हूँ और तुम पृथिवी हो। अतएव आओ तुम हम दोनों मिलें, जिससे हमें उत्तम संतान और तदनुगत गुणादिधन की प्राप्ति हो। "" विष्णुर्योनि" आदि गर्भाधान प्रकरण विधा के मन्त्र से शुभभावयुक्त होकर प्रार्थना करें - भगवन् विष्णु तुम्हारी जननेन्द्रिय को पुत्रोत्पादन में समर्थ करें, त्वष्टा सूर्य रूपों को दर्शनयोग्य करें, विराट् पुरुष प्रजापति रेतःसेचन करायें, सूत्रात्मा विधाता तुम में अभिन्नभाव से स्थित होकर गर्भ धारण करें। सिनीवाली नाम की अत्यन्त सुन्दर देवता तुम में अभेदरूप से एवं पृथुष्टुका नाम की महान् स्तुतिशाली देवता भी तुम में हैं । मैं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि हे सिनीवाली ! हे पृथुष्टके ! तुम इस गर्भ को धारण करों। दोनों अश्विनीकुमार अथवा चन्द्र-सूर्य तुम्हारे साथ रहकर इस गर्भ को धारण करें। दोनों अश्विनीकुमार हिरण्मय दो अरणियों के द्वारा मन्थन करतें हैं। मैं दसवें मास में प्रसव होने के लिये गर्भाधान करता हूँ। पृथ्वी जैसे अग्निगर्भा हैं, स्वर्गीय भूमि जैसे इन्द्र के द्वारा गर्भवती हैं, दिशाएँ जैसे वायु के द्वारा गर्भवती हैं, मैं तुम को उसी प्रकार गर्भ अर्पण करके गर्भवती करता हूँ। बृहदारण्यक।। -- इस प्रकार समस्त मंत्रों का पठन करकें मन्थन मन्त्र से अभिगमन करना चाहिये, पारस्कर गृह्य सूत्र १/११/९ - सहवास के बाद यत्ते सुसीमे मंत्र पढ़कर वधू के दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाकर वधू के हृदय का स्पर्श करें -- "( अथास्यै दक्षिणां समधि हृदयमालभते "" यत्ते सुसीमे००आदि)" मन्त्रभावार्थ हैं - #चन्द्रमा_मनसो_जातः इस श्रुति के अनुसार विराट् पुरुषोत्तम के मनसे चन्द्रमा का उद्भव हुआ हैं इसलिये - हे सुकेशी ! स्वर्ग में स्थित चन्द्रमा में जो तुम्हारा मन अधिष्ठित हैं,उसी प्रकार मेरे मन का भी वही चन्द्रमुख अधिष्ठान हैं। उसे हम ठीक से समझें और हमारे मन को तुम ठीक से समझो। एक अधिष्ठान में अधिष्ठित होनेपर अनेक भी एक हो जाते हैं। चन्द्रमा भगवान् की मानसिक सृष्टि में आता हैं,अतः #आत्मा_वै_पुत्रनामासि।। यह श्रुति कहती हैं कि भगवान् के मन से उत्पन्न हुआ पुत्र चन्द्रमा भगवान् का मन ही हैं। चन्द्रमा सत्त्वगुण सम्पन्न सुशीतल हैं, तदधिष्ठित तुम्हारा मन भी सत्वगुण से सम्पन्न हैं, यह मैं जानता हूँ, ऐसे तुम भी मेरे मन को जानो। इस रिति से मेरा और तुम्हारा मन एकरूपता को प्राप्त होवे और हम दोनों भगवत्स्वरूप को जानने में सफल बनें। हम दोनों विवाहसूत्र में बद्ध होकर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुएँ हैं और इस एक धरित्री के आधार में अधिष्ठित भी हैं। यह मन्त्र विश्वबन्धुत्व का भी परियाचक हैं। पवित्र भावना को लेकर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हम - नेत्रों से , कानों से परिपुष्ट होकर देखते-सुनते हुएँ सौ वर्ष जीवन यात्रा को चलायें।
आयुर्वेद के अष्टांगहृदय १शारीरस्था० ३१-३२ में कहा हैं कि - घी मिश्रित दूध में बनी भात को खाकर, स्त्री से पहिले दक्षिण पैर आगे बढ़ाकर पुरुष को शैयापर प्रथम आरोहण करें, और बाद में तैल और उड़िदप्रधान भोजन को ग्रहण की हुई स्त्री वाम पैर आगे करकें शैयापर पति के दक्षिणपार्श्व में रहे तदनन्तर "आहिरसि ००इनमंत्र का पाठ करें-- "(अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठासि धाता
त्वां दधातु विधाता त्वां दधातु ब्रह्मवर्चसा भवेति।
ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः सोम सूर्यस्तथाऽश्विनौ।
भगोऽथ मित्रावरूणौ वीरं ददतु मे सुतम्।। //////
मन्त्रार्थभाव - हे गर्भ ! तुम सूर्य के समान हो। तुम मेरी आयु हो, तुम सब प्रकार से मेरी प्रतिष्ठा हो। धाता (सबके पोषक ईश्वर) तुम्हारी रक्षा करें, विधाता (विश्व के निर्माता ब्रह्मा) तुम्हारी रक्षा करें। तुम ब्रह्मतेज से युक्त होओ।
ब्रह्मा, बृहस्पति, विष्णु, सोम, सूर्य,अश्विनीकुमार और मित्रावरूण जो दिव्य शक्तिरूप हैं, वे मुझे वीर पुत्र प्रदान करें।)"
आगे वहाँ 34 वें श्लोक के कथन में कहाँ हैं कि मंत्रपाठ के उपरांत परस्पर प्रियवचनादि से प्रीति उत्पन्न करके- सम्भोग समय पत्नी को उत्तान(छती)और भली प्रकार अंगोको स्थित हर्ष से युक्त होकर उत्तमसंतान के विषय में मन लगाकर रहें,और न्युब्ज (उलटी)या पाश्वभागों में होकर कभी भी संयोग में रत न हो क्योंकि ->वातदोष से योनिपिड़ीत होगीं और गर्भमें विकृति रहेगी "( सान्तयित्वा ततोऽन्योन्यं संविशेतां मुदान्वितो।उत्ताना तन्मना योषित्तिष्ठदङ्गैः सुसंस्थितैः।। विद्योतिनीभाषा टीकायां -- " न न्युब्जां पार्श्वगतां वा सेवेत। न्युब्जाया वातो बलवान् योनिं पीडयति।।)"//////
"(वात्सायनमुनि प्रोक्त "उत्फुल्लासन" त्वरित गर्भधारण कराने में प्रशस्त संभोग का आसन हैं,जिस में पत्नी के नितंब के नीचे तकीया रखकर,पत्नी के पैर ऊँचे उठायें)"
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में महर्षि भावयव्य तथा उनकी पत्नी रोमशा के संवाद के माध्यम से यह सिद्धांत स्थिर किया गया हैं कि स्त्री का कौमार्यावस्था(8से10वर्ष) में विवाह के अनन्तर भी पत्नी की प्रौढ़ता तथा शारीरिक अनुकूलता अनुसार विलम्ब से गर्भाधान संस्कार का काल निर्धारित किया जाता हैं। आचार्य सुश्रुत ने गर्भाधान संस्कार का काल वधू की षोडश वर्ष की आयु के अनन्तर निर्धारित किया हैं। वाग्भट् ने भी इसी प्रकार प्रौढ़ता का समर्थन किया हैं। अतः प्रमाणित हैं कि भारतीय मनिषीयों की दृष्टि में *#विवाह_और_गर्भाधान_दोनों_संस्कारों_के #समय_भिन्न_भिन्न_हैं।* इन दोनों का एक ही समय मानना उचित नहीं हैं। भारतीय कपोलकल्पितसंविधान सामाजिक विकृतियों का जनक हैं यह कोई शास्त्र नहीं कि भविष्यके गर्त में व्यभिचार आदि अनुमान को नहीं नाप सकने में सक्षम नहीं। वेदादिशास्त्रोपदिष्ट स्त्रीविवाह-काल ही पतिव्रता,संयम और वैवाहिक मन्त्रों के समुचित फल की प्राप्ति करवाकर निष्कंटक उत्तन गुणवान् संतानप्राप्ति में सहायक हैं। वेदादिशास्त्रोपदिष्ट कर्म ही उचित संविधान हैं।
अन्य गर्भाधान के उचित मुर्हूतों के दिन की समिक्षा विद्वान् सुज्ञ और कुशल विप्र-ज्योतिषी से जानना चाहिये।
पारस्करगृह्य सूत्र में - गर्भाधान की प्रधान विधा को गुरुमुख से जानकर "प्रत्येक ऋतुकाल में भी इसी प्रकार गर्भाधान किया जाय उचित हैं -- #एवमेव_ऊर्ध्वम्।।१/११/१०।। एवमनेन प्रकारेण अतोऽनन्तरमूर्ध्वम् ऋतावृतौ हृदयालम्भः कार्यः।।गदाधरः।। एवमनेन प्रकारेणातोऽनन्तरम् ऋतावॄतौ प्रवेशनं यथाकामं वेति।।हरिहरः।।)"
इस रिति से गर्भाधान संस्कार दम्पती की वैयक्तिक सन्तुष्टि के लिये नहीं,अपितु अपने शास्त्रोक्त कर्तव्य के उत्तरदायित्व से परिपूर्ण गौरवदायिनी सामाजिक प्रक्रिया के रूप में उपदिष्ट हैं। गर्भाधान संस्कार को सम्पन्न करतें हुएँ गर्भ ठहरनेपर यथाकाल सीमन्तोन्नयन से पूर्व गर्भ के 1,2, वा 3 मास में स्वसूत्रपद्धति से द्वितीय संस्कार क्रम २ पुंसवन को यथारूप जानकर अनुष्ठान करना चाहिये।
#गर्भिणी_तथा_गर्भिणीपतिको_पतितोंका_अन्न
#खानेका_प्रायश्चित्त~~~>
यदि गर्भधारण होने के बाद पतितों,बिना जनेऊ के द्विजों का,सन्ध्योपासनादिरहितों का, बाज़ार का,पतितसावित्रीक तथा व्रात्यों का भोजन ग्रहण किया हो तो शुद्धि के लिए ऋग्वेद के तरत्समंदी सूक्त के चार मंत्रों का गर्भिणीपति १०८ बार जप करकें गर्भिणीपति पञ्चगव्य का पान स्वयं और अपनी पत्नी को करायें---> (क्योंकि पतितों के अन्नसे प्राणमय कोश भी दुषित होते हैं,यह परिहार अवश्य करैं)
उपवीती द्विजों को स्वयं या ब्राह्मण से जप करवाना चाहिये, और पति को पत्नी के निमित्त दो प्राजापत्य तथा अपने निमित्त चान्द्रायण का आचरण करना चाहिये।
#गर्भिणी_पति_नियमाः~
@मुण्डनं पिण्डदानं च प्रेतकर्म च सर्वशः || न जीवत्पितृकः कुर्याद्गुर्विणीपतिरेव च ||हेमाद्रौ||
मुंडन, पिंडदान, और सम्पूर्ण प्रेतकर्म को, जीवत्क्रिया का सदा त्याग करें.
@उदन्वतोम्भसि स्नानं नखकेशादिकर्त्तनम् | अन्तर्वत्न्याः पतिः कुर्वन्नप्रजा जायते ध्रुवम् || मिताक्षरा ||
गर्भिणी के पति को- समुद्रस्नान, नख और केशों(सभी बाल)नहीं कटवाने से तो निश्चय प्रजाहिनता होती हैं ||
@वपनं मैथुनं तीर्थं वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः | श्राद्धं च सप्तमासान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् || आश्वालायन || क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनं च युद्धादि वास्तुकरणं त्वतिदूरयानम् | उद्भाहमौपायनं जलधेश्च गाहमायुः क्षयार्थमिति गर्भिणिकापतीनाम् || का०विधाने|| दहनं वपनं चैव वै गिरिरोहणम् | नाव आरोहणं चैव वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः || अव्यक्तगर्भापतिरब्धियानं मृतस्य वाहं क्षुरकर्म सङ्गम् || तस्यां तु यत्नेन गयादितीर्थं यागादिकं वास्तुविधिं न कुर्यात् || रत्न-सं०||
मुंडन, मैथुन, तीर्थ, और सातमासके गर्भ के बाद किसी भी प्रकार का श्राद्धका भोजन न करें, || प्रयोग पारिजात में कहा हैं कि--- क्षौर, शवयात्रा, नखों को काटना, युद्ध, घरका निर्माण(घर बदलना), अत्यन्त दूर गमन,विवाह तथा यज्ञोपवीत और समुद्र स्नान ये गर्भिणीपतिकी आयुको क्षीण करता हैं | गालव ने कहा हैं कि - दाह, मुंडन, चौल, पर्वतपर चढना ,अस्तहोते सूर्य को देखना, नावपर बैठना, ये गर्भिणी का पति त्याग दैं | समुद्रस्नान, मृतकवहन, और स्त्रीसंग, तथा तीर्थयात्रा, अपनेघर यज्ञ, वास्तु न करैं |
#गर्भवती_नियमाः- अङ्गारभस्मास्थिकपालचुल्ली शूर्षदिकेषूपविशेन्नारी | सोलूखलाढ्ये दृषदादिके वा यन्त्रे तुषाढ्ये न तथोपविष्टा || १|| नो मार्ज्जनी गोमयपिण्डकादौ कुर्यान्न वारिण्यवगाहनं सा || अङ्गारभूत्या न नखैर्लिखेत्क्ष्मां कलिं वपुर्भङ्गमथो न कुर्यात् ||२|| नो क्षणंमुक्तकेशी विवशाथ वा स्याद्भुंक्ते न संध्यावसरे न शेते || नामङ्गलं वाचमुदीरयेत्सा शून्यालयं वृक्षतले न यायात् || ३||
@गर्भवती स्त्री अंगार, भस्म, हड्डी, कपाल, चूल्हा, छाज,ऊखल, बिना आसन के पत्थर आदि, झाडू, गोमय के पिंड आदि पर न बैठे || जलमें प्रवेशकर स्नान न करैं, अँगारे की राख से या (कोयलेसे) अथवा नखसे पृथ्वी को न कुरेदे.. कलह और शरीरभंग अर्थात् अँगडाई न ले, क्षणभर भी खुले बाल न रक्खैं, बिना कपडे़ के न रहैं, सन्ध्या के समय भोजन ओर शयन न करैं, अमंगल वाक्य न कहैं(टी.वी चैनल के प्रसारण न दैखें), शून्य घर( जिसमें व्यक्ति की संख्या घटती हो परंतु बढती न हो), और वृक्ष के नीचे न जाय ||
@कटुतीक्ष्णकषायाणि अत्युष्णलवणानि च | अयासं च व्यवायं च गर्भिणी वर्जयेत्सदा || वि०ध०||
कडुवा,तीखा,कसैला, अत्यन्त गरम, और ज्यादा नमक का भोजन, और संयोग को सदा त्यागना चाहिये,,
@गर्भिणी कुञ्जराश्वादिशैलहर्म्म्याधिरोहणम् | व्यायामं शीघ्रगमनं शकटारोहणं त्यजेत् || शोकं रक्तविमोक्षं च साध्वसं कुक्कुटासनम् || व्यवसायं दिवास्वापं रात्रौ जागरणं त्यजेत् || प्र०पारि०|| हरिद्रां कुङ्कुमं चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा | कूर्पासकं च ताम्बूलं माङ्गल्याभरणं शुभम् || केशसंस्कार कबरीकरकर्णविभूषणम् ||भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती दूरयेद्गर्भिणी न हि ||मद०रत्न||
कश्यप जी कहते हैं कि--- गर्भिणी ; हाथी, अश्व, पर्वत,महल,आदिपर चढना, और शीघ्रगमन(उतावले चलना), सहवास को छोड़ दे, शोक, किसी भी प्रकार की इजा न हो वह ध्यान रखे, कुकडे की तरह बैठना, ज्यादा परिश्रम करना, दिन में सोना और रात्रि में जागना नहीं चाहिये, स्कंदपुराण में कहा हैं---कपाल में हलदी और कुमकुम, चोली(घूँघट) मांगलिक श्रेष्ठ आभूषण, केशों के संस्कार, मोंढीं गूँथना, हाथ और कान के गहनों को भर्ता की आयुष्य इच्छावाली गर्भिणी कदापि त्याग न करैं. |
@चतुर्थे मासि षष्ठे वाप्यष्टमे गर्भिणी यदा | यात्रा नित्यं विवर्ज्या स्यादाषाढे तु विशेषतः |||बृहस्पतिः ||
गर्भके चौथे,छठे,आठवें महिनों में विशेष आषाढ महिने में यात्रा न करैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ ||
संस्कारविमर्श ६ (गर्भाधान के बाद माता पिता का दायित्व)
हमारे ऋषियों ने संस्कारों का बड़ी गम्भीरता से विमर्श किया हैं और उनकी उपादेयता सिद्ध करके विश्वगुरु की प्रतिष्ठा प्राप्त की हैं।
मनुस्मृति में कहा हैं - इस देश (भारत)में उत्पन्न अग्रजन्मा(विद्वान् ब्राह्मणों)से संसार के सभी लोग अपने अपने चरित्र को सीखें - "(एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। मनुः २/२०।।)"
संस्कारों से मण्डित सनातनधर्म की अपनी विशेष महिमा हैं, किंतु दिव्य भूमि भारतदेश आज संस्कारविहिनों का देश होने जा रहा हैं। यह बहुत बड़ी चिन्ता की बात हैं। हमारी पहचान हमारी धरोहर हैं। हमारा आचार हमारी संस्कृति हैं, हमारी वेशभूषा हमारी वाणी हैं। हमारे सांस्कृतिक आधार आप्तवाक्य और वेदादि महान् ग्रन्थ हैं। ४ वेद, ६ वेदांग, मन्वादि स्मृतियां, ईशादि उपनिषद्, १८पुराण, रामायण,महाभारत,रामायण, रामचरितमानस, गीतादि धर्मग्रन्थों एवं गुरुजन, संत-महात्मा - किसी ने भी धर्मविरुद्ध आचरण की अनुमति नहीं दी। किसी ने आचारविहिन जीने का आदेश नहीं दिया;फिर कहाँ से ये गर्हित विचार और व्यवहार आ गये, जिसके कारण हमारी पीढ़ी संस्कारों का नाम भी नहीं जानती। यह दोष कहाँ से आया ? यह विमर्श्य हैं,चिन्तनीय हैं। यदि समय रहते इस ओर हम सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं, जब हम अपने सनातन गौरव को सर्वथा के लिये भुला ड़ालेंगे।
हम ऋषियों की संतान हैं,हमें सदसद्विवेचनी बुद्धि पूर्वजों से प्राप्त हैं। यदि कुसंगमात्र से परहेज कर लिया जाय और हम अपनी आर्ष परम्परा का स्मरण करे तथा तदनुरूप सदाचार का पालन करें तो हम पुनः गौरवान्वित हो जायेंगे। अन्य धर्मावलम्बी हमारी तरह परमुखापेक्षी, परधर्मसेवी एवं अपसंस्कृति के अनुयायी नहीं बन रहे हैं। वे कट्टरपन्थी करवाकर भी गौरव का अनुभव करते हैं और एक हम हैं, जो स्वधर्म के अनुष्ठान में लज्जा का अनुभव करते हैं वह भी मात्र किसी संस्काररहितों की खुशीयों के लिए । इसलिये वैभवशाली संस्कृति सम्पन्न होनेपर भी हम उपहास के पात्र बन बैठे हैं। इसलिये हमें चाहिये कि हम गीता अध्याय ३-३५ के इस वाक्यका सदा स्मरण करें और आचरण में लायें #स्वधर्मे_निधनं_श्रेयः_परधर्म_भयावहः।।
आचार सभी का धर्म हैं, यह निश्चित हैं। जो हीन आचरणवाला हैं, वह संसार में भी नष्ट हो जाता हैं तथा मरकर परलोक में भी । संस्कारों का उचित प्रवेश मनुष्य के उत्थान-पतन के मार्ग को प्रशस्त करता हैं। जीवन में कुसंस्कार और संस्कार के प्रवेश से ही व्यक्ति वन्दनीय और निन्दनीय होता हैं। संस्कारों का गौरव असीम हैं। हीन आचरणवालें कुसंस्कारी का उद्धार होना कठिन हैं -- "( नैनं तपांसि न ब्रह्म नाग्निहोत्रं न दक्षिणाः। हीनाचारमितो भ्रष्टं तारयन्ति कथञ्चन।। वसिष्ठस्मृति ६/२।।)"अर्थात् हीन आचरणवाले को तप, वेद, अग्निहोत्र और दक्षिणा किसी प्रकार से भी नहीं तार सकतें। इसके विपरित श्रद्धालु और असूया दोष से रहित सत्संस्कार सम्पन्न व्यक्ति सदाचार द्वारा सौ वर्षतक जीता हैं और अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्तकर धन्य हो जाता हैं - "(सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः। श्रद्धदानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति।।मनु ४/१५८।।)" कोई कोई महात्मा इस पवित्र धरातल पर अपने धर्म के कार्य को यथोचित मर्यादा में सम्पन्न करतें हुए कुछ वर्ष तक भी दर्शन देकर धरातल को पावन करने के लिए ही अवतरित होतें हैं।
मानव-जीवन के चरम उत्कर्षरूप की प्राप्ति के लिये ही हमें यह देवदुर्लभ मनुष्यशरीर मिला हैं, जिसकी महिमा संतशिरोमणि तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस ७/४३/७ में कही हैं - "/// बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।///
इस प्रकार हमें यह अमूल्य शरीर प्राप्त है, इसे पाकर हम अपने अजर अमर स्वरूप को प्राप्त करनेपर ही धन्य हैं, नहीं तो महान् अनर्थ हैं ।
गर्भकाल में माता की भावना कैसी होनी चाहिये ?
जब गर्भ में संतान होती हैं, तब माता सात्त्विक, राजस,तामसी भावना से भावित रहती हैं,जैसा अच्छा -बुरा देखती, सनती, पढ़ती, खाती-पीती हैं, उन सब का गर्भ में स्थित संतानपर प्रभाव पड़ता हैं। इसलिये गर्भवती स्त्री को राजसी, तामसी भावों से बचकर सात्त्विक भावनाएँ करनी चाहिये। गंदे सिनेमा-टेलीविजन, पोस्टर न दैखकर सात्त्विक देवदर्शन, संतदर्शन आदि ही करना चाहिये। गंदे गीत सुनना-गाना छोड़कर सात्त्विक भजन-कीर्त्तन ही सुनना-गाना चाहिये। गंदे उपन्यास पढ़ना सुनना-सुनाना छोड़कर संतचरित्रों,वीर,योद्धा पराक्रमी राजाओं का चरित्र,भक्तचरित्र, कुछ कल्याणअंक इस प्रकार से गीताप्रेस गोरखपुर के प्रस्तुत हैं - संत-अंक, नारी-अंक,स्त्री-अंक, भक्त-अंक, आदि को ही पढना-सुनना सुनाना चाहिये। भागवत, रामायण, पुराणोपपुराण आदि विद्वान् ब्राह्मण के मुख से सुनना चाहिये। विद्वान होना मात्र भी उचित नहीं अपितु महाभारत में कहा गया हैं कि जिनके विद्या, माता और पितृपिढ़ीयों से ब्राह्मण कुल और कर्म - ये तीनों शुद्ध हों, उन सत्पुरुषों, की सेवा करें, उनका सत्संग करें। उनका सत्संग स्वाध्याय से भी श्रेष्ठ हैं --- "(येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च। ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी।। महाभा०अनुशासन पर्व १अध्याय २७।।)"
इसके विपरित दुर्जनों, दुष्टों के सङ्ग के दुष्परिणामों पर प्रकाश डालते हुएँ कहा गया हैं - दुष्ट,पातकी,लंपट,व्रात्य,दुर्भोजी,अक्कर्मी(अपनी वेद-शाखा के अनुसार अनिवार्य द्विज के नित्यकर्मों को भलीँभाँति न करनेवाला)अनाचारी,कुलघ्नी( जाति बहार विवाह करनेवाला)तथा व्यसनी मनुष्यों के दर्शन से , स्पर्श से उनके साथ वार्तालाप करने से धार्मिक आचार नष्ट हो जाते हैं। ऐसे कुसङ्गी मनुष्य कभी भी अपने किसी कार्य में, विशुद्ध वर्णाचार के लिये सफल नहीं हो सकतें ---> "( असतां दर्शनात् स्पर्शात् सञ्जल्पाच्च सहासनात्। धर्माचाराः प्रह्रीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः।। महाभारत वनपर्व १/२९।।)" इसलिये उचित आचार सम्पन्न कुलिन विद्वान् ब्राह्मण से ही धर्मग्रन्थों का श्रवण कर मनन करतें हुएँ, तदनुरूप अपने जीवन को ढ़ालने का दृढ़ और सत्संकल्प करना चाहिये। राजस-तामस,अभक्ष्यपदार्थों,अतितीक्ष्ण मिर्च-मसाला छोड़कर कृत-वैश्वदैव, अतिथिब्राह्मण का कच्चे अन्नादि से सत्कार के पश्चात् यज्ञशिष्टान्न - सात्त्विक दूध-घी-दाल-रोटी, मैथी, आदि ही खाना पीना चाहिये। गर्भकालीन भावना का संतानपर प्रभाव पड़ता हैं, इसमें प्रह्लादजी का उत्तमचरित माननीय हैं।
मन्वर्थमुक्तावली टीका के लेखक आचार्य कुल्लुक-भट्ट ने मनुस्मृति के २/६ "स्मृतिशीले च तद्विदाम्।। श्लोक की टीका में हारीत के द्वारा निर्दिष्ट शील के तेरह परियाचक तत्त्वों की चर्चा की हैं तदनुसार माता-पिता का शील रहना चाहिये - " ( ब्रह्मण्यता देवपितृभक्तता सौम्यता अपरोपतापिता अनसूयता मृदुता अपारुष्यं मैत्रता प्रियवादित्वं कृतज्ञता शरण्यता कारुण्यं प्रशान्तिश्चेति त्रयोदशविधं शीलम्।।)"---- अर्थात् १ वेदज्ञ ब्राह्मणों के प्रति समादर भावना, २ देव और पितरों के प्रति भक्तिभावना, ३ सौम्यता, ४ दूसरों को पीड़ा न पहुँचाना, ५ दूसरों के गुणों की उत्कृष्टता के प्रति दोषारोपण न करने की भावना, ६- व्यवहार में कोमलता, ७ निष्ठुरता से रहित मनोभावना, ८ सब के प्रति मैत्रीभाव , ९ प्रियवादिता, १० कृतज्ञता(कृतघ्नता नहीं),११ शरणागत की रक्षा करना, १२ -दया या करुणा की भावना और १३- शान्तचित्तता - ये तेरह शील के स्वरूप हैं।
आचरण से शरीर में अच्छाई और बुराई उत्पन्न होती हैं, जिस समय मनुष्य बुरों की संगत में पड़ता हैं या स्वयं उसके हृदय में बुरे आचरण का प्रवाह बहने लगता हैं तो ऐसी दशा में बुरे आचरणों का आश्रय लेना पड़ता हैं तो गर्भ के बालक पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। इसके अनेक भेद हैं जो गर्भावस्था तक रहतें हैं। कुछ आचरण की चर्चा आयुर्वेद की सुश्रुतसंहिता से करतें हैं --
यदि गर्भवती अंगो को फैलाकर सोवें और रात्रि में फिरा करे तो उन्मत्त सन्तान होती हैं(सुश्रुत सं० ८/४१)
यदि कलह और लड़ाई करना गर्भवती को अच्छा मालूम हो, या करे तो भृँगी रोगवाली संतान होती हैं (८/४१)
गर्भवती बहुत सोचें ,विचार किया करें तो करनेवाली, क्षीण अथवा अल्पायुवाली संतान होती हैं (८/४६)
कामचोरी किया करे तो आलसी , झगडा करनेवाली और बुरे कामों में लगी करनेवाली के समान सन्तान होती हैं(८/४१)
क्रोधी रहने से छली और चुगलखोर सन्तान होती हैं(८/४२)
*बहुत सोनेवाली की तन्द्रावाली, मूर्ख या मन्दाग्नि रोगवाली सन्तान होती हैं (८/४१)*
गर्भावस्था में मैथुन करें तो बदचलन और कन्या का जन्म हो तो परपुरुषगामिनी (शरीर-अध्याय कर्मचिकित्सा)
जैसा आचरण गर्भवती का होता हैं उसी के अनुसार सन्तान उत्पन्न होती हैं (शरीर अध्याय कर्म चिकित्सा)
इस प्रकार बुरे आचरणों से अनेक प्रकार की सन्तान उत्पन्न होती हैं अतएव माता-पिता को अपने आचरणों पर विशेष शास्त्रदृष्टि से ध्यान रखना चाहिये।
इच्छा वह चीज हैं कि मनुष्य के हृदय का भाव मालूम होता हैं। जब मनुष्य किसी बात की इच्छा करता हैं तो उसको अपनी इच्छा के वश में हो जाना पड़ता हैं, जबतक वह वस्तु उस को नहीं मिलती ,उसके पाने की लालसा लगी रहती हैं। गर्भवती में इच्छाशक्ति अच्छी तरह से चौथे महीने में उत्पन्न होती हैं, उस समय गर्भस्थित बालक का हृदय बन जाता हैं और माता की इच्छा में बच्चे की इच्छा भी मिली रहती हैं। अतएव माता की इच्छा का बुराभला प्रभाव अनेक प्रकार से पड़ता हैं। इसलिये शिष्ट इच्छा और आचरण पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
आईये कुछ जानतें हैं चरकसंहिता से - मैथुनप्रिय हो अर्थात् उसको मैथुन की इच्छा हो तो निर्लज्ज, विकलांग अथवा मेहरा, रांड़िया सन्तान उत्पन्न होती हैं ( चरक संहिता शरीरस्था ८/४१)
पराये धन के हरने की इच्छा करे तो कुठने और ईर्षावाली अथवा राढ़ियाँ या जनानियाँ सन्तान उत्पन्न होती हैं (चरकसंहिता ८/४१)
अपनी इच्छा के अनुसार गर्भवती को मनमाना पदार्थ न मिलने से गर्भ का बालक बौना,कुबड़ा,ढूँढा, पागल, मूर्ख और नेत्रविकारवाली संतान उत्पन्न होती हैं इस में शिष्ट वस्तु आदि की इच्छा बढ़ानी चाहिये , मनमाना पदार्थ मिल जाय तो पराक्रमी चिरंजीवी और उत्तम संतान होतीं हैं (३/२१)
जिन जिन इन्द्रियसुख को गर्भवती भोगनेकी इच्छा करे उनके न मिलने से गर्भ बाधा पहुँचती हैं,इसलिये सत् इच्छाओं से मन को गर्भावस्था के पहिले से ही दृढ़ करना चाहिये (३/२२-२४)
यदि गर्भवती उत्तमवस्त्राभूषण की इच्छा करे तो शौखीन सन्तान उत्पन्न होती हैं, इससे यह भी मानना चाहिये कि ओछे-छिंछोंरे वस्त्र पहनने की इच्छा से निर्लज्ज सन्तान होती हैं (सुश्रुत ३/२६)
यदि महात्मा, देवताओ के दर्शन की इच्छा हो तो धर्मशील और सत्पात्र --- (सुश्रुत सं०३/२७)
हिंसक पशु,कुत्ते,बिल्ली आदि देखने की इच्छा करे तो हिंसक सन्तान इसलिये पालनेवालें संभल जाय (सुश्रुत संहिता ३/२८)
बदचलनी की लिये किसी मित्र से मिलने की इच्छा हो तो बदचलन पुत्र और कन्या होवें तो वह कुकर्म करनेवाली ,
किसी स्नेही से मिलने की इच्छा करे तो सदाचारी संतान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय )
श्रेष्ठ और पूज्यजनों से मिलने की इच्छा से सदाचारी , खेल करने की इच्छा से हँसमुख , लिखने पढ़ने की इच्छा से गुणिन् सन्तान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय)
नाच,गाने की इच्छा हो तो बेशर्मवाली शृंगाररसभरी संतान होती हैं, उत्तम फल खाने की इच्छा से शुद्धभोजन करनेवाली सन्तान होती हैं, फुलवारी उपवनों में सैर करने की इच्छा से प्रसन्न चित्तवाली संतान होती हैं, दिल्लगी करने की इच्छा हो तो पुत्र परस्त्रीप्रिय और पुत्री जन्में तो कुकर्मी और द्रव्य एकत्र करने की इच्छा से कंजूस संतान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय)
इच्छा बहुत बड़ी चीज हैं। गर्भसमय से इससे सावधान और संयम से रहना चाहिये - जहाँचक हो सके उत्तम इच्छा का होना ठीक हैं, क्योंकि इच्छा का बहुत बड़ा प्रभाव बालकों पर पड़ता हैं। माता की जैसी इच्छा होती हैं उसी के अनुसार सन्तान भी उत्पन्न होती हैं।
आहार वह वस्तु हैं कि जिससे शरीर का पोषण होता हैं। गर्भ का बालक भी आहार के रस से पलता और पुष्ट होता हैं। अतएव माता का जैसा आहार होगा उसी के गुणदोष के अनुसार बच्चा भी होगा। आहार के गुणदोष बच्चों में अनेक प्रकार से होतें हैं ।
अधिक मीठा भोजन खानेवाली गर्भवती से प्रमेहरोगवाली, गूँगी या मोटी सन्तान होती हैं, अधिक खटाई खानेपर रक्त पित्त से रोगी,कुष्ठी या नेत्ररोगवाली, अधिक नमक खानेवाली गर्भवती से बली,पलित और खलित्य रोगग्रस्त, चरपरे रस का अधिक सेवन करने से दुर्बल,थोड़े वीर्य और उससे सन्तान न होने वाली, कडुए रस के सेवन करनेवाली की शोषी,दुर्बल और सूखी, कसैले रस का सेवन करनेवाली की कालेरंगवाली या अफरा या उदावर्त रोगवाली, फीका भोजन करनेवाली की निस्तेज आलसी -सन्तानें होती हैं (रतिशास्त्र ४२)
वैश्वदेव रहित अन्न खानेवाली की कृतघ्नी और पतित तथा निंदितों का अन्न खाने वाली की तादृश दोष के समान होती हैं।
इस प्रकार विपरित भोजन के होने से अनेक प्रकार के रोग-दोषों से युक्त सन्तान उत्पन्न होती हैं।अतएव माता को अपने भोजनपर विशेष ध्यान रखना चाहिये, क्योंकि सन्तान के गुणदोष में आहार एक बहुत बड़ी महत्व की चीज हैं। खायें हुएँ पदार्थ से रस बनकर गर्भ का पोषण होता हैं। अतएव भोजन के गुण-दोषानुसार सन्तान के उत्पन्न होने में आश्चर्य क्या ?
इस लेख को सहयोग प्राप्त करवाने शास्त्री, हर्ष शर्माजी का चिन्तनीयलेख भी विचारणीय हैं -
प्राय: वर्तमान समाज आधुनिक होता जा रहा है | इसलिए बच्चे संस्कारी हों या ना हों इस ओर कम ध्यान जाकर बच्चे अधिक से अधिक पैसे कमाने वालों हों इस ओर अधिक ध्यान जा रहा है | किन्तु इनमें भी कुछ माता-पिता हैं जो अर्थ के साथ-साथ बच्चों में संस्कार भी चाहते हैं | और वर्तमान समाज के सभी माता-पिता संस्कार का आधार ही रखते हैं मांसाहार से |..................
आप सोच रहे होंगे क्या सभी माता-पिता आजकल अपने बच्चों को मांसाहार देते हैं ?
हाँ, यह सत्य है | क्योंकि आप लोगों का पूर्वाग्रह (पहले से ही सोच लेना कि हमारी बात सही है) है |
जी हाँ आप लोगों ने मान लिया है एलोपेथी एक उत्तम स्वास्थ पद्धति है और हम उसी को स्वीकारेंगे चाहे उसमें मांस, रक्त और पशुओं को कितना ही कष्ट क्यों ना हो | क्योंकि हमें धर्म से कुछ लेना देना नहीं |
आज गर्भवती स्त्री के लिए सर्वप्रथम एलोपेथी चिकित्सा का प्रबंध किया जाता है और उसमें होता क्या है - गर्भवती को कैल्शियम देने के लिए कैल्शियम की गोली जिसमें पशुओं की हड्डी होती है, गर्भवती को रक्त की पूर्ति हेतु सीरप जिसमें पशुओं का रक्त होता है (जैसे - dexorange आदि) और पशुओं की खाल, नख, चर्बी आदि से बनने वाले कैप्सूल और दवाईयाँ |
तो गर्भ से ही जिस बालक को मांस और रुधिर का सेवन कराया गया वो भला कैसे संस्कारी होगा ? और यदि हुआ भी तो कुछ ना कुछ कुसंस्कार उसमें रहना स्वाभाविक हैं | यही कारण है कि वर्तमान के कुछ युवा धर्म गुरु उपदेश के साथ-साथ भोगों में भी लिप्त पाए गए |
अत: अपने विचार को समय रहते परिवर्तित कर लीजिए अन्यथा लोक-परलोक तो बिगड़ेगा ही उसके साथ-साथ कुल का भी नाश हो जाएगा |
संस्कारविमर्श ७ ( गर्भाधान-संस्कार के बाद गर्भकी संरचना)-
पारस्कर गृह्यसूत्र १काण्ड,१३कण्डिका,१ सूत्र में कहा हैं --- यदि किसी कारणवश पत्नी गर्भ धारण न कर सके तो श्वेतपुष्पोंवाली कण्टकारिका-ओषधि को पुष्य नक्षत्र के साथ चन्द्रयोग होनेपर उपवास करके (उड़िद वा जौ के दानों से निमंत्रण दैकर) जड़ के साथ उखाड़ (किसी की छाया न पड़े इस तरह सफेदवस्त्र में लपैटकर घर) लाकर पुनः पत्नी के रजोदर्शन के चौथे दिन जब वह स्नान करके शुद्ध हो जाय तो रात में पानी के साथ पीसकर उसके रस की दो-चार बूँदे उसकी नाक के दाहिने छिद्र में उपनीतद्विज(अपने कुलाचार्य से अपनीशाखा का मंत्र जानकर) मंत्र पढ़ते हुएँ डालें, अनुपनीत केवल मंत्र के भाव का स्मरण करें - "( सा यदि गर्भं न दधीत सिंह्याः श्वेतपुष्प्या उपोष्य पुष्येण मूलमुत्थाप्य चतुर्थेऽहनि स्नातायां निशायामुदपेषं पिष्ट्वा दक्षिणस्यां नासिकायामासिञ्चति।। "" *मन्त्रः-- इयमोषधी त्रायमाणा सहमाना सरस्वती। अस्या अहं बृहत्याः पुत्रः पितुरिव नामहो जग्रभमिति।।पारस्कर०१/१३/१)"
मंत्र का भावार्थ हैं -- प्रजापति,बृहती,औषधि आदि इस मंत्र के ऋष्यादि हैं , इसका विनियोग ओषधीसेचन में हैं "(ओषध्यासेचने विनियोगः।।) गर्भधारण में बाधक दोषों को हटाकर गुणों का आधान करने वाली यह काष्ठौषधि कष्ट सहन करके भी सेवन करनेवालों की रक्षा करती हैं और दोष के वेगों को नष्ट कर देतीं हैं। अनेक प्रकार के फलदेनेवाली इस वनस्पति की कृपा से जैसे मैं अपने पिता का नाम लेता हूँ, वैसे ही मेरी सन्तान भी मेरा नाम उज्ज्वल करें। गदाधरभाष्यकार ने गर्गपद्धति में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा हैं , कि पत्नी की नाक में यह औषधि ड़ालने के बाद ही पति भोजन करें -- " (ततो भर्त्रा भोजनं कार्यमिति गर्गपद्धतौ।। गदाधरः।।)"
इस प्रकार ओषधिसेचन कर्म के अनन्तर पुनः उक्त मुर्हूतकाल में "गर्भाधान प्रधान रात्रिकालिक क्रियाओं को पुनः पुनः दोहराते हुएँ)" स्त्रीगमन करें।
दैव की प्रेरणा से कर्मानुरोधी शरीर प्राप्त करने के लिये जीव पुरुष के वीर्यकण का आश्रय लेकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता हैं, एकरात्रि में वह शुक्राणु कलल के रूप में पाँच रात्रि में बुदबुद् के रूप में, दसदिन में बैर के समान उसके पश्चात् दमांसपेशियों से युक्त अण्डाकार हो जाता हैं, (आयुर्वेद के ग्रन्थों में कहा हैं कि प्रथम मास में अव्यक्त अर्थात् स्त्रीभ्रूण या पुरुषभ्रूण हैं इसको व्यक्त नहीं कर सकतें, इसलिये इसी मास में स्त्रीत्व अथवा पुंस्त्व की अभिव्यक्ति के लिये पूर्व ही पुंसवन विधि का प्रयोग करें ।। अष्टांग हृदय शारीरस्थान ३७।। पारस्कर गृह्यसूत्र में गदाधर ने भाष्य में हेमाद्री में यम के वचन से भी प्रथममास को माना हैं, पारस्कर-गृह्यसूत्रकार दूसरे ,तीसरे अथवा गर्भ में बच्चा कुछ कुछ हिलने-डुलने लगे तब पुंन्नक्षत्र आदि उचित मुर्हूतों में कहा हैं, इसकी क्रमशः चर्चा अग्रिम पुंसवनसंस्कार के लेख में करेंगे)"
गर्भ के दो मास में बाहु आदि शरीर के सभी अङ्ग, तीसरे मास में नख,सोम,अस्थि,चर्म तथा लिङ्गबोधक चिन्ह उत्पन्न होतें हैं, चौथे मास में रस,रक्त,मांस,मेद,अस्थि,मज्जा और शुक्र -ये सात धातुएँ, (आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अनुसार गर्भ नाना प्रकार की वस्तुओं की इच्छा करता हैं और इसीलिये नारी दो हृदयोंवाली "दौहृदिनी" मानी जाती हैं। तत्कालीन विशिष्ट प्रकार की इच्छा या अभिलाषा का नाम दौहृद या दोहद हैं। उक्त दोहद की इच्छा पूर्ण न होने से गर्भपर बुरा प्रभाव पड़ता हैं।अतः उन दिनों गर्भवती जिन-जिन विहित पदार्थों का उपभोग करना चाहे, यथाशक्ति उपलब्ध कराना चाहिये।)" पाँचवें मास में भूख-प्यास पैदा होती हैं। छठे मास में जरायु में लिपटा हुआ वह जीव विष्ठा,मूत्र के दुर्गन्धयुक्त गड्डे अर्थात् गर्भाशय में सोता हैं। वहाँ गर्भस्थ क्षुधित कृमियों के द्वारा उसके सुकुमार अङ्ग-प्रत्यङ्ग प्रतिक्षण बार-बार काटे जाते हैं, जिससे अत्यधिक क्लेश होने के कारण वह जीव मूर्च्छित हो जाता हैं, माता के द्वारा खाएँ हुएँ षड्रस पदार्थों के अति-उद्वेजक संस्पर्श से उसे समूचे अहं में वेदना होती हैं और जरायु से लिपटा हुआ वह जीव आँतो द्वारा बाहर से ढका रहता हैं (गरुडपुराण सारोद्धार ६/७---११)
सातवें मास में जीव से संयुक्त और आठवे मास में सर्वलक्षण सम्पन्न होता हैं (गर्भोपनिषद् ३)। माता से गर्भ में और गर्भ से माता में ओज का संचार होता रहता हैं। अतः वे दोनों बार-बार म्लान(अप्रसन्न)एवं मुदित(प्रसन्न)होते रहतें हैं और इसीलिये आठवें मास में जन्मा बच्चा अरिष्टयोग से सम्पन्न होता हैं;क्योंकि ओज स्थिर नहीं होता। कौमारभृत्य(बालतन्त्र)का मत हैं कि वह बच्चा "नैर्ऋत्य नामक बालग्रह का भाग होता हैं,इसलिये नहीं जीता, तथापि शीघ्र उक्त ग्रह की शान्ति के लिये शास्त्रविधा से उपाय करना चाहिये - बालतन्त्र में लिखा हैं कि भगवान् रुद्र ने आठवें मासमें जन्में बच्चे नैऋत्य नामक ग्रहको दे दिये थे। अतः इस मास में उक्त बालग्रह के निमित्त सदीप विधापूर्वक भात की बलि देनी चाहिये।
आगे गरुडपुराण में कहा कि - सातवें महिने से भगवान् की कृपासे अपनें सैकड़ो जन्मों के कर्मों को स्मरण करता हुआ वह गर्भस्थ जीव लम्बी श्वास लेता हैं, ऐसी स्थिति में भला उसे कौनसा सुख प्राप्त हो सकता हैं ? माँस-मज्जा आदि सातधातुओं के आवरण में आवृत्त वह ऋषिकल्प जीव भयभीत होकर हाथ जोड़कर विकलवाणी से उन (विष्णु)भगवान् की स्तुति करता हैं। सातवें महीने के आरम्भ से ही सभी जन्मों के कर्मों का ज्ञान हो जानेपर भी गर्भस्थ जीव प्रसूति वायु के द्वारा चालित होकर वह उसी पेट में विष्टा में उत्पन्न अन्य कीड़े की भाँति एक स्थानपर ठहर नहीं पाता। जीव भगवान् की स्तुति करता हैं । मैं लक्ष्मी के पति जगत् के आधार, अशुभ का नाश करनेवाले तथा शरण में आयें हुए जीवों के प्रति वात्सल्य रखनेवाले भगवान् विष्णु की शरण में जाता हूँ। हे नाथ ! आप की माया से मोहित होकर में देह में अहंभाव तथा पुत्र और पत्नी आदि में ममत्व भाव के अभिमान से जन्म-मरण के चक्कर में फँसा हूँ, *मैंने अपने परिजनों के उद्देश्य से शुभ और अशुभ कर्म किये किंतु अब मैं उन कर्मों के कारण अकेला जल रहा हूँ। उन कर्मों के फल भोगनेवाले पुत्र कलत्रादि अलग हो गये #एकाकी_तेन_दह्योऽहं_गतास्ते_फलभोगिनः।।गर्भोपनिषद् ३।। यदि इस गर्भ से निकलकर मैं बाहर आऊं तो फिर आपके चरणों का स्मरण करूँगा और ऐसा (स्वधर्मकर्म आश्रमों का आचरण के)उपाय करूँगा जिससे मुक्ति प्राप्त कर लूँ।*विष्ठा और मूत्र के कुएँ में गिरा हुआ तथा जठराग्नि से जलता हुआ एवं यहाँ से बहार निकलने की इच्छा करता हुआ मैं कब बाहर निकल पाऊँगा ? जिस दिन दयालु परमात्माने मुझे इस प्रकार का विशेष ज्ञान दिया हैं, मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ, जिससे मुझे पुनः संसार के चक्कर में न आना पड़े* अथवा मैं माता के गर्भगृह से कभी भी बाहर जाने की इच्छा नहीं करता। क्योंकि बाहर जानेपर पापकर्मों से पुनः मेरी दुर्गति हो जायेगी इसलिये यहाँ बहुत दुःख की स्थिति में रहकर भी मैं खैद रहित होकर आपके चरणों का आश्रय लेकर संसार से अपना उद्धार कर लूँगा। इस प्रकार की बुद्धिवाले एवं स्मृति करते हुए दस मास के ऋषिकल्प उस जीव को प्रसूति वायु प्रसव के लिये तुरंत नीचे की ओर ढकेलता हैं, कर्मविपाकों से पुनः पुनः जन्म मरण को प्राप्त करने जन्म लेना और मनुष्यत्व को, द्विजत्व को उचितप्रकार के आचरण से सार्थक न करने की मोहवश चेष्टा करतें रहना ही अधोगति हैं, भगवान् आदि शंकराचार्यजी ने भी चर्पटपञ्जरिका में गाया हैं --> "(पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननि जठरे शयनम्। इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे ! )"
प्रसूति मार्ग के द्वारा नीचे सिर करके सहसा गिराया गया वह आतुरजीव अत्यन्त कठिनाई से बाहर निकलता हैं और उस समय वह श्वास नहीं ले पाता हैं तथा उसकी पूर्व स्मृति भी नष्ट हो जाती हैं, पृथ्वीपर विष्टा और मूत्र के बीच गिरा हुआ वह जीव मल में उत्पन्न कीड़ें के भाँति चेष्टा करता हैं और विपरित गति प्राप्त करके ज्ञान नष्ट हो जाने के कारण अत्यधिक रुदन करने लगता हैं। गर्भ में, रुग्णावस्था में , श्मशान भूमि में तथा पुराण के पारायण ज्ञान श्रवण के समय जैसी बुद्धि होती हैं, वह यदि स्थिर हो जाय तो कौन व्यक्ति सांसारिक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता ? कर्मभोग के अनन्तर जीव गर्भ से बाहर आता हैं तब उसी समय "वैष्णवी माया उस को मोहित कर देती हैं -- " (महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा बलादाकृष्य मोहमाय महामाया प्रयच्छति।। मार्कण्डेय पुराण।।)"
उस समय माया के स्पर्श से वह जीव विवश होकर कुछ बोल नहीं पाता, प्रस्तुत शैशवादि अवस्थाओ में होनेवालें दुःखों को पराधीन भाँति भोगता हैं। इस प्रकार गर्भसंरचनादि विषय -- गर्भोपनिषद् , चरक संहिता-शरीरस्थान, सुश्रुत संहिता, गरुडपुराण ,श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में वर्णन प्राप्त होता हैं। गुरुड़पुराण सारोद्धार के अध्याय ६ श्लोक १६ से २९ श्लोकों में जीवस्तुति वर्णित हैं, इस के श्लोंकों का गान सातवें महिने से गर्भवती स्त्री को करना या श्रवण करना चाहिये, यह स्तुति गर्भकाल में तो सही अपितु हम सभी को भी प्रतिदिन मननीय हैं आईएँ उस "जीवस्तुति" का पंद्रह श्लोंको का अंतःकरण से स्तवन करें --->
#गरुडपुराणान्तर्गत_जीवस्तुतिः -
जीव उवाच - श्री पतिं जगदाधारमशुभक्षयकारकम्। व्रजामि शरणं विष्णुं शरणागतवत्सलम्।।त्वन्मायामोहितो देहे तथा पुत्रकलत्रके। अहं ममाभिमानेन गतोऽहं नाथ संसृतिम्।। कृतं परिजनस्यार्थे मया कर्म शुभाशुभम्। एकाकी तेन दग्धोऽहं गतास्ते फलभागिनः।। यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत् समरिष्ये पदं तव। तमुपायं करिष्यामि येन मुक्तिं व्रजाम्यहम्।। विण्मूत्रकूपे पतितो दग्धोऽहं जठराग्निना । इच्छन्नितो विवसितुं कदा निर्यास्यते बहिः।। येनेदृशं मे विज्ञानं दत्तं दीनदयालुना। तमेव शरणं यानि पुनर्मे माऽस्तु संसृतिः।। न च निर्गन्तुमिच्छामि बहिर्गर्भात्कदाचन । यत्र यातस्य मे पापकर्मणा दुर्गतिर्भवेत्।। तस्मादत्र महद्दुःखे स्थितोऽपि विगतक्लमः। उद्धरिष्यामि संसारादात्मानं ते पदाश्रयः।।श्री भगवानुवाच - एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः। सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः।। तेनावसृष्टः सहसा कृत्वाऽवाक्शिर आतुरः। विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छवासो हतस्मृतिः।। पतितो भुवि विण्मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते। रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः।। गर्भे व्याधौ श्मशाने च पुराणे या मतिर्भवेत्। सा यदि स्थिरतां याति को न मुच्येत बन्धनात्।। यदा गर्भाद् बहिर्याति कर्मभोगादनन्तरम्। तदेव वैष्णवी माया मोहयत्येव पूरुषम्।।स तदा माया स्पृष्टो न किञ्चिद्वदतेऽवशः। शैशवादिभवं दुःखं पराधीनतयाऽश्नुते।। गरुडपुराण सारोद्धार ६/१६-२९।।)"
दैवज्ञ वराहमिहिर ने बृहज्जातक में गर्भस्थिति के मास के अधिपति बताये हैं - प्रथम मास का शुक्र, द्वितीय का मंगल, तृतीय का गुरु, चौथे का सूर्य, पाँचवे का चन्द्र, छठे का शनि और बुध होतें हैं। बाद इसके अष्टम मासका गर्भकालिक लग्नेश या माता का जन्मलग्नेश , नवममास का चन्द्र,दशम मास के स्वामी सूर्य होतें हैं। मासों के अधिपति के शुभाशुभत्व से गर्भ के शुभ या अशुभ फल होता हैं। अर्थात् जिस मास का स्वामी बली हो उस मास में गर्भवती को सुख, जिस मास का स्वामी निर्बल हो उस में क्लेश होता हैं ---->> "( क्रमशः सित कुज जीव सूर्य चन्द्रार्कि-बुधाः परतः (सप्तमासतः पश्चात्)उदयपचन्द्रसूर्यनाथाः, गदिताः। शुभाशुभं फलं च मासाधिपतेः सदृशं भवति।। बृहज्जातक ४/१६ टीका।।)"
इसलिये गर्भवती को पीड़ा न हो और गर्भसुरक्षित रहने के आशय से भी ज्योतिष के मार्ग से जिस मासों में मासाधिप बली न होने की संभावना हो उस ग्रह के जप,होम आदि शांत्युपायों को आचरना चाहिये।
और गर्भरक्षण स्तोत्र में कहे एक एक मंत्र से अर्थात् पहिले मास में पहिला दूसरे मास में दूसरे मंत्र आदि से भगवान् विष्णु की यथाधिकार पूजन करके वटपत्रपर भात की बलि देनी चाहिये -
गर्भरक्षणस्तोत्रम्
एह्यहि भगवन् ब्रह्मन् प्रजाकर्तः प्रजापते ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ १॥
अश्विनौ देवदेवेशौ प्रगृह्णीधन् बलिं त्विमम् ।
सापत्यं गर्भिणीं सैमं स रक्षतां पूजयानया ॥ २॥
रुद्रेशा एकादश प्रोक्ताः प्रगृह्णन्तु बलिं त्विमम् ।
यक्षागमप्रीतये वृत्तं नित्यं रक्षन्तु गर्भिणीम् ॥ ३॥
आदित्या द्वादश प्रोक्ताः प्रगृह्णीध्वं बलिं त्विमाम् ।
अस्माकं तेजसां वृद्ध्यै नित्यं रक्षतु गर्भिणीम् ॥ ४॥
विनायक गणाध्यक्ष शिवपुत्र महाबल ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ५ ॥
स्कन्द षण्मुख देवेश पुत्रप्रीतिविवर्धन ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ६॥
प्रभासः प्रभवश्यामः प्रत्यासौ मारुतोऽनलः ।
ध्रुवाधर धराशैव वसवेष्टौ प्रकीर्तितः ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं नित्यं रक्षतु गर्भिणीम् ॥ ७॥
पितृदेवि पितृश्रेष्ठे बहुपुत्रि महाबले ।
बुधश्रेष्ठे निशावासे निवृत्ते शौनकप्रिये ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ८॥
रक्ष रक्ष महादेव भक्तानुग्रहकारक ।
पक्षिवाहन गोविन्द सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ९॥
संस्कारविमर्श ८ (पुंसवन)
अनादि सृष्टि परम्परा के रक्षणहेतु परब्रह्म परमात्मा ने अखिल धर्ममूल वेदों को प्रदान किया हैं। अपौरुषेय वेद "श्रुति" हैं और उनपर आधृत धर्मशास्त्र "स्मृति" हैं। श्रुति-स्मृति-पुराणादि के आलय सर्वज्ञ भगवत्पाद श्री शङ्कराचार्यजी ने श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य के आरम्भ में स्पष्ट किया हैं कि उस भगवान् ने जगत् की सृष्टि कर प्रवृत्तिलक्षण-धर्म का प्रबोध किया और सनक,सनन्दन,सनातन और सनती कुमारों को उत्पन्न करके ज्ञान,वैराग्यप्रधान निवृत्तिलक्षण-धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। ये ही दो वैदिक धर्ममार्ग हैं "( स भगवान् सृष्ट्वा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम्। ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च । जगतः स्थिति कारणम्...।। गीता शांकरभाष्य )"
वेदों की संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक , उपनिषद् भागों में प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण धर्मों का विशदीकरण द्रष्टव्य हैं। समुचित व्यवस्था के अभाव में यह सृष्टि सम्पन्न नहीं हुईं हैं। सृष्टि के वैविध्य दृष्टि में रखकर धर्माचरण की व्यवस्था की गयी हैं। प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण धर्म एतदर्थ ही हैं। "(धर्मो रक्षति रक्षितः)" का अर्थ यही हैं कि इहलोक और परलोक के अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि के लिये वेदोक्त धर्ममार्ग का अनुसरण करना चाहिये। सब के हित को दृष्टि में रखकर वेदोक्त धर्माचरण के निमित्त हमारे आदरणीय ऋषि-मुनियों ने युगानुरूप अथवा देश,काल के अनुसार स्मृति ग्रन्थों के प्रणयनद्वारा सरल और सुबोध रीति से धर्माचरण-विधान को स्पष्ट किया हैं। श्रुत्यर्थ प्रतिपादक ये ही ग्रन्थ धर्मशास्त्र के ग्रन्थ हैं। पुराणों में भी श्रुति-स्मृतिसारभूततत्त्व निहित हैं।
परमेश्वर ने यह सृष्टि क्यों की हैं और इसका रहस्य क्या हैं ? यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता हैं। मनीषियों ने नाना प्रकार से इस प्रश्न का समाधान किया हैं। शिवानन्दलहरी में कहा गया हैं -- "( छंद शार्दूलविक्रिड़ीत/// क्रीडार्थं सृजसि प्रपञ्चमखिलं - क्रीडामृगास्ते जनाः - यत्कर्माचरितं मया च भवतः - प्रीत्यै भवत्येव तत्। शम्भो स्वस्य कुतूहलस्य करणं - मच्चेष्टितं निश्चित्तं - नित्यं मामकरक्षणं पशुपते - कर्तव्यमेव त्वया।।)" अर्थात् हे शम्भो ! अखिल प्रपञ्च यानी जगत् की सृष्टि, तुम अपनी क्रीडा के लिये करते हो एवं यहाँ के लोग तो तुम्हारी क्रीडा के मृग हैं। मुझ से जो कर्म आचरित हैं, वे तुम्हारी प्रीति के लिये ही हैं। मुझ द्वारा जो किया गया हैं, वह तुम्हारे कुतूहल का साधन हैं। अतएव पशुपते ! मेरी नित्य रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य ही हैं।
जिस सृष्टिकर्ता ने इतनी व्यापक सृष्टि की हैं, क्या वह नहीं जानता कि यहाँ के जीवों को कैसे रखना चाहिये ? इसलिये मनुष्य की सृष्टि उसकी प्रकृति के अनुसार हुई हैं और इहलोक तथा परलोक में श्रेयप्राप्ति की दृष्टि से संस्कारों का विधान निश्चित हुआ हैं।
इन विधानों को कर्तव्य समझना चाहिये। जगत् में जो भी वस्तु हैं , उसका संस्कार उसके सौन्दर्य का अथवा आकर्षण का कारण बनता हैं। प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ मानव संस्कारों से ही समाजयोग्य तथा वर्णों के अधिकृतकर्मों को करने योग्य होता हैं, संस्कारों से उसका आत्मविकास होताहैं और वह लक्ष्यप्राप्ति के पथपर अग्रसर हो सकता हैं। संस्कार माने क्या हैं ? संस्कार तो विहितक्रियाजन्य तथा पापनाशक हैं। स्मृतिकारों ने संस्कार के विषय में कहा हैं "( तत्रात्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। स च द्विविधः, एकस्तावत् कर्मान्तराधिकारेऽनुकूलः, यथोपनयनजन्यो वेदाध्ययनाद्यधिकारापादकः। अपरस्तूत्पन्नदुरितमात्रनाशको यथा बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणो जातकर्मादिजन्यः।।)" अर्थात् संस्कार तो आत्मशरीररान्यतरनिष्ठ विहितक्रियाजन्य अतिशय हैं। वह दो प्रकार का हैं। एक तो दूसरे कर्मों की योग्यता का हेतु हैं, जैसे - उपनयन आदि से प्राप्त होनेवाला संस्कार वेदों के अध्ययन की योग्यता हेतु हैं। दूसरा, जो पाप प्राप्त होता हैं, उसका नाशक हैं। जैसे - जन्मग्रहण करने से पूर्व गर्भ के कारण समुत्पन्न दुरित को दूर करने के लिये किया जानेवाला जातकर्मादि से प्राप्त होनेवाला संस्कार हैं। शास्त्रग्रन्थों में संस्कार की विशेष आवश्यकता बतायी गयी हैं। संस्कार के अभाव में मनुष्य का जन्म व्यर्थ समझा जाता हैं। कहा गया हैं ---> "(संस्काररहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्)"। गर्भाधानादि चूडाकरण तक के संस्कारों के फल के विषय में बताया हैं कि बैजिकदोष और गार्भिक दोषों का निरासन होता हैं । जो व्यक्ति वेद की जिस शाखा का अपनी कुल परम्परा से अध्ययन करनेवाला हैं, उसका कर्तव्य होता हैं कि वह पहिले अपनी शाखा का अध्ययन करें। अपनी वेद शाखा का अध्ययन किये बिना दूसरी शाखा का अध्ययन करना उचित नहीं हैं। इसी प्रकार जो जिसका शाखा का गृह्यसूत्र ,श्रौतसूत्र आदि हैं उसको उस सूत्र के अनुसार अनुष्ठान भी सर्वथा कर्तव्य हैं --- अङ्गिरा का कथन हैं स्वगृह्यसूत्र में कथित सभी संस्कार यथोक्त रीति से सम्पन्न करने चाहिये,अन्यथा ऐहिकामुष्मिक फल की प्राप्ति नहीं होती " ( स्वे स्वे गृह्ये यथा प्रोक्तास्तथा संस्कृतयोऽखिलाः। कर्तव्या भूतिकामेन नान्यथा सिद्धिमृच्छति।।अङ्गिरा।।)"
ऋषिमुनियों ने स्वशाखासूत्रत्याग को दोष माना हैं, जान-बूझकर अथवा अज्ञान से जो स्वशाखा सूत्र का परित्यागकर कर्माचरण करता हैं, वह उसके फलका भागी न होकर पतित हो जाता हैं --- "( स्वसूत्रोक्तं परित्यज्य यदन्यत् कुरुते द्विजः। अज्ञानादथवा ज्ञानाद् यत्नेन पतितो भवेत्।।) अतः सभी संस्कारों को अपने अपने गोत्र में कही वेद-शाखा सम्बन्धित गृह्यसूत्रों में निर्दिष्ट पद्धति से ही करना हैं।
पूर्व लेखों में गर्भाधान और गर्भाधान के बाद आचरनेयोग्य आचरणों की चर्चा की थी.. गतलेख से आगे....
गर्भ ठहरने के बाद कोई भी दवा(सामान्य से सामान्य भी) लेने से पूर्व आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह ले। पूर्व भी चर्चा की थी कि गर्भावस्था के समय आयुर्वेदिक से भिन्न दवाएँ द्विजों के लिये उचित नहीं, इन्हीं दवाओं से बालकों में कुसंस्कारों का प्रत्यारोपण हो जाता हैं अतः - यन्त्रयुग में "जस्ट डा़यल, गुगल आदि पर " आयुर्वेदिक हॉस्पिटल, स्टोर्स" आदि सर्च करने पर आसानी से अपने स्थानीय प्रदेशों में प्राकृत्तिक चिकित्सक प्राप्त हो जायेंगे। शास्त्रो में तो कहा हैं कि अपने घर पर ही प्रसूति करवाना ही उचित हैं क्योकि चारमास की जबतक संतान नहीं होती तबतक बिना गृहनिष्क्रमण संस्कार किएँ सूर्य आदि के प्रकाश में शिशु को लाना चैतन्यात्मक अंङ्गो तथा आखें कमजोर हो जाती हैं, और पूतनादि बालग्रह नामक ऊपरी उपद्रव बालकों के लिये अनिष्टकर्ता माने गये हैं। जातकर्म संस्कार की चर्चा के बाद इन ऊपद्रवों के उपायों की चर्चा करेंगे। गौशाला में जाकर या व्यैक्तिक रूप से प्रतिदिन गायों की सेवा आदि सपर्या करने से गाय माता की कृपा से संतान सम्बन्धित समस्या दूर होती हैं।
वस्तुतः शास्त्रों में वर्णित स्व स्व वेद-शाखानुसार संस्कारविधा के द्वारा यदि माता-पिता अपने बच्चों को सुसंस्कृत करें तो वह बालक वास्तविक मानव बन सकता हैं। वेदविरुद्ध आचरण होनेपर मानव का मानवधर्म निभाना असम्भव हैं। मनुष्य की मनुष्यता वेदानुकूल आचरण करने में ही सिद्ध होती हैं । योगवासिष्ठ का यह श्लोक इस तथ्य को सम्पुष्टि करता हैं-- "(येषां गुणेष्वसन्तोषो रागो येषां श्रुतं सति। सत्यव्यवसिनो ये च ते नराः पशवोऽपरे।।)"
अतः "आचारहीनं न पुनन्तु वेदाः।।देवी भागवत।।" कहने का आशय यह हैं कि आचारहिन व्यक्ति न पवित्र होते हैं और न पवित्र आचरण करते हैं;क्योंकि "(यन्नवे भाजने लग्न संस्कारो नान्यथा भवेत्)" बाल्यावस्था में जो संस्कार प्राप्त होता हैं वह अमिट होता हैं, परंतु आजकल बालकों को गुरुकुल - आश्रमों में भी सुसंस्कार मिलने धीरे धीरे बंद हो रहे हैं, क्योंकि प्रायः आधुनिक पाश्चात्य पद्धति का वातावरण भी बिगड़ता जा रहा हैं, जो अत्यंत दुःख की बात हैं। आज भी यदि वेद विहित आचरण कराये जायँ तो मानव का अभ्युत्थान होना सुनिश्चित हैं। धन-दौलत बढ़ाने से मानव की अभ्युन्नति नहीं होगी। रावण के पास सोने की लङ्का थी, किंतु संस्कारहीन होने से लङ्का का एवं उसके सम्बन्धियों का विनाश हो गया। उसी परिवार में विभीषण कुसंस्कारी था, अतएव उसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का सान्निध्य मिला और जब परमप्रभु परमात्मा का सान्निध्य मिल गया तो समझिये कि जीवन कृतकृत्य हो गया तथा प्रभु का अनुग्रह प्राप्त हो गया - सात चिरञ्जीवीयों में आज भी कहीं न कहीं पौलत्स्यकुलतिलक विभिषण विद्यमान हैं, जन्मतिथि के सुअवसर पर मार्कण्डेयपूजन(वर्द्धापन)विधा में आज भी पूजनीय हैं --> "( अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥)"
गर्भाधानातिक्रमण दोष प्रायश्चित्त
हमारे वैदिकसंस्कारों का प्रयोजन हैं पिता के बैजीक और माता के गार्भिक दोषों का निबर्हण । यथा --> "गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौडमौञ्जीनिबन्धनैः। *बैजिकं गार्भिकं* चैनो द्विजानामपमृज्यते।। मनुः २/२७।।"" -- इस कारण से विधापूर्वक गर्भाधान न करने में जितना दोषी पिता हैं उतनी ही दोषी "पति को कर्तव्य का भान न कराने में और स्वैच्छिक जातीयसुख भुगतने में पत्नी भी दोषी हैं, पिता यदि इस कर्तव्य से अज्ञानता के कारण संस्कार विमुख होता हैं तो बैजिकदोष और माता के विमुखता के कारण गार्भिकदोष -- साथ में विधिहिन काम्यप्रवृत्ति केवल जातीयसुख की लिप्सा । इस कारणों से भ्रूण में भी धर्मप्रजा का नहीं अपितु कामप्रजा का विकास होता हैं। (वर्तमान द्विजों का वेदाध्ययनादि कर्तव्यविमूढ़ों के लिये उचित - वेद और वेदव्रतातिक्रमण सहित वेद के अतिक्रमण के चान्द्रायण,ब्रह्मचर्यकर्म लोप के लिये चान्द्रायण और वेदव्रतों के अतिक्रमण के लिये एक,एक यथा चारप्राजापत्य तथा , #गर्भाधानातिक्रमण_के_तीनप्राजापत्य --- कुल ४+३ =७ प्राजापत्य और दो चान्द्रायण।। चतुर्वर्ग चिंता०प्राय०खंड ५२५/५२८/५३१/५०७ पृष्ठेषु।।)
#यह_प्रायश्चित्त_कब_करना_चाहिये ?
सामान्यतः स्त्री की ऋतुकाल षोडश रात्रियाँ होती हैं और जबतक स्त्री जन्मराशि से अनुपचयस्थान में आनेवाले चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि का सम्बन्ध नहीं होगा तथा पुरुष की राशि से उपचयस्थ में चन्द्रमा पर गुरु की दृष्टि सम्बन्ध नहीं होगा तबतक गर्भ ठहर नहीं सकेंगा " *( कुजेन्दुहेतु प्रतिमासमार्तवं गते तु पीडर्क्षमनुष्णदीधितौ। अतोऽन्यथास्थे शुभपुंग्रहेक्षिते नरेण संयोगमुपैति कामिनी बृहज्जातक निषेका०४/१।। /// स्त्रीणां गतोऽनुपचयर्क्षमनुष्णरश्मिः संदृश्यते यदि धरातनयेन तासाम्। गर्भग्रहार्तवमुशन्ति तदा न बन्ध्यावृद्धातुराल्पवयसामपि ।।)"* । इसलिये गर्भाधान संस्कार का प्रारंभिक कर्म यथा ( संस्कार के संकल्प पूर्वक , गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन,मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध गर्भाधानादि होम) केवल प्रथम समय होता हैं। परंतु गर्भाधान की प्रधान क्रिया का महत्त्व तो तब सार्थक होती हैं कि जब जब संतानोत्पत्ति की कामना से पत्नी के साथ संयोग हो और दैवयोगवशात् गर्भ का आधान हो, इस प्रधान गर्भाधान प्रधान-विधा की क्रिया गर्भाधानांग (१ सूर्यावलोकन, २पत्नी की नाभि-अभिमर्शन,४ संयोग(अभिगमन-क्रिया), तथा पत्नी का ५- हृदयावलम्भन के मंत्रो प्रमुख हैं।) इसे प्रति संयोग समय किया जाय।
इस प्रकार से बिना गर्भाधान-संस्कार के संयोग हो जाय तो दूसरे संयोग से पहिले उचित तीनप्राजापत्य प्रायश्चित्त करना चाहिये। पत्नी को आधा प्रायश्चित्त उचित हैं ।
यह भी संभव न हुआ तो पुंसवन संस्कार से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त यथा -- तीन प्राजापत्य के दोगुने छः करना चाहिये,पत्नी को सार्धप्राजापत्य का दोगुना तीनप्राजापत्य करना चाहिये, (कामकृते तद् द्विगुणम्।प्राय०शेखर।।)" //////// "(प्राजापत्य प्रायश्चित्त का पूर्ण पृथक् पृथक् क्रम संभव न हो तो पादकृच्छ्र को चतुर्गुण विधा से करतें हुए भी एक प्राजापत्य पूर्ण होता हैं इस तरह --- द्वितीयादि संयोग से पहिले मूल अथवा असंभवे पुंसवन से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त करना चाहिये।
संस्कारों के क्रम में #पुंसवन-संस्कार द्वितीय संस्कार हैं। गर्भस्थ भ्रूण को सत्त्व या आत्मिक बल से करने के लिये होता आया हैं। इस में चन्द्रमा, ओषधि और पुंञ्सज्ञनक्षत्र का प्रभाव के योग द्वारा माङ्गलिक मन्त्रानुष्ठानों से गर्भस्थ भ्रूण को ऊर्जा और तेज प्रदान करने का सुयत्न होता हैं।
"( पुमान् प्रसूयते येन तत् पुंसवनमिति)" - जिस संस्कार के द्वारा निश्चितरूप से पुत्रोत्पत्ति होती हैं, उसे पुंसवन-संस्कार कहा गया हैं। गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, इसलिये पुंसवन- संस्कार का विधान हैं --> "( गर्भाद् भवेच्च पुंसुते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनात्।। स्मृति संग्रह)"
आयुर्वेद के विद्वान् वाग्भट्ट ने अष्टाङ्ग-हृदय में इसी संस्कार को पुत्री प्राप्ति करने में भी उपयुक्त माना हैं, अतः मूलतः भ्रूण में संस्कारों का उद्धेश्य जो हैं कि - बैजिक एवं गार्भिकदोष की निवृत्ति हो यह आवश्यक होने से -- शिशु के जन्म से पूर्व १-गर्भाधान, २- पुंसवन और ३ सीमन्तोन्नयन संस्कार आदि वीर्य एवं गर्भ से उत्पन्न दोष नष्ट करने के प्रयोजन में और गर्भ के भी संस्कार माने गये हैं। इसलिये प्रत्येक संतानोत्पत्ति के कारणभूत गर्भाधान, प्रतिगर्भ समय पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कार को अवश्य करना चाहिये। "पुंम्" नामक नरक से त्राण करने के कारण ही पुत्र नाम पड़ा। महर्षि मनु ने भी कहा हैं - "( पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते।। मनु ९/१३७)" । पुत्र से लोकों पर विजय और पौत्र से आनन्त्य की प्राप्ति होती हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र १/१४/२ पर गदाधरभाष्य हैं कि - गर्भ के कम्पन से पहिले अर्थात् जब पेट में बच्चा कुछ हिलने डुलने लगे, गर्भधारण के प्रथम, दूसरे या तीसरे महीने में यह संस्कार करवाना चाहिये---> "( पुरा गर्भस्पन्दनात् भवतीति हेतोः शुद्धे द्वितीये वा मासे तृतीये वा मासे गर्भाधानाद्भवति प्रथमे मासे वा पूर्णे भवति द्वितीये वा तृतीये वेति।।)"
भाष्यकार गदाधर ने हेमाद्री में कहे यमवचन को उद्धृत करके भी कहा हैं कि प्रथम,द्वितीय अथवा तृतीय मासों में पुष्यप्रभृति किसी पुरुषनक्षत्र का योग जब चन्द्रमा के साथ हो तब गर्भके संस्कार होने के कारण प्रतिगर्भ रहने के उचित समय पर दोहराया जाय ---> "( प्रथमे मासि द्वितीये वा तृतीये वा यदा पुन्नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यादिति। गर्भसंस्कारत्वात् प्रतिगर्भमावर्तनीयमेतत्।।) इस प्रकार के उचित समय तथा गर्भ के संस्कार विचार को भाष्यकार कर्काचार्य ने भी संपुष्ट किया हैं --" ( गर्भसंस्कार एवायमिति कर्कस्य सम्मतिः। अतस्तद् गर्भसंस्काराद् गर्भं गर्भं प्रयुज्यते।।)"
प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में यदि सम्भव न हो तो केवल संस्कारों का अतिक्रमण न हो इसके लिये भी पारस्कर गृहसूत्र में "पुरा स्पन्दत इति।। १/१४/२।। सूत्र से जब गर्भ कुछ हिलने डुलने लगे तब सीमन्तोन्नयन संस्कार से पूर्व भी करवाना चाहिये इस वचन की पुष्ट्यर्थ भाष्यकार गदाधर ने बृहस्पति के वचन को उद्धृत इस प्रकार से किया हैं - " (एतदेव पुरा गर्भचलनादकृतं यदि। सीमन्तात् प्राक् विधातव्यं स्पन्दितेऽपि बृहस्पतिः।।)"
प्रयोग पारिजात में जातूकर्ण्य का भी वचन इसी प्रकार से ही हैं -"( द्वितीये वा तृतीये वा मासि पुंसवनं भवेत्। व्यक्ते गर्भे भवेत्कार्यं सीमन्तोन्नयन सहाथ वा।।)"
यह संस्कार अष्टांगहृदय के अनुसार गर्भके प्रथममासान्तमें कहा हैं।
"(अव्यक्तः प्रथमेमासि सप्ताहात्कललीभवेत्| गर्भः पुंसवना न्यत्र पूर्वं व्यक्ते: प्रयोजयेत्" अष्टा०ह ३७)"
जिसके पति किसी कारण दूर हो या गर्भाधान के बाद दिवङ्गत हुए हो तो देवर भी पुंसवन संस्कार करवाने में अधिकारी हैं , और यह संस्कार प्रतिगर्भ समय करना चाहिये --> "(कर्त्ता स्याद्देवरस्तस्या यस्याः पत्युरसंभवः| आवर्त्तत इदं कर्म प्रतिगर्भमिति स्थिति:|| बृहदॄचकारिका)"
"(गर्भाधानादि संस्कर्त्ता पतिः श्रेष्ठतमः स्मृतः|| अभावे स्वकुलीनः स्याद्बान्धवोऽन्यत्र गोत्रजः|| ब्राह्मे)" अर्थात् गर्भाधानादिक संस्कार करनेमें पति ही सर्व श्रेष्ठ हैं. परंतु पति उपस्थित न हो तो सभी संस्कार पतिकुल बांधव या गोत्रजको करना चाहिये।
."( मृतो देशान्तरगतो भर्त्ता स्त्री यद्यसंस्कृता| देवरो वा गुरोर्वाऽपि वंश्यो वापि समातरेत्||मदनरत्ने"।)" गर्भाधान के बाद पति का देहांत हुआ हो या देशांतर में हो स्त्रीको पुंसवन-संस्कार न हुए हो तो स्त्रीके देवर, या पतिके कुलगुरु अथवा कुलवंशज द्वारा संस्कार हो सकतें हैं।
हस्त,मूल,श्रवण,पुनर्वसु,मृगशिरा, पुष्य, " (अनूराधान् हविषा वर्धयन्तः)" ऐसी श्रुति होने के कारण अनुराधा पुन्नक्षत्र ही माना गया हैं, इनमेंसे किसी एक रात्रिव्यापक नक्षत्रमें( जो नक्षत्र रात्रिमें चन्द्रोदयके बाद भी हो क्योंकी यह संस्कारका मूलकर्म ओषधि सेचन रात्रिमें हैं( सोम ओषधिनां अधिपतिः) सोम ओषघियोंका स्वामी हैं. इस लिये चन्द्रकी किरणें ओषधिमें सम्मिलित होना प्रभावशाली माना जाता हैं.रिक्ता- ४'८'१४ पर्व और नवमी तिथियों को त्याग करके अन्य तिथिओं में." (मृत्युश्च सौरे स्तनु हानि रिन्दोर्मृतप्रजा पुंसवने बुधस्य| काकी च वन्ध्या भवतीह शुक्रे स्त्री पुत्र लाभो रवि भौम जीवैः" ज्योतिर्निबन्धे वसिष्ठ:)" पुंसवन शनिवारमें करनेसे संकट,सोमवारमें शरीरहानी, बुधवारमें संतानको कष्ट,शुक्रवारमें काकवंध्या,रवि मंगल या गुरुवारमें करनेसे पुत्रलाभ हो ता हैं।
इस मुर्हूतों में जो भी तिथि और नक्षत्र का विचार हुआ हैं वह ओषधि के उपयोग समय रात्रिकाल में होने चाहिये क्योंकि ओषधिसेचन का मुख्य कर्म रात्रिकाल में ही कहा हैं।
यह ओषधिरस ड़ालने का स्व स्व वेद-शाखानुसार मंत्र पुंसवन-संस्कार से पहिले संस्कर्ता अधिकारी को अपनी शाखा के आचार्य से जानकर मुखपाठ कर लेना चाहिये।
#ऋग्वेद की शाखाओं में पुंसवन के साथ अनवलोभन संस्कार का भी साथ में महत्व दीया हैं, यह संस्कार पुंसवन संस्कार का ही अङ्ग माना गया हैं। केवल इतनी ही भिन्न विधा हैं कि ऋग्वेदीयों को " एक यव का दाना और उडिद के दो दानें के साथ गाय के दूध से बने हुएँ दहीं का गर्भिणी प्राशन अर्थात् इन मिश्र द्रव्यों का विधिवत् पुंसवन-पीती हैं। और अनवलोभन संस्कार में प्रजावदाख्य और जीवपुत्रसूक्त द्वय से असगंध,शतावरी आदि की जड़ पीसकर ओषधिकर्म करने के बाद गर्भिणी के हृदय का स्पर्श किया जाता हैं - इस अनवलोभन संस्कार में प्रयुक्त मंत्रो द्वारा भ्रूण को पुंस्त्व की प्राप्ति करवाने के भाव के साथ साथ मृत्वत्सा अर्थात् मरी हुई संतान न हो, दीर्घायु हो और गर्भ के दोष दुर होने की प्रार्थना हैं।
#सामवेद की कौथुमी शाखा में १-मंत्रात्मकपुंसवन और ओषधिसेचनात्मक शृंगाकर्म नामक दो विधियाँ उपलब्ध होती हैं दौनों में से किसी भी एक के अनुसार संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं। मंत्रात्मकपुंसवन में केवल पुंस्त्वप्रतिपादक मंत्र से गर्भिणी की नाभि का स्पर्श करने को कहा हैं और शृंगाकर्म नामक पुंसवन में वटवृक्ष को निमंत्रणपूर्वक कोमलकूँपणों को लाकर इसको पीसकर ओषधि का गर्भिणी की नाक में नस्यकर्म होता हैं।
पारस्कर गृह्य सूत्र में शुक्ल-यजुर्वेद माध्यंदिनी शाखा वाले ब्राह्मणों के लिये जो पुंसवन संस्कार कहा हैं - काण्ड १/कण्डिका १४/सूत्र ३ पर गदाधर के भाष्यनुसार पुंसवन के उचित मुर्हूत के दिन गर्भिणी को स्नान तथा उपवास करवाकर सौम्यवस्त्रों को पहनाकर "( आचार्य की उपस्थिति में मार्गदर्शन अनुसार सपत्नीक यजमान को पूर्वाह्णकाल में नान्दीश्राद्ध तक के सभी कर्मों को पूर्ण करकें) बरगद की डाल में लटकतीं जटाओं को और उसके कोमल पत्तों को पानी में पीसकर ( कुछ समय बाईं करवट सुलाकर छती करवाँकर थोडा़ सिर शैयापर से नीचे हो जिससे ओषधिरस नाक में सरलता से चला जाय) उपदिष्ट " हिरण्यगर्भः०० तथा अद्भ्यः०० इत्यादि मंत्रों को पढ़कर गर्भिणी की दाहिनी नाक मे उस ओषधियुक्तजल की दो-चार बूँदे छोड़ देनी चाहिये (और पत्नी को वह ओषधिरस श्वासलेकर पेट में जाने देना चाहिये) ---- "( गर्भिणीमुपवास्यानाशयित्वा आप्लाव्य स्नापयित्वा महते वाससी परिधाप्य च न्यग्रोधो वटस्तस्यावरोहान् अव अधः रोहन्तीति - तथा तान् शुङ्गान् ऊर्ध्वाङ्कुरान् सन्निधानाद्वटस्यैव चकारः समुच्चये हिरण्यगर्भोद्भ्यःसम्भेृत इत्येताभ्यामृग्भ्याम् """आदि ।।)"
वहाँ पारस्करगृह्यसूत्र १/१४ के "(कुशकण्टकं सोमांशुञ्चैके।।)" इस चौथे सूत्र पर भाष्यकार गदाधर और हरिहर का मन्तव्य एक ही हैं कि - कुछ आचार्यों के मत से बरगद की जटाओं और उसके कोमल पत्तों के साथ कुश की जड़ और सोमलता भी पीसनी चाहिये, इस तरह से चार द्रव्य का मिश्रण होगा ---"( कुशकण्टकं कुशमूलं सोमांशुं =सोमलताखण्डं च पिष्यमाणेषु न्यग्रोधावरोहशुङ्गेषु प्रक्षेप मेत्येकया आचार्याः। अस्मिन्पक्षे द्रव्यचतुष्टयस्य पेषणम् ।।गदाधरः।।)
#अथर्ववेद में पुत्र ही उत्पन्न करनेवाले पुंसवन संस्कार का उल्लेख हुअा हैं | पुंसवन-संस्कार का साङ्गोपाङ्गविधान अपने अपने कुल से प्राप्त वेद-शाखा-सूत्रोंनुसार करना चाहिये औषधीवर्ग भी शाखासूत्रों में भिन्न भिन्नरूप से दिये हैं | पुंसवनौषधी किसी भी प्रकार की ग्रहण करें पर विधान स्ववेदशाखानुसार होना आवश्यक हैं | अथर्ववेद में पुंसवन के लिए जो औषधि उपभोग आती रही हैं उसमें अश्वत्थ(पीपल) के सम्बन्ध में कहा हैं ----> *#शमीमश्वत्थ_आरूढ़स्तत्र_पुंसवनं_कृतम् | #तद्वै_पुत्रस्य_वेदनं_तद्_स्त्रीष्वा_भरामसि ||६/११/१||
शमीवृक्ष(छोंकरा)पर उत्पन्न हुआ पीपल पुंसवन (पुत्रोत्पत्ति) करता हैं इसके लिए स्त्री को इसका स्ववेदविधान से सेवन करवाना चाहिए | विशेषरूप गर्भस्थिति के तीसरे महिने से लेकर सेवन करायें जबकि गर्भ में भ्रूण का लिंग बनता हैं | गर्भ स्थापना के दो महिने तक कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या लिंग होगा | गर्भाधान के पूर्व ही खिलाया जाय तो और भी अच्छा हैं पर पुंसवन-संस्कार के दूसरे वा तीसरे महिने में संस्कार करना अनिवार्य ही हैं, तीसरे महीने के बाद व्यर्थ हैं |
क्योंकि--- बलवान पुरुषार्थ देव को भी लांघ जाता हैं --> #बली_पुरुषकारो_हि_दैवमप्यतिवर्तते || अष्टाङ्ग हृ०||
तत्रैव चरकः --> बलवान कर्म दूसरे निर्बल कर्म को व्यर्थ कर देतें हैं ---> #देवं_पुरुषकारेण_दुर्बलं_ह्युपहन्यते | #दैवेन_चेतरत्कर्म_प्रकृष्टेनोपहन्यते ||
अश्वत्थ का पुंसवन के लिए अथर्ववेद में दूसरे रूप में भी प्रयोग किया गया हैं --> #पुमान्_पुंसः_परिजातोऽश्वत्थः_खदिरादधि ||३/६/१||
खैर(जिससे कत्था बनता हैं) वृक्ष के ऊपर चढ़े हुए पीपल के सेवन से भी उसी प्रकार पुत्र उत्पन्न होता हैं | वैसे पीपल में वाजीकरण गुण तो होता ही हैं |
वाग्भट्ट के अष्टाङ्गहृदय शारीरस्थान प्रथम अध्याय के अनुसार - पुष्य नक्षत्र में सोने, चाँदी या लोहे की पूर्णाङ्गोवाली प्रतिमा बनाकर इसको अग्नि में लालवर्ण करके दूध में बुझाकर इस दूध की एक अञ्जलीमात्रा गर्भिणी पियें ( यह प्रयोग जब रात्रिकाल में मुर्हूत न मिलें तो उचित मुर्हूतवाले दिन में उपयोग कर सकतें हैं) - --> "( पुष्ये पुरुषकं हैमं राजतं वाऽथवाऽऽसम्। कृत्वाऽग्निवर्णं निर्वाप्य क्षीरे तस्याञ्जलिं पिबेत्।। ३८।।)"
दूसरा उपाय - श्वेत दण्डो के अपामार्ग(ऑंगा)को जीवक, ऋषभक,झिण्टी(सैर्यक)- इन चार द्रव्यों को पुष्य नक्षत्र में पानी के साथ अलग-अलग या दो-दो अथवा तीन-तीन या चार-चारों द्रव्यों को एकसाथ पीसकर पियें(इस कर्म को रात्रिकाल में करना चाहिये)--- "(गोरदण्डमपामार्गं जीवकर्षभसैर्यकान्। पिबेत् पुष्येण जले पिष्ट्वानेकद्वित्रिसमस्तशः।।३९।।)
उपाय तीसरा - श्वेत कटेरी के मूल को दूध के साथ पीसकर स्त्री स्वयं ही पुत्र की कामना से अपनी दक्षिण नासा में और कन्या की इच्छा से अपनी वाम नासिका में ड़ालें ---> " ( क्षीरेण श्वेतबृहतीमूलं नासापुटे स्वयम्। पुत्रार्थं दक्षिणे सिञ्चेद्वामे दुहितृ वाञ्च्छया।।४००।। ---" मंत्रो यथा - देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणंगतः।।)"
उपाय चौथा - लक्ष्मणा के मूल को दूध के साथ पीसकर कभी तो मुख से और कभी नासा से पीने पर पुत्र की उत्पत्ति एवं पुत्र की स्थिति होती हैं । उपाय पाँचवाँ - बरगद के कोमल आठ अंकुरों को दूध के साथ पीसकर नासा या मुख से पिये --- "( पयसा लक्ष्मणामूलं पुत्रोत्पादस्थिति प्रदम्। नासयाऽऽस्येन वा पीतं वटशुङ्गाष्टकं तथा।।४१।।)"
जहाँ ओषधि का प्रयोग कहा हो वहाँ रात्रिकाल में ही उपाय करें क्योंकि ओषधि के अधिपति चन्द्रमा हैं। यह पाँचो उपायों पुराणोक्तविधा के अनुसार अनुपवीत , व्रात्यो भी "(देवकी सुत गोविंद") आदि मंत्र से कर सकतें हैं , सभी वेद-शाखाओं में विधा भले ही भिन्न भिन्न दी हो परंतु ओषधिकर्म का ही पुंसवन में महत्व हैं इसलिये विधा अपनी अपनी वेद-शाखा के अनुसार करें पुंसवन की ओषधि भले ही कीसी भी प्रकार की ग्रहण के अपनी शाखा में कहे मन्त्र द्वारा ही संस्कार करें।
इस प्रकार ओषधिकर्म के बाद पारस्कर गृह्यसूत्र में १/१४ ""कूर्मपित्तं चोपस्थे कृत्वा"" आदि पाँचवे सूत्र पर भाष्यकार गदाधर का कथन हैं कि गर्भस्थ शिशु का पिता यदि चाहे कि सन्तान शक्तिशाली हो तो जल सहित मिट्टी के पात्र को पत्नी की गोद में रखकर गर्भाशय का अनामिका से स्पर्श करते हुएँ अथवा गर्भाशय पर दृष्टि स्थिर करकें - विकृति छन्द में निबद्ध "सुपर्ण्णोऽसि" इस मन्त्र को प्रारम्भ कर "(व्विष्णोः क्क्रमोसि० इत्यादि १२/५ - १७)" विष्णुमंत्रों से पहिले तक पढ़े --"(स भर्ता यदि कामयेत अयं गर्भो वीर्यवान् शक्तिमान् भवतु तदा स्त्रिया उपस्थे=उत्सङ्गे अङ्के उदपूर्णं शरावं निधाय=मुक्त्वा विकृत्या=विकृतिच्छन्दस्क्या ऋचा एनं गर्भमभिमन्त्रयते = गर्भिण्या उदरं विकृत्या अनामिकाग्रेण स्पृशन् विलोकयित्वा वा मन्त्रों पठतीत्यर्थः।। अनामिका से स्पर्श या स्थिर दृष्टि से अवलोकन करके भी अभिमन्त्रण क्रिया हो सकती हैं --- "( स्पृशंस्त्वनामिकाग्रेण क्वचिदालोकयन्नपि। अनुमन्त्रणीयं सर्वत्र सदैवमनुमन्त्रयेत्।। कात्यायनः।।) सुपर्णोऽसि गरुक्त्मानित्यारभ्य विष्णुक्रममन्त्रेभ्यः प्राक् पूर्वं यावद्विकृतेः परिमाणमित्यर्थः।।गदाधरः।। कुछ आचार्यों के अनुसार कूर्मपितं के अर्थ में काँसे की कटौरी का उपयोग करतें हैं।
*जिस वेद-शाखा के पुंसवन संस्कार में होम कहा हो वहाँ उन उन शाखावालें को उचित शोभन नामक प्रतिष्ठित अग्नि में पके चावलचरु द्रव्य , घृत आदि से होम करकें ओषधिकर्म-पुंसवन सम्पादित करें ।*
संस्कारविमर्श खंड ९ (सीमन्तोन्नयन )-
शास्त्रविहित सम्यक् क्रियाविशेष को संस्कार कहते हैं। संस्कार के द्वारा शारीरिक तथा मानसिक मलों का अपाकरण होता हैं और उनमें विशिष्ट गुणों का आधान किया जाता हैं। संस्कार के द्वारा मनुष्य के जिन मलों का अपाकरण होता हैं, उनके विषय में भी कुछ विमर्श करना आवश्यक हैं। विभिन्न व्याधियोंका के मूल तथा शारीरिक विकारों को मल कहतें हैं । इन मलों का शोधन संस्कारों से होता हैं । मनुष्य के शारिरीक मल हैं - वसा-चर्बी, २ वीर्य, ३ रक्त, ४ मज्जा, ५ मूत्र, ६ विष्ठा, ७ नेटा, ८ कान का मैल, ९ कफ, १० आँसू, ११ दूषिका-नेत्रमल तथा १२ स्वेद --- ये सभी बारह शारीरिक मल समुचित संस्कारों से हटाये जाते हैं। "(मलते धारयति शारिरीकदोषान् इति मलः)" मल् धातु से अच् प्रत्यय करनेपर मल शब्द निष्पन्न होता हैं। भगवान् मनुने कहा हैं कि दिन में किये गये कर्मों के मल को सायंकालीन सन्ध्यावन्दन संस्कार से निर्मूल करते हैं --"( पश्चिमां तु समासीनो में हन्ति दिवाकृतम्।।मनुः २/१०२।।)"
इन मलों का सम्यक् परिशोधन करने से शारिरीक और मानसिक स्वस्थता के साथ-साथ शारीरिक सुन्दरता भी बढ़ती हैं, । इस प्रकार संस्कारजन्य गुणाधान भी शरीर में होता हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और भी पारिभाषिक मल हैं - "(क्षत्रियस्य मलं भैक्ष्यं ब्राह्मणस्याश्रुतं मलम्।।महाभारत कर्णपर्व ४५/२३।।) अर्थात् क्षात्रोचित कर्मों का परित्याग कर क्षत्रियों द्वारा भिक्षाचरण उनके लिये मल हैं। ब्राह्मणों के द्वारा वेद-शास्त्रों के विपरीत आचरण,म्लेच्छ प्रदत्त शिक्षा जो स्कूल,कॉलेजों इत्यादि है, तथा अपने अध्यापनादि आजीविका के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण की वृत्ति से धनोपार्जन करना उनके लिये मल हैं, संक्षिप्त में कहा जाय तो अनुपवीत,व्रात्यब्राह्मण या शाखारण्डयुक्त जनेऊ से संस्कार होने पर भी जो पुनः संस्कार विधा से स्वशाखीय उपनयन से द्विजत्व को प्राप्त न हुआ भी ब्राह्मण यदि """ ब्राह्मणवृत्ति से अर्थोपार्जन करता हो या विशुद्धब्राह्मण क्षत्रिय,वैश्य अथवा शूद्रों की वृत्ति से अर्थोपार्जन करते हो तो वह "" किसी की वृत्तिहरण का दोषी बनता हैं। जैसे व्रात्य आदि द्विजत्वरहितों को -- "भूर्जकण्टक" की वृत्ति से यथा भजन-कीर्तन आदि से अथोपार्जन करना चाहिये, परंतु आज संस्कारों की गरिमा और वर्णत्वविशेष नियमों के पालन में प्रमाद करने के कारण जिस ब्राह्मण को किसी कारण से द्विजत्व की सिद्धि ही न हुई हो वे भी कर्मकांड,कथाकार, वेदाध्यापन आदि से अर्थोपार्जन कर रहे दिखाई दैते हैं वे सभी ब्राह्मणवृत्तिहरण के दोषी हैं और प्रथम दोष तो व्रात्यता , शाखारण्डता आदि मिलाकर दो या तीन दोष ब्राह्मणवृत्ति में अनधिकारी ब्राह्मण के हैं।
विहिताचार के अनुपालन न करने से ये मल सभी मनुष्यों में होते हैं, जिनका विहित वेद-शाखा के संस्कार तथा आचरणों से अपाकरण करनेपर सत्संस्कार जन्य गुणों का उनमें अतिशयाधान होता हैं। इससे सुस्पष्ट हैं कि विहित संस्कारों से मलापनयन एवं अतिशयाधान दोनों अभीष्ट सिद्ध हैं। इसलिये भगवान् मनुने गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सभी संस्कारों का अवश्य कर्तव्यत्वेन निर्देश किया हैं -- "( निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रर्यस्योदितो विधिः।*मनुः २/१६)"
यह सभी संस्कारो कैसे करने हैं उसपर शास्त्रीय निर्णय दिया हैं कि - गर्भाधानादि समस्त संस्कारों को अपने अपने गोत्र में कहे वेद-शाखा की पद्धति, विधा,मंत्रादि से होने चाहिये अन्यथा शाखारण्ड दोष से कर्मभ्रष्ट हो जाता हैं अर्थात् किया हुआ कर्म न करने के समान बन जाता हैं। परशाखा के उपनयन से भी द्विजत्व प्राप्त नहीं होता इसलिये सर्ववर्णबहिष्कृत कहा हैं अर्थात् "अनुपवीत या व्रात्य की वृत्ति" में रहे, ब्राह्मण की वृत्ति में इन्हों का अधिकार हैं जिसका स्वशाखीयजनेऊ-संस्कार हुआ हो, और प्रथम स्वशाखीय वेदाध्ययन किया हो - "(गर्भाधानादि संस्कारान् शक्ताः कर्त्तुं भुवि द्विजाः। तैर्विना ये प्रवर्तन्ते कर्मभ्रष्टास्त एव हि।। यः स्वशाखां परित्यज्य अन्यशाखामनुस्मरन् । उपनयनादिकं तत्र कुर्वन् विप्रो यदा भवेत्। शाखारण्डः स विज्ञेयः सर्ववर्णबहिष्कृतः।।चतुर्वर्गचिन्तामणी प्रायश्चित्त खंडे गौतमः।।)"
जिस संस्कार में पूर्वोत्तराङ्ग विधापूर्वक स्त्री के केशों को विभाजित करकें उपर की ओर से मूर्धातक सँवारकर उठाया जाता हैं, उसे सीमन्तोन्नयन संस्कार कहा हैं --> "( केशवेशः यस्मिन् कर्मणि उन्नीयते तत् सीमन्तोन्नयनं नामकर्म।।)" इस संस्कार को अधिकतः द्विजों केवल गोदभराई भी कहते हैं, परंतु यह केवल "गोदभराई" नामक क्रियामात्र लोकरूढ़ी-रीवाज हैं, जिसमें कोई शास्त्रीय विधा से संस्कार, होम आदि नहीं होते। कुछेक तो इतने वहमी लोग होतें हैं कि पूछा जाय कि विधिवत् सीमन्तोन्नयन क्यों नहीं करते ? तो आश्चर्यकारक उत्तर सुनने को मिलता हैं कि -- "हमारे कुल-घर में साङ्गोपाङ्ग होम वाली सीमन्न्तोन्नयन पद्धति" नहीं पलती इससे हानी होती हैं। सुनने में थोड़ा अजीब लगता हैं परंतु इतने ही ये लोग इस संस्कार को विधापूर्वक जानने में गरीब होतें हैं। इसलिये सीमन्त-संस्कार का पूर्णज्ञान न होने के कारण मूँहसुनीबातें करते रहकर आचरतें हैं। यह संस्कार घर के किसी कमरे में करेगे तो ऐसा ही होगा , क्योंकि यह संस्कार अग्नि की साक्षी में करने को कहा हैं। कुछ अज्ञानी-पंडितो यजमान की हा में हा मिलाकर घर में यह संस्कार करवाते रहे थे, जिसमें अग्निनारायण के प्रति असावधानी बर्तने के कारण अमंगल होतें ही इन अज्ञानीयों की चपेट में आकर, सविधा सीमन्तोन्नयन हमारे कुल-घर में नहीं पलता कहने लगे। सुनिये ! चार प्रकार के पाकयज्ञ होतें हैं (१) हुत - अर्थात् केवल होम, जैसे सायं प्रातःकालीन होम । २- अहुत - अर्थात् होम और बलि विहित कर्म, जैसे प्रस्तरारोहण। ३- प्रहुत- अर्थात् होम और बलिहरण दौनों; जैसे पक्षादि कर्म। ४- प्राशित - अर्थात् केवल गोष्ठ की सभी गायों के दुग्ध से दूध में पकी भात जिसे पायस कहते हैं इनसे अनेक-ब्राह्मणभोजनादि कर्म --- "( चत्वारः पाकयज्ञाः - हुतोऽहुतः प्रहुतः प्राशित इति ।। पारस्कर गृ०सू० १/४/१।।)" तत्र गदाधरभाष्यम् ---> हुतो होममात्रं,यथा सायंप्रातर्होमः। अहुतो - यत्र न हूयते, यथा स्रस्तरारोहणम्। प्रहुतो - यत्र हुयते बलिहरणं च, यथा पक्षादिः। प्राशितो - यत्र प्राश्यत एव न होमो न बलिहरणं , यथा सर्वासां पयसि पायसं श्रपयित्वा ब्राह्मणान्भोजयेदिति)"
इन पाकयज्ञों में से होमयुक्त कुछ संस्कारों को कहाँ करना चाहिये ? -- पारस्कर गृहसूत्र चौथी कण्डिका प्रथमकाण्ड के दूसरे सूत्र में कहा कि विवाह, चूडाकरण, यज्ञोपवीत, केशान्त तथा सीमन्तोन्नयन - इन पाँच संस्कारों को घर के बहार बने मण्डप में ही अग्नि की स्थापना करके करना चाहिये ---- "( पञ्चसु बहिःशालायां विवाहे चूडाकरण-उपनयने केशान्ते सीमन्तोन्नयन इति।। पारस्क०गृह्य।। १/४/२।।)"
सीमन्तोन्नयन का मुख्य आशय हैं कि - गर्भिणी स्त्री के शरीर का रुधिर जिन्हें प्रिय हैं, ऐसे अमंगलभूत राक्षसीगणों का दूरीकरण करने में समर्थ और सविधा-मंत्रपूर्वक स्त्री के शरीर में सर्वसौभाग्य की कारणभूता महालक्ष्मी (महाशोभा) का समावेशन हो - क्योंकि महालक्ष्मी ही अपने नाथ केशव के साथ मिलकर पालन-पोषण करने में समर्थ हैं -- "( पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव।। दुर्गासप्तशती -प्राधानिक रहस्ये।।)"
साथ में बैजिकदोष ओर गार्भिकदोषों का शमन हो ---- "( पत्न्याः प्रथमजं गर्भमत्तुकामाः सुदुर्भगाः। आयान्ति काश्चिद्राक्षस्यो रुधिराशनतत्परा।। तासां निरसनार्थाय श्रियमावाहयेत् पतिः। सीमन्तकरणी लक्ष्मीस्तामावहति मन्त्रतः।। आश्वालयन।।)" इस प्रकार अमंगलकारिणी अदृश्य शक्तियों से रक्षा के निमित्त भी इस सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व बढ़ जाता हैं। गर्भिणी का गर्भावस्था में संरक्षण एवं दोषोपशमनपूर्वक पुत्रोत्पादन ही इसका महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं।
दूसरा आशय हैं कि - स्त्री के केशों का ललाटदेश से विभाजित करनेपर जो मार्ग निकलता हैं, उस मार्ग प्रदेश को सीमन्त(माँग)कहते हैं। अन्य अवयवों के साथ सीमन्त भी स्त्रीयों के सौन्दर्य का अभिव्यञ्जक हैं। स्त्रियों का सौन्दर्य सौभाग्य से ही बनता हैं। ललाट के मार्गरूपी जो सीधी रेखा -सीमन्त हैं वही संसार का प्रतीक हैं "( सम्यक् सरतीति संसारः।।)" अच्छी तरह आचरण पूर्वक चलने का साधन मार्ग हैं वही संसार हैं।
जो भाग्यमतीयाँ टेड़मेड़ी माँग रखती हैं, उनका संसार कैसा चलता है वे तो वही जानें। आजकल तो पुरुष जैसे कटे बाल फैशन और खानदानी माना जाता हैं जब की जिन स्त्री के पति का निधन हो गया हो उसे ही द्वयङ्गुल बाल कटवाने की आज्ञा दी हैं । संसाररूपी पुरुष को अच्छी तरह चलना माने साधुकर्मों का अनुष्ठान(साधु शब्द का अर्थ बाबा नहीं मत समजिएँ; सज्जन होता हैं सज्जन), साधुकर्म क्या हैं ? - देवपूजन, अतिथिसत्कार, समाजसेवा, निष्ठा से अपने वर्णाश्रमों के कर्तव्यों में परायणता आदि हैं।
इनको पति पत्नी मिलकर करेंगे तो दृढावस्थिति होती हैं। इसी का सूचक हैं सीमन्त। केशों को ललाट के मध्यभाग से दौनों ओर अलग कर सत्त्वगुण मात्र को आश्रयण के संसारमार्ग में चलने को यह सीमन्त सिखलाता हैं।
सीमन्त को धारण करनेवाली पत्नी अपने सीमन्त के द्वारा बोधित करती हैं कि आपने(पति ने) विधापूर्वक सीमन्त संस्कार से विभक्त किये हुएँ तम और रजोरूपी केशों को मैने वेणी के रूप में बन्धन कर लिया, इस प्रकार ही आजिवन सीमन्त(माँग) निकालकर वेणीसदृश केशकलाप करती रहूँगी। आप सत्त्वगुण मात्र को आश्रित रहकर कार्य करायें मैं आप को साथ देती हूँ। अपने में सहभाव भावना स्थिर हो जानेपर अन्यत्र भी वह भावना जागृत रहेगी। इसीलिये सीमन्त-संस्कार किए जाते हैं।
ऋग्वेदीयों के लिये आश्वालयन गृह्यसूत्र १/१४/१ में इस संस्कार को गर्भ से चौथे मास में सम्पन्न करने को कहा हैं , यद्यपि १/१४/३ सूत्र -> "अथाग्निमुप समाधाय "" आदि में "अथ" शब्द का अन्य शास्त्रों में कहे काल को भी नारायणवृत्ति से लक्षित होता हैं वे काल कौन से हैं ? गर्भ से छठे अथवा आठवे मास शास्त्रों में मान्य हैं वह --- > "( चतुर्थे गर्भमासे सीमन्तोन्नयनम्।। १/१४/१।। तथा च -- अथाग्निमुप समाधाय""" आदि ।।१/१४/३ -- तत्र नारायणवृत्तिभाष्यम् - अथ शब्दोऽन्यस्मिन्नपि काले भवतीदं कर्मेति ज्ञापनार्थः। कस्मिन् ? - षष्ठाष्टमयोर्मासयोः, शास्त्रान्तरे चायं कालो विहितः।।)"
वहीं १/१४/२ सूत्र में शुक्लपक्ष और पुन्नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो तब यह संस्कार करना चाहिये। कौनसे काल में ? एक दिन की ६०घटी होती हैं यथा १४४०मिनट अर्थात् २४ घण्टे में से ३० घटीयों में यथा सूर्यास्त से पहिले सम्पूर्ण कर्म को समाप्त करना चाहिये --- "( आपूर्यमाणपक्षे यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमायुक्तः स्यात्।। १/१४/२ ।। नारायणवृत्तिः -> षष्टिघटिकासु मध्ये मध्यत्रिंशद् घटिकासु कुर्यादिति।।)"
तैत्तरीयशाखा के वैखानसगृह्यसूत्र ३प्रश्न ,१२अध्याय,१३वे सूत्र में और बौधायनसूत्र १प्रश्न,१०अध्याय,८वे सूत्र में सीमन्तोन्नयन के बाद आठवें मास में "विष्णुबलि"-नामक संस्कार भी करने को कहा हैं " (विष्णवे बलिरष्टमे मासि ।।बौधायन गृह्यसूत्र।।), ऋग्वेदीय शाकलशाखा वाले भी विष्णुबलि संस्कार को करवातें हैं । जो अपनीशाखा में न कहा गया हो एवं दूसरे की शाखा में कही बात अपनीशाखा के विरुद्ध न हो तो उसको अग्निहोत्र की तरह अपनाना चाहिये, तात्पर्य यह हैं कि जिस प्रकार अग्निहोत्र माध्यन्दिनी शाखा में कहा गया हैं वैसे अन्यशाखा में नहीं। अतः अन्यशाखावाले भी उसका अनुसरण करते हैं। उसी प्रकार अपनी शाखा में जो कर्म अनुरक्त हो एवं वह अपनी शाखा के विरुद्ध न हो , उसे करने में कोई दोष नहीं(जो शाखारण्डकर्म का दोष हैं वह कर्म के प्रारम्भ से लेकर सम्पूर्ण समाप्त्यन्त कर्म स्वशाखा की पद्धति और उचित मन्त्रों से न करने में दोष हैं। परंतु प्रधानहोम आदि क्रिया में नहीं जैसे श्रीसूक्त का होम, पवमानसूक्तादि जप, तैत्तरीयरुद्रहोम को जैसे शाकलशाखा में मान्य माना हैं, सप्तशती आदि पौराणिक होम आदि)अतः अन्यशाखावाले यथेच्छा से करना चाहे तो करवा सकते हैं , परंतु स्वशाखा के आचार्यद्वारा अनुष्ठनीय-पद्धति स्वशाखा की रहेगी केवल होम और विष्णुबलिदान आदि विधा तैत्तरीय शाखा के सुज्ञ आचार्य द्वारा ग्राह्य एवं समार्गदर्शनकरणीय हैं, ----> " (यन्नाम्नातं स्वशाखायां परोक्तमविरोधि यत्। विद्वद्भिस्तदनुष्ठेयमग्निहोत्रादि कर्मवत्।।वीरमित्रोदय।।)"
हमारें ऋषियोंने गर्भवती और गर्भस्थ शिशुका संस्कारके साथ-साथ रक्षण हो इस लिये -" "(मास्यऽष्टमे गर्भस्य कुर्याद्विष्णोर्बलिक्रियाम्||वसिष्ठ।।)" वसिष्ठजी का कहना हैं कि गर्भसे आठवें महिनेमें ही सीमन्त-संस्कारके बाद विष्णुबलि करनेका विधान बताया हैं |दूसरे लाभ हैं कि-" (तथा विष्णुबलिश्चापि सप्तवध्रेषु पुष्टये| प्रतिगर्भं बलिः कार्यः सीमन्तश्च प्रशस्यते ||अकृते च भवेद्दोषः कृते पुष्टिं समृच्छति | गर्भबाधा निवृत्त्यर्थं सुखसूत्यर्थमेव च || महादोषापनुत्त्यर्थं बलिः कार्यो यथा विधि|| आश्वालायन||)" आश्वालायन ऋषिका कहना हैं - गर्भवती और शिशुकी सातों धातुएँ पुष्ट हो,गर्भकी कोई भी बाधा(गर्भस्त्राव,काकवंध्यत्व और मृतवत्सा) दोषोंकी निवृत्ति होकर सुखद प्रसुति होनेमें श्रेयस्कर हैं| जो न करनेसे कईं दोषों और व्याधियाँ हो सकती हैं | इस विष्णुबलिका काल सीमन्तके बाद या सीमन्तके साथ हैं, | "" (द्वितीया सप्तमी चैव द्वादशी च शुभा तिथिः| शुभग्रहोदयाःश्रेष्ठा स्तेषां च दिवसा अपि || पापास्त्र्यायारिगाः श्रेष्ठा नेष्ठाः सर्वेऽष्टमे स्थिताः| श्रवणे चैव रोहिण्यां पुष्ये चैव प्रशस्यते || वीरमित्रदये वसिष्ठः|| )" वसिष्ठ जी का कहना हैं कि विष्णुबलि के लिये- द्वितीया,सप्तमी,द्वादशी और शुभ तिथियाँ ग्राह्य हैं | शुभग्रहके लग्नमें केन्द्र तथा त्रिकोणमें शुभग्रह,३/६/११ वें स्थानोंपर पापग्रह श्रेष्ठ हैं और आठवें स्थानमें सभी ग्रहोंका होना नेष्ठ हैं | शुभवारोंमें(सीमन्तके साथ हों तो गुरुवार) तथा केवल विष्णुबलिमें सोमवार,बुधवार,गुरुवार और शुक्रवार श्रेष्ठ हैं || श्रवण,रोहिणी और पुष्य नक्षत्र विष्णुबलिमें श्रेष्ठ हैं | श्रीधरीय ग्रन्थमें भी कहा हैं कि -" (रोहिण्यां वा वैष्णवे पुर्वपक्षे" द्वादश्यां वा सप्तमे वा तिथौ च || मध्ये वाऽह्नः पूर्वभागेन रात्रौ" विष्णोः पूजां कारयेद्गर्भपुष्ट्यै||श्रीधरीये ||)" शुक्लपक्षकी शुभ तिथियों तथा वसिष्ठ जीके कहानुसार नक्षत्रों, शुभवारों तथा शुभलग्नादिशुद्धि समयमें,मध्याह्नअभिजित् में अथवा सायंसन्ध्याके समयपर गर्भकी पुष्टिके लिये विष्णुबलि विधान कराना गर्भिणी और गर्भस्थ शिशुके लिये लाभान्वित हैं |
#सामवेदीय कौथुमीशाखा के कौथुमगृह्यसूत्र के ९ सूत्र में "(चतुर्थे मासि सीमन्तोन्नयनं कर्तव्यम्।।)" निर्देशकर चौथे मास में सीमन्तोन्नयन को कहा हैं इसी प्रकार सामवेदीय गोभिलगृह्यसूत्र में चौथे,छठे वा अाठवे मास में सीमन्तोन्नयन करना कहा हैं --"( प्रथमगर्भे चतुर्थे मासि षष्ठेऽष्टमे वा।। गोभिल गृह्यसूत्र २ अध्याय ७खंड २सूत्र)"
माध्यन्दिनी शाखावाले #यजुर्वेदीय पारस्करगृह्य सूत्र में सीमन्तोन्नयन संस्कार को गर्भसे छठे अथवा आठवे मासमें करने को कहा हैं -- "( प्रथमगर्भे मासे षष्ठेऽष्टमे वा।। पार०गृ १/१५/३।।)" उसपर गदाधर और हरिहर के भाष्य में कहा हैं कि यह संस्कार प्रथमगर्भ के समय ही करना चाहिये, "( प्रथमगर्भे आद्यगर्भे भवति।। गदाधरः।। आद्यगर्भे गर्भाधानप्रभृति षष्ठेऽष्टमे वा मासे नियमेन कुर्यात्।। हरिहरः।।)" अन्य कोई आचार्यों इस संस्कार को दूसरे गर्भसमय में भी करने को कहते हैं परंतु वह मान्य नहीं क्योंकि गदाधरभाष्यकार ने हारीत का वचन उद्धृत करके अपने भाष्य में कहा हैं कि प्रथमगर्भ समय एकवार किये हुए सीमन्न्तोन्नयन संस्कारों से दूसरे अन्य जो जो गर्भ प्रसूत होतें हैं वे सभी सीमन्तोन्नयन संस्कार से संस्कृत हो जाते हैं , इसलिये संस्कारलोप का संशय नहीं रहना चाहिये --"( सकृत्तु कृतसंस्काराः सीमन्तेन द्विजातयः। यं यं गर्भं प्रसूयेत स सर्वः संस्कृतो भवेत्।। हारीतवचनादाद्यगर्भे संस्कारे कृते सर्वगर्भाणां संस्कार इति न संस्कारलोपः।।गदाधरः।।) /////"(सकृच्च संस्कृता नारी सर्वगर्भेषु संस्कृता|| देवलः|| एकबार सींमतसंस्कार हुई नारी सर्वगर्भमें संस्कारित होती हैं. इस लिए दूसरे अन्य गर्भकालमें सीमंत करनेकी आवश्यक्ता नहीं "एतच्च सकृदेव कार्यमिति विज्ञानेश्वरः" ऐसा विज्ञानेश्वर का मत हैं। परंतु यदि सीमन्तोन्नयन से पहिले अधूरे मास में प्रसूति हो जाय तो जन्मेहुएँ बालकों को माता गोद में रखकर पुनः विधिवत् सीमन्त-संस्कार को करना चाहिये --> "( स्त्री यदाऽकृतसीमान्ता प्रसवेत्तु कथञ्चन। गृहीतपुत्रा विधिवत्पुनः संस्कारमर्हति।।सत्यव्रत।।)" तथा च --> "(यदि सिमन्ततः पूर्वे प्रसूता चेतु भामिनी||तदानीं पेटकेगर्भं स्थाप्य संस्कार माचरेत्||गार्ग्ये||)"
धर्मशास्त्रीय मुर्हूत निर्णय -->
"(गर्भलम्भनमारभ्य यावन्न प्रसवस्तदा|कार्ष्णार्जिनिः)" गर्भधारण से लेकर प्रसव न हुआ हो उनसे पहले भी सीमंत किया जा सकता हैं ऐसा कृष्णार्जिनि शंखका वचन हैं।"
"(अरिक्ता पर्वदि वसे कुजजीवार्कवासरे|ज्योतिर्निबन्धे नारदः)" रिक्ता तिथियाँ- चौथ अष्टमी तथा चतुर्दशी तथा पर्वों को छोडकर मंगल गुरु तथा रविवार को सीमंत करना श्रेष्ठ हैं. पुंसवन अनवलोभन तथा सीमंत साथ में करना हो तो पुंसवन संस्कारमें कहें हुए नक्षत्रमें हि करना श्रेयस्कर हैं.
"(चतुर्दशी चतुर्थी च अष्टमी नवमी तथा षष्ठी च द्वादशी चैव पक्षछिद्राह्वया स्मृताः| क्रमादेतासु तिथिषु वर्जनायाश्च नाडिकाः| भूताष्ट मनु तत्वाङ्क दश शेषास्तु शोभनाः|कालनिर्णये वसिष्ठ)" चतुर्दशी की पाँच, चतुर्थी की आठ,अष्टमीकी चौदह, नवमीकी २५. छठकी नौ, द्वादशीकी दश घडीओं का त्याग करके शेष घडी सीमंतमें शुभ हैं ऐसा वसिष्ठजीका मत हैं. "
"(शुभसंस्थे निशानाथे चतुर्थी च चतुर्दशीम् | पौर्णमासीं प्रशंसंति केचित्सीमंतकर्मणि||कालनिर्णय)" गर्भिणीका चंद्र शुभ हो तो सीमंतमें चतुर्थी चतुर्दशी और पूर्णिमा भी प्रशंसनीय हैं.
"" (पूर्वपक्षः शुभः प्रोक्तः कृष्णश्चान्त्यत्रिकं विना|| चतुर्दशी चतुर्थी च शुक्लपक्षे शुभप्रदे||बृहस्पतिः||)"बृहस्पति कहतें हैं कि सीमंतमें शुक्लपक्ष शुभ हैं और अन्तिम तीन तीथीयों१३-१४-३०को त्यागकर कृष्णपक्षभी शुभ हैं.चतुर्दशी और चतुर्थी शुक्लपक्ष में शुभ हैं।
" (विप्रक्षत्रिययोः कुर्याद्दिवा सीमन्तकर्म तत् |वैश्यशूद्रकयोरेतद्दिवा निश्यपि केचन||नारदः||)" नारदजी कहतें हैं कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों का सीमंत दिनमें करना चाहिये.वैश्य और शुद्रों का सीमंत रात और दिनमेंभी हो सकता हैं।
(प्रायः सभी वेद-शाखाओं के सीमन्त-संस्कार के प्रारम्भिक संस्काराङ्ग कर्म इस तरह से हैं - प्रातःनित्यकर्मों से निवृत्त होकर अपनी अपनी वेदशाखा की पद्धति के अनुसार सुज्ञ कर्मठ आचार्य को सत्कार पूर्वक निमन्त्रण देकर उनके मार्गदर्शनानुसार घर के बाहरी मण्डप में गर्भिणीपत्नी और पति " सीमन्तोन्नयन संस्कार का संकल्प कर , गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन (इस संस्कार में पुण्याहवाचन के कर्मांग देवता धाता हैं), मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध , ब्राह्मण वरण तथा होमस्थंडिल के संस्कार करकें "मङ्गल नामकाग्नि" का स्थापन करें , देवताओं के लिए आहुतिपरिग्रह हेतु अन्वाधान के बाद कुशकण्डिका विधा से अपनी अपनी शाखा के अनुसार स्थालीपाक को पकायें और आज्यभाग तक की आहुतियाँ देवें )"
#शुक्ल_यजुर्वेदीय माध्यंदिनी शाखा के अनुसार तिल और मूँग मिला हुआ चावल होम की अग्नि में पकाकर आज्यभाग की आहुतियों के बाद इन पके हुए तिल,मूँग मिश्र चावल से "(ग्रासार्धंचरुमानं स्यात्।। शाकल्यप्रमाण)-- के अनुसार आधेग्रास की मात्रा में यजमान पुरुष " प्रजापतिदेवता" के लिए आहुति देकर बची हुई चावल में से दूसरी आहुति स्विष्टकृत् अग्नि के लिए दे , नव प्रायश्चित्त की घृताहुतियों देकर प्रोक्षणी पात्र में से संस्रव (होम से स्रुवे में बचे हुए घृत का त्याग किया संपात) का प्राशन कर , वेदी की अग्नि के पश्चिम तथा पति की दाहिनी ओर गोबर से लीपें भद्रपीठ-आसन पर पत्नी के बैठजाने पर , (१)गुलर के दो कच्चे फलों वाले एक डंठल,(२) तीन कुशा , (३)तीन जगह सफेद हो ऐसे साही(वन्यपशु)के काँटे, (४)पीपल की एक कील जिसे वीरतरशंकु कहा जाता हैं और (५)सूत्रकर्तन करनेका लोहधातु का साधन -- इन पाँचो वस्तुओं को एक साथ मिलाकर एक बार में ही पति स्त्री के सिर के बालों को ललाट से आरम्भकर मूर्धातक सिर के दोनोंबाजू विभक्त करतें हुएँ व्याहृतीत्रय मन्त्र का उच्चारण करते हुए ऊपर की ओर माँग संभाल दे ।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/१५/४।। अथवा एकैक तीनों व्याहृतियों को अलग अलग उच्चारण करते हुए जिसे शास्त्रीय सीमन्तोन्नयन कहा हैं इसी क्रिया को तीन बार करें।। पारस्कर गृहसूत्र १/१५/५।।
फिर गूलर के पाच फलों की बनी वेणी को पत्नी के वेणीसदृश बालों में तीन गाँठ देकर "अयमूर्जा "" आदि मन्त्र से बाँध दे ,, ।।पारस्कर गृह्यसूत्र १/१५/६।।
मन्त्रार्थ हैं - हे सुकेशी ! जिस वृक्ष के यह फल हैं यह वृक्ष शक्तिशाली हैं , इसकी फलों से लदी हैं; इसी की तरह तुम भी फलवती बनो - अर्थात् बहुपुत्रा हो --"( हे सीमन्तिनी ! यतोऽयमूर्जावान् वृक्ष इति शेषः , अस्य चोर्जावतो वृक्षस्योर्जीव सफलशाखेव फलिनी भव।।)"
वेणीबन्धन के बाद पति वीणागान करनेवाले दो पुरुषों से राजा या अपने वर्णसमर्थवीर पुरुष के विषय में गाथा गाने को कहे। गाथागान करवाना गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु की प्रसन्नता हेतु हैं --- "( वीणागाथिनौ राजानं सङ्गायेतां यो वाऽप्यन्यो वीरतर इति।। पारस्कर गृ०सू० १/१५/७।।)"
कुछ पूर्वाचार्यों के अनुसार वेदोक्त सोम "" प्रभृति मन्त्रगाथा ही गानी चाहिए। गाथा के अन्त में गर्भिणीस्त्री को जिस नदी के समीप हो , उसका प्रथमान्तविभक्ति में नाम ले लेना चाहिये --"( नियुक्तामप्येके गाथामुपोदाहरन्ति , सोम """ आदि ,,,, यां नदीमुपावसिता भवति तस्या नाम गृह्णाति।।। पारस्कर गृ०सू० १/१५/८।।)" मन्त्रार्थ हैं - हे नदियों ! चन्द्रमा हमारा स्वामी हैं और तुम स्वयं सोमरूपा हो, इसीलिए तुम्हारे अविमुक्त चक्रतट पर ये मानवी प्रजाएँ बसी हुईं हैं, अतः तुम हमारी रक्षा करो ।
"( बाद में जो भी कुलाचार वृद्धाचार या देशाचार हो तदनुसार घर में गोदभराई रीवाज, रक्षापोटलीविधान आदि पूर्ण करे ,,, सीमन्तोन्नयन में केवल रूढी़-रीवाज ही प्रधान नहीं हैं वह इस संस्कार का अङ्गमात्र हैं , प्रधान संस्कारकर्म तो शास्त्रोक्त विधा अपनी शाखा के होम पूर्वक गर्भिणी की माँग को निकालना आदि हैं)
ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सगोत्रीयब्राह्मणों के भोजन करवाएँ --- सीमन्तोन्नयन " ब्राह्मणभोजन के विषय में गदाधरभाष्यकार ने पराशरमाधवीय में धौम्य के वचन उद्धृत करके निर्देश किया हैं कि यज्ञोपवीत के समय ब्रह्मोदनभोजन, सोमयागका भोजन, सीमन्तोन्नयन का भोजन , जातकर्म-संस्कार का भोजन नवश्राद्ध में भोजन करने से चान्द्रायण करना चाहिये, वहाँ भाष्यकार गदाधर ने मुरारिमिश्र नामक पूर्वाचार्यों के वचन से कहा हैं कि पारस्कर गृह्यसूत्र १/१५/९ सूत्र में "(ततो ब्राह्मण भोजनम्।।)" जो कहा हैं वह कर्माङ्गब्राह्मण भोजन के विषय में कहा हैं, न कि इष्टजन-कुटुम्बीयों के विषय में कहा हैं ---"( अत्र भोजनं प्रायश्चित्तमुक्तं पराशरमाधवीये धौम्येन -- ब्रह्मौदने च सोमे च सीमन्तोन्नयने तथा। जातकर्म नवश्राद्धे भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। इदं च कर्माङ्गब्राह्मणभोजनविषयं न त्विष्टकुटुम्बादिभोजनविषयमिति मुरारिमिश्राः।।)" इस पर चतुर्वर्गचिन्तामणि प्रायश्चित्त खंड में स्मृतिकार देवल ने विशेष कहा हैं -- > चूडाकरण और सीमन्त-संस्कार में संस्कार की समाप्ति "(वीणागाथा)" कर्मसमाप्ति संकल्प से ४८ मिनट अर्थात् मुर्हूत के बाद भोजन करें तो दोष बताया हैं कि सुरापानतुल्य हैं, श्रेष्ठपुरुषों को इच्छना नहीं चाहिये। सीमन्त , पुंसवन और चौलकर्म में जो भी असगोत्री ( यजमान के गोत्र से भिन्न जनों) को ही भोजन करने से यह दोष लगता हैं -- "( चौल कर्मणि सीमन्ते मुर्हूताद् भोजनं परम्। सुरापानसमं प्रोक्तं अतो नेच्छन्ति सूरयः।।देवलः।।)" इस विषय पर मार्कण्डेय जी का कहना हैं कि कर्मसमाप्ति के एक मुर्हूत के बाद भोजन करनेमें तप्तकृच्छ्र, और मुर्हूत से पहिले सहस्रगायत्री का विधिपूर्वक जप ब्राह्मण को करना चाहिये , असगोत्रीय स्त्रीयों को आधा , यती और ब्रह्मचारीयों को चान्द्रायण प्रायश्चित्त करना चाहिये --> "( सुमुर्हूतात् परं तप्तं तत् पूर्वं वेदमातरम्। जप्ता शुद्धिमवाप्नोति सहस्रं विधिपूर्वकम्। मार्कण्डेय।। स्त्रीणामर्धं यतीनां च व्रतीनां चान्द्रमुच्यते।। हेमाद्री।।)" जहाँ प्रायश्चित्त में गायत्री का जप कहा हो वहाँ स्त्रीयों को "क्लीं(प्रणव)लगाकर , अनुपवीतीयों को " ह्रीं" (प्रणव) लगाकर पुराणोक्त गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये ---> "(क्लीं अथवा ह्रीं -- यो देवः सविताऽस्माकं मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः। प्रचोदयति तद्भर्गं वरेण्यं समुपास्महे।।)"
#सामवेदीय कौथुमी शाखा - सुबोधिनी पद्धति के अनुसार -प्रातःकाल उत्तराग्र बीछाये कुशासन पर गर्भिणी को बीठाकर तीन घड़े जल से सशिरस्क स्नान कराये, गर्भिणी और पति मण्डप में बैठ कर अपनी शाखा के सुज्ञ आचार्य के मार्गदर्शन के अनुसार सीमन्तोन्नयन के अग्निस्थापन और व्याहृतिहोम तक के पूर्वाङ्ग कृत्यों को सम्पादित करने के बाद उसी अग्नि पर तिलमिश्रचावल पकाएँ इसे कृसर कहा जाता हैं।
गोभिल गृह्यसूत्र २/ ७ के अनुसार - अग्नि के पश्चिमभाग में बिछाये हुए पूर्वाभिमुखी गर्भिणी को बिठाकर , पति भी गर्भिणी के पीछे रहे। अनन्तर उदुम्बरफलों का गुच्छा उस गर्भिणी के अञ्चल में या शरीर के जिस किसी बान्धने योग्य कटि के ऊपर अङ्ग में बान्ध देवे, बांधते समय "अयमूर्जावतो वृक्ष०आदि मन्त्र को पढ़े। उसके पश्चात् सूखे हुए समूलकुशकी झुड़ी से गर्भिणी की माँग अर्थात् सिर से मूर्धातक बालों को विभक्त करके सीमन्तोन्नयन करे, इस समय क्रम से अलग अलग तीनों व्याहृतिमन्त्र पढ़े। फिर जिससे बाण तैयार होता हैं वह शर नामक काष्ठकी लकड़ी से " येनादिते०आदि मन्त्र को पढ़कर यही क्रिया अर्थात् सीमन्तोन्नयन करें । बाद में सूत्रकाँतने की लोह के साधन से "राकामहम्००आदि मन्त्र को पढकर सीमन्तोन्नयन करे तदुपरांत स्याही(वन्यपशु)के काँटे में तीन स्थानपर श्वेत हो ऐसे काँटे से " यास्ते राके सुमतय००आदि मन्त्र को पढकर केशों को ऊपर उठादेवें । पहिले अग्निपर पके तिलमिश्रचावल में घृत ड़ालकर गर्भिणी को दिखाएँ और दैखते समय उसे पति पूछे कि " तुम इसमें क्या देखती हो ? "( किं पश्यसि ? )" /// प्रत्युत्तर में गर्भिणी बोले कि " ( प्रजां, पशून्, सौभाग्यं मह्यं दीर्घायुष्ट्वं पत्युः।।)" । अनन्तर उस दिन गर्भिणी वही चावल का भोजन करें, और भोजन करते समय ब्राह्मणीस्त्रीयाँ -- गर्भिणी को "वीर प्रसविनी होओ" "( वीरसूस्त्वं भव// जीवसूस्त्वं भव// जीवपत्नीभव।।)" इत्यादि मङ्गसूचक वाक्यों से ईश्वर-प्रार्थना करे ,वीणावादन से सामगान हो, बाद में अग्नि का उत्तरकर्म व्याहृतिहोम आदि पूर्ण करना चाहिये।।
#ऋग्वेदीय शाकल एवं आश्वालयन शाखा के अनुसार ,,, अपनी शाखा के आचार्य को निमंत्रण देकर उनके मार्गदर्शनानुसार घर के बाहरी मण्डप में अपनी शाखापद्धिति से सीमन्तोन्नयन का संकल्प , नान्दीश्राद्ध,कौतुकबन्धन, ब्राह्मणवरण और संस्कृत स्थंडिल पर "मंगलनामक अग्नि को प्रतिष्ठित" करके अन्वाधान करने बाद परिसमुहनादि करके कुशकण्डिका विधि से अग्नि की पश्चिम में और अपनी दाहिनी बाजू जमीनपर लाल बलीवर्द के चमड़े को यथाविधि बिछाकर ( अलाभे कुशासन को बिछाकर)इसी आसन पर गर्भिणी को बिठायें,आवश्यक यज्ञीयपात्रों को रखकर घी के संस्कारों के करके समित् - होम और आधारचक्षुषी आहुतिद्वय दे। पत्नी के दाये हाथ से स्पर्श कीए पति को अपने हाथ से स्रुवे द्वारा -- आश्वालायन गृह्यसूत्र में कहे " धाता ददातु०० और "धाता प्रजाना००" आदि पृथक् मन्त्रों से "(धाता के लिये कुल दो आहुतियाँ ), "राकामंह००" और "यास्ते राके ०० " आदि पृथक् मन्त्रोंसे (राका देवता के लिये कुल दो आहुतियाँ), "१- नेजमेष०० ", २-यथेयं पृथिवी००" ३- विष्णोः श्रेष्ठेन००" आदि पृथक् तीनों मन्त्रों से (विष्णु के लिये कुल तीन आहुतियाँ), प्रजापते नत्वदेता० आदि मन्त्र से प्रजापति के लिए एक आहुति -- सब मिलाकर कुल आठों आहुतियाँ घृत की दे -----> "( अथाग्निमुपसमाधाय पश्चादस्याऽऽनडुहंचर्माऽऽस्तीर्य प्राग्ग्रीवमुत्तरलोम तस्मिन्नुपविष्टायां समन्वारब्धायां धाता ददातु दाशुषे इति द्वाभ्यां राका महमिति द्वाभ्यां नेजमेष प्रजापते न्यन्य इति च।। आश्वालयन गृह्यसूत्र अध्या०१ , खंड १४ , सूत्र ३।।)"
आनडुहचर्म पर पूर्वाभिमुखी बैठी हुईं गर्भिणी के पीछे पति पूर्वाभिमुख होकर दो गूलरफल के गुच्छ, स्याही(वन्यपशु का)तीन जगहों में सफेद हो ऐसा काँटा और तीन कुशोंकी झुडी़ -- इन सब को साथमें दाहिने हाथ से पकड़कर इन्हों की मूलभाग से " व्याहृति तीनों का " वारं वार उच्चारण करते हुएँ गर्भिणी के ललाट से आरम्भकर मूर्धातक माँग निकालते हुए सीमन्तोन्नयन करें - इस क्रिया तीन या चार वार करें --> ( अथास्यै युग्मेन शलाटुग्ल्प्सेन च शलल्या त्रिभिश्च कुशपिञ्जुलैरूर्ध्वं सीमन्तं व्यूहति " सप्रणव भूर्भुवःस्वरोम्" इति त्रिः।। चतुर्वा ।। आश्वालायन गृह्यसूत्र १/१४/४-५।।)"
बाद में गूलरफल और भिगोएँ हुए गेहूँ में धागा परौकर बनाई हुईं माला गर्भिणी को पहनाएँ -- "( यथाचारं सगोधूमामौदुम्बरफलमालां तत् कण्ठे निधाय ।। प्रयोगरत्न।।)"
वीणाबजाने वाले दो सामवेदी द्विज को सोम और राजा के यशोगान की गाथा गाने को कहे। वीणावादन के साथ सामगान ही करवाना चाहिये । मन्त्र के अन्त में समीपस्थ नदी का नामोच्चारण करें।
स्विष्टकृदादि शेष प्रायश्चित्त होम को समाप्त करें, और जो भी सुवासिनी, संतान वाली स्त्रीयाँ , वृद्धाएँ -- रूढ़ी को कहे तदनुसार घर में गोदभराई करें -- "( ब्राह्मण्यश्च वृद्धा जीवपत्यो जीवप्रजा यद् उपदिशेयुस्तत्तत् कुर्युः।। आश्वा०गृह्य १/१४/८।।)"
#विष्णुबलि-संस्कार --> गर्भ से आठवे मास में , जो पहिले कहा जा चूका हैं तदनुसार मुर्हूत में विष्णुबलि का संकल्प करने के बाद पूर्वाङ्ग कर्मों को शाखा पद्धति के अनुसार सम्पादित करके संस्कारित स्थंडिलपर "नारायण नामाग्नि" का स्थापन करें, अन्वाधान हो जाने के बाद कुशकण्डिका रिति से अग्निपर तण्डुलचरु को पकायें, आज्यभागान्तं कर्म करके अग्नि की दाहिनी बाजू गोबर से लिंपी हुईं वेदिका पर अक्षत से अष्टदल अथवा स्वतिक मण्डल की आकृति रचकर , उसपर पूर्णपात्र कलशका स्थापन कर ,, पूर्णपात्र पर विष्णु का आवाहन कर षोडशोपचार या यथा सम्भव पूजा करें, तदुपरांत वापस अग्नि के पश्चिम में बैठ कर पत्नी के हाथ से अपने दाहिने हाथ का वारंवार स्पर्श करते हुए अवदानधर्म(यथा दाहिने हाथ को उलटाकर अँगूठे और तर्जनी के मध्यपर्व पर आएँ इतना चरु )स्रुची में लेकर दौनों हाथ से स्रुची को पकड़कर (पाणिद्वयेन होतव्यो पाणिरेकोनिरर्थकः।।) " तैत्तरीयशाखा के सुज्ञ पंडितजी के द्वारा मन्त्रोच्चार यथा - - "अतो देवा०० आदि" विष्णुबलि होमोपयुक्त ६४ मन्त्रों के अन्त में स्वाहाकार से प्रज्वलित अग्नि में आहुतियाँ दे । प्रत्येक आहुति के अन्त में पतिपत्नी "विष्णवे इदं न मम" या "इदं विष्णवे न मम" का स्वशाखा की त्यागोच्चारण पद्धति से त्यागवाक्यों का उच्चार करें । फिर अग्नि के ईशानकोण में सफेदचूर्ण द्वारा ३२ अंगुल के ६४ पदों (कोष्ठक)वाले समचतुरस्र बलिमण्डल की रचना करें, उसमें भलीँ प्रकार से ४/४ अंगुल समचतुरस्र के ६४ पद बनेंगे। उस मण्डल की बाहरी सीमा की ईशानकोण से आरम्भ कर प्रदक्षिणवत् होमशेष चरु से होम में उचित मन्त्रों को पढ़कर स्वाहान्त पद सहित एक एक कोष्ठ में छते हाथ से बलिप्रदान करें , अन्त में "विष्णव इदं न मम" या "इदं विष्णवे न मम" ऐसा उच्चार करें। उस मण्डल के बराबर मध्यभाग में नारायणाष्टाक्षर मन्त्र से बलि देकर त्यागोच्चारण पूर्ववत् करके, इन अष्टाक्षरी मन्त्र से अर्घ्य देकर , बलिशेष जो चरु रहे उनमें से दो पिंड बनायें उसे अलग अलग लेकर पति पत्नी दोनों भक्षण करें, आचमन करके स्विष्टकृदादि शेष होम को पूर्ण करें, इस विष्णुबलि का महत्व प्रत्येकगर्भ समय करना उचित हैं।। प्रयोगरत्न।।
सीमन्तोन्नयन से पहिले के गर्भाधान और पुंसवन संस्कार विधिवत् न किये हो तो उचित प्रायश्चित्त करके ही सीमन्तोन्नयन-संस्कार को करें।
जीवन में संस्कारों का इतना महत्त्व हैं कि महर्षि आश्वालायनने तो यहाँ तक कह दिया हैं कि जिसे संस्कार प्राप्त नहीं हो सके, उसका जन्म निरर्थक हैं -- *"(#संस्काररहिता_ये_तु_तेषां_जन्म_निरर्थकम्।।)"*
जीवन को सार्थक बनाने के लिये संस्कार आवश्यक हैं। संस्कार के अभाव में मनुष्य पशु के समान जीता हैं। संस्कार व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाते हैं।
मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो संस्कार मनमें प्रस्थापित आदर्श हैं, जो जीवन-व्यवहार के नियामक और प्रेरक होतें हैं । मनुष्य अपने जीवन में सत् असत् का निर्णय इन आदर्शों के आधारपर ही करता हैं। मनुष्य में मानवोचित गुण-कर्म-स्वभाव की प्रेरणा इन्हीं संस्कारों की देन हैं। यदि चरित्र वृक्ष हैं तो संस्कार उसका बीज हैं। अवचेतन मन संस्कार नामक इस बीज का क्षेत्र हैं और अनुकूल परिवेश उसका हवा-पानी तथा धूप हैं। इस प्रकार हम कह सकतें हैं कि अवचेतन मनमें प्रतिष्ठित संकल्प का नाम संस्कार हैं। इन संकल्प में अपरिमित सम्भावनाएँ निहित होती हैं। ये संकल्प इतने शक्तिशाली होते हैं कि केवल एक जन्म में ही नहीं, जन्मान्तर में भी गतिशील होते हैं। संस्कार मन का उदात्तीकरण करते हैं एवं कर्मशुद्धि, भावशुद्धि और विचारशुद्धि के साथ ही अभ्युदय तथा निःश्रेयस के हेतु होतें हैं।
संस्कार के महत्त्व को जान लेने के बाद अब प्रश्न यह हैं कि संस्कारों का स्रोत क्या हैं और ये मनुष्य को कहाँ से प्राप्त होते हैं ? संस्कारों का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत आनुवंशिकता हैं। आनुवंशिकता चरित्र का निर्णायक तत्त्व माना जाता हैं।
माता-पिता से केवल शरीर ही प्राप्त नहीं होता, मन भी प्राप्त होता हैं और संस्कार भी प्राप्त होतें हैं। जैसा आचार,विचार, प्रवृत्ति-अभ्यास, आस्था तथा आदतें माता-पिता की होती हैं, प्रायः वैसा ही स्वभाव और आदतें संतान में भी देखी जाती हैं तो उसे "आनुवंशिक संस्कार" कहा जाता हैं। जातिगत संस्कार आनुवंशिकता की श्रेणी में ही आते हैं। आधुनिक जैव-प्रौद्योगिकी संस्कार का मूल स्रोत "गुणसूत्र" बतलाती हैं। योद्धा का बेटा योद्धा हो सकता हैं, भजनानन्दी माँ-बाप के संस्कार उनकी संतानपर होते हैं। हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद को भक्ति के संस्कार माता कयाधू से और कयाधू को नारद से मिले। इस प्रकार संस्कारों का एक और महत्त्वपूर्ण स्रोत हमारे समक्ष माँ के रूप में स्पष्ट हो जाता हैं।
व्यास जी का कथन हैं कि १-गर्भाधान, २-पुंसवन, ३- सीमंत, ४- जातकर्म, ५ नामकरण, ६- निष्क्रमण, ७-अन्नप्राशन, ८- चूडाकरण,९-कर्णवेध, १०- यज्ञोपवीत,११- वेदारम्भ, १२- केशांत,१३-समावर्तन,१४-विवाह,१५-अग्निसंग्रह और १६ -त्रेताग्निसंग्रह -- यह सोलह संस्कार हैं --> "( गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च । नामक्रिया निष्क्रमोन्नप्राशनं वपनक्रिया।। कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः। केशान्तस्नानमुद्वाहो विवाहादिपरिग्रहः।। त्रेताग्निसंग्रहश्चैव संस्काराः षोडशस्मृताः।।व्यासः।।)" -- अपने अपने गोत्र के वेद-शाखानुसार गृह्यसूत्रों के अनुसार १२-चारोंवेदव्रत ,१३-केशांतगोदान,१४-समावर्तन,१५-विवाह और १६-मृतिसंस्कार का भी समन्वय सोलह संस्कारों में हैं । इसमें से कर्णवेध तक के नौ संस्कार स्त्रीयों को बिनावेदमंत्र (अमंत्रक) पुराणोक्त विधा से होते हैं । विवाह समन्त्रक और शूद्रों के दशसंस्कार भी बिनावेदमंत्र पुराणोक्त होतें हैं --> "(नवैताः कर्णवेधान्ता मन्त्रवर्जं स्त्रीयाँ क्रियाः। विवाहेमन्त्रतस्तस्याः शूद्रस्यामन्त्रतो दश।।व्यासः।।)"
यम कहतें हैं इस प्रकार शूद्रों के गर्भाधान से विवाहतक क्रम से दशसंस्कार बिना वेदमंत्र के अर्थात् पुराणोक्त मंत्र वा नाममंत्रेण से होता हैं। कारण की ब्रह्माजी ने किसी वेदमंत्र से भी उसकी रचना नहीं की --"( शूद्रोप्येवंविधः कार्यो विनामंत्रेण संस्कृतः। न केनचित्समसृजच्छन्दसा त प्रजापतिः।।यम।। छन्दसा मन्त्रेण)"
द्विजातियों के सोलह संस्कार हैं, और शूद्रों के द्वादश तथा वर्णसंकर जातियों के पाँच संस्कार हैं -"( द्विजानां षोडशैव स्युः शुद्राणां द्वादशैव हि। पञ्चैव मिश्रजातीनां संस्काराः कुलधर्मतः।। शार्ङ्गधर।।)"
विवाह संस्कार ही स्त्रीयों के लिए उपनयन के समान हैं, पति ही स्त्री का गुरु हैं पतिसेवा गुरुगृहवास अर्थात् गुरुकुल है और गृहकार्य, धर्मार्थ नित्यकर्मों में पति को सहायक बनना, अतिथि के लिए भोजन बनाना, पति की निश्छलता से सेवा करना आदि अग्नि की सेवा हैं --"( वैवाहिकोविधिः स्त्रीणामौपानायनिकः परः। पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया।।मनुः।।)"
गर्भाधान,पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूडाकर्म,कर्णवेध और विवाह ये दश शूद्रों के संस्कार बिना वेद मंत्र से यथा नाममंत्रेण और पुराणोक्त विधा से होतें हैं। नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, विवाह और पौनर्भव-विवाह -- ये पाँच वर्णसंकर के संस्कार हैं -- "( अष्टमांगल्यमाद्यःस्यान्नामकर्म तथैव च। अन्नप्राशन चौले च विवाहः पञ्चमःस्मृतः।।सुमेधा।।)"
जगद्गुरु भारत ने न केवल लोहा-लक्कड़ आदि जड़ पदार्थों के ठीक-ठाक करने मात्र के कारखाने खोलने में ही कर्तव्यता समझी थी, बल्कि जहाँ वह मनोवेग से चलने वाले महामहिम पुष्पक जैसे विमान बनाने में,शतयोजन विस्तीर्ण समुद्रोंपर सेतुबंध डालने में और वीर्यजंतुओं को गर्भ की भाँति सुरक्षित रखकर सौ कौरवो , साठ हजार सगरपुत्रों को जन्म दे सकनेयोग्य "घृतकुम्भ" नामक महायन्त्रों को बनाने में सिद्धहस्त था, वहाँ "नर को नारायण" बन सकनेयोग्य बनाने के लिये भी संस्कार नामक तत्तद् धर्मानुष्ठानों से लाभान्वित होता था।
आज पाश्चात्य देशों को अपने कल-कारखानों पर गर्व हो सकता हैं,विनाशकारी बमोंपर अभिमान हो सकता हैं; परंतु ये सब आविष्कार जिन अनुसंधायकों के मस्तिष्कों ने किये हैं, उन मस्तिष्कों के निर्माणकर्ता नारायण के सारूप्य को प्राप्त हो जानेयोग्य मानवों को बनाने की - आध्यात्मिक विज्ञानशालाएँ यदि किसी देश में खुलीं तो देश एकमात्र भारतवर्ष हैं। हमें गर्व हैं कि भारत में आज भी तादृश नरनिर्माण के अमोघ रचनात्मक प्रयोग विद्यमान हैं, जिनसे कि ध्रुव, प्रह्लाद,अभिमन्यु, जुझावर,जोरावर,प्रतापी राजाएँ, वीरांगनाएँ जैसे बालक उत्पन्न किये जा सकतें हैं।
स्वतन्त्र सिद्धांत हैं कि हमारा दाम्पत्य सम्बन्ध विषयवासना की पूर्ति के लिये नहीं, किंतु पदं पदं कटु अनुभव प्राप्ति के क्षेत्रभूत गृहस्थ में सहैतुक निर्वेदद्वारा विषयवैराग्य प्राप्त करके "कञ्चनकामिनी" रूप दौनों घाटियों को लाँघकर सायुज्य का निष्कण्टक मार्ग प्रस्तुत करने के लिये हैं।
आज भले ही विषयासक्त माता-पिताओं को स्वप्न में भी यह ध्यान नहीं होता कि हम क्या करने चले हैं, केवल विषयानन्द की सीमातक ही उनका यह प्रयास होता हैं। आज का सहवास भी उद्देशशून्य हैं और उस से समुत्पन्न संतान भी आज की भाषा में "ऐक्सिडैंटल" संतान ही कही जा सकती हैं। जिस क्रिया संस्कार का प्रयोजन धर्मप्रजा को प्राप्त करने का महत्वांग संतानोत्पत्ति का गर्भाधान संस्कार था उससे भिन्न केवल आज स्वेच्छाचार, विषयासक्त और संस्काररहित होकर कामप्रजा को ही उत्पन्न करता हैं।
उत्तम संतान के लिये माता-पिता के शुद्धाचरण की आवश्यकता रहती हैं। भगवान् वासुदेव मे कहा हैं कि यज्ञरहित पुरुष के लिये यह लोक ही सुखदायक नहीं हैं,फिर परलोक की चर्चा ही क्या हैं ? -- "( नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यःकुरुसत्तमः।।गीता।।)" तथा यज्ञ के साथ प्रजा की सृष्टि करके प्रजापति ने पहिले कहा कि इसी से तुम लोग बढ़ो और यह तुमलोंगो के लिये कामधेनु हो --"( सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाचः प्रजापतिं। अनेन प्रविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।गीता।।)
उस यज्ञरूपी कामधेनु के चरणों के त्याग से ही संसार विपत्ति के गर्त में पडा़ हुआ हैं और हजार प्रयत्न करनेपर भी उसके कल्याण का मार्ग निरर्गल नहीं हो रहा हैं।जिस संतान के लिये पूर्वपुरुषों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ की हैं,उसी संतान की वृद्धि संसार ऊब उठा हैं, संतानों के आचरण से अत्यन्त असंतुष्ट हैं, यहाँतक कि गर्भनिरोधक के लिये नयी नयी ओषधियों का तथा उपचारों का आविष्कार किया जा रहा हैं और उनके प्रचार के लिये सब ओर से प्रोत्साहन भी मिल रहा हैं। अब प्रश्न यह हैं कि क्या इस उपाय से अभीष्ट की प्राप्ति सम्भव हैं ? क्या कृत्रिम उपाय से गर्भनिरोध गर्भपातन के समकक्ष पाप नहीं हैं ?( शुक्र का व्यर्थीकार भी तो सामान्य पाप नहीं हैं --- #व्यर्थीकारेण_शुक्रस्य_ब्रह्महत्यामवाप्नुयात्।।आश्वालायनः।।)", क्या इससे कुसंतान और सुसंतान की समस्या हल हो सकती हैं ? कहना होगा कि कदापि नहीं। संतानबाहुल्य #दशास्यां_पुत्रानाधेहि।।ऋक्।। शास्त्रसम्मत हैं। कुसंतान होना दोषावह हैं और यह रोका जा सकता हैं। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा हैं कि यज्ञ के लिये ही कर्म होना चाहिये । जितने कर्म हैं, उनका अनुष्ठान यज्ञरूप से ही होना चाहिये। इसी से हिन्दू धर्म में दैनिकक्रियाएँ उठना,नहाना,खाना,सोना सब यज्ञरूप हैं --> "( यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।)"
छान्दोग्य श्रुति कहती हैं - हे गौतम ! पुरुष अग्नि हैं,उसकी वाणी ही समित् हैं, प्राण धूम हैं, जिह्वा ज्वाला हैं, आँख अङ्गारे हैं, कान चिनगारियाँ हैं, उसी अग्नि में देवता अन्न का होम करतें हैं उस आहुति से वीर्य होता हैं ।
हे गौतम ! स्त्री अग्नि हैं उसका उपस्थ समित् हैं, जो उस समय (रतिसमय)बात करता हैं वह धूम हैं, योनि ज्वाला हैं, प्रसङ्ग अङ्गारे हैं, सुख चिनगारी हैं, उसी अग्नि में देवतालोग वीर्य का होम करतें हैं। उस आहुति से गर्भ होता हैं ---> /// पुरुषो वाव गौतमाग्निस्तस्य वागेव समित्प्राणो धूमो जिह्वार्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिङ्गाः । तस्मिन्नेतस्मन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः संभवति।।
योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ इव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः । तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति।। ////
एवं स्त्रीप्रसंग अथवा गर्भाधान भी यज्ञ हैं, यह विहित देश-काल तथा पात्र पाकर ही करना चाहिये।
इस भाँति भोजन भी यज्ञ हैं, इसका अनुष्ठान विहित देश-काल में होना चाहिये अर्थात् भोजन किसका, किसके हाथ का, कहाँ, किस समय, कौनसी स्थिति में सिर तरह,कौनसे वेश में आदि का नियम और उचित निषेध के पालन पूर्वक विधा से किये हुए अनुष्ठान को ही भोजन कहा हैं। केवल पातितादि दोष रहित और द्रव्यशुद्धि युक्त शुद्ध अन्न की आहुति (शरीर की जठराग्नि में मुख द्वारा)देनी चाहिये , इससे वीर्य उत्पन्न होता हैं। जहाँ जो पातकी, अनुचितों आदि का जो मिला , उसे खा लेने से यज्ञ नष्ट हो जाता हैं और #न_हि_यज्ञसमो_रिपुः। वही यज्ञ अपना शत्रु हो जाता हैं और नाना प्रकार के अनर्थ का कारण होता हैं।
एवं स्त्रीप्रसंग अथवा गर्भाधान भी यज्ञ हैं, यह विहित देश-काल तथा पात्र पाकर ही करना चाहिये, नहीं तो इसका परिणाम अतीव भयंकर होता हैं, शरीर में दारुण व्याधियाँ उत्पन्न होती हो जाती हैं, कुसंतान की उत्पत्ति से कुल कलंकित होता हैं और यावज्जीवन अत्युग्र यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं।
संतान की जन्मकुण्डली की बड़ी चिन्ता माता-पिता को होती हैं, परंतु कुण्डली के मूलाधार गर्भाधान-संस्कारकाल की कोई चिन्ता ही नहीं होती। बच्चों के नव संस्कार - गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,नामकरण, अन्नप्राशन,चूडाकरण और उपनयन को यथा समय और क्रम से माता-पिता को करने पड़तें हैं। इन सब के लिये उत्तम से उत्तम मुर्हूत बड़े से बड़े विप्र-ज्योतिषी से दिखलाया जाता हैं,परंतु सबसे मुख्य और प्रथम संस्कार , जिसे गर्भाधान कहतें हैं, हँसी-खेल की वस्तु समझा जाता हैं। सभ्य समाज में उसकी चर्चा भी उठायी नहीं जा सकती,उसका नाम लेना अश्लीलता हैं। उचित तो यह था कि उसके नियम मनुष्य मात्र को हस्तामलक होते, स्त्री-पुरुष सब उनसे परिचित होते और उनके उलङ्घन करने में सौ बार विचार करना पड़ता।
किस कार्य के लिये कौन सा मुर्हूत शुभ हैं और कौन अशुभ हैं, इसका विज्ञान ही पृथक् हैं, जिसे फलित शास्त्र कहतें हैं। आजकल फलितशास्त्र की खिल्ली उड़ानेवाले भी कम नहीं हैं, पर काम पड़नेपर मुर्हूत दिखलाकर ही सब लोग कार्य करते हैं। औरंगजैब जैसा बादशाह भी मुर्हूत दिखलाकर ही सिंहासनारूढ़ हुआ। फलाफल के तारतम्य के विचार में भले ही कभी चूक हो जाय, पर ग्रह-नक्षत्रगण का प्रभाव तो पृथ्वीपर स्थूल दृष्टि से भी उपलक्षित होता हैं। शिशु के भूमिष्ठ होने के समय जैसी ग्रहस्थिति होती हैं,उसका जैसा प्रभाव नवजात शिशुपर पड़ता हैं, वह यावज्जीवन के लिये उसका साथी हो जाता हैं; पर इसका भी मूल कारण गर्भाधान का समय हैं। अतः गर्भाधान भूलकर भी अविहित समय में नहीं होना चाहिये। गर्भाधान काल के दोष से ही काश्यपजी के द्वारा दिति देवी के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु सरीखे क्रूरकर्मा दैत्य उत्पन्न हुए थे।
बहुत काल से यह भावना नष्ट हो गयी हैं। इसको जाग्रत् करने के लिये बहुत समय और आयास की अपेक्षा हैं, पर यदि संसार में सुख-शान्ति लानी हैं तो इसे जाग्रत् करना ही पड़ेगा। ज्योतिष के ग्रन्थों में --- इच्छीत संतान प्राप्ति के लिये कुछ नियम और निश्चित्त समय दिएँ हैं। पहिले तो यह समजना उचित हैं कि वीर्य की आधिक्यता होने से पुत्र , रज की आधिक्यता होने से पुत्री और दौनों का समत्व होने से नपुंसक संतान होती हैं - इसलिये शुभ संतान चाहने वाले पिता को अपने वीर्य की रक्षा यत्न से करनी चाहिये। यह इस तरह से पहिले संभव था कि उपनयन के बाद कुमार गुरुकुल में ब्रह्मचर्य के कड़े से कड़े नियमों का पालन करता हुआ अपने गुरु की सेवा करता हुआ वेदाध्ययन करता था। सामान्यतः विवाह के बाद भी शास्त्र की आज्ञा हैं कि जबतक गर्भाधान का उचित मुर्हूत न प्राप्त हो तब तक - विवाह के दिन से तीन दिन तक वर और वधू को कोई खारे पदार्थ या नमकीन भोजन नहीं करना चाहिए। उसे खटिया पर भी नहीं सोना चाहिए। तीन दिनों तक उसे धरती पर सोना चाहिए। अथवा उचित गर्भाधान के मुर्हूत की प्रतिक्षा हो तब तक बारहदिन , छः दिन या एकवर्ष तक भी संयमपूर्वक सहवास न करें -- "( त्रिरात्रमक्षारलवणाशिनौ स्यातामधः शयीयातां संवत्सरं न मिथुनमुपेयातां द्वादशरात्रं षड्रात्रं त्रिरात्रमन्ततः।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/८/२१।।)"
इसी सूत्र में हरिहरभाष्यकार का मत हैं कि "अनन्तः" शब्द का प्रयोग किया गया हैं। इसका अर्थ हैं चतुर्थीकर्म । जबतक चतुर्थीकर्म "( चतुर्थ्यामपररात्रेऽभ्यन्तरतः ।।गदाधरः।।)" विवाह के चौथे दिन समाप्त नहीं हो जाता , तबतक वधू भार्या नहीं हो सकती "(पत्नी चातुर्थीकर्मणि।।)" अतः पारस्करने चतुर्थीकर्म तक ब्रह्मचर्य का अनिवार्यरूप से पालन करने का निर्देश दिया हैं। वस्तुतः इस विचार में सभी आचार्य एकमत हैं -- "( चतुर्थीकर्मानन्तरं पञ्चम्यादिरात्रावभिगमनं , चतुर्थीकर्मणः प्राक् तस्या भार्यात्वमेव न संवृत्तं विवाहैकदेशत्वाच्चतुर्थीकर्मणः।।हरिहरः।।)"
हायनरत्न में कहा हैं कि पुरुष या स्त्री की जन्मकुंडली में ५,९ स्थानोंपर किसी भी राशिका बुध या गुरु का गोचर हो तब स्त्री को गर्भ ठहर सकता हैं।
वर्ष कुंडली में गुरु ५ या ११ वें स्थान पर हो तो गुरु की हीनांशा दशा में अथवा जिस मास में पुनः गुरु ५,११ या ९ वें स्थान पर अथवा लग्न में आएँ उस मास में गर्भ ठहरता हैं। (जन्मकुंडली में पंचमेश मंगल वर्ष कुंडली में ५ या ११ स्थान पर हो तथा जिस मास की कुंडली में ५ या ११ स्थान पर मंगल हो उस मास में अथवा मंगल की हीनांशा दशा में गर्भ रहता हैं - यह नियम केवल धन और कर्क लग्न में संभव हैं)"
स्त्री की जन्मराशि से चंद्र अनुपचय १-२-४-५-७-८-९ और १२ इस स्थान में से किसी भी स्थान का हो और उस चंद्रपर मंगल की दृष्टि हो उस समय यदि स्त्री को रजोदर्शन हो तो वह रजोदर्शन की सोलहरात्रि गर्भधारण के लिये सक्षम हैं। पुरुष की जन्मराशि से चंद्र उपचय ३-६-१०-११ स्थान में से किसी भी स्थान में हो और इस चंद्र को गुरु की दृष्टि प्राप्त हो तो उत्तम योग रहता हैं - इस प्रकार स्त्री और पुरुष जन्मराशि का विचार भी करना चाहिये। प्रश्नकुंडली की तरह आधानकुंडली बनाकर निश्चित्त गर्भाधान का मुर्हूत निकालने से पुत्र, पुत्री या यमल का जन्म भी संभव हैं।
जिस तरह यत्न से ब्रह्मचर्य का पालन करकें वीर्य का संरक्षण करना पुरुषों के लिये उचित हैं इसी तरह स्त्रीयों को रजोदर्शन के समय भी जो अस्पृश्यता, पहनने के कपड़े, उठने बैठने ,सोने का आचार भी आवश्यक हैं क्योंकि संतान प्राप्ति में स्त्रीरज भी सहायक अंग हैं।
गृह्यसूत्रों तथा धर्मग्रन्थों में गर्भाधान मुर्हूत का बड़ा विस्तार हैं, पर मुर्हूतचिन्तामणि के दो श्लोकों में संक्षेपरूप से सभी कुछ कह दिया गया हैं --
नक्षत्र,तिथि तथा लग्न के गण्डान्त, निधनतारा, जन्मतारा,मूल,भरणी,अश्विनी,रेवती, ग्रहणदिन, व्यतीपात्त, वैधृति, माता-पिता का श्राद्धदिन, दिन का समय, परिघयोग के आदि का आधा भाग, उत्पात से दूषित नक्षत्र,जन्मराशि या जन्मनक्षत्र से आठवाँ लग्न, पाप युक्त नक्षत्र, जन्मराशि या जन्मनक्षत्र से आठवा लग्न, पाप युक्त नक्षत्र या लग्न, भद्रा,षष्ठी,चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, सन्ध्या के दौनों समय, मंगलवार, रविवार और शनिवार, रजोदर्शन से आरम्भ करके चारदिन - ये सब पत्नीगमन में वर्जित हैं। शेष तिथियाँ ,सोमवार,गुरुवार,शुक्र, बुधवार, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा और शततारा - ये गर्भाधान के लिये शुभ हैं ---> "( गण्डान्तं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं , दास्त्रं पौष्णमथोपरागदिवसं पाते तथा वैधृतिम्। पित्रोः श्राद्धदिनं दिवा। च परिघाद्यर्धं स्वपत्नीगमे, भान्युत्पातहतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम्।। भद्राषष्ठीपर्वरिक्ताश्च सन्ध्या,भौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्रः। गर्भाधानं त्र्युत्तरेन्द्वर्कमैत्र, ब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुपे सत्।।)"
जो द्विज अनाचरणीय पतित होने के दोष से पतित हो चूकें हो उसे उचित प्रायश्चित्त करने के बाद स्वशाखीय-पुनःउपनयन पश्चात् ही उचित मुर्हूत में गर्भाधान करना चाहिये । इस तरह अशुभकाल-स्थिति में प्रथमरजोदर्शन हुआ हो तो स्त्री के लिये भुवनेश्वरी-शांति विधान करवा कर बाद में उचित गर्भाधान के मुर्हूत पर विचार करना आवश्यक हैं।
इसमें सदेह नहीं कि ऋतुदान के समय निर्णय के लिये किसी विद्वान् विप्र-ज्योतिषी की सहायता अपेक्षा हैं, इससे जितना बड़ा अपना हित,वंश का हित,राष्ट्र का हित सम्भव हैं,उतना हित अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं।
गर्भनिरोध के प्रचार से व्यभिचार के मार्ग को निरर्गल करने के इच्छुकों को, विषय के गीधों को निःसन्देह यह सुझाव निःसार , अश्लील और अव्यवहार्य मालूम पड़ेगा, परंतु उन लोगों को मालूम होना चाहिये कि यह लाभदायक संस्कार भारत में प्रचलित था और आज भी कुछ द्विज अवश्य इस संस्कार को साङ्गोपाङ्ग करवा रहे हैं। इसी के लोप से देश का जगद्गुरु के पद से पतन हो गया। बड़े बड़े असम्भव कार्यों को सम्भव कर दिखलानेवालें देश के कर्णधार इस ओर ध्यान दे, बड़े बड़े ब्रह्मचर्याश्रम खोलनेवाले देश के महोपदेशक इसका प्रचार करें।
भगवद्गीता का प्रचार इस समय बढ़ रहा हैं,उसी भगवद्गीता को आँख खोलकर देखने की और देखकर आचरने की आवश्यकता हैं। यदि गीताध्यायी अपने कर्मों को यज्ञरूप में परिणत नहीं कर सका, अपने भोजन-शयनादि व्यवहार को यज्ञ का रूप नहीं दे सका तो गीता का अध्ययन ही व्यर्थ हैं। गीता के कारण तो युद्ध भी यज्ञरूप में परिणत हो गया - "(धर्माद्विरुद्ध भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ)" कहकर भगवान् ने तो सीधे-सीधे गर्भाधान को यज्ञ का रूप दिया हैं, नहीं तो काम को शत्रु बतलाया हैं और उससे सावधान रहने के लिये आदेश है, यथा "(विद्ध्येनमिह वैरिणम्)" यह वैरी सर्वनाश करता हैं। कुसंतान की बाढ़ से जगत् व्याकुल हो उठता हैं।
शास्त्र विहित देश,काल और पात्र का विचार रखने से ही काम ईश्वर की विभूति ह जाता हैं। उससे अचिन्त्य कल्याण होता हैं,लोक परलोक सब बन जाता हैं,सदाचारी होकर यश प्राप्त करता हैं, सुसंतान उत्पन्न करके आत्महित,वंशहित तथा राष्ट्रहित करता हैं। अतः माता-पिता का सदाचार ही उत्तमसंतानोत्पत्ति का कारण होता हैं।
वस्तुतः बालक के चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया गर्भाधान से प्रारम्भ हो जाती हैं। जैसे - मकान बनाने से पहिले उसकी योजना बनाकर उसके लिये अपेक्षित उत्तम प्रकार की सामग्री का होना नितान्त आवश्यक हैं, वैसे ही उत्तम संतान प्राप्त करने के लिये उसके उपादान रज-वीर्य का उत्तम कोटि का होना नितान्त आवश्यक हैं।
चरकसंहिता में उक्त बात को निम्न प्रकार से व्यक्त किया हैं - जिस प्रकार का अच्छा या बुरा बीज बोया जायगा, फल भी वैसा ही होगा जैसे व्रीहि को बोने से व्रीहि और जौ को बोने से जौ उत्पन्न होता हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष का रज-वीर्य जैसा होगा , वैसी ही शुभाशुभ संतान होगी -- "( यथा हि बीजमनुपतप्तमुप्तं त्वां त्वां प्रकृतिमनुविधीयते व्रीहिर्वा व्रीहित्वं यवो वा यवत्वं तथा स्त्रीपुरुषावपि यथोक्तं हेतुविभागमनुविधीयते।। शारीर स्थान ८/२०)"
गर्भाधान संस्कार बालक नहीं, अपितु सुयोग्य बालक बनाने का संस्कार हैं। इसलिये इस संसार में धर्म का भाव यथावत् आवश्यकरूप से बना रहना चाहिये। *(गर्भाधान की क्रिया के समय माता-पिता की शारीरिक तथा मानसिक स्थिति जैसी शुद्ध और पवित्र होगी, बालक का शरीर और मन भी वैसा ही बनेगा , यदि गर्भाधान के दिनों के आसपास के दिनों अपने कुलाचार्य से ,गुरुओं से, शास्त्रों से, गाय से आदि से द्वेष होगा अथवा गर्भाधान से लेकर बालक के जन्म होने के बाद भी जबतक बालक माँ का स्तनपान करता हैं इस समय में भी उक्त महानुभावों के प्रति दुर्भाव रहेगा तो समझिये की संतान भी बड़ी होकर इन्हीं महानुभावों के आदर करने में दुर्भाव ही व्यक्त करेगी)* अतः गर्भाधान के समय माता-पिता के मन का स्वस्थ एवं धर्मान्वित होना अत्यन्त आवश्यक हैं ,बालक के जन्म के बाद उपनयन होने तक तो महानुभावों के साथ दुर्भाव का साधन न हो इस बात को यथायोग्य ध्यान में रखना चाहिये , बालक के उपनयन के बाद यदि गुरुकुल में गुरु के पास वेदाध्ययनादि शिक्षा को प्राप्त करे तो तो अवश्य सोने में सुहागा की बात हैं, परंतु गुरुकुल में किसी परिस्थितिवश न भी जाय तो अपनी अपनी वेद-शाखा के नित्यकर्म(षट्कर्म) तथा अपनी वेद-शाखा के अनुसार गर्भाधानादि मृतिसंस्कारों को तो अनिवार्यरूप से किसी आचार्य के समीप सीखना चाहिये, ऐसी स्थिति में घर को ही उचित गुरुकुल के अनुसार बना देना नितान्त आवश्यक हैं अतः यहाँ भी बालक सोलहवर्ष की आयु का न हो जाय तबतक उक्त महानुभावों के साथ दुर्भाव नहीं रखना चाहिये।
सुश्रुतसंहिता में कहा हैं कि स्त्री-पुरुष जैसे आहार-विहार और चेष्टा आदि से युक्त होकर परस्पर समागम करतें हैं, संतान भी वैसी ही होती हैं । इसलिये स्त्री-पुरुष को संतानोत्पत्ति के लिये गर्भाधान में सर्वथा निर्दोष हो प्रवृत्त होना चाहिये - "( आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितौ। स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः।। शारीरस्थान २/४६।।)" सरल उपाय हैं कि विवाह के बाद उत्तम संतान की इच्छा से --- ब्राह्मणों को - ऋषिमुनिचरित, शंकराचार्यचरित, आचार्यों के चरितों , क्षत्रियों को वीर-प्रतापीपुरुषों,वीरांगना के चरितों, वैश्यों को भक्तचरित, और शूद्रों को नवधाभक्ति में से दास्यभक्ति का यथायोग्य ग्रन्थों से तथा स्व-स्व वर्णाश्रमधर्मों का तथा सतीचरित और पातिव्रत्य धर्मों का सभी को अध्ययन करके उसका मनन करते हुए पहिले से ही अपने शरीर को धर्माकार बना देना चाहिये।
गर्भाधान एक अत्यधिक महत्त्व पूर्णह एवं सूक्ष्म प्रभावोत्पादक संस्कार हैं। इतिहास में आता हैं कि अपने समान गुणयुक्त संतान उत्पन्न करने के लिये सपत्नीक श्रीकृष्ण ने बदरिकाश्रम में बारहवर्ष तक तप किया - "( व्रतं चचार धर्मात्मा कृष्णो द्वादशवार्षिकम्।। महाभारत अनु० १३९/१०।।)"
।। जय श्री राम।।
#संस्कारविमर्श - ५ (गर्भाधान -खंड २)-
भारतीय संस्कृति में मानव का चरम लक्ष्य पूर्णता तथा आनन्दस्वरूपता को माना गया हैं।भारतीय दर्शनों में ज्ञान को पूर्णता तथा निरतिशय आनन्द की प्राप्ति का प्रमुख साधन निर्धारित किया गया हैं। ज्ञान के समुचित विकास से युक्त होने के कारण मानवीय समुदाय को संस्कृतभाषा में "समाज"-संज्ञा(अमरकोष २/५/४२,पाणिनीसूत्र ३/६/६९)- से अभिहित किया गया हैं। भारतीय विचार दृष्टि से उसी समाज की सुदृढ़ता तथा पूर्णता मानी जाती हैं, जिस में स्वास्थ्य,शिक्षा,धैर्य,बल, सम्पत्ति तथा भोग -इन छः पदार्थों का समानरूप से भलिभाँति ध्यान रखा जाता हैं। इस संदर्भ में तैत्तरीयोपनीषद् २,८,२ का उपदेश हैं - *#युवा_स्यात्_साधुयुवाध्यापक_आशिष्ठो #द्रढिष्ठो_बलिष्ठस्तस्येयं_पृथिवी_सर्वा #वित्तस्य_पूर्णा_स्यात्। #स_एको_मानुषः_आनन्दः।।*
उक्त छः पदार्थों में किसी एक की अतिशयता अथवा किसी एक की हानि से कोई भी समाज शिथिल तथा अपूर्ण हो जाता हैं, यह भारतीय दृष्टि हैं;क्योंकि ये छः पदार्थ ही समुदितरूप से मानव के आनन्द हैं। भारतीय आर्ष सामाजिक व्यवस्था इन छः पदार्थों का समानरूप से आदर करती हैं। अतः आचार्यों ने समाज के स्वरूप में पूर्णत्व के प्रापक ज्ञान-तत्त्व को आश्रय माना हैं, साथ ही न्यायदर्शन की दृष्टि से प्राप्तव्य आत्मगुण नामक धर्मतत्त्व के अन्तर्गत आनन्द को भी समाज के आश्रय के रूप में स्वीकार किया हैं।
इस प्रकार ज्ञान तथा धर्म के द्वारा पूर्णता एवं आनन्द का विशिष्ट संतुलन भारतीय समाज की विशेषता हैं।अन्य विचारकों की दृष्टि में धर्म तथा व्यवहार का पार्थक्य हैं। अतः लौकिक व्यवहार में प्रत्यक्षदृष्ट के प्रति ही विश्वास के कारण आधुनिकों की दृष्टि में शारीरिक विषयसुख ही आनन्द हैं एवं उस सुख-सुविधा के लिये ही समाज की व्यवस्था निरूपित हैं, परंतु भारतीय संस्कृति में धर्म का व्यापक तथा व्यावहारिक स्वरूप हैं। भारतीय धर्म मात्र ईश्वर,अतीन्द्रिय तत्त्व अथवा परलोक के विषय में ही सीमित नहीं हैं, अपितु मानव के प्रत्येक दैनन्दिन कार्य में धर्म का सम्बन्ध भारतीय परम्परा में माना गया हैं। एतदर्थ महाभारत में स्पष्ट उल्लेख हैं - "(लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम्)"
यह व्यावहारिक धर्म आत्मदर्शन का साधन हैं। फलतः भारतीय समाज व्यवस्था केवल विषयसुख की सुविधा के लिये प्रवृत्त नहीं हैं, अपितु आनन्दमय पथ से आत्मदर्शनरूपी ज्ञान के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हैं। अतः "गागाभट्ट" ने धर्म की यह परिभाषा प्रस्तुत की हैं -- /// अलौकिकश्रेयस्साधनत्वेन विहितक्रियात्वं विहितत्वं वा धर्मत्वम्।। ///
लौकिक जीवन में मानुष-आनन्द का संचय करते हुए च्युतिरहित चरम लक्ष्य की प्राप्ति संस्कारों के फल में हैं - "( संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुत्तरैरनुसंस्कृतः। ब्राह्मण पदमवाप्नोति यस्मान्न च्यवते पुनः।। शङ्ख-लिखित स्मृति।।)"
संस्कारों की परिगणना में गर्भाधानं संस्कार प्रथम हैं। इस संस्कार को प्राथमिकता देना भौतिकवादियों की दृष्टि से भारतीय धर्म का आश्चर्यजनक प्रारम्भ माना जा सकता हैं। परंतु वस्तुतः वही संस्कार मानव के प्रादुर्भाव में प्राथमिक पवित्रता एवं शुद्ध भावना का बीजारोपण करता हैं। अन्य समाजों की भाँति भारतीय समाज में मानव के उद्भव को भौतिकपदार्थों की संयोगजन्य क्रिया अथवा विकार के रूप में नहीं माना गया हैं, अपितु मानवीय उत्पत्ति को भारतीय ऋषियों ने धर्म की दृष्टि से प्रतिपादित किया हैं। इसी प्रकार विश्व की अन्य सभ्यताओं में विवाह के नियम दृष्ट अथवा प्रत्यक्षफल (सामाजिक सुविधा, शारीरिक सुख तथा संतानसुख आदि) को आधार मानकर ही निरूपित हैं, परंतु भारतीय आर्षशास्त्रों में विज्ञान तथा दर्शन - दोनों के समन्वय से दृष्ट एवं अदृष्ट फलों के आधारपर स्त्री-पुरुषों के विवाह आदि पारस्परिक नियम निश्चित किये गये हैं। विवाह के अनन्तर भौतिकवादियों की दृष्टि में गर्भाधान के संदर्भ में भी सृष्टि की धारा का क्रमिक विकास तथा विस्तार ही एक उद्देश्य हैं, परंतु वैदिक संस्कृति इसके द्वारा ऐहिक तथा पारलौकिक द्विविध अभ्युन्नति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। पितृऋण से मुक्ति की इच्छा गर्भाधानं संस्कार का पवित्र एवं आध्यात्मिक उद्देश्य हैं। पितृऋण से मुक्ति क् अनन्तर ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव हैं। मनुस्मृति का कथन हैं - "(ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।।)। इस कर्तव्यबुद्धि से गर्भाधान जैसा नैसर्गिक तथा नितान्त भौतिक कर्म भी पवित्र दायित्व का स्वरूप प्राप्त कर प्रकाशित हो उठता हैं।
गर्भाधान-संस्कार के अनुष्ठान की प्रक्रिया में अन्य पूर्वाङ्ग विधियों (विवाह के चौथे दिन चतुर्थीकर्म)के अनन्तर आचार्य पारस्कर ने पति द्वारा समस्त हानियों के निरास के लिये देवताओं से प्रार्थना के मन्त्रों का उल्लेख किया हैं। इस में पत्नी की सर्वविध पुष्टि की प्रार्थना पति द्वारा की जाती हैं। पति-पत्नी के परस्पर अतिशय आत्मीय सम्बन्ध की प्रार्थना करते हुए पत्नी को पति यज्ञीय पाक खिलाता है - प्रथम ग्रास से "हे वधू ! मैं अपने प्राणों से तुम्हारे प्राणों को ,हड्डियों से हड्डियों को , मांस से मांस को , चमड़ी से चमड़ी को एक साथ मिलाता हूँ -----> "स्थालीपाकं प्राशयति।। ।। "( प्राणैस्ते प्राणान्त्संदधाम्यस्थिभिरस्थिनि माँसैर्मांसानि त्वचा त्वचम्।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/११/५।।)"
निश्छल प्रेम का यह पवित्र उत्कर्ष गर्भाधानं संस्कार को अलौकिक स्वरूप प्रदान करता हैं। पति एक अन्य मन्त्र द्वारा पत्नी के हृदय का स्पर्श करते हुए उसके मन को समझने की कामना करता हैं।
इस प्रकार गर्भाधानसंस्कार में देवोपासना के द्वारा आध्यात्मिक विशुद्ध वातावरण की पीठिका निर्मित करते हुए दम्पती की परस्पर दैहिक तथा मानसिक स्थितियों को समन्वित किया जाता हैं। इस उत्तम सम्बन्ध तथा पवित्र आध्यात्मिक भावना से भगवान् विष्णु गर्भ को विकारों से विपरित , गुणयुक्त तथा तेजस्वी बनाया जाता हैं।
गर्भाधान का स्वरूप देवमूर्तियों में प्रतिष्ठा कर्म की भाँति आधिदैविक हैं। चैतन्य का अधिष्ठान मानव-शरीर देवायतन हैं । मन्दिर में देवता के प्रतिष्ठापन के लिये जिस प्रकार मन्त्रों से शुद्धि की जाती हैं, उसी प्रकार के गर्भाधान-संस्कार विधा के अनुष्ठान द्वारा जीव में चैतन्यरूपिणी महते शक्ति के प्रतिष्ठापन की योग्यता उत्पन्न की जाती हैं। यह शब्दशक्ति के प्रवाह एवं संकल्प युक्त क्रिया के द्वारा सम्पन्न होती हैं। भारतीय परम्परा में प्रत्येक जीव को परतत्त्व का अंशभूत तथा चिच्छक्ति से सम्पन्न माना गया हैं।उस व्यष्टिगत चैतन्य का आवाहन तथा प्रतिष्ठापन इस प्राथमिक गर्भाधानं संस्कार में किया जाता हैं। देवोपासना की यह भावना गर्भाधान को आधिदैविक रूप प्रदान करती हैं।
मानव-सुलभ दोषों के परिहार के लिय् जिस प्रकार देवमूर्तियों का संस्कार विहित हैं, उसी प्रकार धरित्री के रत्नस्वरूप जीव को संस्कार के द्वारा निर्दोष तथा समाज में विद्योतमान बनाया जाता हैं। मनुस्मृति २-२७ में गर्भाधान आदि संस्कारों का यही प्रयोजन निर्दिष्ट हैं की बीजगत तथा क्षेत्रगत दोषों की निवृत्ति के साथ जीवन को ब्रह्मप्राप्ति योग्य बनाना इन संस्कारों का पावन उद्देश्य हैं।
चराचर समस्त भूतों का रस-सार अथवा आधार पृथिवी हैं, पृथिवी का रस जल हैं, जल का रस-- उसपर निर्भर करनेवाली ओषधियाँ हैं, ओषधियों का रस-सार पुष्प हैं, पुष्प का रस फल हैं,फल का रस -आधार पुरुष हैं, पुरुष का रस सार शुक्र हैं , इस प्रकार स्त्री में रज हैं।
प्रजापति ने विचार किया कि इस शुक्र की उपयुक्त प्रतिष्ठा के लिये कोई आधार चाहिये; इसलिये उन्होंने स्त्री की सृष्टि की और उसके अधोभाग सेवन का विधान किया।(यहाँ यदि यह कहा जाय कि इस पाशविक क्रिया में तो प्राणिमात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति हैं,इसके लिये विधान क्यों किया गया हैं, तो इसका उत्तर यह हैं कि यह विधान इसीलिये बनाया गया कि जिस में पुरुषों की स्वेच्छाचारिता का निरोध हो और इस विज्ञान से विवाह-संस्कार से सम्पन्न अपने पति के ही द्वारा केवल श्रेष्ठ संतानोत्पत्ति के लिये ही इसका सेवन किया जाय)
इसके लिये प्रजापति ने प्रजननेन्द्रिय को उत्पन्न किया। अतएव इस विषय से घृणा नहीं करनी चाहिये।
अरुण के पुत्र विद्वान् उद्दालक और नाक-मौद्गल्य तथा कुमारहारीत ऋषि ने भी कहा हैं कि *बहुत से ऐसे मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मण हैं जो निरिन्द्रिय, सुकृतहीन, मैथुन-विज्ञान से अपरिचित होकर भी मैथुनकर्म में आसक्त होतें हैं। उनकी परलोक में दुर्गति होती हैं। (इसी से अशास्त्रीय तथा अबाध मैथुनकर्म का पापहेतुत्व सूचित किया गया हैं)-- विवाह के बाद उचितगर्भाधान के मुर्हूत तक ब्रह्मचर्यपूर्वक पुरुष को पत्नी के ऋतुकाल की प्रतिक्षा करनी चाहिये। यदि इस बीच में मध्य स्वप्नादिदोष के द्वारा शुक्रक्षरण हो जाय तो उसकी पुनः प्राप्ति तथा वृद्धि के लिये उचित मन्त्रजप से स्वप्नदोषादि व्याधियोंका का नाश होता हैं।
स्त्रीयों को प्रतिमास सोलहरात का स्वाभाविक ऋतुकाल कहा हैं, उस सोलह रात्रियों में से पहली चार और ग्यारहवीं तथा तेरहवीं रात्रि स्त्रीसंगम में निंदित हैं। इसके अतिरिक्त दशरात्रि उत्तम हैं । युग्मरात्रि(6,8,10,12,14,16) में स्त्रीगमन करने से पुत्र और अयुग्म रात्रियों (5,7,9,15)में पुत्री की प्राप्ति होती हैं। पुरुष के वीर्य की मात्रा अधिक हो तो पुत्र और स्त्री का रज अधिक हो तो पुत्री तथा वीर्य और रज की मात्रा समान हो तो नपुंसक अथवा स्त्री-पुरुष का जोडा़ तथा दौनों के वीर्य और रज साररहित हो तो गर्भ नहीं रहता ---> "(ऋतुः स्वाभाविक स्त्रीणां रात्रयः षोडशः स्मृताः। चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः।। तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या। त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दशरात्रयः।। युग्मासु पुत्री जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु। तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्।। पुमान् पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रीयाः। समेऽपुमान् पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः।। मनुः ३/४६-४९।।)"
वैदिकदृष्टि से गर्भाधान-संस्कार का स्वरूप याज्ञिक हैं। शतपथब्राह्मण १४/९/४/३ में इसे वाजपेयी याग के समान महत्त्वपूर्ण बतलाया गया हैं -- "( यावान् ह वै वाजपेयेन लोको भवति तावानस्य लोको भवति।।)"
इस संस्कार में प्रयुक्त प्रत्येक अङ्ग यज्ञ के साधन माने गये हैं। तथा इस मन्थ की याज्ञिक प्रक्रिया के द्वारा यजमान को सुकृत एवं उत्तम लोक की प्राप्ति होती हैं।
पारस्कर गृह्यसूत्र में आवस्थ्याग्नि में नित्यहोम करनेवाले यजमान को सायं और प्रातःकाल यदि पुत्र की इच्छा हो तो पति के दायें हाथ को स्पर्श करतें हुए पति द्वारा "पुमां सौ""" ० आदि मंत्र से आहुति देकर पत्नी को इस तरह इसी मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिये कि ---> श्रेष्ठ पुरुष, मित्र और वरुण, दोनों अश्विनीकुमार इन्द्र और सूर्य मेरे गर्भाशय में पुरुषरूप में संयुक्त हो।
पारस्कर -गृह्यसूत्र के १/११/७ वें सूत्र में कहा हैं कि वधू को उद्वाह कर निर्दिष्ट ऋतुकाल में (संतान की प्राप्ति की कामना से) प्रवेशन अर्थात् अभिगमन करना चाहिये --> #तामुदुह्य_यथर्त्तुप्रवेशनम्।।पार०गृह्य०- १/११/७।।
और यदि संतान प्राप्त हो चूकी हो तब नारी जब रमण करने की इच्छा अभिव्यक्त करे, तब उसके साथ सहवास करना चाहिये। क्योंकि नारियों ने देवराज इन्द्र से ब्रह्महत्या का प्रतिग्रहण करने पर , यह वर माँग लिया था कि जब हम चाहे ,अपने पति के साथ सहवास करें। यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि संतान की कामना से ऋतुकाल और बिना ऋतुकाल में अपनी इच्छा से नहीं अपितु पत्नी की इच्छा से सहवास करना चाहिये ---> "(यथाकामी वा काममाविजनितोः सम्भवामेति वचनात्।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/११/८।। तैत्तरीय श्रुति -- स इन्द्रः स्त्रीषंससाद००आदि ।।
अष्टांग-हृदय अध्या१- शारीरस्थान २७ में पुत्र की इच्छा से पुत्रेष्टियज्ञ को आचरने को कहा हैं - "( उपाध्यायोऽथ पुत्रीयं कुर्वीतविधिवद्विधिम् ।)"
इस यज्ञ को करने से पहिले स्त्री या पुरुष में रहे दोषों की शान्ति के लिये "रुद्रस्नान-विधा" अनिवार्य हैं। (पुत्रेष्टि याग की विधा गर्भाधान की जानकारियाँ और षोडश संस्काराः नामक फेसबुक पृष्ठद्वय पर रुद्रस्नान सहित सम्पूर्णविधा को अकिंत किया हैं)
साधुपुरुषों का वचन हैं कि सन्तान की इच्छासे (समाज के लोंगों की इच्छा से नहीं)स्त्री पुरुष एकान्त में सहवास करें, संतान की कामना से अद्यतन " हॉटलों को जाकर - हनीमुन" नामक स्वेच्छाचार करतें हैं - उससे अनेकानेक कामादि अश्लील दोषों का भी यापन गर्भ में हो जाता हैं,बड़े कुल में उत्पन्न भी बुरी सन्तान समस्त कुल को नाश करनेवाली अर्थात् कुलमर्यादा-संस्कारों आदि का नाश करती हैं - इससे बचकर संस्कृति के संस्कारों को आचरना चाहिये),नित्योकर्मोपासना की शुभ ऊर्जा के वातावरण और उत्तम-गर्भाधानसंस्कार के होम से शुद्ध हुई ऊर्जा वाला वातावरण अधिक शुभता को प्रदान करता हैं-- "( सन्तोह्यायुरपत्यार्थं दम्पत्योः सङ्गतिं रहः। दुरपत्यं कुलाङ्गारो गोत्र जाते महत्यपि।।अष्टांग हृद० १ /२९।।)
जिस भावना से योनि में वीर्य डाला जाता हैं, उसी भाव से युक्त संतान होती हैं। इसलिये मनुष्य को गर्भाधान करने पहिले ही अपने आचरण को अपने वर्ण और आश्रम के धर्मों से सज्ज-होना अत्यावश्यक हैं, वहाँ उचित हैं कि विद्वान् ब्राह्मण से अपने अपने वर्णाश्रम के धर्मों और नित्यकर्मों को गर्भाधान से पहिले जानकर तदनुसार आचरण करें। वही वर्णाश्रम और नित्यकर्म के धर्मों को आचरनेवाली संतान हो,आचरण सहित इस शुभ भावना युक्त होना ही धर्म की संतान को प्राप्त करना कहा हैं, तदभिन्न तो कामप्रजा- अनाचारी होती हैं - अष्टांग हृदय में भी कहा हैं कि वर्ण,स्थान,आकृति आदि में -आचार अनुसार तथा श्रद्धा,श्रुत,सत्य,आर्जव,दान,दया,दाक्षिण्य,स्वधर्म प्रति नैष्ठिकता,स्वभाव आदि -चरण अनुसार महापुरुषों का चिन्तन करें, और ऐसे ही आचरण को पालें,और उसी जैसी वेशभूषा धारण करें --- > "( यादृशेन हि भावेन योनौ शुक्रं समुत्सृजेत्। तादृशेन हि भावेन संतानं सम्भवेदिति।। नारद पुराण २/२७/२९-३०।। इच्छेतां यादृशं पुत्रं तद्रूपंचरितांश्च तौ। चिन्तयेतां जनपदांस्तदाचारपरिच्छदौ।। अष्टां०हृ १/३०।।)"
व्यास ने कहा हैं कि ऋतुकाल की चौथी रात्रि में गर्भ रहे तो अल्पायु धनहीन पुत्र, पाँचवी में पुत्रवती कन्या, छठी में मध्यम पुत्र, सातवी में सन्तानहीन कन्या, आठवी में ऐश्वर्यवान् पुत्र, नौमी में सुभगा कन्या, दशमी में श्रेष्ठ पुत्र, ग्यारहवा में धर्महीन कन्या, बारहवीं में श्रेष्ठ पुत्र , *तेरहवी में पापिनी और वर्णसंकरता करनेवाली कन्या*, ///// *चौदहवी में धर्मज्ञाता कृतज्ञ आत्मज्ञानी, दृढसंकल्पवाला पुत्र,////* ।।।। *पन्द्रहवी में पतिव्रता कन्या ।।।* //// *सोलहवी में सब भूतों की रक्षा करनेवाला पुत्र उत्पन्न होता हैं ---* "( रात्रौ चतुर्थ्यां पुत्रः स्यादल्पायुर्धनवर्जितः। पञ्चम्यां पुत्रिणी नारी षष्ठ्यां पुत्रस्तु मध्यमः।। सप्तम्यां सप्रजा योषिदष्टम्यामीश्वरः पुमान्। नवम्यां सुभगा नारी दशम्यां प्रवरः सुतः।। एकदश्यामधर्मा स्त्री द्वादश्यां पुरुषोत्तमः।। त्रयोदश्यां सुता पापा वर्णसङ्करकारिणी।। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च आत्मवेदी दृढव्रतः। प्रजापतिश्चतुर्दश्यां पञ्चदश्यां पतिव्रता। आश्रयः सर्वभूतानां षोडश्यां जायते पुमान्।। व्यासः।।)"
उचित मुर्हूतों में पति अपनी कामना के अनुसार पत्नी को रात्रिकाल में एकांत में कहे कि " देखो , मैं प्राण हूँ और तुम प्राणरूप मेरे अधीन वाक् हो। मैं साम हूँ और तुम साम का आधाररूप ऋक् हो, मैं आकाश हूँ और तुम पृथिवी हो। अतएव आओ तुम हम दोनों मिलें, जिससे हमें उत्तम संतान और तदनुगत गुणादिधन की प्राप्ति हो। "" विष्णुर्योनि" आदि गर्भाधान प्रकरण विधा के मन्त्र से शुभभावयुक्त होकर प्रार्थना करें - भगवन् विष्णु तुम्हारी जननेन्द्रिय को पुत्रोत्पादन में समर्थ करें, त्वष्टा सूर्य रूपों को दर्शनयोग्य करें, विराट् पुरुष प्रजापति रेतःसेचन करायें, सूत्रात्मा विधाता तुम में अभिन्नभाव से स्थित होकर गर्भ धारण करें। सिनीवाली नाम की अत्यन्त सुन्दर देवता तुम में अभेदरूप से एवं पृथुष्टुका नाम की महान् स्तुतिशाली देवता भी तुम में हैं । मैं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि हे सिनीवाली ! हे पृथुष्टके ! तुम इस गर्भ को धारण करों। दोनों अश्विनीकुमार अथवा चन्द्र-सूर्य तुम्हारे साथ रहकर इस गर्भ को धारण करें। दोनों अश्विनीकुमार हिरण्मय दो अरणियों के द्वारा मन्थन करतें हैं। मैं दसवें मास में प्रसव होने के लिये गर्भाधान करता हूँ। पृथ्वी जैसे अग्निगर्भा हैं, स्वर्गीय भूमि जैसे इन्द्र के द्वारा गर्भवती हैं, दिशाएँ जैसे वायु के द्वारा गर्भवती हैं, मैं तुम को उसी प्रकार गर्भ अर्पण करके गर्भवती करता हूँ। बृहदारण्यक।। -- इस प्रकार समस्त मंत्रों का पठन करकें मन्थन मन्त्र से अभिगमन करना चाहिये, पारस्कर गृह्य सूत्र १/११/९ - सहवास के बाद यत्ते सुसीमे मंत्र पढ़कर वधू के दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाकर वधू के हृदय का स्पर्श करें -- "( अथास्यै दक्षिणां समधि हृदयमालभते "" यत्ते सुसीमे००आदि)" मन्त्रभावार्थ हैं - #चन्द्रमा_मनसो_जातः इस श्रुति के अनुसार विराट् पुरुषोत्तम के मनसे चन्द्रमा का उद्भव हुआ हैं इसलिये - हे सुकेशी ! स्वर्ग में स्थित चन्द्रमा में जो तुम्हारा मन अधिष्ठित हैं,उसी प्रकार मेरे मन का भी वही चन्द्रमुख अधिष्ठान हैं। उसे हम ठीक से समझें और हमारे मन को तुम ठीक से समझो। एक अधिष्ठान में अधिष्ठित होनेपर अनेक भी एक हो जाते हैं। चन्द्रमा भगवान् की मानसिक सृष्टि में आता हैं,अतः #आत्मा_वै_पुत्रनामासि।। यह श्रुति कहती हैं कि भगवान् के मन से उत्पन्न हुआ पुत्र चन्द्रमा भगवान् का मन ही हैं। चन्द्रमा सत्त्वगुण सम्पन्न सुशीतल हैं, तदधिष्ठित तुम्हारा मन भी सत्वगुण से सम्पन्न हैं, यह मैं जानता हूँ, ऐसे तुम भी मेरे मन को जानो। इस रिति से मेरा और तुम्हारा मन एकरूपता को प्राप्त होवे और हम दोनों भगवत्स्वरूप को जानने में सफल बनें। हम दोनों विवाहसूत्र में बद्ध होकर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुएँ हैं और इस एक धरित्री के आधार में अधिष्ठित भी हैं। यह मन्त्र विश्वबन्धुत्व का भी परियाचक हैं। पवित्र भावना को लेकर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हम - नेत्रों से , कानों से परिपुष्ट होकर देखते-सुनते हुएँ सौ वर्ष जीवन यात्रा को चलायें।
आयुर्वेद के अष्टांगहृदय १शारीरस्था० ३१-३२ में कहा हैं कि - घी मिश्रित दूध में बनी भात को खाकर, स्त्री से पहिले दक्षिण पैर आगे बढ़ाकर पुरुष को शैयापर प्रथम आरोहण करें, और बाद में तैल और उड़िदप्रधान भोजन को ग्रहण की हुई स्त्री वाम पैर आगे करकें शैयापर पति के दक्षिणपार्श्व में रहे तदनन्तर "आहिरसि ००इनमंत्र का पाठ करें-- "(अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठासि धाता
त्वां दधातु विधाता त्वां दधातु ब्रह्मवर्चसा भवेति।
ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः सोम सूर्यस्तथाऽश्विनौ।
भगोऽथ मित्रावरूणौ वीरं ददतु मे सुतम्।। //////
मन्त्रार्थभाव - हे गर्भ ! तुम सूर्य के समान हो। तुम मेरी आयु हो, तुम सब प्रकार से मेरी प्रतिष्ठा हो। धाता (सबके पोषक ईश्वर) तुम्हारी रक्षा करें, विधाता (विश्व के निर्माता ब्रह्मा) तुम्हारी रक्षा करें। तुम ब्रह्मतेज से युक्त होओ।
ब्रह्मा, बृहस्पति, विष्णु, सोम, सूर्य,अश्विनीकुमार और मित्रावरूण जो दिव्य शक्तिरूप हैं, वे मुझे वीर पुत्र प्रदान करें।)"
आगे वहाँ 34 वें श्लोक के कथन में कहाँ हैं कि मंत्रपाठ के उपरांत परस्पर प्रियवचनादि से प्रीति उत्पन्न करके- सम्भोग समय पत्नी को उत्तान(छती)और भली प्रकार अंगोको स्थित हर्ष से युक्त होकर उत्तमसंतान के विषय में मन लगाकर रहें,और न्युब्ज (उलटी)या पाश्वभागों में होकर कभी भी संयोग में रत न हो क्योंकि ->वातदोष से योनिपिड़ीत होगीं और गर्भमें विकृति रहेगी "( सान्तयित्वा ततोऽन्योन्यं संविशेतां मुदान्वितो।उत्ताना तन्मना योषित्तिष्ठदङ्गैः सुसंस्थितैः।। विद्योतिनीभाषा टीकायां -- " न न्युब्जां पार्श्वगतां वा सेवेत। न्युब्जाया वातो बलवान् योनिं पीडयति।।)"//////
"(वात्सायनमुनि प्रोक्त "उत्फुल्लासन" त्वरित गर्भधारण कराने में प्रशस्त संभोग का आसन हैं,जिस में पत्नी के नितंब के नीचे तकीया रखकर,पत्नी के पैर ऊँचे उठायें)"
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में महर्षि भावयव्य तथा उनकी पत्नी रोमशा के संवाद के माध्यम से यह सिद्धांत स्थिर किया गया हैं कि स्त्री का कौमार्यावस्था(8से10वर्ष) में विवाह के अनन्तर भी पत्नी की प्रौढ़ता तथा शारीरिक अनुकूलता अनुसार विलम्ब से गर्भाधान संस्कार का काल निर्धारित किया जाता हैं। आचार्य सुश्रुत ने गर्भाधान संस्कार का काल वधू की षोडश वर्ष की आयु के अनन्तर निर्धारित किया हैं। वाग्भट् ने भी इसी प्रकार प्रौढ़ता का समर्थन किया हैं। अतः प्रमाणित हैं कि भारतीय मनिषीयों की दृष्टि में *#विवाह_और_गर्भाधान_दोनों_संस्कारों_के #समय_भिन्न_भिन्न_हैं।* इन दोनों का एक ही समय मानना उचित नहीं हैं। भारतीय कपोलकल्पितसंविधान सामाजिक विकृतियों का जनक हैं यह कोई शास्त्र नहीं कि भविष्यके गर्त में व्यभिचार आदि अनुमान को नहीं नाप सकने में सक्षम नहीं। वेदादिशास्त्रोपदिष्ट स्त्रीविवाह-काल ही पतिव्रता,संयम और वैवाहिक मन्त्रों के समुचित फल की प्राप्ति करवाकर निष्कंटक उत्तन गुणवान् संतानप्राप्ति में सहायक हैं। वेदादिशास्त्रोपदिष्ट कर्म ही उचित संविधान हैं।
अन्य गर्भाधान के उचित मुर्हूतों के दिन की समिक्षा विद्वान् सुज्ञ और कुशल विप्र-ज्योतिषी से जानना चाहिये।
पारस्करगृह्य सूत्र में - गर्भाधान की प्रधान विधा को गुरुमुख से जानकर "प्रत्येक ऋतुकाल में भी इसी प्रकार गर्भाधान किया जाय उचित हैं -- #एवमेव_ऊर्ध्वम्।।१/११/१०।। एवमनेन प्रकारेण अतोऽनन्तरमूर्ध्वम् ऋतावृतौ हृदयालम्भः कार्यः।।गदाधरः।। एवमनेन प्रकारेणातोऽनन्तरम् ऋतावॄतौ प्रवेशनं यथाकामं वेति।।हरिहरः।।)"
इस रिति से गर्भाधान संस्कार दम्पती की वैयक्तिक सन्तुष्टि के लिये नहीं,अपितु अपने शास्त्रोक्त कर्तव्य के उत्तरदायित्व से परिपूर्ण गौरवदायिनी सामाजिक प्रक्रिया के रूप में उपदिष्ट हैं। गर्भाधान संस्कार को सम्पन्न करतें हुएँ गर्भ ठहरनेपर यथाकाल सीमन्तोन्नयन से पूर्व गर्भ के 1,2, वा 3 मास में स्वसूत्रपद्धति से द्वितीय संस्कार क्रम २ पुंसवन को यथारूप जानकर अनुष्ठान करना चाहिये।
#गर्भिणी_तथा_गर्भिणीपतिको_पतितोंका_अन्न
#खानेका_प्रायश्चित्त~~~>
यदि गर्भधारण होने के बाद पतितों,बिना जनेऊ के द्विजों का,सन्ध्योपासनादिरहितों का, बाज़ार का,पतितसावित्रीक तथा व्रात्यों का भोजन ग्रहण किया हो तो शुद्धि के लिए ऋग्वेद के तरत्समंदी सूक्त के चार मंत्रों का गर्भिणीपति १०८ बार जप करकें गर्भिणीपति पञ्चगव्य का पान स्वयं और अपनी पत्नी को करायें---> (क्योंकि पतितों के अन्नसे प्राणमय कोश भी दुषित होते हैं,यह परिहार अवश्य करैं)
उपवीती द्विजों को स्वयं या ब्राह्मण से जप करवाना चाहिये, और पति को पत्नी के निमित्त दो प्राजापत्य तथा अपने निमित्त चान्द्रायण का आचरण करना चाहिये।
#गर्भिणी_पति_नियमाः~
@मुण्डनं पिण्डदानं च प्रेतकर्म च सर्वशः || न जीवत्पितृकः कुर्याद्गुर्विणीपतिरेव च ||हेमाद्रौ||
मुंडन, पिंडदान, और सम्पूर्ण प्रेतकर्म को, जीवत्क्रिया का सदा त्याग करें.
@उदन्वतोम्भसि स्नानं नखकेशादिकर्त्तनम् | अन्तर्वत्न्याः पतिः कुर्वन्नप्रजा जायते ध्रुवम् || मिताक्षरा ||
गर्भिणी के पति को- समुद्रस्नान, नख और केशों(सभी बाल)नहीं कटवाने से तो निश्चय प्रजाहिनता होती हैं ||
@वपनं मैथुनं तीर्थं वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः | श्राद्धं च सप्तमासान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् || आश्वालायन || क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनं च युद्धादि वास्तुकरणं त्वतिदूरयानम् | उद्भाहमौपायनं जलधेश्च गाहमायुः क्षयार्थमिति गर्भिणिकापतीनाम् || का०विधाने|| दहनं वपनं चैव वै गिरिरोहणम् | नाव आरोहणं चैव वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः || अव्यक्तगर्भापतिरब्धियानं मृतस्य वाहं क्षुरकर्म सङ्गम् || तस्यां तु यत्नेन गयादितीर्थं यागादिकं वास्तुविधिं न कुर्यात् || रत्न-सं०||
मुंडन, मैथुन, तीर्थ, और सातमासके गर्भ के बाद किसी भी प्रकार का श्राद्धका भोजन न करें, || प्रयोग पारिजात में कहा हैं कि--- क्षौर, शवयात्रा, नखों को काटना, युद्ध, घरका निर्माण(घर बदलना), अत्यन्त दूर गमन,विवाह तथा यज्ञोपवीत और समुद्र स्नान ये गर्भिणीपतिकी आयुको क्षीण करता हैं | गालव ने कहा हैं कि - दाह, मुंडन, चौल, पर्वतपर चढना ,अस्तहोते सूर्य को देखना, नावपर बैठना, ये गर्भिणी का पति त्याग दैं | समुद्रस्नान, मृतकवहन, और स्त्रीसंग, तथा तीर्थयात्रा, अपनेघर यज्ञ, वास्तु न करैं |
#गर्भवती_नियमाः- अङ्गारभस्मास्थिकपालचुल्ली शूर्षदिकेषूपविशेन्नारी | सोलूखलाढ्ये दृषदादिके वा यन्त्रे तुषाढ्ये न तथोपविष्टा || १|| नो मार्ज्जनी गोमयपिण्डकादौ कुर्यान्न वारिण्यवगाहनं सा || अङ्गारभूत्या न नखैर्लिखेत्क्ष्मां कलिं वपुर्भङ्गमथो न कुर्यात् ||२|| नो क्षणंमुक्तकेशी विवशाथ वा स्याद्भुंक्ते न संध्यावसरे न शेते || नामङ्गलं वाचमुदीरयेत्सा शून्यालयं वृक्षतले न यायात् || ३||
@गर्भवती स्त्री अंगार, भस्म, हड्डी, कपाल, चूल्हा, छाज,ऊखल, बिना आसन के पत्थर आदि, झाडू, गोमय के पिंड आदि पर न बैठे || जलमें प्रवेशकर स्नान न करैं, अँगारे की राख से या (कोयलेसे) अथवा नखसे पृथ्वी को न कुरेदे.. कलह और शरीरभंग अर्थात् अँगडाई न ले, क्षणभर भी खुले बाल न रक्खैं, बिना कपडे़ के न रहैं, सन्ध्या के समय भोजन ओर शयन न करैं, अमंगल वाक्य न कहैं(टी.वी चैनल के प्रसारण न दैखें), शून्य घर( जिसमें व्यक्ति की संख्या घटती हो परंतु बढती न हो), और वृक्ष के नीचे न जाय ||
@कटुतीक्ष्णकषायाणि अत्युष्णलवणानि च | अयासं च व्यवायं च गर्भिणी वर्जयेत्सदा || वि०ध०||
कडुवा,तीखा,कसैला, अत्यन्त गरम, और ज्यादा नमक का भोजन, और संयोग को सदा त्यागना चाहिये,,
@गर्भिणी कुञ्जराश्वादिशैलहर्म्म्याधिरोहणम् | व्यायामं शीघ्रगमनं शकटारोहणं त्यजेत् || शोकं रक्तविमोक्षं च साध्वसं कुक्कुटासनम् || व्यवसायं दिवास्वापं रात्रौ जागरणं त्यजेत् || प्र०पारि०|| हरिद्रां कुङ्कुमं चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा | कूर्पासकं च ताम्बूलं माङ्गल्याभरणं शुभम् || केशसंस्कार कबरीकरकर्णविभूषणम् ||भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती दूरयेद्गर्भिणी न हि ||मद०रत्न||
कश्यप जी कहते हैं कि--- गर्भिणी ; हाथी, अश्व, पर्वत,महल,आदिपर चढना, और शीघ्रगमन(उतावले चलना), सहवास को छोड़ दे, शोक, किसी भी प्रकार की इजा न हो वह ध्यान रखे, कुकडे की तरह बैठना, ज्यादा परिश्रम करना, दिन में सोना और रात्रि में जागना नहीं चाहिये, स्कंदपुराण में कहा हैं---कपाल में हलदी और कुमकुम, चोली(घूँघट) मांगलिक श्रेष्ठ आभूषण, केशों के संस्कार, मोंढीं गूँथना, हाथ और कान के गहनों को भर्ता की आयुष्य इच्छावाली गर्भिणी कदापि त्याग न करैं. |
@चतुर्थे मासि षष्ठे वाप्यष्टमे गर्भिणी यदा | यात्रा नित्यं विवर्ज्या स्यादाषाढे तु विशेषतः |||बृहस्पतिः ||
गर्भके चौथे,छठे,आठवें महिनों में विशेष आषाढ महिने में यात्रा न करैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ ||
संस्कारविमर्श ६ (गर्भाधान के बाद माता पिता का दायित्व)
हमारे ऋषियों ने संस्कारों का बड़ी गम्भीरता से विमर्श किया हैं और उनकी उपादेयता सिद्ध करके विश्वगुरु की प्रतिष्ठा प्राप्त की हैं।
मनुस्मृति में कहा हैं - इस देश (भारत)में उत्पन्न अग्रजन्मा(विद्वान् ब्राह्मणों)से संसार के सभी लोग अपने अपने चरित्र को सीखें - "(एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। मनुः २/२०।।)"
संस्कारों से मण्डित सनातनधर्म की अपनी विशेष महिमा हैं, किंतु दिव्य भूमि भारतदेश आज संस्कारविहिनों का देश होने जा रहा हैं। यह बहुत बड़ी चिन्ता की बात हैं। हमारी पहचान हमारी धरोहर हैं। हमारा आचार हमारी संस्कृति हैं, हमारी वेशभूषा हमारी वाणी हैं। हमारे सांस्कृतिक आधार आप्तवाक्य और वेदादि महान् ग्रन्थ हैं। ४ वेद, ६ वेदांग, मन्वादि स्मृतियां, ईशादि उपनिषद्, १८पुराण, रामायण,महाभारत,रामायण, रामचरितमानस, गीतादि धर्मग्रन्थों एवं गुरुजन, संत-महात्मा - किसी ने भी धर्मविरुद्ध आचरण की अनुमति नहीं दी। किसी ने आचारविहिन जीने का आदेश नहीं दिया;फिर कहाँ से ये गर्हित विचार और व्यवहार आ गये, जिसके कारण हमारी पीढ़ी संस्कारों का नाम भी नहीं जानती। यह दोष कहाँ से आया ? यह विमर्श्य हैं,चिन्तनीय हैं। यदि समय रहते इस ओर हम सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं, जब हम अपने सनातन गौरव को सर्वथा के लिये भुला ड़ालेंगे।
हम ऋषियों की संतान हैं,हमें सदसद्विवेचनी बुद्धि पूर्वजों से प्राप्त हैं। यदि कुसंगमात्र से परहेज कर लिया जाय और हम अपनी आर्ष परम्परा का स्मरण करे तथा तदनुरूप सदाचार का पालन करें तो हम पुनः गौरवान्वित हो जायेंगे। अन्य धर्मावलम्बी हमारी तरह परमुखापेक्षी, परधर्मसेवी एवं अपसंस्कृति के अनुयायी नहीं बन रहे हैं। वे कट्टरपन्थी करवाकर भी गौरव का अनुभव करते हैं और एक हम हैं, जो स्वधर्म के अनुष्ठान में लज्जा का अनुभव करते हैं वह भी मात्र किसी संस्काररहितों की खुशीयों के लिए । इसलिये वैभवशाली संस्कृति सम्पन्न होनेपर भी हम उपहास के पात्र बन बैठे हैं। इसलिये हमें चाहिये कि हम गीता अध्याय ३-३५ के इस वाक्यका सदा स्मरण करें और आचरण में लायें #स्वधर्मे_निधनं_श्रेयः_परधर्म_भयावहः।।
आचार सभी का धर्म हैं, यह निश्चित हैं। जो हीन आचरणवाला हैं, वह संसार में भी नष्ट हो जाता हैं तथा मरकर परलोक में भी । संस्कारों का उचित प्रवेश मनुष्य के उत्थान-पतन के मार्ग को प्रशस्त करता हैं। जीवन में कुसंस्कार और संस्कार के प्रवेश से ही व्यक्ति वन्दनीय और निन्दनीय होता हैं। संस्कारों का गौरव असीम हैं। हीन आचरणवालें कुसंस्कारी का उद्धार होना कठिन हैं -- "( नैनं तपांसि न ब्रह्म नाग्निहोत्रं न दक्षिणाः। हीनाचारमितो भ्रष्टं तारयन्ति कथञ्चन।। वसिष्ठस्मृति ६/२।।)"अर्थात् हीन आचरणवाले को तप, वेद, अग्निहोत्र और दक्षिणा किसी प्रकार से भी नहीं तार सकतें। इसके विपरित श्रद्धालु और असूया दोष से रहित सत्संस्कार सम्पन्न व्यक्ति सदाचार द्वारा सौ वर्षतक जीता हैं और अपने जीवन-लक्ष्य को प्राप्तकर धन्य हो जाता हैं - "(सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः। श्रद्धदानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति।।मनु ४/१५८।।)" कोई कोई महात्मा इस पवित्र धरातल पर अपने धर्म के कार्य को यथोचित मर्यादा में सम्पन्न करतें हुए कुछ वर्ष तक भी दर्शन देकर धरातल को पावन करने के लिए ही अवतरित होतें हैं।
मानव-जीवन के चरम उत्कर्षरूप की प्राप्ति के लिये ही हमें यह देवदुर्लभ मनुष्यशरीर मिला हैं, जिसकी महिमा संतशिरोमणि तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस ७/४३/७ में कही हैं - "/// बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।///
इस प्रकार हमें यह अमूल्य शरीर प्राप्त है, इसे पाकर हम अपने अजर अमर स्वरूप को प्राप्त करनेपर ही धन्य हैं, नहीं तो महान् अनर्थ हैं ।
गर्भकाल में माता की भावना कैसी होनी चाहिये ?
जब गर्भ में संतान होती हैं, तब माता सात्त्विक, राजस,तामसी भावना से भावित रहती हैं,जैसा अच्छा -बुरा देखती, सनती, पढ़ती, खाती-पीती हैं, उन सब का गर्भ में स्थित संतानपर प्रभाव पड़ता हैं। इसलिये गर्भवती स्त्री को राजसी, तामसी भावों से बचकर सात्त्विक भावनाएँ करनी चाहिये। गंदे सिनेमा-टेलीविजन, पोस्टर न दैखकर सात्त्विक देवदर्शन, संतदर्शन आदि ही करना चाहिये। गंदे गीत सुनना-गाना छोड़कर सात्त्विक भजन-कीर्त्तन ही सुनना-गाना चाहिये। गंदे उपन्यास पढ़ना सुनना-सुनाना छोड़कर संतचरित्रों,वीर,योद्धा पराक्रमी राजाओं का चरित्र,भक्तचरित्र, कुछ कल्याणअंक इस प्रकार से गीताप्रेस गोरखपुर के प्रस्तुत हैं - संत-अंक, नारी-अंक,स्त्री-अंक, भक्त-अंक, आदि को ही पढना-सुनना सुनाना चाहिये। भागवत, रामायण, पुराणोपपुराण आदि विद्वान् ब्राह्मण के मुख से सुनना चाहिये। विद्वान होना मात्र भी उचित नहीं अपितु महाभारत में कहा गया हैं कि जिनके विद्या, माता और पितृपिढ़ीयों से ब्राह्मण कुल और कर्म - ये तीनों शुद्ध हों, उन सत्पुरुषों, की सेवा करें, उनका सत्संग करें। उनका सत्संग स्वाध्याय से भी श्रेष्ठ हैं --- "(येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च। ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी।। महाभा०अनुशासन पर्व १अध्याय २७।।)"
इसके विपरित दुर्जनों, दुष्टों के सङ्ग के दुष्परिणामों पर प्रकाश डालते हुएँ कहा गया हैं - दुष्ट,पातकी,लंपट,व्रात्य,दुर्भोजी,अक्कर्मी(अपनी वेद-शाखा के अनुसार अनिवार्य द्विज के नित्यकर्मों को भलीँभाँति न करनेवाला)अनाचारी,कुलघ्नी( जाति बहार विवाह करनेवाला)तथा व्यसनी मनुष्यों के दर्शन से , स्पर्श से उनके साथ वार्तालाप करने से धार्मिक आचार नष्ट हो जाते हैं। ऐसे कुसङ्गी मनुष्य कभी भी अपने किसी कार्य में, विशुद्ध वर्णाचार के लिये सफल नहीं हो सकतें ---> "( असतां दर्शनात् स्पर्शात् सञ्जल्पाच्च सहासनात्। धर्माचाराः प्रह्रीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः।। महाभारत वनपर्व १/२९।।)" इसलिये उचित आचार सम्पन्न कुलिन विद्वान् ब्राह्मण से ही धर्मग्रन्थों का श्रवण कर मनन करतें हुएँ, तदनुरूप अपने जीवन को ढ़ालने का दृढ़ और सत्संकल्प करना चाहिये। राजस-तामस,अभक्ष्यपदार्थों,अतितीक्ष्ण मिर्च-मसाला छोड़कर कृत-वैश्वदैव, अतिथिब्राह्मण का कच्चे अन्नादि से सत्कार के पश्चात् यज्ञशिष्टान्न - सात्त्विक दूध-घी-दाल-रोटी, मैथी, आदि ही खाना पीना चाहिये। गर्भकालीन भावना का संतानपर प्रभाव पड़ता हैं, इसमें प्रह्लादजी का उत्तमचरित माननीय हैं।
मन्वर्थमुक्तावली टीका के लेखक आचार्य कुल्लुक-भट्ट ने मनुस्मृति के २/६ "स्मृतिशीले च तद्विदाम्।। श्लोक की टीका में हारीत के द्वारा निर्दिष्ट शील के तेरह परियाचक तत्त्वों की चर्चा की हैं तदनुसार माता-पिता का शील रहना चाहिये - " ( ब्रह्मण्यता देवपितृभक्तता सौम्यता अपरोपतापिता अनसूयता मृदुता अपारुष्यं मैत्रता प्रियवादित्वं कृतज्ञता शरण्यता कारुण्यं प्रशान्तिश्चेति त्रयोदशविधं शीलम्।।)"---- अर्थात् १ वेदज्ञ ब्राह्मणों के प्रति समादर भावना, २ देव और पितरों के प्रति भक्तिभावना, ३ सौम्यता, ४ दूसरों को पीड़ा न पहुँचाना, ५ दूसरों के गुणों की उत्कृष्टता के प्रति दोषारोपण न करने की भावना, ६- व्यवहार में कोमलता, ७ निष्ठुरता से रहित मनोभावना, ८ सब के प्रति मैत्रीभाव , ९ प्रियवादिता, १० कृतज्ञता(कृतघ्नता नहीं),११ शरणागत की रक्षा करना, १२ -दया या करुणा की भावना और १३- शान्तचित्तता - ये तेरह शील के स्वरूप हैं।
आचरण से शरीर में अच्छाई और बुराई उत्पन्न होती हैं, जिस समय मनुष्य बुरों की संगत में पड़ता हैं या स्वयं उसके हृदय में बुरे आचरण का प्रवाह बहने लगता हैं तो ऐसी दशा में बुरे आचरणों का आश्रय लेना पड़ता हैं तो गर्भ के बालक पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। इसके अनेक भेद हैं जो गर्भावस्था तक रहतें हैं। कुछ आचरण की चर्चा आयुर्वेद की सुश्रुतसंहिता से करतें हैं --
यदि गर्भवती अंगो को फैलाकर सोवें और रात्रि में फिरा करे तो उन्मत्त सन्तान होती हैं(सुश्रुत सं० ८/४१)
यदि कलह और लड़ाई करना गर्भवती को अच्छा मालूम हो, या करे तो भृँगी रोगवाली संतान होती हैं (८/४१)
गर्भवती बहुत सोचें ,विचार किया करें तो करनेवाली, क्षीण अथवा अल्पायुवाली संतान होती हैं (८/४६)
कामचोरी किया करे तो आलसी , झगडा करनेवाली और बुरे कामों में लगी करनेवाली के समान सन्तान होती हैं(८/४१)
क्रोधी रहने से छली और चुगलखोर सन्तान होती हैं(८/४२)
*बहुत सोनेवाली की तन्द्रावाली, मूर्ख या मन्दाग्नि रोगवाली सन्तान होती हैं (८/४१)*
गर्भावस्था में मैथुन करें तो बदचलन और कन्या का जन्म हो तो परपुरुषगामिनी (शरीर-अध्याय कर्मचिकित्सा)
जैसा आचरण गर्भवती का होता हैं उसी के अनुसार सन्तान उत्पन्न होती हैं (शरीर अध्याय कर्म चिकित्सा)
इस प्रकार बुरे आचरणों से अनेक प्रकार की सन्तान उत्पन्न होती हैं अतएव माता-पिता को अपने आचरणों पर विशेष शास्त्रदृष्टि से ध्यान रखना चाहिये।
इच्छा वह चीज हैं कि मनुष्य के हृदय का भाव मालूम होता हैं। जब मनुष्य किसी बात की इच्छा करता हैं तो उसको अपनी इच्छा के वश में हो जाना पड़ता हैं, जबतक वह वस्तु उस को नहीं मिलती ,उसके पाने की लालसा लगी रहती हैं। गर्भवती में इच्छाशक्ति अच्छी तरह से चौथे महीने में उत्पन्न होती हैं, उस समय गर्भस्थित बालक का हृदय बन जाता हैं और माता की इच्छा में बच्चे की इच्छा भी मिली रहती हैं। अतएव माता की इच्छा का बुराभला प्रभाव अनेक प्रकार से पड़ता हैं। इसलिये शिष्ट इच्छा और आचरण पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
आईये कुछ जानतें हैं चरकसंहिता से - मैथुनप्रिय हो अर्थात् उसको मैथुन की इच्छा हो तो निर्लज्ज, विकलांग अथवा मेहरा, रांड़िया सन्तान उत्पन्न होती हैं ( चरक संहिता शरीरस्था ८/४१)
पराये धन के हरने की इच्छा करे तो कुठने और ईर्षावाली अथवा राढ़ियाँ या जनानियाँ सन्तान उत्पन्न होती हैं (चरकसंहिता ८/४१)
अपनी इच्छा के अनुसार गर्भवती को मनमाना पदार्थ न मिलने से गर्भ का बालक बौना,कुबड़ा,ढूँढा, पागल, मूर्ख और नेत्रविकारवाली संतान उत्पन्न होती हैं इस में शिष्ट वस्तु आदि की इच्छा बढ़ानी चाहिये , मनमाना पदार्थ मिल जाय तो पराक्रमी चिरंजीवी और उत्तम संतान होतीं हैं (३/२१)
जिन जिन इन्द्रियसुख को गर्भवती भोगनेकी इच्छा करे उनके न मिलने से गर्भ बाधा पहुँचती हैं,इसलिये सत् इच्छाओं से मन को गर्भावस्था के पहिले से ही दृढ़ करना चाहिये (३/२२-२४)
यदि गर्भवती उत्तमवस्त्राभूषण की इच्छा करे तो शौखीन सन्तान उत्पन्न होती हैं, इससे यह भी मानना चाहिये कि ओछे-छिंछोंरे वस्त्र पहनने की इच्छा से निर्लज्ज सन्तान होती हैं (सुश्रुत ३/२६)
यदि महात्मा, देवताओ के दर्शन की इच्छा हो तो धर्मशील और सत्पात्र --- (सुश्रुत सं०३/२७)
हिंसक पशु,कुत्ते,बिल्ली आदि देखने की इच्छा करे तो हिंसक सन्तान इसलिये पालनेवालें संभल जाय (सुश्रुत संहिता ३/२८)
बदचलनी की लिये किसी मित्र से मिलने की इच्छा हो तो बदचलन पुत्र और कन्या होवें तो वह कुकर्म करनेवाली ,
किसी स्नेही से मिलने की इच्छा करे तो सदाचारी संतान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय )
श्रेष्ठ और पूज्यजनों से मिलने की इच्छा से सदाचारी , खेल करने की इच्छा से हँसमुख , लिखने पढ़ने की इच्छा से गुणिन् सन्तान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय)
नाच,गाने की इच्छा हो तो बेशर्मवाली शृंगाररसभरी संतान होती हैं, उत्तम फल खाने की इच्छा से शुद्धभोजन करनेवाली सन्तान होती हैं, फुलवारी उपवनों में सैर करने की इच्छा से प्रसन्न चित्तवाली संतान होती हैं, दिल्लगी करने की इच्छा हो तो पुत्र परस्त्रीप्रिय और पुत्री जन्में तो कुकर्मी और द्रव्य एकत्र करने की इच्छा से कंजूस संतान होती हैं (शरीरकर्म चिकित्सा अध्याय)
इच्छा बहुत बड़ी चीज हैं। गर्भसमय से इससे सावधान और संयम से रहना चाहिये - जहाँचक हो सके उत्तम इच्छा का होना ठीक हैं, क्योंकि इच्छा का बहुत बड़ा प्रभाव बालकों पर पड़ता हैं। माता की जैसी इच्छा होती हैं उसी के अनुसार सन्तान भी उत्पन्न होती हैं।
आहार वह वस्तु हैं कि जिससे शरीर का पोषण होता हैं। गर्भ का बालक भी आहार के रस से पलता और पुष्ट होता हैं। अतएव माता का जैसा आहार होगा उसी के गुणदोष के अनुसार बच्चा भी होगा। आहार के गुणदोष बच्चों में अनेक प्रकार से होतें हैं ।
अधिक मीठा भोजन खानेवाली गर्भवती से प्रमेहरोगवाली, गूँगी या मोटी सन्तान होती हैं, अधिक खटाई खानेपर रक्त पित्त से रोगी,कुष्ठी या नेत्ररोगवाली, अधिक नमक खानेवाली गर्भवती से बली,पलित और खलित्य रोगग्रस्त, चरपरे रस का अधिक सेवन करने से दुर्बल,थोड़े वीर्य और उससे सन्तान न होने वाली, कडुए रस के सेवन करनेवाली की शोषी,दुर्बल और सूखी, कसैले रस का सेवन करनेवाली की कालेरंगवाली या अफरा या उदावर्त रोगवाली, फीका भोजन करनेवाली की निस्तेज आलसी -सन्तानें होती हैं (रतिशास्त्र ४२)
वैश्वदेव रहित अन्न खानेवाली की कृतघ्नी और पतित तथा निंदितों का अन्न खाने वाली की तादृश दोष के समान होती हैं।
इस प्रकार विपरित भोजन के होने से अनेक प्रकार के रोग-दोषों से युक्त सन्तान उत्पन्न होती हैं।अतएव माता को अपने भोजनपर विशेष ध्यान रखना चाहिये, क्योंकि सन्तान के गुणदोष में आहार एक बहुत बड़ी महत्व की चीज हैं। खायें हुएँ पदार्थ से रस बनकर गर्भ का पोषण होता हैं। अतएव भोजन के गुण-दोषानुसार सन्तान के उत्पन्न होने में आश्चर्य क्या ?
इस लेख को सहयोग प्राप्त करवाने शास्त्री, हर्ष शर्माजी का चिन्तनीयलेख भी विचारणीय हैं -
प्राय: वर्तमान समाज आधुनिक होता जा रहा है | इसलिए बच्चे संस्कारी हों या ना हों इस ओर कम ध्यान जाकर बच्चे अधिक से अधिक पैसे कमाने वालों हों इस ओर अधिक ध्यान जा रहा है | किन्तु इनमें भी कुछ माता-पिता हैं जो अर्थ के साथ-साथ बच्चों में संस्कार भी चाहते हैं | और वर्तमान समाज के सभी माता-पिता संस्कार का आधार ही रखते हैं मांसाहार से |..................
आप सोच रहे होंगे क्या सभी माता-पिता आजकल अपने बच्चों को मांसाहार देते हैं ?
हाँ, यह सत्य है | क्योंकि आप लोगों का पूर्वाग्रह (पहले से ही सोच लेना कि हमारी बात सही है) है |
जी हाँ आप लोगों ने मान लिया है एलोपेथी एक उत्तम स्वास्थ पद्धति है और हम उसी को स्वीकारेंगे चाहे उसमें मांस, रक्त और पशुओं को कितना ही कष्ट क्यों ना हो | क्योंकि हमें धर्म से कुछ लेना देना नहीं |
आज गर्भवती स्त्री के लिए सर्वप्रथम एलोपेथी चिकित्सा का प्रबंध किया जाता है और उसमें होता क्या है - गर्भवती को कैल्शियम देने के लिए कैल्शियम की गोली जिसमें पशुओं की हड्डी होती है, गर्भवती को रक्त की पूर्ति हेतु सीरप जिसमें पशुओं का रक्त होता है (जैसे - dexorange आदि) और पशुओं की खाल, नख, चर्बी आदि से बनने वाले कैप्सूल और दवाईयाँ |
तो गर्भ से ही जिस बालक को मांस और रुधिर का सेवन कराया गया वो भला कैसे संस्कारी होगा ? और यदि हुआ भी तो कुछ ना कुछ कुसंस्कार उसमें रहना स्वाभाविक हैं | यही कारण है कि वर्तमान के कुछ युवा धर्म गुरु उपदेश के साथ-साथ भोगों में भी लिप्त पाए गए |
अत: अपने विचार को समय रहते परिवर्तित कर लीजिए अन्यथा लोक-परलोक तो बिगड़ेगा ही उसके साथ-साथ कुल का भी नाश हो जाएगा |
संस्कारविमर्श ७ ( गर्भाधान-संस्कार के बाद गर्भकी संरचना)-
पारस्कर गृह्यसूत्र १काण्ड,१३कण्डिका,१ सूत्र में कहा हैं --- यदि किसी कारणवश पत्नी गर्भ धारण न कर सके तो श्वेतपुष्पोंवाली कण्टकारिका-ओषधि को पुष्य नक्षत्र के साथ चन्द्रयोग होनेपर उपवास करके (उड़िद वा जौ के दानों से निमंत्रण दैकर) जड़ के साथ उखाड़ (किसी की छाया न पड़े इस तरह सफेदवस्त्र में लपैटकर घर) लाकर पुनः पत्नी के रजोदर्शन के चौथे दिन जब वह स्नान करके शुद्ध हो जाय तो रात में पानी के साथ पीसकर उसके रस की दो-चार बूँदे उसकी नाक के दाहिने छिद्र में उपनीतद्विज(अपने कुलाचार्य से अपनीशाखा का मंत्र जानकर) मंत्र पढ़ते हुएँ डालें, अनुपनीत केवल मंत्र के भाव का स्मरण करें - "( सा यदि गर्भं न दधीत सिंह्याः श्वेतपुष्प्या उपोष्य पुष्येण मूलमुत्थाप्य चतुर्थेऽहनि स्नातायां निशायामुदपेषं पिष्ट्वा दक्षिणस्यां नासिकायामासिञ्चति।। "" *मन्त्रः-- इयमोषधी त्रायमाणा सहमाना सरस्वती। अस्या अहं बृहत्याः पुत्रः पितुरिव नामहो जग्रभमिति।।पारस्कर०१/१३/१)"
मंत्र का भावार्थ हैं -- प्रजापति,बृहती,औषधि आदि इस मंत्र के ऋष्यादि हैं , इसका विनियोग ओषधीसेचन में हैं "(ओषध्यासेचने विनियोगः।।) गर्भधारण में बाधक दोषों को हटाकर गुणों का आधान करने वाली यह काष्ठौषधि कष्ट सहन करके भी सेवन करनेवालों की रक्षा करती हैं और दोष के वेगों को नष्ट कर देतीं हैं। अनेक प्रकार के फलदेनेवाली इस वनस्पति की कृपा से जैसे मैं अपने पिता का नाम लेता हूँ, वैसे ही मेरी सन्तान भी मेरा नाम उज्ज्वल करें। गदाधरभाष्यकार ने गर्गपद्धति में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा हैं , कि पत्नी की नाक में यह औषधि ड़ालने के बाद ही पति भोजन करें -- " (ततो भर्त्रा भोजनं कार्यमिति गर्गपद्धतौ।। गदाधरः।।)"
इस प्रकार ओषधिसेचन कर्म के अनन्तर पुनः उक्त मुर्हूतकाल में "गर्भाधान प्रधान रात्रिकालिक क्रियाओं को पुनः पुनः दोहराते हुएँ)" स्त्रीगमन करें।
दैव की प्रेरणा से कर्मानुरोधी शरीर प्राप्त करने के लिये जीव पुरुष के वीर्यकण का आश्रय लेकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता हैं, एकरात्रि में वह शुक्राणु कलल के रूप में पाँच रात्रि में बुदबुद् के रूप में, दसदिन में बैर के समान उसके पश्चात् दमांसपेशियों से युक्त अण्डाकार हो जाता हैं, (आयुर्वेद के ग्रन्थों में कहा हैं कि प्रथम मास में अव्यक्त अर्थात् स्त्रीभ्रूण या पुरुषभ्रूण हैं इसको व्यक्त नहीं कर सकतें, इसलिये इसी मास में स्त्रीत्व अथवा पुंस्त्व की अभिव्यक्ति के लिये पूर्व ही पुंसवन विधि का प्रयोग करें ।। अष्टांग हृदय शारीरस्थान ३७।। पारस्कर गृह्यसूत्र में गदाधर ने भाष्य में हेमाद्री में यम के वचन से भी प्रथममास को माना हैं, पारस्कर-गृह्यसूत्रकार दूसरे ,तीसरे अथवा गर्भ में बच्चा कुछ कुछ हिलने-डुलने लगे तब पुंन्नक्षत्र आदि उचित मुर्हूतों में कहा हैं, इसकी क्रमशः चर्चा अग्रिम पुंसवनसंस्कार के लेख में करेंगे)"
गर्भ के दो मास में बाहु आदि शरीर के सभी अङ्ग, तीसरे मास में नख,सोम,अस्थि,चर्म तथा लिङ्गबोधक चिन्ह उत्पन्न होतें हैं, चौथे मास में रस,रक्त,मांस,मेद,अस्थि,मज्जा और शुक्र -ये सात धातुएँ, (आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अनुसार गर्भ नाना प्रकार की वस्तुओं की इच्छा करता हैं और इसीलिये नारी दो हृदयोंवाली "दौहृदिनी" मानी जाती हैं। तत्कालीन विशिष्ट प्रकार की इच्छा या अभिलाषा का नाम दौहृद या दोहद हैं। उक्त दोहद की इच्छा पूर्ण न होने से गर्भपर बुरा प्रभाव पड़ता हैं।अतः उन दिनों गर्भवती जिन-जिन विहित पदार्थों का उपभोग करना चाहे, यथाशक्ति उपलब्ध कराना चाहिये।)" पाँचवें मास में भूख-प्यास पैदा होती हैं। छठे मास में जरायु में लिपटा हुआ वह जीव विष्ठा,मूत्र के दुर्गन्धयुक्त गड्डे अर्थात् गर्भाशय में सोता हैं। वहाँ गर्भस्थ क्षुधित कृमियों के द्वारा उसके सुकुमार अङ्ग-प्रत्यङ्ग प्रतिक्षण बार-बार काटे जाते हैं, जिससे अत्यधिक क्लेश होने के कारण वह जीव मूर्च्छित हो जाता हैं, माता के द्वारा खाएँ हुएँ षड्रस पदार्थों के अति-उद्वेजक संस्पर्श से उसे समूचे अहं में वेदना होती हैं और जरायु से लिपटा हुआ वह जीव आँतो द्वारा बाहर से ढका रहता हैं (गरुडपुराण सारोद्धार ६/७---११)
सातवें मास में जीव से संयुक्त और आठवे मास में सर्वलक्षण सम्पन्न होता हैं (गर्भोपनिषद् ३)। माता से गर्भ में और गर्भ से माता में ओज का संचार होता रहता हैं। अतः वे दोनों बार-बार म्लान(अप्रसन्न)एवं मुदित(प्रसन्न)होते रहतें हैं और इसीलिये आठवें मास में जन्मा बच्चा अरिष्टयोग से सम्पन्न होता हैं;क्योंकि ओज स्थिर नहीं होता। कौमारभृत्य(बालतन्त्र)का मत हैं कि वह बच्चा "नैर्ऋत्य नामक बालग्रह का भाग होता हैं,इसलिये नहीं जीता, तथापि शीघ्र उक्त ग्रह की शान्ति के लिये शास्त्रविधा से उपाय करना चाहिये - बालतन्त्र में लिखा हैं कि भगवान् रुद्र ने आठवें मासमें जन्में बच्चे नैऋत्य नामक ग्रहको दे दिये थे। अतः इस मास में उक्त बालग्रह के निमित्त सदीप विधापूर्वक भात की बलि देनी चाहिये।
आगे गरुडपुराण में कहा कि - सातवें महिने से भगवान् की कृपासे अपनें सैकड़ो जन्मों के कर्मों को स्मरण करता हुआ वह गर्भस्थ जीव लम्बी श्वास लेता हैं, ऐसी स्थिति में भला उसे कौनसा सुख प्राप्त हो सकता हैं ? माँस-मज्जा आदि सातधातुओं के आवरण में आवृत्त वह ऋषिकल्प जीव भयभीत होकर हाथ जोड़कर विकलवाणी से उन (विष्णु)भगवान् की स्तुति करता हैं। सातवें महीने के आरम्भ से ही सभी जन्मों के कर्मों का ज्ञान हो जानेपर भी गर्भस्थ जीव प्रसूति वायु के द्वारा चालित होकर वह उसी पेट में विष्टा में उत्पन्न अन्य कीड़े की भाँति एक स्थानपर ठहर नहीं पाता। जीव भगवान् की स्तुति करता हैं । मैं लक्ष्मी के पति जगत् के आधार, अशुभ का नाश करनेवाले तथा शरण में आयें हुए जीवों के प्रति वात्सल्य रखनेवाले भगवान् विष्णु की शरण में जाता हूँ। हे नाथ ! आप की माया से मोहित होकर में देह में अहंभाव तथा पुत्र और पत्नी आदि में ममत्व भाव के अभिमान से जन्म-मरण के चक्कर में फँसा हूँ, *मैंने अपने परिजनों के उद्देश्य से शुभ और अशुभ कर्म किये किंतु अब मैं उन कर्मों के कारण अकेला जल रहा हूँ। उन कर्मों के फल भोगनेवाले पुत्र कलत्रादि अलग हो गये #एकाकी_तेन_दह्योऽहं_गतास्ते_फलभोगिनः।।गर्भोपनिषद् ३।। यदि इस गर्भ से निकलकर मैं बाहर आऊं तो फिर आपके चरणों का स्मरण करूँगा और ऐसा (स्वधर्मकर्म आश्रमों का आचरण के)उपाय करूँगा जिससे मुक्ति प्राप्त कर लूँ।*विष्ठा और मूत्र के कुएँ में गिरा हुआ तथा जठराग्नि से जलता हुआ एवं यहाँ से बहार निकलने की इच्छा करता हुआ मैं कब बाहर निकल पाऊँगा ? जिस दिन दयालु परमात्माने मुझे इस प्रकार का विशेष ज्ञान दिया हैं, मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ, जिससे मुझे पुनः संसार के चक्कर में न आना पड़े* अथवा मैं माता के गर्भगृह से कभी भी बाहर जाने की इच्छा नहीं करता। क्योंकि बाहर जानेपर पापकर्मों से पुनः मेरी दुर्गति हो जायेगी इसलिये यहाँ बहुत दुःख की स्थिति में रहकर भी मैं खैद रहित होकर आपके चरणों का आश्रय लेकर संसार से अपना उद्धार कर लूँगा। इस प्रकार की बुद्धिवाले एवं स्मृति करते हुए दस मास के ऋषिकल्प उस जीव को प्रसूति वायु प्रसव के लिये तुरंत नीचे की ओर ढकेलता हैं, कर्मविपाकों से पुनः पुनः जन्म मरण को प्राप्त करने जन्म लेना और मनुष्यत्व को, द्विजत्व को उचितप्रकार के आचरण से सार्थक न करने की मोहवश चेष्टा करतें रहना ही अधोगति हैं, भगवान् आदि शंकराचार्यजी ने भी चर्पटपञ्जरिका में गाया हैं --> "(पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननि जठरे शयनम्। इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे ! )"
प्रसूति मार्ग के द्वारा नीचे सिर करके सहसा गिराया गया वह आतुरजीव अत्यन्त कठिनाई से बाहर निकलता हैं और उस समय वह श्वास नहीं ले पाता हैं तथा उसकी पूर्व स्मृति भी नष्ट हो जाती हैं, पृथ्वीपर विष्टा और मूत्र के बीच गिरा हुआ वह जीव मल में उत्पन्न कीड़ें के भाँति चेष्टा करता हैं और विपरित गति प्राप्त करके ज्ञान नष्ट हो जाने के कारण अत्यधिक रुदन करने लगता हैं। गर्भ में, रुग्णावस्था में , श्मशान भूमि में तथा पुराण के पारायण ज्ञान श्रवण के समय जैसी बुद्धि होती हैं, वह यदि स्थिर हो जाय तो कौन व्यक्ति सांसारिक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता ? कर्मभोग के अनन्तर जीव गर्भ से बाहर आता हैं तब उसी समय "वैष्णवी माया उस को मोहित कर देती हैं -- " (महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा बलादाकृष्य मोहमाय महामाया प्रयच्छति।। मार्कण्डेय पुराण।।)"
उस समय माया के स्पर्श से वह जीव विवश होकर कुछ बोल नहीं पाता, प्रस्तुत शैशवादि अवस्थाओ में होनेवालें दुःखों को पराधीन भाँति भोगता हैं। इस प्रकार गर्भसंरचनादि विषय -- गर्भोपनिषद् , चरक संहिता-शरीरस्थान, सुश्रुत संहिता, गरुडपुराण ,श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में वर्णन प्राप्त होता हैं। गुरुड़पुराण सारोद्धार के अध्याय ६ श्लोक १६ से २९ श्लोकों में जीवस्तुति वर्णित हैं, इस के श्लोंकों का गान सातवें महिने से गर्भवती स्त्री को करना या श्रवण करना चाहिये, यह स्तुति गर्भकाल में तो सही अपितु हम सभी को भी प्रतिदिन मननीय हैं आईएँ उस "जीवस्तुति" का पंद्रह श्लोंको का अंतःकरण से स्तवन करें --->
#गरुडपुराणान्तर्गत_जीवस्तुतिः -
जीव उवाच - श्री पतिं जगदाधारमशुभक्षयकारकम्। व्रजामि शरणं विष्णुं शरणागतवत्सलम्।।त्वन्मायामोहितो देहे तथा पुत्रकलत्रके। अहं ममाभिमानेन गतोऽहं नाथ संसृतिम्।। कृतं परिजनस्यार्थे मया कर्म शुभाशुभम्। एकाकी तेन दग्धोऽहं गतास्ते फलभागिनः।। यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत् समरिष्ये पदं तव। तमुपायं करिष्यामि येन मुक्तिं व्रजाम्यहम्।। विण्मूत्रकूपे पतितो दग्धोऽहं जठराग्निना । इच्छन्नितो विवसितुं कदा निर्यास्यते बहिः।। येनेदृशं मे विज्ञानं दत्तं दीनदयालुना। तमेव शरणं यानि पुनर्मे माऽस्तु संसृतिः।। न च निर्गन्तुमिच्छामि बहिर्गर्भात्कदाचन । यत्र यातस्य मे पापकर्मणा दुर्गतिर्भवेत्।। तस्मादत्र महद्दुःखे स्थितोऽपि विगतक्लमः। उद्धरिष्यामि संसारादात्मानं ते पदाश्रयः।।श्री भगवानुवाच - एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः। सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः।। तेनावसृष्टः सहसा कृत्वाऽवाक्शिर आतुरः। विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छवासो हतस्मृतिः।। पतितो भुवि विण्मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते। रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः।। गर्भे व्याधौ श्मशाने च पुराणे या मतिर्भवेत्। सा यदि स्थिरतां याति को न मुच्येत बन्धनात्।। यदा गर्भाद् बहिर्याति कर्मभोगादनन्तरम्। तदेव वैष्णवी माया मोहयत्येव पूरुषम्।।स तदा माया स्पृष्टो न किञ्चिद्वदतेऽवशः। शैशवादिभवं दुःखं पराधीनतयाऽश्नुते।। गरुडपुराण सारोद्धार ६/१६-२९।।)"
दैवज्ञ वराहमिहिर ने बृहज्जातक में गर्भस्थिति के मास के अधिपति बताये हैं - प्रथम मास का शुक्र, द्वितीय का मंगल, तृतीय का गुरु, चौथे का सूर्य, पाँचवे का चन्द्र, छठे का शनि और बुध होतें हैं। बाद इसके अष्टम मासका गर्भकालिक लग्नेश या माता का जन्मलग्नेश , नवममास का चन्द्र,दशम मास के स्वामी सूर्य होतें हैं। मासों के अधिपति के शुभाशुभत्व से गर्भ के शुभ या अशुभ फल होता हैं। अर्थात् जिस मास का स्वामी बली हो उस मास में गर्भवती को सुख, जिस मास का स्वामी निर्बल हो उस में क्लेश होता हैं ---->> "( क्रमशः सित कुज जीव सूर्य चन्द्रार्कि-बुधाः परतः (सप्तमासतः पश्चात्)उदयपचन्द्रसूर्यनाथाः, गदिताः। शुभाशुभं फलं च मासाधिपतेः सदृशं भवति।। बृहज्जातक ४/१६ टीका।।)"
इसलिये गर्भवती को पीड़ा न हो और गर्भसुरक्षित रहने के आशय से भी ज्योतिष के मार्ग से जिस मासों में मासाधिप बली न होने की संभावना हो उस ग्रह के जप,होम आदि शांत्युपायों को आचरना चाहिये।
और गर्भरक्षण स्तोत्र में कहे एक एक मंत्र से अर्थात् पहिले मास में पहिला दूसरे मास में दूसरे मंत्र आदि से भगवान् विष्णु की यथाधिकार पूजन करके वटपत्रपर भात की बलि देनी चाहिये -
गर्भरक्षणस्तोत्रम्
एह्यहि भगवन् ब्रह्मन् प्रजाकर्तः प्रजापते ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ १॥
अश्विनौ देवदेवेशौ प्रगृह्णीधन् बलिं त्विमम् ।
सापत्यं गर्भिणीं सैमं स रक्षतां पूजयानया ॥ २॥
रुद्रेशा एकादश प्रोक्ताः प्रगृह्णन्तु बलिं त्विमम् ।
यक्षागमप्रीतये वृत्तं नित्यं रक्षन्तु गर्भिणीम् ॥ ३॥
आदित्या द्वादश प्रोक्ताः प्रगृह्णीध्वं बलिं त्विमाम् ।
अस्माकं तेजसां वृद्ध्यै नित्यं रक्षतु गर्भिणीम् ॥ ४॥
विनायक गणाध्यक्ष शिवपुत्र महाबल ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ५ ॥
स्कन्द षण्मुख देवेश पुत्रप्रीतिविवर्धन ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ६॥
प्रभासः प्रभवश्यामः प्रत्यासौ मारुतोऽनलः ।
ध्रुवाधर धराशैव वसवेष्टौ प्रकीर्तितः ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं नित्यं रक्षतु गर्भिणीम् ॥ ७॥
पितृदेवि पितृश्रेष्ठे बहुपुत्रि महाबले ।
बुधश्रेष्ठे निशावासे निवृत्ते शौनकप्रिये ।
प्रगृह्णीष्व बलिं सैमं सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ८॥
रक्ष रक्ष महादेव भक्तानुग्रहकारक ।
पक्षिवाहन गोविन्द सापत्यं रक्ष गर्भिणीम् ॥ ९॥
संस्कारविमर्श ८ (पुंसवन)
अनादि सृष्टि परम्परा के रक्षणहेतु परब्रह्म परमात्मा ने अखिल धर्ममूल वेदों को प्रदान किया हैं। अपौरुषेय वेद "श्रुति" हैं और उनपर आधृत धर्मशास्त्र "स्मृति" हैं। श्रुति-स्मृति-पुराणादि के आलय सर्वज्ञ भगवत्पाद श्री शङ्कराचार्यजी ने श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य के आरम्भ में स्पष्ट किया हैं कि उस भगवान् ने जगत् की सृष्टि कर प्रवृत्तिलक्षण-धर्म का प्रबोध किया और सनक,सनन्दन,सनातन और सनती कुमारों को उत्पन्न करके ज्ञान,वैराग्यप्रधान निवृत्तिलक्षण-धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। ये ही दो वैदिक धर्ममार्ग हैं "( स भगवान् सृष्ट्वा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम्। ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास। द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च । जगतः स्थिति कारणम्...।। गीता शांकरभाष्य )"
वेदों की संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक , उपनिषद् भागों में प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण धर्मों का विशदीकरण द्रष्टव्य हैं। समुचित व्यवस्था के अभाव में यह सृष्टि सम्पन्न नहीं हुईं हैं। सृष्टि के वैविध्य दृष्टि में रखकर धर्माचरण की व्यवस्था की गयी हैं। प्रवृत्तिलक्षण और निवृत्तिलक्षण धर्म एतदर्थ ही हैं। "(धर्मो रक्षति रक्षितः)" का अर्थ यही हैं कि इहलोक और परलोक के अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि के लिये वेदोक्त धर्ममार्ग का अनुसरण करना चाहिये। सब के हित को दृष्टि में रखकर वेदोक्त धर्माचरण के निमित्त हमारे आदरणीय ऋषि-मुनियों ने युगानुरूप अथवा देश,काल के अनुसार स्मृति ग्रन्थों के प्रणयनद्वारा सरल और सुबोध रीति से धर्माचरण-विधान को स्पष्ट किया हैं। श्रुत्यर्थ प्रतिपादक ये ही ग्रन्थ धर्मशास्त्र के ग्रन्थ हैं। पुराणों में भी श्रुति-स्मृतिसारभूततत्त्व निहित हैं।
परमेश्वर ने यह सृष्टि क्यों की हैं और इसका रहस्य क्या हैं ? यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता हैं। मनीषियों ने नाना प्रकार से इस प्रश्न का समाधान किया हैं। शिवानन्दलहरी में कहा गया हैं -- "( छंद शार्दूलविक्रिड़ीत/// क्रीडार्थं सृजसि प्रपञ्चमखिलं - क्रीडामृगास्ते जनाः - यत्कर्माचरितं मया च भवतः - प्रीत्यै भवत्येव तत्। शम्भो स्वस्य कुतूहलस्य करणं - मच्चेष्टितं निश्चित्तं - नित्यं मामकरक्षणं पशुपते - कर्तव्यमेव त्वया।।)" अर्थात् हे शम्भो ! अखिल प्रपञ्च यानी जगत् की सृष्टि, तुम अपनी क्रीडा के लिये करते हो एवं यहाँ के लोग तो तुम्हारी क्रीडा के मृग हैं। मुझ से जो कर्म आचरित हैं, वे तुम्हारी प्रीति के लिये ही हैं। मुझ द्वारा जो किया गया हैं, वह तुम्हारे कुतूहल का साधन हैं। अतएव पशुपते ! मेरी नित्य रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य ही हैं।
जिस सृष्टिकर्ता ने इतनी व्यापक सृष्टि की हैं, क्या वह नहीं जानता कि यहाँ के जीवों को कैसे रखना चाहिये ? इसलिये मनुष्य की सृष्टि उसकी प्रकृति के अनुसार हुई हैं और इहलोक तथा परलोक में श्रेयप्राप्ति की दृष्टि से संस्कारों का विधान निश्चित हुआ हैं।
इन विधानों को कर्तव्य समझना चाहिये। जगत् में जो भी वस्तु हैं , उसका संस्कार उसके सौन्दर्य का अथवा आकर्षण का कारण बनता हैं। प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ मानव संस्कारों से ही समाजयोग्य तथा वर्णों के अधिकृतकर्मों को करने योग्य होता हैं, संस्कारों से उसका आत्मविकास होताहैं और वह लक्ष्यप्राप्ति के पथपर अग्रसर हो सकता हैं। संस्कार माने क्या हैं ? संस्कार तो विहितक्रियाजन्य तथा पापनाशक हैं। स्मृतिकारों ने संस्कार के विषय में कहा हैं "( तत्रात्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। स च द्विविधः, एकस्तावत् कर्मान्तराधिकारेऽनुकूलः, यथोपनयनजन्यो वेदाध्ययनाद्यधिकारापादकः। अपरस्तूत्पन्नदुरितमात्रनाशको यथा बीजगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हणो जातकर्मादिजन्यः।।)" अर्थात् संस्कार तो आत्मशरीररान्यतरनिष्ठ विहितक्रियाजन्य अतिशय हैं। वह दो प्रकार का हैं। एक तो दूसरे कर्मों की योग्यता का हेतु हैं, जैसे - उपनयन आदि से प्राप्त होनेवाला संस्कार वेदों के अध्ययन की योग्यता हेतु हैं। दूसरा, जो पाप प्राप्त होता हैं, उसका नाशक हैं। जैसे - जन्मग्रहण करने से पूर्व गर्भ के कारण समुत्पन्न दुरित को दूर करने के लिये किया जानेवाला जातकर्मादि से प्राप्त होनेवाला संस्कार हैं। शास्त्रग्रन्थों में संस्कार की विशेष आवश्यकता बतायी गयी हैं। संस्कार के अभाव में मनुष्य का जन्म व्यर्थ समझा जाता हैं। कहा गया हैं ---> "(संस्काररहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्)"। गर्भाधानादि चूडाकरण तक के संस्कारों के फल के विषय में बताया हैं कि बैजिकदोष और गार्भिक दोषों का निरासन होता हैं । जो व्यक्ति वेद की जिस शाखा का अपनी कुल परम्परा से अध्ययन करनेवाला हैं, उसका कर्तव्य होता हैं कि वह पहिले अपनी शाखा का अध्ययन करें। अपनी वेद शाखा का अध्ययन किये बिना दूसरी शाखा का अध्ययन करना उचित नहीं हैं। इसी प्रकार जो जिसका शाखा का गृह्यसूत्र ,श्रौतसूत्र आदि हैं उसको उस सूत्र के अनुसार अनुष्ठान भी सर्वथा कर्तव्य हैं --- अङ्गिरा का कथन हैं स्वगृह्यसूत्र में कथित सभी संस्कार यथोक्त रीति से सम्पन्न करने चाहिये,अन्यथा ऐहिकामुष्मिक फल की प्राप्ति नहीं होती " ( स्वे स्वे गृह्ये यथा प्रोक्तास्तथा संस्कृतयोऽखिलाः। कर्तव्या भूतिकामेन नान्यथा सिद्धिमृच्छति।।अङ्गिरा।।)"
ऋषिमुनियों ने स्वशाखासूत्रत्याग को दोष माना हैं, जान-बूझकर अथवा अज्ञान से जो स्वशाखा सूत्र का परित्यागकर कर्माचरण करता हैं, वह उसके फलका भागी न होकर पतित हो जाता हैं --- "( स्वसूत्रोक्तं परित्यज्य यदन्यत् कुरुते द्विजः। अज्ञानादथवा ज्ञानाद् यत्नेन पतितो भवेत्।।) अतः सभी संस्कारों को अपने अपने गोत्र में कही वेद-शाखा सम्बन्धित गृह्यसूत्रों में निर्दिष्ट पद्धति से ही करना हैं।
पूर्व लेखों में गर्भाधान और गर्भाधान के बाद आचरनेयोग्य आचरणों की चर्चा की थी.. गतलेख से आगे....
गर्भ ठहरने के बाद कोई भी दवा(सामान्य से सामान्य भी) लेने से पूर्व आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह ले। पूर्व भी चर्चा की थी कि गर्भावस्था के समय आयुर्वेदिक से भिन्न दवाएँ द्विजों के लिये उचित नहीं, इन्हीं दवाओं से बालकों में कुसंस्कारों का प्रत्यारोपण हो जाता हैं अतः - यन्त्रयुग में "जस्ट डा़यल, गुगल आदि पर " आयुर्वेदिक हॉस्पिटल, स्टोर्स" आदि सर्च करने पर आसानी से अपने स्थानीय प्रदेशों में प्राकृत्तिक चिकित्सक प्राप्त हो जायेंगे। शास्त्रो में तो कहा हैं कि अपने घर पर ही प्रसूति करवाना ही उचित हैं क्योकि चारमास की जबतक संतान नहीं होती तबतक बिना गृहनिष्क्रमण संस्कार किएँ सूर्य आदि के प्रकाश में शिशु को लाना चैतन्यात्मक अंङ्गो तथा आखें कमजोर हो जाती हैं, और पूतनादि बालग्रह नामक ऊपरी उपद्रव बालकों के लिये अनिष्टकर्ता माने गये हैं। जातकर्म संस्कार की चर्चा के बाद इन ऊपद्रवों के उपायों की चर्चा करेंगे। गौशाला में जाकर या व्यैक्तिक रूप से प्रतिदिन गायों की सेवा आदि सपर्या करने से गाय माता की कृपा से संतान सम्बन्धित समस्या दूर होती हैं।
वस्तुतः शास्त्रों में वर्णित स्व स्व वेद-शाखानुसार संस्कारविधा के द्वारा यदि माता-पिता अपने बच्चों को सुसंस्कृत करें तो वह बालक वास्तविक मानव बन सकता हैं। वेदविरुद्ध आचरण होनेपर मानव का मानवधर्म निभाना असम्भव हैं। मनुष्य की मनुष्यता वेदानुकूल आचरण करने में ही सिद्ध होती हैं । योगवासिष्ठ का यह श्लोक इस तथ्य को सम्पुष्टि करता हैं-- "(येषां गुणेष्वसन्तोषो रागो येषां श्रुतं सति। सत्यव्यवसिनो ये च ते नराः पशवोऽपरे।।)"
अतः "आचारहीनं न पुनन्तु वेदाः।।देवी भागवत।।" कहने का आशय यह हैं कि आचारहिन व्यक्ति न पवित्र होते हैं और न पवित्र आचरण करते हैं;क्योंकि "(यन्नवे भाजने लग्न संस्कारो नान्यथा भवेत्)" बाल्यावस्था में जो संस्कार प्राप्त होता हैं वह अमिट होता हैं, परंतु आजकल बालकों को गुरुकुल - आश्रमों में भी सुसंस्कार मिलने धीरे धीरे बंद हो रहे हैं, क्योंकि प्रायः आधुनिक पाश्चात्य पद्धति का वातावरण भी बिगड़ता जा रहा हैं, जो अत्यंत दुःख की बात हैं। आज भी यदि वेद विहित आचरण कराये जायँ तो मानव का अभ्युत्थान होना सुनिश्चित हैं। धन-दौलत बढ़ाने से मानव की अभ्युन्नति नहीं होगी। रावण के पास सोने की लङ्का थी, किंतु संस्कारहीन होने से लङ्का का एवं उसके सम्बन्धियों का विनाश हो गया। उसी परिवार में विभीषण कुसंस्कारी था, अतएव उसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम का सान्निध्य मिला और जब परमप्रभु परमात्मा का सान्निध्य मिल गया तो समझिये कि जीवन कृतकृत्य हो गया तथा प्रभु का अनुग्रह प्राप्त हो गया - सात चिरञ्जीवीयों में आज भी कहीं न कहीं पौलत्स्यकुलतिलक विभिषण विद्यमान हैं, जन्मतिथि के सुअवसर पर मार्कण्डेयपूजन(वर्द्धापन)विधा में आज भी पूजनीय हैं --> "( अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥)"
गर्भाधानातिक्रमण दोष प्रायश्चित्त
हमारे वैदिकसंस्कारों का प्रयोजन हैं पिता के बैजीक और माता के गार्भिक दोषों का निबर्हण । यथा --> "गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौडमौञ्जीनिबन्धनैः। *बैजिकं गार्भिकं* चैनो द्विजानामपमृज्यते।। मनुः २/२७।।"" -- इस कारण से विधापूर्वक गर्भाधान न करने में जितना दोषी पिता हैं उतनी ही दोषी "पति को कर्तव्य का भान न कराने में और स्वैच्छिक जातीयसुख भुगतने में पत्नी भी दोषी हैं, पिता यदि इस कर्तव्य से अज्ञानता के कारण संस्कार विमुख होता हैं तो बैजिकदोष और माता के विमुखता के कारण गार्भिकदोष -- साथ में विधिहिन काम्यप्रवृत्ति केवल जातीयसुख की लिप्सा । इस कारणों से भ्रूण में भी धर्मप्रजा का नहीं अपितु कामप्रजा का विकास होता हैं। (वर्तमान द्विजों का वेदाध्ययनादि कर्तव्यविमूढ़ों के लिये उचित - वेद और वेदव्रतातिक्रमण सहित वेद के अतिक्रमण के चान्द्रायण,ब्रह्मचर्यकर्म लोप के लिये चान्द्रायण और वेदव्रतों के अतिक्रमण के लिये एक,एक यथा चारप्राजापत्य तथा , #गर्भाधानातिक्रमण_के_तीनप्राजापत्य --- कुल ४+३ =७ प्राजापत्य और दो चान्द्रायण।। चतुर्वर्ग चिंता०प्राय०खंड ५२५/५२८/५३१/५०७ पृष्ठेषु।।)
#यह_प्रायश्चित्त_कब_करना_चाहिये ?
सामान्यतः स्त्री की ऋतुकाल षोडश रात्रियाँ होती हैं और जबतक स्त्री जन्मराशि से अनुपचयस्थान में आनेवाले चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि का सम्बन्ध नहीं होगा तथा पुरुष की राशि से उपचयस्थ में चन्द्रमा पर गुरु की दृष्टि सम्बन्ध नहीं होगा तबतक गर्भ ठहर नहीं सकेंगा " *( कुजेन्दुहेतु प्रतिमासमार्तवं गते तु पीडर्क्षमनुष्णदीधितौ। अतोऽन्यथास्थे शुभपुंग्रहेक्षिते नरेण संयोगमुपैति कामिनी बृहज्जातक निषेका०४/१।। /// स्त्रीणां गतोऽनुपचयर्क्षमनुष्णरश्मिः संदृश्यते यदि धरातनयेन तासाम्। गर्भग्रहार्तवमुशन्ति तदा न बन्ध्यावृद्धातुराल्पवयसामपि ।।)"* । इसलिये गर्भाधान संस्कार का प्रारंभिक कर्म यथा ( संस्कार के संकल्प पूर्वक , गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन,मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध गर्भाधानादि होम) केवल प्रथम समय होता हैं। परंतु गर्भाधान की प्रधान क्रिया का महत्त्व तो तब सार्थक होती हैं कि जब जब संतानोत्पत्ति की कामना से पत्नी के साथ संयोग हो और दैवयोगवशात् गर्भ का आधान हो, इस प्रधान गर्भाधान प्रधान-विधा की क्रिया गर्भाधानांग (१ सूर्यावलोकन, २पत्नी की नाभि-अभिमर्शन,४ संयोग(अभिगमन-क्रिया), तथा पत्नी का ५- हृदयावलम्भन के मंत्रो प्रमुख हैं।) इसे प्रति संयोग समय किया जाय।
इस प्रकार से बिना गर्भाधान-संस्कार के संयोग हो जाय तो दूसरे संयोग से पहिले उचित तीनप्राजापत्य प्रायश्चित्त करना चाहिये। पत्नी को आधा प्रायश्चित्त उचित हैं ।
यह भी संभव न हुआ तो पुंसवन संस्कार से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त यथा -- तीन प्राजापत्य के दोगुने छः करना चाहिये,पत्नी को सार्धप्राजापत्य का दोगुना तीनप्राजापत्य करना चाहिये, (कामकृते तद् द्विगुणम्।प्राय०शेखर।।)" //////// "(प्राजापत्य प्रायश्चित्त का पूर्ण पृथक् पृथक् क्रम संभव न हो तो पादकृच्छ्र को चतुर्गुण विधा से करतें हुए भी एक प्राजापत्य पूर्ण होता हैं इस तरह --- द्वितीयादि संयोग से पहिले मूल अथवा असंभवे पुंसवन से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त करना चाहिये।
संस्कारों के क्रम में #पुंसवन-संस्कार द्वितीय संस्कार हैं। गर्भस्थ भ्रूण को सत्त्व या आत्मिक बल से करने के लिये होता आया हैं। इस में चन्द्रमा, ओषधि और पुंञ्सज्ञनक्षत्र का प्रभाव के योग द्वारा माङ्गलिक मन्त्रानुष्ठानों से गर्भस्थ भ्रूण को ऊर्जा और तेज प्रदान करने का सुयत्न होता हैं।
"( पुमान् प्रसूयते येन तत् पुंसवनमिति)" - जिस संस्कार के द्वारा निश्चितरूप से पुत्रोत्पत्ति होती हैं, उसे पुंसवन-संस्कार कहा गया हैं। गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, इसलिये पुंसवन- संस्कार का विधान हैं --> "( गर्भाद् भवेच्च पुंसुते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनात्।। स्मृति संग्रह)"
आयुर्वेद के विद्वान् वाग्भट्ट ने अष्टाङ्ग-हृदय में इसी संस्कार को पुत्री प्राप्ति करने में भी उपयुक्त माना हैं, अतः मूलतः भ्रूण में संस्कारों का उद्धेश्य जो हैं कि - बैजिक एवं गार्भिकदोष की निवृत्ति हो यह आवश्यक होने से -- शिशु के जन्म से पूर्व १-गर्भाधान, २- पुंसवन और ३ सीमन्तोन्नयन संस्कार आदि वीर्य एवं गर्भ से उत्पन्न दोष नष्ट करने के प्रयोजन में और गर्भ के भी संस्कार माने गये हैं। इसलिये प्रत्येक संतानोत्पत्ति के कारणभूत गर्भाधान, प्रतिगर्भ समय पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कार को अवश्य करना चाहिये। "पुंम्" नामक नरक से त्राण करने के कारण ही पुत्र नाम पड़ा। महर्षि मनु ने भी कहा हैं - "( पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते।। मनु ९/१३७)" । पुत्र से लोकों पर विजय और पौत्र से आनन्त्य की प्राप्ति होती हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र १/१४/२ पर गदाधरभाष्य हैं कि - गर्भ के कम्पन से पहिले अर्थात् जब पेट में बच्चा कुछ हिलने डुलने लगे, गर्भधारण के प्रथम, दूसरे या तीसरे महीने में यह संस्कार करवाना चाहिये---> "( पुरा गर्भस्पन्दनात् भवतीति हेतोः शुद्धे द्वितीये वा मासे तृतीये वा मासे गर्भाधानाद्भवति प्रथमे मासे वा पूर्णे भवति द्वितीये वा तृतीये वेति।।)"
भाष्यकार गदाधर ने हेमाद्री में कहे यमवचन को उद्धृत करके भी कहा हैं कि प्रथम,द्वितीय अथवा तृतीय मासों में पुष्यप्रभृति किसी पुरुषनक्षत्र का योग जब चन्द्रमा के साथ हो तब गर्भके संस्कार होने के कारण प्रतिगर्भ रहने के उचित समय पर दोहराया जाय ---> "( प्रथमे मासि द्वितीये वा तृतीये वा यदा पुन्नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यादिति। गर्भसंस्कारत्वात् प्रतिगर्भमावर्तनीयमेतत्।।) इस प्रकार के उचित समय तथा गर्भ के संस्कार विचार को भाष्यकार कर्काचार्य ने भी संपुष्ट किया हैं --" ( गर्भसंस्कार एवायमिति कर्कस्य सम्मतिः। अतस्तद् गर्भसंस्काराद् गर्भं गर्भं प्रयुज्यते।।)"
प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में यदि सम्भव न हो तो केवल संस्कारों का अतिक्रमण न हो इसके लिये भी पारस्कर गृहसूत्र में "पुरा स्पन्दत इति।। १/१४/२।। सूत्र से जब गर्भ कुछ हिलने डुलने लगे तब सीमन्तोन्नयन संस्कार से पूर्व भी करवाना चाहिये इस वचन की पुष्ट्यर्थ भाष्यकार गदाधर ने बृहस्पति के वचन को उद्धृत इस प्रकार से किया हैं - " (एतदेव पुरा गर्भचलनादकृतं यदि। सीमन्तात् प्राक् विधातव्यं स्पन्दितेऽपि बृहस्पतिः।।)"
प्रयोग पारिजात में जातूकर्ण्य का भी वचन इसी प्रकार से ही हैं -"( द्वितीये वा तृतीये वा मासि पुंसवनं भवेत्। व्यक्ते गर्भे भवेत्कार्यं सीमन्तोन्नयन सहाथ वा।।)"
यह संस्कार अष्टांगहृदय के अनुसार गर्भके प्रथममासान्तमें कहा हैं।
"(अव्यक्तः प्रथमेमासि सप्ताहात्कललीभवेत्| गर्भः पुंसवना न्यत्र पूर्वं व्यक्ते: प्रयोजयेत्" अष्टा०ह ३७)"
जिसके पति किसी कारण दूर हो या गर्भाधान के बाद दिवङ्गत हुए हो तो देवर भी पुंसवन संस्कार करवाने में अधिकारी हैं , और यह संस्कार प्रतिगर्भ समय करना चाहिये --> "(कर्त्ता स्याद्देवरस्तस्या यस्याः पत्युरसंभवः| आवर्त्तत इदं कर्म प्रतिगर्भमिति स्थिति:|| बृहदॄचकारिका)"
"(गर्भाधानादि संस्कर्त्ता पतिः श्रेष्ठतमः स्मृतः|| अभावे स्वकुलीनः स्याद्बान्धवोऽन्यत्र गोत्रजः|| ब्राह्मे)" अर्थात् गर्भाधानादिक संस्कार करनेमें पति ही सर्व श्रेष्ठ हैं. परंतु पति उपस्थित न हो तो सभी संस्कार पतिकुल बांधव या गोत्रजको करना चाहिये।
."( मृतो देशान्तरगतो भर्त्ता स्त्री यद्यसंस्कृता| देवरो वा गुरोर्वाऽपि वंश्यो वापि समातरेत्||मदनरत्ने"।)" गर्भाधान के बाद पति का देहांत हुआ हो या देशांतर में हो स्त्रीको पुंसवन-संस्कार न हुए हो तो स्त्रीके देवर, या पतिके कुलगुरु अथवा कुलवंशज द्वारा संस्कार हो सकतें हैं।
हस्त,मूल,श्रवण,पुनर्वसु,मृगशिरा, पुष्य, " (अनूराधान् हविषा वर्धयन्तः)" ऐसी श्रुति होने के कारण अनुराधा पुन्नक्षत्र ही माना गया हैं, इनमेंसे किसी एक रात्रिव्यापक नक्षत्रमें( जो नक्षत्र रात्रिमें चन्द्रोदयके बाद भी हो क्योंकी यह संस्कारका मूलकर्म ओषधि सेचन रात्रिमें हैं( सोम ओषधिनां अधिपतिः) सोम ओषघियोंका स्वामी हैं. इस लिये चन्द्रकी किरणें ओषधिमें सम्मिलित होना प्रभावशाली माना जाता हैं.रिक्ता- ४'८'१४ पर्व और नवमी तिथियों को त्याग करके अन्य तिथिओं में." (मृत्युश्च सौरे स्तनु हानि रिन्दोर्मृतप्रजा पुंसवने बुधस्य| काकी च वन्ध्या भवतीह शुक्रे स्त्री पुत्र लाभो रवि भौम जीवैः" ज्योतिर्निबन्धे वसिष्ठ:)" पुंसवन शनिवारमें करनेसे संकट,सोमवारमें शरीरहानी, बुधवारमें संतानको कष्ट,शुक्रवारमें काकवंध्या,रवि मंगल या गुरुवारमें करनेसे पुत्रलाभ हो ता हैं।
इस मुर्हूतों में जो भी तिथि और नक्षत्र का विचार हुआ हैं वह ओषधि के उपयोग समय रात्रिकाल में होने चाहिये क्योंकि ओषधिसेचन का मुख्य कर्म रात्रिकाल में ही कहा हैं।
यह ओषधिरस ड़ालने का स्व स्व वेद-शाखानुसार मंत्र पुंसवन-संस्कार से पहिले संस्कर्ता अधिकारी को अपनी शाखा के आचार्य से जानकर मुखपाठ कर लेना चाहिये।
#ऋग्वेद की शाखाओं में पुंसवन के साथ अनवलोभन संस्कार का भी साथ में महत्व दीया हैं, यह संस्कार पुंसवन संस्कार का ही अङ्ग माना गया हैं। केवल इतनी ही भिन्न विधा हैं कि ऋग्वेदीयों को " एक यव का दाना और उडिद के दो दानें के साथ गाय के दूध से बने हुएँ दहीं का गर्भिणी प्राशन अर्थात् इन मिश्र द्रव्यों का विधिवत् पुंसवन-पीती हैं। और अनवलोभन संस्कार में प्रजावदाख्य और जीवपुत्रसूक्त द्वय से असगंध,शतावरी आदि की जड़ पीसकर ओषधिकर्म करने के बाद गर्भिणी के हृदय का स्पर्श किया जाता हैं - इस अनवलोभन संस्कार में प्रयुक्त मंत्रो द्वारा भ्रूण को पुंस्त्व की प्राप्ति करवाने के भाव के साथ साथ मृत्वत्सा अर्थात् मरी हुई संतान न हो, दीर्घायु हो और गर्भ के दोष दुर होने की प्रार्थना हैं।
#सामवेद की कौथुमी शाखा में १-मंत्रात्मकपुंसवन और ओषधिसेचनात्मक शृंगाकर्म नामक दो विधियाँ उपलब्ध होती हैं दौनों में से किसी भी एक के अनुसार संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं। मंत्रात्मकपुंसवन में केवल पुंस्त्वप्रतिपादक मंत्र से गर्भिणी की नाभि का स्पर्श करने को कहा हैं और शृंगाकर्म नामक पुंसवन में वटवृक्ष को निमंत्रणपूर्वक कोमलकूँपणों को लाकर इसको पीसकर ओषधि का गर्भिणी की नाक में नस्यकर्म होता हैं।
पारस्कर गृह्य सूत्र में शुक्ल-यजुर्वेद माध्यंदिनी शाखा वाले ब्राह्मणों के लिये जो पुंसवन संस्कार कहा हैं - काण्ड १/कण्डिका १४/सूत्र ३ पर गदाधर के भाष्यनुसार पुंसवन के उचित मुर्हूत के दिन गर्भिणी को स्नान तथा उपवास करवाकर सौम्यवस्त्रों को पहनाकर "( आचार्य की उपस्थिति में मार्गदर्शन अनुसार सपत्नीक यजमान को पूर्वाह्णकाल में नान्दीश्राद्ध तक के सभी कर्मों को पूर्ण करकें) बरगद की डाल में लटकतीं जटाओं को और उसके कोमल पत्तों को पानी में पीसकर ( कुछ समय बाईं करवट सुलाकर छती करवाँकर थोडा़ सिर शैयापर से नीचे हो जिससे ओषधिरस नाक में सरलता से चला जाय) उपदिष्ट " हिरण्यगर्भः०० तथा अद्भ्यः०० इत्यादि मंत्रों को पढ़कर गर्भिणी की दाहिनी नाक मे उस ओषधियुक्तजल की दो-चार बूँदे छोड़ देनी चाहिये (और पत्नी को वह ओषधिरस श्वासलेकर पेट में जाने देना चाहिये) ---- "( गर्भिणीमुपवास्यानाशयित्वा आप्लाव्य स्नापयित्वा महते वाससी परिधाप्य च न्यग्रोधो वटस्तस्यावरोहान् अव अधः रोहन्तीति - तथा तान् शुङ्गान् ऊर्ध्वाङ्कुरान् सन्निधानाद्वटस्यैव चकारः समुच्चये हिरण्यगर्भोद्भ्यःसम्भेृत इत्येताभ्यामृग्भ्याम् """आदि ।।)"
वहाँ पारस्करगृह्यसूत्र १/१४ के "(कुशकण्टकं सोमांशुञ्चैके।।)" इस चौथे सूत्र पर भाष्यकार गदाधर और हरिहर का मन्तव्य एक ही हैं कि - कुछ आचार्यों के मत से बरगद की जटाओं और उसके कोमल पत्तों के साथ कुश की जड़ और सोमलता भी पीसनी चाहिये, इस तरह से चार द्रव्य का मिश्रण होगा ---"( कुशकण्टकं कुशमूलं सोमांशुं =सोमलताखण्डं च पिष्यमाणेषु न्यग्रोधावरोहशुङ्गेषु प्रक्षेप मेत्येकया आचार्याः। अस्मिन्पक्षे द्रव्यचतुष्टयस्य पेषणम् ।।गदाधरः।।)
#अथर्ववेद में पुत्र ही उत्पन्न करनेवाले पुंसवन संस्कार का उल्लेख हुअा हैं | पुंसवन-संस्कार का साङ्गोपाङ्गविधान अपने अपने कुल से प्राप्त वेद-शाखा-सूत्रोंनुसार करना चाहिये औषधीवर्ग भी शाखासूत्रों में भिन्न भिन्नरूप से दिये हैं | पुंसवनौषधी किसी भी प्रकार की ग्रहण करें पर विधान स्ववेदशाखानुसार होना आवश्यक हैं | अथर्ववेद में पुंसवन के लिए जो औषधि उपभोग आती रही हैं उसमें अश्वत्थ(पीपल) के सम्बन्ध में कहा हैं ----> *#शमीमश्वत्थ_आरूढ़स्तत्र_पुंसवनं_कृतम् | #तद्वै_पुत्रस्य_वेदनं_तद्_स्त्रीष्वा_भरामसि ||६/११/१||
शमीवृक्ष(छोंकरा)पर उत्पन्न हुआ पीपल पुंसवन (पुत्रोत्पत्ति) करता हैं इसके लिए स्त्री को इसका स्ववेदविधान से सेवन करवाना चाहिए | विशेषरूप गर्भस्थिति के तीसरे महिने से लेकर सेवन करायें जबकि गर्भ में भ्रूण का लिंग बनता हैं | गर्भ स्थापना के दो महिने तक कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या लिंग होगा | गर्भाधान के पूर्व ही खिलाया जाय तो और भी अच्छा हैं पर पुंसवन-संस्कार के दूसरे वा तीसरे महिने में संस्कार करना अनिवार्य ही हैं, तीसरे महीने के बाद व्यर्थ हैं |
क्योंकि--- बलवान पुरुषार्थ देव को भी लांघ जाता हैं --> #बली_पुरुषकारो_हि_दैवमप्यतिवर्तते || अष्टाङ्ग हृ०||
तत्रैव चरकः --> बलवान कर्म दूसरे निर्बल कर्म को व्यर्थ कर देतें हैं ---> #देवं_पुरुषकारेण_दुर्बलं_ह्युपहन्यते | #दैवेन_चेतरत्कर्म_प्रकृष्टेनोपहन्यते ||
अश्वत्थ का पुंसवन के लिए अथर्ववेद में दूसरे रूप में भी प्रयोग किया गया हैं --> #पुमान्_पुंसः_परिजातोऽश्वत्थः_खदिरादधि ||३/६/१||
खैर(जिससे कत्था बनता हैं) वृक्ष के ऊपर चढ़े हुए पीपल के सेवन से भी उसी प्रकार पुत्र उत्पन्न होता हैं | वैसे पीपल में वाजीकरण गुण तो होता ही हैं |
वाग्भट्ट के अष्टाङ्गहृदय शारीरस्थान प्रथम अध्याय के अनुसार - पुष्य नक्षत्र में सोने, चाँदी या लोहे की पूर्णाङ्गोवाली प्रतिमा बनाकर इसको अग्नि में लालवर्ण करके दूध में बुझाकर इस दूध की एक अञ्जलीमात्रा गर्भिणी पियें ( यह प्रयोग जब रात्रिकाल में मुर्हूत न मिलें तो उचित मुर्हूतवाले दिन में उपयोग कर सकतें हैं) - --> "( पुष्ये पुरुषकं हैमं राजतं वाऽथवाऽऽसम्। कृत्वाऽग्निवर्णं निर्वाप्य क्षीरे तस्याञ्जलिं पिबेत्।। ३८।।)"
दूसरा उपाय - श्वेत दण्डो के अपामार्ग(ऑंगा)को जीवक, ऋषभक,झिण्टी(सैर्यक)- इन चार द्रव्यों को पुष्य नक्षत्र में पानी के साथ अलग-अलग या दो-दो अथवा तीन-तीन या चार-चारों द्रव्यों को एकसाथ पीसकर पियें(इस कर्म को रात्रिकाल में करना चाहिये)--- "(गोरदण्डमपामार्गं जीवकर्षभसैर्यकान्। पिबेत् पुष्येण जले पिष्ट्वानेकद्वित्रिसमस्तशः।।३९।।)
उपाय तीसरा - श्वेत कटेरी के मूल को दूध के साथ पीसकर स्त्री स्वयं ही पुत्र की कामना से अपनी दक्षिण नासा में और कन्या की इच्छा से अपनी वाम नासिका में ड़ालें ---> " ( क्षीरेण श्वेतबृहतीमूलं नासापुटे स्वयम्। पुत्रार्थं दक्षिणे सिञ्चेद्वामे दुहितृ वाञ्च्छया।।४००।। ---" मंत्रो यथा - देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणंगतः।।)"
उपाय चौथा - लक्ष्मणा के मूल को दूध के साथ पीसकर कभी तो मुख से और कभी नासा से पीने पर पुत्र की उत्पत्ति एवं पुत्र की स्थिति होती हैं । उपाय पाँचवाँ - बरगद के कोमल आठ अंकुरों को दूध के साथ पीसकर नासा या मुख से पिये --- "( पयसा लक्ष्मणामूलं पुत्रोत्पादस्थिति प्रदम्। नासयाऽऽस्येन वा पीतं वटशुङ्गाष्टकं तथा।।४१।।)"
जहाँ ओषधि का प्रयोग कहा हो वहाँ रात्रिकाल में ही उपाय करें क्योंकि ओषधि के अधिपति चन्द्रमा हैं। यह पाँचो उपायों पुराणोक्तविधा के अनुसार अनुपवीत , व्रात्यो भी "(देवकी सुत गोविंद") आदि मंत्र से कर सकतें हैं , सभी वेद-शाखाओं में विधा भले ही भिन्न भिन्न दी हो परंतु ओषधिकर्म का ही पुंसवन में महत्व हैं इसलिये विधा अपनी अपनी वेद-शाखा के अनुसार करें पुंसवन की ओषधि भले ही कीसी भी प्रकार की ग्रहण के अपनी शाखा में कहे मन्त्र द्वारा ही संस्कार करें।
इस प्रकार ओषधिकर्म के बाद पारस्कर गृह्यसूत्र में १/१४ ""कूर्मपित्तं चोपस्थे कृत्वा"" आदि पाँचवे सूत्र पर भाष्यकार गदाधर का कथन हैं कि गर्भस्थ शिशु का पिता यदि चाहे कि सन्तान शक्तिशाली हो तो जल सहित मिट्टी के पात्र को पत्नी की गोद में रखकर गर्भाशय का अनामिका से स्पर्श करते हुएँ अथवा गर्भाशय पर दृष्टि स्थिर करकें - विकृति छन्द में निबद्ध "सुपर्ण्णोऽसि" इस मन्त्र को प्रारम्भ कर "(व्विष्णोः क्क्रमोसि० इत्यादि १२/५ - १७)" विष्णुमंत्रों से पहिले तक पढ़े --"(स भर्ता यदि कामयेत अयं गर्भो वीर्यवान् शक्तिमान् भवतु तदा स्त्रिया उपस्थे=उत्सङ्गे अङ्के उदपूर्णं शरावं निधाय=मुक्त्वा विकृत्या=विकृतिच्छन्दस्क्या ऋचा एनं गर्भमभिमन्त्रयते = गर्भिण्या उदरं विकृत्या अनामिकाग्रेण स्पृशन् विलोकयित्वा वा मन्त्रों पठतीत्यर्थः।। अनामिका से स्पर्श या स्थिर दृष्टि से अवलोकन करके भी अभिमन्त्रण क्रिया हो सकती हैं --- "( स्पृशंस्त्वनामिकाग्रेण क्वचिदालोकयन्नपि। अनुमन्त्रणीयं सर्वत्र सदैवमनुमन्त्रयेत्।। कात्यायनः।।) सुपर्णोऽसि गरुक्त्मानित्यारभ्य विष्णुक्रममन्त्रेभ्यः प्राक् पूर्वं यावद्विकृतेः परिमाणमित्यर्थः।।गदाधरः।। कुछ आचार्यों के अनुसार कूर्मपितं के अर्थ में काँसे की कटौरी का उपयोग करतें हैं।
*जिस वेद-शाखा के पुंसवन संस्कार में होम कहा हो वहाँ उन उन शाखावालें को उचित शोभन नामक प्रतिष्ठित अग्नि में पके चावलचरु द्रव्य , घृत आदि से होम करकें ओषधिकर्म-पुंसवन सम्पादित करें ।*
संस्कारविमर्श खंड ९ (सीमन्तोन्नयन )-
शास्त्रविहित सम्यक् क्रियाविशेष को संस्कार कहते हैं। संस्कार के द्वारा शारीरिक तथा मानसिक मलों का अपाकरण होता हैं और उनमें विशिष्ट गुणों का आधान किया जाता हैं। संस्कार के द्वारा मनुष्य के जिन मलों का अपाकरण होता हैं, उनके विषय में भी कुछ विमर्श करना आवश्यक हैं। विभिन्न व्याधियोंका के मूल तथा शारीरिक विकारों को मल कहतें हैं । इन मलों का शोधन संस्कारों से होता हैं । मनुष्य के शारिरीक मल हैं - वसा-चर्बी, २ वीर्य, ३ रक्त, ४ मज्जा, ५ मूत्र, ६ विष्ठा, ७ नेटा, ८ कान का मैल, ९ कफ, १० आँसू, ११ दूषिका-नेत्रमल तथा १२ स्वेद --- ये सभी बारह शारीरिक मल समुचित संस्कारों से हटाये जाते हैं। "(मलते धारयति शारिरीकदोषान् इति मलः)" मल् धातु से अच् प्रत्यय करनेपर मल शब्द निष्पन्न होता हैं। भगवान् मनुने कहा हैं कि दिन में किये गये कर्मों के मल को सायंकालीन सन्ध्यावन्दन संस्कार से निर्मूल करते हैं --"( पश्चिमां तु समासीनो में हन्ति दिवाकृतम्।।मनुः २/१०२।।)"
इन मलों का सम्यक् परिशोधन करने से शारिरीक और मानसिक स्वस्थता के साथ-साथ शारीरिक सुन्दरता भी बढ़ती हैं, । इस प्रकार संस्कारजन्य गुणाधान भी शरीर में होता हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और भी पारिभाषिक मल हैं - "(क्षत्रियस्य मलं भैक्ष्यं ब्राह्मणस्याश्रुतं मलम्।।महाभारत कर्णपर्व ४५/२३।।) अर्थात् क्षात्रोचित कर्मों का परित्याग कर क्षत्रियों द्वारा भिक्षाचरण उनके लिये मल हैं। ब्राह्मणों के द्वारा वेद-शास्त्रों के विपरीत आचरण,म्लेच्छ प्रदत्त शिक्षा जो स्कूल,कॉलेजों इत्यादि है, तथा अपने अध्यापनादि आजीविका के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण की वृत्ति से धनोपार्जन करना उनके लिये मल हैं, संक्षिप्त में कहा जाय तो अनुपवीत,व्रात्यब्राह्मण या शाखारण्डयुक्त जनेऊ से संस्कार होने पर भी जो पुनः संस्कार विधा से स्वशाखीय उपनयन से द्विजत्व को प्राप्त न हुआ भी ब्राह्मण यदि """ ब्राह्मणवृत्ति से अर्थोपार्जन करता हो या विशुद्धब्राह्मण क्षत्रिय,वैश्य अथवा शूद्रों की वृत्ति से अर्थोपार्जन करते हो तो वह "" किसी की वृत्तिहरण का दोषी बनता हैं। जैसे व्रात्य आदि द्विजत्वरहितों को -- "भूर्जकण्टक" की वृत्ति से यथा भजन-कीर्तन आदि से अथोपार्जन करना चाहिये, परंतु आज संस्कारों की गरिमा और वर्णत्वविशेष नियमों के पालन में प्रमाद करने के कारण जिस ब्राह्मण को किसी कारण से द्विजत्व की सिद्धि ही न हुई हो वे भी कर्मकांड,कथाकार, वेदाध्यापन आदि से अर्थोपार्जन कर रहे दिखाई दैते हैं वे सभी ब्राह्मणवृत्तिहरण के दोषी हैं और प्रथम दोष तो व्रात्यता , शाखारण्डता आदि मिलाकर दो या तीन दोष ब्राह्मणवृत्ति में अनधिकारी ब्राह्मण के हैं।
विहिताचार के अनुपालन न करने से ये मल सभी मनुष्यों में होते हैं, जिनका विहित वेद-शाखा के संस्कार तथा आचरणों से अपाकरण करनेपर सत्संस्कार जन्य गुणों का उनमें अतिशयाधान होता हैं। इससे सुस्पष्ट हैं कि विहित संस्कारों से मलापनयन एवं अतिशयाधान दोनों अभीष्ट सिद्ध हैं। इसलिये भगवान् मनुने गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सभी संस्कारों का अवश्य कर्तव्यत्वेन निर्देश किया हैं -- "( निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रर्यस्योदितो विधिः।*मनुः २/१६)"
यह सभी संस्कारो कैसे करने हैं उसपर शास्त्रीय निर्णय दिया हैं कि - गर्भाधानादि समस्त संस्कारों को अपने अपने गोत्र में कहे वेद-शाखा की पद्धति, विधा,मंत्रादि से होने चाहिये अन्यथा शाखारण्ड दोष से कर्मभ्रष्ट हो जाता हैं अर्थात् किया हुआ कर्म न करने के समान बन जाता हैं। परशाखा के उपनयन से भी द्विजत्व प्राप्त नहीं होता इसलिये सर्ववर्णबहिष्कृत कहा हैं अर्थात् "अनुपवीत या व्रात्य की वृत्ति" में रहे, ब्राह्मण की वृत्ति में इन्हों का अधिकार हैं जिसका स्वशाखीयजनेऊ-संस्कार हुआ हो, और प्रथम स्वशाखीय वेदाध्ययन किया हो - "(गर्भाधानादि संस्कारान् शक्ताः कर्त्तुं भुवि द्विजाः। तैर्विना ये प्रवर्तन्ते कर्मभ्रष्टास्त एव हि।। यः स्वशाखां परित्यज्य अन्यशाखामनुस्मरन् । उपनयनादिकं तत्र कुर्वन् विप्रो यदा भवेत्। शाखारण्डः स विज्ञेयः सर्ववर्णबहिष्कृतः।।चतुर्वर्गचिन्तामणी प्रायश्चित्त खंडे गौतमः।।)"
जिस संस्कार में पूर्वोत्तराङ्ग विधापूर्वक स्त्री के केशों को विभाजित करकें उपर की ओर से मूर्धातक सँवारकर उठाया जाता हैं, उसे सीमन्तोन्नयन संस्कार कहा हैं --> "( केशवेशः यस्मिन् कर्मणि उन्नीयते तत् सीमन्तोन्नयनं नामकर्म।।)" इस संस्कार को अधिकतः द्विजों केवल गोदभराई भी कहते हैं, परंतु यह केवल "गोदभराई" नामक क्रियामात्र लोकरूढ़ी-रीवाज हैं, जिसमें कोई शास्त्रीय विधा से संस्कार, होम आदि नहीं होते। कुछेक तो इतने वहमी लोग होतें हैं कि पूछा जाय कि विधिवत् सीमन्तोन्नयन क्यों नहीं करते ? तो आश्चर्यकारक उत्तर सुनने को मिलता हैं कि -- "हमारे कुल-घर में साङ्गोपाङ्ग होम वाली सीमन्न्तोन्नयन पद्धति" नहीं पलती इससे हानी होती हैं। सुनने में थोड़ा अजीब लगता हैं परंतु इतने ही ये लोग इस संस्कार को विधापूर्वक जानने में गरीब होतें हैं। इसलिये सीमन्त-संस्कार का पूर्णज्ञान न होने के कारण मूँहसुनीबातें करते रहकर आचरतें हैं। यह संस्कार घर के किसी कमरे में करेगे तो ऐसा ही होगा , क्योंकि यह संस्कार अग्नि की साक्षी में करने को कहा हैं। कुछ अज्ञानी-पंडितो यजमान की हा में हा मिलाकर घर में यह संस्कार करवाते रहे थे, जिसमें अग्निनारायण के प्रति असावधानी बर्तने के कारण अमंगल होतें ही इन अज्ञानीयों की चपेट में आकर, सविधा सीमन्तोन्नयन हमारे कुल-घर में नहीं पलता कहने लगे। सुनिये ! चार प्रकार के पाकयज्ञ होतें हैं (१) हुत - अर्थात् केवल होम, जैसे सायं प्रातःकालीन होम । २- अहुत - अर्थात् होम और बलि विहित कर्म, जैसे प्रस्तरारोहण। ३- प्रहुत- अर्थात् होम और बलिहरण दौनों; जैसे पक्षादि कर्म। ४- प्राशित - अर्थात् केवल गोष्ठ की सभी गायों के दुग्ध से दूध में पकी भात जिसे पायस कहते हैं इनसे अनेक-ब्राह्मणभोजनादि कर्म --- "( चत्वारः पाकयज्ञाः - हुतोऽहुतः प्रहुतः प्राशित इति ।। पारस्कर गृ०सू० १/४/१।।)" तत्र गदाधरभाष्यम् ---> हुतो होममात्रं,यथा सायंप्रातर्होमः। अहुतो - यत्र न हूयते, यथा स्रस्तरारोहणम्। प्रहुतो - यत्र हुयते बलिहरणं च, यथा पक्षादिः। प्राशितो - यत्र प्राश्यत एव न होमो न बलिहरणं , यथा सर्वासां पयसि पायसं श्रपयित्वा ब्राह्मणान्भोजयेदिति)"
इन पाकयज्ञों में से होमयुक्त कुछ संस्कारों को कहाँ करना चाहिये ? -- पारस्कर गृहसूत्र चौथी कण्डिका प्रथमकाण्ड के दूसरे सूत्र में कहा कि विवाह, चूडाकरण, यज्ञोपवीत, केशान्त तथा सीमन्तोन्नयन - इन पाँच संस्कारों को घर के बहार बने मण्डप में ही अग्नि की स्थापना करके करना चाहिये ---- "( पञ्चसु बहिःशालायां विवाहे चूडाकरण-उपनयने केशान्ते सीमन्तोन्नयन इति।। पारस्क०गृह्य।। १/४/२।।)"
सीमन्तोन्नयन का मुख्य आशय हैं कि - गर्भिणी स्त्री के शरीर का रुधिर जिन्हें प्रिय हैं, ऐसे अमंगलभूत राक्षसीगणों का दूरीकरण करने में समर्थ और सविधा-मंत्रपूर्वक स्त्री के शरीर में सर्वसौभाग्य की कारणभूता महालक्ष्मी (महाशोभा) का समावेशन हो - क्योंकि महालक्ष्मी ही अपने नाथ केशव के साथ मिलकर पालन-पोषण करने में समर्थ हैं -- "( पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव।। दुर्गासप्तशती -प्राधानिक रहस्ये।।)"
साथ में बैजिकदोष ओर गार्भिकदोषों का शमन हो ---- "( पत्न्याः प्रथमजं गर्भमत्तुकामाः सुदुर्भगाः। आयान्ति काश्चिद्राक्षस्यो रुधिराशनतत्परा।। तासां निरसनार्थाय श्रियमावाहयेत् पतिः। सीमन्तकरणी लक्ष्मीस्तामावहति मन्त्रतः।। आश्वालयन।।)" इस प्रकार अमंगलकारिणी अदृश्य शक्तियों से रक्षा के निमित्त भी इस सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व बढ़ जाता हैं। गर्भिणी का गर्भावस्था में संरक्षण एवं दोषोपशमनपूर्वक पुत्रोत्पादन ही इसका महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं।
दूसरा आशय हैं कि - स्त्री के केशों का ललाटदेश से विभाजित करनेपर जो मार्ग निकलता हैं, उस मार्ग प्रदेश को सीमन्त(माँग)कहते हैं। अन्य अवयवों के साथ सीमन्त भी स्त्रीयों के सौन्दर्य का अभिव्यञ्जक हैं। स्त्रियों का सौन्दर्य सौभाग्य से ही बनता हैं। ललाट के मार्गरूपी जो सीधी रेखा -सीमन्त हैं वही संसार का प्रतीक हैं "( सम्यक् सरतीति संसारः।।)" अच्छी तरह आचरण पूर्वक चलने का साधन मार्ग हैं वही संसार हैं।
जो भाग्यमतीयाँ टेड़मेड़ी माँग रखती हैं, उनका संसार कैसा चलता है वे तो वही जानें। आजकल तो पुरुष जैसे कटे बाल फैशन और खानदानी माना जाता हैं जब की जिन स्त्री के पति का निधन हो गया हो उसे ही द्वयङ्गुल बाल कटवाने की आज्ञा दी हैं । संसाररूपी पुरुष को अच्छी तरह चलना माने साधुकर्मों का अनुष्ठान(साधु शब्द का अर्थ बाबा नहीं मत समजिएँ; सज्जन होता हैं सज्जन), साधुकर्म क्या हैं ? - देवपूजन, अतिथिसत्कार, समाजसेवा, निष्ठा से अपने वर्णाश्रमों के कर्तव्यों में परायणता आदि हैं।
इनको पति पत्नी मिलकर करेंगे तो दृढावस्थिति होती हैं। इसी का सूचक हैं सीमन्त। केशों को ललाट के मध्यभाग से दौनों ओर अलग कर सत्त्वगुण मात्र को आश्रयण के संसारमार्ग में चलने को यह सीमन्त सिखलाता हैं।
सीमन्त को धारण करनेवाली पत्नी अपने सीमन्त के द्वारा बोधित करती हैं कि आपने(पति ने) विधापूर्वक सीमन्त संस्कार से विभक्त किये हुएँ तम और रजोरूपी केशों को मैने वेणी के रूप में बन्धन कर लिया, इस प्रकार ही आजिवन सीमन्त(माँग) निकालकर वेणीसदृश केशकलाप करती रहूँगी। आप सत्त्वगुण मात्र को आश्रित रहकर कार्य करायें मैं आप को साथ देती हूँ। अपने में सहभाव भावना स्थिर हो जानेपर अन्यत्र भी वह भावना जागृत रहेगी। इसीलिये सीमन्त-संस्कार किए जाते हैं।
ऋग्वेदीयों के लिये आश्वालयन गृह्यसूत्र १/१४/१ में इस संस्कार को गर्भ से चौथे मास में सम्पन्न करने को कहा हैं , यद्यपि १/१४/३ सूत्र -> "अथाग्निमुप समाधाय "" आदि में "अथ" शब्द का अन्य शास्त्रों में कहे काल को भी नारायणवृत्ति से लक्षित होता हैं वे काल कौन से हैं ? गर्भ से छठे अथवा आठवे मास शास्त्रों में मान्य हैं वह --- > "( चतुर्थे गर्भमासे सीमन्तोन्नयनम्।। १/१४/१।। तथा च -- अथाग्निमुप समाधाय""" आदि ।।१/१४/३ -- तत्र नारायणवृत्तिभाष्यम् - अथ शब्दोऽन्यस्मिन्नपि काले भवतीदं कर्मेति ज्ञापनार्थः। कस्मिन् ? - षष्ठाष्टमयोर्मासयोः, शास्त्रान्तरे चायं कालो विहितः।।)"
वहीं १/१४/२ सूत्र में शुक्लपक्ष और पुन्नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो तब यह संस्कार करना चाहिये। कौनसे काल में ? एक दिन की ६०घटी होती हैं यथा १४४०मिनट अर्थात् २४ घण्टे में से ३० घटीयों में यथा सूर्यास्त से पहिले सम्पूर्ण कर्म को समाप्त करना चाहिये --- "( आपूर्यमाणपक्षे यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमायुक्तः स्यात्।। १/१४/२ ।। नारायणवृत्तिः -> षष्टिघटिकासु मध्ये मध्यत्रिंशद् घटिकासु कुर्यादिति।।)"
तैत्तरीयशाखा के वैखानसगृह्यसूत्र ३प्रश्न ,१२अध्याय,१३वे सूत्र में और बौधायनसूत्र १प्रश्न,१०अध्याय,८वे सूत्र में सीमन्तोन्नयन के बाद आठवें मास में "विष्णुबलि"-नामक संस्कार भी करने को कहा हैं " (विष्णवे बलिरष्टमे मासि ।।बौधायन गृह्यसूत्र।।), ऋग्वेदीय शाकलशाखा वाले भी विष्णुबलि संस्कार को करवातें हैं । जो अपनीशाखा में न कहा गया हो एवं दूसरे की शाखा में कही बात अपनीशाखा के विरुद्ध न हो तो उसको अग्निहोत्र की तरह अपनाना चाहिये, तात्पर्य यह हैं कि जिस प्रकार अग्निहोत्र माध्यन्दिनी शाखा में कहा गया हैं वैसे अन्यशाखा में नहीं। अतः अन्यशाखावाले भी उसका अनुसरण करते हैं। उसी प्रकार अपनी शाखा में जो कर्म अनुरक्त हो एवं वह अपनी शाखा के विरुद्ध न हो , उसे करने में कोई दोष नहीं(जो शाखारण्डकर्म का दोष हैं वह कर्म के प्रारम्भ से लेकर सम्पूर्ण समाप्त्यन्त कर्म स्वशाखा की पद्धति और उचित मन्त्रों से न करने में दोष हैं। परंतु प्रधानहोम आदि क्रिया में नहीं जैसे श्रीसूक्त का होम, पवमानसूक्तादि जप, तैत्तरीयरुद्रहोम को जैसे शाकलशाखा में मान्य माना हैं, सप्तशती आदि पौराणिक होम आदि)अतः अन्यशाखावाले यथेच्छा से करना चाहे तो करवा सकते हैं , परंतु स्वशाखा के आचार्यद्वारा अनुष्ठनीय-पद्धति स्वशाखा की रहेगी केवल होम और विष्णुबलिदान आदि विधा तैत्तरीय शाखा के सुज्ञ आचार्य द्वारा ग्राह्य एवं समार्गदर्शनकरणीय हैं, ----> " (यन्नाम्नातं स्वशाखायां परोक्तमविरोधि यत्। विद्वद्भिस्तदनुष्ठेयमग्निहोत्रादि कर्मवत्।।वीरमित्रोदय।।)"
हमारें ऋषियोंने गर्भवती और गर्भस्थ शिशुका संस्कारके साथ-साथ रक्षण हो इस लिये -" "(मास्यऽष्टमे गर्भस्य कुर्याद्विष्णोर्बलिक्रियाम्||वसिष्ठ।।)" वसिष्ठजी का कहना हैं कि गर्भसे आठवें महिनेमें ही सीमन्त-संस्कारके बाद विष्णुबलि करनेका विधान बताया हैं |दूसरे लाभ हैं कि-" (तथा विष्णुबलिश्चापि सप्तवध्रेषु पुष्टये| प्रतिगर्भं बलिः कार्यः सीमन्तश्च प्रशस्यते ||अकृते च भवेद्दोषः कृते पुष्टिं समृच्छति | गर्भबाधा निवृत्त्यर्थं सुखसूत्यर्थमेव च || महादोषापनुत्त्यर्थं बलिः कार्यो यथा विधि|| आश्वालायन||)" आश्वालायन ऋषिका कहना हैं - गर्भवती और शिशुकी सातों धातुएँ पुष्ट हो,गर्भकी कोई भी बाधा(गर्भस्त्राव,काकवंध्यत्व और मृतवत्सा) दोषोंकी निवृत्ति होकर सुखद प्रसुति होनेमें श्रेयस्कर हैं| जो न करनेसे कईं दोषों और व्याधियाँ हो सकती हैं | इस विष्णुबलिका काल सीमन्तके बाद या सीमन्तके साथ हैं, | "" (द्वितीया सप्तमी चैव द्वादशी च शुभा तिथिः| शुभग्रहोदयाःश्रेष्ठा स्तेषां च दिवसा अपि || पापास्त्र्यायारिगाः श्रेष्ठा नेष्ठाः सर्वेऽष्टमे स्थिताः| श्रवणे चैव रोहिण्यां पुष्ये चैव प्रशस्यते || वीरमित्रदये वसिष्ठः|| )" वसिष्ठ जी का कहना हैं कि विष्णुबलि के लिये- द्वितीया,सप्तमी,द्वादशी और शुभ तिथियाँ ग्राह्य हैं | शुभग्रहके लग्नमें केन्द्र तथा त्रिकोणमें शुभग्रह,३/६/११ वें स्थानोंपर पापग्रह श्रेष्ठ हैं और आठवें स्थानमें सभी ग्रहोंका होना नेष्ठ हैं | शुभवारोंमें(सीमन्तके साथ हों तो गुरुवार) तथा केवल विष्णुबलिमें सोमवार,बुधवार,गुरुवार और शुक्रवार श्रेष्ठ हैं || श्रवण,रोहिणी और पुष्य नक्षत्र विष्णुबलिमें श्रेष्ठ हैं | श्रीधरीय ग्रन्थमें भी कहा हैं कि -" (रोहिण्यां वा वैष्णवे पुर्वपक्षे" द्वादश्यां वा सप्तमे वा तिथौ च || मध्ये वाऽह्नः पूर्वभागेन रात्रौ" विष्णोः पूजां कारयेद्गर्भपुष्ट्यै||श्रीधरीये ||)" शुक्लपक्षकी शुभ तिथियों तथा वसिष्ठ जीके कहानुसार नक्षत्रों, शुभवारों तथा शुभलग्नादिशुद्धि समयमें,मध्याह्नअभिजित् में अथवा सायंसन्ध्याके समयपर गर्भकी पुष्टिके लिये विष्णुबलि विधान कराना गर्भिणी और गर्भस्थ शिशुके लिये लाभान्वित हैं |
#सामवेदीय कौथुमीशाखा के कौथुमगृह्यसूत्र के ९ सूत्र में "(चतुर्थे मासि सीमन्तोन्नयनं कर्तव्यम्।।)" निर्देशकर चौथे मास में सीमन्तोन्नयन को कहा हैं इसी प्रकार सामवेदीय गोभिलगृह्यसूत्र में चौथे,छठे वा अाठवे मास में सीमन्तोन्नयन करना कहा हैं --"( प्रथमगर्भे चतुर्थे मासि षष्ठेऽष्टमे वा।। गोभिल गृह्यसूत्र २ अध्याय ७खंड २सूत्र)"
माध्यन्दिनी शाखावाले #यजुर्वेदीय पारस्करगृह्य सूत्र में सीमन्तोन्नयन संस्कार को गर्भसे छठे अथवा आठवे मासमें करने को कहा हैं -- "( प्रथमगर्भे मासे षष्ठेऽष्टमे वा।। पार०गृ १/१५/३।।)" उसपर गदाधर और हरिहर के भाष्य में कहा हैं कि यह संस्कार प्रथमगर्भ के समय ही करना चाहिये, "( प्रथमगर्भे आद्यगर्भे भवति।। गदाधरः।। आद्यगर्भे गर्भाधानप्रभृति षष्ठेऽष्टमे वा मासे नियमेन कुर्यात्।। हरिहरः।।)" अन्य कोई आचार्यों इस संस्कार को दूसरे गर्भसमय में भी करने को कहते हैं परंतु वह मान्य नहीं क्योंकि गदाधरभाष्यकार ने हारीत का वचन उद्धृत करके अपने भाष्य में कहा हैं कि प्रथमगर्भ समय एकवार किये हुए सीमन्न्तोन्नयन संस्कारों से दूसरे अन्य जो जो गर्भ प्रसूत होतें हैं वे सभी सीमन्तोन्नयन संस्कार से संस्कृत हो जाते हैं , इसलिये संस्कारलोप का संशय नहीं रहना चाहिये --"( सकृत्तु कृतसंस्काराः सीमन्तेन द्विजातयः। यं यं गर्भं प्रसूयेत स सर्वः संस्कृतो भवेत्।। हारीतवचनादाद्यगर्भे संस्कारे कृते सर्वगर्भाणां संस्कार इति न संस्कारलोपः।।गदाधरः।।) /////"(सकृच्च संस्कृता नारी सर्वगर्भेषु संस्कृता|| देवलः|| एकबार सींमतसंस्कार हुई नारी सर्वगर्भमें संस्कारित होती हैं. इस लिए दूसरे अन्य गर्भकालमें सीमंत करनेकी आवश्यक्ता नहीं "एतच्च सकृदेव कार्यमिति विज्ञानेश्वरः" ऐसा विज्ञानेश्वर का मत हैं। परंतु यदि सीमन्तोन्नयन से पहिले अधूरे मास में प्रसूति हो जाय तो जन्मेहुएँ बालकों को माता गोद में रखकर पुनः विधिवत् सीमन्त-संस्कार को करना चाहिये --> "( स्त्री यदाऽकृतसीमान्ता प्रसवेत्तु कथञ्चन। गृहीतपुत्रा विधिवत्पुनः संस्कारमर्हति।।सत्यव्रत।।)" तथा च --> "(यदि सिमन्ततः पूर्वे प्रसूता चेतु भामिनी||तदानीं पेटकेगर्भं स्थाप्य संस्कार माचरेत्||गार्ग्ये||)"
धर्मशास्त्रीय मुर्हूत निर्णय -->
"(गर्भलम्भनमारभ्य यावन्न प्रसवस्तदा|कार्ष्णार्जिनिः)" गर्भधारण से लेकर प्रसव न हुआ हो उनसे पहले भी सीमंत किया जा सकता हैं ऐसा कृष्णार्जिनि शंखका वचन हैं।"
"(अरिक्ता पर्वदि वसे कुजजीवार्कवासरे|ज्योतिर्निबन्धे नारदः)" रिक्ता तिथियाँ- चौथ अष्टमी तथा चतुर्दशी तथा पर्वों को छोडकर मंगल गुरु तथा रविवार को सीमंत करना श्रेष्ठ हैं. पुंसवन अनवलोभन तथा सीमंत साथ में करना हो तो पुंसवन संस्कारमें कहें हुए नक्षत्रमें हि करना श्रेयस्कर हैं.
"(चतुर्दशी चतुर्थी च अष्टमी नवमी तथा षष्ठी च द्वादशी चैव पक्षछिद्राह्वया स्मृताः| क्रमादेतासु तिथिषु वर्जनायाश्च नाडिकाः| भूताष्ट मनु तत्वाङ्क दश शेषास्तु शोभनाः|कालनिर्णये वसिष्ठ)" चतुर्दशी की पाँच, चतुर्थी की आठ,अष्टमीकी चौदह, नवमीकी २५. छठकी नौ, द्वादशीकी दश घडीओं का त्याग करके शेष घडी सीमंतमें शुभ हैं ऐसा वसिष्ठजीका मत हैं. "
"(शुभसंस्थे निशानाथे चतुर्थी च चतुर्दशीम् | पौर्णमासीं प्रशंसंति केचित्सीमंतकर्मणि||कालनिर्णय)" गर्भिणीका चंद्र शुभ हो तो सीमंतमें चतुर्थी चतुर्दशी और पूर्णिमा भी प्रशंसनीय हैं.
"" (पूर्वपक्षः शुभः प्रोक्तः कृष्णश्चान्त्यत्रिकं विना|| चतुर्दशी चतुर्थी च शुक्लपक्षे शुभप्रदे||बृहस्पतिः||)"बृहस्पति कहतें हैं कि सीमंतमें शुक्लपक्ष शुभ हैं और अन्तिम तीन तीथीयों१३-१४-३०को त्यागकर कृष्णपक्षभी शुभ हैं.चतुर्दशी और चतुर्थी शुक्लपक्ष में शुभ हैं।
" (विप्रक्षत्रिययोः कुर्याद्दिवा सीमन्तकर्म तत् |वैश्यशूद्रकयोरेतद्दिवा निश्यपि केचन||नारदः||)" नारदजी कहतें हैं कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों का सीमंत दिनमें करना चाहिये.वैश्य और शुद्रों का सीमंत रात और दिनमेंभी हो सकता हैं।
(प्रायः सभी वेद-शाखाओं के सीमन्त-संस्कार के प्रारम्भिक संस्काराङ्ग कर्म इस तरह से हैं - प्रातःनित्यकर्मों से निवृत्त होकर अपनी अपनी वेदशाखा की पद्धति के अनुसार सुज्ञ कर्मठ आचार्य को सत्कार पूर्वक निमन्त्रण देकर उनके मार्गदर्शनानुसार घर के बाहरी मण्डप में गर्भिणीपत्नी और पति " सीमन्तोन्नयन संस्कार का संकल्प कर , गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन (इस संस्कार में पुण्याहवाचन के कर्मांग देवता धाता हैं), मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध , ब्राह्मण वरण तथा होमस्थंडिल के संस्कार करकें "मङ्गल नामकाग्नि" का स्थापन करें , देवताओं के लिए आहुतिपरिग्रह हेतु अन्वाधान के बाद कुशकण्डिका विधा से अपनी अपनी शाखा के अनुसार स्थालीपाक को पकायें और आज्यभाग तक की आहुतियाँ देवें )"
#शुक्ल_यजुर्वेदीय माध्यंदिनी शाखा के अनुसार तिल और मूँग मिला हुआ चावल होम की अग्नि में पकाकर आज्यभाग की आहुतियों के बाद इन पके हुए तिल,मूँग मिश्र चावल से "(ग्रासार्धंचरुमानं स्यात्।। शाकल्यप्रमाण)-- के अनुसार आधेग्रास की मात्रा में यजमान पुरुष " प्रजापतिदेवता" के लिए आहुति देकर बची हुई चावल में से दूसरी आहुति स्विष्टकृत् अग्नि के लिए दे , नव प्रायश्चित्त की घृताहुतियों देकर प्रोक्षणी पात्र में से संस्रव (होम से स्रुवे में बचे हुए घृत का त्याग किया संपात) का प्राशन कर , वेदी की अग्नि के पश्चिम तथा पति की दाहिनी ओर गोबर से लीपें भद्रपीठ-आसन पर पत्नी के बैठजाने पर , (१)गुलर के दो कच्चे फलों वाले एक डंठल,(२) तीन कुशा , (३)तीन जगह सफेद हो ऐसे साही(वन्यपशु)के काँटे, (४)पीपल की एक कील जिसे वीरतरशंकु कहा जाता हैं और (५)सूत्रकर्तन करनेका लोहधातु का साधन -- इन पाँचो वस्तुओं को एक साथ मिलाकर एक बार में ही पति स्त्री के सिर के बालों को ललाट से आरम्भकर मूर्धातक सिर के दोनोंबाजू विभक्त करतें हुएँ व्याहृतीत्रय मन्त्र का उच्चारण करते हुए ऊपर की ओर माँग संभाल दे ।। पारस्कर गृह्यसूत्र १/१५/४।। अथवा एकैक तीनों व्याहृतियों को अलग अलग उच्चारण करते हुए जिसे शास्त्रीय सीमन्तोन्नयन कहा हैं इसी क्रिया को तीन बार करें।। पारस्कर गृहसूत्र १/१५/५।।
फिर गूलर के पाच फलों की बनी वेणी को पत्नी के वेणीसदृश बालों में तीन गाँठ देकर "अयमूर्जा "" आदि मन्त्र से बाँध दे ,, ।।पारस्कर गृह्यसूत्र १/१५/६।।
मन्त्रार्थ हैं - हे सुकेशी ! जिस वृक्ष के यह फल हैं यह वृक्ष शक्तिशाली हैं , इसकी फलों से लदी हैं; इसी की तरह तुम भी फलवती बनो - अर्थात् बहुपुत्रा हो --"( हे सीमन्तिनी ! यतोऽयमूर्जावान् वृक्ष इति शेषः , अस्य चोर्जावतो वृक्षस्योर्जीव सफलशाखेव फलिनी भव।।)"
वेणीबन्धन के बाद पति वीणागान करनेवाले दो पुरुषों से राजा या अपने वर्णसमर्थवीर पुरुष के विषय में गाथा गाने को कहे। गाथागान करवाना गर्भिणी तथा गर्भस्थ शिशु की प्रसन्नता हेतु हैं --- "( वीणागाथिनौ राजानं सङ्गायेतां यो वाऽप्यन्यो वीरतर इति।। पारस्कर गृ०सू० १/१५/७।।)"
कुछ पूर्वाचार्यों के अनुसार वेदोक्त सोम "" प्रभृति मन्त्रगाथा ही गानी चाहिए। गाथा के अन्त में गर्भिणीस्त्री को जिस नदी के समीप हो , उसका प्रथमान्तविभक्ति में नाम ले लेना चाहिये --"( नियुक्तामप्येके गाथामुपोदाहरन्ति , सोम """ आदि ,,,, यां नदीमुपावसिता भवति तस्या नाम गृह्णाति।।। पारस्कर गृ०सू० १/१५/८।।)" मन्त्रार्थ हैं - हे नदियों ! चन्द्रमा हमारा स्वामी हैं और तुम स्वयं सोमरूपा हो, इसीलिए तुम्हारे अविमुक्त चक्रतट पर ये मानवी प्रजाएँ बसी हुईं हैं, अतः तुम हमारी रक्षा करो ।
"( बाद में जो भी कुलाचार वृद्धाचार या देशाचार हो तदनुसार घर में गोदभराई रीवाज, रक्षापोटलीविधान आदि पूर्ण करे ,,, सीमन्तोन्नयन में केवल रूढी़-रीवाज ही प्रधान नहीं हैं वह इस संस्कार का अङ्गमात्र हैं , प्रधान संस्कारकर्म तो शास्त्रोक्त विधा अपनी शाखा के होम पूर्वक गर्भिणी की माँग को निकालना आदि हैं)
ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर सगोत्रीयब्राह्मणों के भोजन करवाएँ --- सीमन्तोन्नयन " ब्राह्मणभोजन के विषय में गदाधरभाष्यकार ने पराशरमाधवीय में धौम्य के वचन उद्धृत करके निर्देश किया हैं कि यज्ञोपवीत के समय ब्रह्मोदनभोजन, सोमयागका भोजन, सीमन्तोन्नयन का भोजन , जातकर्म-संस्कार का भोजन नवश्राद्ध में भोजन करने से चान्द्रायण करना चाहिये, वहाँ भाष्यकार गदाधर ने मुरारिमिश्र नामक पूर्वाचार्यों के वचन से कहा हैं कि पारस्कर गृह्यसूत्र १/१५/९ सूत्र में "(ततो ब्राह्मण भोजनम्।।)" जो कहा हैं वह कर्माङ्गब्राह्मण भोजन के विषय में कहा हैं, न कि इष्टजन-कुटुम्बीयों के विषय में कहा हैं ---"( अत्र भोजनं प्रायश्चित्तमुक्तं पराशरमाधवीये धौम्येन -- ब्रह्मौदने च सोमे च सीमन्तोन्नयने तथा। जातकर्म नवश्राद्धे भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। इदं च कर्माङ्गब्राह्मणभोजनविषयं न त्विष्टकुटुम्बादिभोजनविषयमिति मुरारिमिश्राः।।)" इस पर चतुर्वर्गचिन्तामणि प्रायश्चित्त खंड में स्मृतिकार देवल ने विशेष कहा हैं -- > चूडाकरण और सीमन्त-संस्कार में संस्कार की समाप्ति "(वीणागाथा)" कर्मसमाप्ति संकल्प से ४८ मिनट अर्थात् मुर्हूत के बाद भोजन करें तो दोष बताया हैं कि सुरापानतुल्य हैं, श्रेष्ठपुरुषों को इच्छना नहीं चाहिये। सीमन्त , पुंसवन और चौलकर्म में जो भी असगोत्री ( यजमान के गोत्र से भिन्न जनों) को ही भोजन करने से यह दोष लगता हैं -- "( चौल कर्मणि सीमन्ते मुर्हूताद् भोजनं परम्। सुरापानसमं प्रोक्तं अतो नेच्छन्ति सूरयः।।देवलः।।)" इस विषय पर मार्कण्डेय जी का कहना हैं कि कर्मसमाप्ति के एक मुर्हूत के बाद भोजन करनेमें तप्तकृच्छ्र, और मुर्हूत से पहिले सहस्रगायत्री का विधिपूर्वक जप ब्राह्मण को करना चाहिये , असगोत्रीय स्त्रीयों को आधा , यती और ब्रह्मचारीयों को चान्द्रायण प्रायश्चित्त करना चाहिये --> "( सुमुर्हूतात् परं तप्तं तत् पूर्वं वेदमातरम्। जप्ता शुद्धिमवाप्नोति सहस्रं विधिपूर्वकम्। मार्कण्डेय।। स्त्रीणामर्धं यतीनां च व्रतीनां चान्द्रमुच्यते।। हेमाद्री।।)" जहाँ प्रायश्चित्त में गायत्री का जप कहा हो वहाँ स्त्रीयों को "क्लीं(प्रणव)लगाकर , अनुपवीतीयों को " ह्रीं" (प्रणव) लगाकर पुराणोक्त गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये ---> "(क्लीं अथवा ह्रीं -- यो देवः सविताऽस्माकं मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः। प्रचोदयति तद्भर्गं वरेण्यं समुपास्महे।।)"
#सामवेदीय कौथुमी शाखा - सुबोधिनी पद्धति के अनुसार -प्रातःकाल उत्तराग्र बीछाये कुशासन पर गर्भिणी को बीठाकर तीन घड़े जल से सशिरस्क स्नान कराये, गर्भिणी और पति मण्डप में बैठ कर अपनी शाखा के सुज्ञ आचार्य के मार्गदर्शन के अनुसार सीमन्तोन्नयन के अग्निस्थापन और व्याहृतिहोम तक के पूर्वाङ्ग कृत्यों को सम्पादित करने के बाद उसी अग्नि पर तिलमिश्रचावल पकाएँ इसे कृसर कहा जाता हैं।
गोभिल गृह्यसूत्र २/ ७ के अनुसार - अग्नि के पश्चिमभाग में बिछाये हुए पूर्वाभिमुखी गर्भिणी को बिठाकर , पति भी गर्भिणी के पीछे रहे। अनन्तर उदुम्बरफलों का गुच्छा उस गर्भिणी के अञ्चल में या शरीर के जिस किसी बान्धने योग्य कटि के ऊपर अङ्ग में बान्ध देवे, बांधते समय "अयमूर्जावतो वृक्ष०आदि मन्त्र को पढ़े। उसके पश्चात् सूखे हुए समूलकुशकी झुड़ी से गर्भिणी की माँग अर्थात् सिर से मूर्धातक बालों को विभक्त करके सीमन्तोन्नयन करे, इस समय क्रम से अलग अलग तीनों व्याहृतिमन्त्र पढ़े। फिर जिससे बाण तैयार होता हैं वह शर नामक काष्ठकी लकड़ी से " येनादिते०आदि मन्त्र को पढ़कर यही क्रिया अर्थात् सीमन्तोन्नयन करें । बाद में सूत्रकाँतने की लोह के साधन से "राकामहम्००आदि मन्त्र को पढकर सीमन्तोन्नयन करे तदुपरांत स्याही(वन्यपशु)के काँटे में तीन स्थानपर श्वेत हो ऐसे काँटे से " यास्ते राके सुमतय००आदि मन्त्र को पढकर केशों को ऊपर उठादेवें । पहिले अग्निपर पके तिलमिश्रचावल में घृत ड़ालकर गर्भिणी को दिखाएँ और दैखते समय उसे पति पूछे कि " तुम इसमें क्या देखती हो ? "( किं पश्यसि ? )" /// प्रत्युत्तर में गर्भिणी बोले कि " ( प्रजां, पशून्, सौभाग्यं मह्यं दीर्घायुष्ट्वं पत्युः।।)" । अनन्तर उस दिन गर्भिणी वही चावल का भोजन करें, और भोजन करते समय ब्राह्मणीस्त्रीयाँ -- गर्भिणी को "वीर प्रसविनी होओ" "( वीरसूस्त्वं भव// जीवसूस्त्वं भव// जीवपत्नीभव।।)" इत्यादि मङ्गसूचक वाक्यों से ईश्वर-प्रार्थना करे ,वीणावादन से सामगान हो, बाद में अग्नि का उत्तरकर्म व्याहृतिहोम आदि पूर्ण करना चाहिये।।
#ऋग्वेदीय शाकल एवं आश्वालयन शाखा के अनुसार ,,, अपनी शाखा के आचार्य को निमंत्रण देकर उनके मार्गदर्शनानुसार घर के बाहरी मण्डप में अपनी शाखापद्धिति से सीमन्तोन्नयन का संकल्प , नान्दीश्राद्ध,कौतुकबन्धन, ब्राह्मणवरण और संस्कृत स्थंडिल पर "मंगलनामक अग्नि को प्रतिष्ठित" करके अन्वाधान करने बाद परिसमुहनादि करके कुशकण्डिका विधि से अग्नि की पश्चिम में और अपनी दाहिनी बाजू जमीनपर लाल बलीवर्द के चमड़े को यथाविधि बिछाकर ( अलाभे कुशासन को बिछाकर)इसी आसन पर गर्भिणी को बिठायें,आवश्यक यज्ञीयपात्रों को रखकर घी के संस्कारों के करके समित् - होम और आधारचक्षुषी आहुतिद्वय दे। पत्नी के दाये हाथ से स्पर्श कीए पति को अपने हाथ से स्रुवे द्वारा -- आश्वालायन गृह्यसूत्र में कहे " धाता ददातु०० और "धाता प्रजाना००" आदि पृथक् मन्त्रों से "(धाता के लिये कुल दो आहुतियाँ ), "राकामंह००" और "यास्ते राके ०० " आदि पृथक् मन्त्रोंसे (राका देवता के लिये कुल दो आहुतियाँ), "१- नेजमेष०० ", २-यथेयं पृथिवी००" ३- विष्णोः श्रेष्ठेन००" आदि पृथक् तीनों मन्त्रों से (विष्णु के लिये कुल तीन आहुतियाँ), प्रजापते नत्वदेता० आदि मन्त्र से प्रजापति के लिए एक आहुति -- सब मिलाकर कुल आठों आहुतियाँ घृत की दे -----> "( अथाग्निमुपसमाधाय पश्चादस्याऽऽनडुहंचर्माऽऽस्तीर्य प्राग्ग्रीवमुत्तरलोम तस्मिन्नुपविष्टायां समन्वारब्धायां धाता ददातु दाशुषे इति द्वाभ्यां राका महमिति द्वाभ्यां नेजमेष प्रजापते न्यन्य इति च।। आश्वालयन गृह्यसूत्र अध्या०१ , खंड १४ , सूत्र ३।।)"
आनडुहचर्म पर पूर्वाभिमुखी बैठी हुईं गर्भिणी के पीछे पति पूर्वाभिमुख होकर दो गूलरफल के गुच्छ, स्याही(वन्यपशु का)तीन जगहों में सफेद हो ऐसा काँटा और तीन कुशोंकी झुडी़ -- इन सब को साथमें दाहिने हाथ से पकड़कर इन्हों की मूलभाग से " व्याहृति तीनों का " वारं वार उच्चारण करते हुएँ गर्भिणी के ललाट से आरम्भकर मूर्धातक माँग निकालते हुए सीमन्तोन्नयन करें - इस क्रिया तीन या चार वार करें --> ( अथास्यै युग्मेन शलाटुग्ल्प्सेन च शलल्या त्रिभिश्च कुशपिञ्जुलैरूर्ध्वं सीमन्तं व्यूहति " सप्रणव भूर्भुवःस्वरोम्" इति त्रिः।। चतुर्वा ।। आश्वालायन गृह्यसूत्र १/१४/४-५।।)"
बाद में गूलरफल और भिगोएँ हुए गेहूँ में धागा परौकर बनाई हुईं माला गर्भिणी को पहनाएँ -- "( यथाचारं सगोधूमामौदुम्बरफलमालां तत् कण्ठे निधाय ।। प्रयोगरत्न।।)"
वीणाबजाने वाले दो सामवेदी द्विज को सोम और राजा के यशोगान की गाथा गाने को कहे। वीणावादन के साथ सामगान ही करवाना चाहिये । मन्त्र के अन्त में समीपस्थ नदी का नामोच्चारण करें।
स्विष्टकृदादि शेष प्रायश्चित्त होम को समाप्त करें, और जो भी सुवासिनी, संतान वाली स्त्रीयाँ , वृद्धाएँ -- रूढ़ी को कहे तदनुसार घर में गोदभराई करें -- "( ब्राह्मण्यश्च वृद्धा जीवपत्यो जीवप्रजा यद् उपदिशेयुस्तत्तत् कुर्युः।। आश्वा०गृह्य १/१४/८।।)"
#विष्णुबलि-संस्कार --> गर्भ से आठवे मास में , जो पहिले कहा जा चूका हैं तदनुसार मुर्हूत में विष्णुबलि का संकल्प करने के बाद पूर्वाङ्ग कर्मों को शाखा पद्धति के अनुसार सम्पादित करके संस्कारित स्थंडिलपर "नारायण नामाग्नि" का स्थापन करें, अन्वाधान हो जाने के बाद कुशकण्डिका रिति से अग्निपर तण्डुलचरु को पकायें, आज्यभागान्तं कर्म करके अग्नि की दाहिनी बाजू गोबर से लिंपी हुईं वेदिका पर अक्षत से अष्टदल अथवा स्वतिक मण्डल की आकृति रचकर , उसपर पूर्णपात्र कलशका स्थापन कर ,, पूर्णपात्र पर विष्णु का आवाहन कर षोडशोपचार या यथा सम्भव पूजा करें, तदुपरांत वापस अग्नि के पश्चिम में बैठ कर पत्नी के हाथ से अपने दाहिने हाथ का वारंवार स्पर्श करते हुए अवदानधर्म(यथा दाहिने हाथ को उलटाकर अँगूठे और तर्जनी के मध्यपर्व पर आएँ इतना चरु )स्रुची में लेकर दौनों हाथ से स्रुची को पकड़कर (पाणिद्वयेन होतव्यो पाणिरेकोनिरर्थकः।।) " तैत्तरीयशाखा के सुज्ञ पंडितजी के द्वारा मन्त्रोच्चार यथा - - "अतो देवा०० आदि" विष्णुबलि होमोपयुक्त ६४ मन्त्रों के अन्त में स्वाहाकार से प्रज्वलित अग्नि में आहुतियाँ दे । प्रत्येक आहुति के अन्त में पतिपत्नी "विष्णवे इदं न मम" या "इदं विष्णवे न मम" का स्वशाखा की त्यागोच्चारण पद्धति से त्यागवाक्यों का उच्चार करें । फिर अग्नि के ईशानकोण में सफेदचूर्ण द्वारा ३२ अंगुल के ६४ पदों (कोष्ठक)वाले समचतुरस्र बलिमण्डल की रचना करें, उसमें भलीँ प्रकार से ४/४ अंगुल समचतुरस्र के ६४ पद बनेंगे। उस मण्डल की बाहरी सीमा की ईशानकोण से आरम्भ कर प्रदक्षिणवत् होमशेष चरु से होम में उचित मन्त्रों को पढ़कर स्वाहान्त पद सहित एक एक कोष्ठ में छते हाथ से बलिप्रदान करें , अन्त में "विष्णव इदं न मम" या "इदं विष्णवे न मम" ऐसा उच्चार करें। उस मण्डल के बराबर मध्यभाग में नारायणाष्टाक्षर मन्त्र से बलि देकर त्यागोच्चारण पूर्ववत् करके, इन अष्टाक्षरी मन्त्र से अर्घ्य देकर , बलिशेष जो चरु रहे उनमें से दो पिंड बनायें उसे अलग अलग लेकर पति पत्नी दोनों भक्षण करें, आचमन करके स्विष्टकृदादि शेष होम को पूर्ण करें, इस विष्णुबलि का महत्व प्रत्येकगर्भ समय करना उचित हैं।। प्रयोगरत्न।।
सीमन्तोन्नयन से पहिले के गर्भाधान और पुंसवन संस्कार विधिवत् न किये हो तो उचित प्रायश्चित्त करके ही सीमन्तोन्नयन-संस्कार को करें।
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