यज्ञोपवीतम्
षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्) खंड ११०~ हिन्दूजातिका सनातन इतिहास "शिखा" और "सूत्र" का इतिहास हैं | सभ्यताके संघर्षकालमें हिन्दूजाति और संस्कृति इन्हीं पावन प्रतीकोंके साथ पली-बढी | विधर्मियोंने सर्वदा अपने आक्रमणोंका लक्ष्य शिखा-सूत्रको ही बनाया; किंतु प्राणोंका भी उत्सर्ग कर हिन्दूजातिने इसे नहीं छोडा़ और दृढतासे बचाये रखा |
यज्ञोपवीतसंस्कार षोडशसंस्कारके अन्तर्गत दशवाँ संस्कार हैं और वेदोक्त वर्णाश्रमव्यवस्था और वैदिक सनातनधर्म की आधारशिला हैं | वेद विश्वका अति प्राचिन एवं आत्मविषयक गूढ़ रहस्योंसे भरा अपौरुषेय ग्रन्थ हैं | महातपा ऋषियोंने अपने पवित्रतम हृदयमें वेदमन्त्रोंका दर्शन किया था | अतः वे मन्त्रदृष्टा ऋषि हुए" ऋषयो मन्त्रदृष्टारः"| वेदोंमें वर्णाश्रम स्पष्टरूपमें वर्णित है | पुरुषसूक्तमें चार वर्ण- ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रकी उत्पत्ति विराट् पुरुषके विभिन्न अङ्गोसे होनेका उल्लेख हैं | वेदाध्ययन करने के लिए उपनयन अनिवार्य है । उपनयन किसका वेदसम्मत है? –यह निर्णीत होते ही वेदाध्ययन के अधिकारी का भी निर्णय हो जायेगा । वेदाध्ययनविधायक वाक्य है"स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है ।यह अध्ययन किस किस को कैसी योग्यता उपलब्ध होने पर करना चाहिए?| इस शंका को निर्मूल करने के लिए शतपथ ब्राह्मण का वचन है- "अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत" तमध्यापयेत्","एकादशवर्षं राजन्यं " "द्वादशवर्षं वैश्यम् "| आठ वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन करे और उसे पढ़ाये । इसी प्रकार ११वर्ष के क्षत्रियऔर १२वर्ष के वैश्य का उपनयन करके उन्हें पढ़ाये | किसका उपनयन कब हो? –इसे भी बताया गया है –मीमांसा के प्रौढविद्वान् शास्त्रदीपिकाकार ” पार्थसारथि मिश्र सप्रमाण लिखते हैं–"वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं शरदि वैश्यम् इति द्वितीयानिर्देशादुपनयनसंस्कृतास्त्रैवर्णिकाः||अध्याय१पाद१,अधिकरण१सूत्र१"||वसन्त काल में ब्राह्मण का उपनयन करे,ग्रीष्म में क्षत्रिय और शरद् ऋतु में वैश्य का ।भगवान् वेद के इन वचनों में सर्वत्र,"ब्राह्मणम्,राजन्यं, वैश्यम् इस प्रकार द्वितीयान्त पुल्लिंग का ही प्रयोग हुआ है, शुद्र और स्त्रीलिंग का नही । अतः उपनयन पुरुषों का ही होगा ,स्त्रियों का नहीं |यह बात सामान्य व्याकरण– अध्येता को भी ज्ञात है कि पुंस्त्व की विवक्षा मेंपुल्लिंग और स्त्रीत्व की विवक्षा होने पर टाप् ,ड़ीप् आदि प्रत्यय होकर टाबन्त ड़ीबन्त अजा,ब्राह्मणी,क्षत्रिया,वैश्या आदि शब्दों का प्रयोग होता है ।जब घोड़ा मगाना होगा तब "अश्वमानय "ही बोला जायेगा । और घोड़ी मगाना होगा तो "अश्वामानय" ही बोलेंगे ।इन तथ्यों को ध्यान में रखकर देखें कि उपनयन श्रौतवचनों से किसका कहा जा रहा है ? पुरुष का या स्त्री का ? "पशुना यजेत इत्यादि स्थलों में पुंस्त्वआदि की विवक्षा है ;क्योंकि महर्षि पाणिनि जैसे सूत्रकार ने"तस्माच्छसो नः पुंसि ,स्त्रियाम्,अजाद्यतस्टाप्,स्वमोर्नपुंसकात् "जैसे सूत्रों द्वारा पुल्लिंग में अकारान्त शब्दों से परे शस् के स् को न् ,स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप् आदि तथा नपुंसक लिंग में अदन्तभिन्न शब्दों से परे सु और अम् विभक्ति का लोपकहा है । अतः इन तथ्यों को मानकर ही अर्थ करना चाहिए | तथा लिंगम्"पूर्वमीमांसा–४/१/८/१६,सूत्र से महर्षि जैमिनिने पाँचहजार वर्ष पूर्व ही इस तथ्य की पुष्टि कर दी थी । महर्षि पाणिनि के पहले भी शाकटायन, आदि अनेक वैयाकरण हो चुके हैं| वेदों की आनुपूर्वी में प्रवाहनित्यता मानें या और कुछ, उसमें परिवर्तन ईश्वर भीनही करता । तात्पर्य यह कि समयानुसार वेद नही बदलते हैं |वेद से भिन्न जो स्मृतियां हैं उनका प्रामाण्य वेदमलकत्वेन ही है ,वेदविरुद्धहोने पर वे अप्रमाण की कोटि में चली जाती हैं-ये दोनो सिद्धान्त क्रमशः"स्मृत्यधिकरण१/३/१/२"विरोधाधिकरण१/३/१/३-४| पूर्वमीमांसासे सर्वमान्य हैं ।" विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्यादसति ह्यनुमानम् ” १/३/१/३सूत्र तो इस विषय में अति प्रसिद्ध है ।अतः अपौरुषेय वेद–वसन्ते ब्राह्मणमपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं , शरदि वैश्यम् ” से विरुद्ध "पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते|| यम स्मृति ||सर्वथाअप्रामाणिक है । इससे वेदप्रतिपादित सिद्धान्त को सञ्कुचित नही किया जा सकता । मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते | वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यो हि मनोः स्मृतेः||मनुःस्मृति भूमिका पृष्ठ ६|| मनुस्मृतिके विपरीत धर्मादि का प्रतिपादन करनेंवाली स्मृति श्रेष्ठ नहीं हैं क्योंकि वेदार्थ के अनुसार रचित होनेके कारण मनुस्मृति की ही प्रधान्यता हैं | यद् वै किंच मनुरवदत् तद् भेषजम्|| तै०सं०२/२/१०२|| मनुर्वै यत् किंचावदत् तत् भैषाज्यायै||ता०ब्रा०२३/१६/१७|| तैतरीय संहिता एवं तांड्य महाब्राह्मण के अनुसार मनुने जो कुछ कहा हैं,यह सब औषध हैं|"मानव्यो हि प्रजाः" मनुसे पैदा होनेके कारण हम मानव कहलातें हैं| मनु और शतरूपाकी कथा विश्रुत ही हैं| ऋग्वेदके प्रथम मण्डल के ८० वे सूक्तमें-"यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ् धियमत्नतः| तस्मिन् ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम्||ऋग्वेद१/८०/१५|| यह प्रार्थना हैं कि हम मनुके मार्गसे कहीं गिर न जाएँ | फिर वहाँ यह भी कहा गया हैं कि भारतवर्ष में सबसे पहले मनुने ही यज्ञ किया |अतः मनुस्मृतिका सर्वतो प्राबल्य हैं | अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः| संस्कारार्थे शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम्|| मनुः२/६६|| शरीर संस्कार हेतु प्रसंगक्रमसे प्राप्त और क्रमसे स्त्रियोंके सब संस्कार बिना मन्त्र के ही करना चाहिये | फिर इस श्लोक के आगे मनुजी कहतें हैं कि- वैवाहिको विधिःस्त्रीणां संस्कारो वैदिकःस्मृतः| पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्नि परिक्रिया || मनुः २/६८|| स्त्रियोंका विवाह संस्कार ही वैदिकसंस्कार(यज्ञोपवीत),पतिसेवा ही गुरुकुलवास(वेदाध्ययनरूप), और गृहकीर्य ही अग्निहोत्रकर्म बताया गया हैं| अतः मनुस्मृतिके प्रबल प्रमाणोंसे स्त्रियों का उपनयन किसी भी कल्प में नही होता है । और सभी कल्पों में पुंस्त्वविशिष्टों का ही उपनयन वैदिक सिद्धात है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब उनका उपनयन ही नही तब वेदाधिकार न होने से वेदमन्त्रसाध्य यज्ञादि कर्मों के आचार्यत्व का वे निर्वहन भी नही कर सकतीं । हां पति के साथ वे प्रत्येक कार्य का सम्पादन करेंगी । पत्नी के विना पति किसी यज्ञादि कर्म का अनुष्ठान नही कर सकता ;क्योंकि आज्यावेक्षणजैसे कर्म यदि नही हुए तो अंगवैकल्य से कर्म फलप्रद नही हो सकता यह तथ्य पूर्वमीमांसा में –६/१/४/८से २० वें सूत्र तक विस्तार से वर्णित है ।ऋषिकाएं –अपाला आदि अनेक ऋषिकाएं हैं जिन्हे वेदमन्त्रों का साक्षात्कारहुआ है –यह वेद से ही सिद्ध है । अतः इनका वेदाध्ययन में अधिकार था या नही ?|समाधान अपाला आदि ऋषिकाओं का वेदमन्त्रद्रष्टृत्व जैसे वेदबोध्य है| वैसे ही स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन के अंग उपनयन का अभाव भी वेदबोध्यही है । यह तथ्य पूर्व में निर्णीत हो चुका है ।अतः अपाला जैसी महनीय नारियों के भी वेदाध्ययन की कल्पना वेदविरुद्धहै । रही मन्त्रसाक्षात्कार की बात, तो वह प्रकृष्ट तपःशक्ति से ही सम्भव है । जब ५ वर्ष के तपःसंलग्न ध्रुव में भगवत्कृपा से सरस्वती प्रकट हो सकती हैं तो अपाला जैसी नारियों में क्यों नहीं ? तप अनेक प्रकार के होते हैं जिनमे स्त्रियों का अधिकार है तभी तो भगवान् श्रीराम ने शबरी जी से पूंछा था कि आपका तप बढ़ रहा है न? –क्वचित्ते वर्धते तपः||वाल्मीकि रामायण -अरण्यकाण्ड-७४/८||आज भी कर्मकाणड में देवताओं को यज्ञोपवीत चढ़ाया जाता है देवियों– गौरी आदिको नहीं –इसका मूल नारियों के उपनयन का अभाव ही है ।भगवती सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवी है। उनकी कृपा से मूढ भी चारोंवेदों का ज्ञाता हो सकता है । किन्तु इससे सरस्वती जी के वेदाध्ययन और उपनयन की कल्पना तो नही की जा सकती । मारीच जैसा राक्षस भी रावण से बात करते हुए जिनके पति श्रीराम को विग्रहवान् धर्म कहता है । धर्मशिक्षणहेतु अवतरित उन भगवान् श्रीराम से अभिन्न उनकी प्रियतमा पराम्बा जानकी जी के लिए हम वेदविरुद्ध उपनयन और वेदाध्ययन की कल्पना नहीं कर सकते |
यज्ञोपवीतसंस्कार षोडशसंस्कारके अन्तर्गत दशवाँ संस्कार हैं और वेदोक्त वर्णाश्रमव्यवस्था और वैदिक सनातनधर्म की आधारशिला हैं | वेद विश्वका अति प्राचिन एवं आत्मविषयक गूढ़ रहस्योंसे भरा अपौरुषेय ग्रन्थ हैं | महातपा ऋषियोंने अपने पवित्रतम हृदयमें वेदमन्त्रोंका दर्शन किया था | अतः वे मन्त्रदृष्टा ऋषि हुए" ऋषयो मन्त्रदृष्टारः"| वेदोंमें वर्णाश्रम स्पष्टरूपमें वर्णित है | पुरुषसूक्तमें चार वर्ण- ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रकी उत्पत्ति विराट् पुरुषके विभिन्न अङ्गोसे होनेका उल्लेख हैं | वेदाध्ययन करने के लिए उपनयन अनिवार्य है । उपनयन किसका वेदसम्मत है? –यह निर्णीत होते ही वेदाध्ययन के अधिकारी का भी निर्णय हो जायेगा । वेदाध्ययनविधायक वाक्य है"स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है ।यह अध्ययन किस किस को कैसी योग्यता उपलब्ध होने पर करना चाहिए?| इस शंका को निर्मूल करने के लिए शतपथ ब्राह्मण का वचन है- "अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत" तमध्यापयेत्","एकादशवर्षं राजन्यं " "द्वादशवर्षं वैश्यम् "| आठ वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन करे और उसे पढ़ाये । इसी प्रकार ११वर्ष के क्षत्रियऔर १२वर्ष के वैश्य का उपनयन करके उन्हें पढ़ाये | किसका उपनयन कब हो? –इसे भी बताया गया है –मीमांसा के प्रौढविद्वान् शास्त्रदीपिकाकार ” पार्थसारथि मिश्र सप्रमाण लिखते हैं–"वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं शरदि वैश्यम् इति द्वितीयानिर्देशादुपनयनसंस्कृतास्त्रैवर्णिकाः||अध्याय१पाद१,अधिकरण१सूत्र१"||वसन्त काल में ब्राह्मण का उपनयन करे,ग्रीष्म में क्षत्रिय और शरद् ऋतु में वैश्य का ।भगवान् वेद के इन वचनों में सर्वत्र,"ब्राह्मणम्,राजन्यं, वैश्यम् इस प्रकार द्वितीयान्त पुल्लिंग का ही प्रयोग हुआ है, शुद्र और स्त्रीलिंग का नही । अतः उपनयन पुरुषों का ही होगा ,स्त्रियों का नहीं |यह बात सामान्य व्याकरण– अध्येता को भी ज्ञात है कि पुंस्त्व की विवक्षा मेंपुल्लिंग और स्त्रीत्व की विवक्षा होने पर टाप् ,ड़ीप् आदि प्रत्यय होकर टाबन्त ड़ीबन्त अजा,ब्राह्मणी,क्षत्रिया,वैश्या आदि शब्दों का प्रयोग होता है ।जब घोड़ा मगाना होगा तब "अश्वमानय "ही बोला जायेगा । और घोड़ी मगाना होगा तो "अश्वामानय" ही बोलेंगे ।इन तथ्यों को ध्यान में रखकर देखें कि उपनयन श्रौतवचनों से किसका कहा जा रहा है ? पुरुष का या स्त्री का ? "पशुना यजेत इत्यादि स्थलों में पुंस्त्वआदि की विवक्षा है ;क्योंकि महर्षि पाणिनि जैसे सूत्रकार ने"तस्माच्छसो नः पुंसि ,स्त्रियाम्,अजाद्यतस्टाप्,स्वमोर्नपुंसकात् "जैसे सूत्रों द्वारा पुल्लिंग में अकारान्त शब्दों से परे शस् के स् को न् ,स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप् आदि तथा नपुंसक लिंग में अदन्तभिन्न शब्दों से परे सु और अम् विभक्ति का लोपकहा है । अतः इन तथ्यों को मानकर ही अर्थ करना चाहिए | तथा लिंगम्"पूर्वमीमांसा–४/१/८/१६,सूत्र से महर्षि जैमिनिने पाँचहजार वर्ष पूर्व ही इस तथ्य की पुष्टि कर दी थी । महर्षि पाणिनि के पहले भी शाकटायन, आदि अनेक वैयाकरण हो चुके हैं| वेदों की आनुपूर्वी में प्रवाहनित्यता मानें या और कुछ, उसमें परिवर्तन ईश्वर भीनही करता । तात्पर्य यह कि समयानुसार वेद नही बदलते हैं |वेद से भिन्न जो स्मृतियां हैं उनका प्रामाण्य वेदमलकत्वेन ही है ,वेदविरुद्धहोने पर वे अप्रमाण की कोटि में चली जाती हैं-ये दोनो सिद्धान्त क्रमशः"स्मृत्यधिकरण१/३/१/२"विरोधाधिकरण१/३/१/३-४| पूर्वमीमांसासे सर्वमान्य हैं ।" विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्यादसति ह्यनुमानम् ” १/३/१/३सूत्र तो इस विषय में अति प्रसिद्ध है ।अतः अपौरुषेय वेद–वसन्ते ब्राह्मणमपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं , शरदि वैश्यम् ” से विरुद्ध "पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते|| यम स्मृति ||सर्वथाअप्रामाणिक है । इससे वेदप्रतिपादित सिद्धान्त को सञ्कुचित नही किया जा सकता । मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते | वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यो हि मनोः स्मृतेः||मनुःस्मृति भूमिका पृष्ठ ६|| मनुस्मृतिके विपरीत धर्मादि का प्रतिपादन करनेंवाली स्मृति श्रेष्ठ नहीं हैं क्योंकि वेदार्थ के अनुसार रचित होनेके कारण मनुस्मृति की ही प्रधान्यता हैं | यद् वै किंच मनुरवदत् तद् भेषजम्|| तै०सं०२/२/१०२|| मनुर्वै यत् किंचावदत् तत् भैषाज्यायै||ता०ब्रा०२३/१६/१७|| तैतरीय संहिता एवं तांड्य महाब्राह्मण के अनुसार मनुने जो कुछ कहा हैं,यह सब औषध हैं|"मानव्यो हि प्रजाः" मनुसे पैदा होनेके कारण हम मानव कहलातें हैं| मनु और शतरूपाकी कथा विश्रुत ही हैं| ऋग्वेदके प्रथम मण्डल के ८० वे सूक्तमें-"यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ् धियमत्नतः| तस्मिन् ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम्||ऋग्वेद१/८०/१५|| यह प्रार्थना हैं कि हम मनुके मार्गसे कहीं गिर न जाएँ | फिर वहाँ यह भी कहा गया हैं कि भारतवर्ष में सबसे पहले मनुने ही यज्ञ किया |अतः मनुस्मृतिका सर्वतो प्राबल्य हैं | अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः| संस्कारार्थे शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम्|| मनुः२/६६|| शरीर संस्कार हेतु प्रसंगक्रमसे प्राप्त और क्रमसे स्त्रियोंके सब संस्कार बिना मन्त्र के ही करना चाहिये | फिर इस श्लोक के आगे मनुजी कहतें हैं कि- वैवाहिको विधिःस्त्रीणां संस्कारो वैदिकःस्मृतः| पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्नि परिक्रिया || मनुः २/६८|| स्त्रियोंका विवाह संस्कार ही वैदिकसंस्कार(यज्ञोपवीत),पतिसेवा ही गुरुकुलवास(वेदाध्ययनरूप), और गृहकीर्य ही अग्निहोत्रकर्म बताया गया हैं| अतः मनुस्मृतिके प्रबल प्रमाणोंसे स्त्रियों का उपनयन किसी भी कल्प में नही होता है । और सभी कल्पों में पुंस्त्वविशिष्टों का ही उपनयन वैदिक सिद्धात है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब उनका उपनयन ही नही तब वेदाधिकार न होने से वेदमन्त्रसाध्य यज्ञादि कर्मों के आचार्यत्व का वे निर्वहन भी नही कर सकतीं । हां पति के साथ वे प्रत्येक कार्य का सम्पादन करेंगी । पत्नी के विना पति किसी यज्ञादि कर्म का अनुष्ठान नही कर सकता ;क्योंकि आज्यावेक्षणजैसे कर्म यदि नही हुए तो अंगवैकल्य से कर्म फलप्रद नही हो सकता यह तथ्य पूर्वमीमांसा में –६/१/४/८से २० वें सूत्र तक विस्तार से वर्णित है ।ऋषिकाएं –अपाला आदि अनेक ऋषिकाएं हैं जिन्हे वेदमन्त्रों का साक्षात्कारहुआ है –यह वेद से ही सिद्ध है । अतः इनका वेदाध्ययन में अधिकार था या नही ?|समाधान अपाला आदि ऋषिकाओं का वेदमन्त्रद्रष्टृत्व जैसे वेदबोध्य है| वैसे ही स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन के अंग उपनयन का अभाव भी वेदबोध्यही है । यह तथ्य पूर्व में निर्णीत हो चुका है ।अतः अपाला जैसी महनीय नारियों के भी वेदाध्ययन की कल्पना वेदविरुद्धहै । रही मन्त्रसाक्षात्कार की बात, तो वह प्रकृष्ट तपःशक्ति से ही सम्भव है । जब ५ वर्ष के तपःसंलग्न ध्रुव में भगवत्कृपा से सरस्वती प्रकट हो सकती हैं तो अपाला जैसी नारियों में क्यों नहीं ? तप अनेक प्रकार के होते हैं जिनमे स्त्रियों का अधिकार है तभी तो भगवान् श्रीराम ने शबरी जी से पूंछा था कि आपका तप बढ़ रहा है न? –क्वचित्ते वर्धते तपः||वाल्मीकि रामायण -अरण्यकाण्ड-७४/८||आज भी कर्मकाणड में देवताओं को यज्ञोपवीत चढ़ाया जाता है देवियों– गौरी आदिको नहीं –इसका मूल नारियों के उपनयन का अभाव ही है ।भगवती सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवी है। उनकी कृपा से मूढ भी चारोंवेदों का ज्ञाता हो सकता है । किन्तु इससे सरस्वती जी के वेदाध्ययन और उपनयन की कल्पना तो नही की जा सकती । मारीच जैसा राक्षस भी रावण से बात करते हुए जिनके पति श्रीराम को विग्रहवान् धर्म कहता है । धर्मशिक्षणहेतु अवतरित उन भगवान् श्रीराम से अभिन्न उनकी प्रियतमा पराम्बा जानकी जी के लिए हम वेदविरुद्ध उपनयन और वेदाध्ययन की कल्पना नहीं कर सकते |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री उमरेठ|| शेष पुनः
षोडशसंस्काराः (उपवीतम्) खंड १११~ ब्रह्मपुराणमें कहा गया हैं-" जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते |
विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ||
अर्थात् ब्राह्मण माता-पिताके सविधि विवाहसे उत्पन्न शिशु ब्राह्मण हैं ,जब उस बटुका यज्ञोपवीत-संस्कार होता हैं,तब वह "द्विज"(दूसरा जन्म प्राप्त) कहा जाता हैं और वह वेदाध्ययन एवं यज्ञाग्नि धर्मकार्य करनेका अधिकारी होता हैं | वेदज्ञान प्राप्त करनेसे वह " विप्र" तथा "श्रोत्रिय" कहलाता हैं | जब उत्कट तपस्याद्वारा चित्तशुद्धि कर ब्रह्मसाक्षात्कार करता हैं,तब वह ब्रह्मनिष्ठ होता हैं | " ब्राह्मण क्षत्रिय विशस्त्रयो वर्णा द्विजातयः||व्यासः|| व्यास कहतें हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीन वर्ण द्विजातियाँ(द्विज)हैं |" तेषां जन्म द्वितीयं तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनम् ||शङ्खस्मृतिः१/६|| शङ्खने कहा हैं कि इन तीन द्विजातियों का दूसरा जन्म यज्ञोपवीत-संस्कारसे होता हैं | आज जब अन्य जातियाँ और सम्प्रदाय अपनी अपनी सांस्कृतिक धरोंहरों,प्रतीकोंको खोज-खोजकर उन्हें पुनः स्थापित और संवर्धित करनेमें जुटे हैं | विडम्बना हैं कि संस्कृतिके पुरोधा कहे जानेवाले हम इनके प्रति उपेक्षित भाव रखते हुए पाश्चात्त्य संस्कृतिके कृत्रिम प्रकाशकी ओर भागनेका प्रयास कर अपने-आपको गौरवान्वित समझ रहे हैं | इसलिये विचारकर यह निर्णय लेना हैं कि हम उन संस्कारोंको सही तरहसे तथा समय-समयपर अपनायें,जिनकी नींवपर हमारी संस्कृति खड़ी हुई हैं | इन्हीमें "यज्ञोपवीत" भी द्विजातियोंका एक संस्कार हैं | हिन्दू धर्म और संस्कृतिका आधार उसकी आध्यात्मिकता हैं,जो पवित्र संस्कारोंसे मार्जित आचार-व्यवहार और सद्व्रतपर टिकी हैं | आचार-व्यवहार वैयक्तिक हैं | ये मनके प्रभावसे उद्भूत और नियन्त्रित होतें हैं | प्रकृतिके अविच्छिन्न सम्पर्कमें रहनेसे ये शारीरिक और मानसिक मलों(दोषों) से आवृत होकर दूषित हो जातें हैं | यद्यपि मानवका अस्तित्व प्राण(आत्मा) पर अवलम्बित हैं,किंतु तन-मनके अधीन रहकर वह अनैतिक और अधर्म करनेके लिये विवश हो जाता हैं | मानवके तन-मनसे अपवित्र भाव,मल तथा दोषका परिमार्जन कर उनकी निवृत्ति करना और शुचिता,पवित्रता तथा पुण्यका भाव मन,वाणी एवं व्यवहारमें प्रतिष्ठित करना "संस्कार" हैं | वैदिक एवं स्मार्त सामान्य -विशेष कर्मोंके आचरणसे शारीरिक तथा मानसिक मलोंका परिमार्जन कर पवित्र और उत्कृष्ट बनाते हुए मानवको निर्वाण(मोक्ष) प्राप्त करनेयोग्य- अधिकारी बनाना संस्कार हैं | शास्त्रकारोंने संस्कारोंमें भी यज्ञोपवीत संस्कारकी महिमा कही हैं | "उपनयन" का अर्थ होता हैं,गुरुके पास ले जाना; बालकको गायत्रीमंत्रके उपदेश हेतु तथा वेदाभ्यास के लिए आचार्यके पास ले जाना होता हैं | यह मनुष्यके आध्यात्मिक जीवनमें प्रवेशका द्वार हैं | इसके बाद बालकका पुनर्जन्म होनेसे द्विज कहलाता हैं | एक प्रकारसे प्राकृत शरीरकी मृत्यु और उसमेंसे एक नयें भावका आविर्भाव होता हैं| एक प्रकारसे स्वच्छन्दतामें स्वतन्त्रताके संक्रमणका यह प्रारंभिक बिन्दु हैं | स्वच्छन्दताका अर्थ हैं,बन्धन अस्वीकारता और स्वतन्त्रताका अर्थ हैं,आत्मसंयमसे अपनी तथा समष्टिकी इच्छाको जोड़ना | सामान्य अर्थोंमें यज्ञोपवीत तीन तागोंके जोड़में लगी ग्रन्थियोंसे युक्त सूतकी एक माला हैं | जिसे ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य धारण करतें हैं | वैदिक अर्थमें यज्ञोपवीत शब्द "यज्ञ" और "उपवीत" इन दो शब्दोंके योगसे बना हैं,जिसका अर्थ हैं " यज्ञसे पवित्र किया गया सूत्र|" यज्ञोपवीत-संस्कारको "व्रतबन्ध" उपनयन" और "जनेऊ" भी कहा गया हैं | शास्त्रोंकी आज्ञा हैं -" सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च" अर्थात् सदा गाँठ लगी शिखा एवं यज्ञसूत्र धारण किये रहना चाहिये | यज्ञोपवीत(ब्रह्मसूत्र) हैं | जो शोभाके लिये या अनुष्ठान के समय ही धारण करने एवं शेष समयमें उतारकर किसी खूँटीमें टाँग देने लायक नहीं हैं | ऐसा करनेवाले पापके भागी होतें हैं | यहाँ बताना उचित होगा कि साकार परमात्माको "यज्ञ" और निराकार परमात्माको "ब्रह्म" कहा गया हैं | इन दोनों को प्राप्त करनेका अधिकार दिलानेवाला यह सूत्र यज्ञोपवीत हैं | ब्रह्मसूत्र" सवितासूत्र" तथा यज्ञसूत्र इसीके नाम हैं | स्मृतिप्रकाशमें इसके ब्रह्मसूत्र नामकी सार्थकताके विषयमें कहा गया हैं-" सूचनाद् ब्रह्मतत्त्वस्य वेदतत्त्वस्य सूचनात् | तत्सूत्रमुपवीतत्वाद् ब्रह्मसूत्रमिति स्मृतम् || अर्थात् यह सूत्र द्विजातिको ब्रह्मतत्त्व और वेदज्ञानकी सूचना देता हैं,इसलिये इसे " ब्रह्मसूत्र" कहा गया हैं | यज्ञोपवीतकी उत्पत्ति और प्रचलनका कोई ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त करना या काल निर्धारण करना मानबुद्धि के वशकी बात नहीं हैं | इसका सम्बन्धतो उस कालसे लगाया कया हैं,जब प्रलयके गर्भमें अनन्तकालसे प्रसुप्त मानवसृष्टिका नवोदय प्रारम्भ हुआ था,उस समय श्री ब्रह्माजी स्वयं यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे | इसलिये यज्ञोपवीत धारण करते समय यह मन्त्र पढा़ जाता हैं-" यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्" साररूप यह मन्त्र ही यज्ञोपवीतकी उत्पत्तिका स्पष्ट सङ्केत देता हैं |
विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ||
अर्थात् ब्राह्मण माता-पिताके सविधि विवाहसे उत्पन्न शिशु ब्राह्मण हैं ,जब उस बटुका यज्ञोपवीत-संस्कार होता हैं,तब वह "द्विज"(दूसरा जन्म प्राप्त) कहा जाता हैं और वह वेदाध्ययन एवं यज्ञाग्नि धर्मकार्य करनेका अधिकारी होता हैं | वेदज्ञान प्राप्त करनेसे वह " विप्र" तथा "श्रोत्रिय" कहलाता हैं | जब उत्कट तपस्याद्वारा चित्तशुद्धि कर ब्रह्मसाक्षात्कार करता हैं,तब वह ब्रह्मनिष्ठ होता हैं | " ब्राह्मण क्षत्रिय विशस्त्रयो वर्णा द्विजातयः||व्यासः|| व्यास कहतें हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीन वर्ण द्विजातियाँ(द्विज)हैं |" तेषां जन्म द्वितीयं तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनम् ||शङ्खस्मृतिः१/६|| शङ्खने कहा हैं कि इन तीन द्विजातियों का दूसरा जन्म यज्ञोपवीत-संस्कारसे होता हैं | आज जब अन्य जातियाँ और सम्प्रदाय अपनी अपनी सांस्कृतिक धरोंहरों,प्रतीकोंको खोज-खोजकर उन्हें पुनः स्थापित और संवर्धित करनेमें जुटे हैं | विडम्बना हैं कि संस्कृतिके पुरोधा कहे जानेवाले हम इनके प्रति उपेक्षित भाव रखते हुए पाश्चात्त्य संस्कृतिके कृत्रिम प्रकाशकी ओर भागनेका प्रयास कर अपने-आपको गौरवान्वित समझ रहे हैं | इसलिये विचारकर यह निर्णय लेना हैं कि हम उन संस्कारोंको सही तरहसे तथा समय-समयपर अपनायें,जिनकी नींवपर हमारी संस्कृति खड़ी हुई हैं | इन्हीमें "यज्ञोपवीत" भी द्विजातियोंका एक संस्कार हैं | हिन्दू धर्म और संस्कृतिका आधार उसकी आध्यात्मिकता हैं,जो पवित्र संस्कारोंसे मार्जित आचार-व्यवहार और सद्व्रतपर टिकी हैं | आचार-व्यवहार वैयक्तिक हैं | ये मनके प्रभावसे उद्भूत और नियन्त्रित होतें हैं | प्रकृतिके अविच्छिन्न सम्पर्कमें रहनेसे ये शारीरिक और मानसिक मलों(दोषों) से आवृत होकर दूषित हो जातें हैं | यद्यपि मानवका अस्तित्व प्राण(आत्मा) पर अवलम्बित हैं,किंतु तन-मनके अधीन रहकर वह अनैतिक और अधर्म करनेके लिये विवश हो जाता हैं | मानवके तन-मनसे अपवित्र भाव,मल तथा दोषका परिमार्जन कर उनकी निवृत्ति करना और शुचिता,पवित्रता तथा पुण्यका भाव मन,वाणी एवं व्यवहारमें प्रतिष्ठित करना "संस्कार" हैं | वैदिक एवं स्मार्त सामान्य -विशेष कर्मोंके आचरणसे शारीरिक तथा मानसिक मलोंका परिमार्जन कर पवित्र और उत्कृष्ट बनाते हुए मानवको निर्वाण(मोक्ष) प्राप्त करनेयोग्य- अधिकारी बनाना संस्कार हैं | शास्त्रकारोंने संस्कारोंमें भी यज्ञोपवीत संस्कारकी महिमा कही हैं | "उपनयन" का अर्थ होता हैं,गुरुके पास ले जाना; बालकको गायत्रीमंत्रके उपदेश हेतु तथा वेदाभ्यास के लिए आचार्यके पास ले जाना होता हैं | यह मनुष्यके आध्यात्मिक जीवनमें प्रवेशका द्वार हैं | इसके बाद बालकका पुनर्जन्म होनेसे द्विज कहलाता हैं | एक प्रकारसे प्राकृत शरीरकी मृत्यु और उसमेंसे एक नयें भावका आविर्भाव होता हैं| एक प्रकारसे स्वच्छन्दतामें स्वतन्त्रताके संक्रमणका यह प्रारंभिक बिन्दु हैं | स्वच्छन्दताका अर्थ हैं,बन्धन अस्वीकारता और स्वतन्त्रताका अर्थ हैं,आत्मसंयमसे अपनी तथा समष्टिकी इच्छाको जोड़ना | सामान्य अर्थोंमें यज्ञोपवीत तीन तागोंके जोड़में लगी ग्रन्थियोंसे युक्त सूतकी एक माला हैं | जिसे ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य धारण करतें हैं | वैदिक अर्थमें यज्ञोपवीत शब्द "यज्ञ" और "उपवीत" इन दो शब्दोंके योगसे बना हैं,जिसका अर्थ हैं " यज्ञसे पवित्र किया गया सूत्र|" यज्ञोपवीत-संस्कारको "व्रतबन्ध" उपनयन" और "जनेऊ" भी कहा गया हैं | शास्त्रोंकी आज्ञा हैं -" सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च" अर्थात् सदा गाँठ लगी शिखा एवं यज्ञसूत्र धारण किये रहना चाहिये | यज्ञोपवीत(ब्रह्मसूत्र) हैं | जो शोभाके लिये या अनुष्ठान के समय ही धारण करने एवं शेष समयमें उतारकर किसी खूँटीमें टाँग देने लायक नहीं हैं | ऐसा करनेवाले पापके भागी होतें हैं | यहाँ बताना उचित होगा कि साकार परमात्माको "यज्ञ" और निराकार परमात्माको "ब्रह्म" कहा गया हैं | इन दोनों को प्राप्त करनेका अधिकार दिलानेवाला यह सूत्र यज्ञोपवीत हैं | ब्रह्मसूत्र" सवितासूत्र" तथा यज्ञसूत्र इसीके नाम हैं | स्मृतिप्रकाशमें इसके ब्रह्मसूत्र नामकी सार्थकताके विषयमें कहा गया हैं-" सूचनाद् ब्रह्मतत्त्वस्य वेदतत्त्वस्य सूचनात् | तत्सूत्रमुपवीतत्वाद् ब्रह्मसूत्रमिति स्मृतम् || अर्थात् यह सूत्र द्विजातिको ब्रह्मतत्त्व और वेदज्ञानकी सूचना देता हैं,इसलिये इसे " ब्रह्मसूत्र" कहा गया हैं | यज्ञोपवीतकी उत्पत्ति और प्रचलनका कोई ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त करना या काल निर्धारण करना मानबुद्धि के वशकी बात नहीं हैं | इसका सम्बन्धतो उस कालसे लगाया कया हैं,जब प्रलयके गर्भमें अनन्तकालसे प्रसुप्त मानवसृष्टिका नवोदय प्रारम्भ हुआ था,उस समय श्री ब्रह्माजी स्वयं यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे | इसलिये यज्ञोपवीत धारण करते समय यह मन्त्र पढा़ जाता हैं-" यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्" साररूप यह मन्त्र ही यज्ञोपवीतकी उत्पत्तिका स्पष्ट सङ्केत देता हैं |
ॐस्वस्ति | पु ह शास्त्री उमरेठ | शेष पुनः
षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड११२~ यज्ञोपवीत किन्हीं परवर्ती ऋषियोंद्वारा निर्मित सूत्र नहीं था और न ही किसी सामाजिक या विद्याचिन्हके रूपमें स्थापित किया गया हैं | यज्ञोपवीत निर्माणकी जो विशेष प्रक्रिय् निश्चित की गयी हैं,वह स्पष्टतया यह प्रतिपादित करती हैं कि यज्ञोपवीत ईश्वरद्वारा द्विजातिको सौंपे गये उत्तरदायित्वोंके विर्वहणके लिये गुरुके सांनिध्यमें आवश्यक शिक्षा और योग्यता प्राप्त करने हेतु प्रस्थित होनेका उदात्त भावनाओंसे युक्त संकेत हैं |
**यज्ञोपवीत निर्माण विधिः***-" ग्रामाद्बहिस्तीर्थे गोष्ठे वा गत्वाऽनध्याय वर्जित पूर्वाह्णे"-( गाँवके बहार पवित्र जगह जहाँ पतितोंका अवागमन न हो(निर्जन),अथवा गोशालामें जाकर अनध्याय सूचित दिनोंको छोड़कर अन्य दिनोंमें पूर्वाह्नकालमें सुबह १०/४० से पहले(यज्ञोपवीत निर्माण करतें समय कमसे कम एक/सवा घंटा लगता हैं)-" कृतसंध्याष्टोत्तरशतं सहस्रं वा यथाशक्ति गायत्रीं जपित्वा"-( प्रातःसंध्यासमाप्तकर यज्ञोपवीत निर्माण अधिकार सिद्धिके लिये १०८/१००८ अथवा यथाशक्ति गायत्री मंत्रका संयमित होकर जप करैं)-" ब्राह्मणेन तत्कन्याया सुभगाया धर्मचारिण्या वा कृतं सूत्रमादाय"-( ब्राह्मण, ब्राह्मणकी कन्या,सौभाग्यवतीब्राह्मणी अथवा स्वधर्ममें श्रद्धा रखकर आचरण करनेवाली द्विज-स्त्री(अविच्छिन्न परम्परा कालक्रम से प्राप्त उपनयन-संस्कार से संस्कृत-द्विजों की पत्नी अर्थात् व्रात्यों की स्त्री नहीं ) से बना हुआ एकतारका सूत्र लें" *वर्त्तमानमें मिलना सम्भव न हों तो कहे गये सूत्रकारों से कुछ दक्षिणा देकर उनके हाथसे खरीदा हुआ सूत्र लें)-" भूरिति प्रथमां षष्णवतीं-"( बायें हाथकी चारों अंगुलीयोंके अँत्यपर्वोंपर ॐभूः -प्रथमव्याहृतिमंत्र पढकर ९६ बार वेष्टित कर वह चौआ ढाकके पत्तेपर रख दैं)-"भुवरितिद्वितीयां-"(ॐभुवः- द्वितीय व्याहृतिमंत्रपढकर पुनः दूसरीबार सूत्रसे ९६ चौआ लगायें वह भी दूसरे पलाशके पत्रमें रखें) -" स्वरितितृतीयांमीत्वा पृथक् पलाशपत्रे संस्थाप्य-"( ॐस्वः- तृतीय व्याहृतिमंत्र पढकर पुनः तीसरीबार सूत्रसे ९६ चौआ लगाकर वह भी तीसरे ढाकके पत्तेपर रखें)-"आपोहिष्ठेति तिसृभिः,शं नो देवीत्यनेन सावित्र्या चाभिषिच्य"-( तीनोको तीर्थजल या शुद्धजलसे आपोहिष्ठा० १,जो वः शिवतमो ०२, तस्माऽअरङ्ग ०३… इन तीनोंमंत्रोसे शं नो देवी०मंत्रसे तथा गायत्रीमंत्रसे अभिषिक्त करैं)-" वामहस्ते कृत्वा त्रिः संताड्य"-( बायें हाथमें तीनों चौओंको लेकर दायें हाथसे तीनबार ताड़न करैं)-" व्याहृतिभिस्त्रिवणितं कृत्वा"-( ॐभूर्भुवःस्वः- इनतीन व्याहृति मंत्रोंसे तीनोके तारको एकजुट करकें तीनगुना करैं,-" इसमें दूसरे ब्राह्मण या खूटीकी आवश्यकता रहती हैं)-" पुनस्ताभिस्त्रिगुणितं कृत्वा"-( फिरसे उन तीनगुणे सूत्रको फिरसे तीनगुणा करनेसे नवतार हो जायेंगें इनको तकली(साधन)की मददसे या दूसरे ब्राह्मणकी मददसे नवतारका एक दृढसूत्र बनायें )-" पुनस्त्रिवृतं कृत्वा"-( इस नवतारके सूत्रका " जिसको पहनाना हैं उनके कँधेसे कटीतकके माप अनुसार तीनगुना करैं)-" प्रणवेनग्रन्थिंकृत्वा"( ॐ इस प्रणवमंत्रसे ब्रह्मग्रन्थि लगावें(द्विरावृत्याथमध्ये वै अर्धवृत्यान्त देशतः ग्रन्थि प्रदक्षिणावर्ती सा ग्रन्थि ब्रह्मसंज्ञकः||- सूत्रके अन्त्यभागको सूत्रके अग्रभागके अँदरसे लेकर तीनों वृत्तोको प्रदक्षिणावत् दोबार लपैंटकर सूत्रकेअग्रभागमें आधी प्रदक्षिणवत् लपैटकर दृढगाँठ लगाना सूतके अग्रान्तभागपर दूसरी दो गाँठ लगायें), यह तीन धागेवालीं नवसूत्रकी एक जनेऊ हुई ऐसै ही दूसरी,तीसरी आदि जरुरीयात अनुसार बनाकर)-"ऑंकारमग्निं नागान् सोमं पितॄन् प्रजापतिं वायुं सूर्यं विश्वान् देवान् नवतन्तुषु क्रमेण विन्यस्य संपूजयेत् |-( ऑंकार,अग्नि,सोम,पितर,प्रजापति,वायु,सूर्य, विश्वेदेवों, का नवतन्तुओंमें तथा ग्रन्थिओंमें ब्रह्मा,विष्णु,रुद्रका क्रमसे न्यास करकें पूजन करैं)-" देवस्येत्युपवीतमादाय,-( देवस्यत्वा सवितुःइन आधे मंत्रसे यज्ञोपवीत को लेकर)-" उद्वयं तमसस्परीत्यादित्याय दर्शयित्वा-"( उद्वयं तम० इसमंत्रसे सूर्यनारायणको बताकर)-" यज्ञोपवीतमित्यनेन धारयेदित्याह भगवान्कात्यायनः||कात्यायनपरिशिष्ठ|| -"( यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं० इस मंत्रसे धारण करैं ऐसा भगवान् कात्यायन कहतें हैं|
यह केवल यज्ञोपवीत निर्माणकी विधि बतायीं हैं- विस्तारसे यज्ञोपवीत-संस्कार का विधान अलगसे हैं| बाजारमें मिलतीं तैयार यज्ञोपवीतमें ऐसा कोई विधान नहीं हो सकता और न पवित्रता |
**यज्ञोपवीत निर्माण विधिः***-" ग्रामाद्बहिस्तीर्थे गोष्ठे वा गत्वाऽनध्याय वर्जित पूर्वाह्णे"-( गाँवके बहार पवित्र जगह जहाँ पतितोंका अवागमन न हो(निर्जन),अथवा गोशालामें जाकर अनध्याय सूचित दिनोंको छोड़कर अन्य दिनोंमें पूर्वाह्नकालमें सुबह १०/४० से पहले(यज्ञोपवीत निर्माण करतें समय कमसे कम एक/सवा घंटा लगता हैं)-" कृतसंध्याष्टोत्तरशतं सहस्रं वा यथाशक्ति गायत्रीं जपित्वा"-( प्रातःसंध्यासमाप्तकर यज्ञोपवीत निर्माण अधिकार सिद्धिके लिये १०८/१००८ अथवा यथाशक्ति गायत्री मंत्रका संयमित होकर जप करैं)-" ब्राह्मणेन तत्कन्याया सुभगाया धर्मचारिण्या वा कृतं सूत्रमादाय"-( ब्राह्मण, ब्राह्मणकी कन्या,सौभाग्यवतीब्राह्मणी अथवा स्वधर्ममें श्रद्धा रखकर आचरण करनेवाली द्विज-स्त्री(अविच्छिन्न परम्परा कालक्रम से प्राप्त उपनयन-संस्कार से संस्कृत-द्विजों की पत्नी अर्थात् व्रात्यों की स्त्री नहीं ) से बना हुआ एकतारका सूत्र लें" *वर्त्तमानमें मिलना सम्भव न हों तो कहे गये सूत्रकारों से कुछ दक्षिणा देकर उनके हाथसे खरीदा हुआ सूत्र लें)-" भूरिति प्रथमां षष्णवतीं-"( बायें हाथकी चारों अंगुलीयोंके अँत्यपर्वोंपर ॐभूः -प्रथमव्याहृतिमंत्र पढकर ९६ बार वेष्टित कर वह चौआ ढाकके पत्तेपर रख दैं)-"भुवरितिद्वितीयां-"(ॐभुवः- द्वितीय व्याहृतिमंत्रपढकर पुनः दूसरीबार सूत्रसे ९६ चौआ लगायें वह भी दूसरे पलाशके पत्रमें रखें) -" स्वरितितृतीयांमीत्वा पृथक् पलाशपत्रे संस्थाप्य-"( ॐस्वः- तृतीय व्याहृतिमंत्र पढकर पुनः तीसरीबार सूत्रसे ९६ चौआ लगाकर वह भी तीसरे ढाकके पत्तेपर रखें)-"आपोहिष्ठेति तिसृभिः,शं नो देवीत्यनेन सावित्र्या चाभिषिच्य"-( तीनोको तीर्थजल या शुद्धजलसे आपोहिष्ठा० १,जो वः शिवतमो ०२, तस्माऽअरङ्ग ०३… इन तीनोंमंत्रोसे शं नो देवी०मंत्रसे तथा गायत्रीमंत्रसे अभिषिक्त करैं)-" वामहस्ते कृत्वा त्रिः संताड्य"-( बायें हाथमें तीनों चौओंको लेकर दायें हाथसे तीनबार ताड़न करैं)-" व्याहृतिभिस्त्रिवणितं कृत्वा"-( ॐभूर्भुवःस्वः- इनतीन व्याहृति मंत्रोंसे तीनोके तारको एकजुट करकें तीनगुना करैं,-" इसमें दूसरे ब्राह्मण या खूटीकी आवश्यकता रहती हैं)-" पुनस्ताभिस्त्रिगुणितं कृत्वा"-( फिरसे उन तीनगुणे सूत्रको फिरसे तीनगुणा करनेसे नवतार हो जायेंगें इनको तकली(साधन)की मददसे या दूसरे ब्राह्मणकी मददसे नवतारका एक दृढसूत्र बनायें )-" पुनस्त्रिवृतं कृत्वा"-( इस नवतारके सूत्रका " जिसको पहनाना हैं उनके कँधेसे कटीतकके माप अनुसार तीनगुना करैं)-" प्रणवेनग्रन्थिंकृत्वा"( ॐ इस प्रणवमंत्रसे ब्रह्मग्रन्थि लगावें(द्विरावृत्याथमध्ये वै अर्धवृत्यान्त देशतः ग्रन्थि प्रदक्षिणावर्ती सा ग्रन्थि ब्रह्मसंज्ञकः||- सूत्रके अन्त्यभागको सूत्रके अग्रभागके अँदरसे लेकर तीनों वृत्तोको प्रदक्षिणावत् दोबार लपैंटकर सूत्रकेअग्रभागमें आधी प्रदक्षिणवत् लपैटकर दृढगाँठ लगाना सूतके अग्रान्तभागपर दूसरी दो गाँठ लगायें), यह तीन धागेवालीं नवसूत्रकी एक जनेऊ हुई ऐसै ही दूसरी,तीसरी आदि जरुरीयात अनुसार बनाकर)-"ऑंकारमग्निं नागान् सोमं पितॄन् प्रजापतिं वायुं सूर्यं विश्वान् देवान् नवतन्तुषु क्रमेण विन्यस्य संपूजयेत् |-( ऑंकार,अग्नि,सोम,पितर,प्रजापति,वायु,सूर्य, विश्वेदेवों, का नवतन्तुओंमें तथा ग्रन्थिओंमें ब्रह्मा,विष्णु,रुद्रका क्रमसे न्यास करकें पूजन करैं)-" देवस्येत्युपवीतमादाय,-( देवस्यत्वा सवितुःइन आधे मंत्रसे यज्ञोपवीत को लेकर)-" उद्वयं तमसस्परीत्यादित्याय दर्शयित्वा-"( उद्वयं तम० इसमंत्रसे सूर्यनारायणको बताकर)-" यज्ञोपवीतमित्यनेन धारयेदित्याह भगवान्कात्यायनः||कात्यायनपरिशिष्ठ|| -"( यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं० इस मंत्रसे धारण करैं ऐसा भगवान् कात्यायन कहतें हैं|
यह केवल यज्ञोपवीत निर्माणकी विधि बतायीं हैं- विस्तारसे यज्ञोपवीत-संस्कार का विधान अलगसे हैं| बाजारमें मिलतीं तैयार यज्ञोपवीतमें ऐसा कोई विधान नहीं हो सकता और न पवित्रता |
ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री उमरेठ| शेष पुनः
षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड११३~ यज्ञोपवीतके निर्माणके सम्बन्धमें प्रथम प्रश्न यह उपस्थित होता हैं कि यज्ञोपवीतका परिमाण ९६ ही क्यों निर्धारित किया गया? यदि इसका परिमाण कम या अधिक हो जाता तो उससे क्या हानि होती?
दूसरा प्रश्न- यह हैं कि प्रत्येक वर्णमें हर व्यक्ति एक ही कद और काठीका नहीं होता हैं | कोइ ऊँचे कदका होता हैं तो कोई नाटा| कुछ स्थूल शरीरवालें होतें हैं तो अन्य दूबले-पतले | अतः सभी व्यक्तियोंके लिये एक ही परिमाणका यज्ञोपवीत धारण करनेका नियम क्यों बनाया गया ?
इस सम्बन्धमें महर्षियों और शास्त्रकारोंने इस आधारपर यज्ञोपवीतका परिम्ण निर्धारित किया कि-" पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम् | तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम् ||" धारण करनेपर वह पुरुषकें बायें कन्धेके ऊपरसे आता हुआ नाभिको स्पर्शकर कटितक ही पहुँचे | इससे न तो ऊपर रहैं और न ही नीचे | " आयुर्हरत्यति ह्रस्वमतिदीर्घं तपोहरम् | यशोहरत्यतिस्थूलमतिसूक्ष्मं धनापहम्||वीरमित्रोदय|| अत्यन्त छोटा होनेपर यज्ञोपवीत आयुका तथा अधिक बड़ा होनेपर तपका विनाशक होता हैं | अधिक मोटा रहेगा तो वह यशनाशक और अधिक पतला होगा तो धनकी हानि होगी | इस निर्णयको सामुद्रिक शास्त्रने उचित ठहराया हैं | उसके अनुसार मनुष्यका कद और स्वास्थ्य कैसाभी हो,मानव-शरीर आयाम ८४ अँगुलसे १०८ अँगुलतक ही होता हैं | इसका मध्यमान ९६ अँगुल ही होता हैं | अतः इस परिमाणवाला यज्ञोपवीत हर स्थितिमें कटितक ही रहेगा न उपर और न ही नीचे |
गायत्री वेदमाता हैं | प्रत्येक मन्त्रका उद्भव इन्हींसे हुआ हैं,यगोपवीत -निर्माण और उसे अभिमन्त्रित करते समय गायत्रीमन्त्रको प्रधानता दी गयी हैं | " चतुर्वेदेषु गायत्री चतुर्विंशतिकाक्षरी | तस्माच्चतुर्गुणं कृत्वा ब्रह्मतन्तुमुदीरयेत्|| वसिष्ठ स्मृति||" गायत्रीमन्त्रमें चौबीस अक्षर होते हैं | चारौं वेदोंमें व्याप्त गायत्रीछन्दके सम्पूर्ण अक्षरोंको मिला दैं तो २४×४=९६ अक्षर होतें हैं,इसीके आधारपर द्विजबालकको गायत्री और वेद दोनोंका अधिकार प्राप्त होता हैं | इसलिये ९६ चौआवाले यज्ञोपवीतको ही धारण करनेका विधान किया हैं | वर्णाश्रम व्यवस्थामें ब्रह्मचर्याश्रमके अन्तर्गत द्विजबालकको गुरुके सांनिध्यमें उनकी सेवा करते हुए वेदाध्ययनसहित नैतिक कर्म,उपासना आदिकी शिक्षा प्राप्त करनेके अनन्तर गृहस्थाश्रमका अधिकार प्राप्त होता हैं | चतुर्थाश्रम संन्यास ग्रहण करनेपर वह कर्म और उपासनासे पूर्णतः मुक्त होकर केवल ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी रह जाता हैं | इस स्थितिमें वह शिखा और सूत्र - दोनोंका त्याग कर देता हैं | वेदकी मर्यादाके अनुसार उपनीत होनेवाले द्विजको ही वेद और कर्मकाण्डका अधिकारी बताया गया हैं|" लक्षं तु चतुरो वेदा लक्षमेकं तु भारतम् ||" इस आप्तवचन में वैदिक ऋचाओंकी संख्या एकलाख बतायी गयी हैं | वेदभाष्यमें पतञ्जलिने भी इसकी पुष्टि की हैं | इन लक्षमन्त्रोंमें ८०,००० कर्मकाण्ड-सम्बन्धी ४,००० ज्ञानकाण्ड और१६००० उपासनाकाण्ड सम्बन्धी ऋचाएँ हैं | चूँकि उपनीतको कर्मकाण्ड और उपासना -काण्डका अध्ययन करनेका अधिकार प्राप्त होता हैं,अतः ९६०००ऋचाओंके अधिकारके आधारपर उपवीतका परिमाण ९६ चौआ निर्धारित किया गया हैं | मानव जीवन भाग्यसे प्राप्त होता हैं |" तिथिवारं च नक्षत्रं तत्त्ववेदगुणान्वितम् | कालत्रयं च मासाश्च बारह्मसूत्रं हि षष्णवम् ||सामवेद छन्दोगपरिशिष्ट||" यह जीवन तत्त्वों,गुण,तिथि,वार,नक्षत्र,काल,मास आदि विविध भागोंसे निरन्तर सम्पर्कमें रहनेके कारण उनसे प्रभावित होता रहता हैं | अतः जीवनके एक-एक क्षणको प्रभुका अमित वरदान समझनेवाले महर्षियोंने इन भागोंके महत्त्वको समझकर उनका अवलम्बन करके ब्रह्म-प्राप्तिका शाश्वत लक्ष्य मनुष्यके लिये निर्धारित किया | इन सभी पदार्थोंकी संख्याका समन्वित योग किया जाय तो आश्चर्य होगा कि यह भी ९६ का योग बनता हैं,यथा- (१)मनुष्यके सत्,रज,और तमोगुणमय त्रिविध शरीरमें प्रकृतिप्रदत्त पाँचभूत,पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,पाँच प्राण और चार अन्तःकरणका योग २४ तत्त्वोका समावेश रहता हैं | तीन ग्रन्थियाँ स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीरवाले मनुष्यके आत्मरूपपर त्रिगुणात्मक आवृत्तिसे बहत्तरका योग बनाती हैं | इस शरिरके निराकरण एवं भेदनके लिये चौबीस अक्षरात्मक गायत्रीमन्त्रका जप किया जाता हैं | यही प्रकृतिके तत्त्वोंसे आत्माको मुक्त कराती हैं | यदि इन सबका योग करैं तो परिमाण ७२+२४=९६ आता हैं | अतः इन तत्त्वों और गायत्रीमन्त्रका प्रभाव दरसाने और मुक्तिके लिये गायत्रीमन्त्र जपते रहनेका संकेत करते रहने हेतु द्विजको ९६ परिमाणवाले यज्ञोपवीतको धारण करानेका विधान किया गया हैं |(२) इस गूढ तथ्यको इस दृष्टिकोणसे भी समझा जा सकता हैं | हमारा शरीर २५ तत्त्वोंसे बना हैं | इसमें सत्त्व,रज और तम - ये तीन गुण सर्वदा व्याप्त रहतें हैं | फलतः २८ संख्यात्मक समुदायवाले शरीरको तिथि,वार,काल,नक्षत्र,मास,वेदादि विविध भागोंमें विभक्त,अनेक संवत्सरपर्यन्त इस संसारमें जीवन धारण करना पड़ता हैं | यदि इनका योग करैं तो यह भी ९६ ही होता हैं | देखिये- तिथि१५+वार७+ नक्षत्र२७+तत्त्व२५+ वेद ४+ गुण ३+ काल ३+ और मास १२इनका कुलयोग =९६ आता हैं|
दूसरा प्रश्न- यह हैं कि प्रत्येक वर्णमें हर व्यक्ति एक ही कद और काठीका नहीं होता हैं | कोइ ऊँचे कदका होता हैं तो कोई नाटा| कुछ स्थूल शरीरवालें होतें हैं तो अन्य दूबले-पतले | अतः सभी व्यक्तियोंके लिये एक ही परिमाणका यज्ञोपवीत धारण करनेका नियम क्यों बनाया गया ?
इस सम्बन्धमें महर्षियों और शास्त्रकारोंने इस आधारपर यज्ञोपवीतका परिम्ण निर्धारित किया कि-" पृष्ठदेशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम् | तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम् ||" धारण करनेपर वह पुरुषकें बायें कन्धेके ऊपरसे आता हुआ नाभिको स्पर्शकर कटितक ही पहुँचे | इससे न तो ऊपर रहैं और न ही नीचे | " आयुर्हरत्यति ह्रस्वमतिदीर्घं तपोहरम् | यशोहरत्यतिस्थूलमतिसूक्ष्मं धनापहम्||वीरमित्रोदय|| अत्यन्त छोटा होनेपर यज्ञोपवीत आयुका तथा अधिक बड़ा होनेपर तपका विनाशक होता हैं | अधिक मोटा रहेगा तो वह यशनाशक और अधिक पतला होगा तो धनकी हानि होगी | इस निर्णयको सामुद्रिक शास्त्रने उचित ठहराया हैं | उसके अनुसार मनुष्यका कद और स्वास्थ्य कैसाभी हो,मानव-शरीर आयाम ८४ अँगुलसे १०८ अँगुलतक ही होता हैं | इसका मध्यमान ९६ अँगुल ही होता हैं | अतः इस परिमाणवाला यज्ञोपवीत हर स्थितिमें कटितक ही रहेगा न उपर और न ही नीचे |
गायत्री वेदमाता हैं | प्रत्येक मन्त्रका उद्भव इन्हींसे हुआ हैं,यगोपवीत -निर्माण और उसे अभिमन्त्रित करते समय गायत्रीमन्त्रको प्रधानता दी गयी हैं | " चतुर्वेदेषु गायत्री चतुर्विंशतिकाक्षरी | तस्माच्चतुर्गुणं कृत्वा ब्रह्मतन्तुमुदीरयेत्|| वसिष्ठ स्मृति||" गायत्रीमन्त्रमें चौबीस अक्षर होते हैं | चारौं वेदोंमें व्याप्त गायत्रीछन्दके सम्पूर्ण अक्षरोंको मिला दैं तो २४×४=९६ अक्षर होतें हैं,इसीके आधारपर द्विजबालकको गायत्री और वेद दोनोंका अधिकार प्राप्त होता हैं | इसलिये ९६ चौआवाले यज्ञोपवीतको ही धारण करनेका विधान किया हैं | वर्णाश्रम व्यवस्थामें ब्रह्मचर्याश्रमके अन्तर्गत द्विजबालकको गुरुके सांनिध्यमें उनकी सेवा करते हुए वेदाध्ययनसहित नैतिक कर्म,उपासना आदिकी शिक्षा प्राप्त करनेके अनन्तर गृहस्थाश्रमका अधिकार प्राप्त होता हैं | चतुर्थाश्रम संन्यास ग्रहण करनेपर वह कर्म और उपासनासे पूर्णतः मुक्त होकर केवल ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी रह जाता हैं | इस स्थितिमें वह शिखा और सूत्र - दोनोंका त्याग कर देता हैं | वेदकी मर्यादाके अनुसार उपनीत होनेवाले द्विजको ही वेद और कर्मकाण्डका अधिकारी बताया गया हैं|" लक्षं तु चतुरो वेदा लक्षमेकं तु भारतम् ||" इस आप्तवचन में वैदिक ऋचाओंकी संख्या एकलाख बतायी गयी हैं | वेदभाष्यमें पतञ्जलिने भी इसकी पुष्टि की हैं | इन लक्षमन्त्रोंमें ८०,००० कर्मकाण्ड-सम्बन्धी ४,००० ज्ञानकाण्ड और१६००० उपासनाकाण्ड सम्बन्धी ऋचाएँ हैं | चूँकि उपनीतको कर्मकाण्ड और उपासना -काण्डका अध्ययन करनेका अधिकार प्राप्त होता हैं,अतः ९६०००ऋचाओंके अधिकारके आधारपर उपवीतका परिमाण ९६ चौआ निर्धारित किया गया हैं | मानव जीवन भाग्यसे प्राप्त होता हैं |" तिथिवारं च नक्षत्रं तत्त्ववेदगुणान्वितम् | कालत्रयं च मासाश्च बारह्मसूत्रं हि षष्णवम् ||सामवेद छन्दोगपरिशिष्ट||" यह जीवन तत्त्वों,गुण,तिथि,वार,नक्षत्र,काल,मास आदि विविध भागोंसे निरन्तर सम्पर्कमें रहनेके कारण उनसे प्रभावित होता रहता हैं | अतः जीवनके एक-एक क्षणको प्रभुका अमित वरदान समझनेवाले महर्षियोंने इन भागोंके महत्त्वको समझकर उनका अवलम्बन करके ब्रह्म-प्राप्तिका शाश्वत लक्ष्य मनुष्यके लिये निर्धारित किया | इन सभी पदार्थोंकी संख्याका समन्वित योग किया जाय तो आश्चर्य होगा कि यह भी ९६ का योग बनता हैं,यथा- (१)मनुष्यके सत्,रज,और तमोगुणमय त्रिविध शरीरमें प्रकृतिप्रदत्त पाँचभूत,पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,पाँच प्राण और चार अन्तःकरणका योग २४ तत्त्वोका समावेश रहता हैं | तीन ग्रन्थियाँ स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीरवाले मनुष्यके आत्मरूपपर त्रिगुणात्मक आवृत्तिसे बहत्तरका योग बनाती हैं | इस शरिरके निराकरण एवं भेदनके लिये चौबीस अक्षरात्मक गायत्रीमन्त्रका जप किया जाता हैं | यही प्रकृतिके तत्त्वोंसे आत्माको मुक्त कराती हैं | यदि इन सबका योग करैं तो परिमाण ७२+२४=९६ आता हैं | अतः इन तत्त्वों और गायत्रीमन्त्रका प्रभाव दरसाने और मुक्तिके लिये गायत्रीमन्त्र जपते रहनेका संकेत करते रहने हेतु द्विजको ९६ परिमाणवाले यज्ञोपवीतको धारण करानेका विधान किया गया हैं |(२) इस गूढ तथ्यको इस दृष्टिकोणसे भी समझा जा सकता हैं | हमारा शरीर २५ तत्त्वोंसे बना हैं | इसमें सत्त्व,रज और तम - ये तीन गुण सर्वदा व्याप्त रहतें हैं | फलतः २८ संख्यात्मक समुदायवाले शरीरको तिथि,वार,काल,नक्षत्र,मास,वेदादि विविध भागोंमें विभक्त,अनेक संवत्सरपर्यन्त इस संसारमें जीवन धारण करना पड़ता हैं | यदि इनका योग करैं तो यह भी ९६ ही होता हैं | देखिये- तिथि१५+वार७+ नक्षत्र२७+तत्त्व२५+ वेद ४+ गुण ३+ काल ३+ और मास १२इनका कुलयोग =९६ आता हैं|
ॐस्वस्ति ||पु ह शास्त्री. उमरेठ|| शेष पुनः
षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड ११४~ हिन्दू धर्ममें तीनकी संख्या आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक- सभी क्षेत्रोंमें विशेष महत्त्व रखता हैं |ब्रह्मा,विष्णु और महेश त्रिदेव हैं | तीनकाल- भूत,वर्तमान और तम - तीन गुण हैं | तीन ऋतुएँ- त्रिलोक; इसी त्रिगुणात्मक भावको आधार बनाकर यज्ञोपवीतका त्रिगुणात्मक तन्तुओंसे निर्माण और उसका त्रिवृत्करण किया गया हैं | तीन सूत्रमें मानवत्व,देवत्व और गुरुत्व भाव निहित हैं | इन्हीं की प्रेरणा,मार्गदर्शन और शिक्षासे मृत्युलोकसे द्युलोककी और ऊर्ध्वगमनके लिये उपासना,ध्यान और सत्कर्म भाव मानव अपनाता हैं | यही उसके निर्वाण के मार्गको प्रशस्त करता हैं | इसी भावनासे तीन तारोंको महाव्याहृति मन्त्रोंसे ऊपरकी और उमेठते हुए नौ तन्तुमय सूत्रका निर्माण किया गया हैं | ये नौ तन्तु नौ देवताऔंके आवास स्थान हैं,जहाँ उनका विधिपूर्वक आवाहन,पूजन और प्रतिष्ठापन(यज्ञोपवीत तैयार हो जाने पर) किया जाता हैं | नौ देवता- ॐकारोऽग्निश्च नागश्च सोमः पितृप्रजापती | वायुः यमश्च(सूर्यश्च),सर्वश्च तन्तुदेवा अमी नव || साम०छन्दो०परि|| ॐकार,अग्नि,नाग,सोम,पितर,प्रजापति, वायु,यम(सूर्य), विश्वेदेवों - हैं | इन देवताओंकी प्रतिष्ठापनासे मानव अपने हृदयमें तत्तद् देवताओंके विशेष गुणों यथा-ब्रह्मलाभ,तेजस्विता,धैर्य,आह्लादकत्व,स्नेह,प्रजापालन,
शुचित्व,प्राणत्व आदि गुणोंको धारण करते हुए अनुभव करता हैं कि मैंने इन गुणोंसे परिपूर्ण और देवताओंसे अधिष्ठित उपवीतको धारण कर लिया हैं | अब मैं तेजस्वी हूँ,धृतिमान् हूँ,शुद्ध हूँ | देवताओंकी विद्यमानता और उनके गुणोंको आत्मसात् करनेकी इस अनुभूतिसे मानवके हृदयमें उपजे मल और मानसिक कुवृत्तियोंका परिमार्जन होगा तथा मनसहित समस्त इन्द्रियाँ विपथगामी न होकर सन्मार्गपर चलनेके लिये प्रवृत्त होंगी | यह भावना अतिरेक या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं,अकाट्य तथ्य हैं | मनुष्यके मनमें यह भावना रहेगी कि देवताके सांनिध्यमें पापाचार करना,नरकका हेतु होगा | आपने अनुभव किया अथवा देखा होगा कि जब कभी मनुष्य शास्त्रनिर्दिष्ट मार्गका त्याग कर विपथगामी होने लगता हैं तो वह सर्वप्रथम यज्ञोपवीत और शिखाको ढोंग कहकर त्याग देता हैं | इससे वह यह अनुभव करता हैं कि वह धर्मके बन्धनसे मुक्त हो गया हैं | मनुष्यका यह कृत्य ही स्पष्ट करता हैं कि यज्ञोपवीत धारण करनेंसे उसमें समाविष्ट कोई-न-कोई शक्ति मानवको विपथगामी होनेेसे बचाने हेतु चेतावनी देते हुए उसे पापाचरणमें प्रवृत्त होनेसे अवश्य रोकती रही होगी | यगोपवीत-निर्माणकार्यमें नौ तन्तुओंको त्रिगुणात्मक कर,तीनसूत्रमें परिवर्तितकर,उसका त्रिवृत्करण करके उसके मूलोंको जोड़नेमें प्रणवरूपी महामन्त्रका उच्चारण करतें हुए ब्रह्मग्रन्थि लगाये जानेका विधान किया गया हैं | इस ब्रह्मग्रन्थिके लगनेपर यज्ञोपवीत धारण करने योग्य बन जाता हैं| ब्रह्मग्रन्थिको लगानेका अभिप्राय यह हैं कि मनुष्य प्रतिक्षण ध्यानमें रखे कि यह समस्त विश्व ब्रह्मसे प्रादुर्भूत हुआ हैं और इसीमें मानवका कल्याण संनिहित हैं | यदि मानव ब्रह्मको भुलाकर उसके माया-जालमें फँस जाता हैं तो वह ब्रह्मत्त्वको भूलकर काम,क्रोध,लोभ,मोहादि सांसारिक प्रपञ्चोंमें लिप्त होकर अपने ही पतनका कारण बन सकता हैं | उसे प्रचलित लोकोक्ति" गाँठ बाँध लेना" को ध्यानमें रखतें हुए गाँठ बाँध लेना चाहिये कि मनुष्यका ब्रह्मप्राप्ति ही चरम लक्ष्य हैं और इसे प्राप्त करनेके लिये उसे शास्त्रनिर्दिष्ट श्रेयमार्गपर चलते रहना होगा | यज्ञोपवीतके धारणका उद्देश्य और लक्ष्य भी यही रहा हैं; अतः इसके मूलमें प्रणव-मन्त्रके साथ लगायी जानेवाली ग्रन्थि उसे प्रणवके "अ+उ+म्" इन तीनों वर्णों,सत्त्व,रज तथा तम- इन तीन गुणों एवं ब्रह्मा विष्णु और महेशरूपी ब्रह्माण्डनियामक त्रिविध शक्तियोंके सामीप्यका ध्यान दिलाती रहती हैं | इसीलिये इसे ब्रह्मग्रन्थि कहा गया हैं | समाजमें मनुष्यको ब्रह्मके साथ-साथ अपनी कुल-परम्पराको भी ध्यानमें रखना होता हैं | अतः ब्रह्मग्रन्थिके ऊपर अपने-अपने कुल,गोत्र,प्रवरादिके भेदसे १,३, या ५ गाँठ लगाये जानेका शास्त्रीय विधान हैं | ये ग्रन्थियाँ मनुष्यको अपनी कुल-परम्परासे जली आ रही शास्त्रमर्यादाकी रक्षा करते हुए उन पुण्यात्मा पूर्वजोंका स्मरण कराती हैं,जिनका वह उत्तराधिकारी हैं और जिनकी तपश्चर्या और सत्कर्मोंसे उसे उस कुलमें जन्म लेनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ,साथ ही उन्हींके पदचिन्होंपर चलनेकी प्रेरणा देती हैं | द्विज सदा याद रखे कि उसमें भी ब्रह्मका अँश हैं और अन्तमें इसीमें लय होना हैं |
शुचित्व,प्राणत्व आदि गुणोंको धारण करते हुए अनुभव करता हैं कि मैंने इन गुणोंसे परिपूर्ण और देवताओंसे अधिष्ठित उपवीतको धारण कर लिया हैं | अब मैं तेजस्वी हूँ,धृतिमान् हूँ,शुद्ध हूँ | देवताओंकी विद्यमानता और उनके गुणोंको आत्मसात् करनेकी इस अनुभूतिसे मानवके हृदयमें उपजे मल और मानसिक कुवृत्तियोंका परिमार्जन होगा तथा मनसहित समस्त इन्द्रियाँ विपथगामी न होकर सन्मार्गपर चलनेके लिये प्रवृत्त होंगी | यह भावना अतिरेक या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं,अकाट्य तथ्य हैं | मनुष्यके मनमें यह भावना रहेगी कि देवताके सांनिध्यमें पापाचार करना,नरकका हेतु होगा | आपने अनुभव किया अथवा देखा होगा कि जब कभी मनुष्य शास्त्रनिर्दिष्ट मार्गका त्याग कर विपथगामी होने लगता हैं तो वह सर्वप्रथम यज्ञोपवीत और शिखाको ढोंग कहकर त्याग देता हैं | इससे वह यह अनुभव करता हैं कि वह धर्मके बन्धनसे मुक्त हो गया हैं | मनुष्यका यह कृत्य ही स्पष्ट करता हैं कि यज्ञोपवीत धारण करनेंसे उसमें समाविष्ट कोई-न-कोई शक्ति मानवको विपथगामी होनेेसे बचाने हेतु चेतावनी देते हुए उसे पापाचरणमें प्रवृत्त होनेसे अवश्य रोकती रही होगी | यगोपवीत-निर्माणकार्यमें नौ तन्तुओंको त्रिगुणात्मक कर,तीनसूत्रमें परिवर्तितकर,उसका त्रिवृत्करण करके उसके मूलोंको जोड़नेमें प्रणवरूपी महामन्त्रका उच्चारण करतें हुए ब्रह्मग्रन्थि लगाये जानेका विधान किया गया हैं | इस ब्रह्मग्रन्थिके लगनेपर यज्ञोपवीत धारण करने योग्य बन जाता हैं| ब्रह्मग्रन्थिको लगानेका अभिप्राय यह हैं कि मनुष्य प्रतिक्षण ध्यानमें रखे कि यह समस्त विश्व ब्रह्मसे प्रादुर्भूत हुआ हैं और इसीमें मानवका कल्याण संनिहित हैं | यदि मानव ब्रह्मको भुलाकर उसके माया-जालमें फँस जाता हैं तो वह ब्रह्मत्त्वको भूलकर काम,क्रोध,लोभ,मोहादि सांसारिक प्रपञ्चोंमें लिप्त होकर अपने ही पतनका कारण बन सकता हैं | उसे प्रचलित लोकोक्ति" गाँठ बाँध लेना" को ध्यानमें रखतें हुए गाँठ बाँध लेना चाहिये कि मनुष्यका ब्रह्मप्राप्ति ही चरम लक्ष्य हैं और इसे प्राप्त करनेके लिये उसे शास्त्रनिर्दिष्ट श्रेयमार्गपर चलते रहना होगा | यज्ञोपवीतके धारणका उद्देश्य और लक्ष्य भी यही रहा हैं; अतः इसके मूलमें प्रणव-मन्त्रके साथ लगायी जानेवाली ग्रन्थि उसे प्रणवके "अ+उ+म्" इन तीनों वर्णों,सत्त्व,रज तथा तम- इन तीन गुणों एवं ब्रह्मा विष्णु और महेशरूपी ब्रह्माण्डनियामक त्रिविध शक्तियोंके सामीप्यका ध्यान दिलाती रहती हैं | इसीलिये इसे ब्रह्मग्रन्थि कहा गया हैं | समाजमें मनुष्यको ब्रह्मके साथ-साथ अपनी कुल-परम्पराको भी ध्यानमें रखना होता हैं | अतः ब्रह्मग्रन्थिके ऊपर अपने-अपने कुल,गोत्र,प्रवरादिके भेदसे १,३, या ५ गाँठ लगाये जानेका शास्त्रीय विधान हैं | ये ग्रन्थियाँ मनुष्यको अपनी कुल-परम्परासे जली आ रही शास्त्रमर्यादाकी रक्षा करते हुए उन पुण्यात्मा पूर्वजोंका स्मरण कराती हैं,जिनका वह उत्तराधिकारी हैं और जिनकी तपश्चर्या और सत्कर्मोंसे उसे उस कुलमें जन्म लेनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ,साथ ही उन्हींके पदचिन्होंपर चलनेकी प्रेरणा देती हैं | द्विज सदा याद रखे कि उसमें भी ब्रह्मका अँश हैं और अन्तमें इसीमें लय होना हैं |
ॐस्वस्ति | पु ह शास्त्री. उमरेठ| शेष पुनः
षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्)खंड११५~" न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् ||मनुः२/१७१||मनुस्मृतिमें आया हैं कि यज्ञोपवीत-संस्कारविहीन द्विज धर्मकर्मादि करनेका अधिकारी नहीं होता | ॐकारः प्रथमे तन्तौ द्वितीयेवग्नि स्तथैव च | तृतीये नागदैवत्यं चतुर्थे सोमदेवता || पञ्चमे पितृदैवत्यं षष्ठे चैव प्रजापतिः| सप्तमे मारुतश्चैव अष्टमे सूर्य(यम) एव च || सर्वे देवास्तु नवम इत्येतास्तन्तु देवताः|| ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणीकृतम् |रुद्रेण दत्तो ग्रन्थिर्वै सावित्र्या चाभिमन्त्रितम्||हरिहरभाष्ये||" ॐकार १तन्तुके,अग्नि २ के,नाग ३ के,सोम ४ के,पितर ५ के, प्रजापति ६ के,अनिल ७के, सूर्य(यम)८के, विश्वेदेवों ९ तन्तुओंके देवता हैं| ब्रह्माजीके साथ उत्पन्नहोनेवाला जनेऊ द्विजोको किसविधसे मिला?-ब्रह्माजीने यज्ञोपवीत सूत्र उत्पन्न किया और विष्णु जी के द्वारा सत् रज तम तीनो गुणों से तीन धागे का लड् युक्त अर्थात त्रिगुणीकरण किया गया।एवं भगवान रुद्रने इसमें ग्रंथि देकर सविता मंत्र (गायत्री मंत्र) से अभिमंत्रित किया। अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयेद्गर्भाष्टमे वा||एकादशवर्षं राजन्यं|| द्वादशवर्षं वैश्यं|| पा०गृ०२/१-३|| पारस्करगृह्यसूत्रमें ब्राह्मणका गर्भसे या जन्मसे आठवें वर्षमें, क्षत्रियका गर्भसे या जन्मसे ग्यारहवें वर्षमें,वैश्यका गर्भसे या जन्मसे बारहवें वर्षमें उपनयनका काल कहा हैं | "गर्भाष्टऽमे वाऽब्दे पञ्चमे सप्तमेऽपिवा | द्विजत्वं प्राप्नुयाद्विप्रो वर्षे त्वेकादशे नृप ||आश्वालायन|| आश्वालायनका कहना हैं कि गर्भसे या जन्मसे आठवेंमें,अथवा पांचवे वा सातवें वर्षमें ब्राह्मण,ग्यारहवेंमें क्षत्रिय,द्विजत्वको(यज्ञोपवीत)को प्राप्त होतें हैं |" ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे | राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्यार्थार्थिनोष्टमे ||मनुः|| मनुजी के कहनेसे ब्रह्मतेजकी कामनावाले ब्राह्मणका पाँचवेमें,और बलकी इच्छावाले क्षत्रियको छठे वर्ष,और धनकी इच्छावाले वैश्यका आठवें वर्षमें यज्ञोपवीत करना चाहिये | " षष्ठे तु धनकामस्य विद्याकामस्य सप्तमे | अष्टमे सर्वकामस्य नवमे कान्तिमिच्छतः ||विष्णुः|| विष्णुने भी कहा हैं कि धनकी इच्छावाला छठेवर्षमें,विद्याकी इच्छावाला सातवेंमें,सब वस्तुओंकी इच्छावाला आठवें तथा कांतिकी इच्छावाले नवें वर्षमें यज्ञोपवीत करैं |" अथ काम्यानि सप्तमे ब्रह्मर्चसकाममष्टमे आयुष्कामं नवमे तेजस्कामं दशमेऽन्नाद्यकाममेकादश इन्द्रियकामं द्वादशे पशुकाममुपनयेत् || आपस्तम्बः|| आपस्तम्बने कहा हैं कि ब्रह्मतेजकी इच्छावाला आठवेंमें,तेजकी इच्छावाला नवमें,अन्न आदिकी इच्छावाला दशवेंमें,इन्द्रियकी इच्छावाला ग्यारहवेंमे,पशुकी कामनासे बारहवें वर्षमें यज्ञोपवीत करैं || आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावीत्रीनातिवर्तते | आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः||मनुः|| गौण समय कहतें हैं कि- सोलहवर्ष पर्यन्त ब्राह्मणको,बाईसवर्ष पर्यन्त क्षत्रियको,चौंतीसवर्ष पर्यन्त वैश्यको गायत्री उल्लंघन नहीं करती; अतः उक्त वर्षसे पहले यज्ञोपवीत संस्कार होजाना अनिवार्य हैं | "अग्रजा बाहुजा वैश्याः स्वावधेरूर्ध्वमब्दतः| अकृतोपनयाः सर्वे वृषला एव ते || ज्योतिर्निबन्ध || ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य अपनी -अपनी अवधि के वर्ष से उपर कें वर्षमें उपवीत न हो तो वे सम्पूर्ण शूद्रतुल्य हो जातें हैं |" विप्रं वसन्ते क्षितिपं निदाधे वैश्यं घनान्ते व्रतिनं विदध्यात् | माघादिशुक्लान्तिक पञ्चमासाः साधरणा वा सकलद्विजानाम्||गर्गः|| गार्ग्यने कहा हैं कि ब्राह्मणका वसन्तमें,क्षत्रिय का ग्रीष्ममें,वैश्यका शरद ऋतुमें यज्ञोपवीत करना चाहिये | और माघसे लेकर ज्येष्ठ पर्यन्त पाँच मास सब द्विजोंका यज्ञोपवीत होता हैं |हेमाद्रीमें भी कथन हैं कि-" माघादिषु च मासेषु मौञ्जी पञ्चसु शस्यते ||हेमाद्रौ|| माघ आदि पाँच महीनोंमें मौञ्जीबन्धन(यज्ञोपवीत) श्रेष्ठ हैं|"झषचापकुलीरस्थो जीवोप्यशुभगोचरः | अतिशोभनतां दद्याद्विवाहोपनयादिषु || पारिजाते बृहस्पतिः || पारिजातमें बृहस्पतिका वचन हैं कि - मीन,धन,कर्कका अशुभ भी बृहस्पति विवाह यज्ञोपवीत आदिमें अत्यन्त शुभकर्ता हैं || " न जन्मधिष्ण्ये न च जन्ममासे न जन्मकालीयदिने विदध्यात् | ज्येष्ठे न मासि प्रथमस्य सूनोस्तथा सुताया अपि मङ्गलानि||वृत्तशते || वृत्तशतमें कहा हैं कि जन्मका नक्षत्र,जन्मका महिना,जन्मकादिन(तिथि) और ज्येष्ठ पुत्रका और ज्येष्ठ कन्याका मंगलकार्य न करैं | राजमार्तँडमें भी कहा हैं कि- " जातं दिनं दूषयते वसिष्ठो ह्यष्टौ च गर्गौ नियतं दशात्रिः| जातस्य पक्षं किल भागुरिश्च शेषाः प्रशस्ताः खलु जन्ममासि || वसिष्ठ जन्मके एक दिनको और गर्गऋषि जन्मसे आठदिन और अत्रि ऋषि जन्मसे दशदिन और भागुरि जन्मसे एक पक्ष(पंद्ररदिन)को अनिष्ट कहतें हैं | शेष दिन जन्मके मंगलकार्योंमें श्रेष्ठ हैं |" जन्ममासे तिथौ भे च विपरीत दले सति| कार्यं मङ्गलमित्याहुर्गर्गभार्गवशौनकाः|| यदि जन्मके महीने तिथि और नक्षत्रमें पक्षका भेद हो तो मंगलकार्य करनेमें दोष नहीं; यह गर्ग भार्गव और शौनक ऋषियोंके मत हैं |" जन्ममास निषेधेऽपि दिनानि दशवर्जयेत् | आरभ्य जन्मदिवसाच्छुभाः स्युस्तिथयोपरे ||राजमार्तण्डे|| जन्ममासके निषेध में भी जन्मदिनसे लेकर दशदिन त्याग दैं शेष तिथियाँ श्रेष्ठ हैं | #" व्रते जन्मत्रिखारिस्थो जीवोऽपीष्टोऽर्चनात्सकृत् | शुभोतिकाले तुर्याष्टव्ययस्थो द्विगुणार्चनात् | शुद्धिर्नैव गुरौर्यस्य वर्षे प्राप्तेऽष्टमे यदि | चैत्रे मीनगते भानौ तस्योपनयनं शुभम् ||जन्मभादष्टमे सिंहे नीचे वा शत्रुभे गुरौ |मौञ्जीबन्धःशुभः प्रोक्तश्चैत्रे मीनगतौ रवौ ||ग्रन्थान्तरे१-३|| ग्रन्थान्तरमें कहा हैं कि यज्ञोपवीतमें जन्मका तीसरा,छठ्ठा बृहस्पति एकबार पूजनसे उत्तम हैं | अतिकाल हो गया हो तो छठ्ठा,आठवाँ,बारहवाँ भी दूने पूजनसे श्रेष्ठ हैं | यदि आठवें वर्षमें जिस बालककी बृहस्पतिकी शुद्धि न हो,उसका यज्ञोपवीत चैत्रमास और मीनके सूर्य में उत्तम हैं | जन्मसे आठवें, सिंहके,नीचके अथवा शत्रुक्षेत्रके भी बृहस्पति हों तो चैत्रमें और मीनके सूर्यमें यज्ञोपवीत श्रेष्ठ हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री, उमरेठ||शेष पुनः||
षोडशसंस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड११६~ नारदजी कहतें हैं कि-" बालस्य बलहिनोपि शान्त्या जीवो बलप्रदः| यथोक्त वत्सरे कार्यमनुक्त चोपनायनम् ||नारदः|| बलहिन भी बृहस्पति शान्तिसे बालकको बलदायक हैं । शान्ति करवाकर शास्त्रोक्त वर्षमें अथवा अन्य वर्षमें यग्ञोपवीत करलेना चाहिये । "तृतीया पञ्चमी षष्ठी द्वितीया चापि सप्तमी। पक्षयोरुभयोश्चैव विशेषेण सुपूजिताः।।धर्मकामौ सितेपक्षे कृष्णे च प्रथमा तथा। शुक्लत्रयोदशीं केचिदिच्छन्ति मुनयस्तथा।।ज्योतिर्निबन्धे नृसिंह।।" तृतीया,पंचमी,षष्ठी,द्वितीया,सप्तमी ये दोनों पक्षोंकी तिथि विशेष कर अत्यन्त उत्तम हैं. शुक्लपक्ष में यज्ञोपवीत करैं तो धर्मकाम सिद्ध होतें हैं,और कृष्णपक्षकी प्रतिपदा और शुक्लपक्षकी त्रयोदशीकी भी कोई मुनि इच्छा करतें हैं।" नैमित्तिकमनध्यायं कृष्णे च प्रतिपद्दिनम् । मेखलाबन्धने शस्तं चौलेवेदव्रतेष्वपि।।प्रशस्ता प्रतिपत्कृष्णे न पूर्वा परसंयुता।।प्रशस्ता प्रतिपत्कृष्णे कदाचिच्छुभगे विधौ। चन्द्रेबलयुते लग्नवर्षाणामपि लंघने।।वसिष्ठ।। वसिष्ठजी कहतें हैं कि" कृष्णपक्षकी प्रतिपदाका दिन नैमित्तिक अनध्याय हैं,तो भी यज्ञोपवीत मुण्डन और वेदके व्रतोंमें उत्तम हैं,कृष्णपक्षकी प्रतिपदा उत्तम हैं परंतु अमावास्या और द्वितीयासे युक्त हो तो श्रेष्ठ नहीं हैं.यह भी उस बालकके यज्ञोपवीत में जानना जिस बालकके यज्ञोपवीत का काल बीत गया हो कारण कि-"कदाचित् कृष्णपक्षकी भी प्रतिपदा तब उत्तम हैं जब चन्द्रमा उत्तम हो और लग्न बलवान् हो तथा यज्ञोपवीतके वर्ष बीत गयें हो । "एवं सप्तम्यपि" तस्या गलग्रहत्वोक्तेः।।निर्णयसिन्धौ३।। इस प्रकार सप्तमी के दिन चन्द्र और लग्न बलवान् हो तो ही यज्ञोपवीत के वर्ष बीत जानेपर शुभ हैं क्योंकि सप्तमी गलग्रहतिथि हैं।"शुक्लपक्षः शुभः प्रोक्तः कृष्णश्चान्त्यन्त्रिकं विना। मिथुने संस्थिते भानौ ज्येष्ठ मासो न दोषकृत्।।बृहस्पतिः।। बृहस्पतिका कहना हैं कि सम्पूर्ण शुक्लपक्ष और पिछली पाँच तिथिओं को त्यागकर सम्पूर्ण कृष्णपक्षकी तिथियाँ शुभ हैं । मिथुनके सूर्यमें ज्येष्ठमासका दोष नहीं ।
विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे। अपराह्णे चोपनीतः पुनः संस्कार मर्हति ।।"अपराह्ण स्त्रिधा विभक्तदिनतृतीयांशः। वसन्ते गलग्रहो न दोषायेत्यर्थः।। नारदः।। नारदजी कहतें हैं कि वसन्तसे पृथक ऋतु कृष्णपक्ष और गलग्रहमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं,दिनके तीसरे भागको अपराह्ण कहा हैं वसंतऋतुमें गलग्रहका दोष नहीं हैं। "कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादि दिनत्रयम्। त्रयोदशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः।।नारदः।। नारदजीका कहना है- कृष्णपक्षकी चौथ और सप्तमीसे तीनदिन तथा त्रयोदशीसे चारदिन यह गलग्रह तिथियाँ हैं।"पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेपि च। अनध्याये चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति।।अनध्यायस्य पूर्वेद्युस्तस्य चैवापरेहनि। व्रतबन्धं विसर्गं च विद्यारम्भं न कारयेत्।।वसिष्ठः।। वसिष्ठजीने कहा हैं कि पापके नवांशमें चन्द्रमा हो अथवा शत्रूघरका नीचका चन्द्रमा हो अथवा अनध्याय हो ऐसे योगमें जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं। अनध्यायके अगलेदिन अथवा दूसरादिन यज्ञोपवीत,व्रतविसर्जन और विद्यारम्भ न करना चाहिये ।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे। अपराह्णे चोपनीतः पुनः संस्कार मर्हति ।।"अपराह्ण स्त्रिधा विभक्तदिनतृतीयांशः। वसन्ते गलग्रहो न दोषायेत्यर्थः।। नारदः।। नारदजी कहतें हैं कि वसन्तसे पृथक ऋतु कृष्णपक्ष और गलग्रहमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं,दिनके तीसरे भागको अपराह्ण कहा हैं वसंतऋतुमें गलग्रहका दोष नहीं हैं। "कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादि दिनत्रयम्। त्रयोदशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः।।नारदः।। नारदजीका कहना है- कृष्णपक्षकी चौथ और सप्तमीसे तीनदिन तथा त्रयोदशीसे चारदिन यह गलग्रह तिथियाँ हैं।"पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेपि च। अनध्याये चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति।।अनध्यायस्य पूर्वेद्युस्तस्य चैवापरेहनि। व्रतबन्धं विसर्गं च विद्यारम्भं न कारयेत्।।वसिष्ठः।। वसिष्ठजीने कहा हैं कि पापके नवांशमें चन्द्रमा हो अथवा शत्रूघरका नीचका चन्द्रमा हो अथवा अनध्याय हो ऐसे योगमें जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं। अनध्यायके अगलेदिन अथवा दूसरादिन यज्ञोपवीत,व्रतविसर्जन और विद्यारम्भ न करना चाहिये ।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
षोडशसंस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड११७~"अष्टाकासु च सर्वासु युगमन्वन्तरादिषु। अनध्यायं प्रकुर्वीत तथा सोपपदास्वपि।। ज्योतिर्निबन्ध।। सम्पूर्ण अष्टका और मन्वन्तरादि तथा सोपपदामें यज्ञोपवीतका अनध्याय करना चाहिये । "सिता ज्येष्ठे द्वितीया च आश्विने दशमी सिता। चतुर्थी द्वादशी माघे एताः सोपपदाः स्मृताः।।स्मृत्यर्थसारे।। स्मृत्यर्थसारमें सोपपदा तिथि यह लिखी हैं कि-ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया,आश्विनशुक्ला दशमी,माघ शुक्ला चतुर्थी और द्वादशी हैं।एवं प्रदोष "षष्ठी च द्वादशी चैव अर्धरात्रोननाडिका। प्रदोषमिह कुर्वित तृतीया तु न यामिका।।गोभिल।। इसी प्रकार प्रदोष को भी छोड़ दै- प्रदोष का स्वरूप गोभिलने बताया हैं कि षष्ठी और द्वादशी ये आधी रातमें एक घडी न्यून हो तो प्रदोष कहतें हैं। "या चैत्र वैशाखसिता तृतीया"माघस्य सप्त्म्यथ फाल्गुनस्य। कृष्णे तृतीयोपनये प्रशस्ता"प्रोक्ता भरद्वाजमुनीन्द्रमुख्यैः।।अत्रापि कृष्ण प्रतिपद्वज्ज्ञेयम्।।व्यासः।। चैत्र और वैशाख की शुक्ला तृतीया और माघ शुक्ला सप्तमी तथा फाल्गुन कृष्णा तृतीया ये तिथियाँ यज्ञोपवीतमें भरद्वाजमुनिराजने श्रेष्ठ कहीं हैं।यहाँ भी कृष्ण प्रतिपदाके तुल्य चन्द्रमाके बलमें ही इनको शुभ जानना।"अनध्याये प्रकुर्वीत यस्तु नैमित्तिको भवेत् । सप्तमी माघशुक्ले तु तृतीया चाक्षया तथा।। बुध त्रयेन्दुवाराश्च शस्तानि व्रतबन्धने।। इति तत्प्रायश्चित्तार्थोपनयनविषयम्।।वृद्धगार्ग्यः।। वृद्धगार्ग्यने यह कहा हैं कि जो कर्म किसी निमित्तसे किया जाय तो उसे अनध्यायमें भी करलेना चाहिये। माघ शुक्ला सप्तमी,अक्षयतृतीया,बुध,गुरु,शुक्र और सोम ये वार यज्ञोपवीतमें उत्तम हैं यह कथन भी तब माने जबकि अतिक्रान्तके प्रायश्चित्त निमित्त यज्ञोपवीत किया जाय कारण कि-"। स्वाध्यायवियुजो वस्राः कृष्णप्रतिपदादयः। प्रायश्चित्त निमित्ते तु मेखलाबन्धने मताः।। गार्ग्यः।।"इति तेनैवोक्तेरिति निरणयामृतकालादर्शौ।। स्वाध्याय(स्व शाखा) से पृथक(अनध्याय)के दिन और कृष्णपक्षकी प्रतिपदा आदि ये उस यज्ञोपवीत में उत्तम हैं,जो प्रायश्चित्त के निमित्त हो यह निर्णय निर्णयामृत और कालादर्शमें भी कहा हैं। " ग्रहे रवीन्द्वोरवनिप्रकम्पे केतुद्गमोल्कापतनादिदोषे। व्रते दशाहानि वदन्ति तज्ज्ञास्त्रयोदशाहानि वदन्ति केचित् ।।गर्गः।। गर्गने लिखा हैं कि सूर और चन्द्रका ग्रहण,भूकंप,केतुताराका उदय,बिजलीका गिरना आदि दोष हो तो यज्ञोपवीतमें ज्योतिषी दशदिनका निषेध कहतें हैंऔर कोई तेरह दिन । "दाहे दिशांचैव धराप्रकम्पे वज्रप्रपाते$थ विदारणे च। केतौ तथोल्कांशुकणप्रपाते त्रयहं न कुर्याद्व्रतमङ्गलानि।।संकटे चण्डेश्वरः।। जननाशौच,मृताशौच तथा रजस्वलादि आशंकाका संकट हो तो चंडेश्वरने कहा हैं कि दिशाओंका दाह,भूकंप,वज्रपात,राजयुद्ध,केतोदय,और बिजली गिरना इनमें तीन दिनतक यज्ञोपवीत और मंगलकार्यों न करैं ।**" वेदव्रतोपनयने स्वाध्यायाध्ययने तथा। न दोषो यजुषां सोपपदास्वध्ययनेपि च ।।चंडेश्वरः।। यजुर्वेदियोंको सोपपदा और अनध्यायका दोष वेदव्रत और यज्ञोपवीत तथा वेदपाठमें नहीं हैं। ***" हस्तत्रये पुष्यधनिष्ठयोश्च पौष्णाश्विसौम्यादितिविष्णुभेषु । शस्ते तिथौ चन्द्रबलेन युक्ते कार्यौ द्विजानां व्रतबन्धमोक्षौ ।। हेमाद्रौ ज्योतिषे।। हेमाद्रीमें ज्योतिष का कथन हैं कि हस्तसे तीन,पुष्य,धनिष्ठा,रेवती,अश्विनी,मृगशिर्ष,पुनर्वसु,श्रवणमें और चन्द्रके बलसे युक्त श्रेष्ठ तिथिमें द्विजातियोंका यज्ञोपवीत और व्रतविसर्ग करने चाहिये।"श्रेष्ठान्त्यर्कत्रयान्त्येज्यचन्द्रादित्युत्तराणि च। विष्णुत्रयाश्विमित्राब्जयोनिभान्युपनायने।।ज्योतिर्निबन्धे नारदः।। हस्तसे तीन,रेवती,पुष्य,पुनर्वसु तीनों उत्तरा,श्रवणसे तीन अश्विनी,अनुराधा,भरणी ये नक्षत्र यज्ञोपवीतमें उत्तम हैं।"त्रिषूत्तरेषु रोहिण्यां हस्ते मैत्रे च वासवे। त्वाष्ट्रे सौम्यपुनर्वस्वोरुत्तमं द्युपनायनम्।।बृहस्पतिः।। बृहस्पतिजी का कहना हैं कि तीनों उत्तरा,रोहिणी,हस्त,अनुराधा,धनिष्ठा,चित्रा,मृगशिर्ष और पुनर्वसु यज्ञोपवीतमें श्रेष्ठ हैं।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
षोडशसंस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड११८~"पूर्वाहस्तत्रये सार्पश्रुतिमूलेषु बह्वृचाम्। यजुषां पौष्णमैत्रार्कादित्य पुष्यमृदुध्रुवैः।।सामगानां हरीशार्कवसुपुष्योत्तराश्विभैः।धनिष्ठादितिमैत्रार्केष्विन्दु पौष्णेष्वथर्वणाम्।।ज्योतिर्निबन्धे।। ज्योतिर्निबन्धमें कहा हैं कि तीनोंपूर्वा,और हस्तसे तीन नक्षत्र,आश्लेषा,श्रवण,मूलमें ऋग्वेदियोंका,रेवती,अनुराधा,हस्त,और पुनर्वसु मृदुसंज्ञक(मृगशिर्ष,चित्रा,अनुराधा,रेवती),और ध्रुवसंज्ञक(रोहिणी,उत्तरातीन)नक्षत्रोंमें यजुर्वेदियोंका,श्रवण, आर्द्रा,हस्त,धनिष्ठा,पुष्य,तीनों उत्तरा और अश्विनीमें सामवेदियोंका, तथा धनिष्ठा,पुनर्वसु,अनुराधा,हस्त, मृगशिर, रेवतीमें अथर्ववेदियोंका यज्ञोपवीत करना उत्तम हैं।"ब्राह्मणस्य पुनर्वसुं निषेधयति-" ताराचन्द्रानुकुलेषु ग्रहाब्देषु शुभेष्वपि। पुनर्वसौ कृतौ विप्रः पुनः संस्कार मर्हति।।राजमार्तण्डे।। राजमार्तण्डमें पुनर्वसुका निषेध लिखा हैं कि- तारा और चन्द्रमा अनुकूल हों और ग्रह तथा वर्ष शुभ हो तो भी पुनर्वसुमें यज्ञपवीत किया हुआ ब्राह्मण फिर संस्कारके योग्य हैं।"सर्वेषां जीव शुक्रज्ञवाराः प्रोक्ता व्रते शुभाः। चन्द्रार्कौ मध्यमौ ज्ञेयौ सामबाहुजयोःकुजः।।शाखाधिपति वारश्च शाखाधिपबलं तथा। शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते।।नारदः।। नारदने कहा हैं कि गुरु,शुक्र,बुधवार सबके यज्ञोपवीतमें उत्तम हैं। सोम और रविवार मध्यम, तथा वैश्य और क्षत्रियको मंगलवार उत्तम हैं। शाखाके स्वामीका वार और शाखाके स्वामीका बल तथा शाखाके स्वामीका लग्न ये तीन यज्ञोपवीतमें दुर्लभ हैं।" ऋगथर्वसामयजुषामधिपा गुरुसौम्यभौमसिताः। जीवसितौ विप्राणां क्षत्रस्यारोष्णगू विशां चन्द्रः।।रत्नसंग्रहे।। ऋग्वेदियों का गुरु,सामवेदियों का बुध, अथर्ववेदियों का मंगल,और यजुर्वेदियोंका शुक्र शाखाके स्वामी हैं।गुरु और शुक्र ब्राह्मणोंके, क्षत्रियोंके मंगल और सूर्य, तथा वैश्योंके चन्द्रमा वर्णेश हैं । "बह्वृचानां गुरोर्वारे यजुर्वेदजुषांबुधे। सामगानां धरासूनोरथवा विदूषां रवेः।।बृहस्पतिः।। पारिजातमें बृहस्पतिने कहा हैं कि ऋग्वेदियोंका गुरुवार,यजुर्वेदियोंका बुधवार, सामवेदियोंका मंगलवार, तथा अथर्ववेदियोंका रविवार होता हैं।"{व्रतेह्नि पूर्वसंध्यायां वारिदो यदि गर्जति। तद्दिने स्यादनध्यायो व्रतं तत्र विवर्जयेत् ।।लल्लः।। वेदव्रत के दिन यदि पूर्वसंध्यामें मेघ गर्जे तो अनध्याय हो जाता हैं। इससे उसमें वेदव्रतको त्याग देना चाहिये। क्योकि "नान्दीश्राद्धं कृतं चेत्स्यादन ध्यायस्त्वकालिकः। तदोपनयनं कार्यं वेदारम्भं न कारयेत्।।ज्योतिर्निबन्ध।। यदि नान्दीश्राद्ध करनेके बाद अकालिक अनध्याय हो जाय तो उपनयन कर लेना और वेदारंभ नहीं करना चाहिये। क्योंकि ऋग्वेदियोंका अनध्यायमें वेदारंभ नहीं होता ।"मृगादिज्येष्ठान्तंवर्षतुः। तं विना वर्षादौ त्रिरात्रमनध्यायः।ऐतरेयोपनिषदि।। ऐतरेय उपनिषदमें कहा हैं कि मृगशिरसे ज्येष्ठाके सूर्य तक वर्षाऋतु हैं उसके बिना वर्षाऋतुमें तीन रात्रिका अनध्याय हैं। "एतच्च प्रातस्तनिते सायंस्तनिते तु दिवैव चरुं श्रपयित्वा सायंसंध्योत्तरं होमं कुर्यात्।"न संध्यागर्जिते काले न वृष्ट्युत्पातदूषिते। ब्रह्मौदनं पचेदग्नौ पक्वं चेन्न निवर्तते।।प्रयोगरत्ने।। यह कहैं वाक्य प्रातःकालके गर्जनके विषयमें हैं,यदि सायंसंध्यामें गर्जेतो दिनमें पकाये हुए चरुका सायंकाल के बाद हवन करलैं, कारण कि-"प्रयोगरत्नमें लिखा हैं कि संध्याके समय गर्जनेनें और बिजली आदिके उत्पत्तिमें ब्रह्मौदनचरु अग्निमें नहीं पकाना चाहिये।
ॐस्वस्ति। पु ह शास्त्री.उमरेठ।शेष पुनः
षोडश संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड११९~" पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजाः। उपानये$धिकारी स्यात्पूर्वाभावे परःपरः।।माधवीये मनुः।। उपनयन करानेमें अधिकारी माधवीय ग्रन्थमें मनूने कहैं हैं कि पिता,दादा(पिताके पिता),भाई,जातिके मनुष्य, सगोत्री,और ब्राह्मण यज्ञोपवीत करानेके अधिकारी हैं।इनमें अनुक्रमसे पहले कहे हुए का किसीतरहसे लाभ न हो तो पीछलें अनुक्रमसे आगेके लाभ न होने पर ग्राह्य हैं जैसेकि पिता न होने पर दादा, और पिता तथा दादा न होनेपर भाई इत्यादि।प्रयोग रत्नमें भी कहा हैं कि "पितेवोपनयेत्पुत्रं तदभावे पितुः पिता। तदभावे पितुर्भ्राता तदभावे तु सोदरः।।प्रयोगरत्ने।। पिता ही पुत्रका यज्ञोपवीत करायें,वह न हो तो पितामह(दादा),और उसके अभावमें चाचा,यदि चाचा न हो तो सगाभाई यज्ञोपवीत करायें। "पितेतिविप्रपरं न क्षत्रियादेः। तेषां पुरोहित एव। उपनयनस्य दृष्टार्थत्वात्। असंस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः।।याज्ञवल्क्यः।। पिता सिर्फ ब्राह्मणोंके यज्ञोपवीत के लिये निमित्त हैं। क्षत्रियादिको नहीं। कारण कि उपनयन का दृष्टार्थ इस लोगों के होनेसे पुरोहित ही अधिकारी हैं। क्षत्रियादिकोंका वेदके पढानेमें अधिकार नहीं हैं और यहाँ चाचा भी ज्येष्ठभाईके न होनेमें ही अधिकार हैं। कारणकि याज्ञ्यवल्क्यने कहा हैं कि जिन भाईओंका संस्कार नहीं हुआ उनका प्रथम संस्कृत भाई संस्कार करैं।" अलाभे सुमुर्हूतस्य रजोदोषे ह्युपस्थिते। श्रियं संपूज्य विधिवत्ततो मङ्गलमारभेत्।।वाक्यसारे।। वाक्य सारमें लिखा हैं कि मुर्हूत न मिलै और रजोदोष हो जाय तो विधिसे लक्ष्मीका पूजन (श्रीशांति)करवाकर मङ्गलकार्य करैं।"संकटे समनुप्राप्ते सूतके समुपागते। कूष्माण्डाभिर्घृतं हुत्वा गां च दद्यात्पयस्विनीम्।।संग्रहे।। आशौच हो जाय तो "संग्रह"में कहा हैं कि रजोदोषकी संभवना,सूतक या मृतक आशौच में कूष्माण्डी ऋचा(मंत्रो)से घीका हवन कर दूधदेनेवाली गाय या गायके बदलेमें निष्क्रयी दक्षिणा दान दैं।"चूडोपनयनोद्वाह प्रतिष्ठादिकमाचरेत्।।यह होम करकें चूडाकरण,यज्ञोपवीत,विवाह,प्रतिष्ठा,आदि कर सकतें हैं। प्रयोग पारिजातमें ब्रह्मपुराणका कथन हैं कि-" ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स इति श्रृतिः। तस्माच्च षण्ढबधिरकुब्जवामनपंगुषु। जडगद्गदरोगार्त शुष्काङ्गविकलाङ्गिषु। मत्तोन्मत्तेषु मूकेषु शयनस्थे निरिन्द्रिये।। ध्वस्त पुंस्त्वेषु चैतेषु संस्काराः स्युर्यथोचितम्। मत्तोन्मत्तौ न संस्कार्याविति केचित्प्रचक्षते।।कर्मस्वनधिकाराच्च पातित्यं नास्ति चैतयोः।तदपत्यं च संस्कारर्यमपरे त्वाहुरन्यथा।। संस्कारमन्त्र होमादीन्करोत्याचार्य एव तु। उपनेयांश्च विधिवदाचार्यस्य समीपतः। आनियाग्नि समीपं वा सावित्रीं स्पृश्य वा जपेत्। कन्यास्वीकरणादन्यत्सर्वं विप्रेण कारयेत्।।।।ब्राह्मे।। ब्राह्मणोंमें जो ब्राह्मणसे उत्पन्न होता हैं वह ब्राह्मण होता हैं,यह श्रृति है। उससे उत्पन्न हुये नपुंसक,बहरे,कुबडे,नाटे,लंगडे,जड,तोतडे, रोगी,शुष्क और विकलांग हैं तथा मत्त उन्मत्त ,गूंगे अथवा निद्रालु और इन्द्रियरहित या पुंस्त्वहिन हो गयें हैं उनका भी यथोचित संस्कार करना चाहिये। कोई कहतें हैं कि मत्त और उन्मत्त ये दोनोंका संस्कार न करैं। ये दोनौं पतित तो नहीं हैं परंतु इनका कर्म में अधिकार नहीं। उनकी सन्तान संस्कार करने योग्य हैं। किसीका कहना हैं कि उनके संस्कार होम आदि आचार्यको करने चाहिये। यज्ञोपवीत करने योग्य नपुंसक आदिको आचार्य विधिसे अपने निकट लाकर और अग्निके पास बैठाकर और स्पर्श करके गायत्रीमंत्रका जप करैं। गर्भाधान,कन्यादान स्विकार करनेसे भिन्न कर्मको आचार्य करैं । "आरभ्याधानमाचौलात्काले$तीते तु कर्मणाम्। व्याहृत्याग्निं तु संस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम्।।एतेष्वेकैकलोपे तु पादकृच्छ्रं समाचरेत्। चूडायामर्धकृच्छ्रं स्यादापदि त्वेवमीरितम्।।अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत् ।।शौनकः।। संस्कारके लोपमें शौनकजीने कहा हैं कि गर्भाधानसे लेकर मुण्डनपर्यन्त संस्कारकाल बीतजाय तो व्याहृतिमंत्रोंसे घीका संस्कार और हवन करकें क्रमसे कर्म करैं। यदि इनमें एक दो कर्मका लोप हो तो पादकृच्छ्र व्रत या उनके प्रत्याम्नायरूप १०००गायत्रीमंत्रजप करैं मुण्डनके लोपमें अर्धकृच्छ्रव्रत या २००० गायत्री जप करैं,यह आपत्ति के लिये लिखा हैं परंतु लोकलज्जा तथा समय बचाने पैसे बचाने के लिये सभी संस्कार साथमें करनें पडैं तो सब कर्मका दोगुना प्रायश्चित्त यानी गर्भाधानके १०००के दोगुनेेमैं २०००/ पुंसवनके १०००के दोगुने २०००/ सीमंतके १०००के दोगुने २०००/ जातकर्मके१०००के दोगुनेे २०००/ नामकरणके १०००के दोगुने २०००/ निष्क्रमणके १०००के दोगुने२०००/ अन्नप्राशन१०००के दोगुने २०००/ चूडाकरण के २०००के दोगुने ४००० कुल १८००० गायत्री जप हौंगे। आगे यज्ञोपवीतमें आनेवाले प्रायश्चित्त कहैंगे । "कालातीतेषु कार्येषु प्राप्तवत्स्वपरेषु च । कालातीतानि कृत्वैव विदध्यादुत्तराणि तु।। तत्र सर्वेषां तन्त्रेण नान्दीश्राद्धं कुर्यात्। गणशःक्रियमाणानां मातॄणां पूजनं सकृत् | सकृदेव भवेच्छ्राद्धमादौ न पृथगादिषु || छन्दोग्यपरिशिष्टात्|| त्रिकाण्डमण्डनमें कहा हैं कि सभी लोप कर्म करने हो तथा समयोचितभी कर्म साथमें करना हो तो उन लोप कर्मोंको प्रथम क्रमसे करकर समयोचित कर्मोंको करैं | वहाँ सब कर्मोंका एकतन्त्रसे ही नान्दीश्राद्ध करैं,कारण कि देशकालमें करने वालें यह सब कर्म एक ही कहा जायेंगा | छंदोगपरिशिष्टमें कहा हैं कि एकवार किये हुए कर्मोंमें षोडशमातृका(वसोर्द्धारासहिता)माताओंका पूजन और श्राद्ध एक बार ही पहले कर लैं भिन्न न करैं कारण कि देशकाल करनेसे यह सब एक हैं |
ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री. उमरेठ| शेष पुनः
ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री. उमरेठ| शेष पुनः
षोडश संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड१२०~" पतिके जीते हुये जारसे उत्पन्न बालक कुण्ड तथा मरजानेके बाद जारसे उत्पन्न बालक गोलक हैं। "अब्राह्मण्येनोपनयनाद्यप्राप्तेरित्यपरार्कः।। और यह कुण्ड तथा गोलक ब्राह्मण न होनेसे यज्ञोपवीतकी प्राप्ति ही नहीं होती ऐसा अपरार्कमें लिखा हैं। "उपनयनं च कुमारं भोजयित्वा कार्यम्। प्रागेवैनं तदहर्भोजयन्ति।। मदनपारिजाते गोभिलः।। यज्ञोपवीत कुमारको भोजन कराकर करना,कारण कि मदन पारिजातमें गोभिलने कहा हैं कि यज्ञोपवीतमें बालकको पहले ही(दूधभात) भोजन करायैं। यावद्ब्रह्मोपदेशस्तु तावत्संध्यादिकं च न । ततो मध्याह्न संध्यादि सर्वं कर्म समाचरेत् ।।जैमिनिः।। यज्ञोपवीतके दिन पारिजातमें जैमिनि मध्याह्न संध्या करने कहतें हैं - कि जबतक गायत्रीका उपदेश न हो तबतक सन्ध्यादि न करैं बादमें मध्याह्न संध्यादि सब कर्मोंको करैं। यज्ञोपवीतमें बटुकको भी जिस संध्याके निकटमें हो उस संध्या (संक्षिप्त विधानसेभी)आचार्य करायें क्योंकी यहाँ बटुकको यज्ञोपवीतसंस्कारसे ही तो आचार और अनुष्ठनीय कर्मको जानना हैं ।" उपनयनाग्निस्त्रिरात्रं धार्यः।।आपस्तम्ब।। उपनयनकी अग्नि बटुक तीन रात तक धारण करके सायंप्रातःअग्निकार्य भी आचार्यसे जानकर करैं। "बौधायनसूत्रे तु सदा धारणमप्युक्तम्। उपनयनादिरग्निष्टोमोपासनमित्याचक्षते। पाणिग्रहणादित्येके। नित्यो धार्योनुगतो निर्मन्थ्यःइति।। बौधायनसूत्रमें तो यह अग्नि निरन्तर रक्षणकरकें धारण करना भी लिखा हैं। किसीका कथन हैं कि उपनयनकी अग्निको उपासनाअग्नि कहतें हैं,उसको विवाहतक धारण करैं। कारण कि यह कहा हैं कि मथी हुई अग्निको नित्य धारण करैं और साथ रखैं यह भी जो अरणीसे उत्पन्न हुई अग्निके विषयमें कहा हैं। सामन्य अग्निको मथना तो असम्भव हैं। #अथब्रह्मचारि धर्माः-" मधुमांसञ्जनोच्छिष्ट शुक्तस्त्रीप्राणिहिंसनम्। भास्करालोकनाश्लीलपरिवादादि वर्जयेत्।।याज्ञ्यवल्क्यः।। याज्ञवल्क्यने कहा हैं कि शहद,मांस,अंजन,उच्छिष्ट,शुक्तपदार्थ,स्त्री,प्राणियोंकी हिंसा,सूर्यदर्शन(त्राटक), अस्तहोनेवाले सूर्यका दर्शन, कठोरवाक्य,निन्दा,ब्रह्मचारी सदा त्याग दैं।"अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम्। वर्जयेदिति प्रकृतम्।।मनुः।। मनुजीने कहा हैं कि उबटन,नेत्रोंका अञ्जन,जूता,और छत्रधारण त्याग दैं।"ताम्बूलाभ्यञ्जनं चैव कांस्यपात्रे च भोजनम्। यतिश्च ब्रह्मचारी च विधवा च विवर्जयेत् ।।प्रचेताः।। प्रचेता का कबना हैं- पान चबाना,कांसीकेपात्रमें भोजन करना,इनको संन्यासी,ब्रह्मचारी और विधवा त्याग दैं। "मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं च नित्यशः। कौपीनं कटिसूत्रं च ब्रह्मचारी तु धारयेत् ।।अग्नीन्धनं भैक्षचर्य्यामधःशय्यां गुरोर्हितम्। कुर्यादिति शेषः।।यमः।। यमने कहा हैं कि मेखला,मृगचर्म,दण्ड,यज्ञोपवीत, कौपीन,और कटिसूत्रको ब्रह्मचारी निरन्तर धारण करैं। तथा अग्निके निमित्त ईंधन,और भिक्षा लायें,गुरुसे नीचे सोना चाहिये गुरुका हित करैं।। गायत्र्युपदेशश्चोत्तरतोग्नेःकार्यः।।उत्तरेणाग्निमुपविशतः। प्राङ्गमुख आचार्यःप्रतयङ्गमुख इतरो$धीहि भोः।।इति शांखायनसूत्रोक्तेः।। गायत्रीका उपदेश अग्निसे उत्तरदिशामें करैं,कारण कि शांखायनसूत्रमें कहा हैं कि "अग्निसे उत्तरमें बैठे हुये पश्चिमाभिमुख बालकको पूर्वमें बैठा हुआ आचार्य यह कहैं "भो बटो!अध्ययन करो,।"तथास्मै सावित्रीमन्वाहोत्तरतोग्नेः प्रत्यङ्गमुखाय इति।।कात्यायन।। कात्यायनने कहा हैं कि बटुको गायत्रीका उपदेश अग्निसे उत्तरमें पश्चिमाभिमुख बैठे हुएको करैं।"बह्वृचानां तूत्तर एव वेदैक्यात्।।नि०सिं०।। ऋग्विदियोंको उत्तरमें ही उपदेश करैं कारण कि उनका एक ही वेद हैं।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
षोडश संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड१२१~ " मेखला मौञ्जी ब्राह्मणस्य धनुर्ज्या क्षत्रियस्यावी वैश्यस्य।।आश्वालायन।। आश्वालायन ऋषिने कहा हैं कि ब्राह्मणकी मुञ्जकी,क्षत्रीयकी धनुषके प्रत्यंचाकी (मोरवेलके रेसे से निर्मित),और वैश्यकी भेडके उन की मेखला होती हैं।" त्रिवृता मेखला कार्या त्रिवारं स्यात्समावृता। तद्ग्रन्थयस्त्रयः कार्याः पञ्च वा स्प्त वा पुनः।।"
तीनसूतकी मेखला निर्माण करैं,फिर उसको तीन तारकी बनाकर इसमें तीन, एक,पाँच गाँठ लगायैं। "अत्र प्रवर संख्या नियमः।।" यह गाँठ अपने अपने प्रवर की संख्यानुसार चयन करैं।" मौंज्याभावे तु कर्तव्या कुशाश्मन्तकवल्वजैः।।मनुः।। मनुजीने कहा हैं कि मौञ्जी न मिलैं तो कुश,अश्मन्तक(धानके पत्ते),वल्वज(मोळ)की मेखला बनायैं।" ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ। पैलवोदुम्बरो वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः।।मनुस्मृतिः२/४५।। मनुजी कहतें हैं- धर्मशास्त्रानुसार ब्राह्मण बेल और ढाक का,क्षत्रिय वट और खैर का तथा वैश्य पीपल और गूलरका दण्ड धारण करैं।"एषामभावे- यज्ञियो वा।।गौतमः।। कहे हुए दण्ड न मिलने पर महर्षि गौतमने कहा हैं कि सबका दण्ड यज्ञीय वृक्षके निर्माण करैं। "केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यःप्रमाणतः। ललाटसंमितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः।।मनुः।। ब्राह्मणका दण्ड बटुककी शिखा तक पहुचे इतना,क्षत्रियका ललाट तकका,और वैश्यका नाकके अग्रभाग तक आयें इतना दण्ड रखैं।"अहतेन वाससा संवीतमैणेयेन वाजिनेन ब्राह्मणं रौरवेण क्षत्रियमाजेन वैश्यम्।।आश्वालायन।। आश्वालायनने कहा हैं कि नवीन वस्त्रसे ढके ब्राह्मणका चर्म कालीमृगीका होता हैं,क्षत्रियका रुरुमृगका, और वैश्यका बकरेका चर्म होता हैं। "सर्वेषां वा रौरवम्।। शंखः।। अथवा न मिलनेपर सबका रुरुमृगका चर्म शंखने कहा हैं।"मृग चर्मणा सह विकल्पो ज्ञेयः।। यमः।। यमके वाक्यसे मृगचर्म के साथ ब्राह्मणके लिये मृगीचर्म का विकल्प समझे। "उपवीतं बटोरेकं द्वे तथेतरयोःस्मृतेः। एकमेव यतीनां स्यादिति शास्त्रस्य निश्चयः।।देवलः।। पारिजातमें देवलने कहा हैं कि ब्रह्मचारीका यज्ञोपवीत एक,वानप्रस्थ और गृहस्थीके दो,तथा संन्यासियोंका एक होता हैं यह शास्त्रका सिद्धान्त हैं।" बहूनिषायुष्कामस्य।।देवल।। देवलने यह भी कहा हैं कि आयुष्यकी कामनासे बहुतसे यज्ञोपवीत धारण करैं।"यज्ञोपवीते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्मणि। तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्राभावे तदिष्यते।।हेमाद्रौ।। हेमाद्रीका कथन हैं कि वेद और स्मृतिमें कहे कर्मोंमे दो यज्ञोपवीत धारण करैं और उपवस्त्र के निमित्त तीसरा धारण करैं परन्तु वस्त्रके न पहननेमें ही वह पहनें अन्यथा नहीं।"विच्छिन्नं चाप्यधो यातं भुक्त्वा निर्मितमुत्सृजेत्।।देवलः।। यदि यज्ञोपवीत तूट जायें(तार भी), नाभिसे निचे निकल जायें अथवा भोजन करके जो यज्ञोपवीतका निर्माण किया हो उसको त्याग दैं। "मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्।अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रतः।।मनुः।। मनुजीने कहा हैं कि मेखला,मृगचर्म,दण्ड,यज्ञोपवीत,कमण्डलु टूटजाये तो जलमें डालकर मन्त्रपूर्वक नयें धारण करैं।
तीनसूतकी मेखला निर्माण करैं,फिर उसको तीन तारकी बनाकर इसमें तीन, एक,पाँच गाँठ लगायैं। "अत्र प्रवर संख्या नियमः।।" यह गाँठ अपने अपने प्रवर की संख्यानुसार चयन करैं।" मौंज्याभावे तु कर्तव्या कुशाश्मन्तकवल्वजैः।।मनुः।। मनुजीने कहा हैं कि मौञ्जी न मिलैं तो कुश,अश्मन्तक(धानके पत्ते),वल्वज(मोळ)की मेखला बनायैं।" ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ। पैलवोदुम्बरो वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः।।मनुस्मृतिः२/४५।। मनुजी कहतें हैं- धर्मशास्त्रानुसार ब्राह्मण बेल और ढाक का,क्षत्रिय वट और खैर का तथा वैश्य पीपल और गूलरका दण्ड धारण करैं।"एषामभावे- यज्ञियो वा।।गौतमः।। कहे हुए दण्ड न मिलने पर महर्षि गौतमने कहा हैं कि सबका दण्ड यज्ञीय वृक्षके निर्माण करैं। "केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यःप्रमाणतः। ललाटसंमितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः।।मनुः।। ब्राह्मणका दण्ड बटुककी शिखा तक पहुचे इतना,क्षत्रियका ललाट तकका,और वैश्यका नाकके अग्रभाग तक आयें इतना दण्ड रखैं।"अहतेन वाससा संवीतमैणेयेन वाजिनेन ब्राह्मणं रौरवेण क्षत्रियमाजेन वैश्यम्।।आश्वालायन।। आश्वालायनने कहा हैं कि नवीन वस्त्रसे ढके ब्राह्मणका चर्म कालीमृगीका होता हैं,क्षत्रियका रुरुमृगका, और वैश्यका बकरेका चर्म होता हैं। "सर्वेषां वा रौरवम्।। शंखः।। अथवा न मिलनेपर सबका रुरुमृगका चर्म शंखने कहा हैं।"मृग चर्मणा सह विकल्पो ज्ञेयः।। यमः।। यमके वाक्यसे मृगचर्म के साथ ब्राह्मणके लिये मृगीचर्म का विकल्प समझे। "उपवीतं बटोरेकं द्वे तथेतरयोःस्मृतेः। एकमेव यतीनां स्यादिति शास्त्रस्य निश्चयः।।देवलः।। पारिजातमें देवलने कहा हैं कि ब्रह्मचारीका यज्ञोपवीत एक,वानप्रस्थ और गृहस्थीके दो,तथा संन्यासियोंका एक होता हैं यह शास्त्रका सिद्धान्त हैं।" बहूनिषायुष्कामस्य।।देवल।। देवलने यह भी कहा हैं कि आयुष्यकी कामनासे बहुतसे यज्ञोपवीत धारण करैं।"यज्ञोपवीते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्मणि। तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्राभावे तदिष्यते।।हेमाद्रौ।। हेमाद्रीका कथन हैं कि वेद और स्मृतिमें कहे कर्मोंमे दो यज्ञोपवीत धारण करैं और उपवस्त्र के निमित्त तीसरा धारण करैं परन्तु वस्त्रके न पहननेमें ही वह पहनें अन्यथा नहीं।"विच्छिन्नं चाप्यधो यातं भुक्त्वा निर्मितमुत्सृजेत्।।देवलः।। यदि यज्ञोपवीत तूट जायें(तार भी), नाभिसे निचे निकल जायें अथवा भोजन करके जो यज्ञोपवीतका निर्माण किया हो उसको त्याग दैं। "मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्।अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रतः।।मनुः।। मनुजीने कहा हैं कि मेखला,मृगचर्म,दण्ड,यज्ञोपवीत,कमण्डलु टूटजाये तो जलमें डालकर मन्त्रपूर्वक नयें धारण करैं।
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ। शेष पुन
षोडशसंस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड१२२~"आयुष्यं प्राङ्गमुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः। श्रियं प्रत्यङ्गमुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते ह्युदङ्मुखः।।मनुः२/५२।। लंबे आयुष्यकी ईच्छावालेको पूर्वाभिमुख,यशकी ईच्छासे दक्षिणाभिमुख,लक्ष्मीकी ईच्छासे पश्चिमाभिमुख और सत्यकी ईच्छासे उत्तराभिमुख भोजन करैं।" सायं प्रातर्द्विजातीनामशनं स्मृतिनोदितम्। नान्तरे भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमो विधिः।।" द्विजोंके लिये स्मृतिशास्त्रमें सायंकाल और सुबह भोजन करना कहा हैं,इस लिये बिचमें भोजन नहीं करना चाहिये;क्योंकि यह अग्निहोत्र जैसी विधि हैं। "उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः। भुक्त्वा चोपस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत्।।मनुः२/५३।। द्विज; नित्य सावधान रहकर आचमन करकें स्वस्थ चित्तसे भोजन करैं। भोजनके बाद रितिसे आचमन करैं और जलसे नेत्र आदि इंद्रियोंका स्पर्श करैं(प्रक्षाल्य हस्तौ पादौ च त्रिःपिबेदम्बुवीक्षितम्।गौतमः।।" भोजनके बाद हाथ पैर धोकर तीनबार देखा हुआ शुद्ध जल पीयें तथा नाक,आँख,और कान का जलसे स्पर्श करैं।"पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्। दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।। सर्व प्रकारकें अन्नकी नित्य इस तरह "अन्नं विष्णुःस्वयं प्राह प्राणार्थं मां सदा ध्यायेत् स मां संपूजयेत् सदा। अनिन्दँश्चैतदद्यात्तु दृष्ट्वा हृष्येत् प्रसीदेच्च।।आदिपुराण।। अन्न विष्णुस्वरूप हैं,ऐसा भगवानने स्वयं कहा हैं;प्राणके रक्षण के लिये अन्नका विष्णुस्वरूपसे ध्यान करैं;और इस तरह विष्णुस्वरूपसे अन्नका नित्य पूजन(सत्कार)करैं;अन्नकी निंदा किये बिना भोजन करैं और अनन्नके दर्शन करकें प्रसन्न होकर सर्वदा अन्न हमें मिला करौं ऐसे दौनो हाथ से वंदन करकें भोजन करैं। "पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्जं च यच्छति। अपूजितं तु तद्भुक्तमुभयं नाशयेदिदम्।।मनुः२/५५।। सत्कार किया हुआ अन्न नित्य बल और ऊर्जा देता हैं परंतु बिना सत्कार किये हुए अन्न खाने से इन दोनोंको नाश कर देता हैं।
#" लशुनं गृञ्जनं जग्ध्वा पलाण्डुं च तथा शुनम् । उष्ट्रमानुषकेभाश्वरासभीक्षीरभोजनात्।। उपानयं पुनः कुर्यात्तप्तकृच्छ्रं चरेन्मुहुः।।शातातपः।।"शातातपने पारिजातमें कहा हैं कि लहसुन, गाजर, सलगम, खानेवाला और कुत्ती,ऊंटनी, मनुष्यस्त्री, हथिनी, घोडी, गधी इन सबके दूधको पीनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। तथा वारं वार तप्तकृच्छ्र व्रत तो करैं ही। "जीवन्यदि समागच्छेद्घृतकुम्भे निमज्ज्य च। उद्धृत्य स्नापयित्वास्य जातकर्मादि कारयेत्।।हेमाद्रौ मनुः।।" मरने के बाद मनुष्य फिर जीवता आ जाय तो घी भरे घडें में डूबकी लगाकर और स्नान करके इसके जातकर्म आदि संस्कार करैं(अर्थात् जिस संस्कारमें प्रवेश कर चूंका हो तबतककें मृतिसंस्कार के बिना सब संस्कार करैं)। " प्रेतशय्या प्रतिग्राही पुनः संस्कारमर्हति।। पाद्मे।। पद्मपुराणमें लिखा हैं कि प्रेतशय्याका प्रतिग्रह(ग्रहण)करनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं। "खरमुष्ट्रञ्च महिषमनड्वाहमजं तथा। बस्तमारुह्य मुखजः क्रोशे चान्द्रं विनर्दिशेत्।। गौतमः।।"गौतमका वाक्य हैं कि जो ब्राह्मण!गर्दभ,उंट, भैंसा, बैल, बकरा, तथा मेढेपर कोशभर चढकर चलें तो चांद्रायण करैं। "खरमारुह्य विप्रस्तु योजनं यदि गच्छति। तप्तकृच्छ्रत्रयं प्रोक्तं शरीरस्य विशोधनम्।।मार्कण्डेय।। मार्कण्डेयने कहा हैं- यदि ब्राह्मण!गधेपर सवारीकर योजनभर चलें तो तीन तप्तकृच्छ्रसे उसका शरीर शुद्ध होता हैं। पुनर्जन्म प्रकुर्वीत घृतगर्भ विधानतः।। " तथा घीभरे घडेमें डूबकी लगाकर फिर जन्मसंस्कार करैं।" अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंसृष्टमेव च। पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः।। मनुः।। मनुजी कहतें हैं कि तीनों द्विजातिवर्ण;अज्ञानसे विष्ठा मूत्र और मदिरामिश्रित वस्तु खाकर फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। वपनं दक्षिणादानं मेखला दण्डमजिन भैक्ष्यचर्या व्रतानि च निवर्तन्ते पुनः संस्कार कर्मणि।। " द्विजातियोंके पुनः यज्ञोपवीत संस्कारमें मुंडन, मेखलादान,मृगचर्म, भिक्षाटन व्रत नहीं होतें।"अजिनं मेखला दंडो भैक्ष्यचर्यो व्रतानि च। निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनः संस्कार कर्मणि।।पराशर।। द्विजातियोंको मृगचर्म,मेखला,दंड, भिक्षाचरण, व्रतादेश(गायत्रीउपदेश) पुनः यज्ञोपवीतमें नहीं होता। "पित्रादिव्यतिरेकेन ब्रह्मचारिणः प्रेतकर्मकरणे"(अंत्येष्ठी समारभ्य यावत् सपिंडीकरणेषु)"पुनरुपनयनमित्यपरार्कादयः।। आश्वालायन गृह्यसू।।"पिता आदि(दश पैढी तक)से भिन्नका यदि प्रेतकर्म ब्रह्मचारी करैं तो पुनः यज्ञोपवीतके योग्य होता हैं यह अपरार्क आदिने कहा हैं।
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
षोडश संस्काराः खंड १२३(यज्ञोपवीतम्)~ यज्ञोपवीत-संस्कारमें बटुके देहको ढँकनेके लिये मृगचर्म,कटिमें मुञ्जमेखला और दाहिने हाथमें दण्ड दिया जाता हैं। इन वस्तुओंके धारण करनेका अर्थ हैं -देहकी रक्षा करते हुए दृढ निश्चयसे मनको नियन्त्रित रखते(ब्रह्मचर्यव्रत पालन करते) हुए वेदविद्या प्राप्त करना। आगे- आचार्य!विशेष विधिसे "गायत्रीमंत्रका उपदेश (दिक्षा) बटुको प्रदान करतें हैं। इसके बाद अग्निके उत्तरकी और आचार्य पूर्वाभिमुख बैठकर अपने समक्ष बटुको बैठाकर आचार्य अपने हाथोंकी अञ्जलि बनातें हैं और बटु भी वैसी अञ्जलि बना करके आचार्यकी अञ्जलिके नीचे रखता हैं। आचार्य अपनी अञ्जलिमें भरा हुआ जल थोड़ा थोडा़ बटुकी अञ्जलिमें गिराते रहतें हैं और सूर्यनारायणको अर्घ्य दिलवातें हैं। इस क्रिया का अर्थ यह हैं कि आचार्य अपनी सम्पूर्ण विद्या इस प्रकार शिष्य-बटुको प्रदान करैंगे। परंतु इस समयमें यज्ञोपवीत-संस्कारके बाद मोर्डन ज़मानेके माता-पिता! वेदज्ञान,संस्कृतिकी सुरक्षा के लिये तनीक भी नहीं सोंचतें हैं कि "हम ऋषिकुल परम्पराके" अंशज हैं और हमारा यह कर्तव्य हैं कि हम माता-पिता अपने बालकको अपने धर्मके,अपने वर्णकी उच्चतम शिक्षा प्रदान करवाने के लिये अपने बालकको वैदिक गुरुकुलमें भैजें। आचार्योंने तो कहा हैं कि " माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।।" जो भी माता-पिता अपने बालकों को अपने वर्णानुसार उच्चतम शिक्षा दिलवानेके लिये वर्णविशेष-गुरुकुल में पढ़ने नहीं भेज सकतें वह माता-पिता बालकके उद्धारमें बाधकबनकर शत्रु हैं। जैसे हंसके समुदायमें बगुला शोभा नहीं पाता ठीक वैसे वर्णानुसार शिक्षा न पाकर अपने वर्णके समुदायमें श्रेष्ठता नहीं पाता। भले ही वह किसीभी वर्णके शिक्षकसे वर्तमानकी उच्चतम शिक्षा प्राप्त करलें।
आगे इस संस्कारमें आचार्य बटुका दक्षिण कर ग्रहण करकें उससे कहतें हैं-सविता ने तेरा हाथ पकड़ा हैं,अग्नि तेरा आचार्य हैं। इस कथनका गूढार्थ यह हैं कि आचार्य यज्ञोपवीतधारी बटुको अपने साथ आश्रममें ले जायँगे और वहाँपर रखकर उसे वेदविद्या सिखायेंगे। यह वेदविद्या परमात्मा आदित्य एवं अग्निसे ही(उन देवताकी कृपासे ही)बटुको प्राप्त करनी हैं। इस क्रियाके बाद आचार्य बटुको आदित्य(सूर्य)के सामने देखनेको कहतें हैं;क्योंकि वह सर्वप्रकाश(ज्ञान)का देवता हैं। आदित्यको सम्बोधित कर आचार्य कहतें हैं-"हे सविता देव!अब यह बटु आपका ब्रह्मचारी हैं, आप इसका रक्षण कीजियेगा। इस क्रियाके बाद बटु अग्नि आदि दैवताओंसे बुद्धि,बल इत्यादि सद्गुणोंकी याचना करता हैं। तत्पश्चात् आचार्य बटुके हृदयपर अपना दाहिना हाथ रखकर कहतें हैं कि मैं जो सदाचारव्रतका पालन करता हूं,उसमें तेरा हृदय हो(तेरा अनुसरण हो)। मेरे चित्तका अनुसरण तेरा चित्त करता रहै। मेरी वाणी-जैसी तेरी वाणी हो। विद्याके देव बृहस्पति तुझे मेरेसे युक्त करवायें। इसके बाद बटु गुरुगृहमें विद्यापूर्तिपर्यन्त रहता हैं। बटु वेदविद्या तथा धर्मका ज्ञान सम्पादनकर ब्रह्मचर्याश्रमको पूरा करके गुरुसे आज्ञा लेकर अपने घर वापस आता हैं और माता-पिताकी आज्ञाके अनुसार वह "केशान्त और समावर्तन-संस्कारद्वय से संस्कृत हो कर सविधि विवाह-संस्कारसे गृहस्थाश्रममें प्रवेश करता हैं। "वेदाभ्यासो हि विप्राणां परमं तप उच्यते। ब्रह्मयज्ञः स विज्ञेयः षडङ्गसहितस्तु सः।।दक्षस्मृतिः२५-२६।। ब्राह्मणोंके लिये षडङ्गसहित वेदशास्त्रका अभ्यास ब्रह्मयज्ञके समान हैं और वही श्रेष्ठ तप हैं।
वर्तमानके"समुह यज्ञोपवीत-संस्कारमें गायत्री- उपदेश अधिकार प्राप्त करने न तो कोई आचार्यका अनुष्ठान होता हैं। न तो स्वयं निर्मित यज्ञोपवीत पहनायी जातीं हैं। न तो कालातिक्रम संस्कारों के प्रायश्चित्त की सावधानी। न तो नेतृत्वके अधिकार व बटुके उपनयन-संस्कारसे पहले के खाने-पीने तथा अकृतकर्मोंका प्रायश्चित्तकी सावधानी। न तो ढंगसे प्रत्येक बटुको आचार्य संस्कार दे सकतें हैं । हद तो यह हैं कि बटुकी उम्र जब विवाह करने लायक हों तब समुहमें यज्ञोपवीत करवाँकर फरज से हाथ धो लेतें हैं(बाजखेडावाळ ब्राह्मण-गुजरातमें तो विवाहके अगले दिन कोई कोई आचार्य यज्ञोपवीत-संस्कार करनेकी सम्मति दे दैंते हैं और करवाँ भी देतें हैं यह शास्त्रमान्य समय ही नहीं इसलिये निरर्थक हैं ऐसे युवकको पतितसावित्रिक दोष लग जाता हैं।"विवाहयोग्यको यज्ञोपवीत देनेसे पहले प्रायश्चित्त करकें यज्ञोपवीत देकर व्यवहार कीया जाता हैं। सही समयपर माता-पिताकी आँख नहीं खुलती। यह समुह यज्ञोपवीत-संस्कार! कुछ पैसे बचाने के लिये तो ठीक हैं परंतु यज्ञोपवीतके साङ्गोपाङ्ग विधानके लिये अधम हैं,और निरर्थक भी ऐसे कईं माता-पिता और आचार्यके कर्मवैकल्य दोष रह जातें हैं। ध्यान रहैं कि यह संस्कार बटु का हैं आमंत्रित किये जाने वालें महेमानोंका नहीं । केवल पैसे बचाने के लिये यह संस्कार समुहमें न करवाँकर विधानसे स्वकिय फर्ज समज़कर करैं। ज्यादा महेमानोंको आमंत्रण देनी की आवश्यकता नहीं हैं।
आगे इस संस्कारमें आचार्य बटुका दक्षिण कर ग्रहण करकें उससे कहतें हैं-सविता ने तेरा हाथ पकड़ा हैं,अग्नि तेरा आचार्य हैं। इस कथनका गूढार्थ यह हैं कि आचार्य यज्ञोपवीतधारी बटुको अपने साथ आश्रममें ले जायँगे और वहाँपर रखकर उसे वेदविद्या सिखायेंगे। यह वेदविद्या परमात्मा आदित्य एवं अग्निसे ही(उन देवताकी कृपासे ही)बटुको प्राप्त करनी हैं। इस क्रियाके बाद आचार्य बटुको आदित्य(सूर्य)के सामने देखनेको कहतें हैं;क्योंकि वह सर्वप्रकाश(ज्ञान)का देवता हैं। आदित्यको सम्बोधित कर आचार्य कहतें हैं-"हे सविता देव!अब यह बटु आपका ब्रह्मचारी हैं, आप इसका रक्षण कीजियेगा। इस क्रियाके बाद बटु अग्नि आदि दैवताओंसे बुद्धि,बल इत्यादि सद्गुणोंकी याचना करता हैं। तत्पश्चात् आचार्य बटुके हृदयपर अपना दाहिना हाथ रखकर कहतें हैं कि मैं जो सदाचारव्रतका पालन करता हूं,उसमें तेरा हृदय हो(तेरा अनुसरण हो)। मेरे चित्तका अनुसरण तेरा चित्त करता रहै। मेरी वाणी-जैसी तेरी वाणी हो। विद्याके देव बृहस्पति तुझे मेरेसे युक्त करवायें। इसके बाद बटु गुरुगृहमें विद्यापूर्तिपर्यन्त रहता हैं। बटु वेदविद्या तथा धर्मका ज्ञान सम्पादनकर ब्रह्मचर्याश्रमको पूरा करके गुरुसे आज्ञा लेकर अपने घर वापस आता हैं और माता-पिताकी आज्ञाके अनुसार वह "केशान्त और समावर्तन-संस्कारद्वय से संस्कृत हो कर सविधि विवाह-संस्कारसे गृहस्थाश्रममें प्रवेश करता हैं। "वेदाभ्यासो हि विप्राणां परमं तप उच्यते। ब्रह्मयज्ञः स विज्ञेयः षडङ्गसहितस्तु सः।।दक्षस्मृतिः२५-२६।। ब्राह्मणोंके लिये षडङ्गसहित वेदशास्त्रका अभ्यास ब्रह्मयज्ञके समान हैं और वही श्रेष्ठ तप हैं।
वर्तमानके"समुह यज्ञोपवीत-संस्कारमें गायत्री- उपदेश अधिकार प्राप्त करने न तो कोई आचार्यका अनुष्ठान होता हैं। न तो स्वयं निर्मित यज्ञोपवीत पहनायी जातीं हैं। न तो कालातिक्रम संस्कारों के प्रायश्चित्त की सावधानी। न तो नेतृत्वके अधिकार व बटुके उपनयन-संस्कारसे पहले के खाने-पीने तथा अकृतकर्मोंका प्रायश्चित्तकी सावधानी। न तो ढंगसे प्रत्येक बटुको आचार्य संस्कार दे सकतें हैं । हद तो यह हैं कि बटुकी उम्र जब विवाह करने लायक हों तब समुहमें यज्ञोपवीत करवाँकर फरज से हाथ धो लेतें हैं(बाजखेडावाळ ब्राह्मण-गुजरातमें तो विवाहके अगले दिन कोई कोई आचार्य यज्ञोपवीत-संस्कार करनेकी सम्मति दे दैंते हैं और करवाँ भी देतें हैं यह शास्त्रमान्य समय ही नहीं इसलिये निरर्थक हैं ऐसे युवकको पतितसावित्रिक दोष लग जाता हैं।"विवाहयोग्यको यज्ञोपवीत देनेसे पहले प्रायश्चित्त करकें यज्ञोपवीत देकर व्यवहार कीया जाता हैं। सही समयपर माता-पिताकी आँख नहीं खुलती। यह समुह यज्ञोपवीत-संस्कार! कुछ पैसे बचाने के लिये तो ठीक हैं परंतु यज्ञोपवीतके साङ्गोपाङ्ग विधानके लिये अधम हैं,और निरर्थक भी ऐसे कईं माता-पिता और आचार्यके कर्मवैकल्य दोष रह जातें हैं। ध्यान रहैं कि यह संस्कार बटु का हैं आमंत्रित किये जाने वालें महेमानोंका नहीं । केवल पैसे बचाने के लिये यह संस्कार समुहमें न करवाँकर विधानसे स्वकिय फर्ज समज़कर करैं। ज्यादा महेमानोंको आमंत्रण देनी की आवश्यकता नहीं हैं।
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष
यज्ञोपवीत-वेदारंभ संस्कार विधान पुनः
यज्ञोपवीत-वेदारंभ संस्कार विधान पुनः
षोडश-संस्काराः खंड १२३-(यज्ञोपवीतम्)वर्तमान समयपर यज्ञादि कार्यों में वैदिक कर्माधिकार प्राप्तकरवाने के लिये कोई कोई आचार्य पहलेसे जनेऊसंस्कार सम्पन्न यज्ञोपवीतरहित यजमानको तात्कालिक यज्ञोपवीत पहना देतें हैं,यह बिना प्रायश्चित्त किये ऐसे पहलेसे जनेऊसंस्कार सम्पन्न यजमानको जनेऊ पहनादेना यह शास्त्रसम्मत विधान नहीं हैं।क्योंकि-"विना यज्ञोपवीतेन विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि। उपवास द्वयं कृत्वा दानै र्होमैस्तु शुद्ध्यति।।संग्रहे।। अर्थात् पहलेसे जनेऊसंस्कार सम्पन्न द्विज यज्ञोपवीतके बिना यदि मल मूत्र त्याग करैं तो दो उपवास करकें दान (गायत्रीमंत्र)होमसे प्रायश्चित्त करकें शुद्ध होता हैं।"ब्रह्मसूत्रं विना भुंक्ते विण्मूत्रं कुरूते$थ वा। गायत्र्यष्टसहस्रेण प्राणायामेन शुद्ध्यति।।मरिचिः।। मरिचिके वचनसे यज्ञोपवीतके बिना भोजनकरने,या मल-मूत्र त्याग करनेपर आठहजार गायत्रीमंत्र जप का प्रायश्चित्त करैं तथा प्राणायाम करने से शुद्धि होती हैं।"विना यज्ञोपवीतेन तोयं यः पिबते द्विज उपवासेन चैकेन पञ्चगव्येन शुद्ध्यति।।" और पानी पीनेका प्रायश्चित्त एक उपवास तथा पञ्चगव्य प्राशन करनेसे शुद्धि होती हैं।"यज्ञोपवीतहीनः क्षणं तिष्ठेच्चेच्छतगायत्री जपः"एक क्षणभी यदि बिना यज्ञोपवीत रहे तो १००गायत्रीजप करैं। मणीबन्धसे नीचे सिरकजायें तो तीन या छह प्राणायाम करैं।इन सब प्रायश्चित्त लौकिक(बिनामंत्रसे)जनेऊ धारण करकें करैं। यह नियम तात्कालिक ध्यानमें आनेपर एक ही दिनकी अवधीका हैं।परंतु यज्ञोपवीतके बिना अधिक दिन निकल जानें पर पुनः यज्ञोपवीत संस्कार करैं।"कठाःकाण्वाश्च चरका विप्रावाजसनेयकाः। बह्वृचाः सामगाश्चैव ये चान्ये यजुशाखिनः।। कण्ठादुत्तार्य सूत्रं तु पुनः संस्कार महर्ति।। आह्निक सूत्रे।।"कृष्णयजुर्वेदकी-कठ,चरक, तथा शुक्लयजुर्वेद- वाजसनेयीकी-माध्यंदीनी और काण्व, ऋग्वेदियों तथा सामवेदियों और भी जो यजुर्वेदकी शाखायें वाले हो!इनको कण्ठ(शिरोमार्ग)से जनेऊ त्याग करनेपर पुनः यज्ञोपवीत के लायक हैं|
प्रायश्चित कें होम तथा पुनः यज्ञोपवीत विधान समय रहते बतायेंगे।
प्रायश्चित कें होम तथा पुनः यज्ञोपवीत विधान समय रहते बतायेंगे।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।।शेष पुनः
षोडश संस्काराः खंड १२५ (यज्ञोपवीतवेदारम्भौ)-
उपनयन हो जानेपर बालकका वेदाध्ययनमें अधिकार प्राप्त हो जाता हैं|"(उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृति पूर्वकम् | वेदमध्यापयेदेनं शौचाचाराँश्च शिक्षयेत्||)" गुरु अपने शिष्यको उपनयन करनेके बाद महाव्याहृतिके उच्चारपूर्वक वेदाभ्यास करायैं।और शौचाचारका शिक्षण दैं। विद् -ज्ञाने धातुसे निष्पन्न वेद शब्दका अर्थ ही हैं ज्ञान| बिना ज्ञान जीवनकी यात्रा को सहज नहीं बनाया जा सकता | अतः इस संस्कारद्वारा जीवनयात्राको निरापद बनानेका उपक्रम किया जाता हैं |
अपने कुलकी परम्परासे जो वेद शाखा प्राप्त हुए हो! उस वेद शाखाका ही पहले अध्ययन और कर्म करैं,तथा अपनी वेद शाखाका अध्ययन समाप्तिके बाद ही दूसरे वेद शाखाका क्रमसे अध्ययन करैं।"(अधीत्य शाखामात्मीयामन्यशाखां ततः पठेत् | स्व शाखां यः परित्यज्य शाखारण्डः स उच्यते ||वशिष्ठ||)"जो विप्र अपनी वेद शाखा का त्यागकर दूसरे शाखाका कर्म करता हैं उनको धर्मवेताओंने "शाखारण्ड" की कनिष्ठ उपमा दी हैं| इसलिये अपनी कुलपरम्परासे जो वेद शाखा प्रचलित हो उनका ही अध्ययन करना तथा कर्मभी अपनी शाखाका ही करैं|
इस वेदाध्ययनमें वेदाभ्यास समाप्ति तक अखंड ब्रह्मचर्यका पालन करतें हुए परमात्मापथ में अग्रसर होनेके लिये अपने पुरुषार्थ(नियम-संयम)की प्रतिज्ञा करता हैं-इस कार्यके लिये बटुकको (१)ब्रह्मचर्यपालन (२)गुरुसेवा(शुश्रूषा)प्रमुख होतें हैं | सनत्सुजातीयमें गुरुसेवाके चार पाद कहे गये हैं-
क-"(शिष्यवृत्तिक्रमेणैव विद्यामाप्नोति यः शुचिः | ब्रह्मचर्यव्रतस्यास्य प्रथमः पाद उच्यते ||)" भीतर बाहरकी शुचिताका अवलम्बन कर शिष्यवृत्तिद्वारा आचार्य से जो विद्यार्जन किया जाता है,वही ब्रह्मचर्यव्रतका प्रथम पाद हैं |
ख-"(यथा नित्यं गुरौ वृत्तिर्गुरुपत्न्यां तथाऽऽचरेत् | तत्पुत्रे च तथा कुर्वन् द्वितीयः पाद उच्यते ||)" गुरुके समान ही गुरुपत्नी एवं गुरुपत्नीमें भी सद्वृत्ति(सदाचार)का पालन करना[ब्रह्मचर्य व्रतका]का द्वितीय पाद हैं |
ग-"(आचार्येणात्मकृतं विजानन् ज्ञात्वा चार्थे भावितोऽस्मीत्यनेन | यन्मन्यते तं प्रति हृष्टबुद्धिः स वै तृतीयो ब्रह्मचर्यस्य पादः ||)" आचार्यद्वारा अपने प्रति उपकारको समझकर एवं उनके द्वारा प्राप्त वेदज्ञानसे अपनेको सम्भावित(सम्मानित)समझकर हृदयमें उत्पन्न हर्ष,प्रसन्नता और कृतघ्नता-(का मूलभाव)ही ब्रह्मचर्य व्रतका तृतीय पाद हैं|
घ-"(आचार्याय प्रियं कुर्यात् प्राणैरपि धनैरपि | कर्मणा मनसा वाचा चतुर्थः पाद उच्यते ||)" प्राण,धन,मन,वाणी,एवं सत्कर्मके द्वारा आचार्यका प्रिय(आदर-सन्मान),हित करना ही[ब्रह्मचर्य व्रत]का चतुर्थ पाद हैं |
उपनयन हो जानेपर बालकका वेदाध्ययनमें अधिकार प्राप्त हो जाता हैं|"(उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृति पूर्वकम् | वेदमध्यापयेदेनं शौचाचाराँश्च शिक्षयेत्||)" गुरु अपने शिष्यको उपनयन करनेके बाद महाव्याहृतिके उच्चारपूर्वक वेदाभ्यास करायैं।और शौचाचारका शिक्षण दैं। विद् -ज्ञाने धातुसे निष्पन्न वेद शब्दका अर्थ ही हैं ज्ञान| बिना ज्ञान जीवनकी यात्रा को सहज नहीं बनाया जा सकता | अतः इस संस्कारद्वारा जीवनयात्राको निरापद बनानेका उपक्रम किया जाता हैं |
अपने कुलकी परम्परासे जो वेद शाखा प्राप्त हुए हो! उस वेद शाखाका ही पहले अध्ययन और कर्म करैं,तथा अपनी वेद शाखाका अध्ययन समाप्तिके बाद ही दूसरे वेद शाखाका क्रमसे अध्ययन करैं।"(अधीत्य शाखामात्मीयामन्यशाखां ततः पठेत् | स्व शाखां यः परित्यज्य शाखारण्डः स उच्यते ||वशिष्ठ||)"जो विप्र अपनी वेद शाखा का त्यागकर दूसरे शाखाका कर्म करता हैं उनको धर्मवेताओंने "शाखारण्ड" की कनिष्ठ उपमा दी हैं| इसलिये अपनी कुलपरम्परासे जो वेद शाखा प्रचलित हो उनका ही अध्ययन करना तथा कर्मभी अपनी शाखाका ही करैं|
इस वेदाध्ययनमें वेदाभ्यास समाप्ति तक अखंड ब्रह्मचर्यका पालन करतें हुए परमात्मापथ में अग्रसर होनेके लिये अपने पुरुषार्थ(नियम-संयम)की प्रतिज्ञा करता हैं-इस कार्यके लिये बटुकको (१)ब्रह्मचर्यपालन (२)गुरुसेवा(शुश्रूषा)प्रमुख होतें हैं | सनत्सुजातीयमें गुरुसेवाके चार पाद कहे गये हैं-
क-"(शिष्यवृत्तिक्रमेणैव विद्यामाप्नोति यः शुचिः | ब्रह्मचर्यव्रतस्यास्य प्रथमः पाद उच्यते ||)" भीतर बाहरकी शुचिताका अवलम्बन कर शिष्यवृत्तिद्वारा आचार्य से जो विद्यार्जन किया जाता है,वही ब्रह्मचर्यव्रतका प्रथम पाद हैं |
ख-"(यथा नित्यं गुरौ वृत्तिर्गुरुपत्न्यां तथाऽऽचरेत् | तत्पुत्रे च तथा कुर्वन् द्वितीयः पाद उच्यते ||)" गुरुके समान ही गुरुपत्नी एवं गुरुपत्नीमें भी सद्वृत्ति(सदाचार)का पालन करना[ब्रह्मचर्य व्रतका]का द्वितीय पाद हैं |
ग-"(आचार्येणात्मकृतं विजानन् ज्ञात्वा चार्थे भावितोऽस्मीत्यनेन | यन्मन्यते तं प्रति हृष्टबुद्धिः स वै तृतीयो ब्रह्मचर्यस्य पादः ||)" आचार्यद्वारा अपने प्रति उपकारको समझकर एवं उनके द्वारा प्राप्त वेदज्ञानसे अपनेको सम्भावित(सम्मानित)समझकर हृदयमें उत्पन्न हर्ष,प्रसन्नता और कृतघ्नता-(का मूलभाव)ही ब्रह्मचर्य व्रतका तृतीय पाद हैं|
घ-"(आचार्याय प्रियं कुर्यात् प्राणैरपि धनैरपि | कर्मणा मनसा वाचा चतुर्थः पाद उच्यते ||)" प्राण,धन,मन,वाणी,एवं सत्कर्मके द्वारा आचार्यका प्रिय(आदर-सन्मान),हित करना ही[ब्रह्मचर्य व्रत]का चतुर्थ पाद हैं |
"(विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽऽयुः प्रवर्धते | विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्नुते||)" वेदविद्याके अद्ययनसे सारें पापोंका लोप होता हैं,आयुकी वृद्धि होती हैं,सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं,यहाँतक कि उसके समक्ष साक्षात् अमृतरस अशन-पानके रूपमें उपलब्ध हो जाता हैं | तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कराना ही इस संस्कारका परम प्रयोजन हैं | वेदव्रत नामक संस्कारमें "महानाम्नि", महान्", उपनिषद् एवं उपाकर्म चार व्रत आतें हैं | उपाकर्मको सभी जानतें हैं| यह प्रतिवर्ष वर्षाऋतुमें होता हैं| शेष प्रथम महानाम्नीमें प्रतिवर्षान्त सामवेदके महानाम्नी आर्चिककी नौ ऋचाओंका पाठ होता हैं | प्रथम मुख्य ऋचा इस प्रकार हैं-" (विदा मघवन् विदा गातुमनुश गूँ सिषो दिशः | शिक्षा शचीनां पते पूर्वीणां पुरूवसो ||साम०६४१|| इसका भाव हैं-"अत्यन्त वैभवशाली,उदार एवं पूज्य परमात्मन् !आप सम्पूर्ण वेद-विद्याओंके ज्ञानसे सम्पन्न हैं एवं आप सन्मार्ग और गम्य दिशाओंको भी ठीक-ठीक जानतें हैं, हे आदिशक्तिके स्वामिन्! आप हमें शिक्षाका साङ्गोपाङ्ग रहस्य बतला दैं | द्वितीय तथा तृतीय वर्षोंमें क्रमशः वैदिक-महाव्रत" तथा उपनिषद्-व्रत" किया जाता हैं, जिसमें वेदोंकी ऋचाओं तथा उपनिषदोंका श्रद्धापूर्वक पाठ किया जाता हैं और अन्तमें सावित्री स्नान होता हैं| इसके अनन्तर वेदाध्यायी स्नातक कहलाता हैं| इसमें सभी मन्त्र संहिताओंका गुरुमुखसे श्रवण तथा मनन करना होता हैं| यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम-संस्कार हैं|
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।।शेष पुनः
षोडश संस्काराः खंड१२६ (उपनयनविधानम्)- गर्भाधानादि चूडाकरणान्त संस्काराः विधिवत् कृते*(जन्मसे पहले गर्भाधानादि तथा जन्मके बाद जातकर्मसे चूडाकरण पर्यंतके संस्कार शास्त्रोक्त विधानसे क्रमसे कियें हों तो उम्रवर्ष ब्राह्मण-१५,क्षत्रिय २१, वैश्य२३,वर्षतक)"|
ज्योतिःशास्त्रोक्त सुमुर्हूते उपनयनदिनात् प्राक् दिने प्रातः नित्यक्रियः(संध्यावंदनादि)यजमानः गणपतिपूजनं(मोदादिषड्विनायकपूजनं-वैश्वदेवसंकल्पं)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं मंडपारोपणं (कुलधर्मानुसारेण गृह्योक्त कर्माणि विधाय)। ग्रहशांतिं( ग्रहशांत्यङ्गत्वेन पुण्याह वाचने(कर्मांग देवता आदित्यादि ग्रहाः)विधानेन च समाप्य। द्वितीयेह्नौ सुमुर्हूते यजमानः पत्नीकुमाराभ्यां सह अहतवाससी परिधाय अलंकृत्य धृततिलको बहिःशालायां शुभासने प्राङ्गमुखोपविश्य।। स्वदक्षिणतः पत्नीं तद्दक्षिणतः संस्कार्यं बटुं चोपवेश्य।। आचम्य प्राणानायम्य।। सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा।। प्रायश्चित्त संकल्पों करैं-(कृच्छ्रत्रयं चोपनेता च त्रीन्कृच्छ्रांश्च बटुश्चरेत्।आचार्यो दशसाहस्रं गायत्रीं प्रजपेत्तथा।।)"कुमारके उपनयन संस्कार करवाने अधिकार हेतु कृच्छ्रत्रयात्मक व्रतरूप १२०००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका अथवा ब्राह्मणद्वारा करवाने का- अद्येत्यादि००० मम अस्य कुमारस्य"(चूडाकरण किये हुए बालकका पर्याय)"स्वस्योपनयन नेतृत्व अधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्र गायत्रीमंत्रजपं स्वयं करिष्ये(ब्राह्मणद्वारा कारयिष्ये)। अनेन मम कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारसिद्धिरस्तु।।१।।
कुमारस्यापि प्रायश्चितं कारयेत्-(उपनयनसे पहले निषिद्ध आचरण-निषिद्धवक्तव्य-निषिद्धभोजन आदि के प्रायश्चित्त हेतु कुमारसे तीनकृच्छ्रव्रतकेरूप १२००० गायत्रीमंत्रजप करनेका संकल्प करवायें)-"मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादि दोषोपनोदनार्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्रगायत्री मंत्रजपं स्वयं करिष्ये। तेन मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादिदोषनिवृत्ति पूर्वक उपनयनसंस्कार कर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।(आचार्यभी यजमानके पुत्रको उपनयन संस्कार करवानेके अधिकारत्व हेतु १००००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका संकल्प करैं)-"आचार्यो हस्ते जलमादाय- अमुकशर्मा आचार्यो$हं अमुकशर्मणो यजमानसुतस्य उपनयनसंस्कार कर्माधिकारार्थं द्वादशसहस्र गायत्री मंत्र जपमहं करिष्ये।"(अब देंखलों👀!-समुहयज्ञोपवीत में प्रत्येक बटुककें आचार्यत्व कर्म करनेके लिये प्रतिबटुक बारहहजार/बारहहजार गायत्री मंत्र जप कहीं भी नहीं होता)"।
***#प्रधान संकल्प- अद्येत्यादि०००मम अस्य कुमारस्य द्विजत्वसिद्ध्यै वेदाध्ययनाधिकारार्थम् उपनयनाख्यं कर्म करिष्ये। तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता इन्द्रः)च करिष्ये। गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं आचार्यवरणं च समाप्य। ततःकुमारस्य वपनं कारयेत्(शिखा रखवाकर बटुकका वपन करवायें)संकल्प- देशकालौ संकीर्त्य मम अस्य कुमारस्य उपनयनं कर्तुं तत् प्राच्याङ्गभूतं वपनं कारयिष्ये।एवं वपनं कारयित्वा स्नापयेत्(वपन हो जानेके बाद कुमारको स्नान करायें)ततो ब्राह्मणत्रयभोजनम्(मात्रा सहोपनयने विवाहे भार्यया सह। अन्यत्र सह भुक्तिश्चेत्पातित्यं प्राप्नुयान्नरः।।संग्रहे।।-"उपनयनमें माताकेसाथ,विवाहमें पत्नीकेसाथ,भोजन करनेमें दोष नहीं अन्यत्र साथमे(एकपात्रमें)भोजन करनेसे दोष लगता हैं चान्द्रायणव्रतसे शुद्धि होती हैं। तीन ब्राह्मणोंकी पङ्क्तिमें कुमारको बैठाकर माताके साथ दूधभात का भोजन और साथमें तीन उपनीत ब्राह्मणोंका भोजन करवाईयैं)"संकल्प-अद्येत्यादि०मम अस्य कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारार्थं त्रिभ्यो$धिकान् ब्राह्मणान् अद्याहं भोजयिष्ये।तेन मम अस्य कुमारस्य उपनयनकर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।ततो कुमारपिता बहिःशालायां वेद्युपरि पंचभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं स्थापयेत्।(पुष्पमालादिसे अलंकृत बटुकको आचार्यकी समिप लायें)।-"ततः पुष्पमालादिभिरलंकृतं बटुम् आचार्य समीपमानयति।।(आचार्य!आये हुए बटुकको अग्निके पश्चिममेंसे अपनी दायी बाजू खडा रखै)-"ततः आचार्य आनीतं कुमारम् अग्नेः पश्चात् स्वदक्षिणतः अवस्थापयेत्।(अग्नि और बटुकके अंतरमें अंतर्पट रखकर ब्राह्मणों मंगल श्लोकोंका पठन करैं)-"ततः मध्ये$न्तर्पटं धारयित्वा। ब्राह्मणाः सुमंगलपद्यानि पठेयुः।(मंगलपाठके बाद आचार्य बटुकपर अक्षत प्रक्षेप करैं)मंगल पद्यानि पठनान्तरं ॐमनोजूति०।ॐसुमूर्हूते सुप्रतिष्ठितमस्तु।।(आचार्य अंतर्पटको हटा दैं)-"ततः आचार्य अंतर्पटं उत्तरे निस्सार्य।(बटुक आचार्यके चरण स्पर्श करैं-"व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।)"कुमारं आचार्यपादौ प्रणमति।(अपनी दायीं औरसे आचार्य बटुकको अग्निके पश्चिममें आसनपर बिठाईये)-"स्वदक्षिणतः पश्चादग्नेस्तमवस्थापयेत्।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-कुमारं प्रति आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचर्यमागाम्"(बटुक आचार्यसे कहैं)- कुमारो ब्रूयात्"ॐब्रह्मचर्यमागाम्"।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचार्यसानि।(बटुक भी आचार्य के प्रति कहैं)कुमारमपि वदति-"ॐब्रह्मचार्यसानि।(आचार्य बटुकको मंत्रपढकर सफेद वस्त्र धारण करवायें)-"अथैनं माणवकम् आचार्यो वासः परिधापयति।। येनेन्द्रायेति आङ्गिरसऋषिः बृहतीच्छंदः बृहस्पतिर्देवता वासः परिधाने विनियोगः-"ॐ येनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासःपर्यदधादमृतम्। तेनत्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।।(कुमार को आचमन कैसे करना हैं वह सिखाकर आचमन करवायें)-आचमनम्(आचार्य बटुककी कमरमें त्रीरावृत्त और प्रवरके अनुसार ग्रन्थिलगाकर यथोक्त मेखला बंधन मंत्र पढकर करैं)-ततः आचार्यो ब्रह्मचारिणः कटिप्रदेशे यथोक्त मेखलां यथाप्रवरग्रन्थियुतां प्रदक्षिणं त्रिर्वेष्टयित्वा बध्नाति-(इयं दुरुक्तं इत्यस्य वामदेवर्षिः त्रिष्टुप् छंदः मेखला देवता मेखला बंधने विनियोगः-"ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनतीम$आगात्।प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्व सादेवी सुभगा मेखलेयम्।।मेखलेयम्।।
ज्योतिःशास्त्रोक्त सुमुर्हूते उपनयनदिनात् प्राक् दिने प्रातः नित्यक्रियः(संध्यावंदनादि)यजमानः गणपतिपूजनं(मोदादिषड्विनायकपूजनं-वैश्वदेवसंकल्पं)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं मंडपारोपणं (कुलधर्मानुसारेण गृह्योक्त कर्माणि विधाय)। ग्रहशांतिं( ग्रहशांत्यङ्गत्वेन पुण्याह वाचने(कर्मांग देवता आदित्यादि ग्रहाः)विधानेन च समाप्य। द्वितीयेह्नौ सुमुर्हूते यजमानः पत्नीकुमाराभ्यां सह अहतवाससी परिधाय अलंकृत्य धृततिलको बहिःशालायां शुभासने प्राङ्गमुखोपविश्य।। स्वदक्षिणतः पत्नीं तद्दक्षिणतः संस्कार्यं बटुं चोपवेश्य।। आचम्य प्राणानायम्य।। सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा।। प्रायश्चित्त संकल्पों करैं-(कृच्छ्रत्रयं चोपनेता च त्रीन्कृच्छ्रांश्च बटुश्चरेत्।आचार्यो दशसाहस्रं गायत्रीं प्रजपेत्तथा।।)"कुमारके उपनयन संस्कार करवाने अधिकार हेतु कृच्छ्रत्रयात्मक व्रतरूप १२०००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका अथवा ब्राह्मणद्वारा करवाने का- अद्येत्यादि००० मम अस्य कुमारस्य"(चूडाकरण किये हुए बालकका पर्याय)"स्वस्योपनयन नेतृत्व अधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्र गायत्रीमंत्रजपं स्वयं करिष्ये(ब्राह्मणद्वारा कारयिष्ये)। अनेन मम कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारसिद्धिरस्तु।।१।।
कुमारस्यापि प्रायश्चितं कारयेत्-(उपनयनसे पहले निषिद्ध आचरण-निषिद्धवक्तव्य-निषिद्धभोजन आदि के प्रायश्चित्त हेतु कुमारसे तीनकृच्छ्रव्रतकेरूप १२००० गायत्रीमंत्रजप करनेका संकल्प करवायें)-"मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादि दोषोपनोदनार्थं कृच्छ्रत्रयात्मकरूपं द्वादशसहस्रगायत्री मंत्रजपं स्वयं करिष्ये। तेन मम कामाचार कामावाद कामभक्षणादिदोषनिवृत्ति पूर्वक उपनयनसंस्कार कर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।(आचार्यभी यजमानके पुत्रको उपनयन संस्कार करवानेके अधिकारत्व हेतु १००००गायत्रीमंत्र जप स्वयं करनेका संकल्प करैं)-"आचार्यो हस्ते जलमादाय- अमुकशर्मा आचार्यो$हं अमुकशर्मणो यजमानसुतस्य उपनयनसंस्कार कर्माधिकारार्थं द्वादशसहस्र गायत्री मंत्र जपमहं करिष्ये।"(अब देंखलों👀!-समुहयज्ञोपवीत में प्रत्येक बटुककें आचार्यत्व कर्म करनेके लिये प्रतिबटुक बारहहजार/बारहहजार गायत्री मंत्र जप कहीं भी नहीं होता)"।
***#प्रधान संकल्प- अद्येत्यादि०००मम अस्य कुमारस्य द्विजत्वसिद्ध्यै वेदाध्ययनाधिकारार्थम् उपनयनाख्यं कर्म करिष्ये। तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता इन्द्रः)च करिष्ये। गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं आचार्यवरणं च समाप्य। ततःकुमारस्य वपनं कारयेत्(शिखा रखवाकर बटुकका वपन करवायें)संकल्प- देशकालौ संकीर्त्य मम अस्य कुमारस्य उपनयनं कर्तुं तत् प्राच्याङ्गभूतं वपनं कारयिष्ये।एवं वपनं कारयित्वा स्नापयेत्(वपन हो जानेके बाद कुमारको स्नान करायें)ततो ब्राह्मणत्रयभोजनम्(मात्रा सहोपनयने विवाहे भार्यया सह। अन्यत्र सह भुक्तिश्चेत्पातित्यं प्राप्नुयान्नरः।।संग्रहे।।-"उपनयनमें माताकेसाथ,विवाहमें पत्नीकेसाथ,भोजन करनेमें दोष नहीं अन्यत्र साथमे(एकपात्रमें)भोजन करनेसे दोष लगता हैं चान्द्रायणव्रतसे शुद्धि होती हैं। तीन ब्राह्मणोंकी पङ्क्तिमें कुमारको बैठाकर माताके साथ दूधभात का भोजन और साथमें तीन उपनीत ब्राह्मणोंका भोजन करवाईयैं)"संकल्प-अद्येत्यादि०मम अस्य कुमारस्य उपनयन कर्मण्यधिकारार्थं त्रिभ्यो$धिकान् ब्राह्मणान् अद्याहं भोजयिष्ये।तेन मम अस्य कुमारस्य उपनयनकर्मण्यधिकार सिद्धिरस्तु।ततो कुमारपिता बहिःशालायां वेद्युपरि पंचभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं स्थापयेत्।(पुष्पमालादिसे अलंकृत बटुकको आचार्यकी समिप लायें)।-"ततः पुष्पमालादिभिरलंकृतं बटुम् आचार्य समीपमानयति।।(आचार्य!आये हुए बटुकको अग्निके पश्चिममेंसे अपनी दायी बाजू खडा रखै)-"ततः आचार्य आनीतं कुमारम् अग्नेः पश्चात् स्वदक्षिणतः अवस्थापयेत्।(अग्नि और बटुकके अंतरमें अंतर्पट रखकर ब्राह्मणों मंगल श्लोकोंका पठन करैं)-"ततः मध्ये$न्तर्पटं धारयित्वा। ब्राह्मणाः सुमंगलपद्यानि पठेयुः।(मंगलपाठके बाद आचार्य बटुकपर अक्षत प्रक्षेप करैं)मंगल पद्यानि पठनान्तरं ॐमनोजूति०।ॐसुमूर्हूते सुप्रतिष्ठितमस्तु।।(आचार्य अंतर्पटको हटा दैं)-"ततः आचार्य अंतर्पटं उत्तरे निस्सार्य।(बटुक आचार्यके चरण स्पर्श करैं-"व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।)"कुमारं आचार्यपादौ प्रणमति।(अपनी दायीं औरसे आचार्य बटुकको अग्निके पश्चिममें आसनपर बिठाईये)-"स्वदक्षिणतः पश्चादग्नेस्तमवस्थापयेत्।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-कुमारं प्रति आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचर्यमागाम्"(बटुक आचार्यसे कहैं)- कुमारो ब्रूयात्"ॐब्रह्मचर्यमागाम्"।(आचार्य ब्रह्मचारीको कहलायें)-आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचार्यसानि।(बटुक भी आचार्य के प्रति कहैं)कुमारमपि वदति-"ॐब्रह्मचार्यसानि।(आचार्य बटुकको मंत्रपढकर सफेद वस्त्र धारण करवायें)-"अथैनं माणवकम् आचार्यो वासः परिधापयति।। येनेन्द्रायेति आङ्गिरसऋषिः बृहतीच्छंदः बृहस्पतिर्देवता वासः परिधाने विनियोगः-"ॐ येनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासःपर्यदधादमृतम्। तेनत्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।।(कुमार को आचमन कैसे करना हैं वह सिखाकर आचमन करवायें)-आचमनम्(आचार्य बटुककी कमरमें त्रीरावृत्त और प्रवरके अनुसार ग्रन्थिलगाकर यथोक्त मेखला बंधन मंत्र पढकर करैं)-ततः आचार्यो ब्रह्मचारिणः कटिप्रदेशे यथोक्त मेखलां यथाप्रवरग्रन्थियुतां प्रदक्षिणं त्रिर्वेष्टयित्वा बध्नाति-(इयं दुरुक्तं इत्यस्य वामदेवर्षिः त्रिष्टुप् छंदः मेखला देवता मेखला बंधने विनियोगः-"ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनतीम$आगात्।प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्व सादेवी सुभगा मेखलेयम्।।मेखलेयम्।।
अत्रावसरे आचारात् यज्ञोपवीतदानम्-।।(यज्ञोपवीतसंस्कार धारणकरवाना)-"ततो यज्ञोपवीतपरिधानम्।।(पहलेआचार्य ही (पूर्वाह्नमें बनाया हुआ यज्ञोपवीत)का प्रक्षालन करैं)-"तत्रादौ आचार्येण(आपोहिष्ठेति तिसृणां सिंधुद्वीप ऋषिः गायत्री छंदः आपोदेवता यज्ञोपवीत प्रक्षालने विनियोगः ॐआपोहिष्ठा० ॐजोवः शिवतमो० ॐतस्मा$अरङ्ग०।।इति त्रिभिमन्त्रैर्यज्ञोपवीतं प्रक्षाल्य।(हाथोंका सम्पुटबनाकर दशगायत्रीमंत्रसे अभिमंत्रित करैं)-"करसम्पुटे धृत्वा दशधा गायत्र्या अभिमंत्र्य।।(ब्रह्मविष्णुरुद्र तीनमंत्रों पढकर उपवीतमें अपने हाथका दायाँ अँगुठा प्रदक्षिणरितिसे घूमाईयैं)-"अंगुष्ठं उपवीते भ्रामयेत् एभिर्मन्त्रैः-ॐब्रह्मजज्ञानं०।ॐइदं व्विष्णुर्वि०।ॐ नमस्ते रुद्र०।(अब यज्ञोपवीतके तंतुओंके देवताओंका आवाहन अक्षतसें करैं)-प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छंदः परमात्मादेवता प्रथमतन्तौ ॐकारावाहने विनियोगः-(१)ॐ प्रथमतन्तौ ॐकाराय नमः-ॐकारं आवाहयामि।(२)-अग्निन्दूतमिति मेधातिथिर्ऋषिः गायत्रीछंदः अग्निर्देवता द्वितीयतन्तौ अग्न्यावाहने विनियोगः-ॐअग्निन्दूतं०।द्वितीयतन्तौ अग्नये नमः अग्निं आवाहयामि।(३)नमो$स्तु सर्पेभ्य इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः सर्पा देवताः अनुष्टुप् छंदः तृतीयतन्तौ सर्पावाहने विनियोगः।ॐ नमो$स्तु सर्प्पेब्भ्यो०।तृतीयतन्तौ सर्पेभ्यो नमः सर्पान् आवाहयामि।(४)-वय गूँ सोमेत्यस्य बन्धुर्ऋषिः सोमोदेवता गायत्रीछंदः चतुर्थतन्तौ सोमावाहने विनियोगः।ॐ व्वय गूँ सोम०।चतुर्थतन्तौ सोमाय नमः सोमं आवाहयामि।(५)-उदीरतामित्यस्य शङ्खऋषिः पितरो देवता त्रिष्टुप् छंदः पञ्चमतन्तौ पित्रावाहने विनियोगः।ॐ उदीरतामवर$०।पञ्चमतन्तौ पितृभ्यो नमः पितॄन् आवाहयामि|(६)-प्रजापतेइत्यस्य हिरण्यगर्भ ऋषिः प्रजापतिर्देवता त्रिष्टुप् छंदः षष्ठतन्तौ प्रजापत्यावाहने विनियोगः| ॐप्रजापतेनत्त्व०||षष्ठतन्तौ प्रजापतये नमः प्रजापतिं आवाहयामि|(७)-आनोनियुद्भिरित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः अनिलो देवता त्रिष्टुप् छंदः सप्तमतन्तौ अनिलावाहने विनियोगः| ॐआनोनियुद्भिः०|सप्तमतन्तौ अनिलाय नमः अनिलं आवाहयामि|(८)-सुगावइत्यस्य अत्रिर्ऋषिः गृहपतयो देवता आर्षीत्रिष्टुप् छंदः अष्टमतन्तौ यमावाहने विनियोगः|ॐसुगावोदेवाःसदनाऽ०|अष्टमतन्तौ यमाय नमः यमं आवाहयामि|(९)-विश्वेदेवासऽआगत इत्यस्य मधुच्छन्दा ऋषिः विश्वेदेवा देवताः त्रिष्टुप् छंदः नवमतन्तौ विश्वेषां देवानामावाहने विनियोगः|ॐविश्श्वेदेवासऽ०|नवमतन्तौ विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः विश्वान्देवान् आवाहयामि|(१०)ब्रह्मजज्ञानमित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः ब्रह्मा देवता गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मावाहने विनियोगः| ॐब्रह्मजज्ञानं०|ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणं आवाहयामि|(११)- इदं विष्णुरित्यस्य मेधातिथिर्ऋषिः गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये विष्णवावाहने विनियोगः|ॐइदं व्विष्ण्णु०|ग्रन्थिमध्ये विष्णवे नमः विष्णुं आवाहयामि|(१२)- त्र्यम्बकमित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः रुद्रो देवता अनुष्टुप् छंदः ग्रन्थिमध्ये रुद्रावाहने विनियोगः|ॐ त्र्यम्बकं०| ग्रन्थिमध्ये रुद्राय नमः रुद्रं आवाहयामि|***ध्यानम्*** ॐप्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्| ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्रम्||इति ध्यात्वा||(गंधाक्षतपुष्पसे यज्ञोपवीतका पूजन करैं)-"ॐप्रणवादिनवतंतुदेवता सहित ब्रह्मविष्णुरुद्रेभ्यो नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षत पुष्पाणि समर्पयामि इति सम्पूज्य ||(उदुत्यं०इस मंत्रसे आचार्य सूर्य नारायणको यज्ञोपवीत दिखलायैं- दूसरैं अनुपवीतीओं तथा स्त्रियाँ यज्ञोपवीतका स्पर्श न करैं)-आचार्यो-उदुत्यमिति सूर्याय दर्शयेत्-"उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिः गायत्री छंदः सूर्यो देवता सूर्यावलोकने विनियोगः-"ॐउदुत्त्यञ्जात०|| यज्ञोपवीतमिति परमेष्ठि ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः लिंगोक्ता देवता "श्रौत स्मार्त कर्मानुष्ठान सिद्ध्यर्थे यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः|ॐयज्ञोपवीतं परमं पवित्रं०यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्यत्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि||(दायाँ हाथ अंदर तथा सिरसे बायें कन्धेपर आयें ऐसे यज्ञोपवीत धारण करायैं)-" इतिं मंत्रं पठित्वा दक्षिणबाहुमुद्धृत्य वामस्कंधे यज्ञोपवीतं धारयेत्||(विधिसे आचमन करायें)।
(आचार्य बटुकको उत्तरीयके लिए अजिन धारण करायैं-(अथवा उपवस्त्रका द्वितीय यज्ञोपवीत)।-"अथाचार्यो माणवकस्याजिनं प्रयच्छति।अजिन धारणे मित्रस्य चक्षुरित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता अजिनधारणे विनियोगः।ॐ मित्रस्य चक्षुर्द्धरुणं बलीयस्तेजो यशस्विस्थविर गूँ समिद्धम्। अनाहनस्यं वसनञ्जरिष्णुःपरीदम्वाज्यजिन्दधेहम्।।(विधिसे आचमन करायें)।आचमनम्।"(आचार्य बटुकको यथोक्त काष्ठका दंड प्रदान करैं बटुक दायें हाथसे दंड ग्रहण करैं)"ततः आचार्यो माणवकस्य दंडं प्रयच्छति-"योमेदंड इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः दंडो देवता दंड धारणे विनियोगः।ॐयो मे दंडः परापतद् वैहाय सोधि भूम्याम्। तमहम्पुनरादधाम्यायुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय।।दंडं प्रतिगृह्णामि इति माणवको ब्रूयात्।(आचार्य बटुकको दोनो हाथोसे अंजली बनानेके लिए कहैं तथा आचार्य स्वयं अपने दोनों हाथोकी अंजलीमें जल ग्रहण करकें बटुक की अंजलीमें जल प्रदान करैं।।)"तत आचार्यः स्वांजलिना अद्भिः बटोः अंजलिं पूरयति।(आचार्य आपोहिष्ठा०के तीन मंत्रों क्रमसे पढकर बटुकसे सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करायें)"-आचार्य पठितैस्त्रिभिर्मन्त्रैः माणवकः सूर्याय अर्घत्रयं दद्यात्।ॐ आपोहिष्ठामयो०। श्री सूर्यायनमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।ॐ जोवः शिवतमो०। श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम। ॐ तस्मा$अरङ्ग०।श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।"(आचार्य बटुकको सूर्यनारायणका दर्शन करनेके लिए कहैं।)"ततः आचार्यो माणवकं प्रेषयति "सूर्यं उदीक्षस्व"।"(बटुक सूर्यनारायणका दर्शन करैं)"ततो माणवकः तच्चक्षुरिति सूर्यं पश्यति।तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः उष्णिक् छंदः सूर्यो देवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः।ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं०।(आचार्य अपना दायाँ हाथ बटुकके दायें कन्धेपर हाथ रखकर बटुकके हृदयतक लें जायैं।) "तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिणस्कंधोपरि हस्तं नीत्वा तस्य हृदयं आलभते।। मम व्रतेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः बृहस्पतिर्देवता हृदयालंभने विनियोगः।ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तन्ते$अस्तु। मम वाचमेकमनाजुषस्व बृहस्पतिष्ट्वानियुनक्तु मह्यम्।।"(आचार्य बटुकका दायाँ हाथ पकडकर उन्हैं प्रश्न पुछैं।)"तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिण हस्तं गृहित्वा$$ह।।(को नामासि?-"हे कुमार तेरा क्या नाम हैं?)"। एवं पृष्टे माणवकः प्रत्याह।।(बटुक अपने नामके पीछे शर्मा,वर्मा,गुप्त लगाकर नाम कहैं->अमुक शर्मा अहं भोः।)"। फिरसे आचार्य बटुकको प्रश्न करैं-"पुनराचार्यः पृच्छति माणवकम्"(कस्य ब्रह्मचार्यसि?-आप किसके ब्रह्मचारी हो?)"बटुक आचार्यसे कहैं"(भवतः-मैं आपका ब्रह्मचारी हूं)"इत्युच्यमाने माणवकेन तं प्रत्याचार्यो ब्रूयात्।(बटुकका ऐसा कहनेपर आचार्य बटुकको कहैं-)"इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यस्तवासौ अमुकशर्मन्,वर्मन्,गुप्त।(आप इन्द्रके ब्रह्मचारी हो,अग्नि तेरा आचार्य हैं,और मैं आपका आचार्य हूं-"फिर आचार्य पाँचभूतो के रक्षण हेतु बटुकके शरीरका स्पर्श करैं)"अथैनं माणवकं भूतेभ्यः परिददाति-आचार्यः।यथा-प्रजापतये इत्यादीनां मन्त्राणां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता कुमाररक्षणे विनियोगः।ॐ प्रजापतयेत्वापरिददामि देवायत्वासवित्रे परिददाम्यद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वापरिददामि विश्वेभ्यस्त्वादेवेभ्यः परिददामि सर्वेभ्यस्त्वाभूतेभ्यः परिददाम्यरिष्ट्यै।।इत्याचार्य पठित मन्त्रेण माणवकरक्षणम्।
ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं चरुवर्जं कृत्वा।। जातवेदसनामाग्निं सम्पूज्य।।(बटुकसे उपनयनप्रधान होम करवायें)-"भूर्भुवःस्वरिति महाव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवता उपनयनाङ्ग प्रधान होमे विनियोगः।ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"। ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"। ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम"।ॐत्वन्नो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐसत्त्वनो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐअयाश्चाग्ने०००स्वाहा-इदं अग्नये अयसे न मम। ॐजेतेशतं०००स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐउदुत्तमं०००स्वाहा-इदं वरुणायादित्यादितये च न मम।ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम।ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम्।।
यज्ञोपवीतवेदारम्भौ(४)- (आचार्य बटुकको उपदेश दैं)"-तत आचार्यः कुमारं शिक्षयति।। आचार्यः(ब्रह्मचार्यसि?-आप ब्रह्मचारी हो?)।"बटुक आचार्यसे कहैं-"कुमारः(ब्रह्मचारी भवानि-(आपकी कृपासे)मैं ब्रह्मचारी बनुंगा)"।आचार्यः"(अपो$शान-आचमन करो)।कुमारः"(अशानि-में आचमन कर लेता हूं)। आचार्यः"(कर्मकुरु-अबसे आप वैदिक कर्म करो)।कुमारः"(करवाणि-आपकी कृपासे शयनतक सारे दिन वैदिक कर्म करुंगा)। आचार्यः"(मा दिवा सुषुप्थाः- अबसे आप दिनमें नहीं सोयेंगे)।कुमारः"(न स्वपानि- मैं दिनमें नहीं सोऊंगा)।आचार्यः"(वाचं यच्छ- ऐसा हो तो मुजे वचन दो आप वाणीको नियमनमें रखैंगे और सत्य बोलेंगे)। कुमारः"(यच्छामि- मैं आपको वचन देता हूं-मैं वाणीको नियमनमें रखुंगा और में सत्य बोलुंगा)।आचार्यः"(समिधमाधेहि-अबसे आप अग्निकी उपासनाके लिए समिध धारण करौंगे)।कुमारः"(आदधानि-मैं समिध धारण करुंगा)।आचार्यः"(अपो$शान-आप "किसीभी वैदिक कर्म करनेसे पहले पवित्र बनने"आचमन करैं)। कुमारः"(अशानि-मैं आचमन करुंगा)।(इस बटुकको गायत्री उपदेश देनेके लिए अग्निकी उत्तर में स्त्री तथा कोई दूसरा सुन न पाये ऐसे दूर आसनपर बीठाईए)"।आचार्यो$ग्नेरुत्तरतो प्रत्यङ्गमुखोपविष्टाय पादोपसंग्रहणपूर्वकमुपसन्नाय समीक्षमाणाय समीक्षिताय सावित्रीं ब्रूयात्।अथोपदेशः तत्रादौ(आचार्य-आचारसे कांसीके पात्रमें तंडुल पसारकें तंडुलोंमे सोनेकी शलाकासे अथवा कुशसे ॐकार तीनों व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र लिखै)। आचार्यः आचारात् कांस्यपात्रे तंडुलान्प्रसार्य तत्र सुवर्णशलाकया ॐकार पूर्वकं गायत्रीमंत्रं लिखित्वा)।(बटुक दायें हाथमें जल रखें)-"बटुर्जलं गृहित्वा" अद्येत्यादि० मम ब्रह्मवर्चस सिद्धि पूर्वक वेद अध्ययन अधिकार सिद्धि अर्थं गायत्री उपदेश अंग विहितं गायत्री पूजनं आचार्य पूजनं च करिष्ये।"(पहले गंधाक्षतपुष्पसे गणपतिका पूजन करनें फिरसे दायें हाथमें जल रखें)। तत्रादौ गणपतेः गंधाक्षतपुष्पैः पूजनं करिष्ये।(बटुक अपने हाथमें गंधाक्षतपुष्प रखैं)।ॐ गणानान्त्वा०।। इति मंत्रेण गणपतिं सम्पूज्य।(कांसीके पात्रमें लिखे हुए गायत्रीमंत्रकी प्रतिष्ठा करैं)। अक्षतैः ॐमनोजूति०।। इति गायत्रीं प्रतिष्ठाप्य।।ध्यानम्-मुक्ता विद्रुमहेमनील००।ॐभूर्भुवःस्वः गायत्र्यै नमः इति नाममन्त्रेण लाभोपचारैः संपूज्य।आचार्यं गंधादिभिः पादोपसंग्रहणपूर्वकं च सम्पूज्य। आचार्यः-(१,अस्य श्री ब्रह्मशाप विमोचन मंत्रस्य ब्रह्माऋषिः भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्मशापविमोचनी गायत्रीशक्तिर्देवता गायत्री छंदः ब्रह्मशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः| तां पश्यन्ति धीराः सुमनसा वाचामग्रतः|| ॐवेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि| तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्|| ॐदेवि गायत्री त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव|====
२), अस्य श्री वसिष्ठशाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठऋषिः वसिष्ठानुगृहिता गायत्रीशक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छंदः वसिष्ठशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐसोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः|आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतिरसोऽस्म्यहम् |योनिमुद्रां दर्शयन् त्रीवारं मनसा गायत्रीं जपित्वा-ॐदेवि गायत्री त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव | ====
३), अस्य श्री विश्वामित्रशाप विमोचन मन्त्रस्य नुतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषि विश्वामित्रानुगृहिता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छंदः विश्वामित्रशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः| देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये| यन्मुखान्निःसृतोऽखिलवेदगर्भः|| ॐदेवि गायत्री त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव | इति शापरहिता गायत्रीं कृत्वा)| (सफेद सूतीके वस्त्र से बटुक और आचार्य आच्छादित होकर त्रीपदा गायत्री मंत्रका सार्थ सान्वय उपदेश बटुकको दैं.... जब तक बटुकको पुरा मंत्र शुद्ध मुखपाठ नहीं हो जाता तबतक"( "प्रथमतः पादं पादम्"-पहले एक एक पद करकें," पुनरर्द्धम्"- फिर आधा आधा,"पुनः समग्रं पठेत्"-फिर मुख पाठ करवाँकर पुरा गायत्रीमंत्र कंठस्थ करायैं_)पढातें रहैं |एक एक चरण पढायैं पहला चरण कंठस्थ हो जायैं तो "ॐस्वस्ति" बुलवायैं-फिल दूसरा चरण मुखपाठ हो जानेपर पुनः "ॐस्वस्ति"|तीसरा चरण मुखपाठ हो जाने पर पुनः" ॐस्वस्ति " बुलवायैं| फिर आधा मंत्र मुखपाठ होजाने पर पुनः"ॐस्वस्ति"| फिरसे दूसरा आधा मंत्रान्त पूर्ण हो जानेपर पुनः"ॐस्वस्ति "| पुरा मंत्र मुखपाठ हो जानेपर" ॐस्वस्ति " बुलवायैं_| इति गायत्री उपदेशम् ||
(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।।
अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।। अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।। (बटुक मौन रहते हुए अपने हाथोंके तलवों अग्निपर तपायैं)"-ततः तूष्णीं पाणी प्रतप्य"( बटुक अपने मुख पर तपायायें हुए दौनों तलवोंका स्पर्श करैं इन सात मंत्रो से)-" तनूपा$ग्नेसि इत्यादि सप्तभिर्मन्त्रैः प्रतिमंत्रं मुखविमर्शनं करोति ब्रह्मचारी"-ॐ तनूपा$ग्नेसि तन्वम्मे पाहि।।१।। ॐ आयुर्दा$ग्नेस्यायुर्मे देहि।।२।। ॐ वर्च्चोदा$ग्नेसि वर्च्चो मे देहि।।३।। ॐ अग्ने जन्मे तन्वा$ऊनन्तन्म$आपृण।।४।। ॐ मेधाम्मे देवः सविता$आदधातु।।५।। ॐ मेधाम्मे देवी सरस्वती$आदधातु।।६।। ॐ मेधामश्विनौदेवा वाधत्तां पुख्करस्रजौ।।७।।"(शिष्ट आचरणके लिए पवित्र अंगादिको रखनेके लिए)"-अत्र शिष्टाचारतो$नुष्ठेयाः पदार्थाः, अङ्गानि च आप्यायताम् इति शिरः प्रभृति पादांत सर्वांगानि आलभते।-"ॐ अंगानि च इत्यादिनां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिंगोक्ता देवता अंगाप्यायने विनियोगः।(बटुक अपने शरीरके अंगोपर दौनों हाथके तलवों का शिरसे पैरतक स्पर्श करैं- सभी अंग परमात्माके कार्योमें लगाने हेतु पवित्र रखना हैं)-ॐ अंगानि च आप्यायताम्"इति सर्वांगानि,-"(पवित्र वाणी रखकर विवेक भाषा का वक्तव्य करने हेतु मुखका स्पर्श)-"ॐ वाक्चम$आप्यायताम् इति मुखे"-(प्राणायामसे शरीरके प्राणोको पवित्र रखने हेतु नासिका का स्पर्श)-"ॐ प्राणश्चम$आप्यायताम् इति नासिकयोः"-(दृष्टि से आँखो की पवित्रता बनाने हेतु आँखोका स्पर्श)-"ॐ चक्षुश्चम$आप्यायताम् इति नेत्रयोः"-(शुभ विचारोंको ही सुनने के लिए दायें कानका स्पर्श)-"ॐ श्रोत्रञ्चम$आप्यायताम्"इति दक्षिण कर्णे -(बायें कानका स्पर्श)ॐश्रोत्रञ्चम$आप्यायताम् इति वामकर्णे"-( निष्कलंक बनने और ब्रह्मचर्यसे ऊर्जा(वीर्य)रक्षण पाने के लिए परमात्मासे प्रार्थना)"-ॐ यशोबलञ्चम$आप्यायताम् इति मंत्रपाठः।। (बटुक अपने बायें हाथमें भस्म लेकर दायें हाथसे मलकर अँगुठेके पासवाली (कनिष्ठिका रहित)तीनों अँगुलीयोंसे शरीरके यथा यथा पाँच स्थानपर भस्म का त्रिपुंड्र धारण करैं)-"ततस्त्रायुखाणि करोति भस्मना"-त्र्यायुखमिति नारायण ऋषिः उष्णिक् छंदः अग्निर्देवता भस्मना त्रिपुंड्र करणे विनियोगः-"( ललाटमें-ॐ त्र्यायुखञ्जमदग्नेः इति ललाटे)"-"(गलेपर-ॐकश्श्यपस्य त्र्यायुखम् इति ग्रीवायां)"-"(दायी और बाई भुजाओंपर-ॐ जद्देवेखु त्र्यायुखम् इति दक्षिणांसे च वामांसे)"-"(हृदयपर-ॐतन्नो$अस्तु त्र्यायुखम् इति हृदि)"त्रिपुंड्रकाणि धारयित्वा।(बटुकको अपने गोत्र के ऋषि, प्रवर,वेद,शाखासे परिचित करवाँकर इन ऋषियों के आदर्श जीवन तथा अपने गृह्यसूत्रोंका स्मरण रखतें हुए अपना जीवन व्यतित करना हैं, बटुक अपना गोत्र तथा शर्मान्त,आदि वर्णविशेष उच्चारण द्वारा आचारसे "दक्षिण पादमालभ्य पाणिना दक्षिणेन च। सव्येन सव्यविष्टभ्य अभिवादन कर्मणि।।याज्ञ्यवल्क्यः।।"अभिवादन करैं -"अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धो$पसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।)"ततो गोत्रनामादि पूर्वकं वैश्वानरादिनाम् अभिवादनम्-" अमुक गोत्रः अमुक शर्मा अहं"(अग्निनारायण को अभिवादन-"भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य "-"( अपने कुलगुरुको-भो गुरो त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(आचार्यको-भो आचार्य त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(माता-पिताको"- भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि)मातापितरौ-आयुष्मान्भव सौम्य"(सूर्य चन्द्रमाको-भो सूर्यचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(सभी ब्राह्मणोंको-सर्वान्ब्राह्मणान् अभिवादयामि)ब्राह्मणाः आयुष्मान्भव सौम्य"-इत्यभिवादनम्।।संध्यावंदनाधिकारो$स्तु।।(नित्य नियमित त्रिकाल संध्यासे रहित न हों इस लिए आचार्य संक्षिप्त संध्या की शिक्षा बटुकको दैं, यहाँ सूत्रोक्त त्रिकाल संध्याके विशेष प्रमुख सूत्रोको अपनायें-(१)भस्मधारणम्,
(२)आचमनम् - गायत्रीमंत्रसे या (ॐभूर्भुवःस्वः) व्याहृतिसे...
(३)शिखाबन्धनम्,(गायत्रीमंत्रसे),
(४)प्राणायामः (गायत्री मंत्र से )
(५)संकल्पःतत्सत् श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं संध्योपासनं करिष्ये,
(६)अभिषेचनम्(गायत्री मंत्रसे),
(७) अर्घ्यदानम् (गायत्री मंत्र से )
(८)उपस्थानम्(गायत्रीमंत्रसे),
(९)गायत्रीमंत्रजपः,
(१०) जप कर्मणा सूर्यनारायणः प्रीयताम्।।
।।अथ भिक्षाचर्यचरणम्।।(भिक्षा लेकर गुरुको समर्पित करकें गुरुसे प्रदत्त शेष भिक्षा ग्रहण करना, ब्रह्मचारीका स्वधर्म होनेसे, वह दण्ड तथा आचार्यसे प्रदत्त भिक्षापात्र लेकर)"-ब्रह्मचारी दण्डं भिक्षापात्रं प्रतिगृह्य।(सावित्री(गायत्री)तथा आदित्यको प्रणाम करकें अग्निकी प्रदक्षिणाकर पहली भिक्षा माता से ग्रहण करैं)-"सावित्र्या सवितारं उपस्थाय अग्निं प्रदक्षिणी कृत्य प्रथमं मातरं भिक्षेत्।।(भिक्षाका अन्न कच्चा ही होना चाहिये चोकलेट,गोली,बरफी,पैंडे नहीं ब्राह्मण द्विजातियोंसे ही भिक्षा ग्रहण करै)भिक्षाद्रव्यं सदैवमामम्।।(भिक्षा की अपेक्षासे ब्राह्मणब्रह्मचारी कहैं)-"ॐ भवति भिक्षां देहि।।दाता ॐस्वस्ति।। प्रतिग्राही ब्रह्मचारी ॐस्वस्ति इति प्रतिवचनम्।इति ब्राह्मणः।।"(क्षत्रिय ब्रह्मचारी स्ववर्ण तथा वैश्यों से ही भिक्षा ग्रहण करैं)"-भिक्षां भवति देहि।। दाता-स्वस्ति।।प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति क्षत्रियः।।(वैश्य वैश्यसे ही भिक्षा ग्रहण करैं)-"भिक्षां देहि भवति।।दाता-स्वस्ति। प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति वैश्यः।। (तीन,छह या बारह अथवा यथेष्ट सद्गृहस्थीओंकी ही भिक्षा ग्रहण करैं।)"-तिस्रः षट् द्वादश वा अपरिमिता भिक्षा ग्राह्याः।(भिक्षामें आया सब कुछ निःशेष आचार्य(गुरु)को निवेदितकर आचार्य(गुरु)की आज्ञासे भिक्षा ब्रह्मचारीको स्वयं भोजन बनाने हेतु ग्रहण करनी चाहिये)-"आचार्याय भैक्ष्यं निवेदयित्वा(भुंक्ष्व"इति आचार्यानुज्ञातो भिक्षां स्वीकुर्यात्।।ब्रह्मचारी-नियमाः-"यावद्व्रतं तावदग्निरक्षणं त्रिरात्रं वा।(जबतक वेदव्रत समाप्तिका समावर्तन संस्कार न हो तबतक यह औपासनाग्निका रक्षण करकें नित्य नियमित सायंकाल और प्रातःकाल (संध्यावंदन करकें)इस अग्निमें ईंधन और समिधादान करतें रहना अथवा तीनरात्रितक अग्निका रक्षण करैं)।"-अत आरभ्य आ ब्रह्मचर्यसमाप्ते र्ब्रह्मचारिणो नियमाः कथ्यन्ते आचार्येण।(आचार्यके कहैं हुए नियमों का ब्रह्मचर्यकी समाप्तितक स्वधर्मसे पालन करैं)। "अधःशयीत।। अक्षारलवणाशीस्यात्।।दंडधारणम्। अग्निपरिचरणं समिदाधानं कर्तव्यम्। गुरुशुश्रुषा कर्तव्या।भिक्षाचर्यं कर्तव्यम्। मधुमांसाशनं कर्तव्यम्।मज्जनं न कर्तव्यम्। पर्यासने नोपविशेत्। स्त्रीणां मध्ये$अवस्थानं न कर्तव्यम्। अदत्तं न गृह्णीयात्। अनृतं न वदेत्। अस्तसमये भास्करावलोकनं न कुर्यात्। कांस्यपात्रे मृण्मयपात्रे(मिट्टीसे बना पात्र थूंक आदिसे उच्छिष्ट होतें हैं)भोजनं न कुर्यात्। तांबूलभक्षणं न कुर्यात्। अभ्यंगं अक्ष्णोःरंजनं उपानच्छत्र- आदर्शं च वर्जयेत्। इति नियमाः।।
पिता हस्ते जलमादाय-"कृतस्य मम पुत्रस्य उपनयनाख्यस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् पंचाशत् संख्याकान् ब्राह्मणान् यथाकाले यथा संपन्नेन अन्नेन अहं भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवताः प्रीयन्ताम् (ब्रह्मभोजन "ब्रह्मार्पण करने वालें ब्राह्मणोंसे ही सम्पन्न होता हैं)।ॐ लंबोदर नमस्तुभ्यं०००।यस्यस्मृत्या०००।। यथा शक्त्या उपनयन विधेः परिपूर्णता$स्तु।।
(आचार्य बटुकको उत्तरीयके लिए अजिन धारण करायैं-(अथवा उपवस्त्रका द्वितीय यज्ञोपवीत)।-"अथाचार्यो माणवकस्याजिनं प्रयच्छति।अजिन धारणे मित्रस्य चक्षुरित्यस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता अजिनधारणे विनियोगः।ॐ मित्रस्य चक्षुर्द्धरुणं बलीयस्तेजो यशस्विस्थविर गूँ समिद्धम्। अनाहनस्यं वसनञ्जरिष्णुःपरीदम्वाज्यजिन्दधेहम्।।(विधिसे आचमन करायें)।आचमनम्।"(आचार्य बटुकको यथोक्त काष्ठका दंड प्रदान करैं बटुक दायें हाथसे दंड ग्रहण करैं)"ततः आचार्यो माणवकस्य दंडं प्रयच्छति-"योमेदंड इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः दंडो देवता दंड धारणे विनियोगः।ॐयो मे दंडः परापतद् वैहाय सोधि भूम्याम्। तमहम्पुनरादधाम्यायुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय।।दंडं प्रतिगृह्णामि इति माणवको ब्रूयात्।(आचार्य बटुकको दोनो हाथोसे अंजली बनानेके लिए कहैं तथा आचार्य स्वयं अपने दोनों हाथोकी अंजलीमें जल ग्रहण करकें बटुक की अंजलीमें जल प्रदान करैं।।)"तत आचार्यः स्वांजलिना अद्भिः बटोः अंजलिं पूरयति।(आचार्य आपोहिष्ठा०के तीन मंत्रों क्रमसे पढकर बटुकसे सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करायें)"-आचार्य पठितैस्त्रिभिर्मन्त्रैः माणवकः सूर्याय अर्घत्रयं दद्यात्।ॐ आपोहिष्ठामयो०। श्री सूर्यायनमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।ॐ जोवः शिवतमो०। श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम। ॐ तस्मा$अरङ्ग०।श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।"(आचार्य बटुकको सूर्यनारायणका दर्शन करनेके लिए कहैं।)"ततः आचार्यो माणवकं प्रेषयति "सूर्यं उदीक्षस्व"।"(बटुक सूर्यनारायणका दर्शन करैं)"ततो माणवकः तच्चक्षुरिति सूर्यं पश्यति।तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः उष्णिक् छंदः सूर्यो देवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः।ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं०।(आचार्य अपना दायाँ हाथ बटुकके दायें कन्धेपर हाथ रखकर बटुकके हृदयतक लें जायैं।) "तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिणस्कंधोपरि हस्तं नीत्वा तस्य हृदयं आलभते।। मम व्रतेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः बृहस्पतिर्देवता हृदयालंभने विनियोगः।ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तन्ते$अस्तु। मम वाचमेकमनाजुषस्व बृहस्पतिष्ट्वानियुनक्तु मह्यम्।।"(आचार्य बटुकका दायाँ हाथ पकडकर उन्हैं प्रश्न पुछैं।)"तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिण हस्तं गृहित्वा$$ह।।(को नामासि?-"हे कुमार तेरा क्या नाम हैं?)"। एवं पृष्टे माणवकः प्रत्याह।।(बटुक अपने नामके पीछे शर्मा,वर्मा,गुप्त लगाकर नाम कहैं->अमुक शर्मा अहं भोः।)"। फिरसे आचार्य बटुकको प्रश्न करैं-"पुनराचार्यः पृच्छति माणवकम्"(कस्य ब्रह्मचार्यसि?-आप किसके ब्रह्मचारी हो?)"बटुक आचार्यसे कहैं"(भवतः-मैं आपका ब्रह्मचारी हूं)"इत्युच्यमाने माणवकेन तं प्रत्याचार्यो ब्रूयात्।(बटुकका ऐसा कहनेपर आचार्य बटुकको कहैं-)"इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यस्तवासौ अमुकशर्मन्,वर्मन्,गुप्त।(आप इन्द्रके ब्रह्मचारी हो,अग्नि तेरा आचार्य हैं,और मैं आपका आचार्य हूं-"फिर आचार्य पाँचभूतो के रक्षण हेतु बटुकके शरीरका स्पर्श करैं)"अथैनं माणवकं भूतेभ्यः परिददाति-आचार्यः।यथा-प्रजापतये इत्यादीनां मन्त्राणां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता कुमाररक्षणे विनियोगः।ॐ प्रजापतयेत्वापरिददामि देवायत्वासवित्रे परिददाम्यद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वापरिददामि विश्वेभ्यस्त्वादेवेभ्यः परिददामि सर्वेभ्यस्त्वाभूतेभ्यः परिददाम्यरिष्ट्यै।।इत्याचार्य पठित मन्त्रेण माणवकरक्षणम्।
ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं चरुवर्जं कृत्वा।। जातवेदसनामाग्निं सम्पूज्य।।(बटुकसे उपनयनप्रधान होम करवायें)-"भूर्भुवःस्वरिति महाव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवता उपनयनाङ्ग प्रधान होमे विनियोगः।ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"। ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"। ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम"।ॐत्वन्नो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐसत्त्वनो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐअयाश्चाग्ने०००स्वाहा-इदं अग्नये अयसे न मम। ॐजेतेशतं०००स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐउदुत्तमं०००स्वाहा-इदं वरुणायादित्यादितये च न मम।ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम।ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम्।।
यज्ञोपवीतवेदारम्भौ(४)- (आचार्य बटुकको उपदेश दैं)"-तत आचार्यः कुमारं शिक्षयति।। आचार्यः(ब्रह्मचार्यसि?-आप ब्रह्मचारी हो?)।"बटुक आचार्यसे कहैं-"कुमारः(ब्रह्मचारी भवानि-(आपकी कृपासे)मैं ब्रह्मचारी बनुंगा)"।आचार्यः"(अपो$शान-आचमन करो)।कुमारः"(अशानि-में आचमन कर लेता हूं)। आचार्यः"(कर्मकुरु-अबसे आप वैदिक कर्म करो)।कुमारः"(करवाणि-आपकी कृपासे शयनतक सारे दिन वैदिक कर्म करुंगा)। आचार्यः"(मा दिवा सुषुप्थाः- अबसे आप दिनमें नहीं सोयेंगे)।कुमारः"(न स्वपानि- मैं दिनमें नहीं सोऊंगा)।आचार्यः"(वाचं यच्छ- ऐसा हो तो मुजे वचन दो आप वाणीको नियमनमें रखैंगे और सत्य बोलेंगे)। कुमारः"(यच्छामि- मैं आपको वचन देता हूं-मैं वाणीको नियमनमें रखुंगा और में सत्य बोलुंगा)।आचार्यः"(समिधमाधेहि-अबसे आप अग्निकी उपासनाके लिए समिध धारण करौंगे)।कुमारः"(आदधानि-मैं समिध धारण करुंगा)।आचार्यः"(अपो$शान-आप "किसीभी वैदिक कर्म करनेसे पहले पवित्र बनने"आचमन करैं)। कुमारः"(अशानि-मैं आचमन करुंगा)।(इस बटुकको गायत्री उपदेश देनेके लिए अग्निकी उत्तर में स्त्री तथा कोई दूसरा सुन न पाये ऐसे दूर आसनपर बीठाईए)"।आचार्यो$ग्नेरुत्तरतो प्रत्यङ्गमुखोपविष्टाय पादोपसंग्रहणपूर्वकमुपसन्नाय समीक्षमाणाय समीक्षिताय सावित्रीं ब्रूयात्।अथोपदेशः तत्रादौ(आचार्य-आचारसे कांसीके पात्रमें तंडुल पसारकें तंडुलोंमे सोनेकी शलाकासे अथवा कुशसे ॐकार तीनों व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र लिखै)। आचार्यः आचारात् कांस्यपात्रे तंडुलान्प्रसार्य तत्र सुवर्णशलाकया ॐकार पूर्वकं गायत्रीमंत्रं लिखित्वा)।(बटुक दायें हाथमें जल रखें)-"बटुर्जलं गृहित्वा" अद्येत्यादि० मम ब्रह्मवर्चस सिद्धि पूर्वक वेद अध्ययन अधिकार सिद्धि अर्थं गायत्री उपदेश अंग विहितं गायत्री पूजनं आचार्य पूजनं च करिष्ये।"(पहले गंधाक्षतपुष्पसे गणपतिका पूजन करनें फिरसे दायें हाथमें जल रखें)। तत्रादौ गणपतेः गंधाक्षतपुष्पैः पूजनं करिष्ये।(बटुक अपने हाथमें गंधाक्षतपुष्प रखैं)।ॐ गणानान्त्वा०।। इति मंत्रेण गणपतिं सम्पूज्य।(कांसीके पात्रमें लिखे हुए गायत्रीमंत्रकी प्रतिष्ठा करैं)। अक्षतैः ॐमनोजूति०।। इति गायत्रीं प्रतिष्ठाप्य।।ध्यानम्-मुक्ता विद्रुमहेमनील००।ॐभूर्भुवःस्वः गायत्र्यै नमः इति नाममन्त्रेण लाभोपचारैः संपूज्य।आचार्यं गंधादिभिः पादोपसंग्रहणपूर्वकं च सम्पूज्य। आचार्यः-(१,अस्य श्री ब्रह्मशाप विमोचन मंत्रस्य ब्रह्माऋषिः भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्मशापविमोचनी गायत्रीशक्तिर्देवता गायत्री छंदः ब्रह्मशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः| तां पश्यन्ति धीराः सुमनसा वाचामग्रतः|| ॐवेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि| तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्|| ॐदेवि गायत्री त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव|====
२), अस्य श्री वसिष्ठशाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठऋषिः वसिष्ठानुगृहिता गायत्रीशक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छंदः वसिष्ठशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐसोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः|आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतिरसोऽस्म्यहम् |योनिमुद्रां दर्शयन् त्रीवारं मनसा गायत्रीं जपित्वा-ॐदेवि गायत्री त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव | ====
३), अस्य श्री विश्वामित्रशाप विमोचन मन्त्रस्य नुतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषि विश्वामित्रानुगृहिता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छंदः विश्वामित्रशाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः| ॐगायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः| देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये| यन्मुखान्निःसृतोऽखिलवेदगर्भः|| ॐदेवि गायत्री त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव | इति शापरहिता गायत्रीं कृत्वा)| (सफेद सूतीके वस्त्र से बटुक और आचार्य आच्छादित होकर त्रीपदा गायत्री मंत्रका सार्थ सान्वय उपदेश बटुकको दैं.... जब तक बटुकको पुरा मंत्र शुद्ध मुखपाठ नहीं हो जाता तबतक"( "प्रथमतः पादं पादम्"-पहले एक एक पद करकें," पुनरर्द्धम्"- फिर आधा आधा,"पुनः समग्रं पठेत्"-फिर मुख पाठ करवाँकर पुरा गायत्रीमंत्र कंठस्थ करायैं_)पढातें रहैं |एक एक चरण पढायैं पहला चरण कंठस्थ हो जायैं तो "ॐस्वस्ति" बुलवायैं-फिल दूसरा चरण मुखपाठ हो जानेपर पुनः "ॐस्वस्ति"|तीसरा चरण मुखपाठ हो जाने पर पुनः" ॐस्वस्ति " बुलवायैं| फिर आधा मंत्र मुखपाठ होजाने पर पुनः"ॐस्वस्ति"| फिरसे दूसरा आधा मंत्रान्त पूर्ण हो जानेपर पुनः"ॐस्वस्ति "| पुरा मंत्र मुखपाठ हो जानेपर" ॐस्वस्ति " बुलवायैं_| इति गायत्री उपदेशम् ||
(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।।
अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति ब्रह्मचारी। तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा।(यही संधुक्षण और समिधादान से अग्निका यजन सायं प्रातः नित्य बटुकको करना होता हैं इस लिए भलीभाँति बटुकको इस विधानसे परिचित करैं,")-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(बटुकसे पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।। अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"- ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(बुटकके पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(बटुक खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।। (बटुक मौन रहते हुए अपने हाथोंके तलवों अग्निपर तपायैं)"-ततः तूष्णीं पाणी प्रतप्य"( बटुक अपने मुख पर तपायायें हुए दौनों तलवोंका स्पर्श करैं इन सात मंत्रो से)-" तनूपा$ग्नेसि इत्यादि सप्तभिर्मन्त्रैः प्रतिमंत्रं मुखविमर्शनं करोति ब्रह्मचारी"-ॐ तनूपा$ग्नेसि तन्वम्मे पाहि।।१।। ॐ आयुर्दा$ग्नेस्यायुर्मे देहि।।२।। ॐ वर्च्चोदा$ग्नेसि वर्च्चो मे देहि।।३।। ॐ अग्ने जन्मे तन्वा$ऊनन्तन्म$आपृण।।४।। ॐ मेधाम्मे देवः सविता$आदधातु।।५।। ॐ मेधाम्मे देवी सरस्वती$आदधातु।।६।। ॐ मेधामश्विनौदेवा वाधत्तां पुख्करस्रजौ।।७।।"(शिष्ट आचरणके लिए पवित्र अंगादिको रखनेके लिए)"-अत्र शिष्टाचारतो$नुष्ठेयाः पदार्थाः, अङ्गानि च आप्यायताम् इति शिरः प्रभृति पादांत सर्वांगानि आलभते।-"ॐ अंगानि च इत्यादिनां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिंगोक्ता देवता अंगाप्यायने विनियोगः।(बटुक अपने शरीरके अंगोपर दौनों हाथके तलवों का शिरसे पैरतक स्पर्श करैं- सभी अंग परमात्माके कार्योमें लगाने हेतु पवित्र रखना हैं)-ॐ अंगानि च आप्यायताम्"इति सर्वांगानि,-"(पवित्र वाणी रखकर विवेक भाषा का वक्तव्य करने हेतु मुखका स्पर्श)-"ॐ वाक्चम$आप्यायताम् इति मुखे"-(प्राणायामसे शरीरके प्राणोको पवित्र रखने हेतु नासिका का स्पर्श)-"ॐ प्राणश्चम$आप्यायताम् इति नासिकयोः"-(दृष्टि से आँखो की पवित्रता बनाने हेतु आँखोका स्पर्श)-"ॐ चक्षुश्चम$आप्यायताम् इति नेत्रयोः"-(शुभ विचारोंको ही सुनने के लिए दायें कानका स्पर्श)-"ॐ श्रोत्रञ्चम$आप्यायताम्"इति दक्षिण कर्णे -(बायें कानका स्पर्श)ॐश्रोत्रञ्चम$आप्यायताम् इति वामकर्णे"-( निष्कलंक बनने और ब्रह्मचर्यसे ऊर्जा(वीर्य)रक्षण पाने के लिए परमात्मासे प्रार्थना)"-ॐ यशोबलञ्चम$आप्यायताम् इति मंत्रपाठः।। (बटुक अपने बायें हाथमें भस्म लेकर दायें हाथसे मलकर अँगुठेके पासवाली (कनिष्ठिका रहित)तीनों अँगुलीयोंसे शरीरके यथा यथा पाँच स्थानपर भस्म का त्रिपुंड्र धारण करैं)-"ततस्त्रायुखाणि करोति भस्मना"-त्र्यायुखमिति नारायण ऋषिः उष्णिक् छंदः अग्निर्देवता भस्मना त्रिपुंड्र करणे विनियोगः-"( ललाटमें-ॐ त्र्यायुखञ्जमदग्नेः इति ललाटे)"-"(गलेपर-ॐकश्श्यपस्य त्र्यायुखम् इति ग्रीवायां)"-"(दायी और बाई भुजाओंपर-ॐ जद्देवेखु त्र्यायुखम् इति दक्षिणांसे च वामांसे)"-"(हृदयपर-ॐतन्नो$अस्तु त्र्यायुखम् इति हृदि)"त्रिपुंड्रकाणि धारयित्वा।(बटुकको अपने गोत्र के ऋषि, प्रवर,वेद,शाखासे परिचित करवाँकर इन ऋषियों के आदर्श जीवन तथा अपने गृह्यसूत्रोंका स्मरण रखतें हुए अपना जीवन व्यतित करना हैं, बटुक अपना गोत्र तथा शर्मान्त,आदि वर्णविशेष उच्चारण द्वारा आचारसे "दक्षिण पादमालभ्य पाणिना दक्षिणेन च। सव्येन सव्यविष्टभ्य अभिवादन कर्मणि।।याज्ञ्यवल्क्यः।।"अभिवादन करैं -"अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धो$पसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।)"ततो गोत्रनामादि पूर्वकं वैश्वानरादिनाम् अभिवादनम्-" अमुक गोत्रः अमुक शर्मा अहं"(अग्निनारायण को अभिवादन-"भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य "-"( अपने कुलगुरुको-भो गुरो त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(आचार्यको-भो आचार्य त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(माता-पिताको"- भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि)मातापितरौ-आयुष्मान्भव सौम्य"(सूर्य चन्द्रमाको-भो सूर्यचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(सभी ब्राह्मणोंको-सर्वान्ब्राह्मणान् अभिवादयामि)ब्राह्मणाः आयुष्मान्भव सौम्य"-इत्यभिवादनम्।।संध्यावंदनाधिकारो$स्तु।।(नित्य नियमित त्रिकाल संध्यासे रहित न हों इस लिए आचार्य संक्षिप्त संध्या की शिक्षा बटुकको दैं, यहाँ सूत्रोक्त त्रिकाल संध्याके विशेष प्रमुख सूत्रोको अपनायें-(१)भस्मधारणम्,
(२)आचमनम् - गायत्रीमंत्रसे या (ॐभूर्भुवःस्वः) व्याहृतिसे...
(३)शिखाबन्धनम्,(गायत्रीमंत्रसे),
(४)प्राणायामः (गायत्री मंत्र से )
(५)संकल्पःतत्सत् श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं संध्योपासनं करिष्ये,
(६)अभिषेचनम्(गायत्री मंत्रसे),
(७) अर्घ्यदानम् (गायत्री मंत्र से )
(८)उपस्थानम्(गायत्रीमंत्रसे),
(९)गायत्रीमंत्रजपः,
(१०) जप कर्मणा सूर्यनारायणः प्रीयताम्।।
।।अथ भिक्षाचर्यचरणम्।।(भिक्षा लेकर गुरुको समर्पित करकें गुरुसे प्रदत्त शेष भिक्षा ग्रहण करना, ब्रह्मचारीका स्वधर्म होनेसे, वह दण्ड तथा आचार्यसे प्रदत्त भिक्षापात्र लेकर)"-ब्रह्मचारी दण्डं भिक्षापात्रं प्रतिगृह्य।(सावित्री(गायत्री)तथा आदित्यको प्रणाम करकें अग्निकी प्रदक्षिणाकर पहली भिक्षा माता से ग्रहण करैं)-"सावित्र्या सवितारं उपस्थाय अग्निं प्रदक्षिणी कृत्य प्रथमं मातरं भिक्षेत्।।(भिक्षाका अन्न कच्चा ही होना चाहिये चोकलेट,गोली,बरफी,पैंडे नहीं ब्राह्मण द्विजातियोंसे ही भिक्षा ग्रहण करै)भिक्षाद्रव्यं सदैवमामम्।।(भिक्षा की अपेक्षासे ब्राह्मणब्रह्मचारी कहैं)-"ॐ भवति भिक्षां देहि।।दाता ॐस्वस्ति।। प्रतिग्राही ब्रह्मचारी ॐस्वस्ति इति प्रतिवचनम्।इति ब्राह्मणः।।"(क्षत्रिय ब्रह्मचारी स्ववर्ण तथा वैश्यों से ही भिक्षा ग्रहण करैं)"-भिक्षां भवति देहि।। दाता-स्वस्ति।।प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति क्षत्रियः।।(वैश्य वैश्यसे ही भिक्षा ग्रहण करैं)-"भिक्षां देहि भवति।।दाता-स्वस्ति। प्रतिग्राही-स्वस्ति।इति वैश्यः।। (तीन,छह या बारह अथवा यथेष्ट सद्गृहस्थीओंकी ही भिक्षा ग्रहण करैं।)"-तिस्रः षट् द्वादश वा अपरिमिता भिक्षा ग्राह्याः।(भिक्षामें आया सब कुछ निःशेष आचार्य(गुरु)को निवेदितकर आचार्य(गुरु)की आज्ञासे भिक्षा ब्रह्मचारीको स्वयं भोजन बनाने हेतु ग्रहण करनी चाहिये)-"आचार्याय भैक्ष्यं निवेदयित्वा(भुंक्ष्व"इति आचार्यानुज्ञातो भिक्षां स्वीकुर्यात्।।ब्रह्मचारी-नियमाः-"यावद्व्रतं तावदग्निरक्षणं त्रिरात्रं वा।(जबतक वेदव्रत समाप्तिका समावर्तन संस्कार न हो तबतक यह औपासनाग्निका रक्षण करकें नित्य नियमित सायंकाल और प्रातःकाल (संध्यावंदन करकें)इस अग्निमें ईंधन और समिधादान करतें रहना अथवा तीनरात्रितक अग्निका रक्षण करैं)।"-अत आरभ्य आ ब्रह्मचर्यसमाप्ते र्ब्रह्मचारिणो नियमाः कथ्यन्ते आचार्येण।(आचार्यके कहैं हुए नियमों का ब्रह्मचर्यकी समाप्तितक स्वधर्मसे पालन करैं)। "अधःशयीत।। अक्षारलवणाशीस्यात्।।दंडधारणम्। अग्निपरिचरणं समिदाधानं कर्तव्यम्। गुरुशुश्रुषा कर्तव्या।भिक्षाचर्यं कर्तव्यम्। मधुमांसाशनं कर्तव्यम्।मज्जनं न कर्तव्यम्। पर्यासने नोपविशेत्। स्त्रीणां मध्ये$अवस्थानं न कर्तव्यम्। अदत्तं न गृह्णीयात्। अनृतं न वदेत्। अस्तसमये भास्करावलोकनं न कुर्यात्। कांस्यपात्रे मृण्मयपात्रे(मिट्टीसे बना पात्र थूंक आदिसे उच्छिष्ट होतें हैं)भोजनं न कुर्यात्। तांबूलभक्षणं न कुर्यात्। अभ्यंगं अक्ष्णोःरंजनं उपानच्छत्र- आदर्शं च वर्जयेत्। इति नियमाः।।
पिता हस्ते जलमादाय-"कृतस्य मम पुत्रस्य उपनयनाख्यस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् पंचाशत् संख्याकान् ब्राह्मणान् यथाकाले यथा संपन्नेन अन्नेन अहं भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवताः प्रीयन्ताम् (ब्रह्मभोजन "ब्रह्मार्पण करने वालें ब्राह्मणोंसे ही सम्पन्न होता हैं)।ॐ लंबोदर नमस्तुभ्यं०००।यस्यस्मृत्या०००।। यथा शक्त्या उपनयन विधेः परिपूर्णता$स्तु।।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।। शेष पुनः
षोडश संस्काराः यज्ञोपवीतम् खंड१२७~(संध्योपासना ) यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त होनेके पश्चात् सभी द्विजों(ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों)को अपने अपने गृह्यसूत्रों अनुसार नित्य और नियमितरूपसे त्रिकाल संध्याकी उपासना करनी चाहिये। केवल कर्मकांड करनेवाले ब्राह्मणोंको ही संध्या करनी चाहिये ऐसा नहीं हैं। तीनप्रकारकें अनुष्ठान करनेका आदेश शास्त्रोंमें हैं। १ नित्य २ नैमित्तिक और ३ काम्य। "संध्या स्नानं जपो होमः स्वाध्यायो देवतार्चनम्। वैश्वदेवातिथेयश्च षट् कर्माणि दिने दिने।।पराशरस्मृतिः१३९।। अर्थात् १स्नान,२ संध्या,गायत्रीमंत्रजप,३ होम,४स्वशाखाके वेदका अध्ययन,५देवतार्चन,६ वैश्वदेव,अतिथि सत्कार! यह छह कर्म प्रत्येक द्विजोंको प्रतिदिन करना चाहिये। श्रृति कहती हैं कि"अहरहः संध्यामुपासीत।।"अर्थात् द्विजोंको प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये। "अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः।।"अर्थात् वैदिक कर्म नित्य न करनेसे द्विज प्रत्यवायी(पतित)बनता हैं।"विहितानाचरणजन्य पातकं प्रत्यवायः।।" अर्थात् विहित नित्यकर्म न करनेसे होनेवाले पाप को प्रत्यवाय कहा जाता हैं। द्विजों को यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त कर आचार्यसे संध्याका महत्व और विधिसे संध्यावंदन विधि जानकर प्रतिदिन संध्या अवश्य करनी चाहिये। प्रत्येक द्विजधर्मी माता-पिता की फरज़ हैं कि नीति और धर्मका शिक्षण देनेकेलिए प्रथम और उत्तमस्थल अपना घर होता हैं इसलिए माता-पिता स्वयं धर्मका आचरण और सदाचार का पालन करकें द्विज पुत्रको नित्यकर्म की और लक्ष्यांकित करना चाहिये। संध्या का मतलब-"सम्यक् ध्यायते परब्रह्म अनया इति संध्या"। जिसके द्वारा परब्रह्मका अच्छीतरहसे चिंतन(ध्यान)हो! वह संध्या हैं। संध्योपासनामें गायत्रीमंत्रजप का विशेष महत्व हैं। गायत्रीमंत्रसे सर्वोत्पत्तिके बीजरूप ऐसे भगवान् सूर्यनारायण देव की उपासना होती हैं। ब्रह्मांडमे प्राणापान के संधि समयपर अपने शरीरमें स्थित प्राणतत्त्वको शुद्ध करनेके लिए समष्टिके प्राणस्वरूप सूर्यमें स्थित अंतर्यामीकी उपासनारूप जो वैदिककर्म द्विजों से किया जाता हैं उसे संध्या कहतें हैं। पिंड और ब्रह्मांडमें जब प्राणापानका वहन शिथिल हो जाय तब दौनोंकी संधिरूप सुषुम्ना का वहन हों तब द्विजोंको संध्या करनी चाहिये। महर्षियोंने त्रिकाल संध्या का आग्रह किया हैं,"संध्योपासनं त्रिकालं कर्तव्यम्।। (अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूर्य नक्षत्र वर्जितः। सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्त्त्वदर्शिभिः।।)"अर्थात् दिन और रात्रीका संधिकाल अनुक्रमसे सूर्य और नक्षत्र(सितारें)रहित समय को तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कही हैं। १ प्रातः संध्याके देवता गायत्री हैं,वह रक्तवर्णवाली,रक्तवस्त्रा बालास्वरूपा,
ब्रह्मलोकके ब्रह्माकी शक्ति और हंसारूढा हैं, हाथमें अक्षमाला और कमण्डलु धारण कियें हैं।२ मध्याह्न संध्या के देवता सावित्री हैं, वह शुक्लवर्णवाली,शुक्लवस्त्रा त्रिलोचना युवतीस्वरूपा,रुद्रलोकके रुद्रकी शक्ति वृषारुढा हैं, हाथमें त्रीशूल तथा डमरु धारण किये हैं। सायंसंध्याके देवता सरस्वती हैं,वह कृष्णवर्णा पीतवस्त्रा वृद्धास्वरूपा, विष्णुलोकके विष्णुकी शक्ति गरुडवाहना चतुरुभुजा में शंख चक्र गदा पद्म धारण किये हैं।
संध्योपासनाका कर्म मात्र ईश्वरप्रित्यर्थ होने पर भी निष्काम भावसे करना अवश्यक हैं। फिर भी यह कर्मसे पापनिवृत्ति होकर पुण्यकी वृद्धि होती हैं। यज्ञवल्क्यस्मृतिमें कहा हैं -कि" निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसन्ध्याकरणात्तत्सर्वं हि प्रणश्यति।। याज्ञ०स्मृ०प्रा०३/३०७।। अर्थात् रात्रि या दिनमें जोभी कर्म अज्ञानसे हुआ हो वह सब त्रिकालसंध्या करनेसे नाश होता हैं। मरीचिका कथन हैं-" सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता। जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चा$भिजायते।।देवीभा०११/१६/६।। जिसने सन्ध्या जानीं नहीं हैं और संध्याकी उपासना न की हो वह जीवनभर शूद्र समान हैं,तथा मृत्युके बाद कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता हैं। दक्ष कहतें हैं-"सन्ध्याहिनो$शुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत्।।" अर्थात संध्या न करनेवाला द्विज! नित्य अपवित्र होता है,कोई भी कर्म नहीं कर सकता,जो जो सत्कर्म करता हैं उनका फल इन्हें नहीं मिलता हैं। श्रीमद्भगवद् गीता भी कहती हैं-"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६/२७।।" अर्थात् जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर इच्छानुसार करतें हैं!वह सिद्धि,सुख या परमगतिको प्राप्त नहीं होता।
यह दुर्लभ मनुष्यदेह क्षणभंगुर हैं वह अनेकजन्म के बाद पुण्यके प्रभावसे प्राप्त होता हैं,इसलिए अपना कर्म क्या हैं यह विचारणीय हैं। यहां मनुष्यजन्ममें ही अपना मुख्य कर्म ईश्वरोपासना हैं। इस असार संसारमें जो जो उपभोग्य पदार्थ दृश्यमान हैं वह सब समयांतरको नाशवंत हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं हैं। जो भी द्विज नियमित संध्यावंदन,वेदाध्ययन आदि ईश्वरोपासना नहीं करता वह प्राप्त अधिकारका दुरुपयोग करता हैं। "देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः। यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः।।भागवत१०/६३/४१।। जो मनुष्य ईश्वरदत्त यह मनुष्यजन्म प्राप्तकर ईश्वरोपासना नहीं करता उनको आत्मवञ्चक( अपनी जातसे खिलवाड़कर छेतरपिंडी़ करनेवाले)जानने चाहिये। और ऐसा भगवत्कृपासे प्राप्त मोक्षद्वाररूप मनुष्यजन्म अपने ही दोषसे निरर्थक नाश होता हैं। "उद्यन्तमन्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन्। ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते।। तै०आ०प्र०२/२।। उदय और अस्त होतें हुए सूर्यका ध्यान करतें करतें विद्वान् सभी प्रकारकें कल्याणको प्राप्त करता हैं। "संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा। तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः।।"अर्थात् गरुडवालेके पास जैसे सर्प नहीं आतें,वैसे स्नानशील तथा संध्यालोप न करनेवालें को दोष नहीं लगता। वेदकी आज्ञा हैं कि नित्य प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये तो वेदनारायणकी आज्ञाका पालन करना यह अपना मुख्य धर्म हैं,ईश्वरकी आज्ञाके पालनसे ही मनुष्योंका कल्याण होता हैं। भागवतमें पृथुराजा को भगवान् कहतें हैं-"मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति शोभनम्।।४/२०/३३।। अर्थात् भगवान् कहतें हैं कि मेरे आदेशका पालन करनेवाला मनुष्य सर्वत्र शुभत्वको प्राप्त करता हैं।"सन्ध्या स्नानं त्यजन्विप्रः सप्ताहाच्छुद्रतां व्रजेत्। तस्मात्संन्ध्यां च स्नानं च सूतके$पि न संत्यजेत्।।याज्ञवल्क्य।। याज्ञवल्क्य का कहना हैं कि सातदिन संध्या और स्नान न करनेवाला द्विज शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं,इसलिए सूतक(जनन,मरण),में स्नान संध्याका त्याग नहीं करना चाहिये।श्री पुलस्त्य और यमस्मृतिमें भी सूतकमें संध्या करनेका आग्रह बताया हैं।"सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायाममन्त्रकम्।तथा मार्जनमंत्रास्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्।। गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत्। आचमनं न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि।।प्रयोग पारिजात।। जनन तथा मृत सूतकमें संध्याके विधानमें प्राणायाम मंत्ररहित,मार्जन के मंत्रो मनमें पढकर मार्जन,गायत्रीमंत्र स्पष्ट उच्चारण करतें हुए सूर्यनारायणको अर्घ्यदान,अंबुप्राशन करैं या न करैं, उपस्थान नहीं होता।
ब्रह्मलोकके ब्रह्माकी शक्ति और हंसारूढा हैं, हाथमें अक्षमाला और कमण्डलु धारण कियें हैं।२ मध्याह्न संध्या के देवता सावित्री हैं, वह शुक्लवर्णवाली,शुक्लवस्त्रा त्रिलोचना युवतीस्वरूपा,रुद्रलोकके रुद्रकी शक्ति वृषारुढा हैं, हाथमें त्रीशूल तथा डमरु धारण किये हैं। सायंसंध्याके देवता सरस्वती हैं,वह कृष्णवर्णा पीतवस्त्रा वृद्धास्वरूपा, विष्णुलोकके विष्णुकी शक्ति गरुडवाहना चतुरुभुजा में शंख चक्र गदा पद्म धारण किये हैं।
संध्योपासनाका कर्म मात्र ईश्वरप्रित्यर्थ होने पर भी निष्काम भावसे करना अवश्यक हैं। फिर भी यह कर्मसे पापनिवृत्ति होकर पुण्यकी वृद्धि होती हैं। यज्ञवल्क्यस्मृतिमें कहा हैं -कि" निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसन्ध्याकरणात्तत्सर्वं हि प्रणश्यति।। याज्ञ०स्मृ०प्रा०३/३०७।। अर्थात् रात्रि या दिनमें जोभी कर्म अज्ञानसे हुआ हो वह सब त्रिकालसंध्या करनेसे नाश होता हैं। मरीचिका कथन हैं-" सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता। जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चा$भिजायते।।देवीभा०११/१६/६।। जिसने सन्ध्या जानीं नहीं हैं और संध्याकी उपासना न की हो वह जीवनभर शूद्र समान हैं,तथा मृत्युके बाद कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता हैं। दक्ष कहतें हैं-"सन्ध्याहिनो$शुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत्।।" अर्थात संध्या न करनेवाला द्विज! नित्य अपवित्र होता है,कोई भी कर्म नहीं कर सकता,जो जो सत्कर्म करता हैं उनका फल इन्हें नहीं मिलता हैं। श्रीमद्भगवद् गीता भी कहती हैं-"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६/२७।।" अर्थात् जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर इच्छानुसार करतें हैं!वह सिद्धि,सुख या परमगतिको प्राप्त नहीं होता।
यह दुर्लभ मनुष्यदेह क्षणभंगुर हैं वह अनेकजन्म के बाद पुण्यके प्रभावसे प्राप्त होता हैं,इसलिए अपना कर्म क्या हैं यह विचारणीय हैं। यहां मनुष्यजन्ममें ही अपना मुख्य कर्म ईश्वरोपासना हैं। इस असार संसारमें जो जो उपभोग्य पदार्थ दृश्यमान हैं वह सब समयांतरको नाशवंत हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं हैं। जो भी द्विज नियमित संध्यावंदन,वेदाध्ययन आदि ईश्वरोपासना नहीं करता वह प्राप्त अधिकारका दुरुपयोग करता हैं। "देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः। यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः।।भागवत१०/६३/४१।। जो मनुष्य ईश्वरदत्त यह मनुष्यजन्म प्राप्तकर ईश्वरोपासना नहीं करता उनको आत्मवञ्चक( अपनी जातसे खिलवाड़कर छेतरपिंडी़ करनेवाले)जानने चाहिये। और ऐसा भगवत्कृपासे प्राप्त मोक्षद्वाररूप मनुष्यजन्म अपने ही दोषसे निरर्थक नाश होता हैं। "उद्यन्तमन्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन्। ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते।। तै०आ०प्र०२/२।। उदय और अस्त होतें हुए सूर्यका ध्यान करतें करतें विद्वान् सभी प्रकारकें कल्याणको प्राप्त करता हैं। "संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा। तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः।।"अर्थात् गरुडवालेके पास जैसे सर्प नहीं आतें,वैसे स्नानशील तथा संध्यालोप न करनेवालें को दोष नहीं लगता। वेदकी आज्ञा हैं कि नित्य प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये तो वेदनारायणकी आज्ञाका पालन करना यह अपना मुख्य धर्म हैं,ईश्वरकी आज्ञाके पालनसे ही मनुष्योंका कल्याण होता हैं। भागवतमें पृथुराजा को भगवान् कहतें हैं-"मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति शोभनम्।।४/२०/३३।। अर्थात् भगवान् कहतें हैं कि मेरे आदेशका पालन करनेवाला मनुष्य सर्वत्र शुभत्वको प्राप्त करता हैं।"सन्ध्या स्नानं त्यजन्विप्रः सप्ताहाच्छुद्रतां व्रजेत्। तस्मात्संन्ध्यां च स्नानं च सूतके$पि न संत्यजेत्।।याज्ञवल्क्य।। याज्ञवल्क्य का कहना हैं कि सातदिन संध्या और स्नान न करनेवाला द्विज शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं,इसलिए सूतक(जनन,मरण),में स्नान संध्याका त्याग नहीं करना चाहिये।श्री पुलस्त्य और यमस्मृतिमें भी सूतकमें संध्या करनेका आग्रह बताया हैं।"सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायाममन्त्रकम्।तथा मार्जनमंत्रास्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्।। गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत्। आचमनं न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि।।प्रयोग पारिजात।। जनन तथा मृत सूतकमें संध्याके विधानमें प्राणायाम मंत्ररहित,मार्जन के मंत्रो मनमें पढकर मार्जन,गायत्रीमंत्र स्पष्ट उच्चारण करतें हुए सूर्यनारायणको अर्घ्यदान,अंबुप्राशन करैं या न करैं, उपस्थान नहीं होता।
ॐस्वस्ति।।पु ह शास्त्री.उमरेठ।।शेष पुनः
षोडश संस्काराः खंड१२८~ यज्ञोपवीतम् (सन्ध्योपासना)
यावन्तो$स्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः। तेषां वै पावनार्थाय सन्ध्या सृष्टा स्वयम्भुवा।।अत्रिः।।" इस पृथवीपर जितने भी स्वकर्म रहित उपनयनसे संस्कारित द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य)हैं,उनको पवित्र करनेके लिए ब्रह्माजीने संध्याकी उत्पत्ति की हैं।"सन्ध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्।।अत्रिः।। नियम पूर्वक जो द्विज प्रतिदिन सन्ध्या करतें हैं,वे पापरहित होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होतें हैं।
सन्ध्योपासना समय-" उत्तमा तारकोपेता मध्यमालुप्ततारका। अधमा सूर्य सहिता प्रातःसंध्या त्रिधा मता।।दे०भा०११/१६/४।।" सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुएँ हो,उस समयकी संध्या उत्तम हैं,ताराओंके छिपनेसे सूर्योदय तक मध्यम और सूर्योदय के बाद की प्रातःसंध्या अधम मानी गयी हैं। सायं सन्ध्या-"उत्तमा सूर्य सहिता मध्यमा लुप्तसूर्यका। अधमा तारकोपेता सायं संध्या त्रिधा स्मृता।।विश्वामित्रस्मृ१/२४।। सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम,सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम तथा तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी हैं। "प्रातःसंध्यां सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम्। ससूर्यां पश्चिमा संध्यां तिस्रः संध्या उपासते।।दे०भा०११/१६/२-३।।" प्रातःकालमें तारोंके रहते हुए,मध्याह्नकालमें जब सूर्य आकाशके मध्यमें हो,सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी क्रमशः प्रातःसंध्या,मध्याह्नसंध्या और सायंसंध्या करनी चाहीये।
#संध्यावंदनमें _जपकाला$वधि-#जपन्नासीत_सावित्रीं_प्रत्यगातारकोदयात्।।
#संध्या_प्राक्_प्रातरेवं_हि_तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।। याज्ञ०स्मृ०२/२४-२५।।" सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो,तबतक जप करता रहे।"गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत्।अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात्।।याज्ञ०स्मृ०आचा०२४-२५।।"गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमें ॐका उच्चारण करके जप करैं,और (अन्तमें ॐका उच्चारण न करैं,क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नहीं होती हैं।)"
#गायत्रीपरिवार,स्वाध्यायपरिवार(पांडुरंगआठवलेके अनुयाययी) तथा आर्यसमाज़ वालों भी संध्याविधानकी स्वतः रचना की हैं परंतु इन तीनों(गायत्रीपरिवार आदि)की स्वतःरचना किसी भी गृह्यसूत्रोंके विधान अनुसार न होनेसे ऐसा कपोलकल्पित संध्यावंदन विधान नहीं करना चाहिये... क्योकिं श्रृतिकी आज्ञा हैं-" "स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है।
इसलिये स्वशाखाके अनुसार ही संध्यावंदन करना श्रेष्ठ और श्रेयस्कर रहैंगा।
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1736207349987812&id=1632217650386783
यावन्तो$स्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः। तेषां वै पावनार्थाय सन्ध्या सृष्टा स्वयम्भुवा।।अत्रिः।।" इस पृथवीपर जितने भी स्वकर्म रहित उपनयनसे संस्कारित द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य)हैं,उनको पवित्र करनेके लिए ब्रह्माजीने संध्याकी उत्पत्ति की हैं।"सन्ध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्।।अत्रिः।। नियम पूर्वक जो द्विज प्रतिदिन सन्ध्या करतें हैं,वे पापरहित होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होतें हैं।
सन्ध्योपासना समय-" उत्तमा तारकोपेता मध्यमालुप्ततारका। अधमा सूर्य सहिता प्रातःसंध्या त्रिधा मता।।दे०भा०११/१६/४।।" सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुएँ हो,उस समयकी संध्या उत्तम हैं,ताराओंके छिपनेसे सूर्योदय तक मध्यम और सूर्योदय के बाद की प्रातःसंध्या अधम मानी गयी हैं। सायं सन्ध्या-"उत्तमा सूर्य सहिता मध्यमा लुप्तसूर्यका। अधमा तारकोपेता सायं संध्या त्रिधा स्मृता।।विश्वामित्रस्मृ१/२४।। सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम,सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम तथा तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी हैं। "प्रातःसंध्यां सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम्। ससूर्यां पश्चिमा संध्यां तिस्रः संध्या उपासते।।दे०भा०११/१६/२-३।।" प्रातःकालमें तारोंके रहते हुए,मध्याह्नकालमें जब सूर्य आकाशके मध्यमें हो,सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी क्रमशः प्रातःसंध्या,मध्याह्नसंध्या और सायंसंध्या करनी चाहीये।
#संध्यावंदनमें _जपकाला$वधि-#जपन्नासीत_सावित्रीं_प्रत्यगातारकोदयात्।।
#संध्या_प्राक्_प्रातरेवं_हि_तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।। याज्ञ०स्मृ०२/२४-२५।।" सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो,तबतक जप करता रहे।"गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत्।अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात्।।याज्ञ०स्मृ०आचा०२४-२५।।"गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमें ॐका उच्चारण करके जप करैं,और (अन्तमें ॐका उच्चारण न करैं,क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नहीं होती हैं।)"
#गायत्रीपरिवार,स्वाध्यायपरिवार(पांडुरंगआठवलेके अनुयाययी) तथा आर्यसमाज़ वालों भी संध्याविधानकी स्वतः रचना की हैं परंतु इन तीनों(गायत्रीपरिवार आदि)की स्वतःरचना किसी भी गृह्यसूत्रोंके विधान अनुसार न होनेसे ऐसा कपोलकल्पित संध्यावंदन विधान नहीं करना चाहिये... क्योकिं श्रृतिकी आज्ञा हैं-" "स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है।
इसलिये स्वशाखाके अनुसार ही संध्यावंदन करना श्रेष्ठ और श्रेयस्कर रहैंगा।
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1736207349987812&id=1632217650386783
ॐस्वस्ति।पु ह शास्त्री.उमरेठ।शेष पुनः
षोडश संस्काराः यज्ञोपवीतम् खंड१२८-(संध्योपासना ) यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त होनेके पश्चात् सभी द्विजों(ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों)को अपनी अपनी वेदशाखानुसा नित्य और नियमितरूपसे त्रिकाल संध्याकी उपासना करनी चाहिये। केवल कर्मकांड करनेवाले ब्राह्मणोंको ही संध्या करनी चाहिये ऐसा नहीं हैं। तीनप्रकारकें अनुष्ठान करनेका आदेश शास्त्रोंमें हैं। १ नित्य २ नैमित्तिक और ३ काम्य। "संध्या स्नानं जपो होमः स्वाध्यायो देवतार्चनम्। वैश्वदेवातिथेयश्च षट् कर्माणि दिने दिने।।पराशरस्मृतिः१३९।। अर्थात् १स्नान,२ संध्या,गायत्रीमंत्रजप,३ होम,४स्वशाखाके वेदका अध्ययन,५देवतार्चन,६ वैश्वदेव,अतिथि सत्कार! यह छह कर्म प्रत्येक द्विजोंको प्रतिदिन करना चाहिये। श्रृति कहती हैं कि"अहरहः संध्यामुपासीत।।"अर्थात् द्विजोंको प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये। "अकृत्वा वैदिकं नित्यं प्रत्यवायी भवेन्नरः।।"अर्थात् वैदिक कर्म नित्य न करनेसे द्विज प्रत्यवायी(पतित)बनता हैं।"विहितानाचरणजन्य पातकं प्रत्यवायः।।" अर्थात् विहित नित्यकर्म न करनेसे होनेवाले पाप को प्रत्यवाय कहा जाता हैं। द्विजों को यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त कर आचार्यसे संध्याका महत्व और विधिसे संध्यावंदन विधि जानकर प्रतिदिन संध्या अवश्य करनी चाहिये। प्रत्येक द्विजधर्मी माता-पिता की फरज़ हैं कि नीति और धर्मका शिक्षण देनेकेलिए प्रथम और उत्तमस्थल अपना घर होता हैं इसलिए माता-पिता स्वयं धर्मका आचरण और सदाचार का पालन करकें द्विज पुत्रको नित्यकर्म की और लक्ष्यांकित करना चाहिये। संध्या का मतलब-"सम्यक् ध्यायते परब्रह्म अनया इति संध्या"। जिसके द्वारा परब्रह्मका अच्छीतरहसे चिंतन(ध्यान)हो! वह संध्या हैं। संध्योपासनामें गायत्रीमंत्रजप का विशेष महत्व हैं। गायत्रीमंत्रसे सर्वोत्पत्तिके बीजरूप ऐसे भगवान् सूर्यनारायण देव की उपासना होती हैं। ब्रह्मांडमे प्राणापान के संधि समयपर अपने शरीरमें स्थित प्राणतत्त्वको शुद्ध करनेके लिए समष्टिके प्राणस्वरूप सूर्यमें स्थित अंतर्यामीकी उपासनारूप जो वैदिककर्म द्विजों से किया जाता हैं उसे संध्या कहतें हैं। पिंड और ब्रह्मांडमें जब प्राणापानका वहन शिथिल हो जाय तब दौनोंकी संधिरूप सुषुम्ना का वहन हों तब द्विजोंको संध्या करनी चाहिये। महर्षियोंने त्रिकाल संध्या का आग्रह किया हैं,"संध्योपासनं त्रिकालं कर्तव्यम्।। (अहोरात्रस्य यः सन्धिः सूर्य नक्षत्र वर्जितः। सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्त्त्वदर्शिभिः।।)"अर्थात् दिन और रात्रीका संधिकाल अनुक्रमसे सूर्य और नक्षत्र(सितारें)रहित समय को तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्या कही हैं। १ प्रातः संध्याके देवता गायत्री हैं,वह रक्तवर्णवाली,रक्तवस्त्रा बालास्वरूपा,ब्रह्मलोकके ब्रह्माकी शक्ति और हंसारूढा हैं, हाथमें अक्षमाला और कमण्डलु धारण कियें हैं।२ मध्याह्न संध्या के देवता सावित्री हैं, वह शुक्लवर्णवाली,शुक्लवस्त्रा त्रिलोचना युवतीस्वरूपा,रुद्रलोकके रुद्रकी शक्ति वृषारुढा हैं, हाथमें त्रीशूल तथा डमरु धारण किये हैं। सायंसंध्याके देवता सरस्वती हैं,वह कृष्णवर्णा पीतवस्त्रा वृद्धास्वरूपा, विष्णुलोकके विष्णुकी शक्ति गरुडवाहना चतुरुभुजा में शंख चक्र गदा पद्म धारण किये हैं।
संध्योपासनाका कर्म मात्र ईश्वरप्रित्यर्थ होने पर भी निष्काम भावसे करना अवश्यक हैं। फिर भी यह कर्मसे पापनिवृत्ति होकर पुण्यकी वृद्धि होती हैं। यज्ञवल्क्यस्मृतिमें कहा हैं -कि" निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसन्ध्याकरणात्तत्सर्वं हि प्रणश्यति।। याज्ञ०स्मृ०प्रा०३/३०७।। अर्थात् रात्रि या दिनमें जोभी कर्म अज्ञानसे हुआ हो वह सब त्रिकालसंध्या करनेसे नाश होता हैं। मरीचिका कथन हैं-" सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता। जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चा$भिजायते।।देवीभा०११/१६/६।। जिसने सन्ध्या जानीं नहीं हैं और संध्याकी उपासना न की हो वह जीवनभर शूद्र समान हैं,तथा मृत्युके बाद कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता हैं। दक्ष कहतें हैं-"सन्ध्याहिनो$शुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत्।।" अर्थात संध्या न करनेवाला द्विज! नित्य अपवित्र होता है,कोई भी कर्म नहीं कर सकता,जो जो सत्कर्म करता हैं उनका फल इन्हें नहीं मिलता हैं। श्रीमद्भगवद् गीता भी कहती हैं-"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६/२७।।" अर्थात् जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर इच्छानुसार करतें हैं!वह सिद्धि,सुख या परमगतिको प्राप्त नहीं होता।
यह दुर्लभ मनुष्यदेह क्षणभंगुर हैं वह अनेकजन्म के बाद पुण्यके प्रभावसे प्राप्त होता हैं,इसलिए अपना कर्म क्या हैं यह विचारणीय हैं। यहां मनुष्यजन्ममें ही अपना मुख्य कर्म ईश्वरोपासना हैं। इस असार संसारमें जो जो उपभोग्य पदार्थ दृश्यमान हैं वह सब समयांतरको नाशवंत हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं हैं। जो भी द्विज नियमित संध्यावंदन,वेदाध्ययन आदि ईश्वरोपासना नहीं करता वह प्राप्त अधिकारका दुरुपयोग करता हैं। "देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः। यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः।।भागवत१०/६३/४१।। जो मनुष्य ईश्वरदत्त यह मनुष्यजन्म प्राप्तकर ईश्वरोपासना नहीं करता उनको आत्मवञ्चक( अपनी जातसे खिलवाड़कर छेतरपिंडी़ करनेवाले)जानने चाहिये। और ऐसा भगवत्कृपासे प्राप्त मोक्षद्वाररूप मनुष्यजन्म अपने ही दोषसे निरर्थक नाश होता हैं। "उद्यन्तमन्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन्। ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते।।तै०आ०प्र०२/२।।उदय और अस्त होतें हुए सूर्यका ध्यान करतें करतें विद्वान् सभी प्रकारकें कल्याणको प्राप्त करता हैं। "संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा। तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः।।"अर्थात् गरुडवालेके पास जैसे सर्प नहीं आतें,वैसे स्नानशील तथा संध्यालोप न करनेवालें को दोष नहीं लगता। वेदकी आज्ञा हैं कि नित्य प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये तो वेदनारायणकी आज्ञाका पालन करना यह अपना मुख्य धर्म हैं,ईश्वरकी आज्ञाके पालनसे ही मनुष्योंका कल्याण होता हैं। भागवतमें पृथुराजा को भगवान् कहतें हैं-"मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति शोभनम्।।४/२०/३३।। अर्थात् भगवान् कहतें हैं कि मेरे आदेशका पालन करनेवाला मनुष्य सर्वत्र शुभत्वको प्राप्त करता हैं।"सन्ध्या स्नानं त्यजन्विप्रः सप्ताहाच्छुद्रतां व्रजेत्। तस्मात्संन्ध्यां च स्नानं च सूतके$पि न संत्यजेत्।।याज्ञवल्क्य।। याज्ञवल्क्य का कहना हैं कि सातदिन संध्या और स्नान न करनेवाला द्विज शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं,इसलिए सूतक(जनन,मरण),में स्नान संध्याका त्याग नहीं करना चाहिये।श्री पुलस्त्य और यमस्मृतिमें भी सूतकमें संध्या करनेका आग्रह बताया हैं।"सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायाममन्त्रकम्।तथा मार्जनमंत्रास्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्।। गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत्। आचमनं न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि।।प्रयोग पारिजात।। जनन तथा मृत सूतकमें संध्याके विधानमें प्राणायाम मंत्ररहित,मार्जन के मंत्रो मनमें पढकर मार्जन,गायत्रीमंत्र स्पष्ट उच्चारण करतें हुए सूर्यनारायणको अर्घ्यदान,अंबुप्राशन करैं या न करैं, उपस्थान नहीं होता।"विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या
वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।"अर्थात् ब्राह्मणरूपी वृक्षकी जड़ तो सन्ध्या हैं,और ब्राह्मणरूपी वृक्षकी डालियाँ वेदनारायण हैं,धर्म कर्म आदि उस वृक्षके पत्ते हैं,इसलिए जड़(सन्ध्या)की बड़े यत्नोंसे रक्षा करनी चाहिये क्योंकि जड़(सन्ध्या)के नष्ट हो जानेसे(सन्ध्या वंदन न करने से) न तो पत्ते रहतें हैं(धर्म,कर्म)ना ही डालियाँ(न तो वैदिक कार्यों)।
षोडश संस्काराः खंड१२८~ यज्ञोपवीतम् (सन्ध्योपासना)
यावन्तो$स्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः। तेषां वै पावनार्थाय सन्ध्या सृष्टा स्वयम्भुवा।।अत्रिः।।" इस पृथवीपर जितने भी स्वकर्म रहित उपनयनसे संस्कारित द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य)हैं,उनको पवित्र करनेके लिए ब्रह्माजीने संध्याकी उत्पत्ति की हैं।"सन्ध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्।।अत्रिः।। नियम पूर्वक जो द्विज प्रतिदिन सन्ध्या करतें हैं,वे पापरहित होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होतें हैं।
सन्ध्योपासना समय-" उत्तमा तारकोपेता मध्यमालुप्ततारका। अधमा सूर्य सहिता प्रातःसंध्या त्रिधा मता।।दे०भा०११/१६/४।।" सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुएँ हो,उस समयकी संध्या उत्तम हैं,ताराओंके छिपनेसे सूर्योदय तक मध्यम और सूर्योदय के बाद की प्रातःसंध्या अधम मानी गयी हैं। सायं सन्ध्या-"उत्तमा सूर्य सहिता मध्यमा लुप्तसूर्यका। अधमा तारकोपेता सायं संध्या त्रिधा स्मृता।।विश्वामित्रस्मृ१/२४।। सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम,सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम तथा तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी हैं। "प्रातःसंध्यां सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम्। ससूर्यां पश्चिमा संध्यां तिस्रः संध्या उपासते।।दे०भा०११/१६/२-३।।" प्रातःकालमें तारोंके रहते हुए,मध्याह्नकालमें जब सूर्य आकाशके मध्यमें हो,सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी क्रमशः प्रातःसंध्या,मध्याह्नसंध्या और सायंसंध्या करनी चाहीये।
#संध्यावंदनमें _जपकाला$वधि-#जपन्नासीत_सावित्रीं_प्रत्यगातारकोदयात्।।
#संध्या_प्राक्_प्रातरेवं_हि_तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।। याज्ञ०स्मृ०२/२४-२५।।" सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो,तबतक जप करता रहे।"गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत्।अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात्।।याज्ञ०स्मृ०आचा०२४-२५।।"गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमें ॐका उच्चारण करके जप करैं,और (अन्तमें ॐका उच्चारण न करैं,क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नहीं होती हैं।)"
#गायत्रीपरिवार,स्वाध्यायपरिवार(पांडुरंगआठवलेके अनुयाययी) तथा आर्यसमाज़ वालों ने भी संध्याविधानकी स्वतः रचना की हैं परंतु इन तीनों(गायत्रीपरिवार आदि)की स्वतःरचना किसी भी गृह्यसूत्रोंके विधान अनुसार न होनेसे ऐसा कपोलकल्पित संध्यावंदन विधान नहीं करना चाहिये... क्योकिं श्रृतिकी आज्ञा हैं-" "स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है।
इसलिये स्वशाखाके अनुसार ही संध्यावंदन करना श्रेष्ठ और श्रेयस्कर रहैंगा।
कुश,कम्बल,मृगचर्म,व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिए विहित हैं, पुत्रवान् गृहस्थी को मृगचर्मके आसन का उपयोग नहीं करना चाहिये.
द्विजो(ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य)को स्नान करकें"(श्राद्धे,यज्ञे जपे होमे वैश्वदेवे सुरार्चने। धृतत्रिपुण्ड्रः पूतात्मा मृत्युं जयति मानवः।।कात्यायनः)"संध्या,जप,होम,वैश्वदेव,देवपूजन,यज्ञ,श्राद्ध,दान तथा स्वाध्यायके प्रारंभमें भस्म त्रिपुण्ड्र करने चाहिये। भस्मधारण करनेवाला पवित्रात्मा मृत्युको भी जीत लेता हैं।"(आग्नेय्यमुच्यते भस्म दग्धगोमय सम्भवम्।।काशीखण्डे।।) विधिसे अग्निमें गोबरकंडोसे बनी भस्म धारण योग्य हैं।"(औपासनसमुत्पन्नं समिदग्निसमुद्भवम्। समिदग्निसमुत्पन्नं धार्यं वै ब्रह्मचारिणा।।संग्रहे।।)" औपासनाग्नि(उपनयननका)में नित्य समिधादान(सायं प्रातः अग्निपरिचरण)से उत्पन्न भस्म ब्रह्मचारीको धारण करने योग्य हैं।"(मध्याह्नात् प्राक् जलाक्तं तु परतो जलवर्जितम्। तर्जन्यनामिकाङ्गुष्ठैस्त्रिपुण्ड्रं तु समाचरेत्।।दे०भा०।।)"दोपहरसे पहले जल मिलाकर भस्म लगाना चाहिये,दोपहरके बाद जल न मिलाये।"(मध्याह्ने गन्धमिश्रितम्।सायाह्ने निर्जलं भस्म एवं भस्म विलेपनम्।।दे०भा।।)"मध्याह्नमें चन्दन मिलाकरऔर शामको सूखा ही भस्म लगाना चाहिये।"(ऊर्ध्वपुण्ड्रं मृदा कुर्याद् भस्मना तु त्रिपुण्ड्रकम्।उभयं चन्दनेनैव अभ्यङ्गोत्सवरात्रिषु।।)"-मृत्तिका(मिट्टी)या गोपीचन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र,भस्मसे त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्डचन्दनसे दोनों प्रकारका(ऊर्ध्वपुण्ड्र तथा त्रिपुण्ड्र)तिलक कर सकते हैं।किंतु उत्सवोंकी रात्रिमें सर्वांगमें चन्दन लगाना चाहिये।"(ललाटे तिलकं कृत्वा संध्याकर्म समाचरेत्। अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम्।।प्रयोगपारि०।।)"-ललाटमें तिलक करकें ही संध्याकर्म करैं,तिलकके बिना सत्कर्म सफल नहीं हो पाते।"(मध्यमानामिकाङ्गुष्ठैरनुलोमविलोमतः।अतिस्वल्पमनायुष्यमतिदीर्घं तपःक्षयम्।।नेत्रयुग्म प्रमाणेन भाले दीप्तं त्रिपुण्ड्रकम्।।दे०भा०।।निरन्तरालं यः कुर्यात् त्रिपुण्ड्रं स नराधमः।।पद्मपु०।।)"अँगूठेसे ऊर्ध्वपुण्ड्र करनेके बाद मध्यमा और अनामिकासे बायीं ओरसे प्रारम्भकर दाहिनी ओर भस्म लगाये।इसके बाद अँगूठेसे दाहिनी ओरसे प्रारम्भकर बायीं ओर तीसरी रेखा लगायें।इस प्रकार तीन रेखाएँ खिंच जाती हैं।तीनों अंगुलियोंके मध्यकास्थान रिक्त रखें,बायें नेत्रसे दाहिने नेत्रतक ही भस्मकी रेखाएँ हो। इस प्रकार रेखाओंकी लम्बाई छः अंगुल होती हैं,क्षत्रियको चार अंगुल और वैश्यको दो अंगुलकी त्रिपुण्ड्र रेखाएँ करनी चाहिये।"(स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि।करौ सदर्भौ कुर्वीत तथा संध्याभिवादने।।स्मृत्यन्तरे।।)"- स्नान,संध्योपासन,पूजन,जप, होम, वेदाध्ययन और पितृकर्ममें पवित्री(कुशासे बनी हुई अंगुठी)धारण करना आवश्यक हैं।"(हेमात्मक पवित्रस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।हेमाद्रौ।।शान्तिकमलाकरे-"("यथेष्टेन सुवर्णेन कारयेदङ्गुलीयकम्।।)"- कुशकी पवित्रीसे अधिक महत्ता सोनेकी अँगूठी की हैं,इनकी मात्रा पहननेवालेकी इच्छापर निर्भर हैं।"(सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्। नोच्छिष्टं तत् पवित्रं तु भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत्।।)"-पवित्री पहनकर आचमन करनेमात्रसे कुश जूठा नहीं होता। अतः आचमनके पश्चात् इसका त्याग भी नहीं होता। पवित्री पहनकर यदि भोजन कर लिया जाय, तो वह जूठी हो जाती हैं,और उसका त्याग अपेक्षित हैं।"(समूलाग्रौ विगर्भौ तु कुशौ द्वौ दक्षिणे करे।सव्ये चैव तथा त्रीन् वै बिभृयात् सर्वकर्मसु।।छान्दोग्यपरि०।।मन्त्रं विना धृतं यत् तत् पवित्रमफलं भवेत्।ब्रह्मपु०।।)"- दो कुशोंसे बनाई हुई पवित्री दाहिने हाथकी अनामिकाके मूलभागमें तथा तीन कुशोंसे बनायी हुई पवित्री बायीं अनामिकाके मूलमें यथोचित मन्त्र पढकर धारण करैं।इन दोनों पवित्रियोंको प्रतिदिन बदलना आवश्यक नहीं हैं।स्नान,संध्योपासनादिके पश्चात् यदि इन्हें पवित्र स्थानमें रख दिया जाय तो दूसरे कामोंमें बार-बार धारण कर सकतें हैं।"(यद्युपच्छिष्टमपहतं पवित्रं विहितं भवेत्।तदैव ग्रन्थिमुत्सृज्य त्यजेदितरधा नहि।।भारद्वाज।।)"जूठी हो या श्राद्ध किया जाय,तब इन्हे त्याग देना चाहिये। उस समय इनकी गाँठोको खोलना आवश्यक हो जाता हैं।"(तस्मिन् क्षीणे क्षिपेत् तोये वह्नौ वा यज्ञसूत्रवत्।।आश्वालायन।।)"यज्ञोपवीतकी भाँति इन्हें भी जलमें या अग्निमें छोडना चाहिये।"(चितो दर्भा पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु।स्तरणासन पिंडेषु षट् दर्भान् परिवर्जयेत्।।दालभ्य।।)"-चितामें पड़े हुए,रास्तेमें पडे़ हुए, यज्ञस्थलमें पड़े हुए (उपयोग किया हुआ), बीछाये हुए, आसनके उपयोगमें आये हुए, पिंड़पर चढे़ हुए या पिंडके नीचेके (किसी कर्ममें उपयोग हुए)छह प्रकारकें कुश वर्ज्य हैं।
*आचमन रहस्य- सन्ध्यावंदनमें पहले आचमन करना होता हैं सामान्यतः- ॐ केशवाय नमः।।१।। क का तात्पर्य ब्रह्मा,ईश का रुद्र से हैं,रजोगुणी ब्रह्मा और तमोगुणी रुद्र के रजस् तथा तमस गुणको तिरस्कृत करनेवाले सत्त्वगुणी केशव को मनमें ध्यान करतें हुए नमस्कारकर इस ॐ केशवाय नमः। मंत्रसे प्रथम आचमन करनेसे सत्वगुण द्वारा स्वयं ज्ञानोत्पत्ति होती हैं,गीतामें कहा हैं कि-"(सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानम्।।१४/१७।।)"। इनके बाद चराचर शरीरको उत्पन्न करनेवाले नारायण हैं जो नियामक तथा अन्तर्यामी-परमात्मा हैं,इसलिए यह विश्वव्यापी अन्तर्यामीस्वरूप परमात्मा नारायणका हृदयमें स्मरणकर ॐनारायणाय नमः।।२।। इस दूसरे मंत्रद्वारा आचमन करतें हैं।ॐ माधवाय नमः।।३।। इस तीसरे मंत्रसे मायापति माधवको नमस्कार करतें हुए तीसरीबार आचमन करतें हैं। ऐसे तीनबार आचमन करनेसे अंतःकरणकी शुद्धि होती हैं,पश्चात् ॐगोविंदाय नमः।।इस चतुर्थ मंत्रसे आरंभ कर ॐ कृष्णाय नमः ऐसे २१ नामोंका स्मरण किया जाता हैं जिससे बाह्य और आंतरिक शुद्धि होती हैं।गीताजीमें कहा हैं कि-"(महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।१३/५।।)"-पाँच महाभूत(अग्नि,वायु,आकाश,जल तथा पृथ्वि),अहंकार, बुद्धि और अव्यक्त प्रकृति,दश इन्द्रियां तथा एक मन,और पाँच विषय(रस,रूप,गंध,शब्द,स्पर्श) ऐसे देह २४ तत्त्वोंवाला हैं,यह २४ तत्त्ववाले भोगके आवासरूपी वृक्षपर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षीओं वसतें हैं।जैसे मुंडकोपनिषत् में कहा हैं-"(द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।।३/१/१।।)"।वहाँ परमात्मा जीवात्माका मित्र हैं, इसलिए यहाँ केशव आदि २४ नामोंका स्मरणकर २४तत्त्ववालें देहका विस्मरण करकें देहमें रहा हुआ जीव अपना मित्र परमात्माका चिंतन करता हैं ऐसा भाव हैं।
प्राणायाम- प्राणायामकी बड़ी महिमा कही गयी हैं। इससे पाप-ताप तो जल ही जाते हैं,शारीरिक उन्नति भी अद्भुत ढंगसे होती हैं। हजारों वर्षकी लंबी आयु भी इसके निरंतर अभ्यास से मिल सकती हैं। सुन्दरता और स्वास्थ्यके लिये तो यह मानो वरदान ही हैं। यदि प्राणायामके ये लाभ बुद्धिगम्य हो जायँ तो इसके प्रति आकर्षण बढ़ जाय और तब इससे राष्ट्रका बडा़ लाभ हो।जब हम साँस लेते हैं,तब इसमें मिले हुए आक्सीजनसे फेफडोंमें पहुंचा हुआ अशुद्ध कालारक्त शुद्ध होकर लाल बन जाता हैं। इस शुद्ध रक्तका हृदय कंपनक्रिया द्वारा शरीरमें संचार कर देता हैं। यह रक्त शरीरके सब घटकोंको खुराक बाँटता-बाँटता स्वयं काला पड़ जाता हैं। तब हृदय इस उपकारी तत्त्वको फिरसे शुद्ध होने के लिये फेफड़ोंमें भेजता हैं। वहाँ साँसमें मिले प्राणवायु(आक्सीजन)के द्वारा यह फिर सशक्त हो जाता हैं और फिर सारे घटकोंको खुराक बाँटकर शरीरकी जीवनी-शक्तिको बनाये रखता हैं।यही कारण हैं कि साँसके बिना पाँच मिनट़ भी जीना कठिन हो जाता हैं।किंतु रक्तशोधन क्रियामें एक बाधा पड़ती रहती हैं। साधारण साँस फेफडो़की सूक्ष्म कणिकाओंतक पहुंच नहीं पाती। इसकी यह अनिवार्य आवश्यकता देख भगवान् ने प्रत्येक सत्कर्मके आरम्भमें इस(प्राणायाम)का संनिवेश कर दिया हैं।
#यथा_पर्वतधातूनां_दोषान्_हरति_पावकः।
#एवमन्तर्गतं_पापं_प्राणायामेन_दह्यते।।अत्रिस्मृ०२/३।।
शास्त्रका कथन हैं कि पर्वतसे निकले धातुओंका मल जैसे अग्निसे जल जाता हैं,वैसे प्राणायाम से आन्तरिक पाप जल जातें हैं।कभी कभीतो सोलह सोलह प्राणायामोंका विधान हैं।
#द्वौ_द्वौ_प्रातस्तु_मध्याह्ने_त्रिभिः_संध्यासुरार्चने।
#भोजनादौ_भोजनान्ते_प्राणायामस्तु_षोडश।।दे०पु०।।
दो प्रातःकाल शयने उठते ही,दो मध्याह्नकालमें, तीन संध्याके प्रारंभमें,तीन देवतार्चनमें, तीन भोजन करते पहले तथा तीन भोजनके बाद ऐसे कुल १६ प्राणायाम करऩेको कहा हैं।यह मध्याह्नतक के कार्योंमे ही जाने। फिर सायंकालकी संध्यामें तीन,सायंकालकी पंचोपचारपूजामें तीन,यदि दूसरेवक्त का भोजन लेतें हो प्रारंभमें तीन, भोजनके बाद तीन, ऐसे कुल कथन अनुसार १६+१२=कुल २८ प्राणायाम जरूरी बनतें हैं इससे ज्यादा हो सकें तो तो बात ही क्या?अतः लाभ ही लाभ हैं।"(स्नाने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने। शिखाग्रन्थिं विना कर्म न कुर्याद् वै कदाचन।।आह्निकसू०।।)"-स्नान,दान,जप,होम,संध्या और देवार्चन-कर्ममें बिना शिखा बाँधे कभी कर्म नहीं करना चाहिये।"(विभूतिर्यस्य नो भाले नाङ्गे रुद्राक्षधारणम्। न हि वाण्यां शिवोच्चारस्तं त्यजेदन्त्यजं यथा।।माध्यं०वा०आह्नि०।।)"-जिसके भालमें भस्मका त्रिपुण्ड्र न हो,अङ्गपर रुद्राक्ष न हो तथा वाणीमें शिव का उच्चार न हो इसके साथ शूद्रके समान त्यागे।
अम्बुप्राशनका महत्व-संध्याकर्ममें प्रत्येक विधान भावपूर्वक होने चाहिये | अम्बुप्राशनसे रात्रिमें तथा मध्याह्नके बाद किये हुएँ दुष्कर्म अभिमंत्रित जल के अचमनसे दूर होतें हैं | संध्यारूपी नित्य प्रायश्चित्तसे पाप से मुक्त हो जाकर फिरसे मैं पाप नहीं करुंगा ऐसे भाव सहित निश्चयतासे प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये | जैसे मनुस्मृतिमें कहा हैं-"#कृत्वा_पापं_हि_सन्तप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते ||
#नैव_कुर्यात्पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः||मनुः११/२३०||
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अघमर्षण- मनुष्य कामनावश होकर अनिच्छासे भी पापकर्म करने प्रवृत्त होता है,इसका कारण भगवान् कृष्णने अर्जुनको गीतामें कहा हैं कि-"#काम_एष_क्रोध_एष_रजोगुणसमुद्भवः||३/१७||
तद्नुसार काम और क्रोध रजोगुणसे उत्पन्न होतें हैं, वह काम महापाप हैं,उसका स्थान गीतामें-"#इन्द्रियाणि_मनो_बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते||३/४०||इन्द्रियों,मन ओर बुद्धि कामका स्थान हैं,परिणामसे वह मनुष्यको ललचाता हैं,गीतामें कहा हैं-"#पाप्मानं_प्रजहि_ह्येनं_ज्ञानविज्ञाननाशनम्||३/४१|| ज्ञान विज्ञानका नाश करनेवाले वह पाप का नाश करना ही उचित हैं,इसलिये त्रिकाल संध्या समय हाथमें जल लेकर मनमें कामक्रोधादिका स्मरणकर शरीरमें रहे हुए पापपुरुष को दूरकरने तथा पापका प्रायश्चित्त करनेके लिए अघमर्षण कहा हैं, #त्रिकाल_सन्ध्यामें_सूर्योपासना#
समयकी गति सूर्यके द्वारा नियमित होती हैं. सूर्य-भगवान् जब उदय होते हैं,तब दिनका प्रारम्भ तथा रात्रिका शेष होता हैं, इसको प्रातःकाल कहतें हैं. जब सूर्य आकाशके शिखरपर आरुढ़ होते हैं,उस समयको दिनका मध्य अथवा मध्याह्न कहतें हैं और जब वे अस्ताचलको चले जाते हैं,तब दिनका शेष एवं रात्रिका प्रारम्भ होता हैं.इसे सायंकाल कहतें हैं.ये तीन उपासनाके मुख्य काल माने गये हैं.यों तो जीवनका प्रत्येक क्षण उपासनामय होना चाहिये,परंतु इन तीनों कालोंमें तो भगवान् की उपासना नितान्त आवश्यक बतलायी गयी हैं.इन तीनों समयोंकी उपासनाके नाम ही क्रमशः प्रातःसन्ध्या,मध्याह्नसन्ध्या और सायंसन्ध्या हैं.प्रत्येक वस्तुकी तीन अवस्थाएँ होती हैं-उत्पत्ति,पूर्णविकास और विनाश.ऐसे ही जीवनकी भी तीन ही दशाएँ होती हैं- जन्म,पूर्णयुवावस्था और मृत्यु.हमें इन अवस्थाओंका स्मरण दिलानेके लिये तथा इस प्रकार हमारे अंदर संसारके प्रति वैराग्यकी भावना जागृत करनेके लिये ही मानो सूर्य भगवान् प्रतिदिन उदय होने,उन्नतिके शिखरपर आरूढ़ होने और फिर अस्त होनेकी लीला करतें हैं.भगवान् की इस त्रिविध लिलाके साथ ही हमारे शास्त्रोंने तीनकालकी सन्ध्योपासना जोड़ दी हैं.
भगवान् सूर्य परमात्मा नारायणके साक्षात् प्रतीक हैं.इसीलिये वे सूर्यनारायण कहलातें हैं.यही नही,सर्गके आदिमें भगवान् नारायण ही सूर्यरूपमें प्रकट होतें हैं,इसीलिये पञ्चदेवोंमें सूर्यकी भी गणना हैं.यों भी वे भगवान् की प्रत्यक्ष विभूतियोंमें सर्वश्रेष्ठ,हमारे इस ब्रह्माण्डके केन्द्र,स्थूलकालके नियामक,तेजके महान् आकर,विश्वके पोषक एवं प्राणदाता तथा समस्त चराचर प्राणियोंके आधार हैं.वे प्रत्यक्ष दीखनेवाले सारे देवोंमें श्रेष्ठ हैं.इसीलिये सन्ध्यामें सूर्यरूपसे ही भगवान् की उपासना की जाती हैं.उनकी उपासनासे हमारे तेज,बल,आयु एवं नेत्रोंकी ज्योतिकी वृद्धि होती हैं और मरनेके समय वे हमें अपने लोकमेंसे होकर भगवान् के परमधाममें ले जाते हैं; क्योंकि भगवान् के परमधामका रास्ता सूर्यलोकमेंसे होकर ही गया हैं.शास्त्रोंमें लिखा है कि योगी लोग तथा कर्तव्यरूपसे युद्धमें शत्रुके सम्मुख लड़ते हुए प्राण देनेवालै क्षत्रिय वीर सूर्यमण्डलको भेदकर भगवान् के धाममें चले जाते हैं.हमारी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य यदि हमें भी उस लक्ष्यतक पहुँचा दें तो इसमें उनके लिये कौन बड़ी बात हैं.भगवान् अपने भक्तोंपर सदा ही अनुग्रह करते आये हैं.हम यदि जीवनभर नियमपूर्वक श्रद्धा एवं भक्तिके साथ निष्काम भावसे उनकी आराधना करेंगे तो क्या वे मरते समय हमारी इतनी भी सहायता नहीं करैंगे? अवश्य करैंगे.भक्तोंकी रक्षा करना तो भगवान् का विरद ही ठहरा.अतः जो द्विज! आदर पूर्वक तथा नियमसे प्रतिदिन तीनों समय अथवा कम से कम दो समय प्रातःकाल एवं सायंकाल ही भगवान् सूर्यकी आराधना करतें हैं,उन्हें विश्वास करना चाहिये कि उनका कलायाण निश्चित हैं और वे मरते समय भगवान् सूर्यकी कृपासे अवश्य परमगतिको प्राप्त होंगे.
इस प्राकार युक्तिसे भी भगवान् सूर्यकी उपासना हमारे लिये अत्यन्त कल्याणकारक,थोडे़ परिश्रमके बदलेमें महान् फल देनेवाली,अतएव अवश्यकर्तव्य हैं.अतः द्विजातिमात्रको चाहिये कि वे लोग नियमपुर्वक त्रिकालसन्ध्याके रूपमें भगवान् सूर्यकी उपासना किया करें और इस प्रकार लौकीक एवं पारमार्थिक दोनों प्रकारके लाभ उठावें.
#उद्यन्तमस्तं_यन्तमादित्यमभिध्यायन्_कुर्वन्_ब्राह्मणो_विद्वान्
#सकलं_भद्रमश्नुते||तै०आ०प्र०२अ०२||
अर्थात् उदय और अस्त होते हुए सूर्यकी उपासना करनेवाला विद्वान् ब्राह्मण सब प्रकारके कल्याणको प्राप्त करता हैं|
#षडर्घ्या_भवन्त्याचार्य_ऋत्विग्वैवाह्यो_राजा_प्रियः_स्नातक_इति|| अर्थात् आचार्य,ऋत्विक्,जमाई,राजा,प्रियव्यक्ति और स्नातक यह छह व्यक्ति विशेष अर्घ्य के लायक हैं.जब कोई हमारे पूज्य महापुरुष हमारे नगरमें आते हैं और उसकी सूचना हमें पहलेसे मिली हुई रहती हैं तो हम उनका स्वागत करनेके लिये अर्घ्य चन्दन जल अक्षत आदि पूजाकी सामग्री लेकर पहलेसे ही स्टेशनपर पहुँच जातें हैं,उत्सुकतापूर्वक उनकी बाट जोहते हैं और आते ही उनकी बडी़ आवभगत एवं प्रेमके साथ स्वागत करतें हैं.हमारे इस व्यवहारसे उन आगन्तुक महापुरुषको बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्कामभावसे अपना कर्तव्य समझकर उनका स्वागत करते हैं तो वे हमारे इस प्रेमके आभारी बन जातें हैं और चाहतें हैं कि किस प्रकार बदलेमें वे भी हमारी कोई सेवा करैं.हम यह भी देखते हैं कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुषके आगमनकी सूचना होनेपर भी उनके स्वागतके लिये समयपर स्टेशन नहीं पहुँच पाते और जब वे गाड़ीसे उतरकर प्लेटफार्मपर पहुँच जाते हैं, तब दौडे़ हुए आते हैं और देरके लिये क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते हैं.और,कुछ इतने आलसी होते हैं कि जब हमारे पूज्यपुरुष अपने डेरेपर पहुँच जाते हैं और अपने कार्यमें लग जाते हैं,तब वे धीरे-धीरे फुरसतसे अपना अन्य सब काम निपटाकर आते हैं और उन आगन्तुक महानुभावकी पूजा करतें हैं.वे महानुभावतो तीनों ही प्रकारके स्वागत करनेवालोंकी पूजासे प्रसन्न होते हैं और उनका उपकार मानतें हैं,पूजा न करनेवालोंकी अपेक्षा देर-सबेर करनेवाले भी अच्छे, हैं किंतु दर्जेका अन्तर तो रहता ही हैं.जो जितनी तत्परता,लगन,प्रेम एवं आदरबुद्धिसे पूजा करतें हैं,उनकी पूजा उतनी ही महत्त्वकी और मूल्यवान् होती हैं और पूजा ग्रहण करनेवालेको उससे उतनी ही प्रसन्नता होती हैं.सन्ध्याके सम्बन्धमें भी ऐसा ही समझना चाहिये.भगवान् सूर्यनारायण प्रतिदिन सबेरे हमारे इस भूमण्डलपर महापुरुषकी भाँति पधारते हैं उनसे बढ़कर हमारा पूज्य पात्र और कौन होगा.अतः हमें चाहिये कि हम ब्राह्ममुर्हूतमें उठकर स्वागत करनेके लिये उनके आगमनसे पूर्व ही तैयार हो जायँ और आते ही बडे़ प्रेमसे गन्ध,पुष्प,अक्षत आदिसे युक्त शुद्ध ताजे जलसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करें,उनकी स्तुति करें,जप करें.
#ईशन्नम्रः_प्रभाते_तु_मध्याह्ने_दण्डवत्_स्थितः||
#आसने_चोपविष्टस्तु_द्विजः_सायं_क्षिपेदपः||दे०भा०११/१६/५२|| प्रातःकाल कुछ झुककर खड़े रहकर,दोपहर सीधे खड़े रहकर और सायंकालको बैठकर अर्घ्य प्रदान करैं......" #जलेष्वर्घ्यं_प्रदातव्यं_जलाभावे_शुचिस्थले|| #सम्प्रोक्ष्य_वारिणा_सम्यक्_ततोऽर्घ्यं_तु_प्रदापयेत्||अग्निस्मृति|| सुबह और दोपहर को जलमें अर्घ्य दैं सायंकालको धोकर स्वच्छ किये स्थलपर धीरेसे अर्घ्यांजलि दे.ऐसा नदीतट पर ही करैं.अन्य जगहोंमें पवित्रस्थलपर या पात्र(बर्तन)में अर्घ्य दे.
हमारे उमरेठ के तथा हमारेभी आदरणिय डॉ.नरेशभाई शांतिलाल पंड्या ने तो सूर्यनारायणको अर्घ्यदेने से परमात्माके कार्योंमें योगदान देनी की बात कही हैं-"प्रत्येकजीवको ऑक्सीजन(प्राणवायु)के साथ सीधा सम्बन्ध हैं,प्राणवायुसे जीवन शक्य हैं.रसायणशास्त्रकी दृष्टिसे ऑक्सीजन का सूत्र "O2" हैं.उसमें एक अणुकी वृद्धि होनेसे "O3"ओझोन बनता हैं.जो घातक किरणोसे बचानेवाला हैं.पूर्वाचार्योने यह रहस्य जानकर जीवनके साथ सन्ध्योपासना,पूजा आदिमें समाविष्टकर अर्घ्यदेनेकी महत्ता उपयुक्त की हैं.जलका बंधारण " H2O" हैं.अभिषेक अथवा अर्घ्यका जल गिरनेके माध्यमसे जलका घर्षण होता हैं और घर्षण से विद्युत उत्पन्न होता हैं.यह विद्युत तात्कालीक "H2O"को अलग करता हैं, H+ घन भार और O-" ऋणभार धरातें हैं.घर्षण और प्रवाहके माध्यमसे तात्कालिक उत्पन्न ऑझोन O3," हमारे जीवनके अस्तित्व को स्थिर करता हैं.कार्बनमोनोक्साईड् जैसे वायुके कातिल झहररूपी प्रदूषण से जीवनको बचाता हैं.वर्तमान समयमें जलको ऑक्सीजन से समृद्ध की हुई पानीकी बातल"ऑक्सीरीच"से सब परिचित होगें,जो मनुष्यके जीवन और ऑक्सीजनके सम्बबन्धको प्रमाणित करता हैं.सूर्य नारायणको अर्घ्य देनेसे और परमात्माको नित्य अभिषेक करनेसे मानोकी भगवान् के कार्यों में एक महत्वपूर्ण योगदान ही हैं.जीससे पुण्यका फल तुरंत ही सभी जीवमात्रको शुद्ध ऑक्सीजन पहुँचा देता हैं.. यह बड़ा पुण्य नहीं तो क्या हैं?
सूर्योपस्थान-सूर्य का मतलब"
#सुवति_प्रेरयति_स्वे_स्वे_कार्ये_जगत्_इति_सूर्यः|| जो अपने-अपने कार्योंमे जगत् को प्रेरता हैं(प्रेरणा देता हैं)वह सूर्य हैं.#तस्य_उप"_समीपे_स्थानं_वासः_इति|| अर्थात् कि उनके(सूर्यके)पास मननसे यजनसे उपासनासे कर्मद्वारा वास करना(संलग्न रहना).जो आकाशमें स्थित सूर्य हैं,उसको ही हृदयाकाशमें स्थान देकर सो वर्षतक सत्कर्म करनेके लिये आयु की कामनासे उपस्थान करना चाहिये.
गायत्रीमंत्रजप-#गायन्तं_त्रायते_यस्माद्_इति_गायत्री || जिसको गानेसे(रटनेसे,जपनेसे,)रक्षण प्राप्त हो,वह गायत्री मंत्र हैं.चाहे जितना भी तंत्रोपासना कर लो परंतु वैदिक संध्या कर गायत्रीमंत्रका अनुष्ठान नहीं करता उनके सभी कर्म व्यर्थ हैं.भूत प्रेत पिशाचों का तो क्या कोई प्रसिद्ध तात्रिंक भी नित्य संध्या,गायत्रीमंत्र जप करने वालोंका कुछ अनहित नहीं कर सकतें हैं.#यज्ञानां_जप_यज्ञोस्मि||गीता१०/२५|| अर्थात् परमात्मा कहतें हैं कि यज्ञोमें जप यज्ञ में हूं,अर्थात् श्रेष्ठ हैं.शरीरस्थ२४तत्त्व का सम्बन्ध गायत्री मंत्रके २४ अक्षरोंसे हैं.#चतुर्विंशतिरेतानि_गायत्र्याश्चाक्षराणि_तु ||
#प्रणवं_पुरुषं_विद्धि_सर्वगं_पञ्चविंशकम् || अर्थात् २४तत्त्वोंके साथ प्रणवपुरुषरूपी आत्मा सहित २५तत्त्वोंका बना हुआ यह शरीर हैं. अर्थात् २५तत्त्वोंवाले शरीरको तारता हैं.
#अकारं_चाप्युकारं_च_मकारं_च_प्रजापतिः ||
#वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भुवःस्वरितीति_च||मनुः२/७६||प्रजापतिने अकार,उकार और मकाररूप ॐकार को तथा भूर्, भुवः और स्वर् यें व्याहृतिओंको(ऋक्,यजुस्,और साम)तीनों वेद से दुहकर प्रकट किया हैं.
#त्रिभ्य_एव_तु_वेदेभ्यः_पादं_पादमदूदुहत् ||
#तदित्यृचोऽस्याः_सावित्र्याः_परमेष्ठी_प्रजापतिः||मनुः२/७७|| परमेष्ठी प्रजापतिने तत् से आरंभकर वह गायत्रीकी ऋचा के तीनपाद तीनों वेदमेंसे एक एक को दुहकर बहार प्रकट किया. #एतदक्षरमेतां_च_जपन्व्याहृतिपूर्विकाम् ||
#संध्ययोर्वेदविद्विप्रो_वेदपुण्येन_युज्यते ||मनुः२/७८|| वेदको जाननेवाला ब्राह्मण,दौनों संध्या समय ॐकाररूप यह अक्षर तथा भूर्, भुवर्, और स्वर् यह व्याहृतियों के साथ गायत्रीमंत्रका जप करतें रहता हैं वह वेदाध्ययनके फलको प्राप्त करता हैं.
#सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य_बहिरेतत्_त्रिकं_द्विजः ||
#महतोऽप्येनसो_मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते ||मनुः२/७९|| जो द्विज गाँवके बहार(नदी किनारेपर या वनमें)वह तीन(ॐकार,व्याहृति तथा त्रिपदा गायत्रीमंत्र)का एक मासतक प्रतिदिन सहस्र-सहस्र जप करता हैं,वह सांप जैसे अपनी त्वचा से मुक्त होता है, वैसे बड़े पापसे छुट जाता हैं.
#एतयर्चा_विसंयुक्तः_काले_च_क्रियया_स्वया ||
#ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां_याति_साधुषु ||मनुः२/८०|| ब्राह्मण,वैश्य और वैश्य जिन्होंने उपनयन संस्कार होकर द्विजत्वको प्राप्त किया हो,यह गायत्रीमंत्र से रहित(गायत्री मंत्रका जप न करनेवाला तथा योग्य कालकें अपने अग्निहोत्र आदि क्रियाओंसे रहित हो वह निंदा के पात्र हैं.
#ओंकारपूर्विकास्तिस्रो_महाव्याहृतयोऽव्ययाः||
#त्रिपदा_चैव_सावित्री_विज्ञेयं_ब्रह्मणो_मुखम्||मनुः२/८१|| ॐकार पूर्वक तीन अविनाशी महाव्याहृतियाँ तथा तीनपद वाली गायत्रीऋचा को परमात्माके मुखरूप ही जानना चाहिये.
#एकाक्षरं_परं_ब्रह्म_प्राणायामाः_परं_तपः||
#सावित्र्यास्तु_परं_नास्ति_मौनात्सत्यं_विशिष्यते ||मनुः२/८३|| ॐकार यह एकाक्षर परब्रह्म हैं,प्राणायाम यह श्रेष्ठ तप हैं,गायत्रीसे श्रेष्ठ कोई मंत्र नहीं और मौन से अधिक श्रेष्ठ सत्य बोलना हैं,यह चारों अवश्य धारण करने योग्य हैं.
#विधियज्ञाज्जपयज्ञो_विशिष्टो_दशभिर्गुणैः||
#उपांशुः_स्याच्छतगुणः_साहस्रे_मानसः_स्मृतः||मनुः२/८५|| विधियज्ञ(दर्श-पौर्णमास इत्यादि) से जपयज्ञ दशगुना अधिक श्रेष्ठ है;वह जपयज्ञ अर्थात् उपांशुजप(पासमें बैठा हुआ भी न सुन सके ऐसा)मंद उच्चारसे हो वह सोगुना अधिक हैं; और वह जप यदि मानस(होठ़ तथा जिह्वा सहजभी हिले नहीं वैसे सिर्फ मनमें मनन से हो)तो वह जप सहस्रगुना अधिक हैं. आदि अनन्त महिमा हैं.
जपसमय विषयोंका चिंतन सर्वथा त्याग करना चाहिये.जो जपयज्ञमें मंत्रार्थका चिंतन नहीं करता और सांसारिक विषयोंका चिंतन करता रहता हैं वह मात्र मिथ्याचारी और दांभिक हैं..गीतामें भी कहा हैं कि-
#कर्मेन्द्रियाणि_संयम्य_य_आस्ते_मनसा_स्मरन् ||
#इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा_मिथ्याचारः_स_उच्यते ||३/६||
अर्थात् जो मूढात्मा कर्मेन्द्रियोंपर संयम रखकर मन द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंका चिंतन करता रहता हैं,वह मिथ्याचारी ढोंगी कहलाता हैं.इसलिये जप समय सभी तत्त्वोंको प्रसव देनेवाले दिव्यतेजस्वी-सवितादेवका कि जो हमको श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करतें हैं और हमें सत्कर्म अनुष्ठान आदि के लिये बुद्धि द्वारा प्रेरणा देनेवाले हैं उनका ध्यान करतें हैं.ऐसे परबारह्मका सतत चिंतन करनेसे परब्रह्मको प्राप्त करतें हैं.सूर्यमंडलमें रहे हुए पुरुष को जानकर ही मुक्ति हैं,इसलिये वेदाज्ञासे नित्य ज्ञानपूर्वक,विधिसे तीनोंकालमें स्वस्थमन द्वारा जो सवितानारायण का ध्यान करता हैं,उनको सभी देव वशमें रहतें हैं..स्कंदपुराणमें कहा हैं कि जिसका चित्त सदा परब्रह्म में लीन हो उनका कुल पवित्र,जननी कृतार्थ,भूमि पुण्यवती हो जाती हैं.
संध्योपासनाका कर्म मात्र ईश्वरप्रित्यर्थ होने पर भी निष्काम भावसे करना अवश्यक हैं। फिर भी यह कर्मसे पापनिवृत्ति होकर पुण्यकी वृद्धि होती हैं। यज्ञवल्क्यस्मृतिमें कहा हैं -कि" निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत्। त्रिकालसन्ध्याकरणात्तत्सर्वं हि प्रणश्यति।। याज्ञ०स्मृ०प्रा०३/३०७।। अर्थात् रात्रि या दिनमें जोभी कर्म अज्ञानसे हुआ हो वह सब त्रिकालसंध्या करनेसे नाश होता हैं। मरीचिका कथन हैं-" सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता। जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चा$भिजायते।।देवीभा०११/१६/६।। जिसने सन्ध्या जानीं नहीं हैं और संध्याकी उपासना न की हो वह जीवनभर शूद्र समान हैं,तथा मृत्युके बाद कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता हैं। दक्ष कहतें हैं-"सन्ध्याहिनो$शुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु। यदन्यत्कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत्।।" अर्थात संध्या न करनेवाला द्विज! नित्य अपवित्र होता है,कोई भी कर्म नहीं कर सकता,जो जो सत्कर्म करता हैं उनका फल इन्हें नहीं मिलता हैं। श्रीमद्भगवद् गीता भी कहती हैं-"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।१६/२७।।" अर्थात् जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर इच्छानुसार करतें हैं!वह सिद्धि,सुख या परमगतिको प्राप्त नहीं होता।
यह दुर्लभ मनुष्यदेह क्षणभंगुर हैं वह अनेकजन्म के बाद पुण्यके प्रभावसे प्राप्त होता हैं,इसलिए अपना कर्म क्या हैं यह विचारणीय हैं। यहां मनुष्यजन्ममें ही अपना मुख्य कर्म ईश्वरोपासना हैं। इस असार संसारमें जो जो उपभोग्य पदार्थ दृश्यमान हैं वह सब समयांतरको नाशवंत हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं हैं। जो भी द्विज नियमित संध्यावंदन,वेदाध्ययन आदि ईश्वरोपासना नहीं करता वह प्राप्त अधिकारका दुरुपयोग करता हैं। "देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः। यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः।।भागवत१०/६३/४१।। जो मनुष्य ईश्वरदत्त यह मनुष्यजन्म प्राप्तकर ईश्वरोपासना नहीं करता उनको आत्मवञ्चक( अपनी जातसे खिलवाड़कर छेतरपिंडी़ करनेवाले)जानने चाहिये। और ऐसा भगवत्कृपासे प्राप्त मोक्षद्वाररूप मनुष्यजन्म अपने ही दोषसे निरर्थक नाश होता हैं। "उद्यन्तमन्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन्। ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते।।तै०आ०प्र०२/२।।उदय और अस्त होतें हुए सूर्यका ध्यान करतें करतें विद्वान् सभी प्रकारकें कल्याणको प्राप्त करता हैं। "संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा। तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः।।"अर्थात् गरुडवालेके पास जैसे सर्प नहीं आतें,वैसे स्नानशील तथा संध्यालोप न करनेवालें को दोष नहीं लगता। वेदकी आज्ञा हैं कि नित्य प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये तो वेदनारायणकी आज्ञाका पालन करना यह अपना मुख्य धर्म हैं,ईश्वरकी आज्ञाके पालनसे ही मनुष्योंका कल्याण होता हैं। भागवतमें पृथुराजा को भगवान् कहतें हैं-"मदादेशकरो लोकः सर्वत्राप्नोति शोभनम्।।४/२०/३३।। अर्थात् भगवान् कहतें हैं कि मेरे आदेशका पालन करनेवाला मनुष्य सर्वत्र शुभत्वको प्राप्त करता हैं।"सन्ध्या स्नानं त्यजन्विप्रः सप्ताहाच्छुद्रतां व्रजेत्। तस्मात्संन्ध्यां च स्नानं च सूतके$पि न संत्यजेत्।।याज्ञवल्क्य।। याज्ञवल्क्य का कहना हैं कि सातदिन संध्या और स्नान न करनेवाला द्विज शुद्रत्वको प्राप्त होता हैं,इसलिए सूतक(जनन,मरण),में स्नान संध्याका त्याग नहीं करना चाहिये।श्री पुलस्त्य और यमस्मृतिमें भी सूतकमें संध्या करनेका आग्रह बताया हैं।"सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायाममन्त्रकम्।तथा मार्जनमंत्रास्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत्।। गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत्। आचमनं न वा कार्यमुपस्थानं न चैव हि।।प्रयोग पारिजात।। जनन तथा मृत सूतकमें संध्याके विधानमें प्राणायाम मंत्ररहित,मार्जन के मंत्रो मनमें पढकर मार्जन,गायत्रीमंत्र स्पष्ट उच्चारण करतें हुए सूर्यनारायणको अर्घ्यदान,अंबुप्राशन करैं या न करैं, उपस्थान नहीं होता।"विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या
वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।"अर्थात् ब्राह्मणरूपी वृक्षकी जड़ तो सन्ध्या हैं,और ब्राह्मणरूपी वृक्षकी डालियाँ वेदनारायण हैं,धर्म कर्म आदि उस वृक्षके पत्ते हैं,इसलिए जड़(सन्ध्या)की बड़े यत्नोंसे रक्षा करनी चाहिये क्योंकि जड़(सन्ध्या)के नष्ट हो जानेसे(सन्ध्या वंदन न करने से) न तो पत्ते रहतें हैं(धर्म,कर्म)ना ही डालियाँ(न तो वैदिक कार्यों)।
षोडश संस्काराः खंड१२८~ यज्ञोपवीतम् (सन्ध्योपासना)
यावन्तो$स्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः। तेषां वै पावनार्थाय सन्ध्या सृष्टा स्वयम्भुवा।।अत्रिः।।" इस पृथवीपर जितने भी स्वकर्म रहित उपनयनसे संस्कारित द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य)हैं,उनको पवित्र करनेके लिए ब्रह्माजीने संध्याकी उत्पत्ति की हैं।"सन्ध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्।।अत्रिः।। नियम पूर्वक जो द्विज प्रतिदिन सन्ध्या करतें हैं,वे पापरहित होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होतें हैं।
सन्ध्योपासना समय-" उत्तमा तारकोपेता मध्यमालुप्ततारका। अधमा सूर्य सहिता प्रातःसंध्या त्रिधा मता।।दे०भा०११/१६/४।।" सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुएँ हो,उस समयकी संध्या उत्तम हैं,ताराओंके छिपनेसे सूर्योदय तक मध्यम और सूर्योदय के बाद की प्रातःसंध्या अधम मानी गयी हैं। सायं सन्ध्या-"उत्तमा सूर्य सहिता मध्यमा लुप्तसूर्यका। अधमा तारकोपेता सायं संध्या त्रिधा स्मृता।।विश्वामित्रस्मृ१/२४।। सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम,सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम तथा तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी हैं। "प्रातःसंध्यां सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम्। ससूर्यां पश्चिमा संध्यां तिस्रः संध्या उपासते।।दे०भा०११/१६/२-३।।" प्रातःकालमें तारोंके रहते हुए,मध्याह्नकालमें जब सूर्य आकाशके मध्यमें हो,सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी क्रमशः प्रातःसंध्या,मध्याह्नसंध्या और सायंसंध्या करनी चाहीये।
#संध्यावंदनमें _जपकाला$वधि-#जपन्नासीत_सावित्रीं_प्रत्यगातारकोदयात्।।
#संध्या_प्राक्_प्रातरेवं_हि_तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।। याज्ञ०स्मृ०२/२४-२५।।" सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो,तबतक जप करता रहे।"गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत्।अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात्।।याज्ञ०स्मृ०आचा०२४-२५।।"गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमें ॐका उच्चारण करके जप करैं,और (अन्तमें ॐका उच्चारण न करैं,क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नहीं होती हैं।)"
#गायत्रीपरिवार,स्वाध्यायपरिवार(पांडुरंगआठवलेके अनुयाययी) तथा आर्यसमाज़ वालों ने भी संध्याविधानकी स्वतः रचना की हैं परंतु इन तीनों(गायत्रीपरिवार आदि)की स्वतःरचना किसी भी गृह्यसूत्रोंके विधान अनुसार न होनेसे ऐसा कपोलकल्पित संध्यावंदन विधान नहीं करना चाहिये... क्योकिं श्रृतिकी आज्ञा हैं-" "स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है।
इसलिये स्वशाखाके अनुसार ही संध्यावंदन करना श्रेष्ठ और श्रेयस्कर रहैंगा।
कुश,कम्बल,मृगचर्म,व्याघ्रचर्म और रेशमका आसन जपादिके लिए विहित हैं, पुत्रवान् गृहस्थी को मृगचर्मके आसन का उपयोग नहीं करना चाहिये.
द्विजो(ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य)को स्नान करकें"(श्राद्धे,यज्ञे जपे होमे वैश्वदेवे सुरार्चने। धृतत्रिपुण्ड्रः पूतात्मा मृत्युं जयति मानवः।।कात्यायनः)"संध्या,जप,होम,वैश्वदेव,देवपूजन,यज्ञ,श्राद्ध,दान तथा स्वाध्यायके प्रारंभमें भस्म त्रिपुण्ड्र करने चाहिये। भस्मधारण करनेवाला पवित्रात्मा मृत्युको भी जीत लेता हैं।"(आग्नेय्यमुच्यते भस्म दग्धगोमय सम्भवम्।।काशीखण्डे।।) विधिसे अग्निमें गोबरकंडोसे बनी भस्म धारण योग्य हैं।"(औपासनसमुत्पन्नं समिदग्निसमुद्भवम्। समिदग्निसमुत्पन्नं धार्यं वै ब्रह्मचारिणा।।संग्रहे।।)" औपासनाग्नि(उपनयननका)में नित्य समिधादान(सायं प्रातः अग्निपरिचरण)से उत्पन्न भस्म ब्रह्मचारीको धारण करने योग्य हैं।"(मध्याह्नात् प्राक् जलाक्तं तु परतो जलवर्जितम्। तर्जन्यनामिकाङ्गुष्ठैस्त्रिपुण्ड्रं तु समाचरेत्।।दे०भा०।।)"दोपहरसे पहले जल मिलाकर भस्म लगाना चाहिये,दोपहरके बाद जल न मिलाये।"(मध्याह्ने गन्धमिश्रितम्।सायाह्ने निर्जलं भस्म एवं भस्म विलेपनम्।।दे०भा।।)"मध्याह्नमें चन्दन मिलाकरऔर शामको सूखा ही भस्म लगाना चाहिये।"(ऊर्ध्वपुण्ड्रं मृदा कुर्याद् भस्मना तु त्रिपुण्ड्रकम्।उभयं चन्दनेनैव अभ्यङ्गोत्सवरात्रिषु।।)"-मृत्तिका(मिट्टी)या गोपीचन्दनसे ऊर्ध्वपुण्ड्र,भस्मसे त्रिपुण्ड्र और श्रीखण्डचन्दनसे दोनों प्रकारका(ऊर्ध्वपुण्ड्र तथा त्रिपुण्ड्र)तिलक कर सकते हैं।किंतु उत्सवोंकी रात्रिमें सर्वांगमें चन्दन लगाना चाहिये।"(ललाटे तिलकं कृत्वा संध्याकर्म समाचरेत्। अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम्।।प्रयोगपारि०।।)"-ललाटमें तिलक करकें ही संध्याकर्म करैं,तिलकके बिना सत्कर्म सफल नहीं हो पाते।"(मध्यमानामिकाङ्गुष्ठैरनुलोमविलोमतः।अतिस्वल्पमनायुष्यमतिदीर्घं तपःक्षयम्।।नेत्रयुग्म प्रमाणेन भाले दीप्तं त्रिपुण्ड्रकम्।।दे०भा०।।निरन्तरालं यः कुर्यात् त्रिपुण्ड्रं स नराधमः।।पद्मपु०।।)"अँगूठेसे ऊर्ध्वपुण्ड्र करनेके बाद मध्यमा और अनामिकासे बायीं ओरसे प्रारम्भकर दाहिनी ओर भस्म लगाये।इसके बाद अँगूठेसे दाहिनी ओरसे प्रारम्भकर बायीं ओर तीसरी रेखा लगायें।इस प्रकार तीन रेखाएँ खिंच जाती हैं।तीनों अंगुलियोंके मध्यकास्थान रिक्त रखें,बायें नेत्रसे दाहिने नेत्रतक ही भस्मकी रेखाएँ हो। इस प्रकार रेखाओंकी लम्बाई छः अंगुल होती हैं,क्षत्रियको चार अंगुल और वैश्यको दो अंगुलकी त्रिपुण्ड्र रेखाएँ करनी चाहिये।"(स्नाने होमे जपे दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि।करौ सदर्भौ कुर्वीत तथा संध्याभिवादने।।स्मृत्यन्तरे।।)"- स्नान,संध्योपासन,पूजन,जप, होम, वेदाध्ययन और पितृकर्ममें पवित्री(कुशासे बनी हुई अंगुठी)धारण करना आवश्यक हैं।"(हेमात्मक पवित्रस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।हेमाद्रौ।।शान्तिकमलाकरे-"("यथेष्टेन सुवर्णेन कारयेदङ्गुलीयकम्।।)"- कुशकी पवित्रीसे अधिक महत्ता सोनेकी अँगूठी की हैं,इनकी मात्रा पहननेवालेकी इच्छापर निर्भर हैं।"(सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्। नोच्छिष्टं तत् पवित्रं तु भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत्।।)"-पवित्री पहनकर आचमन करनेमात्रसे कुश जूठा नहीं होता। अतः आचमनके पश्चात् इसका त्याग भी नहीं होता। पवित्री पहनकर यदि भोजन कर लिया जाय, तो वह जूठी हो जाती हैं,और उसका त्याग अपेक्षित हैं।"(समूलाग्रौ विगर्भौ तु कुशौ द्वौ दक्षिणे करे।सव्ये चैव तथा त्रीन् वै बिभृयात् सर्वकर्मसु।।छान्दोग्यपरि०।।मन्त्रं विना धृतं यत् तत् पवित्रमफलं भवेत्।ब्रह्मपु०।।)"- दो कुशोंसे बनाई हुई पवित्री दाहिने हाथकी अनामिकाके मूलभागमें तथा तीन कुशोंसे बनायी हुई पवित्री बायीं अनामिकाके मूलमें यथोचित मन्त्र पढकर धारण करैं।इन दोनों पवित्रियोंको प्रतिदिन बदलना आवश्यक नहीं हैं।स्नान,संध्योपासनादिके पश्चात् यदि इन्हें पवित्र स्थानमें रख दिया जाय तो दूसरे कामोंमें बार-बार धारण कर सकतें हैं।"(यद्युपच्छिष्टमपहतं पवित्रं विहितं भवेत्।तदैव ग्रन्थिमुत्सृज्य त्यजेदितरधा नहि।।भारद्वाज।।)"जूठी हो या श्राद्ध किया जाय,तब इन्हे त्याग देना चाहिये। उस समय इनकी गाँठोको खोलना आवश्यक हो जाता हैं।"(तस्मिन् क्षीणे क्षिपेत् तोये वह्नौ वा यज्ञसूत्रवत्।।आश्वालायन।।)"यज्ञोपवीतकी भाँति इन्हें भी जलमें या अग्निमें छोडना चाहिये।"(चितो दर्भा पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु।स्तरणासन पिंडेषु षट् दर्भान् परिवर्जयेत्।।दालभ्य।।)"-चितामें पड़े हुए,रास्तेमें पडे़ हुए, यज्ञस्थलमें पड़े हुए (उपयोग किया हुआ), बीछाये हुए, आसनके उपयोगमें आये हुए, पिंड़पर चढे़ हुए या पिंडके नीचेके (किसी कर्ममें उपयोग हुए)छह प्रकारकें कुश वर्ज्य हैं।
*आचमन रहस्य- सन्ध्यावंदनमें पहले आचमन करना होता हैं सामान्यतः- ॐ केशवाय नमः।।१।। क का तात्पर्य ब्रह्मा,ईश का रुद्र से हैं,रजोगुणी ब्रह्मा और तमोगुणी रुद्र के रजस् तथा तमस गुणको तिरस्कृत करनेवाले सत्त्वगुणी केशव को मनमें ध्यान करतें हुए नमस्कारकर इस ॐ केशवाय नमः। मंत्रसे प्रथम आचमन करनेसे सत्वगुण द्वारा स्वयं ज्ञानोत्पत्ति होती हैं,गीतामें कहा हैं कि-"(सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानम्।।१४/१७।।)"। इनके बाद चराचर शरीरको उत्पन्न करनेवाले नारायण हैं जो नियामक तथा अन्तर्यामी-परमात्मा हैं,इसलिए यह विश्वव्यापी अन्तर्यामीस्वरूप परमात्मा नारायणका हृदयमें स्मरणकर ॐनारायणाय नमः।।२।। इस दूसरे मंत्रद्वारा आचमन करतें हैं।ॐ माधवाय नमः।।३।। इस तीसरे मंत्रसे मायापति माधवको नमस्कार करतें हुए तीसरीबार आचमन करतें हैं। ऐसे तीनबार आचमन करनेसे अंतःकरणकी शुद्धि होती हैं,पश्चात् ॐगोविंदाय नमः।।इस चतुर्थ मंत्रसे आरंभ कर ॐ कृष्णाय नमः ऐसे २१ नामोंका स्मरण किया जाता हैं जिससे बाह्य और आंतरिक शुद्धि होती हैं।गीताजीमें कहा हैं कि-"(महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।१३/५।।)"-पाँच महाभूत(अग्नि,वायु,आकाश,जल तथा पृथ्वि),अहंकार, बुद्धि और अव्यक्त प्रकृति,दश इन्द्रियां तथा एक मन,और पाँच विषय(रस,रूप,गंध,शब्द,स्पर्श) ऐसे देह २४ तत्त्वोंवाला हैं,यह २४ तत्त्ववाले भोगके आवासरूपी वृक्षपर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षीओं वसतें हैं।जैसे मुंडकोपनिषत् में कहा हैं-"(द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।।३/१/१।।)"।वहाँ परमात्मा जीवात्माका मित्र हैं, इसलिए यहाँ केशव आदि २४ नामोंका स्मरणकर २४तत्त्ववालें देहका विस्मरण करकें देहमें रहा हुआ जीव अपना मित्र परमात्माका चिंतन करता हैं ऐसा भाव हैं।
प्राणायाम- प्राणायामकी बड़ी महिमा कही गयी हैं। इससे पाप-ताप तो जल ही जाते हैं,शारीरिक उन्नति भी अद्भुत ढंगसे होती हैं। हजारों वर्षकी लंबी आयु भी इसके निरंतर अभ्यास से मिल सकती हैं। सुन्दरता और स्वास्थ्यके लिये तो यह मानो वरदान ही हैं। यदि प्राणायामके ये लाभ बुद्धिगम्य हो जायँ तो इसके प्रति आकर्षण बढ़ जाय और तब इससे राष्ट्रका बडा़ लाभ हो।जब हम साँस लेते हैं,तब इसमें मिले हुए आक्सीजनसे फेफडोंमें पहुंचा हुआ अशुद्ध कालारक्त शुद्ध होकर लाल बन जाता हैं। इस शुद्ध रक्तका हृदय कंपनक्रिया द्वारा शरीरमें संचार कर देता हैं। यह रक्त शरीरके सब घटकोंको खुराक बाँटता-बाँटता स्वयं काला पड़ जाता हैं। तब हृदय इस उपकारी तत्त्वको फिरसे शुद्ध होने के लिये फेफड़ोंमें भेजता हैं। वहाँ साँसमें मिले प्राणवायु(आक्सीजन)के द्वारा यह फिर सशक्त हो जाता हैं और फिर सारे घटकोंको खुराक बाँटकर शरीरकी जीवनी-शक्तिको बनाये रखता हैं।यही कारण हैं कि साँसके बिना पाँच मिनट़ भी जीना कठिन हो जाता हैं।किंतु रक्तशोधन क्रियामें एक बाधा पड़ती रहती हैं। साधारण साँस फेफडो़की सूक्ष्म कणिकाओंतक पहुंच नहीं पाती। इसकी यह अनिवार्य आवश्यकता देख भगवान् ने प्रत्येक सत्कर्मके आरम्भमें इस(प्राणायाम)का संनिवेश कर दिया हैं।
#यथा_पर्वतधातूनां_दोषान्_हरति_पावकः।
#एवमन्तर्गतं_पापं_प्राणायामेन_दह्यते।।अत्रिस्मृ०२/३।।
शास्त्रका कथन हैं कि पर्वतसे निकले धातुओंका मल जैसे अग्निसे जल जाता हैं,वैसे प्राणायाम से आन्तरिक पाप जल जातें हैं।कभी कभीतो सोलह सोलह प्राणायामोंका विधान हैं।
#द्वौ_द्वौ_प्रातस्तु_मध्याह्ने_त्रिभिः_संध्यासुरार्चने।
#भोजनादौ_भोजनान्ते_प्राणायामस्तु_षोडश।।दे०पु०।।
दो प्रातःकाल शयने उठते ही,दो मध्याह्नकालमें, तीन संध्याके प्रारंभमें,तीन देवतार्चनमें, तीन भोजन करते पहले तथा तीन भोजनके बाद ऐसे कुल १६ प्राणायाम करऩेको कहा हैं।यह मध्याह्नतक के कार्योंमे ही जाने। फिर सायंकालकी संध्यामें तीन,सायंकालकी पंचोपचारपूजामें तीन,यदि दूसरेवक्त का भोजन लेतें हो प्रारंभमें तीन, भोजनके बाद तीन, ऐसे कुल कथन अनुसार १६+१२=कुल २८ प्राणायाम जरूरी बनतें हैं इससे ज्यादा हो सकें तो तो बात ही क्या?अतः लाभ ही लाभ हैं।"(स्नाने दाने जपे होमे संध्यायां देवतार्चने। शिखाग्रन्थिं विना कर्म न कुर्याद् वै कदाचन।।आह्निकसू०।।)"-स्नान,दान,जप,होम,संध्या और देवार्चन-कर्ममें बिना शिखा बाँधे कभी कर्म नहीं करना चाहिये।"(विभूतिर्यस्य नो भाले नाङ्गे रुद्राक्षधारणम्। न हि वाण्यां शिवोच्चारस्तं त्यजेदन्त्यजं यथा।।माध्यं०वा०आह्नि०।।)"-जिसके भालमें भस्मका त्रिपुण्ड्र न हो,अङ्गपर रुद्राक्ष न हो तथा वाणीमें शिव का उच्चार न हो इसके साथ शूद्रके समान त्यागे।
अम्बुप्राशनका महत्व-संध्याकर्ममें प्रत्येक विधान भावपूर्वक होने चाहिये | अम्बुप्राशनसे रात्रिमें तथा मध्याह्नके बाद किये हुएँ दुष्कर्म अभिमंत्रित जल के अचमनसे दूर होतें हैं | संध्यारूपी नित्य प्रायश्चित्तसे पाप से मुक्त हो जाकर फिरसे मैं पाप नहीं करुंगा ऐसे भाव सहित निश्चयतासे प्रतिदिन संध्या करनी चाहिये | जैसे मनुस्मृतिमें कहा हैं-"#कृत्वा_पापं_हि_सन्तप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते ||
#नैव_कुर्यात्पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः||मनुः११/२३०||
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अघमर्षण- मनुष्य कामनावश होकर अनिच्छासे भी पापकर्म करने प्रवृत्त होता है,इसका कारण भगवान् कृष्णने अर्जुनको गीतामें कहा हैं कि-"#काम_एष_क्रोध_एष_रजोगुणसमुद्भवः||३/१७||
तद्नुसार काम और क्रोध रजोगुणसे उत्पन्न होतें हैं, वह काम महापाप हैं,उसका स्थान गीतामें-"#इन्द्रियाणि_मनो_बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते||३/४०||इन्द्रियों,मन ओर बुद्धि कामका स्थान हैं,परिणामसे वह मनुष्यको ललचाता हैं,गीतामें कहा हैं-"#पाप्मानं_प्रजहि_ह्येनं_ज्ञानविज्ञाननाशनम्||३/४१|| ज्ञान विज्ञानका नाश करनेवाले वह पाप का नाश करना ही उचित हैं,इसलिये त्रिकाल संध्या समय हाथमें जल लेकर मनमें कामक्रोधादिका स्मरणकर शरीरमें रहे हुए पापपुरुष को दूरकरने तथा पापका प्रायश्चित्त करनेके लिए अघमर्षण कहा हैं, #त्रिकाल_सन्ध्यामें_सूर्योपासना#
समयकी गति सूर्यके द्वारा नियमित होती हैं. सूर्य-भगवान् जब उदय होते हैं,तब दिनका प्रारम्भ तथा रात्रिका शेष होता हैं, इसको प्रातःकाल कहतें हैं. जब सूर्य आकाशके शिखरपर आरुढ़ होते हैं,उस समयको दिनका मध्य अथवा मध्याह्न कहतें हैं और जब वे अस्ताचलको चले जाते हैं,तब दिनका शेष एवं रात्रिका प्रारम्भ होता हैं.इसे सायंकाल कहतें हैं.ये तीन उपासनाके मुख्य काल माने गये हैं.यों तो जीवनका प्रत्येक क्षण उपासनामय होना चाहिये,परंतु इन तीनों कालोंमें तो भगवान् की उपासना नितान्त आवश्यक बतलायी गयी हैं.इन तीनों समयोंकी उपासनाके नाम ही क्रमशः प्रातःसन्ध्या,मध्याह्नसन्ध्या और सायंसन्ध्या हैं.प्रत्येक वस्तुकी तीन अवस्थाएँ होती हैं-उत्पत्ति,पूर्णविकास और विनाश.ऐसे ही जीवनकी भी तीन ही दशाएँ होती हैं- जन्म,पूर्णयुवावस्था और मृत्यु.हमें इन अवस्थाओंका स्मरण दिलानेके लिये तथा इस प्रकार हमारे अंदर संसारके प्रति वैराग्यकी भावना जागृत करनेके लिये ही मानो सूर्य भगवान् प्रतिदिन उदय होने,उन्नतिके शिखरपर आरूढ़ होने और फिर अस्त होनेकी लीला करतें हैं.भगवान् की इस त्रिविध लिलाके साथ ही हमारे शास्त्रोंने तीनकालकी सन्ध्योपासना जोड़ दी हैं.
भगवान् सूर्य परमात्मा नारायणके साक्षात् प्रतीक हैं.इसीलिये वे सूर्यनारायण कहलातें हैं.यही नही,सर्गके आदिमें भगवान् नारायण ही सूर्यरूपमें प्रकट होतें हैं,इसीलिये पञ्चदेवोंमें सूर्यकी भी गणना हैं.यों भी वे भगवान् की प्रत्यक्ष विभूतियोंमें सर्वश्रेष्ठ,हमारे इस ब्रह्माण्डके केन्द्र,स्थूलकालके नियामक,तेजके महान् आकर,विश्वके पोषक एवं प्राणदाता तथा समस्त चराचर प्राणियोंके आधार हैं.वे प्रत्यक्ष दीखनेवाले सारे देवोंमें श्रेष्ठ हैं.इसीलिये सन्ध्यामें सूर्यरूपसे ही भगवान् की उपासना की जाती हैं.उनकी उपासनासे हमारे तेज,बल,आयु एवं नेत्रोंकी ज्योतिकी वृद्धि होती हैं और मरनेके समय वे हमें अपने लोकमेंसे होकर भगवान् के परमधाममें ले जाते हैं; क्योंकि भगवान् के परमधामका रास्ता सूर्यलोकमेंसे होकर ही गया हैं.शास्त्रोंमें लिखा है कि योगी लोग तथा कर्तव्यरूपसे युद्धमें शत्रुके सम्मुख लड़ते हुए प्राण देनेवालै क्षत्रिय वीर सूर्यमण्डलको भेदकर भगवान् के धाममें चले जाते हैं.हमारी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य यदि हमें भी उस लक्ष्यतक पहुँचा दें तो इसमें उनके लिये कौन बड़ी बात हैं.भगवान् अपने भक्तोंपर सदा ही अनुग्रह करते आये हैं.हम यदि जीवनभर नियमपूर्वक श्रद्धा एवं भक्तिके साथ निष्काम भावसे उनकी आराधना करेंगे तो क्या वे मरते समय हमारी इतनी भी सहायता नहीं करैंगे? अवश्य करैंगे.भक्तोंकी रक्षा करना तो भगवान् का विरद ही ठहरा.अतः जो द्विज! आदर पूर्वक तथा नियमसे प्रतिदिन तीनों समय अथवा कम से कम दो समय प्रातःकाल एवं सायंकाल ही भगवान् सूर्यकी आराधना करतें हैं,उन्हें विश्वास करना चाहिये कि उनका कलायाण निश्चित हैं और वे मरते समय भगवान् सूर्यकी कृपासे अवश्य परमगतिको प्राप्त होंगे.
इस प्राकार युक्तिसे भी भगवान् सूर्यकी उपासना हमारे लिये अत्यन्त कल्याणकारक,थोडे़ परिश्रमके बदलेमें महान् फल देनेवाली,अतएव अवश्यकर्तव्य हैं.अतः द्विजातिमात्रको चाहिये कि वे लोग नियमपुर्वक त्रिकालसन्ध्याके रूपमें भगवान् सूर्यकी उपासना किया करें और इस प्रकार लौकीक एवं पारमार्थिक दोनों प्रकारके लाभ उठावें.
#उद्यन्तमस्तं_यन्तमादित्यमभिध्यायन्_कुर्वन्_ब्राह्मणो_विद्वान्
#सकलं_भद्रमश्नुते||तै०आ०प्र०२अ०२||
अर्थात् उदय और अस्त होते हुए सूर्यकी उपासना करनेवाला विद्वान् ब्राह्मण सब प्रकारके कल्याणको प्राप्त करता हैं|
#षडर्घ्या_भवन्त्याचार्य_ऋत्विग्वैवाह्यो_राजा_प्रियः_स्नातक_इति|| अर्थात् आचार्य,ऋत्विक्,जमाई,राजा,प्रियव्यक्ति और स्नातक यह छह व्यक्ति विशेष अर्घ्य के लायक हैं.जब कोई हमारे पूज्य महापुरुष हमारे नगरमें आते हैं और उसकी सूचना हमें पहलेसे मिली हुई रहती हैं तो हम उनका स्वागत करनेके लिये अर्घ्य चन्दन जल अक्षत आदि पूजाकी सामग्री लेकर पहलेसे ही स्टेशनपर पहुँच जातें हैं,उत्सुकतापूर्वक उनकी बाट जोहते हैं और आते ही उनकी बडी़ आवभगत एवं प्रेमके साथ स्वागत करतें हैं.हमारे इस व्यवहारसे उन आगन्तुक महापुरुषको बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्कामभावसे अपना कर्तव्य समझकर उनका स्वागत करते हैं तो वे हमारे इस प्रेमके आभारी बन जातें हैं और चाहतें हैं कि किस प्रकार बदलेमें वे भी हमारी कोई सेवा करैं.हम यह भी देखते हैं कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुषके आगमनकी सूचना होनेपर भी उनके स्वागतके लिये समयपर स्टेशन नहीं पहुँच पाते और जब वे गाड़ीसे उतरकर प्लेटफार्मपर पहुँच जाते हैं, तब दौडे़ हुए आते हैं और देरके लिये क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते हैं.और,कुछ इतने आलसी होते हैं कि जब हमारे पूज्यपुरुष अपने डेरेपर पहुँच जाते हैं और अपने कार्यमें लग जाते हैं,तब वे धीरे-धीरे फुरसतसे अपना अन्य सब काम निपटाकर आते हैं और उन आगन्तुक महानुभावकी पूजा करतें हैं.वे महानुभावतो तीनों ही प्रकारके स्वागत करनेवालोंकी पूजासे प्रसन्न होते हैं और उनका उपकार मानतें हैं,पूजा न करनेवालोंकी अपेक्षा देर-सबेर करनेवाले भी अच्छे, हैं किंतु दर्जेका अन्तर तो रहता ही हैं.जो जितनी तत्परता,लगन,प्रेम एवं आदरबुद्धिसे पूजा करतें हैं,उनकी पूजा उतनी ही महत्त्वकी और मूल्यवान् होती हैं और पूजा ग्रहण करनेवालेको उससे उतनी ही प्रसन्नता होती हैं.सन्ध्याके सम्बन्धमें भी ऐसा ही समझना चाहिये.भगवान् सूर्यनारायण प्रतिदिन सबेरे हमारे इस भूमण्डलपर महापुरुषकी भाँति पधारते हैं उनसे बढ़कर हमारा पूज्य पात्र और कौन होगा.अतः हमें चाहिये कि हम ब्राह्ममुर्हूतमें उठकर स्वागत करनेके लिये उनके आगमनसे पूर्व ही तैयार हो जायँ और आते ही बडे़ प्रेमसे गन्ध,पुष्प,अक्षत आदिसे युक्त शुद्ध ताजे जलसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करें,उनकी स्तुति करें,जप करें.
#ईशन्नम्रः_प्रभाते_तु_मध्याह्ने_दण्डवत्_स्थितः||
#आसने_चोपविष्टस्तु_द्विजः_सायं_क्षिपेदपः||दे०भा०११/१६/५२|| प्रातःकाल कुछ झुककर खड़े रहकर,दोपहर सीधे खड़े रहकर और सायंकालको बैठकर अर्घ्य प्रदान करैं......" #जलेष्वर्घ्यं_प्रदातव्यं_जलाभावे_शुचिस्थले|| #सम्प्रोक्ष्य_वारिणा_सम्यक्_ततोऽर्घ्यं_तु_प्रदापयेत्||अग्निस्मृति|| सुबह और दोपहर को जलमें अर्घ्य दैं सायंकालको धोकर स्वच्छ किये स्थलपर धीरेसे अर्घ्यांजलि दे.ऐसा नदीतट पर ही करैं.अन्य जगहोंमें पवित्रस्थलपर या पात्र(बर्तन)में अर्घ्य दे.
हमारे उमरेठ के तथा हमारेभी आदरणिय डॉ.नरेशभाई शांतिलाल पंड्या ने तो सूर्यनारायणको अर्घ्यदेने से परमात्माके कार्योंमें योगदान देनी की बात कही हैं-"प्रत्येकजीवको ऑक्सीजन(प्राणवायु)के साथ सीधा सम्बन्ध हैं,प्राणवायुसे जीवन शक्य हैं.रसायणशास्त्रकी दृष्टिसे ऑक्सीजन का सूत्र "O2" हैं.उसमें एक अणुकी वृद्धि होनेसे "O3"ओझोन बनता हैं.जो घातक किरणोसे बचानेवाला हैं.पूर्वाचार्योने यह रहस्य जानकर जीवनके साथ सन्ध्योपासना,पूजा आदिमें समाविष्टकर अर्घ्यदेनेकी महत्ता उपयुक्त की हैं.जलका बंधारण " H2O" हैं.अभिषेक अथवा अर्घ्यका जल गिरनेके माध्यमसे जलका घर्षण होता हैं और घर्षण से विद्युत उत्पन्न होता हैं.यह विद्युत तात्कालीक "H2O"को अलग करता हैं, H+ घन भार और O-" ऋणभार धरातें हैं.घर्षण और प्रवाहके माध्यमसे तात्कालिक उत्पन्न ऑझोन O3," हमारे जीवनके अस्तित्व को स्थिर करता हैं.कार्बनमोनोक्साईड् जैसे वायुके कातिल झहररूपी प्रदूषण से जीवनको बचाता हैं.वर्तमान समयमें जलको ऑक्सीजन से समृद्ध की हुई पानीकी बातल"ऑक्सीरीच"से सब परिचित होगें,जो मनुष्यके जीवन और ऑक्सीजनके सम्बबन्धको प्रमाणित करता हैं.सूर्य नारायणको अर्घ्य देनेसे और परमात्माको नित्य अभिषेक करनेसे मानोकी भगवान् के कार्यों में एक महत्वपूर्ण योगदान ही हैं.जीससे पुण्यका फल तुरंत ही सभी जीवमात्रको शुद्ध ऑक्सीजन पहुँचा देता हैं.. यह बड़ा पुण्य नहीं तो क्या हैं?
सूर्योपस्थान-सूर्य का मतलब"
#सुवति_प्रेरयति_स्वे_स्वे_कार्ये_जगत्_इति_सूर्यः|| जो अपने-अपने कार्योंमे जगत् को प्रेरता हैं(प्रेरणा देता हैं)वह सूर्य हैं.#तस्य_उप"_समीपे_स्थानं_वासः_इति|| अर्थात् कि उनके(सूर्यके)पास मननसे यजनसे उपासनासे कर्मद्वारा वास करना(संलग्न रहना).जो आकाशमें स्थित सूर्य हैं,उसको ही हृदयाकाशमें स्थान देकर सो वर्षतक सत्कर्म करनेके लिये आयु की कामनासे उपस्थान करना चाहिये.
गायत्रीमंत्रजप-#गायन्तं_त्रायते_यस्माद्_इति_गायत्री || जिसको गानेसे(रटनेसे,जपनेसे,)रक्षण प्राप्त हो,वह गायत्री मंत्र हैं.चाहे जितना भी तंत्रोपासना कर लो परंतु वैदिक संध्या कर गायत्रीमंत्रका अनुष्ठान नहीं करता उनके सभी कर्म व्यर्थ हैं.भूत प्रेत पिशाचों का तो क्या कोई प्रसिद्ध तात्रिंक भी नित्य संध्या,गायत्रीमंत्र जप करने वालोंका कुछ अनहित नहीं कर सकतें हैं.#यज्ञानां_जप_यज्ञोस्मि||गीता१०/२५|| अर्थात् परमात्मा कहतें हैं कि यज्ञोमें जप यज्ञ में हूं,अर्थात् श्रेष्ठ हैं.शरीरस्थ२४तत्त्व का सम्बन्ध गायत्री मंत्रके २४ अक्षरोंसे हैं.#चतुर्विंशतिरेतानि_गायत्र्याश्चाक्षराणि_तु ||
#प्रणवं_पुरुषं_विद्धि_सर्वगं_पञ्चविंशकम् || अर्थात् २४तत्त्वोंके साथ प्रणवपुरुषरूपी आत्मा सहित २५तत्त्वोंका बना हुआ यह शरीर हैं. अर्थात् २५तत्त्वोंवाले शरीरको तारता हैं.
#अकारं_चाप्युकारं_च_मकारं_च_प्रजापतिः ||
#वेदत्रयान्निरदुहद्भूर्भुवःस्वरितीति_च||मनुः२/७६||प्रजापतिने अकार,उकार और मकाररूप ॐकार को तथा भूर्, भुवः और स्वर् यें व्याहृतिओंको(ऋक्,यजुस्,और साम)तीनों वेद से दुहकर प्रकट किया हैं.
#त्रिभ्य_एव_तु_वेदेभ्यः_पादं_पादमदूदुहत् ||
#तदित्यृचोऽस्याः_सावित्र्याः_परमेष्ठी_प्रजापतिः||मनुः२/७७|| परमेष्ठी प्रजापतिने तत् से आरंभकर वह गायत्रीकी ऋचा के तीनपाद तीनों वेदमेंसे एक एक को दुहकर बहार प्रकट किया. #एतदक्षरमेतां_च_जपन्व्याहृतिपूर्विकाम् ||
#संध्ययोर्वेदविद्विप्रो_वेदपुण्येन_युज्यते ||मनुः२/७८|| वेदको जाननेवाला ब्राह्मण,दौनों संध्या समय ॐकाररूप यह अक्षर तथा भूर्, भुवर्, और स्वर् यह व्याहृतियों के साथ गायत्रीमंत्रका जप करतें रहता हैं वह वेदाध्ययनके फलको प्राप्त करता हैं.
#सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य_बहिरेतत्_त्रिकं_द्विजः ||
#महतोऽप्येनसो_मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते ||मनुः२/७९|| जो द्विज गाँवके बहार(नदी किनारेपर या वनमें)वह तीन(ॐकार,व्याहृति तथा त्रिपदा गायत्रीमंत्र)का एक मासतक प्रतिदिन सहस्र-सहस्र जप करता हैं,वह सांप जैसे अपनी त्वचा से मुक्त होता है, वैसे बड़े पापसे छुट जाता हैं.
#एतयर्चा_विसंयुक्तः_काले_च_क्रियया_स्वया ||
#ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां_याति_साधुषु ||मनुः२/८०|| ब्राह्मण,वैश्य और वैश्य जिन्होंने उपनयन संस्कार होकर द्विजत्वको प्राप्त किया हो,यह गायत्रीमंत्र से रहित(गायत्री मंत्रका जप न करनेवाला तथा योग्य कालकें अपने अग्निहोत्र आदि क्रियाओंसे रहित हो वह निंदा के पात्र हैं.
#ओंकारपूर्विकास्तिस्रो_महाव्याहृतयोऽव्ययाः||
#त्रिपदा_चैव_सावित्री_विज्ञेयं_ब्रह्मणो_मुखम्||मनुः२/८१|| ॐकार पूर्वक तीन अविनाशी महाव्याहृतियाँ तथा तीनपद वाली गायत्रीऋचा को परमात्माके मुखरूप ही जानना चाहिये.
#एकाक्षरं_परं_ब्रह्म_प्राणायामाः_परं_तपः||
#सावित्र्यास्तु_परं_नास्ति_मौनात्सत्यं_विशिष्यते ||मनुः२/८३|| ॐकार यह एकाक्षर परब्रह्म हैं,प्राणायाम यह श्रेष्ठ तप हैं,गायत्रीसे श्रेष्ठ कोई मंत्र नहीं और मौन से अधिक श्रेष्ठ सत्य बोलना हैं,यह चारों अवश्य धारण करने योग्य हैं.
#विधियज्ञाज्जपयज्ञो_विशिष्टो_दशभिर्गुणैः||
#उपांशुः_स्याच्छतगुणः_साहस्रे_मानसः_स्मृतः||मनुः२/८५|| विधियज्ञ(दर्श-पौर्णमास इत्यादि) से जपयज्ञ दशगुना अधिक श्रेष्ठ है;वह जपयज्ञ अर्थात् उपांशुजप(पासमें बैठा हुआ भी न सुन सके ऐसा)मंद उच्चारसे हो वह सोगुना अधिक हैं; और वह जप यदि मानस(होठ़ तथा जिह्वा सहजभी हिले नहीं वैसे सिर्फ मनमें मनन से हो)तो वह जप सहस्रगुना अधिक हैं. आदि अनन्त महिमा हैं.
जपसमय विषयोंका चिंतन सर्वथा त्याग करना चाहिये.जो जपयज्ञमें मंत्रार्थका चिंतन नहीं करता और सांसारिक विषयोंका चिंतन करता रहता हैं वह मात्र मिथ्याचारी और दांभिक हैं..गीतामें भी कहा हैं कि-
#कर्मेन्द्रियाणि_संयम्य_य_आस्ते_मनसा_स्मरन् ||
#इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा_मिथ्याचारः_स_उच्यते ||३/६||
अर्थात् जो मूढात्मा कर्मेन्द्रियोंपर संयम रखकर मन द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंका चिंतन करता रहता हैं,वह मिथ्याचारी ढोंगी कहलाता हैं.इसलिये जप समय सभी तत्त्वोंको प्रसव देनेवाले दिव्यतेजस्वी-सवितादेवका कि जो हमको श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान करतें हैं और हमें सत्कर्म अनुष्ठान आदि के लिये बुद्धि द्वारा प्रेरणा देनेवाले हैं उनका ध्यान करतें हैं.ऐसे परबारह्मका सतत चिंतन करनेसे परब्रह्मको प्राप्त करतें हैं.सूर्यमंडलमें रहे हुए पुरुष को जानकर ही मुक्ति हैं,इसलिये वेदाज्ञासे नित्य ज्ञानपूर्वक,विधिसे तीनोंकालमें स्वस्थमन द्वारा जो सवितानारायण का ध्यान करता हैं,उनको सभी देव वशमें रहतें हैं..स्कंदपुराणमें कहा हैं कि जिसका चित्त सदा परब्रह्म में लीन हो उनका कुल पवित्र,जननी कृतार्थ,भूमि पुण्यवती हो जाती हैं.
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ|| शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड १२९-कात्यायन_परिशिष्टसूत्रोक्त_त्रिकाल-सन्ध्या_प्रयोगः
यह त्रिकाल सन्ध्योपासना का०परि०सूत्रसे हैं,जिस द्विजको सन्ध्यावंदनके लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता वह इस प्रयोगसे अपने नित्यकर्म(तीनों कालकी सन्ध्यावंदन)की पूर्ति कर सकता है, यह त्रिकाल सन्ध्योपासना उपरांत तीनोंकालकी भिन्न-भिन्न विस्तृत सन्ध्योपासना विधि अपने अपने कुलाचार्यों से जानैं..
#अथ_सूत्रोक्त_त्रिकालसन्ध्योपासन_विधिः||
भस्मधारणम्-पहलेसे अभिमंत्रित करकें रखी हुई भस्ममें प्रातःकाल जल मिलाकर,मध्याह्नमें चन्दन तथा जल मिलाकर और सायंकालको निर्जल भस्मको धारण करैं.
(१)ललाटमें-ॐत्र्यायुखन्जमदग्नेः||इति ललाटे||
(२)गलेमें- कश्श्यपस्य त्र्यायुखम्||इति ग्रीवायाम्||
(४)दोनों बाहुपर- जद्देवेखु त्र्यायुखम्||इति बाह्वोः||
(५)हृदयपर-तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुखम्||इति हृदये||
आचमन- दायें हाथमें जल लेकर मंत्र पढैं- ॐ आमागन्यशसा स गूँ स्रेज वरेचसा | तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम् || आचमन करकें, दो बार पुनः मौन होकर बिना मंत्र आचमन करैं.
शिखाबन्धनम्- गायत्रीमन्त्रसे
प्राणायामः- प्रणव,सात व्याहृतियाँ,त्रिपदा गायत्रीमंत्र तथा गायत्रीशिर से तीन प्राणायाम करैं-(यह क्रिया अपने कुलाचार्य या आचार्यसे जान लें)|
न्यासाः-शरीरके अङ्गोका स्पर्श करना_दायें हाथके अग्रभागसे मुखका स्पर्श-ॐ वाङ्ग म ऽआस्येस्तु | तर्जनी और अंगुठेसे नाकका स्पर्श-ॐनर्सोमे प्राणोस्तु | अनामिका और अंगुठेसे दोनों आंखोका स्पर्श-ॐअक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु | मध्यमा और अंगुठेसे दोनों कानका स्पर्श-ॐकर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु | दायें हाथके अग्रभागसे दोनों बाहुका स्पर्श-ॐबाह्वोर्मे बलमस्तु | दोनों हाथसे दोनों घुंटनके उपरी भागका स्पर्श-ॐ ऊर्वोर्मेऽओजोस्तु | शिरसे पैरतक सभी अंगोका दोनों हाथोसे स्पर्श(सारे शरीरपर हाथ फैरना)-ॐ अरिष्टानि मेङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु | हाथ धुएँ
सङ्कल्पः-ॐतत्सत्परमेश्वर प्रीत्यर्थं ( जिस कालकी संध्या करनी हैं उस काल का उच्चार करैं_"प्रातः/मध्याह्न/सायं)सन्ध्योपासनमहं करिष्ये | अर्घ्यदानम्- दोनों हाथकी अञ्जलीमें जल लेकर प्रत्येक बार गायत्री मंत्र पढकर प्रातःकाल तीन(सूर्योदयके बाद ४),मध्याह्नमें१,सायंकाल में ३(सूर्यास्तके बाद तारे निकलनेसे पहले ४) अर्घ्य दैं |
सूर्योपस्थान-ॐतच्चक्षुर्द्देवहित म्पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् | पश्श्येम शरदः शतञ्जीवेम शरदः शत गूँ शृेणुयाम शरदः शतम्प्रब्ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात् ||यजुः२४/३६||
गायत्रीमंत्रजपः- १०८ संख्यामें, २८संख्यामें अथवा १०संख्यामें गायत्रीमंत्र जप करमाला से करैं, करमालाका चित्र बताया हुआ हैं| जप पूर्ण करकें जपसमर्पण करैं
जपसमर्पण सङ्कल्प- अनेन यथाशक्तिः गायत्रीजपाख्येन कर्मणा श्री सविता देवता प्रीयताम् ||
सन्ध्योपासन समयसर करनेसे अभ्यास हो जाता हैं और नित्यक्रम बन जायँगा परंतु समयचूक होतें अभ्यास खंडित होनेसे आलस रह जाती हैं... एक बार अभ्यास हो गया तो समजो कि अपने आप ही समयपर सन्ध्योपासना करनें लगेगे..
यह त्रिकाल सन्ध्योपासना का०परि०सूत्रसे हैं,जिस द्विजको सन्ध्यावंदनके लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता वह इस प्रयोगसे अपने नित्यकर्म(तीनों कालकी सन्ध्यावंदन)की पूर्ति कर सकता है, यह त्रिकाल सन्ध्योपासना उपरांत तीनोंकालकी भिन्न-भिन्न विस्तृत सन्ध्योपासना विधि अपने अपने कुलाचार्यों से जानैं..
#अथ_सूत्रोक्त_त्रिकालसन्ध्योपासन_विधिः||
भस्मधारणम्-पहलेसे अभिमंत्रित करकें रखी हुई भस्ममें प्रातःकाल जल मिलाकर,मध्याह्नमें चन्दन तथा जल मिलाकर और सायंकालको निर्जल भस्मको धारण करैं.
(१)ललाटमें-ॐत्र्यायुखन्जमदग्नेः||इति ललाटे||
(२)गलेमें- कश्श्यपस्य त्र्यायुखम्||इति ग्रीवायाम्||
(४)दोनों बाहुपर- जद्देवेखु त्र्यायुखम्||इति बाह्वोः||
(५)हृदयपर-तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुखम्||इति हृदये||
आचमन- दायें हाथमें जल लेकर मंत्र पढैं- ॐ आमागन्यशसा स गूँ स्रेज वरेचसा | तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम् || आचमन करकें, दो बार पुनः मौन होकर बिना मंत्र आचमन करैं.
शिखाबन्धनम्- गायत्रीमन्त्रसे
प्राणायामः- प्रणव,सात व्याहृतियाँ,त्रिपदा गायत्रीमंत्र तथा गायत्रीशिर से तीन प्राणायाम करैं-(यह क्रिया अपने कुलाचार्य या आचार्यसे जान लें)|
न्यासाः-शरीरके अङ्गोका स्पर्श करना_दायें हाथके अग्रभागसे मुखका स्पर्श-ॐ वाङ्ग म ऽआस्येस्तु | तर्जनी और अंगुठेसे नाकका स्पर्श-ॐनर्सोमे प्राणोस्तु | अनामिका और अंगुठेसे दोनों आंखोका स्पर्श-ॐअक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु | मध्यमा और अंगुठेसे दोनों कानका स्पर्श-ॐकर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु | दायें हाथके अग्रभागसे दोनों बाहुका स्पर्श-ॐबाह्वोर्मे बलमस्तु | दोनों हाथसे दोनों घुंटनके उपरी भागका स्पर्श-ॐ ऊर्वोर्मेऽओजोस्तु | शिरसे पैरतक सभी अंगोका दोनों हाथोसे स्पर्श(सारे शरीरपर हाथ फैरना)-ॐ अरिष्टानि मेङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु | हाथ धुएँ
सङ्कल्पः-ॐतत्सत्परमेश्वर प्रीत्यर्थं ( जिस कालकी संध्या करनी हैं उस काल का उच्चार करैं_"प्रातः/मध्याह्न/सायं)सन्ध्योपासनमहं करिष्ये | अर्घ्यदानम्- दोनों हाथकी अञ्जलीमें जल लेकर प्रत्येक बार गायत्री मंत्र पढकर प्रातःकाल तीन(सूर्योदयके बाद ४),मध्याह्नमें१,सायंकाल में ३(सूर्यास्तके बाद तारे निकलनेसे पहले ४) अर्घ्य दैं |
सूर्योपस्थान-ॐतच्चक्षुर्द्देवहित म्पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् | पश्श्येम शरदः शतञ्जीवेम शरदः शत गूँ शृेणुयाम शरदः शतम्प्रब्ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात् ||यजुः२४/३६||
गायत्रीमंत्रजपः- १०८ संख्यामें, २८संख्यामें अथवा १०संख्यामें गायत्रीमंत्र जप करमाला से करैं, करमालाका चित्र बताया हुआ हैं| जप पूर्ण करकें जपसमर्पण करैं
जपसमर्पण सङ्कल्प- अनेन यथाशक्तिः गायत्रीजपाख्येन कर्मणा श्री सविता देवता प्रीयताम् ||
सन्ध्योपासन समयसर करनेसे अभ्यास हो जाता हैं और नित्यक्रम बन जायँगा परंतु समयचूक होतें अभ्यास खंडित होनेसे आलस रह जाती हैं... एक बार अभ्यास हो गया तो समजो कि अपने आप ही समयपर सन्ध्योपासना करनें लगेगे..
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड १३०-#सायं_प्रातः_अग्नि_परिचर्या||उपनयन संस्कारके बाद ब्रह्मचारीको जबतक ब्रह्मचर्य धारण करना हो तबतक प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल अग्निका परिचरण करना चाहिये..|वर्तमान समय में यह कार्य उपनयन-संस्कारमें ही सिमित हो गया हैं.आचार्य भी इस कार्य का ध्यान रखते हुए अपने बटुकसे यह अग्निपरिचरण करायें..."#उपनीय_गुरुः_शिष्यं_शिक्षयेच्छौचमादितः_||
#आचारमग्निकार्यं_च_संध्योपासनमेव_च_||मनुः२/६९||
__________________________________
यज्ञोपवीत समय जिस अग्निमें उपनयनाङ्ग होम किया हो उस अग्निका कमसे कम तीन रात्रितक ब्रह्मचारी रक्षण करैं(पर्याप्त मात्रामें अग्निमें समिध, काष्ठ या गोबरकंडेके टुकडो़को रखता रहैं..| अथवा यज्ञोपवीतकी अग्निसे घीका अखंड दीपक रखे जब सायं प्रातः काल परिचरण करना हो तब इस दीपककी लौ में से यज्ञपात्रमें काष्ठ,गोबरकंडोंके टुकडो रखकर अग्नि प्रदिप्त करै,...|| यह १यज्ञोपवीतका दिन तथा दो अन्य रात्रितक रक्षण कर अनुष्ठान पूर्ण होनेपर दीपकका अक्षतसे विसर्जन करना चाहिये... #यावद्_व्रतं_तावदग्निरक्षणं_त्रिरात्रं_वा ||
___________________________________
सायंकाल या प्रातःकाल स्नान,सन्ध्योपासना करने के बाद दंड धारण कर करैं..
आचम्य-प्राणानायम्य.| संकल्पः- ॐतत्सत् श्री अग्निस्वरूपी परमेश्वर प्रीतये मम ब्रह्मवर्चस सिद्धिद्वारा सायं(प्रातः)अग्निपरिसमुहनादिकं करिष्ये...
यज्ञोपवीतकी वेदिकापर ही अग्निका रक्षण किया हो तो अग्निपरसे भस्मादिको दूर करकें अग्निको प्रदिप्त करैं(चार अंगुलकी ज्वालावाले)|अथवा दीपककी लौ में से यज्ञपात्रमें अग्नि प्रदिप्त करैं..| कुमकुम,अक्षतसे अग्निका पूजन करैं-ॐसमुद्भवनामाग्नये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतान् समर्पयामि..|
घीवाले गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें दिये हुए मंत्रो पढकर मंत्रके अंतमें रखे..|
(१)ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु.|
(२)ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि..|
(३)ॐएवं मा गूँ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु..|
(४)ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि..|
(५)ॐएवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम् ||
दायें हाथमें जल लेकर ईशानकोणसे आरंभकर प्रदक्षिणा रितिसे ईशानतक वेदिकाकी जलधारा करैं.."" अग्निं परिसमुह्य,,|
ब्रह्मचारी खडे़ रहकर घी वाली बारह अंगुलकी समिध अथवा कुशके टुकडों को मंत्रके अन्तमें स्वाहा बोलकर अग्निमें तीन बार समर्पित करैं..|
(१)ॐ एखातेऽअग्ने समित्तया व्वर्द्धस्वचाप्प्यायस्व.| व्वर्धिखीमहि च व्वयमाचप्प्यासिखीमहि स्वाहा.||२/१४||
उपरोक्त मंत्रसे तीनबार समिध होम करके आसनपर नीचे बैठ जायँ.| फिरसे अग्निमें गोबरकंडोके टुकडों समर्पित करैं.|
(१)ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु.||
(२)ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि..||
(३)ॐएवं मा गूँ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु..||
(४)ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि..||
(५)ॐएवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम् ||
बादमें दोनों हाथके तलवोंकाअग्निपर तपाकर मस्तकसे आरंभकर पैरतक स्पर्श करैं..
ॐवाक् च म आप्यायताम्.||
नासिकाका स्पर्श करैं_" ॐ प्राणश्च म आप्यायताम् ||
दोनों नेत्रोंका स्पर्श_ॐचक्षुश्च म आप्यायताम् ||
दोनों कानका स्पर्श_ॐश्रोत्रं च म आप्यायताम् ||
सारे शरीरका स्पर्श_ॐयशोबलं च म आप्यायताम् ||
होम किए हुए अग्निमेंसे भस्म लेकर शरीरके पाँचो अङ्गोपर तीनतीन रेखाकर भस्म धारण करैं.(१)ललाटमें-ॐत्र्यायुखन्जमदग्नेः||इति ललाटे||
(२)गलेमें- कश्श्यपस्य त्र्यायुखम्||इति ग्रीवायाम्||
(४)दोनों बाहुपर- जद्देवेखु त्र्यायुखम्||इति बाह्वोः||
(५)हृदयपर-तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुखम्||इति हृदये||
हाथ धोकर,, ब्रह्मचारी अपना गोत्र नाम बोलकर वैश्वानर आदिको अभिवादन करैं..(दायें हाथके अग्रभागसे बायाँकान तथा बायें हाथसे दायाँकान × पकड़कर प्रत्येक बार अपना सिर झुकाते हुए)__ अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुक शर्मा अहं
(१)भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि.|
(२)भो गुरो त्वां अभिवादयामि.|
(३)भो आचार्य त्वां अभिवादयामि.|
(४)भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि.|
(५)भो सूर्याचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि.|
संकल्पः- अनेन सायं(प्रातः)अग्निपरिचरणेन अग्निस्वरूपी परमेश्वरः प्रीयताम् न मम ||
#आचारमग्निकार्यं_च_संध्योपासनमेव_च_||मनुः२/६९||
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यज्ञोपवीत समय जिस अग्निमें उपनयनाङ्ग होम किया हो उस अग्निका कमसे कम तीन रात्रितक ब्रह्मचारी रक्षण करैं(पर्याप्त मात्रामें अग्निमें समिध, काष्ठ या गोबरकंडेके टुकडो़को रखता रहैं..| अथवा यज्ञोपवीतकी अग्निसे घीका अखंड दीपक रखे जब सायं प्रातः काल परिचरण करना हो तब इस दीपककी लौ में से यज्ञपात्रमें काष्ठ,गोबरकंडोंके टुकडो रखकर अग्नि प्रदिप्त करै,...|| यह १यज्ञोपवीतका दिन तथा दो अन्य रात्रितक रक्षण कर अनुष्ठान पूर्ण होनेपर दीपकका अक्षतसे विसर्जन करना चाहिये... #यावद्_व्रतं_तावदग्निरक्षणं_त्रिरात्रं_वा ||
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सायंकाल या प्रातःकाल स्नान,सन्ध्योपासना करने के बाद दंड धारण कर करैं..
आचम्य-प्राणानायम्य.| संकल्पः- ॐतत्सत् श्री अग्निस्वरूपी परमेश्वर प्रीतये मम ब्रह्मवर्चस सिद्धिद्वारा सायं(प्रातः)अग्निपरिसमुहनादिकं करिष्ये...
यज्ञोपवीतकी वेदिकापर ही अग्निका रक्षण किया हो तो अग्निपरसे भस्मादिको दूर करकें अग्निको प्रदिप्त करैं(चार अंगुलकी ज्वालावाले)|अथवा दीपककी लौ में से यज्ञपात्रमें अग्नि प्रदिप्त करैं..| कुमकुम,अक्षतसे अग्निका पूजन करैं-ॐसमुद्भवनामाग्नये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतान् समर्पयामि..|
घीवाले गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें दिये हुए मंत्रो पढकर मंत्रके अंतमें रखे..|
(१)ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु.|
(२)ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि..|
(३)ॐएवं मा गूँ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु..|
(४)ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि..|
(५)ॐएवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम् ||
दायें हाथमें जल लेकर ईशानकोणसे आरंभकर प्रदक्षिणा रितिसे ईशानतक वेदिकाकी जलधारा करैं.."" अग्निं परिसमुह्य,,|
ब्रह्मचारी खडे़ रहकर घी वाली बारह अंगुलकी समिध अथवा कुशके टुकडों को मंत्रके अन्तमें स्वाहा बोलकर अग्निमें तीन बार समर्पित करैं..|
(१)ॐ एखातेऽअग्ने समित्तया व्वर्द्धस्वचाप्प्यायस्व.| व्वर्धिखीमहि च व्वयमाचप्प्यासिखीमहि स्वाहा.||२/१४||
उपरोक्त मंत्रसे तीनबार समिध होम करके आसनपर नीचे बैठ जायँ.| फिरसे अग्निमें गोबरकंडोके टुकडों समर्पित करैं.|
(१)ॐ अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मा कुरु.||
(२)ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि..||
(३)ॐएवं मा गूँ सुश्रवः सौश्रवसं कुरु..||
(४)ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि..||
(५)ॐएवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम् ||
बादमें दोनों हाथके तलवोंकाअग्निपर तपाकर मस्तकसे आरंभकर पैरतक स्पर्श करैं..
ॐवाक् च म आप्यायताम्.||
नासिकाका स्पर्श करैं_" ॐ प्राणश्च म आप्यायताम् ||
दोनों नेत्रोंका स्पर्श_ॐचक्षुश्च म आप्यायताम् ||
दोनों कानका स्पर्श_ॐश्रोत्रं च म आप्यायताम् ||
सारे शरीरका स्पर्श_ॐयशोबलं च म आप्यायताम् ||
होम किए हुए अग्निमेंसे भस्म लेकर शरीरके पाँचो अङ्गोपर तीनतीन रेखाकर भस्म धारण करैं.(१)ललाटमें-ॐत्र्यायुखन्जमदग्नेः||इति ललाटे||
(२)गलेमें- कश्श्यपस्य त्र्यायुखम्||इति ग्रीवायाम्||
(४)दोनों बाहुपर- जद्देवेखु त्र्यायुखम्||इति बाह्वोः||
(५)हृदयपर-तन्नोऽ अस्तु त्र्यायुखम्||इति हृदये||
हाथ धोकर,, ब्रह्मचारी अपना गोत्र नाम बोलकर वैश्वानर आदिको अभिवादन करैं..(दायें हाथके अग्रभागसे बायाँकान तथा बायें हाथसे दायाँकान × पकड़कर प्रत्येक बार अपना सिर झुकाते हुए)__ अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुक शर्मा अहं
(१)भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि.|
(२)भो गुरो त्वां अभिवादयामि.|
(३)भो आचार्य त्वां अभिवादयामि.|
(४)भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि.|
(५)भो सूर्याचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि.|
संकल्पः- अनेन सायं(प्रातः)अग्निपरिचरणेन अग्निस्वरूपी परमेश्वरः प्रीयताम् न मम ||
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड १३२-
#प्रमादाद्_यज्ञोपवीत_नाशे_प्रायश्चित्तम्
जिस द्विजोको विधिवत् वेदमार्गसे#यथाकालं_यथाक्रमम्" वर्णानुसार बतायें हुए वर्षोमें तथा गर्भाधानादि क्रमसे चौलसंस्कार पश्चात् यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न हुए हो वह द्विजसे असावधानीसे यज्ञोपवीत निकल गया हो, या नाश हो गया हो,तो तुरंत ही लौकिक(आवाहन किये बिना तथा बिना मंत्रसे जनेऊ धारण करकें)यह प्रायश्चित्तकर नया यज्ञोपवीत धारण करैं.|(#विना_यज्ञोपवीतेन_विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि.| #उपवास_द्वयं_कृत्वा_दानैर्होमैस्तु_शुद्ध्यति.|| #विना_यज्ञोपवीतेन_तोयं_यः_पिबते_द्विजः_| #उपवासेन_चैकेन_पञ्चगव्येन_शुद्ध्यति.|) जनेऊ न रहनेपर जिस द्विजने खाया,मूत्रोत्सर्ग या शौच(मलत्याग)किया हो तो उसे यह विधान करनेके बाद आठहजार(१०८ मणि वाली मालासे ८०माला)गायत्री का मंत्र जप करना चाहिये..|
जिसने यज्ञोपवीतके नाश होनेके बाद यज्ञोपवीत रहित होकर पानी पीया हो वह एक उपवास(केवल पञ्चगव्यके प्राशनपर रहकर)करै-अथवा १उपवास प्रत्याम्नाय निमित्त सहस्रगायत्रीमंत्रजप करै.|-> जिस द्विज के कंधेसे,कोहनीसे या मणिबंध(कांडे)से यज्ञोपवीत निकल जायँ तो उस यज्ञोपवीतको पुनः(यथास्थान)कंधेपर धारण करके केवल कंधेपरसे निकल जानेसे तीन,कोहनीसे निकल जानेपर छह, तथा मणिबंध से निकल जानेपर नव प्राणायाम करके नया यज्ञोपवीत धारण करै.| जिस द्विजने क्रोधादिसे यज्ञोपवीत निकाल दिया हो तो लौकिक जनेऊ धारण करके प्रायश्चित्त करनेके बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै..
#वामस्कन्धात्_कूर्परे_मणिबन्धान्ते #वा_पतिते_यथास्थानं_धृत्वा_त्रीन्षट्_वा_यथाक्रमं_प्राणायामान्_कृत्वा_नवं_धारयेत्
(यथाक्रमसे कंधे से कोहनी तक निकलजाने पर ३, कोहनी से मणिबंध तक निकलजाने से ६ प्राणायाम करें )परंतु यदि यज्ञोपवीत निकलजानेपर भी नया धारण न किया हो ओर एकदिन से अधिक दिन हो जाये तो लौकिक धारण करकें प्रायश्चित्त के बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै तथा तीनकृच्छ्रव्रत या बारहहजार गायत्री मंत्रका जप करै..
हद तो यहाँ तक हैं कि यज्ञोमें यजमानद्विजोने कितनेभी दिनोंसे यज्ञोपवीत धारण न किया हो तो भी कोई कोई आचार्य बिना प्रायश्चित्त करायें यज्ञोपवीत पहनाकर यज्ञका अधिकार दे देते है..
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#अथ_यज्ञोपवीतनाशे_प्रायश्चित्तम्-
यज्ञोपवीतं प्रमादाद् गतं चेत् तूष्णीं लौकिकं धृत्वा संकल्पः- देशकालौ संकीर्त्य__मम यज्ञोपवीत नाशजन्य दोष परिहारार्थ प्रायश्चित्ताङ्गभूतम् आज्य होमं करिष्ये..
स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य.| ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्ते- इदं आज्यं या या यक्ष्माणदेवताः ताभ्योस्ताभ्यः मया परित्यक्तं न मम... ॐभूर्भुवःस्वःविट् नामाग्नये नमः इत्यग्निं सम्पूज्य.| मन्त्रचतुष्टयेन चतस्र आज्याहुतीर्जुहुयात्-
(१)ॐमनोज्योतिर्जुखतामाज्यं विच्छिन्नं यज्ञं साममन्दधातु.| स्वाहा या इष्टा उखसो निम्रुचश्च ताः सन्दधामि हविषा घृतेन स्वाहा...||
(२)ॐअग्ने व्रतपते व्रतं चरिख्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यतां स्वाहा..||
(३)ॐवायो व्रतपते व्रतं चरिख्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यतां स्वाहा..||
(४)ॐआदित्य व्रतपते व्रतं चरिख्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यतां स्वाहा..|| भूरादिनवाहुतयश्च स्विष्टकृतं हुत्वा...संस्रव प्राशनादिकं कुर्यात्..|अनेन यज्ञोपवीतनाशजन्य दोष परिहारार्थ प्रायश्चिताङ्गाज्य होम कर्मणा परमेश्वरः प्रीयताम्_तेन नूतन यज्ञोपवीत धारण अधिकारोस्तु.. विधिना नूतन यज्ञोपवीतं धारयेत्..|
#प्रमादाद्_यज्ञोपवीत_नाशे_प्रायश्चित्तम्
जिस द्विजोको विधिवत् वेदमार्गसे#यथाकालं_यथाक्रमम्" वर्णानुसार बतायें हुए वर्षोमें तथा गर्भाधानादि क्रमसे चौलसंस्कार पश्चात् यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न हुए हो वह द्विजसे असावधानीसे यज्ञोपवीत निकल गया हो, या नाश हो गया हो,तो तुरंत ही लौकिक(आवाहन किये बिना तथा बिना मंत्रसे जनेऊ धारण करकें)यह प्रायश्चित्तकर नया यज्ञोपवीत धारण करैं.|(#विना_यज्ञोपवीतेन_विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि.| #उपवास_द्वयं_कृत्वा_दानैर्होमैस्तु_शुद्ध्यति.|| #विना_यज्ञोपवीतेन_तोयं_यः_पिबते_द्विजः_| #उपवासेन_चैकेन_पञ्चगव्येन_शुद्ध्यति.|) जनेऊ न रहनेपर जिस द्विजने खाया,मूत्रोत्सर्ग या शौच(मलत्याग)किया हो तो उसे यह विधान करनेके बाद आठहजार(१०८ मणि वाली मालासे ८०माला)गायत्री का मंत्र जप करना चाहिये..|
जिसने यज्ञोपवीतके नाश होनेके बाद यज्ञोपवीत रहित होकर पानी पीया हो वह एक उपवास(केवल पञ्चगव्यके प्राशनपर रहकर)करै-अथवा १उपवास प्रत्याम्नाय निमित्त सहस्रगायत्रीमंत्रजप करै.|-> जिस द्विज के कंधेसे,कोहनीसे या मणिबंध(कांडे)से यज्ञोपवीत निकल जायँ तो उस यज्ञोपवीतको पुनः(यथास्थान)कंधेपर धारण करके केवल कंधेपरसे निकल जानेसे तीन,कोहनीसे निकल जानेपर छह, तथा मणिबंध से निकल जानेपर नव प्राणायाम करके नया यज्ञोपवीत धारण करै.| जिस द्विजने क्रोधादिसे यज्ञोपवीत निकाल दिया हो तो लौकिक जनेऊ धारण करके प्रायश्चित्त करनेके बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै..
#वामस्कन्धात्_कूर्परे_मणिबन्धान्ते #वा_पतिते_यथास्थानं_धृत्वा_त्रीन्षट्_वा_यथाक्रमं_प्राणायामान्_कृत्वा_नवं_धारयेत्
(यथाक्रमसे कंधे से कोहनी तक निकलजाने पर ३, कोहनी से मणिबंध तक निकलजाने से ६ प्राणायाम करें )परंतु यदि यज्ञोपवीत निकलजानेपर भी नया धारण न किया हो ओर एकदिन से अधिक दिन हो जाये तो लौकिक धारण करकें प्रायश्चित्त के बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै तथा तीनकृच्छ्रव्रत या बारहहजार गायत्री मंत्रका जप करै..
हद तो यहाँ तक हैं कि यज्ञोमें यजमानद्विजोने कितनेभी दिनोंसे यज्ञोपवीत धारण न किया हो तो भी कोई कोई आचार्य बिना प्रायश्चित्त करायें यज्ञोपवीत पहनाकर यज्ञका अधिकार दे देते है..
___________________________________
#अथ_यज्ञोपवीतनाशे_प्रायश्चित्तम्-
यज्ञोपवीतं प्रमादाद् गतं चेत् तूष्णीं लौकिकं धृत्वा संकल्पः- देशकालौ संकीर्त्य__मम यज्ञोपवीत नाशजन्य दोष परिहारार्थ प्रायश्चित्ताङ्गभूतम् आज्य होमं करिष्ये..
स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य.| ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्ते- इदं आज्यं या या यक्ष्माणदेवताः ताभ्योस्ताभ्यः मया परित्यक्तं न मम... ॐभूर्भुवःस्वःविट् नामाग्नये नमः इत्यग्निं सम्पूज्य.| मन्त्रचतुष्टयेन चतस्र आज्याहुतीर्जुहुयात्-
(१)ॐमनोज्योतिर्जुखतामाज्यं विच्छिन्नं यज्ञं साममन्दधातु.| स्वाहा या इष्टा उखसो निम्रुचश्च ताः सन्दधामि हविषा घृतेन स्वाहा...||
(२)ॐअग्ने व्रतपते व्रतं चरिख्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यतां स्वाहा..||
(३)ॐवायो व्रतपते व्रतं चरिख्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यतां स्वाहा..||
(४)ॐआदित्य व्रतपते व्रतं चरिख्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यतां स्वाहा..|| भूरादिनवाहुतयश्च स्विष्टकृतं हुत्वा...संस्रव प्राशनादिकं कुर्यात्..|अनेन यज्ञोपवीतनाशजन्य दोष परिहारार्थ प्रायश्चिताङ्गाज्य होम कर्मणा परमेश्वरः प्रीयताम्_तेन नूतन यज्ञोपवीत धारण अधिकारोस्तु.. विधिना नूतन यज्ञोपवीतं धारयेत्..|
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड १३३-
#प्रमादाद्_यज्ञोपवीत_नाशे_प्रायश्चित्त_ #प्रकार_२_सर्ववेदशाखासम्मतम् गायत्रीमंत्रैर्होम_विधानेन-
#प्रमादाद्_यज्ञोपवीत_नाशे_प्रायश्चित्त_ #प्रकार_२_सर्ववेदशाखासम्मतम् गायत्रीमंत्रैर्होम_विधानेन-
जिस द्विजोको विधिवत् वेदमार्गसे#यथाकालं_यथाक्रमम्" वर्णानुसार बतायें हुए वर्षोमें तथा गर्भाधानादि क्रमसे चौलसंस्कार पश्चात् यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न हुए हो वह द्विजसे असावधानीसे यज्ञोपवीत निकल गया हो, या नाश हो गया हो,तो तुरंत ही लौकिक(आवाहन किये बिना तथा बिना मंत्रसे जनेऊ धारण करकें)यह प्रायश्चित्तकर नया यज्ञोपवीत धारण करैं.|(#विना_यज्ञोपवीतेन_विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि.| #उपवास_द्वयं_कृत्वा_दानैर्होमैस्तु_शुद्ध्यति.|| #विना_यज्ञोपवीतेन_तोयं_यः_पिबते_द्विजः_| #उपवासेन_चैकेन_पञ्चगव्येन_शुद्ध्यति.|) कंधेपर जनेऊ न रहनेपर जिस द्विजने खाया,मूत्रोत्सर्ग या शौच(मलत्याग)किया हो तो उसे यह विधान करनेके बाद आठहजार(१०८ मणि वाली मालासे ८०माला)गायत्री का मंत्र जप करना चाहिये..|
जिसने यज्ञोपवीतके नाश होनेके बाद यज्ञोपवीत रहित होकर पानी पीया हो वह एक उपवास(केवल पञ्चगव्यके प्राशनपर रहकर)करै-अथवा १उपवास प्रत्याम्नाय निमित्त सहस्रगायत्रीमंत्रजप करै.|-> जिस द्विज के कंधेसे,कोहनीसे या मणिबंध(कांडे)से यज्ञोपवीत निकल जायँ तो उस यज्ञोपवीतको पुनः(यथास्थान)कंधेपर धारण करके केवल कंधेपरसे निकल जानेसे तीन,कोहनीसे निकल जानेपर छह, तथा मणिबंध से निकल जानेपर नव प्राणायाम करके नया यज्ञोपवीत धारण करै.| जिस द्विजने क्रोधादिसे यज्ञोपवीत निकाल दिया हो तो लौकिक जनेऊ धारण करके प्रायश्चित्त करनेके बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै..
#वामस्कन्धात्_कूर्परे_मणिबन्धान्ते_वा_पतिते_यथास्थानं_धृत्वा_त्रीन्षट्_वा_यथाक्रमं_प्राणायामान्_कृत्वा_नवं_धारयेत्
(यथाक्रमसे कंधा,कोहनी तथा मणिबंध पहला क्रम तीनका + फिर कोहनीके दूसरे क्रम ३+३=६ और तीसरा क्रम मणिबंधसे ३+३+३=९ प्राणायाम हुए.) परंतु यदि यज्ञोपवीत निकलजानेपर भी नया धारण न किया हो ओर एकदिन से अधिक दिन हो जाये तो लौकिक धारण करकें प्रायश्चित्त के बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै तथा तीनकृच्छ्रव्रत या बारहहजार गायत्री मंत्रका जप करै..
हद तो यहाँ तक हैं कि यज्ञोमें यजमानद्विजोने कितनेभी दिनोंसे यज्ञोपवीत धारण न किया हो तो भी कोई कोई आचार्य बिना प्रायश्चित्त करायें यज्ञोपवीत पहनाकर यज्ञका अधिकार दे देते है..
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यज्ञोपवीतं प्रमादाद् गतं चेत् तूष्णीं लौकिकं धृत्वा-
आचम्य_प्राणानायम्य..| सङ्कल्पः- देशकालौ संकीर्तनान्ते_ मम यज्ञोपवीत नाशजन्यदोष निरासार्थं प्रायश्चित्तं करिष्ये..
आचार्य वरण.../स्थंडिले अग्निप्रतिष्ठाप्य,,, अन्वाध्यायेत्-समिद्वयं गृहित्वा प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याहुत्या..| सवितारं गायत्र्या तिलैराज्येन च अष्टोत्तरशत संख्यकाभिराहुतिभिः(वा_सहस्रसंख्यकाभिराहुतिभिः)_अग्निं_वायुं_सूर्यं_अग्निवरुणौ_अग्निवरुणौ_अग्निं_वरुणं_सवितारं_विष्णुं_
विश्वान्देवान्_मरुतः_स्वर्कान्_वरुणं_आदित्यं_अदितीं_प्रजापतिं_हुतशेषेणाग्निं स्विष्टकृतम्_प्रायश्चित्त_कर्मण्यहं_यक्ष्ये_ समिद्वयंअग्नावादध्यात्.. ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्ते_ ॐभूर्भुवःस्वः विट् नामाग्नये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि इत्यग्निं सम्पूज्य..| तिलाज्यैः गायत्रीमंत्रेण १०८/१०००वारं हुत्वा नवाहुतयश्च स्विष्टकृतं जुहुयात् || संस्रव प्राशनादिकं कुर्यात्..|अनेन यज्ञोपवीतनाशजन्य दोष परिहारार्थ प्रायश्चिताङ्गाज्य होम कर्मणा परमेश्वरः प्रीयताम्_तेन नूतन यज्ञोपवीत धारण अधिकारोस्तु.. विधिना नूतन यज्ञोपवीतं धारयेत्..|
जिसने यज्ञोपवीतके नाश होनेके बाद यज्ञोपवीत रहित होकर पानी पीया हो वह एक उपवास(केवल पञ्चगव्यके प्राशनपर रहकर)करै-अथवा १उपवास प्रत्याम्नाय निमित्त सहस्रगायत्रीमंत्रजप करै.|-> जिस द्विज के कंधेसे,कोहनीसे या मणिबंध(कांडे)से यज्ञोपवीत निकल जायँ तो उस यज्ञोपवीतको पुनः(यथास्थान)कंधेपर धारण करके केवल कंधेपरसे निकल जानेसे तीन,कोहनीसे निकल जानेपर छह, तथा मणिबंध से निकल जानेपर नव प्राणायाम करके नया यज्ञोपवीत धारण करै.| जिस द्विजने क्रोधादिसे यज्ञोपवीत निकाल दिया हो तो लौकिक जनेऊ धारण करके प्रायश्चित्त करनेके बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै..
#वामस्कन्धात्_कूर्परे_मणिबन्धान्ते_वा_पतिते_यथास्थानं_धृत्वा_त्रीन्षट्_वा_यथाक्रमं_प्राणायामान्_कृत्वा_नवं_धारयेत्
(यथाक्रमसे कंधा,कोहनी तथा मणिबंध पहला क्रम तीनका + फिर कोहनीके दूसरे क्रम ३+३=६ और तीसरा क्रम मणिबंधसे ३+३+३=९ प्राणायाम हुए.) परंतु यदि यज्ञोपवीत निकलजानेपर भी नया धारण न किया हो ओर एकदिन से अधिक दिन हो जाये तो लौकिक धारण करकें प्रायश्चित्त के बाद नया यज्ञोपवीत धारण करै तथा तीनकृच्छ्रव्रत या बारहहजार गायत्री मंत्रका जप करै..
हद तो यहाँ तक हैं कि यज्ञोमें यजमानद्विजोने कितनेभी दिनोंसे यज्ञोपवीत धारण न किया हो तो भी कोई कोई आचार्य बिना प्रायश्चित्त करायें यज्ञोपवीत पहनाकर यज्ञका अधिकार दे देते है..
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यज्ञोपवीतं प्रमादाद् गतं चेत् तूष्णीं लौकिकं धृत्वा-
आचम्य_प्राणानायम्य..| सङ्कल्पः- देशकालौ संकीर्तनान्ते_ मम यज्ञोपवीत नाशजन्यदोष निरासार्थं प्रायश्चित्तं करिष्ये..
आचार्य वरण.../स्थंडिले अग्निप्रतिष्ठाप्य,,, अन्वाध्यायेत्-समिद्वयं गृहित्वा प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याहुत्या..| सवितारं गायत्र्या तिलैराज्येन च अष्टोत्तरशत संख्यकाभिराहुतिभिः(वा_सहस्रसंख्यकाभिराहुतिभिः)_अग्निं_वायुं_सूर्यं_अग्निवरुणौ_अग्निवरुणौ_अग्निं_वरुणं_सवितारं_विष्णुं_
विश्वान्देवान्_मरुतः_स्वर्कान्_वरुणं_आदित्यं_अदितीं_प्रजापतिं_हुतशेषेणाग्निं स्विष्टकृतम्_प्रायश्चित्त_कर्मण्यहं_यक्ष्ये_ समिद्वयंअग्नावादध्यात्.. ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्ते_ ॐभूर्भुवःस्वः विट् नामाग्नये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि इत्यग्निं सम्पूज्य..| तिलाज्यैः गायत्रीमंत्रेण १०८/१०००वारं हुत्वा नवाहुतयश्च स्विष्टकृतं जुहुयात् || संस्रव प्राशनादिकं कुर्यात्..|अनेन यज्ञोपवीतनाशजन्य दोष परिहारार्थ प्रायश्चिताङ्गाज्य होम कर्मणा परमेश्वरः प्रीयताम्_तेन नूतन यज्ञोपवीत धारण अधिकारोस्तु.. विधिना नूतन यज्ञोपवीतं धारयेत्..|
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्)खंड १३५-
#पुनः_यज्ञोपवीत_आवश्यकता-
"(विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे। अपराह्णे चोपनीतः पुनः संस्कार मर्हति ।।"अपराह्ण स्त्रिधा विभक्तदिनतृतीयांशः। वसन्ते गलग्रहो न दोषायेत्यर्थः।। नारदः।।)"
नारदजी कहतें हैं कि वसन्तसे पृथक ऋतु कृष्णपक्ष और गलग्रहमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं,दिनके तीसरे भागको अपराह्ण कहा हैं वसंतऋतुमें गलग्रहका दोष नहीं हैं।
"(कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादि दिनत्रयम्। त्रयोदशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः।।नारदः।। )" नारदजीका कहना है- कृष्णपक्षकी चौथ और सप्तमीसे तीनदिन तथा त्रयोदशीसे चारदिन यह गलग्रह तिथियाँ हैं।
"(पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेपि च। अनध्याये चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति।।अनध्यायस्य पूर्वेद्युस्तस्य चैवापरेहनि। व्रतबन्धं विसर्गं च विद्यारम्भं न कारयेत्।।वसिष्ठः।।)"
वसिष्ठजीने कहा हैं कि पापके नवांशमें चन्द्रमा हो अथवा शत्रूघरका नीचका चन्द्रमा हो अथवा अनध्याय हो ऐसे योगमें जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं।
"( #सन्ध्यातिक्रमणंयस्य सप्तरात्रमपिच्युतम् | उन्मादादोषयुक्तोपि पनः संस्कार मर्हति || शौनकः ||)"
सातदिनतक सन्ध्योपासना से च्युत द्विजों, चाहे वह उन्मादादिदोष से युक्त हो तो भी (प्रायश्चित्त पूर्वक) पुनः संस्कार के योग्य हैं..
"(#लशुनं गृञ्जनं जग्ध्वा पलाण्डुं च तथा शुनम् । उष्ट्रमानुषकेभाश्वरासभीक्षीरभोजनात्।। उपानयं पुनः कुर्यात्तप्तकृच्छ्रं चरेन्मुहुः।।शातातपः।।)
"शातातपने पारिजातमें कहा हैं कि लहसुन, गाजर, सलगम, खानेवाला और कुत्ती,ऊंटनी, मनुष्यस्त्री, हथिनी, घोडी, गधी इन सबके दूधको पीनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। तथा वारं वार तप्तकृच्छ्र व्रत तो करैं ही।
"(जीवन्यदि समागच्छेद्घृतकुम्भे निमज्ज्य च। उद्धृत्य स्नापयित्वास्य जातकर्मादि कारयेत्।।हेमाद्रौ मनुः।।)" मरने के बाद मनुष्य फिर जीता हुआ आ जाय तो घी भरे घडें में डूबकी लगाकर और स्नान करके इसके जातकर्म आदि संस्कार करैं(अर्थात् जिस संस्कारमें प्रवेश कर चूंका हो तबतककें मृतिसंस्कार के बिना सब संस्कार करैं)।
" (प्रेतशय्या प्रतिग्राही पुनः संस्कारमर्हति।। पाद्मे।।)"
पद्मपुराणमें लिखा हैं कि प्रेतशय्याका प्रतिग्रह(ग्रहण)करनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं।
"(#सिन्धुसौवीरसौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यन्तवासिनः। अङ्गवङ्गकलिङ्गांश्च गत्वा संस्कारमर्हति ।।बौधायनचन्द्रिका।।)"
सिंधु,सौवीर('सौवीर' सिंधु देश का ही एक भाग),सौराष्ट्र,और प्रत्यन्तवासी(जो विरक्त अथवा संन्यासी अथवा अनशनव्रतका करनेवाला फिर गृहस्थमें आनेकी इच्छा करै तो),अंग(युरोप),बंग(बंगाल),कलिंग(भिन्नमाल)देशोमें जानेसे फिर संस्कारके योग्य होता हैं।
"(सौराष्ट्रसिंधु सौवीरमवन्तीदक्षिणापथम्। एतानि ब्राह्मणो गत्वा पुनः संस्कारमर्हति।।निर्णयसिंधु।। )"
सौराष्ट्र,सिंधु,सौवीर('सौवीर' सिंधु देश का ही एक भाग)उज्जैन, दक्षिणकामार्ग(भारत देशसे दक्षिणका पथ),इसमें ब्राह्मण जाकर फिर संस्कारके योग्य होता हैं | अर्थात् बिना यात्राके जा नहीं सकते और यात्रा का विधान विधिपूर्वक पैदल हैं | तथा कहै हुए प्रदेशोंमें स्थायी रहने वालों द्विजोंको नहीं.।
"(खरमुष्ट्रञ्च महिषमनड्वाहमजं तथा। बस्तमारुह्य मुखजः क्रोशे चान्द्रं विनर्दिशेत्।। गौतमः।।")"
गौतमका वाक्य हैं कि जो ब्राह्मण!गर्दभ,उंट, भैंसा, बैल, बकरा, तथा मेढेपर कोशभर चढकर चलें तो चांद्रायण करैं।
"(खरमारुह्य विप्रस्तु योजनं यदि गच्छति। तप्तकृच्छ्रत्रयं प्रोक्तं शरीरस्य विशोधनम्।।मार्कण्डेय।।)"
मार्कण्डेयने कहा हैं- यदि ब्राह्मण!गधेपर सवारीकर योजनभर चलें तो तीन तप्तकृच्छ्रसे उसका शरीर शुद्ध होता हैं। पुनर्जन्म प्रकुर्वीत घृतगर्भ विधानतः।। " तथा घीभरे घडेमें डूबकी लगाकर फिर जनन- संस्कार करैं।" "(अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंसृष्टमेव च। पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः।। मनुः।। )"
मनुजी कहतें हैं कि तीनों द्विजातिवर्ण;अज्ञानसे विष्ठा मूत्र और मदिरामिश्रित वस्तु खाकर फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं।
"(यःप्रत्यवसितो विप्रः प्रवज्यातो विनिर्गतः। अनाशकनिवृत्तश्च गार्हस्थ्यं चेच्चिकीर्षति।।सञ्चरेत् त्रीणि कृच्छ्राणि त्रीणि चान्द्रायणानि च। जातकर्मादिभिः सर्वैः संस्कृतःशुद्धिमाप्नुयात्।।पराशरः।।)"
मिताक्षरामें पराशरजी का कथन हैं कि जो विरक्त अथवा संन्यासी अथवा अनशनव्रतका करनेवाला फिर गृहस्थमें आनेकी इच्छा करै तो वह तीन कृच्छ्र और तीन चान्द्रायण करै.और जातकर्म आदि यज्ञोपवीतपर्यन्तके संस्कारोंको फिर करके शुद्ध होता है।
"(कर्मनाशाजलस्पर्शात्करतोयाविलंघनात्। गण्डकी बाहुतरणात् पुनः संस्कारमर्हति।।त्रिस्थलीसेतु।।)"
कर्मनाशा नदीके जलस्पर्श से और करतोया नदीको लंघनेसे तथा गंडकी नदीको भुजाओंसे तैरनेसे फिर संस्कार योग्य होता हैं(स्नान करनेसे नहीं)|
"(#वपनं_दक्षिणादानं_मेखला_दण्डमजिन_भैक्ष्यचर्या_व्रतानि_च | #निवर्तन्ते_पुनः_संस्कार_कर्मणि।। )"
द्विजातियोंके पुनः यज्ञोपवीत संस्कारमें मुंडन, मेखलादान,मृगचर्म, भिक्षाटन व्रत नहीं होतें।"अजिनं मेखला दंडो भैक्ष्यचर्यो व्रतानि च। निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनः संस्कार कर्मणि।।पराशर।। द्विजातियोंको मृगचर्म,मेखला,दंड, भिक्षाचरण, व्रतादेश आदि पुनः यज्ञोपवीतमें नहीं होता।
"(पित्रादिव्यतिरेकेन ब्रह्मचारिणः प्रेतकर्मकरणे"(अंत्येष्ठी समारभ्य यावत् सपिंडीकरणेषु)"पुनरुपनयनमित्यपरार्कादयः।। आश्वालायन गृह्यसू।।")
पिता आदि(दश पैढी तक)से भिन्नका यदि प्रेतकर्म ब्रह्मचारी करैं तो पुनः यज्ञोपवीतके योग्य होता हैं यह अपरार्क आदिने कहा हैं।
किसी मदीरा पीनेवाले व्यक्ति से छूये पात्र में खानपान करने से प्रायश्चित्त कर पुनः उपनयन संस्कार के योग्य होता हैं-- यह नियम आजके हॉटलभोज तथा बाजारी पेयपान के विषय में हैं ----------->
#पुनः_यज्ञोपवीत_आवश्यकता-
"(विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे। अपराह्णे चोपनीतः पुनः संस्कार मर्हति ।।"अपराह्ण स्त्रिधा विभक्तदिनतृतीयांशः। वसन्ते गलग्रहो न दोषायेत्यर्थः।। नारदः।।)"
नारदजी कहतें हैं कि वसन्तसे पृथक ऋतु कृष्णपक्ष और गलग्रहमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं,दिनके तीसरे भागको अपराह्ण कहा हैं वसंतऋतुमें गलग्रहका दोष नहीं हैं।
"(कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादि दिनत्रयम्। त्रयोदशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः।।नारदः।। )" नारदजीका कहना है- कृष्णपक्षकी चौथ और सप्तमीसे तीनदिन तथा त्रयोदशीसे चारदिन यह गलग्रह तिथियाँ हैं।
"(पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेपि च। अनध्याये चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति।।अनध्यायस्य पूर्वेद्युस्तस्य चैवापरेहनि। व्रतबन्धं विसर्गं च विद्यारम्भं न कारयेत्।।वसिष्ठः।।)"
वसिष्ठजीने कहा हैं कि पापके नवांशमें चन्द्रमा हो अथवा शत्रूघरका नीचका चन्द्रमा हो अथवा अनध्याय हो ऐसे योगमें जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं।
"( #सन्ध्यातिक्रमणंयस्य सप्तरात्रमपिच्युतम् | उन्मादादोषयुक्तोपि पनः संस्कार मर्हति || शौनकः ||)"
सातदिनतक सन्ध्योपासना से च्युत द्विजों, चाहे वह उन्मादादिदोष से युक्त हो तो भी (प्रायश्चित्त पूर्वक) पुनः संस्कार के योग्य हैं..
"(#लशुनं गृञ्जनं जग्ध्वा पलाण्डुं च तथा शुनम् । उष्ट्रमानुषकेभाश्वरासभीक्षीरभोजनात्।। उपानयं पुनः कुर्यात्तप्तकृच्छ्रं चरेन्मुहुः।।शातातपः।।)
"शातातपने पारिजातमें कहा हैं कि लहसुन, गाजर, सलगम, खानेवाला और कुत्ती,ऊंटनी, मनुष्यस्त्री, हथिनी, घोडी, गधी इन सबके दूधको पीनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। तथा वारं वार तप्तकृच्छ्र व्रत तो करैं ही।
"(जीवन्यदि समागच्छेद्घृतकुम्भे निमज्ज्य च। उद्धृत्य स्नापयित्वास्य जातकर्मादि कारयेत्।।हेमाद्रौ मनुः।।)" मरने के बाद मनुष्य फिर जीता हुआ आ जाय तो घी भरे घडें में डूबकी लगाकर और स्नान करके इसके जातकर्म आदि संस्कार करैं(अर्थात् जिस संस्कारमें प्रवेश कर चूंका हो तबतककें मृतिसंस्कार के बिना सब संस्कार करैं)।
" (प्रेतशय्या प्रतिग्राही पुनः संस्कारमर्हति।। पाद्मे।।)"
पद्मपुराणमें लिखा हैं कि प्रेतशय्याका प्रतिग्रह(ग्रहण)करनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं।
"(#सिन्धुसौवीरसौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यन्तवासिनः। अङ्गवङ्गकलिङ्गांश्च गत्वा संस्कारमर्हति ।।बौधायनचन्द्रिका।।)"
सिंधु,सौवीर('सौवीर' सिंधु देश का ही एक भाग),सौराष्ट्र,और प्रत्यन्तवासी(जो विरक्त अथवा संन्यासी अथवा अनशनव्रतका करनेवाला फिर गृहस्थमें आनेकी इच्छा करै तो),अंग(युरोप),बंग(बंगाल),कलिंग(भिन्नमाल)देशोमें जानेसे फिर संस्कारके योग्य होता हैं।
"(सौराष्ट्रसिंधु सौवीरमवन्तीदक्षिणापथम्। एतानि ब्राह्मणो गत्वा पुनः संस्कारमर्हति।।निर्णयसिंधु।। )"
सौराष्ट्र,सिंधु,सौवीर('सौवीर' सिंधु देश का ही एक भाग)उज्जैन, दक्षिणकामार्ग(भारत देशसे दक्षिणका पथ),इसमें ब्राह्मण जाकर फिर संस्कारके योग्य होता हैं | अर्थात् बिना यात्राके जा नहीं सकते और यात्रा का विधान विधिपूर्वक पैदल हैं | तथा कहै हुए प्रदेशोंमें स्थायी रहने वालों द्विजोंको नहीं.।
"(खरमुष्ट्रञ्च महिषमनड्वाहमजं तथा। बस्तमारुह्य मुखजः क्रोशे चान्द्रं विनर्दिशेत्।। गौतमः।।")"
गौतमका वाक्य हैं कि जो ब्राह्मण!गर्दभ,उंट, भैंसा, बैल, बकरा, तथा मेढेपर कोशभर चढकर चलें तो चांद्रायण करैं।
"(खरमारुह्य विप्रस्तु योजनं यदि गच्छति। तप्तकृच्छ्रत्रयं प्रोक्तं शरीरस्य विशोधनम्।।मार्कण्डेय।।)"
मार्कण्डेयने कहा हैं- यदि ब्राह्मण!गधेपर सवारीकर योजनभर चलें तो तीन तप्तकृच्छ्रसे उसका शरीर शुद्ध होता हैं। पुनर्जन्म प्रकुर्वीत घृतगर्भ विधानतः।। " तथा घीभरे घडेमें डूबकी लगाकर फिर जनन- संस्कार करैं।" "(अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंसृष्टमेव च। पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः।। मनुः।। )"
मनुजी कहतें हैं कि तीनों द्विजातिवर्ण;अज्ञानसे विष्ठा मूत्र और मदिरामिश्रित वस्तु खाकर फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं।
"(यःप्रत्यवसितो विप्रः प्रवज्यातो विनिर्गतः। अनाशकनिवृत्तश्च गार्हस्थ्यं चेच्चिकीर्षति।।सञ्चरेत् त्रीणि कृच्छ्राणि त्रीणि चान्द्रायणानि च। जातकर्मादिभिः सर्वैः संस्कृतःशुद्धिमाप्नुयात्।।पराशरः।।)"
मिताक्षरामें पराशरजी का कथन हैं कि जो विरक्त अथवा संन्यासी अथवा अनशनव्रतका करनेवाला फिर गृहस्थमें आनेकी इच्छा करै तो वह तीन कृच्छ्र और तीन चान्द्रायण करै.और जातकर्म आदि यज्ञोपवीतपर्यन्तके संस्कारोंको फिर करके शुद्ध होता है।
"(कर्मनाशाजलस्पर्शात्करतोयाविलंघनात्। गण्डकी बाहुतरणात् पुनः संस्कारमर्हति।।त्रिस्थलीसेतु।।)"
कर्मनाशा नदीके जलस्पर्श से और करतोया नदीको लंघनेसे तथा गंडकी नदीको भुजाओंसे तैरनेसे फिर संस्कार योग्य होता हैं(स्नान करनेसे नहीं)|
"(#वपनं_दक्षिणादानं_मेखला_दण्डमजिन_भैक्ष्यचर्या_व्रतानि_च | #निवर्तन्ते_पुनः_संस्कार_कर्मणि।। )"
द्विजातियोंके पुनः यज्ञोपवीत संस्कारमें मुंडन, मेखलादान,मृगचर्म, भिक्षाटन व्रत नहीं होतें।"अजिनं मेखला दंडो भैक्ष्यचर्यो व्रतानि च। निवर्तन्ते द्विजातीनां पुनः संस्कार कर्मणि।।पराशर।। द्विजातियोंको मृगचर्म,मेखला,दंड, भिक्षाचरण, व्रतादेश आदि पुनः यज्ञोपवीतमें नहीं होता।
"(पित्रादिव्यतिरेकेन ब्रह्मचारिणः प्रेतकर्मकरणे"(अंत्येष्ठी समारभ्य यावत् सपिंडीकरणेषु)"पुनरुपनयनमित्यपरार्कादयः।। आश्वालायन गृह्यसू।।")
पिता आदि(दश पैढी तक)से भिन्नका यदि प्रेतकर्म ब्रह्मचारी करैं तो पुनः यज्ञोपवीतके योग्य होता हैं यह अपरार्क आदिने कहा हैं।
किसी मदीरा पीनेवाले व्यक्ति से छूये पात्र में खानपान करने से प्रायश्चित्त कर पुनः उपनयन संस्कार के योग्य होता हैं-- यह नियम आजके हॉटलभोज तथा बाजारी पेयपान के विषय में हैं ----------->
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ।।
षोडश_संस्काराः_खंड_१३६- (पुनःयज्ञोपवीत)आवश्यक प्रायश्चित्त व्रतानि..
#प्रायो_नाम_तपः_प्रोक्तं_चित्तं_निश्चय_उच्यते.|
#तपो_निश्चय_संयुक्तं_प्रायश्चित्तमिति_स्मृतम्.||
प्राय अर्थात् तप और चित्त अर्थात् निश्चय कहलातें है. इसलिए निश्चय के साथ होनेवाले तप को ही शास्त्र में प्रायश्चित्त कहा है.
#कृत्वा_पापं_हि_संतप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते.|
#नैवं_कुर्यां_पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः_||मनुः ११/२३०||
पाप करकें संताप करनेवाला किये हुए वह पापमें से मुक्त हो जाता है. तथा ऐसा पाप फिरसे नहीं करुंगा ऐसे निवृत्तिरूपी निश्चय करने से भी पवित्र होता है.
#अज्ञानाद्यदि_वा_ज्ञानात्कृत्वा_कर्म_विगर्हितम्.|
#तस्माद्विमुक्ति_मन्विच्छन्द्वितीयं_न_समाचरेत्.||मनुः११/२३२||
जाने या अनजाने निंदितकर्म(पाप)करने के बाद उसमें से मुक्त होने की ईच्छा करनेवाले को फिर से ऐसा दूसरा निंदित-कर्म नहीं करना चाहिये.
#यस्मिन्कर्मण्यस्य_कृते_मनसः_स्यादलाघवम्.|
#तस्मिंस्तावत्तपः_कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं_भवेत्.||मनुः११/२३३||
जो प्रायश्चित्त कर्म करने के बाद भी पाप करनेवाले के मन को यदि संतोष न हो, तो जब तक उस संबंध में संतोष न मिलें, तब तक वह तप पुनः करना चाहिये.
#तप्तकृच्छ्र_व्रत-(लहसुन,गाजर,सलगम, खानेवाले तथा कुत्ती,ऊंटनी,मनुष्यस्त्री,हथिनी,घोडी,गधी इन सबका दूध पीनेवालें को प्रत्येक कहे हुए निंदित खाद्य तथा निंदित दूधपान संख्यामें १/१ अर्थात् लहसुन खानेवाले को १,लहसुन तथा गाजर खानेवाले को २,लहसुन-गाजर तथा हथिनिका दूध पीनेवाले को ३, ऐसे दोषवृद्धि संख्यानुसार,और गधेपर बैठकर योजनभर चलनेवाले के लिए ३, संख्यामें करने चाहिये.)
प्राकार-
#तप्तकृच्छ्र_चरन्विप्रो_जल_क्षीर_घृतानिलान्.|
#प्रति_त्र्यहं_पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी_समाहितः ||मनुः११/२१४||
#अपां_पिबेच्च_त्रिपलं_पलमेकं_च_सर्पिषः |
#पयः_पिबेत्तु_त्रिपलं_त्रिमात्रं_चोक्तमानतः ||
अथवा
#षट्पलं_तु_पिबेदम्भस्त्रिपलं_तु_पयः_पिबेत्.|
#पलमेकं_पिबेत्_सर्पिस्तप्तकृच्छ्रं_विधियते.||पराशरः||
#प्रायो_नाम_तपः_प्रोक्तं_चित्तं_निश्चय_उच्यते.|
#तपो_निश्चय_संयुक्तं_प्रायश्चित्तमिति_स्मृतम्.||
प्राय अर्थात् तप और चित्त अर्थात् निश्चय कहलातें है. इसलिए निश्चय के साथ होनेवाले तप को ही शास्त्र में प्रायश्चित्त कहा है.
#कृत्वा_पापं_हि_संतप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते.|
#नैवं_कुर्यां_पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः_||मनुः ११/२३०||
पाप करकें संताप करनेवाला किये हुए वह पापमें से मुक्त हो जाता है. तथा ऐसा पाप फिरसे नहीं करुंगा ऐसे निवृत्तिरूपी निश्चय करने से भी पवित्र होता है.
#अज्ञानाद्यदि_वा_ज्ञानात्कृत्वा_कर्म_विगर्हितम्.|
#तस्माद्विमुक्ति_मन्विच्छन्द्वितीयं_न_समाचरेत्.||मनुः११/२३२||
जाने या अनजाने निंदितकर्म(पाप)करने के बाद उसमें से मुक्त होने की ईच्छा करनेवाले को फिर से ऐसा दूसरा निंदित-कर्म नहीं करना चाहिये.
#यस्मिन्कर्मण्यस्य_कृते_मनसः_स्यादलाघवम्.|
#तस्मिंस्तावत्तपः_कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं_भवेत्.||मनुः११/२३३||
जो प्रायश्चित्त कर्म करने के बाद भी पाप करनेवाले के मन को यदि संतोष न हो, तो जब तक उस संबंध में संतोष न मिलें, तब तक वह तप पुनः करना चाहिये.
#तप्तकृच्छ्र_व्रत-(लहसुन,गाजर,सलगम, खानेवाले तथा कुत्ती,ऊंटनी,मनुष्यस्त्री,हथिनी,घोडी,गधी इन सबका दूध पीनेवालें को प्रत्येक कहे हुए निंदित खाद्य तथा निंदित दूधपान संख्यामें १/१ अर्थात् लहसुन खानेवाले को १,लहसुन तथा गाजर खानेवाले को २,लहसुन-गाजर तथा हथिनिका दूध पीनेवाले को ३, ऐसे दोषवृद्धि संख्यानुसार,और गधेपर बैठकर योजनभर चलनेवाले के लिए ३, संख्यामें करने चाहिये.)
प्राकार-
#तप्तकृच्छ्र_चरन्विप्रो_जल_क्षीर_घृतानिलान्.|
#प्रति_त्र्यहं_पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी_समाहितः ||मनुः११/२१४||
#अपां_पिबेच्च_त्रिपलं_पलमेकं_च_सर्पिषः |
#पयः_पिबेत्तु_त्रिपलं_त्रिमात्रं_चोक्तमानतः ||
अथवा
#षट्पलं_तु_पिबेदम्भस्त्रिपलं_तु_पयः_पिबेत्.|
#पलमेकं_पिबेत्_सर्पिस्तप्तकृच्छ्रं_विधियते.||पराशरः||
तप्तकृच्छ्रव्रत करनेवाले द्विजको स्नान आदि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर संयमित रहके शरीर के सामर्थ्य अनुसार पहले तीन दिन सायंकाल में तीनपल=१२तोला अथवा छहपल=२४तोला गरम जल, दूसरे तीन दिन मध्याह्न में तीनपल=१२तोला गाय का गरम दूध, तीसरे तीन दिन प्रातःकाल में एकपल=४तोला गाय का गरम घी पीना चाहिये और चौथे तीन दिन वायुभक्षी अर्थात् कुछ भी खाये पीये बिना उपवास पर रहकर गरम पवन का सेवन करना है.
कृच्छ्र(प्राजापत्य)व्रत-
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||
इस कृच्छ्रव्रतमें कुकडीके अंडे के मापसे निवाला (सहजतासे मुखमें प्रवेश हो)उतने सायंकाल ३२ग्रास, सुबह(मध्याह्न)में २६ग्रास, बिना माँगे भोजन मिलनेपर भी २४ग्रास, निवाले भी शास्त्र संमत शुद्ध प्रमाणसे होने चाहिये..जैसे रात्रि और दिनमें तथा बिना माँगे तीनों प्रकारमें हविष्यान्न ही ग्रहण करना चाहिये.तथा चौथे तीन दिन उपवास बिना कुछ खाये पीयें करना यह प्रमाणित कृच्छ्र(प्राजापत्य) जानें.
#चान्द्रायणव्रत- यह व्रत पाँच प्रकार का होता हैं इनमेंसे किसी एक प्रकारका करना हैं.
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.
#चान्द्रायणव्रत- यह व्रत पाँच प्रकार का होता हैं इनमेंसे किसी एक प्रकारका करना हैं.
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.
चान्द्रायण करनेवाले द्विजको ग्रास लेते समय यह मंत्र मनमें पढकर प्रतिग्रासको अभिमंत्रित कर लेना चाहिये..
{ॐ भूर्भुवःस्वः तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिवः(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)नमः स्वाहा }
{ॐ भूर्भुवःस्वः तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिवः(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)नमः स्वाहा }
#प्रायश्चित्तव्रतार्थीओं_के_नियम-
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||
व्रतार्थी प्रतिदिन स्वयं (ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम/ ॐभुवःस्वाहा- इदं वायवे न मम/ ॐस्वः स्वाहा-इदं सूर्याय न मम/ ॐ भूर्भुवःस्वःस्वाहा -इदं प्रजापतये न मम) इन महाव्याहृतिमंत्रोसे विट् नामक अग्निमें अपने सूत्रके विधानसे होम करै..
और अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह विधि मान्य हैं..
और अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह विधि मान्य हैं..
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ|| शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(यज्ञोपवीतम्) खंड १३७~
#अथ_प्रायश्चित्त_पूर्वक_पुनः_उपनयनम्-
जहाँ प्रत्यन्तर्वर्ती तथा मराहुआ जानननेके बाद पुनः जीता आया हुआ हो,गधेपर सवारीकर योजनभर चलनेवाले ऐसे उपनीत द्विजों को जातकर्मसे चौलान्तकर्म कर पुनःउपनयन संस्कार करैं.|-( "जीवन्यदि समागच्छेद्घृतकुम्भे निमज्ज्य च। उद्धृत्य स्नापयित्वास्य जातकर्मादि कारयेत्।।हेमाद्रौ मनुः।।" मरने के बाद मनुष्य फिर जीता हुआ आ जाय तो घी भरे घडें में डूबकी लगाकर और स्नान करके इसके जातकर्म आदि संस्कार करैं(अर्थात् जिस संस्कारमें प्रवेश कर चूंका हो तबतककें मृतिसंस्कार के बिना सब संस्कार करैं)। "खरमारुह्य विप्रस्तु योजनं यदि गच्छति। तप्तकृच्छ्रत्रयं प्रोक्तं शरीरस्य विशोधनम्।।मार्कण्डेय।। मार्कण्डेयने कहा हैं- यदि ब्राह्मण!गधेपर सवारीकर योजनभर चलें तो तीन तप्तकृच्छ्रसे उसका शरीर शुद्ध होता हैं। पुनर्जन्म प्रकुर्वीत घृतगर्भ विधानतः।। " तथा घीभरे घडेमें डूबकी लगाकर फिर जन्मसंस्कार करैं।" "यःप्रत्यवसितो विप्रः प्रवज्यातो विनिर्गतः। अनाशकनिवृत्तश्च गार्हस्थ्यं चेच्चिकीर्षति।।सञ्चरेत् त्रीणि कृच्छ्राणि त्रीणि चान्द्रायणानि च। जातकर्मादिभिः सर्वैः संस्कृतःशुद्धिमाप्नुयात्।।पराशरः।।मिताक्षरामें पराशरजी का कथन हैं कि जो विरक्त अथवा संन्यासी अथवा अनशनव्रतका करनेवाला फिर गृहस्थमें आनेकी इच्छा करै तो वह तीन कृच्छ्र और तीन चान्द्रायण करै.और जातकर्म आदि यज्ञोपवीतपर्यन्तके संस्कारोंको फिर करके शुद्ध होता है।)"और जहाँ इनके अतिरिक्त पुनरुपनयोग्य( विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे। अपराह्णे चोपनीतः पुनः संस्कार मर्हति ।।"अपराह्ण स्त्रिधा विभक्तदिनतृतीयांशः। वसन्ते गलग्रहो न दोषायेत्यर्थः।। नारदः।। नारदजी कहतें हैं कि वसन्तसे पृथक ऋतु कृष्णपक्ष और गलग्रहमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं,दिनके तीसरे भागको अपराह्ण कहा हैं वसंतऋतुमें गलग्रहका दोष नहीं हैं। "कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादि दिनत्रयम्। त्रयोदशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः।।नारदः।। नारदजीका कहना है- कृष्णपक्षकी चौथ और सप्तमीसे तीनदिन तथा त्रयोदशीसे चारदिन यह गलग्रह तिथियाँ हैं।"पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेपि च। अनध्याये चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति।।अनध्यायस्य पूर्वेद्युस्तस्य चैवापरेहनि। व्रतबन्धं विसर्गं च विद्यारम्भं न कारयेत्।।वसिष्ठः।। वसिष्ठजीने कहा हैं कि पापके नवांशमें चन्द्रमा हो अथवा शत्रूघरका नीचका चन्द्रमा हो अथवा अनध्याय हो ऐसे योगमें जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं।
लशुनं गृञ्जनं जग्ध्वा पलाण्डुं च तथा शुनम् । उष्ट्रमानुषकेभाश्वरासभीक्षीरभोजनात्।। उपानयं पुनः कुर्यात्तप्तकृच्छ्रं चरेन्मुहुः।।शातातपः।।"शातातपने पारिजातमें कहा हैं कि लहसुन, गाजर, सलगम, खानेवाला और कुत्ती,ऊंटनी, मनुष्यस्त्री, हथिनी, घोडी, गधी इन सबके दूधको पीनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। तथा वारं वार तप्तकृच्छ्र व्रत तो करैं ही।
" प्रेतशय्या प्रतिग्राही पुनः संस्कारमर्हति।। पाद्मे।। पद्मपुराणमें लिखा हैं कि प्रेतशय्याका प्रतिग्रह(ग्रहण)करनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं। "सिन्धुसौवीरसौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यन्तवासिनः। अङ्गवङ्गकलिङ्गांश्च गत्वा संस्कारमर्हति ।।बौधायनचन्द्रिका।। सिंधु,सौवीर,सौराष्ट्र,और प्रत्यन्तवासी,अंग,बंग,कलिंग देशोमें जानेसे फिर संस्कारके योग्य होता हैं।सौराष्ट्रसिंधु सौवीरमवन्तीदक्षिणापथम्। एतानि ब्राह्मणो गत्वा पुनः संस्कारमर्हति।।निर्णयसिंधु।। सौराष्ट्र,सिंधु,सौवीर,उज्जैन,दक्षिणकामार्ग इसमें ब्राह्मण जाकर फिर संस्कारके योग्य होता हैं.अर्थात् बिना यात्राके जाकर आनेसे,तथा कहै हुए प्रदेशोंमें स्थायी रहने वालों द्विजोंको नहीं.।" अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंसृष्टमेव च। पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः।। मनुः।। मनुजी कहतें हैं कि तीनों द्विजातिवर्ण;अज्ञानसे विष्ठा मूत्र और मदिरामिश्रित वस्तु खाकर फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। "खरमुष्ट्रञ्च महिषमनड्वाहमजं तथा। बस्तमारुह्य मुखजः क्रोशे चान्द्रं विनर्दिशेत्।। गौतमः।।"गौतमका वाक्य हैं कि जो ब्राह्मण!गर्दभ,उंट, भैंसा, बैल, बकरा, तथा मेढेपर कोशभर चढकर चलें तो चांद्रायण करैं। "कर्मनाशाजलस्पर्शात्करतोयाविलंघनात्। गण्डकी बाहुतरणात् पुनः संस्कारमर्हति।।त्रिस्थलीसेतु।।कर्मनाशा नदीके जलस्पर्श से और करतोया नदीको लंघनेसे तथा गंडकी नदीको भुजाओंसे तैरनेसे फिर संस्कार योग्य होता हैं(स्नान करनेसे नहीं)।"पित्रादिव्यतिरेकेन ब्रह्मचारिणः प्रेतकर्मकरणे"(अंत्येष्ठी समारभ्य यावत् सपिंडीकरणेषु)"पुनरुपनयनमित्यपरार्कादयः।। आश्वालायन गृह्यसू।।"पिता आदि(दश पैढी तक)से भिन्नका यदि प्रेतकर्म ब्रह्मचारी करैं तो पुनः यज्ञोपवीतके योग्य होता हैं यह अपरार्क आदिने कहा हैं।)"दोषवालें उपनीत द्विजोंको केवल पुनःउपनयन विधान करायें.. | इन सभीको पहले प्रायश्चित्त करना जरुरी है.|-"(यत्र च जातकर्मादि संस्कार रहितमुपनयनं विहितं तत्र जातकर्मादि चौलांतसंस्कारान् कृत्वा पुनरुपनयनं कार्यम्.)| पुनः उपनयन विधान गाँवके बहार पूर्व अथवा उत्तरदिशामें जाकर करै.| "(पुनरुपनयनं ग्रामाद्बहिः प्राच्यामुदीच्यां वा गत्वा कार्य्यम्.|)
पहले ब्राह्ममुर्हूतमें उठकर नित्यक्रिया स्नान आदि से प्रातःकृत्य करकें शरीरकी शुद्धि निमित्त प्रायश्चित्त करै.|"(तत्रादौ ब्राह्मेमुर्हूते उत्थाय स्नानादि नित्यक्रियां प्रातःसमाप्य शरीरशद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं कुर्यात्)|"
नदी,तालाब,या किसी पवित्र जलाशय में जाकर वहाँ किनारेको जलसे धोकर स्नानोपयोग्य विधिकी सामग्री को रखें..| "(नदीतडागादिकं गत्वा सुप्रक्षालिततत्तीरे स्नानोपकरणानि संस्थाप्य.)|" फिर हाथपैर धोकर नाभिसमेत जलाशयका जल आयें उतना जलमें बैठकर दोनों हाथमें कुशपवित्र धारणकर शिखा बाँधके आचमन करै..| "(ततः पाणिपादौ प्रक्षाल्य नाभिमात्ल जलंगत्वोपविश्य कुशपवित्रहस्तो बद्धशिख आचामेत्.)|" फिर देशकाल आदि स्मरणकर संकल्प करै.|"
##############सङ्कल्पः###########
{(ततो देशकालौ संकीर्त्य-" मम अमुक दोष परिहारार्थं पुनरुपनयनाधिकारार्थं शरीर शुद्ध्यर्थञ्च मम अमुक प्रायश्चित्ताङ्गभूतान्यादौ भस्मादिभिरष्टौ स्नानानि करिष्ये..)"
तत्र दोषाः-गलग्रहे कृत यज्ञोपवीत, अपराह्णे कृत यज्ञोपवीत, अनध्याये कृत यज्ञोपवीत,दुर्मुर्हूते कृत यज्ञोपवीत, लशुनादि अभक्ष्या भक्षणदोष, अपेयपान दोष, प्रत्यन्तवासदोष,निषिद्धदेशाटनदोष, खरमारुह्य योजनगमन दोष,खर-उष्ट्र-महिष-अनड्वाह-अज-मेषादिन्नारुह्य गमन दोष, अज्ञानात् विण्मूत्र सुरासंसृष्टादि प्राशन दोष, कर्मनाशाजलस्पर्श दोष, करतोया लंघन दोष, गण्डकीबाहुतरणदोष, ब्रह्मचारि विषयेऽधिके- पित्रादि व्यतिरेकेन प्रेतकर्मकरण दोष,)"----तत्र संकल्पे योजनीय प्रायश्चितानि- कृच्छ्र(प्राजापत्य),तप्तकृच्छ्र,घृतगर्भविधानम्,चांद्रायण.}इति संकल्प निमित्तम्
यथोचित संकल्पकर (इति यथोचितं सङ्कल्प्य) बायें हाथमें यज्ञियभस्म लेकर उसमें आवश्यक जलडालें | "(वामहस्ते यज्ञियभस्म गृहीत्वा पश्चादुदकमिश्रणानंतरम्.)" दायें हाथसे भस्मको मलकर अभिमंत्रित करै.| "(दक्षिण हस्तेन संमर्द्य अभिमंत्रयेत्)" ॐ अग्निरिति भस्म००|| ततोभस्मोद्धुलनम्- ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः००||इति शिरसि|| ॐतत्पुरुषाय विद्महे००||इति मुखे|| ॐ अघोरेभ्योथ घोरेभ्यो००||इति हृदये|| ॐवामदेवाय नमो ज्ये००||इति गुह्ये || ॐसद्योजातं प्रप००||इति पादयोः|| ॐ प्रसद्य भस्मना००||इति वा प्रणवेन सर्वांगे च भस्मविलिंपेत् || ततःस्नात्वा-आचम्य ||गोमय स्नानं कुर्यात्- शुद्ध गोबरके दायें तथा बायें भागका कुछ हिस्सा प्रणवका उच्चारणकरकें तीर्थमें डालें-"(तद्यथा शुद्ध गोमयमादाय- प्रणवेन दिक्षु दक्षिणभागं तीर्थे चोत्तरभागं प्रक्षिप्य)" शेष रहे हुए गोबरको अभिमंत्रित करै."(शेषं - ॐ अग्रमग्रश्चरंतीना००तन्मे दहतु गोमय.||ॐ मानस्तोकेतनये००इत्यभिमंत्र्य..)" सूर्यनारायणको बतायें-"(सूर्याय तर्शयित्वा.)" दायें हाथसे गोबर लेकर शिरसे आरंभकर नाभि तक लेपन करै.| "(ॐ गंधद्वारां दुराधर्षां००|| इति मंत्रेण दक्षिणहस्त गृहितेन गोमयेन शिरसि नाभ्यंतमालिप्य.)" फिर बायें हाथसे गोबर लेकर नाभिके नीचेसे आरंभकर पैर तक के सभी अंगोको लेपन करै.||"(ॐ गंधद्वारां दुराधर्षा००|| इति मंत्रावृत्या नाभितः पादपर्यंतं विलेपनमिति सर्वांगमालिप्य..स्नात्वा-द्विराचामेत्.|)"
अथ मृत्तिका स्नानम्- शुद्धतीर्थकी मिट्टी लेकर अभिमंत्रित करै.."(शुद्धतीर्थमृत्तिकामादाय- ॐ अश्वक्रांते रथक्रांते विष्णुक्रांते वसुन्धरे.| मृत्तिके हर मे पापं यन्मया काय संचितम्.|| उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना.| मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्.|| इत्यभिमंत्र्य.)" सूर्यनारायणको बतायें..(सूर्याय दर्शयित्वा.)" दायें हाथसे मिट्टी लेकर शिरसे आरंभकर नाभि तक लेपन करै.| "(ॐ इदं विष्णुर्व्वि००|| इति मंत्रेण दक्षिणहस्त गृहितेन गोमयेन शिरसि नाभ्यंतमालिप्य.)" फिर बायें हाथसे मिट्टी लेकर नाभिके नीचेसे आरंभकर पैर तक के सभी अंगोको लेपन करै.||"(ॐ इदं विष्णुर्व्वि००|| इति मंत्रावृत्या नाभितः पादपर्यंतं विलेपनमिति सर्वांगमालिप्य..ततो द्विराचम्य)"
शुद्धोदकस्नानं कुर्य्यात्- ॐ आपोहिष्ठा०| जो वः शिवतमो०| तस्माऽअरंग०| इति स्नात्वा.. आचम्य..||
पंचगव्यस्नानं कुर्य्यात्-तत्र गायत्र्या गोमूत्रस्नानम्.||१|| मानस्तोकेति गोमय स्नानम्.||२|| आप्यायस्वेति पयःस्नानम्.||३|| दधि क्राव्णेति दधिस्नानम्.||४|| तेजोऽसीत्याज्यस्नानम्.||५|| देवस्यत्वा सवितुरिति कुशोदकस्नानम्.||६|| एवं पंचगव्यस्नानं कृत्वा-शुद्धोदकेन स्नात्वा.||
जले ॐ द्रूपदादिवेति अघमर्षणम्.|| ततः स्नानाङ्ग तर्पणं सव्येन- प्राङ्गमुखः ॐ ब्रह्मादयो देवास्तृप्यंताम्.. ॐगौतमादयः ऋषयस्तृप्यंताम्.. इति देवतीर्थेन एकैकमंजलिं जले क्षिपेत्.|| तत उदङ्गमुखो यज्ञोपवीतं कंठावलम्बितं कृत्वा- ॐ सनकादयो मनुष्यास्तृप्यंताम्.. इति प्रजापति तीर्थेन अंजलिद्वयं दद्यात्.|| ततोऽपसव्येन दक्षिणाभिमुखः कृष्णतिलोदकैः(वा केवलं जलेन)त्रिन् त्रिन् अंजलिः -ॐकव्यवाडनलादयो देवपितरस्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मत् पितृ पितामह प्रपितामहास्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मन्मातृ पितामही प्रपितामह्य स्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मन्मातामह प्रमातामह वृद्धप्रमातामहा स्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मन्मातामही प्रमातामही वृद्धप्रमातामह्य स्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ आ ब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तं जगतंतृप्यताम् ..|| एवं तर्पणं कृत्वा.. यन्मया दुषितं तोयं मलैः शारीरसंभवैः.| तस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं यक्ष्मैतत्ते तिलोदकम्..|| इति यक्ष्मणे जलं दद्यात्..|| ततस्तीरमागत्य -"ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्य दग्धाः कुले मम.| भूमौ दत्तेन तृप्यंतु तृप्ता यांतु परांगतिम्.|| इति जलांजलिं तटे निक्षिपेत्..|| एवं स्नानांग तर्पणं कृत्वा सव्येनाचम्य.. सूर्यायार्घ्यं दद्यात्-ॐ एहि सूर्य सहस्रांशो००|| ततो जलाद्बहि निष्क्रम्य अहतं श्वेतं सदशं धौतं वस्त्रं परिधाय उपवस्त्रं गृहीत्वा त्रिराचम्य गृहं गच्छेत्..|| इति नद्यादि स्नान प्रयोगः_||
#अथ_प्रायश्चित्त_पूर्वक_पुनः_उपनयनम्-
जहाँ प्रत्यन्तर्वर्ती तथा मराहुआ जानननेके बाद पुनः जीता आया हुआ हो,गधेपर सवारीकर योजनभर चलनेवाले ऐसे उपनीत द्विजों को जातकर्मसे चौलान्तकर्म कर पुनःउपनयन संस्कार करैं.|-( "जीवन्यदि समागच्छेद्घृतकुम्भे निमज्ज्य च। उद्धृत्य स्नापयित्वास्य जातकर्मादि कारयेत्।।हेमाद्रौ मनुः।।" मरने के बाद मनुष्य फिर जीता हुआ आ जाय तो घी भरे घडें में डूबकी लगाकर और स्नान करके इसके जातकर्म आदि संस्कार करैं(अर्थात् जिस संस्कारमें प्रवेश कर चूंका हो तबतककें मृतिसंस्कार के बिना सब संस्कार करैं)। "खरमारुह्य विप्रस्तु योजनं यदि गच्छति। तप्तकृच्छ्रत्रयं प्रोक्तं शरीरस्य विशोधनम्।।मार्कण्डेय।। मार्कण्डेयने कहा हैं- यदि ब्राह्मण!गधेपर सवारीकर योजनभर चलें तो तीन तप्तकृच्छ्रसे उसका शरीर शुद्ध होता हैं। पुनर्जन्म प्रकुर्वीत घृतगर्भ विधानतः।। " तथा घीभरे घडेमें डूबकी लगाकर फिर जन्मसंस्कार करैं।" "यःप्रत्यवसितो विप्रः प्रवज्यातो विनिर्गतः। अनाशकनिवृत्तश्च गार्हस्थ्यं चेच्चिकीर्षति।।सञ्चरेत् त्रीणि कृच्छ्राणि त्रीणि चान्द्रायणानि च। जातकर्मादिभिः सर्वैः संस्कृतःशुद्धिमाप्नुयात्।।पराशरः।।मिताक्षरामें पराशरजी का कथन हैं कि जो विरक्त अथवा संन्यासी अथवा अनशनव्रतका करनेवाला फिर गृहस्थमें आनेकी इच्छा करै तो वह तीन कृच्छ्र और तीन चान्द्रायण करै.और जातकर्म आदि यज्ञोपवीतपर्यन्तके संस्कारोंको फिर करके शुद्ध होता है।)"और जहाँ इनके अतिरिक्त पुनरुपनयोग्य( विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे। अपराह्णे चोपनीतः पुनः संस्कार मर्हति ।।"अपराह्ण स्त्रिधा विभक्तदिनतृतीयांशः। वसन्ते गलग्रहो न दोषायेत्यर्थः।। नारदः।। नारदजी कहतें हैं कि वसन्तसे पृथक ऋतु कृष्णपक्ष और गलग्रहमें जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं,दिनके तीसरे भागको अपराह्ण कहा हैं वसंतऋतुमें गलग्रहका दोष नहीं हैं। "कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादि दिनत्रयम्। त्रयोदशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः।।नारदः।। नारदजीका कहना है- कृष्णपक्षकी चौथ और सप्तमीसे तीनदिन तथा त्रयोदशीसे चारदिन यह गलग्रह तिथियाँ हैं।"पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेपि च। अनध्याये चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति।।अनध्यायस्य पूर्वेद्युस्तस्य चैवापरेहनि। व्रतबन्धं विसर्गं च विद्यारम्भं न कारयेत्।।वसिष्ठः।। वसिष्ठजीने कहा हैं कि पापके नवांशमें चन्द्रमा हो अथवा शत्रूघरका नीचका चन्द्रमा हो अथवा अनध्याय हो ऐसे योगमें जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो वह पुनः यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं।
लशुनं गृञ्जनं जग्ध्वा पलाण्डुं च तथा शुनम् । उष्ट्रमानुषकेभाश्वरासभीक्षीरभोजनात्।। उपानयं पुनः कुर्यात्तप्तकृच्छ्रं चरेन्मुहुः।।शातातपः।।"शातातपने पारिजातमें कहा हैं कि लहसुन, गाजर, सलगम, खानेवाला और कुत्ती,ऊंटनी, मनुष्यस्त्री, हथिनी, घोडी, गधी इन सबके दूधको पीनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। तथा वारं वार तप्तकृच्छ्र व्रत तो करैं ही।
" प्रेतशय्या प्रतिग्राही पुनः संस्कारमर्हति।। पाद्मे।। पद्मपुराणमें लिखा हैं कि प्रेतशय्याका प्रतिग्रह(ग्रहण)करनेवाला फिर यज्ञोपवीत संस्कारके योग्य हैं। "सिन्धुसौवीरसौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यन्तवासिनः। अङ्गवङ्गकलिङ्गांश्च गत्वा संस्कारमर्हति ।।बौधायनचन्द्रिका।। सिंधु,सौवीर,सौराष्ट्र,और प्रत्यन्तवासी,अंग,बंग,कलिंग देशोमें जानेसे फिर संस्कारके योग्य होता हैं।सौराष्ट्रसिंधु सौवीरमवन्तीदक्षिणापथम्। एतानि ब्राह्मणो गत्वा पुनः संस्कारमर्हति।।निर्णयसिंधु।। सौराष्ट्र,सिंधु,सौवीर,उज्जैन,दक्षिणकामार्ग इसमें ब्राह्मण जाकर फिर संस्कारके योग्य होता हैं.अर्थात् बिना यात्राके जाकर आनेसे,तथा कहै हुए प्रदेशोंमें स्थायी रहने वालों द्विजोंको नहीं.।" अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं सुरासंसृष्टमेव च। पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः।। मनुः।। मनुजी कहतें हैं कि तीनों द्विजातिवर्ण;अज्ञानसे विष्ठा मूत्र और मदिरामिश्रित वस्तु खाकर फिर यज्ञोपवीत संस्कार योग्य हैं। "खरमुष्ट्रञ्च महिषमनड्वाहमजं तथा। बस्तमारुह्य मुखजः क्रोशे चान्द्रं विनर्दिशेत्।। गौतमः।।"गौतमका वाक्य हैं कि जो ब्राह्मण!गर्दभ,उंट, भैंसा, बैल, बकरा, तथा मेढेपर कोशभर चढकर चलें तो चांद्रायण करैं। "कर्मनाशाजलस्पर्शात्करतोयाविलंघनात्। गण्डकी बाहुतरणात् पुनः संस्कारमर्हति।।त्रिस्थलीसेतु।।कर्मनाशा नदीके जलस्पर्श से और करतोया नदीको लंघनेसे तथा गंडकी नदीको भुजाओंसे तैरनेसे फिर संस्कार योग्य होता हैं(स्नान करनेसे नहीं)।"पित्रादिव्यतिरेकेन ब्रह्मचारिणः प्रेतकर्मकरणे"(अंत्येष्ठी समारभ्य यावत् सपिंडीकरणेषु)"पुनरुपनयनमित्यपरार्कादयः।। आश्वालायन गृह्यसू।।"पिता आदि(दश पैढी तक)से भिन्नका यदि प्रेतकर्म ब्रह्मचारी करैं तो पुनः यज्ञोपवीतके योग्य होता हैं यह अपरार्क आदिने कहा हैं।)"दोषवालें उपनीत द्विजोंको केवल पुनःउपनयन विधान करायें.. | इन सभीको पहले प्रायश्चित्त करना जरुरी है.|-"(यत्र च जातकर्मादि संस्कार रहितमुपनयनं विहितं तत्र जातकर्मादि चौलांतसंस्कारान् कृत्वा पुनरुपनयनं कार्यम्.)| पुनः उपनयन विधान गाँवके बहार पूर्व अथवा उत्तरदिशामें जाकर करै.| "(पुनरुपनयनं ग्रामाद्बहिः प्राच्यामुदीच्यां वा गत्वा कार्य्यम्.|)
पहले ब्राह्ममुर्हूतमें उठकर नित्यक्रिया स्नान आदि से प्रातःकृत्य करकें शरीरकी शुद्धि निमित्त प्रायश्चित्त करै.|"(तत्रादौ ब्राह्मेमुर्हूते उत्थाय स्नानादि नित्यक्रियां प्रातःसमाप्य शरीरशद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं कुर्यात्)|"
नदी,तालाब,या किसी पवित्र जलाशय में जाकर वहाँ किनारेको जलसे धोकर स्नानोपयोग्य विधिकी सामग्री को रखें..| "(नदीतडागादिकं गत्वा सुप्रक्षालिततत्तीरे स्नानोपकरणानि संस्थाप्य.)|" फिर हाथपैर धोकर नाभिसमेत जलाशयका जल आयें उतना जलमें बैठकर दोनों हाथमें कुशपवित्र धारणकर शिखा बाँधके आचमन करै..| "(ततः पाणिपादौ प्रक्षाल्य नाभिमात्ल जलंगत्वोपविश्य कुशपवित्रहस्तो बद्धशिख आचामेत्.)|" फिर देशकाल आदि स्मरणकर संकल्प करै.|"
##############सङ्कल्पः###########
{(ततो देशकालौ संकीर्त्य-" मम अमुक दोष परिहारार्थं पुनरुपनयनाधिकारार्थं शरीर शुद्ध्यर्थञ्च मम अमुक प्रायश्चित्ताङ्गभूतान्यादौ भस्मादिभिरष्टौ स्नानानि करिष्ये..)"
तत्र दोषाः-गलग्रहे कृत यज्ञोपवीत, अपराह्णे कृत यज्ञोपवीत, अनध्याये कृत यज्ञोपवीत,दुर्मुर्हूते कृत यज्ञोपवीत, लशुनादि अभक्ष्या भक्षणदोष, अपेयपान दोष, प्रत्यन्तवासदोष,निषिद्धदेशाटनदोष, खरमारुह्य योजनगमन दोष,खर-उष्ट्र-महिष-अनड्वाह-अज-मेषादिन्नारुह्य गमन दोष, अज्ञानात् विण्मूत्र सुरासंसृष्टादि प्राशन दोष, कर्मनाशाजलस्पर्श दोष, करतोया लंघन दोष, गण्डकीबाहुतरणदोष, ब्रह्मचारि विषयेऽधिके- पित्रादि व्यतिरेकेन प्रेतकर्मकरण दोष,)"----तत्र संकल्पे योजनीय प्रायश्चितानि- कृच्छ्र(प्राजापत्य),तप्तकृच्छ्र,घृतगर्भविधानम्,चांद्रायण.}इति संकल्प निमित्तम्
यथोचित संकल्पकर (इति यथोचितं सङ्कल्प्य) बायें हाथमें यज्ञियभस्म लेकर उसमें आवश्यक जलडालें | "(वामहस्ते यज्ञियभस्म गृहीत्वा पश्चादुदकमिश्रणानंतरम्.)" दायें हाथसे भस्मको मलकर अभिमंत्रित करै.| "(दक्षिण हस्तेन संमर्द्य अभिमंत्रयेत्)" ॐ अग्निरिति भस्म००|| ततोभस्मोद्धुलनम्- ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः००||इति शिरसि|| ॐतत्पुरुषाय विद्महे००||इति मुखे|| ॐ अघोरेभ्योथ घोरेभ्यो००||इति हृदये|| ॐवामदेवाय नमो ज्ये००||इति गुह्ये || ॐसद्योजातं प्रप००||इति पादयोः|| ॐ प्रसद्य भस्मना००||इति वा प्रणवेन सर्वांगे च भस्मविलिंपेत् || ततःस्नात्वा-आचम्य ||गोमय स्नानं कुर्यात्- शुद्ध गोबरके दायें तथा बायें भागका कुछ हिस्सा प्रणवका उच्चारणकरकें तीर्थमें डालें-"(तद्यथा शुद्ध गोमयमादाय- प्रणवेन दिक्षु दक्षिणभागं तीर्थे चोत्तरभागं प्रक्षिप्य)" शेष रहे हुए गोबरको अभिमंत्रित करै."(शेषं - ॐ अग्रमग्रश्चरंतीना००तन्मे दहतु गोमय.||ॐ मानस्तोकेतनये००इत्यभिमंत्र्य..)" सूर्यनारायणको बतायें-"(सूर्याय तर्शयित्वा.)" दायें हाथसे गोबर लेकर शिरसे आरंभकर नाभि तक लेपन करै.| "(ॐ गंधद्वारां दुराधर्षां००|| इति मंत्रेण दक्षिणहस्त गृहितेन गोमयेन शिरसि नाभ्यंतमालिप्य.)" फिर बायें हाथसे गोबर लेकर नाभिके नीचेसे आरंभकर पैर तक के सभी अंगोको लेपन करै.||"(ॐ गंधद्वारां दुराधर्षा००|| इति मंत्रावृत्या नाभितः पादपर्यंतं विलेपनमिति सर्वांगमालिप्य..स्नात्वा-द्विराचामेत्.|)"
अथ मृत्तिका स्नानम्- शुद्धतीर्थकी मिट्टी लेकर अभिमंत्रित करै.."(शुद्धतीर्थमृत्तिकामादाय- ॐ अश्वक्रांते रथक्रांते विष्णुक्रांते वसुन्धरे.| मृत्तिके हर मे पापं यन्मया काय संचितम्.|| उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना.| मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्.|| इत्यभिमंत्र्य.)" सूर्यनारायणको बतायें..(सूर्याय दर्शयित्वा.)" दायें हाथसे मिट्टी लेकर शिरसे आरंभकर नाभि तक लेपन करै.| "(ॐ इदं विष्णुर्व्वि००|| इति मंत्रेण दक्षिणहस्त गृहितेन गोमयेन शिरसि नाभ्यंतमालिप्य.)" फिर बायें हाथसे मिट्टी लेकर नाभिके नीचेसे आरंभकर पैर तक के सभी अंगोको लेपन करै.||"(ॐ इदं विष्णुर्व्वि००|| इति मंत्रावृत्या नाभितः पादपर्यंतं विलेपनमिति सर्वांगमालिप्य..ततो द्विराचम्य)"
शुद्धोदकस्नानं कुर्य्यात्- ॐ आपोहिष्ठा०| जो वः शिवतमो०| तस्माऽअरंग०| इति स्नात्वा.. आचम्य..||
पंचगव्यस्नानं कुर्य्यात्-तत्र गायत्र्या गोमूत्रस्नानम्.||१|| मानस्तोकेति गोमय स्नानम्.||२|| आप्यायस्वेति पयःस्नानम्.||३|| दधि क्राव्णेति दधिस्नानम्.||४|| तेजोऽसीत्याज्यस्नानम्.||५|| देवस्यत्वा सवितुरिति कुशोदकस्नानम्.||६|| एवं पंचगव्यस्नानं कृत्वा-शुद्धोदकेन स्नात्वा.||
जले ॐ द्रूपदादिवेति अघमर्षणम्.|| ततः स्नानाङ्ग तर्पणं सव्येन- प्राङ्गमुखः ॐ ब्रह्मादयो देवास्तृप्यंताम्.. ॐगौतमादयः ऋषयस्तृप्यंताम्.. इति देवतीर्थेन एकैकमंजलिं जले क्षिपेत्.|| तत उदङ्गमुखो यज्ञोपवीतं कंठावलम्बितं कृत्वा- ॐ सनकादयो मनुष्यास्तृप्यंताम्.. इति प्रजापति तीर्थेन अंजलिद्वयं दद्यात्.|| ततोऽपसव्येन दक्षिणाभिमुखः कृष्णतिलोदकैः(वा केवलं जलेन)त्रिन् त्रिन् अंजलिः -ॐकव्यवाडनलादयो देवपितरस्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मत् पितृ पितामह प्रपितामहास्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मन्मातृ पितामही प्रपितामह्य स्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मन्मातामह प्रमातामह वृद्धप्रमातामहा स्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ अस्मन्मातामही प्रमातामही वृद्धप्रमातामह्य स्तृप्यंताम् स्वधा नमः_|| ॐ आ ब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तं जगतंतृप्यताम् ..|| एवं तर्पणं कृत्वा.. यन्मया दुषितं तोयं मलैः शारीरसंभवैः.| तस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं यक्ष्मैतत्ते तिलोदकम्..|| इति यक्ष्मणे जलं दद्यात्..|| ततस्तीरमागत्य -"ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्य दग्धाः कुले मम.| भूमौ दत्तेन तृप्यंतु तृप्ता यांतु परांगतिम्.|| इति जलांजलिं तटे निक्षिपेत्..|| एवं स्नानांग तर्पणं कृत्वा सव्येनाचम्य.. सूर्यायार्घ्यं दद्यात्-ॐ एहि सूर्य सहस्रांशो००|| ततो जलाद्बहि निष्क्रम्य अहतं श्वेतं सदशं धौतं वस्त्रं परिधाय उपवस्त्रं गृहीत्वा त्रिराचम्य गृहं गच्छेत्..|| इति नद्यादि स्नान प्रयोगः_||
#पुनःयज्ञोपवीत आवश्यक प्रायश्चित्त व्रतानि..
#प्रायो_नाम_तपः_प्रोक्तं_चित्तं_निश्चय_उच्यते.|
#तपो_निश्चय_संयुक्तं_प्रायश्चित्तमिति_स्मृतम्.||
प्राय अर्थात् तप और चित्त अर्थात् निश्चय कहलातें है. इसलिए निश्चय के साथ होनेवाले तप को ही शास्त्र में प्रायश्चित्त कहा है.
#कृत्वा_पापं_हि_संतप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते.|
#नैवं_कुर्यां_पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः_||मनुः ११/२३०||
पाप करकें संताप करनेवाला किये हुए वह पापमें से मुक्त हो जाता है. तथा ऐसा पाप फिरसे नहीं करुंगा ऐसे निवृत्तिरूपी निश्चय करने से भी पवित्र होता है.
#अज्ञानाद्यदि_वा_ज्ञानात्कृत्वा_कर्म_विगर्हितम्.|
#तस्माद्विमुक्ति मन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्.||मनुः११/२३२||
जाने या अनजाने निंदितकर्म(पाप)करने के बाद उसमें से मुक्त होने की ईच्छा करनेवाले को फिर से ऐसा दूसरा निंदित-कर्म नहीं करना चाहिये.
#यस्मिन्कर्मण्यस्य_कृते_मनसः_स्यादलाघवम्.|
#तस्मिंस्तावत्तपः_कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं_भवेत्.||मनुः११/२३३||
जो प्रायश्चित्त कर्म करने के बाद भी पाप करनेवाले के मन को यदि संतोष न हो, तो जब तक उस संबंध में संतोष न मिलें, तब तक वह तप पुनः करना चाहिये.
#तप्तकृच्छ्र_व्रत-(लहसुन,गाजर,सलगम, खानेवाले तथा कुत्ती,ऊंटनी,मनुष्यस्त्री,हथिनी,घोडी,गधी इन सबका दूध पीनेवालें को प्रत्येक कहे हुए निंदित खाद्य तथा निंदित दूधपान संख्यामें १/१ अर्थात् लहसुन खानेवाले को १,लहसुन तथा गाजर खानेवाले को २,लहसुन-गाजर तथा हथिनिका दूध पीनेवाले को ३, ऐसे दोषवृद्धि संख्यानुसार,और गधेपर बैठकर योजनभर चलनेवाले के लिए ३, संख्यामें करने चाहिये.)
प्राकार-
#तप्तकृच्छ्र_चरन्विप्रो_जल_क्षीर_घृतानिलान्.|
#प्रति_त्र्यहं_पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी_समाहितः ||मनुः११/२१४||
#अपां_पिबेच्च_त्रिपलं_पलमेकं_च_सर्पिषः |
#पयः_पिबेत्तु_त्रिपलं_त्रिमात्रं_चोक्तमानतः ||
अथवा
#षट्पलं_तु_पिबेदम्भस्त्रिपलं_तु_पयः_पिबेत्.|
#पलमेकं_पिबेत्_सर्पिस्तप्तकृच्छ्रं_विधियते.||पराशरः||
#तपो_निश्चय_संयुक्तं_प्रायश्चित्तमिति_स्मृतम्.||
प्राय अर्थात् तप और चित्त अर्थात् निश्चय कहलातें है. इसलिए निश्चय के साथ होनेवाले तप को ही शास्त्र में प्रायश्चित्त कहा है.
#कृत्वा_पापं_हि_संतप्य_तस्मात्पापात्प्रमुच्यते.|
#नैवं_कुर्यां_पुनरिति_निवृत्या_पूयते_तु_सः_||मनुः ११/२३०||
पाप करकें संताप करनेवाला किये हुए वह पापमें से मुक्त हो जाता है. तथा ऐसा पाप फिरसे नहीं करुंगा ऐसे निवृत्तिरूपी निश्चय करने से भी पवित्र होता है.
#अज्ञानाद्यदि_वा_ज्ञानात्कृत्वा_कर्म_विगर्हितम्.|
#तस्माद्विमुक्ति मन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्.||मनुः११/२३२||
जाने या अनजाने निंदितकर्म(पाप)करने के बाद उसमें से मुक्त होने की ईच्छा करनेवाले को फिर से ऐसा दूसरा निंदित-कर्म नहीं करना चाहिये.
#यस्मिन्कर्मण्यस्य_कृते_मनसः_स्यादलाघवम्.|
#तस्मिंस्तावत्तपः_कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं_भवेत्.||मनुः११/२३३||
जो प्रायश्चित्त कर्म करने के बाद भी पाप करनेवाले के मन को यदि संतोष न हो, तो जब तक उस संबंध में संतोष न मिलें, तब तक वह तप पुनः करना चाहिये.
#तप्तकृच्छ्र_व्रत-(लहसुन,गाजर,सलगम, खानेवाले तथा कुत्ती,ऊंटनी,मनुष्यस्त्री,हथिनी,घोडी,गधी इन सबका दूध पीनेवालें को प्रत्येक कहे हुए निंदित खाद्य तथा निंदित दूधपान संख्यामें १/१ अर्थात् लहसुन खानेवाले को १,लहसुन तथा गाजर खानेवाले को २,लहसुन-गाजर तथा हथिनिका दूध पीनेवाले को ३, ऐसे दोषवृद्धि संख्यानुसार,और गधेपर बैठकर योजनभर चलनेवाले के लिए ३, संख्यामें करने चाहिये.)
प्राकार-
#तप्तकृच्छ्र_चरन्विप्रो_जल_क्षीर_घृतानिलान्.|
#प्रति_त्र्यहं_पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी_समाहितः ||मनुः११/२१४||
#अपां_पिबेच्च_त्रिपलं_पलमेकं_च_सर्पिषः |
#पयः_पिबेत्तु_त्रिपलं_त्रिमात्रं_चोक्तमानतः ||
अथवा
#षट्पलं_तु_पिबेदम्भस्त्रिपलं_तु_पयः_पिबेत्.|
#पलमेकं_पिबेत्_सर्पिस्तप्तकृच्छ्रं_विधियते.||पराशरः||
तप्तकृच्छ्रव्रत करनेवाले द्विजको स्नान आदि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर संयमित रहके शरीर के सामर्थ्य अनुसार पहले तीन दिन सायंकाल में तीनपल=१२तोला अथवा छहपल=२४तोला गरम जल, दूसरे तीन दिन मध्याह्न में तीनपल=१२तोला गाय का गरम दूध, तीसरे तीन दिन प्रातःकाल में एकपल=४तोला गाय का गरम घी पीना चाहिये और चौथे तीन दिन वायुभक्षी अर्थात् कुछ भी खाये पीये बिना उपवास पर रहकर गरम पवन का सेवन करना है.
कृच्छ्र(प्राजापत्य)व्रत-
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||
#त्र्यहं_प्रातस्त्र्यहं_सायं_त्र्यहमद्यादयाचितम्.||
#त्र्यहं_परं_च_नाश्नीयात्प्राजापत्यं_चरन्द्विज.||मनुः२११||
प्रथम तीन दिन तक केवल दिन में(मध्याह्न),ही खाना,पश्चात् तीन दिन रात्रि भोजन,पश्चात् तीन दिन बिना माँगे भोजन मिले तो खाना नहीं तो उपवास(जिस व्रतमें अयाचित क्रम हो ऐसा व्रत किसी को भी घरके सदस्योंको व्रतप्रारंभ और अंत तक किसीको बताना नहीं चाहिये.क्योंकि व्रतका विधान बतायेंगे तो संभव हैं कि बिना माँगे ही व्रतार्थीको खिलवा सकते हैं )और चौथे तीन दिन कुछ भी खाये पीना बिना उपवास करैं... ऐसे बारह दिनका एककृच्छ्र अथवा प्राजापत्यव्रत होता हैं.
#सायं_द्वात्रिंशतिर्ग्रासाः_प्रातः_षड्विंशतिस्तथा.||
#अयाचिते_चतुर्विंशत्परं_चानशनं_स्मृतम्.||
#कुक्कुटाण्डप्रमाणं_च_यावाँश्च_प्रविशेन्मुखम्.||
#एतं_ग्रासं_विजानीयाच्छुद्ध्यर्थं_ग्रासशोधनम्.||
#हविष्यं_चान्नमश्नीयाद्_यथा_रात्रौ_तथा_दिवा.||
#त्रींस्त्रीन्यहानि_शास्त्रीयान्_ग्रासान्_संख्याकृतान्_यथा.|
#अयाचित_तथैवाद्याद्_उपवासस्त्रंयहं_भवेत्.||वसिष्ठ/आपस्तंब||
इस कृच्छ्रव्रतमें कुकडीके अंडे के मापसे निवाला (सहजतासे मुखमें प्रवेश हो)उतने सायंकाल ३२ग्रास, सुबह(मध्याह्न)में २६ग्रास, बिना माँगे भोजन मिलनेपर भी २४ग्रास, निवाले भी शास्त्र संमत शुद्ध प्रमाणसे होने चाहिये..जैसे रात्रि और दिनमें तथा बिना माँगे तीनों प्रकारमें हविष्यान्न ही ग्रहण करना चाहिये.तथा चौथे तीन दिन उपवास बिना कुछ खाये पीयें करना यह प्रमाणित कृच्छ्र(प्राजापत्य) जानें.
#चान्द्रायणव्रत- यह व्रत पाँच प्रकार का होता हैं इनमेंसे किसी एक प्रकारका करना हैं.
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.
चान्द्रायण करनेवाले द्विजको ग्रास लेते समय यह मंत्र मनमें पढकर प्रतिग्रासको अभिमंत्रित कर लेना चाहिये..
{ॐ भूर्भुवःस्वः तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिवः(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)नमः स्वाहा } || ग्रास ग्रहण करतें समय "नमः स्वाहा" युक्त पुरा मंत्र पढैं..
#चान्द्रायणव्रत- यह व्रत पाँच प्रकार का होता हैं इनमेंसे किसी एक प्रकारका करना हैं.
(१)पिपीलिकामध्ये चांद्रायण-
#एकैकं_ह्रासयेत्पिण्डं_कृष्णे_शुक्ले_च_वर्धयेत्.||
#उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं_स्मृतम्.||मनुः११/२१६||
तीनों संध्या स्नान कर नित्यकर्मसे निवृत्त होकर कृष्णपक्षमें भोजनमें १/१निवाला कम करते जायें और शुक्लपक्षमें १/१ निवाला वृद्धि करते रहना चाहिये.जैसे कृष्ण प्रतिपदाको १४,द्वितीयाको १३ वैसे घटते क्रम में अमावास्याको उपवास,पश्चात् शुक्ल प्रतिपदा को १,द्वितीया को २,वैसे बढाते क्रम में पूर्णिमा को १५, निवाले का माप पहले कहा गया हैं.
(२)यव मध्य चान्द्रायण-
#एतमेव_विधिं_कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे.||
#शुक्लपक्षादि_नियत_चरंश्चान्द्रायणं_व्रतम्.||मनुः११/२१७||
इस मुजब यव मध्य चान्द्रायणमें भी ग्रासकी बढती घटती संख्या और स्नान नियम जानें.इसमें शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या तक के क्रम से, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को १,द्वितीया को २, वैसे बढते क्रम में पूर्णिमा को १५ ग्रास,पश्चात् कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को १४, द्वितीया को १३, वैसे घटते क्रम में सम्पूर्ण उपवास. ग्रासका मान पहले कहा गया हैं.
(३)यति चान्द्रायण-
#अष्टावष्टौ_समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने_स्थिते.||
#नियतात्मा_हविष्याशी_यतिचान्द्रायणं_चरन्.||मनुः११/२१८||
यति चान्द्रायण करनेवाले द्विज को जितेन्द्रिय रहते हुए तीनों संध्या स्नान आदिसे निवृत्त होकर मध्याह्न में ही ३० तीन ८/८ निवाले हविष्यान्न खाना चाहिये और कुछ भी नहीं.(शुक्ल प्रतिपदासे या कृष्ण प्रतिपदासे आरंभ करैं.) ग्रासका मान पहले कहा हैं.
(४)शिशु चान्द्रायण-
#चतुरः_प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः_समाहितः ||
#चतुरोऽस्तमिते_सूर्ये_शिशुचान्द्रायणं_स्मृतम् ||मनुः११/२१९||
स्वस्थ चित्त वाले द्विजको तीनों संध्या स्नानादि से निवृत्त रहकर सुबह(प्रातःकाल)में ही ४ग्रास, तथा सूर्यास्त समय ४ग्रास प्रतिदिन ३०दिन लेने चाहिये. यह शिशुचान्द्रायण व्रत हैं.
(५) तिस्र अशीतीः ग्रासमान चान्द्रायण-
#यथा_कथंचित्पिण्डानां_तिस्रोऽशीतीः_समाहितः ||
#मासेनाश्नन्हविष्यस्य_चन्द्रस्यति_सलोकताम्.||मनुः११/२२०||
जो द्विज सावधान रहकर तीनों संध्या स्नानादिसे निवृत्त होकर एक मासमें किसी भी प्रकार से हविष्यान्नके केवल २४० ग्रास(निवाले)-मासमें कुल २४०ग्रास हो, वह चन्द्रलोकको प्राप्त करता है.
चान्द्रायण करनेवाले द्विजको ग्रास लेते समय यह मंत्र मनमें पढकर प्रतिग्रासको अभिमंत्रित कर लेना चाहिये..
{ॐ भूर्भुवःस्वः तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वर्चः पुरुषो धर्मः शिवः(इत्येतैः ग्रासानुमंत्रणं प्रतिमंत्रं मनसा)नमः स्वाहा } || ग्रास ग्रहण करतें समय "नमः स्वाहा" युक्त पुरा मंत्र पढैं..
#प्रायश्चित्तव्रतार्थीओं_के_नियम-
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||
#महाव्याहृतिभिर्होमः_कर्तव्यः_स्वयमन्वहम् |
#अहिंसा_सत्यमक्रोधमार्जवं_च_समाचरेत् ||
#त्रिरहस्त्रिनिशायां_च_सवासा_जलमाविशेत् |
#स्त्री_शूद्र_पतितांश्चैव_नाभिभाषेत_कर्हिचित् ||
#स्थानासनाभ्यां_विहरेदशक्नोऽधः_शयीत_वा |
#ब्रह्मचारी_व्रती_च_स्याद्गुरुदेव_द्विजार्चकः ||
#सावित्रीं_च_जपेन्नित्यं_पवित्राणि_च_शक्तितः |
#सर्वेष्वेव_व्रतेष्वेवं_प्रायश्चित्तार्थमादृतः ||
#एतैर्द्विजातयः_शोध्या_व्रतैराविष्कृतैनसः ||मनुः११/२२३-२२७||
व्रतार्थी प्रतिदिन स्वयं (ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम/ ॐभुवःस्वाहा- इदं वायवे न मम/ ॐस्वः स्वाहा-इदं सूर्याय न मम/ ॐ भूर्भुवःस्वःस्वाहा -इदं प्रजापतये न मम) इन महाव्याहृतिमंत्रोसे विट् नामक अग्निमें अपने सूत्रके विधानसे होम करै..
और अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह
विधान हैै..
और अहिंसा,सत्यभाषण,क्रोधत्याग, और सरलता का वर्ताव करै..
तीन बार दिनमें तथा तीन बार रात में सवस्त्र स्नान करै.पराई स्त्री,शुद्र तथा पतितो से कभी बातचीत न करै..
आसनपर बैठे बैठे या खडे खडे व्रतका पालन करै..
अशक्त हो तो भूमीपर लेटकर व्रत का पालन करै..और ब्रह्मचारी,व्रती,गुरु,देवता और द्विजोका पूजन करैं..
नित्य यथाशक्ति(कमसे कम १०८),और अघमर्षणादि पवित्र मन्त्रोंका जप करैं..प्रायश्चित के सभी व्रतो में यह
विधान हैै..
#अथ_पुनरुपनयने_प्रायश्चित्त_प्रयोगः-
स्वासने प्राङ्गमुखोपविश्य आचम्य_प्राणानायम्य देशकालौ संकीर्त्य.. अमुकदोष परिहारार्थं पर्षदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं करिष्ये..इति संकल्प्य.|| पापसंख्यानुसारेण कृच्छ्रादिव्रतं तदशक्तौ यथा प्रत्याम्नायद्वारा संस्कार्येण पर्षदुपदिष्टं कारयेत्..||(पापोंकी संख्यानुसार कृच्छ्रादिव्रतों अथवा व्रतके प्रत्याम्नायोंमेसे व्यक्ति के शरीर, आयुअवस्था, संपत्तिशक्ति अनुसार यजमान जो ईच्छा करैं वह नहीं परंतु विद्वान् जो शास्त्रसम्मत कहै वह यजमानके शरीर,आयु, शक्तिके अनुसार,पहले शारीरिक तप-जप-होम,वह शरीरादिसामर्थ्यतासे न हो सकैं तो मूल दान अथवा उनका वर्तमानमूल्यका दान,दानके अभावमें सुवर्ण या चांदी का दान,अथवा अशक्ति में ही ब्राह्मणभोजन इत्यादि की कल्पना बुद्धि और विवेकसे करैं..
#प्रायश्चित्तेन्दुशेखर,धर्मसिन्धु,कल्पद्रुमेषु- प्राजापत्य(कृच्छ्रव्रतानां)प्रत्याम्नायाः- शरीर,आयु की अवस्थानुसार- मूल प्रायश्चित्त या (१)गायत्रीमंत्र १००००जप,(२) सहस्रव्याहृतिभिः तिलहोमः,(३)विधिसे तीर्थयात्रा,(४) शुष्ककेश पर्यन्तं द्वादशस्नानानि, (५) वेदसंहिता पारायण,(६) द्वादशसहस्र सूर्यनमस्कार
(७) द्वात्रिंशदुत्तरशतं-१३२ प्राणायामान् कृत्वा अहोरात्रमुपोषितः प्राङ्गमुखस्तिष्ठेत्,(८)रुद्रैकादशिनी(९)षडुपवासाः
(१०) षडुपवासानां अशक्तौ ६००० गायत्रीजप,(११)स्मृत्यर्थसारे द्वादशप्राणायामाः,अथवा (११)शक्तिसामर्थ्यसम्पन्नतानुसारेण-
प्राजापत्येष्वशक्तस्तु धेनुं दद्यात् पयस्विनीम् ||
तदशक्तौ निष्कं स्यात्तदर्धं पादमेव वा || निष्कस्य चत्वारिंशन्माषाः(दशार्धगुंजं प्रवदन्ति माषः)= ४०×५= २००ग्राम सुवर्ण/तदर्ध- १००ग्राम - तदर्ध ५०ग्राम सुवर्णमान,अथवा चाँदीके मानसे २००/१००/अथवा ५० ग्राम चाँदी इससे न्यून नहीं...(१२) बारह सोपस्कर सहित श्रोत्रियब्राह्मण भोजन- (१३) सोपस्कर सहित एक विप्र(वेदज्ञ)भोजन ||आचार्य द्विजको पुनरुपनयन के नेतृत्वके अधिकार के लिए स्वयं संकल्पकर तीनकृच्छ्रव्रत या बारह हजार गायत्रीजप करै..
#आचार्यो देशकालौ संकीर्त्य अमुकदोष परिहारार्थं पुनरुपनयन संस्कारसिद्धिद्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं स्वस्यनेतृत्वधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं च कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तं(वा - कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तस्य प्रत्याम्नाय द्वादशसहस्र गायत्रीजपं अहं (वा- ब्राह्मण द्वारा)करिष्ये)-(ब्राह्मणोंसे करवाना हो तो यह जप संस्कारकी जगहपर ही ब्राह्मणोंसे कराये.)तदैव जपं कुर्यात् |(जिसको पुनरुपनयन संस्कार करना हो वह स्वयं संकल्पकर तीनकृच्छ्र अथवा बारह हजार गायत्रीजप का संकल्प कर स्वयं जप करैं)-
संस्कार्योऽपि- देशकालौ संकीर्त्य कामाचार,कामावाद,कामभक्षणादि दोषोपनोदनार्थं कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तं (वा- कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तस्य प्रत्याम्नाय द्वादशसहस्र गायत्रीजपं ) करिष्ये..
प्रायश्चित्त होमं कुर्यात्-
ततो हस्तमात्रं चतुरस्रं स्थंडिलं कृत्वा पञ्चभूसंस्कारान् सम्पाद्य अग्निंसंस्थाप्य | ब्रह्मासनादि चरुश्रपणादि आज्यभागान्ते.. ॐभूर्वःस्वः विट् नामाग्नये नमः इत्यग्निं सम्पूज्य- आज्यलुप्त समिद्धमादाय मध्यमूलयोर्मध्येन नित्वा उत्थाय -ॐ पुनस्त्वादित्या...कामाः स्वाहा || ॐ पुनर्म्मनः पुनरा... वत्ध्यात् स्वाहा || आसने उपविश्य ततश्चरुहोमः- ॐ सप्ततेऽअग्ने समिधः ..घृेतेन स्वाहा || ॐ जत्ते पवित्र... पुनातु मा स्वाहा || ॐ पवमानः सोऽ अद्यनः ...पुनातु मा स्वाहा || ॐ उभाभ्यां देव सवितः ...व्विश्वतः स्वाहा || ततोन्वारब्धेन अग्निंस्विष्टकृतं नवाहुतयश्च || ॐ मूर्द्धानं दिवोऽ.. स्वाहा-इदं अग्नये न मम || संस्रवप्राशनादिकं कृत्वा आचार्याय सवत्सां गां दद्यात् -तदशक्तौ गो निष्क्रयं दद्यात्- अदाने प्रत्यवायी भवति तस्मादेव दद्यात् || इति प्रायश्चित्तम् ||
स्वासने प्राङ्गमुखोपविश्य आचम्य_प्राणानायम्य देशकालौ संकीर्त्य.. अमुकदोष परिहारार्थं पर्षदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं करिष्ये..इति संकल्प्य.|| पापसंख्यानुसारेण कृच्छ्रादिव्रतं तदशक्तौ यथा प्रत्याम्नायद्वारा संस्कार्येण पर्षदुपदिष्टं कारयेत्..||(पापोंकी संख्यानुसार कृच्छ्रादिव्रतों अथवा व्रतके प्रत्याम्नायोंमेसे व्यक्ति के शरीर, आयुअवस्था, संपत्तिशक्ति अनुसार यजमान जो ईच्छा करैं वह नहीं परंतु विद्वान् जो शास्त्रसम्मत कहै वह यजमानके शरीर,आयु, शक्तिके अनुसार,पहले शारीरिक तप-जप-होम,वह शरीरादिसामर्थ्यतासे न हो सकैं तो मूल दान अथवा उनका वर्तमानमूल्यका दान,दानके अभावमें सुवर्ण या चांदी का दान,अथवा अशक्ति में ही ब्राह्मणभोजन इत्यादि की कल्पना बुद्धि और विवेकसे करैं..
#प्रायश्चित्तेन्दुशेखर,धर्मसिन्धु,कल्पद्रुमेषु- प्राजापत्य(कृच्छ्रव्रतानां)प्रत्याम्नायाः- शरीर,आयु की अवस्थानुसार- मूल प्रायश्चित्त या (१)गायत्रीमंत्र १००००जप,(२) सहस्रव्याहृतिभिः तिलहोमः,(३)विधिसे तीर्थयात्रा,(४) शुष्ककेश पर्यन्तं द्वादशस्नानानि, (५) वेदसंहिता पारायण,(६) द्वादशसहस्र सूर्यनमस्कार
(७) द्वात्रिंशदुत्तरशतं-१३२ प्राणायामान् कृत्वा अहोरात्रमुपोषितः प्राङ्गमुखस्तिष्ठेत्,(८)रुद्रैकादशिनी(९)षडुपवासाः
(१०) षडुपवासानां अशक्तौ ६००० गायत्रीजप,(११)स्मृत्यर्थसारे द्वादशप्राणायामाः,अथवा (११)शक्तिसामर्थ्यसम्पन्नतानुसारेण-
प्राजापत्येष्वशक्तस्तु धेनुं दद्यात् पयस्विनीम् ||
तदशक्तौ निष्कं स्यात्तदर्धं पादमेव वा || निष्कस्य चत्वारिंशन्माषाः(दशार्धगुंजं प्रवदन्ति माषः)= ४०×५= २००ग्राम सुवर्ण/तदर्ध- १००ग्राम - तदर्ध ५०ग्राम सुवर्णमान,अथवा चाँदीके मानसे २००/१००/अथवा ५० ग्राम चाँदी इससे न्यून नहीं...(१२) बारह सोपस्कर सहित श्रोत्रियब्राह्मण भोजन- (१३) सोपस्कर सहित एक विप्र(वेदज्ञ)भोजन ||आचार्य द्विजको पुनरुपनयन के नेतृत्वके अधिकार के लिए स्वयं संकल्पकर तीनकृच्छ्रव्रत या बारह हजार गायत्रीजप करै..
#आचार्यो देशकालौ संकीर्त्य अमुकदोष परिहारार्थं पुनरुपनयन संस्कारसिद्धिद्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं स्वस्यनेतृत्वधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं च कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तं(वा - कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तस्य प्रत्याम्नाय द्वादशसहस्र गायत्रीजपं अहं (वा- ब्राह्मण द्वारा)करिष्ये)-(ब्राह्मणोंसे करवाना हो तो यह जप संस्कारकी जगहपर ही ब्राह्मणोंसे कराये.)तदैव जपं कुर्यात् |(जिसको पुनरुपनयन संस्कार करना हो वह स्वयं संकल्पकर तीनकृच्छ्र अथवा बारह हजार गायत्रीजप का संकल्प कर स्वयं जप करैं)-
संस्कार्योऽपि- देशकालौ संकीर्त्य कामाचार,कामावाद,कामभक्षणादि दोषोपनोदनार्थं कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तं (वा- कृच्छ्रत्रयात्मक प्रायश्चित्तस्य प्रत्याम्नाय द्वादशसहस्र गायत्रीजपं ) करिष्ये..
प्रायश्चित्त होमं कुर्यात्-
ततो हस्तमात्रं चतुरस्रं स्थंडिलं कृत्वा पञ्चभूसंस्कारान् सम्पाद्य अग्निंसंस्थाप्य | ब्रह्मासनादि चरुश्रपणादि आज्यभागान्ते.. ॐभूर्वःस्वः विट् नामाग्नये नमः इत्यग्निं सम्पूज्य- आज्यलुप्त समिद्धमादाय मध्यमूलयोर्मध्येन नित्वा उत्थाय -ॐ पुनस्त्वादित्या...कामाः स्वाहा || ॐ पुनर्म्मनः पुनरा... वत्ध्यात् स्वाहा || आसने उपविश्य ततश्चरुहोमः- ॐ सप्ततेऽअग्ने समिधः ..घृेतेन स्वाहा || ॐ जत्ते पवित्र... पुनातु मा स्वाहा || ॐ पवमानः सोऽ अद्यनः ...पुनातु मा स्वाहा || ॐ उभाभ्यां देव सवितः ...व्विश्वतः स्वाहा || ततोन्वारब्धेन अग्निंस्विष्टकृतं नवाहुतयश्च || ॐ मूर्द्धानं दिवोऽ.. स्वाहा-इदं अग्नये न मम || संस्रवप्राशनादिकं कृत्वा आचार्याय सवत्सां गां दद्यात् -तदशक्तौ गो निष्क्रयं दद्यात्- अदाने प्रत्यवायी भवति तस्मादेव दद्यात् || इति प्रायश्चित्तम् ||
#अथ_पुनरुपनयनम्
कृत मंगलस्नानो धृतमंगलतिलकः कर्ता शुभासने प्राङ्गमुख उपविश्य स्वदक्षिणतः संस्कार्यं चोपवेश्य। आचम्य-प्राणानायम्य। देशकालौ संकीर्त्य-अस्य संस्कार्यस्य अमुकदोष परिहार पूर्वकं पुनःसंस्कार सिद्धिद्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं उपनयनसंस्कारं करिष्ये...।।* तदंगतया गणपतिपूजनं पुण्याहवानं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं ब्राह्मणवरणं च करिष्ये...।।यथा क्रमेण तानि कर्माणि समाप्य।। ब्राह्मणत्रयं संस्कार्यं च भोजयित्वा तं स्नापयित्वा ।। वपन,मेखला,दंड,भैक्ष्यचर्या,व्रतादिभिर्विना उपनयनं कुर्यात्-(अजिनं मेखला दंडो भैक्ष्यचर्या व्रतानि च। निवर्तंते द्विजातीनां पुनःसंस्कार कर्मणि।।मनुपराशरौ।।)"..।।
ततो बहिः शालायां हस्तमात्र परिमितं चतुरस्रं स्थंडिलं कृत्वा तदुपरि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकमग्निस्थापनं समाप्य।। (संस्कार्य आचार्यके चरण स्पर्श करैं-"व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।)"संस्कार्यं आचार्यपादौ प्रणमति।(अपनी दायीं औरसे आचार्य संस्कार्यको अग्निके पश्चिममें आसनपर बिठाईये)-"स्वदक्षिणतः पश्चादग्नेस्तमवस्थापयेत्। संस्कार्यं प्रति आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचर्यमागाम्"(संस्कार्य आचार्यसे कहैं)- कुमारो ब्रूयात्"ॐब्रह्मचर्यमागाम्"।(आचार्य संस्कार्यको कहलायें)-आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचार्यसानि।(संस्कार्य भी आचार्य के प्रति कहैं)कुमारमपि वदति-"ॐब्रह्मचार्यसानि।(आचार्य संस्कार्य को मंत्रपढकर सफेद वस्त्र धारण करवायें)। अथैनं माणवकम् आचार्यो वासः परिधापयति।। येनेन्द्रायेति आङ्गिरसऋषिः बृहतीच्छंदः बृहस्पतिर्देवता वासः परिधाने विनियोगः-"ॐ येनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासःपर्यदधादमृतम्। तेनत्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।।आचमनम्।। यज्ञोपवीत धारणाधिकारार्थं यज्ञोपवीत सहितं सदक्षिणं भांडाष्टकं ब्राह्मणेभ्यो दत्त्वा यज्ञोपवीतं परिदध्यात्।। आचार्यो (पहलेआचार्य ही (पूर्वाह्नमें बनाया हुआ यज्ञोपवीत)का प्रक्षालन करैं)-"तत्रादौ आचार्येण(आपोहिष्ठेति तिसृणां सिंधुद्वीप ऋषिः गायत्री छंदः आपोदेवता यज्ञोपवीत प्रक्षालने विनियोगः ॐआपोहिष्ठा० ॐजोवः शिवतमो० ॐतस्मा$अरङ्ग०।।इति त्रिभिमन्त्रैर्यज्ञोपवीतं प्रक्षाल्य।(हाथोंका सम्पुटबनाकर दशगायत्रीमंत्रसे अभिमंत्रित करैं)-"करसम्पुटे धृत्वा दशधा गायत्र्या अभिमंत्र्य।।(ब्रह्मविष्णुरुद्र तीनमंत्रों पढकर उपवीतमें अपने हाथका दायाँ अँगुठा प्रदक्षिणरितिसे घूमाईयैं)-"अंगुष्ठं उपवीते भ्रामयेत् एभिर्मन्त्रैः-ॐब्रह्मजज्ञानं०।ॐइदं व्विष्णुर्वि०।ॐ नमस्ते रुद्र०।(अब यज्ञोपवीतके तंतुओंके देवताओंका आवाहन अक्षतसें करैं)-प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छंदः परमात्मादेवता प्रथमतन्तौ ॐकारावाहने विनियोगः-(१)ॐ प्रथमतन्तौ ॐकाराय नमः-ॐकारं आवाहयामि।(२)-अग्निन्दूतमिति मेधातिथिर्ऋषिः गायत्रीछंदः अग्निर्देवता द्वितीयतन्तौ अग्न्यावाहने विनियोगः-ॐअग्निन्दूतं०।द्वितीयतन्तौ अग्नये नमः अग्निं आवाहयामि।(३)नमो$स्तु सर्पेभ्य इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः सर्पा देवताः अनुष्टुप् छंदः तृतीयतन्तौ सर्पावाहने विनियोगः।ॐ नमो$स्तु सर्प्पेब्भ्यो०।तृतीयतन्तौ सर्पेभ्यो नमः सर्पान् आवाहयामि।(४)-वय गूँ सोमेत्यस्य बन्धुर्ऋषिः सोमोदेवता गायत्रीछंदः चतुर्थतन्तौ सोमावाहने विनियोगः।ॐ व्वय गूँ सोम०।चतुर्थतन्तौ सोमाय नमः सोमं आवाहयामि।(५)-उदीरतामित्यस्य शङ्खऋषिः पितरो देवता त्रिष्टुप् छंदः पञ्चमतन्तौ पित्रावाहने विनियोगः।ॐ उदीरतामवर$०।पञ्चमतन्तौ पितृभ्यो नमः पितॄन् आवाहयामि|(६)-प्रजापतेइत्यस्य हिरण्यगर्भ ऋषिः प्रजापतिर्देवता त्रिष्टुप् छंदः षष्ठतन्तौ प्रजापत्यावाहने विनियोगः| ॐप्रजापतेनत्त्व०||षष्ठतन्तौ प्रजापतये नमः प्रजापतिं आवाहयामि|(७)-आनोनियुद्भिरित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः अनिलो देवता त्रिष्टुप् छंदः सप्तमतन्तौ अनिलावाहने विनियोगः| ॐआनोनियुद्भिः०|सप्तमतन्तौ अनिलाय नमः अनिलं आवाहयामि|(८)-सुगावइत्यस्य अत्रिर्ऋषिः गृहपतयो देवता आर्षीत्रिष्टुप् छंदः अष्टमतन्तौ यमावाहने विनियोगः|ॐसुगावोदेवाःसदनाऽ०|अष्टमतन्तौ यमाय नमः यमं आवाहयामि|(९)-विश्वेदेवासऽआगत इत्यस्य मधुच्छन्दा ऋषिः विश्वेदेवा देवताः त्रिष्टुप् छंदः नवमतन्तौ विश्वेषां देवानामावाहने विनियोगः|ॐविश्श्वेदेवासऽ०|नवमतन्तौ विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः विश्वान्देवान् आवाहयामि|(१०)ब्रह्मजज्ञानमित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः ब्रह्मा देवता गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मावाहने विनियोगः| ॐब्रह्मजज्ञानं०|ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणं आवाहयामि|(११)- इदं विष्णुरित्यस्य मेधातिथिर्ऋषिः गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये विष्णवावाहने विनियोगः|ॐइदं व्विष्ण्णु०|ग्रन्थिमध्ये विष्णवे नमः विष्णुं आवाहयामि|(१२)- त्र्यम्बकमित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः रुद्रो देवता अनुष्टुप् छंदः ग्रन्थिमध्ये रुद्रावाहने विनियोगः|ॐ त्र्यम्बकं०| ग्रन्थिमध्ये रुद्राय नमः रुद्रं आवाहयामि|***ध्यानम्*** ॐप्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्| ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्रम्||इति ध्यात्वा||(गंधाक्षतपुष्पसे यज्ञोपवीतका पूजन करैं)-"ॐप्रणवादिनवतंतुदेवता सहित ब्रह्मविष्णुरुद्रेभ्यो नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षत पुष्पाणि समर्पयामि इति सम्पूज्य ||(उदुत्यं०इस मंत्रसे आचार्य सूर्य नारायणको यज्ञोपवीत दिखलायैं- आचार्यो-उदुत्यमिति सूर्याय दर्शयेत्-"उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिः गायत्री छंदः सूर्यो देवता सूर्यावलोकने विनियोगः-"ॐउदुत्त्यञ्जात०|| यज्ञोपवीतमिति परमेष्ठि ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः लिंगोक्ता देवता "श्रौत स्मार्त कर्मानुष्ठान सिद्ध्यर्थे यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः|ॐयज्ञोपवीतं परमं पवित्रं०यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्यत्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि||(दायाँ हाथ अंदर तथा सिरसे बायें कन्धेपर आयें ऐसे यज्ञोपवीत धारण करायैं)-" इतिं मंत्रं पठित्वा दक्षिणबाहुमुद्धृत्य वामस्कंधे यज्ञोपवीतं धारयेत्||(विधिसे आचमन करायें)। आचमनम्।।दशधा गायत्रीं जपेत् ।। एवमेव ब्रह्मचारिण एकं स्नातकस्य द्वे उत्तरीयाभावे तृतीयकं आयुष्यकामस्तु त्र्यधिकानि बहुनि यज्ञोपवीतानि धारयेत्।। जीर्णयज्ञोपवीत त्यागः- ॐसमुद्रङ्गच्छस्वाहान्तरिक्षङ्गच्छ०००।।यजुः६/२१।। (आचार्य संस्कार्यको दोनो हाथोसे अंजली बनानेके लिए कहैं तथा आचार्य स्वयं अपने दोनों हाथोकी अंजलीमें जल ग्रहण करकें संस्कार्य की अंजलीमें जल प्रदान करैं।।)"तत आचार्यः स्वांजलिना अद्भिः संस्कार्यस्य अंजलिं पूरयति।(आचार्य आपोहिष्ठा०के तीन मंत्रों क्रमसे पढकर संस्कार्यसे सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करायें)"-आचार्य पठितैस्त्रिभिर्मन्त्रैः माणवकः सूर्याय अर्घत्रयं दद्यात्।ॐ आपोहिष्ठामयो०। श्री सूर्यायनमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।ॐ जोवः शिवतमो०। श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम। ॐ तस्मा$अरङ्ग०।श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।"(आचार्य संस्कार्यको सूर्यनारायणका दर्शन करनेके लिए कहैं।)"ततः आचार्यो माणवकं प्रेषयति "सूर्यं उदीक्षस्व"।"(संस्कार्य सूर्यनारायणका दर्शन करैं)"ततो माणवकः तच्चक्षुरिति सूर्यं पश्यति।तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः उष्णिक् छंदः सूर्यो देवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः।ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं०।(आचार्य अपना दायाँ हाथ संस्कार्य के दायें कन्धेपर हाथ रखकर संस्कार्य के हृदयतक लें जायैं।) "तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिणस्कंधोपरि हस्तं नीत्वा तस्य हृदयं आलभते।। मम व्रतेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः बृहस्पतिर्देवता हृदयालंभने विनियोगः।ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तन्ते$अस्तु। मम वाचमेकमनाजुषस्व बृहस्पतिष्ट्वानियुनक्तु मह्यम्।।"(आचार्य संस्कार्य का दायाँ हाथ पकडकर उन्हैं प्रश्न पुछैं।)"तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिण हस्तं गृहित्वा$$ह।।(को नामासि?-" तेरा क्या नाम हैं?)"। एवं पृष्टे माणवकः प्रत्याह।।(संस्कार्य अपने नामके पीछे शर्मा,वर्मा,गुप्त लगाकर नाम कहैं->अमुक शर्मा अहं भोः।)"। फिरसे आचार्य संस्कार्य को प्रश्न करैं-"पुनराचार्यः पृच्छति माणवकम्"(कस्य ब्रह्मचार्यसि?-आप किसके ब्रह्मचारी हो?)"संस्कार्य आचार्यसे कहैं"(भवतः-मैं आपका ब्रह्मचारी हूं)"इत्युच्यमाने माणवकेन तं प्रत्याचार्यो ब्रूयात्।(संस्कार्यके ऐसा कहनेपर आचार्य संस्कार्य को कहैं-)"इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यस्तवासौ अमुकशर्मन्,वर्मन्,गुप्त।(आप इन्द्रके ब्रह्मचारी हो,अग्नि तेरा आचार्य हैं,और मैं आपका आचार्य हूं-"फिर आचार्य पाँचभूतो के रक्षण हेतु संस्कार्य के शरीरका स्पर्श करैं)"अथैनं माणवकं भूतेभ्यः परिददाति-आचार्यः।यथा-प्रजापतये इत्यादीनां मन्त्राणां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता कुमाररक्षणे विनियोगः।ॐ प्रजापतयेत्वापरिददामि देवायत्वासवित्रे परिददाम्यद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वापरिददामि विश्वेभ्यस्त्वादेवेभ्यः परिददामि सर्वेभ्यस्त्वाभूतेभ्यः परिददाम्यरिष्ट्यै।।इत्याचार्य पठित मन्त्रेण माणवकरक्षणम्।
ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं चरुवर्जं कृत्वा।। समुद्भव नामाग्निं सम्पूज्य।।(संस्कार्य से उपनयनप्रधान होम करवायें)-"भूर्भुवःस्वरिति महाव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवता उपनयनाङ्ग प्रधान होमे विनियोगः।ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"। ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"। ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम"।ॐत्वन्नो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐसत्त्वनो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐअयाश्चाग्ने०००स्वाहा-इदं अग्नये अयसे न मम। ॐजेतेशतं०००स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐउदुत्तमं०००स्वाहा-इदं वरुणायादित्यादितये च न मम।ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम।ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम्।।
यज्ञोपवीतवेदारम्भौ(४)- (आचार्य संस्कार्य को उपदेश दैं)"-तत आचार्यः कुमारं शिक्षयति।। आचार्यः(ब्रह्मचार्यसि?-आप ब्रह्मचारी हो?)।"संस्कार्य आचार्यसे कहैं-"कुमारः(ब्रह्मचारी भवानि-(आपकी कृपासे)मैं ब्रह्मचारी बनुंगा)"।आचार्यः"(अपो$शान-आचमन करो)।संस्कार्यः "(अशानि-में आचमन कर लेता हूं)। आचार्यः"(कर्मकुरु-अबसे आप वैदिक कर्म करो)।संस्कार्य (करवाणि-आपकी कृपासे शयनतक सारे दिन वैदिक कर्म करुंगा)। आचार्यः"(मा दिवा सुषुप्थाः- अबसे आप दिनमें नहीं सोयेंगे)।संस्कार्यः"(न स्वपानि- मैं दिनमें नहीं सोऊंगा)।आचार्यः"(वाचं यच्छ- ऐसा हो तो मुजे वचन दो आप वाणीको नियमनमें रखैंगे और सत्य बोलेंगे)। संस्कार्यः"(यच्छामि- मैं आपको वचन देता हूं-मैं वाणीको नियमनमें रखुंगा और में सत्य बोलुंगा)।आचार्यः"(समिधमाधेहि-अबसे आप अग्निकी उपासनाके लिए समिध धारण करौंगे)। संस्कार्यः"(आदधानि-मैं समिध धारण करुंगा)। आचार्यः"(अपो$शान-आप "किसीभी वैदिक कर्म करनेसे पहले पवित्र बनने"आचमन करैं)। संस्कार्यः"(अशानि-मैं आचमन करुंगा)।(इस संस्कार्यको गायत्री उपदेश देनेके लिए अग्निकी उत्तर में स्त्री तथा कोई दूसरा सुन न पाये ऐसे दूर आसनपर बीठाईए)"। आचार्यो$ग्नेरुत्तरतो प्रत्यङ्गमुखोपविष्टाय पादोपसंग्रहणपूर्वकमुपसन्नाय समीक्षमाणाय समीक्षिताय सावित्रीं ब्रूयात्।अथोपदेशः तत्रादौ (आचार्य-आचारसे कांसीके पात्रमें तंडुल पसारकें तंडुलोंमे सोनेकी शलाकासे अथवा कुशसे ॐकार तीनों व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र लिखै)। आचार्यः आचारात् कांस्यपात्रे तंडुलान्प्रसार्य तत्र सुवर्णशलाकया ॐकार पूर्वकं गायत्रीमंत्रं लिखित्वा)।(संस्कार्य दायें हाथमें जल रखें)-"संस्कार्यो जलं गृहित्वा" अद्येत्यादि० मम वेद अध्ययनादि अधिकार सिद्धि अर्थं गायत्री उपदेश अंग विहितं गायत्री पूजनं आचार्य पूजनं च करिष्ये।"(पहले गंधाक्षतपुष्पसे गणपतिका पूजन करनें फिरसे दायें हाथमें जल रखें)। तत्रादौ गणपतेः गंधाक्षतपुष्पैः पूजनं करिष्ये।(संस्कार्य अपने हाथमें गंधाक्षतपुष्प रखैं)।ॐ गणानान्त्वा०।। इति मंत्रेण गणपतिं सम्पूज्य।(कांसीके पात्रमें लिखे हुए गायत्रीमंत्रकी प्रतिष्ठा करैं)। अक्षतैः ॐमनोजूति०।। इति गायत्रीं प्रतिष्ठाप्य।। ध्यानम्-मुक्ता विद्रुमहेमनील००।ॐभूर्भुवःस्वः गायत्र्यै नमः इति नाममन्त्रेण लाभोपचारैः संपूज्य।
ततो बहिः शालायां हस्तमात्र परिमितं चतुरस्रं स्थंडिलं कृत्वा तदुपरि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकमग्निस्थापनं समाप्य।। (संस्कार्य आचार्यके चरण स्पर्श करैं-"व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः।सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः।।)"संस्कार्यं आचार्यपादौ प्रणमति।(अपनी दायीं औरसे आचार्य संस्कार्यको अग्निके पश्चिममें आसनपर बिठाईये)-"स्वदक्षिणतः पश्चादग्नेस्तमवस्थापयेत्। संस्कार्यं प्रति आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचर्यमागाम्"(संस्कार्य आचार्यसे कहैं)- कुमारो ब्रूयात्"ॐब्रह्मचर्यमागाम्"।(आचार्य संस्कार्यको कहलायें)-आचार्यो वदेत् "ॐब्रह्मचार्यसानि।(संस्कार्य भी आचार्य के प्रति कहैं)कुमारमपि वदति-"ॐब्रह्मचार्यसानि।(आचार्य संस्कार्य को मंत्रपढकर सफेद वस्त्र धारण करवायें)। अथैनं माणवकम् आचार्यो वासः परिधापयति।। येनेन्द्रायेति आङ्गिरसऋषिः बृहतीच्छंदः बृहस्पतिर्देवता वासः परिधाने विनियोगः-"ॐ येनेन्द्राय बृहस्पतिर्वासःपर्यदधादमृतम्। तेनत्वा परिदधाम्यायुषे दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे।।आचमनम्।। यज्ञोपवीत धारणाधिकारार्थं यज्ञोपवीत सहितं सदक्षिणं भांडाष्टकं ब्राह्मणेभ्यो दत्त्वा यज्ञोपवीतं परिदध्यात्।। आचार्यो (पहलेआचार्य ही (पूर्वाह्नमें बनाया हुआ यज्ञोपवीत)का प्रक्षालन करैं)-"तत्रादौ आचार्येण(आपोहिष्ठेति तिसृणां सिंधुद्वीप ऋषिः गायत्री छंदः आपोदेवता यज्ञोपवीत प्रक्षालने विनियोगः ॐआपोहिष्ठा० ॐजोवः शिवतमो० ॐतस्मा$अरङ्ग०।।इति त्रिभिमन्त्रैर्यज्ञोपवीतं प्रक्षाल्य।(हाथोंका सम्पुटबनाकर दशगायत्रीमंत्रसे अभिमंत्रित करैं)-"करसम्पुटे धृत्वा दशधा गायत्र्या अभिमंत्र्य।।(ब्रह्मविष्णुरुद्र तीनमंत्रों पढकर उपवीतमें अपने हाथका दायाँ अँगुठा प्रदक्षिणरितिसे घूमाईयैं)-"अंगुष्ठं उपवीते भ्रामयेत् एभिर्मन्त्रैः-ॐब्रह्मजज्ञानं०।ॐइदं व्विष्णुर्वि०।ॐ नमस्ते रुद्र०।(अब यज्ञोपवीतके तंतुओंके देवताओंका आवाहन अक्षतसें करैं)-प्रणवस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छंदः परमात्मादेवता प्रथमतन्तौ ॐकारावाहने विनियोगः-(१)ॐ प्रथमतन्तौ ॐकाराय नमः-ॐकारं आवाहयामि।(२)-अग्निन्दूतमिति मेधातिथिर्ऋषिः गायत्रीछंदः अग्निर्देवता द्वितीयतन्तौ अग्न्यावाहने विनियोगः-ॐअग्निन्दूतं०।द्वितीयतन्तौ अग्नये नमः अग्निं आवाहयामि।(३)नमो$स्तु सर्पेभ्य इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः सर्पा देवताः अनुष्टुप् छंदः तृतीयतन्तौ सर्पावाहने विनियोगः।ॐ नमो$स्तु सर्प्पेब्भ्यो०।तृतीयतन्तौ सर्पेभ्यो नमः सर्पान् आवाहयामि।(४)-वय गूँ सोमेत्यस्य बन्धुर्ऋषिः सोमोदेवता गायत्रीछंदः चतुर्थतन्तौ सोमावाहने विनियोगः।ॐ व्वय गूँ सोम०।चतुर्थतन्तौ सोमाय नमः सोमं आवाहयामि।(५)-उदीरतामित्यस्य शङ्खऋषिः पितरो देवता त्रिष्टुप् छंदः पञ्चमतन्तौ पित्रावाहने विनियोगः।ॐ उदीरतामवर$०।पञ्चमतन्तौ पितृभ्यो नमः पितॄन् आवाहयामि|(६)-प्रजापतेइत्यस्य हिरण्यगर्भ ऋषिः प्रजापतिर्देवता त्रिष्टुप् छंदः षष्ठतन्तौ प्रजापत्यावाहने विनियोगः| ॐप्रजापतेनत्त्व०||षष्ठतन्तौ प्रजापतये नमः प्रजापतिं आवाहयामि|(७)-आनोनियुद्भिरित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः अनिलो देवता त्रिष्टुप् छंदः सप्तमतन्तौ अनिलावाहने विनियोगः| ॐआनोनियुद्भिः०|सप्तमतन्तौ अनिलाय नमः अनिलं आवाहयामि|(८)-सुगावइत्यस्य अत्रिर्ऋषिः गृहपतयो देवता आर्षीत्रिष्टुप् छंदः अष्टमतन्तौ यमावाहने विनियोगः|ॐसुगावोदेवाःसदनाऽ०|अष्टमतन्तौ यमाय नमः यमं आवाहयामि|(९)-विश्वेदेवासऽआगत इत्यस्य मधुच्छन्दा ऋषिः विश्वेदेवा देवताः त्रिष्टुप् छंदः नवमतन्तौ विश्वेषां देवानामावाहने विनियोगः|ॐविश्श्वेदेवासऽ०|नवमतन्तौ विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः विश्वान्देवान् आवाहयामि|(१०)ब्रह्मजज्ञानमित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः ब्रह्मा देवता गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मावाहने विनियोगः| ॐब्रह्मजज्ञानं०|ग्रन्थिमध्ये ब्रह्मणे नमः ब्रह्माणं आवाहयामि|(११)- इदं विष्णुरित्यस्य मेधातिथिर्ऋषिः गायत्री छंदः ग्रन्थिमध्ये विष्णवावाहने विनियोगः|ॐइदं व्विष्ण्णु०|ग्रन्थिमध्ये विष्णवे नमः विष्णुं आवाहयामि|(१२)- त्र्यम्बकमित्यस्य वसिष्ठ ऋषिः रुद्रो देवता अनुष्टुप् छंदः ग्रन्थिमध्ये रुद्रावाहने विनियोगः|ॐ त्र्यम्बकं०| ग्रन्थिमध्ये रुद्राय नमः रुद्रं आवाहयामि|***ध्यानम्*** ॐप्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्| ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्रम्||इति ध्यात्वा||(गंधाक्षतपुष्पसे यज्ञोपवीतका पूजन करैं)-"ॐप्रणवादिनवतंतुदेवता सहित ब्रह्मविष्णुरुद्रेभ्यो नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षत पुष्पाणि समर्पयामि इति सम्पूज्य ||(उदुत्यं०इस मंत्रसे आचार्य सूर्य नारायणको यज्ञोपवीत दिखलायैं- आचार्यो-उदुत्यमिति सूर्याय दर्शयेत्-"उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋषिः गायत्री छंदः सूर्यो देवता सूर्यावलोकने विनियोगः-"ॐउदुत्त्यञ्जात०|| यज्ञोपवीतमिति परमेष्ठि ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः लिंगोक्ता देवता "श्रौत स्मार्त कर्मानुष्ठान सिद्ध्यर्थे यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः|ॐयज्ञोपवीतं परमं पवित्रं०यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्यत्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि||(दायाँ हाथ अंदर तथा सिरसे बायें कन्धेपर आयें ऐसे यज्ञोपवीत धारण करायैं)-" इतिं मंत्रं पठित्वा दक्षिणबाहुमुद्धृत्य वामस्कंधे यज्ञोपवीतं धारयेत्||(विधिसे आचमन करायें)। आचमनम्।।दशधा गायत्रीं जपेत् ।। एवमेव ब्रह्मचारिण एकं स्नातकस्य द्वे उत्तरीयाभावे तृतीयकं आयुष्यकामस्तु त्र्यधिकानि बहुनि यज्ञोपवीतानि धारयेत्।। जीर्णयज्ञोपवीत त्यागः- ॐसमुद्रङ्गच्छस्वाहान्तरिक्षङ्गच्छ०००।।यजुः६/२१।। (आचार्य संस्कार्यको दोनो हाथोसे अंजली बनानेके लिए कहैं तथा आचार्य स्वयं अपने दोनों हाथोकी अंजलीमें जल ग्रहण करकें संस्कार्य की अंजलीमें जल प्रदान करैं।।)"तत आचार्यः स्वांजलिना अद्भिः संस्कार्यस्य अंजलिं पूरयति।(आचार्य आपोहिष्ठा०के तीन मंत्रों क्रमसे पढकर संस्कार्यसे सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करायें)"-आचार्य पठितैस्त्रिभिर्मन्त्रैः माणवकः सूर्याय अर्घत्रयं दद्यात्।ॐ आपोहिष्ठामयो०। श्री सूर्यायनमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।ॐ जोवः शिवतमो०। श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम। ॐ तस्मा$अरङ्ग०।श्री सूर्याय नमः इदं अर्घ्यं दत्तं न मम।"(आचार्य संस्कार्यको सूर्यनारायणका दर्शन करनेके लिए कहैं।)"ततः आचार्यो माणवकं प्रेषयति "सूर्यं उदीक्षस्व"।"(संस्कार्य सूर्यनारायणका दर्शन करैं)"ततो माणवकः तच्चक्षुरिति सूर्यं पश्यति।तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः उष्णिक् छंदः सूर्यो देवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः।ॐ तच्चक्षुर्द्देवहितं०।(आचार्य अपना दायाँ हाथ संस्कार्य के दायें कन्धेपर हाथ रखकर संस्कार्य के हृदयतक लें जायैं।) "तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिणस्कंधोपरि हस्तं नीत्वा तस्य हृदयं आलभते।। मम व्रतेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः बृहस्पतिर्देवता हृदयालंभने विनियोगः।ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तन्ते$अस्तु। मम वाचमेकमनाजुषस्व बृहस्पतिष्ट्वानियुनक्तु मह्यम्।।"(आचार्य संस्कार्य का दायाँ हाथ पकडकर उन्हैं प्रश्न पुछैं।)"तत आचार्यो माणवकस्य दक्षिण हस्तं गृहित्वा$$ह।।(को नामासि?-" तेरा क्या नाम हैं?)"। एवं पृष्टे माणवकः प्रत्याह।।(संस्कार्य अपने नामके पीछे शर्मा,वर्मा,गुप्त लगाकर नाम कहैं->अमुक शर्मा अहं भोः।)"। फिरसे आचार्य संस्कार्य को प्रश्न करैं-"पुनराचार्यः पृच्छति माणवकम्"(कस्य ब्रह्मचार्यसि?-आप किसके ब्रह्मचारी हो?)"संस्कार्य आचार्यसे कहैं"(भवतः-मैं आपका ब्रह्मचारी हूं)"इत्युच्यमाने माणवकेन तं प्रत्याचार्यो ब्रूयात्।(संस्कार्यके ऐसा कहनेपर आचार्य संस्कार्य को कहैं-)"इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निराचार्यस्तवाहमाचार्यस्तवासौ अमुकशर्मन्,वर्मन्,गुप्त।(आप इन्द्रके ब्रह्मचारी हो,अग्नि तेरा आचार्य हैं,और मैं आपका आचार्य हूं-"फिर आचार्य पाँचभूतो के रक्षण हेतु संस्कार्य के शरीरका स्पर्श करैं)"अथैनं माणवकं भूतेभ्यः परिददाति-आचार्यः।यथा-प्रजापतये इत्यादीनां मन्त्राणां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता कुमाररक्षणे विनियोगः।ॐ प्रजापतयेत्वापरिददामि देवायत्वासवित्रे परिददाम्यद्भ्यस्त्वौषधीभ्यः परिददामि द्यावापृथिवीभ्यान्त्वापरिददामि विश्वेभ्यस्त्वादेवेभ्यः परिददामि सर्वेभ्यस्त्वाभूतेभ्यः परिददाम्यरिष्ट्यै।।इत्याचार्य पठित मन्त्रेण माणवकरक्षणम्।
ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं चरुवर्जं कृत्वा।। समुद्भव नामाग्निं सम्पूज्य।।(संस्कार्य से उपनयनप्रधान होम करवायें)-"भूर्भुवःस्वरिति महाव्याहृतिनां प्रजापतिर्ऋषिः गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवता उपनयनाङ्ग प्रधान होमे विनियोगः।ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"। ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"। ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम"।ॐत्वन्नो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐसत्त्वनो$अग्ने०००स्वाहा-इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम। ॐअयाश्चाग्ने०००स्वाहा-इदं अग्नये अयसे न मम। ॐजेतेशतं०००स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम। ॐउदुत्तमं०००स्वाहा-इदं वरुणायादित्यादितये च न मम।ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम।ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदं अग्नये स्विष्टकृते न मम।संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम्।।
यज्ञोपवीतवेदारम्भौ(४)- (आचार्य संस्कार्य को उपदेश दैं)"-तत आचार्यः कुमारं शिक्षयति।। आचार्यः(ब्रह्मचार्यसि?-आप ब्रह्मचारी हो?)।"संस्कार्य आचार्यसे कहैं-"कुमारः(ब्रह्मचारी भवानि-(आपकी कृपासे)मैं ब्रह्मचारी बनुंगा)"।आचार्यः"(अपो$शान-आचमन करो)।संस्कार्यः "(अशानि-में आचमन कर लेता हूं)। आचार्यः"(कर्मकुरु-अबसे आप वैदिक कर्म करो)।संस्कार्य (करवाणि-आपकी कृपासे शयनतक सारे दिन वैदिक कर्म करुंगा)। आचार्यः"(मा दिवा सुषुप्थाः- अबसे आप दिनमें नहीं सोयेंगे)।संस्कार्यः"(न स्वपानि- मैं दिनमें नहीं सोऊंगा)।आचार्यः"(वाचं यच्छ- ऐसा हो तो मुजे वचन दो आप वाणीको नियमनमें रखैंगे और सत्य बोलेंगे)। संस्कार्यः"(यच्छामि- मैं आपको वचन देता हूं-मैं वाणीको नियमनमें रखुंगा और में सत्य बोलुंगा)।आचार्यः"(समिधमाधेहि-अबसे आप अग्निकी उपासनाके लिए समिध धारण करौंगे)। संस्कार्यः"(आदधानि-मैं समिध धारण करुंगा)। आचार्यः"(अपो$शान-आप "किसीभी वैदिक कर्म करनेसे पहले पवित्र बनने"आचमन करैं)। संस्कार्यः"(अशानि-मैं आचमन करुंगा)।(इस संस्कार्यको गायत्री उपदेश देनेके लिए अग्निकी उत्तर में स्त्री तथा कोई दूसरा सुन न पाये ऐसे दूर आसनपर बीठाईए)"। आचार्यो$ग्नेरुत्तरतो प्रत्यङ्गमुखोपविष्टाय पादोपसंग्रहणपूर्वकमुपसन्नाय समीक्षमाणाय समीक्षिताय सावित्रीं ब्रूयात्।अथोपदेशः तत्रादौ (आचार्य-आचारसे कांसीके पात्रमें तंडुल पसारकें तंडुलोंमे सोनेकी शलाकासे अथवा कुशसे ॐकार तीनों व्याहृति पूर्वक गायत्री मंत्र लिखै)। आचार्यः आचारात् कांस्यपात्रे तंडुलान्प्रसार्य तत्र सुवर्णशलाकया ॐकार पूर्वकं गायत्रीमंत्रं लिखित्वा)।(संस्कार्य दायें हाथमें जल रखें)-"संस्कार्यो जलं गृहित्वा" अद्येत्यादि० मम वेद अध्ययनादि अधिकार सिद्धि अर्थं गायत्री उपदेश अंग विहितं गायत्री पूजनं आचार्य पूजनं च करिष्ये।"(पहले गंधाक्षतपुष्पसे गणपतिका पूजन करनें फिरसे दायें हाथमें जल रखें)। तत्रादौ गणपतेः गंधाक्षतपुष्पैः पूजनं करिष्ये।(संस्कार्य अपने हाथमें गंधाक्षतपुष्प रखैं)।ॐ गणानान्त्वा०।। इति मंत्रेण गणपतिं सम्पूज्य।(कांसीके पात्रमें लिखे हुए गायत्रीमंत्रकी प्रतिष्ठा करैं)। अक्षतैः ॐमनोजूति०।। इति गायत्रीं प्रतिष्ठाप्य।। ध्यानम्-मुक्ता विद्रुमहेमनील००।ॐभूर्भुवःस्वः गायत्र्यै नमः इति नाममन्त्रेण लाभोपचारैः संपूज्य।
सफेद सूतीके वस्त्र से संस्कार्य और आचार्य आच्छादित होकर त्रीपदा गायत्री मंत्रका सार्थ सान्वय उपदेश बटुकको दैं....( "प्रथमतः पादं पादम्"-पहले एक एक पद करकें," पुनरर्द्धम्"- फिर आधा आधा,"पुनः समग्रं पठेत्"-प्रतिपदेषु उपदेशान्ते ॐस्वस्ति।। इति प्रतिवचनम्।। इति गायत्री उपदेशम् ||(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर संस्कार्य बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो संस्कार्य यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति । तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा- "अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः। बटुकः मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(संस्कार्य से पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।।
अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।संस्कार्य मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो संस्कार्य यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति । तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः। संस्कार्य मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(संस्कार्य से पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।। अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।संस्कार्य - मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।। (संस्कार्य मौन रहते हुए अपने हाथोंके तलवों अग्निपर तपायैं)"-ततः तूष्णीं पाणी प्रतप्य"( संस्कार्य अपने मुख पर तपायें हुए दौनों तलवोंका स्पर्श करैं इन सात मंत्रो से)-" तनूपा$ग्नेसि इत्यादि सप्तभिर्मन्त्रैः प्रतिमंत्रं संस्कार्य मुखविमर्शनं करोति "-ॐ तनूपा$ग्नेसि तन्वम्मे पाहि।।१।। ॐ आयुर्दा$ग्नेस्यायुर्मे देहि।।२।। ॐ वर्च्चोदा$ग्नेसि वर्च्चो मे देहि।।३।। ॐ अग्ने जन्मे तन्वा$ऊनन्तन्म$आपृण।।४।। ॐ मेधाम्मे देवः सविता$आदधातु।।५।। ॐ मेधाम्मे देवी सरस्वती$आदधातु।।६।। ॐ मेधामश्विनौदेवा वाधत्तां पुख्करस्रजौ।।७।।"(शिष्ट आचरणके लिए पवित्र अंगादिको रखनेके लिए)"-अत्र शिष्टाचारतो$नुष्ठेयाः पदार्थाः, अङ्गानि च आप्यायताम् इति शिरः प्रभृति पादांत सर्वांगानि आलभते।-"ॐ अंगानि च इत्यादिनां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिंगोक्ता देवता अंगाप्यायने विनियोगः।(संस्कार्य अपने शरीरके अंगोपर दौनों हाथके तलवों का शिरसे पैरतक स्पर्श करैं- सभी अंग परमात्माके कार्योमें लगाने हेतु पवित्र रखना हैं)-ॐ अंगानि च आप्यायताम्"इति सर्वांगानि,-"(पवित्र वाणी रखकर विवेक भाषा का वक्तव्य करने हेतु मुखका स्पर्श)-"ॐ वाक्चम$आप्यायताम् इति मुखे"-(प्राणायामसे शरीरके प्राणोको पवित्र रखने हेतु नासिका का स्पर्श)-"ॐ प्राणश्चम$आप्यायताम् इति नासिकयोः"-(दृष्टि से आँखो की पवित्रता बनाने हेतु आँखोका स्पर्श)-"ॐ चक्षुश्चम$आप्यायताम् इति नेत्रयोः"-(शुभ विचारोंको ही सुनने के लिए दायें कानका स्पर्श)-"ॐ श्रोत्रञ्चम$आप्यायताम्"इति दक्षिण कर्णे -(बायें कानका स्पर्श) ॐश्रोत्रञ्चम$आप्यायताम् इति वामकर्णे"-
(निष्कलंक बनने और ब्रह्मचर्यसे ऊर्जा(वीर्य) रक्षण पाने के लिए परमात्मासे प्रार्थना)"-ॐ यशोबलञ्चम$आप्यायताम् इति मंत्रपाठः।। (संस्कार्य अपने बायें हाथमें भस्म लेकर दायें हाथसे मलकर अँगुठेके पासवाली (कनिष्ठिका रहित)तीनों अँगुलीयोंसे शरीरके यथा यथा पाँच स्थानपर भस्म का त्रिपुंड्र धारण करैं)-"ततस्त्रायुखाणि करोति भस्मना"-त्र्यायुखमिति नारायण ऋषिः उष्णिक् छंदः अग्निर्देवता भस्मना त्रिपुंड्र करणे विनियोगः-"( ललाटमें-ॐ त्र्यायुखञ्जमदग्नेः इति ललाटे)"-"(गलेपर-ॐकश्श्यपस्य त्र्यायुखम् इति ग्रीवायां)"-"(दायी और बाई भुजाओंपर-ॐ जद्देवेखु त्र्यायुखम् इति दक्षिणांसे च वामांसे)"-"(हृदयपर-ॐतन्नो$अस्तु त्र्यायुखम् इति हृदि)"त्रिपुंड्रकाणि धारयित्वा।। संस्कार्य अभिवादन करैं -"अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धो$पसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।)"ततो गोत्रनामादि पूर्वकं वैश्वानरादिनाम् अभिवादनम्-" अमुक गोत्रः अमुक शर्मा अहं"(अग्निनारायण को अभिवादन-"भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य "-"( अपने कुलगुरुको-भो गुरो त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(आचार्यको-भो आचार्य त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(माता-पिताको"- भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि)मातापितरौ-आयुष्मान्भव सौम्य"(सूर्य चन्द्रमाको-भो सूर्यचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(सभी ब्राह्मणोंको-सर्वान्ब्राह्मणान् अभिवादयामि)ब्राह्मणाः आयुष्मान्भव सौम्य"-इत्यभिवादनम्।। पुनरुपनयने भिक्षाचर्या न कार्या।। ततः आचार्यादीन् गंधादिभिः सम्पूज्य तेभ्यो दक्षिणां दत्वा तैराशीषो गृहीत्वा स्थापित देवताः विसृज्य। द्वादशब्राह्मण भोजनम् ।। इति शु-यजुःशाखीय पुनरुपनयनम्।।
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(संस्कार्य से पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।।
अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।संस्कार्य मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(फिरसे अग्निके पश्चिम स्थित आसनपर बटुक बैठ जाकर अग्निमें समिधादान करनेसे पहले गोबरकंडेके टुकडोंसे संधुक्षण(अग्निमें समर्पित करना) करैं)"ततो संस्कार्य यथोक्तमुपविश्य प्रकृते$ग्नौ समिधादानं करोति । तत्र पूर्वमग्नेः संधुक्षणं पंचभिर्मंत्रैः ईंधन प्रक्षेपेण ।। तद्यथा-"अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः। संस्कार्य मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।।(बेठकर पुनः पूर्वोक्त पाँचो मंत्रसे गोबरकंडोके टुकडों अग्निमें समर्पित करायें)-(संस्कार्य से पर्युक्षण करायें)-(पुनःपूर्वोक्त समिधहोम मंत्रसे समिदाधान करायें)।। अग्ने सुश्रवादीनां ब्रह्माऋषिः यजुश्छंदः अग्निर्देवता संधुक्षणे विनियोगः।संस्कार्य - मंत्रान्ते शुष्कगोमयखंड अग्नौ प्रक्षिपेत्"-
ॐ अग्ने सुश्रवः सु श्रवसं मा कुरु।।१।।
ॐ यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा$असि।।२।।
ॐ एवं मा गुं सुश्रवः सौश्रवसं कुरु।।३।।
ॐ यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा$असि।।४।।
ॐ एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपोभूयासम्।।५।।
(संस्कार्य के पास अग्निका जलसे पर्युक्षण करायैं)"- प्रदक्षिणमग्निं उदकेन पर्युक्ष्य।।"(संस्कार्य खडा होकर अग्निमें समिध होम करैं)"-उत्थाय समिधमादधाति।। अग्ने समिधमिति प्रजापतिर्ऋषिः आकृतिश्छंदः सविता देवता समिदाधाने विनियोगः।ॐ अग्नये समिध माहार्षम्बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यस$एवमहमायुषा मेधया वर्च्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिंधे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णु र्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भूयास गुँ स्वाहा।।(पुनः इन मंत्रसे दूसरी तथा इन मंत्रसे ही तीसरी समिध अग्निमें समर्पित करैं)"- पुनः अनेन मंत्रेण द्वितीयां तथैव तृतीयां जुहुयात्।। (संस्कार्य मौन रहते हुए अपने हाथोंके तलवों अग्निपर तपायैं)"-ततः तूष्णीं पाणी प्रतप्य"( संस्कार्य अपने मुख पर तपायें हुए दौनों तलवोंका स्पर्श करैं इन सात मंत्रो से)-" तनूपा$ग्नेसि इत्यादि सप्तभिर्मन्त्रैः प्रतिमंत्रं संस्कार्य मुखविमर्शनं करोति "-ॐ तनूपा$ग्नेसि तन्वम्मे पाहि।।१।। ॐ आयुर्दा$ग्नेस्यायुर्मे देहि।।२।। ॐ वर्च्चोदा$ग्नेसि वर्च्चो मे देहि।।३।। ॐ अग्ने जन्मे तन्वा$ऊनन्तन्म$आपृण।।४।। ॐ मेधाम्मे देवः सविता$आदधातु।।५।। ॐ मेधाम्मे देवी सरस्वती$आदधातु।।६।। ॐ मेधामश्विनौदेवा वाधत्तां पुख्करस्रजौ।।७।।"(शिष्ट आचरणके लिए पवित्र अंगादिको रखनेके लिए)"-अत्र शिष्टाचारतो$नुष्ठेयाः पदार्थाः, अङ्गानि च आप्यायताम् इति शिरः प्रभृति पादांत सर्वांगानि आलभते।-"ॐ अंगानि च इत्यादिनां प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः लिंगोक्ता देवता अंगाप्यायने विनियोगः।(संस्कार्य अपने शरीरके अंगोपर दौनों हाथके तलवों का शिरसे पैरतक स्पर्श करैं- सभी अंग परमात्माके कार्योमें लगाने हेतु पवित्र रखना हैं)-ॐ अंगानि च आप्यायताम्"इति सर्वांगानि,-"(पवित्र वाणी रखकर विवेक भाषा का वक्तव्य करने हेतु मुखका स्पर्श)-"ॐ वाक्चम$आप्यायताम् इति मुखे"-(प्राणायामसे शरीरके प्राणोको पवित्र रखने हेतु नासिका का स्पर्श)-"ॐ प्राणश्चम$आप्यायताम् इति नासिकयोः"-(दृष्टि से आँखो की पवित्रता बनाने हेतु आँखोका स्पर्श)-"ॐ चक्षुश्चम$आप्यायताम् इति नेत्रयोः"-(शुभ विचारोंको ही सुनने के लिए दायें कानका स्पर्श)-"ॐ श्रोत्रञ्चम$आप्यायताम्"इति दक्षिण कर्णे -(बायें कानका स्पर्श) ॐश्रोत्रञ्चम$आप्यायताम् इति वामकर्णे"-
(निष्कलंक बनने और ब्रह्मचर्यसे ऊर्जा(वीर्य) रक्षण पाने के लिए परमात्मासे प्रार्थना)"-ॐ यशोबलञ्चम$आप्यायताम् इति मंत्रपाठः।। (संस्कार्य अपने बायें हाथमें भस्म लेकर दायें हाथसे मलकर अँगुठेके पासवाली (कनिष्ठिका रहित)तीनों अँगुलीयोंसे शरीरके यथा यथा पाँच स्थानपर भस्म का त्रिपुंड्र धारण करैं)-"ततस्त्रायुखाणि करोति भस्मना"-त्र्यायुखमिति नारायण ऋषिः उष्णिक् छंदः अग्निर्देवता भस्मना त्रिपुंड्र करणे विनियोगः-"( ललाटमें-ॐ त्र्यायुखञ्जमदग्नेः इति ललाटे)"-"(गलेपर-ॐकश्श्यपस्य त्र्यायुखम् इति ग्रीवायां)"-"(दायी और बाई भुजाओंपर-ॐ जद्देवेखु त्र्यायुखम् इति दक्षिणांसे च वामांसे)"-"(हृदयपर-ॐतन्नो$अस्तु त्र्यायुखम् इति हृदि)"त्रिपुंड्रकाणि धारयित्वा।। संस्कार्य अभिवादन करैं -"अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धो$पसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।)"ततो गोत्रनामादि पूर्वकं वैश्वानरादिनाम् अभिवादनम्-" अमुक गोत्रः अमुक शर्मा अहं"(अग्निनारायण को अभिवादन-"भो वैश्वानर त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य "-"( अपने कुलगुरुको-भो गुरो त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(आचार्यको-भो आचार्य त्वां अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(माता-पिताको"- भो मातापितरौ युवाम् अभिवादयामि)मातापितरौ-आयुष्मान्भव सौम्य"(सूर्य चन्द्रमाको-भो सूर्यचन्द्रमसौ युवाम् अभिवादयामि)आचार्यः आयुष्मान्भव सौम्य"(सभी ब्राह्मणोंको-सर्वान्ब्राह्मणान् अभिवादयामि)ब्राह्मणाः आयुष्मान्भव सौम्य"-इत्यभिवादनम्।। पुनरुपनयने भिक्षाचर्या न कार्या।। ततः आचार्यादीन् गंधादिभिः सम्पूज्य तेभ्यो दक्षिणां दत्वा तैराशीषो गृहीत्वा स्थापित देवताः विसृज्य। द्वादशब्राह्मण भोजनम् ।। इति शु-यजुःशाखीय पुनरुपनयनम्।।
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ।।शेष पुनः
शुद्ध- कुलीन ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्य - केवल इन तीनों का #उपनयन में अधिकार है, स्त्री , शूद्र तथा द्विजबन्धुओं ( वर्णसंकरों ) के उपनयन का शास्त्र विधान नहीं करता |
तीनों वर्णों ( शुद्ध- कुलीन ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्य) की उपनयन आयु , ऋतु, मेखला, अजिन, दण्ड , दण्डप्रमाण, भिक्षाविधि - ये सब शास्त्र से नियत है | उपनयन के अनधिकारी स्त्री , शूद्रों तथा वर्णसंकरों के लिए कहीं भी ईदृश विधान शास्त्र ने नहीं किया है |
गर्भ-आदिः संख्या वर्षाणाम् | तद्-अष्टमेषु ब्राह्मणम् | उपनयीत || त्र्य्-अधिकेषु राजन्यम् || तस्माद् एक-अधिकेषु वैश्यम् || वसन्तो ग्रीष्मः शरद् इत्य् ऋतवो वर्ण-आनुपूर्व्येण || गायत्री-त्रिष्टुब्-जगतीभिर् यथा-क्रमम् || आ षोडशाद् आ द्वाविंशाद् आ चतुर्विंशाद् अनात्यय एषां क्रमेण || मौञ्जी धनुर्-ज्या शाणी_इति मेखलाः || कृष्ण-रुरु-बस्त-अजिनान्य् अजिनानि | | मूर्ध-ललाट-नासाग्र-प्रमाणा याज्ञिकस्य वृक्षस्य दण्डाः || भवत्-पूर्वां भिक्षा-मध्यां याच्ञा-अन्तां भिक्षां | चरेत् सप्त-अक्षरां क्षां च हिं च न | वर्धयेत् || भवत्-पूर्वां ब्राह्मणो | भिक्षेत भवन्-मध्यां राजन्यो भवद्-अन्तां वैश्यः सर्वेषु वर्णेषु || ( बोधायन धर्मसूत्र १|३)
स्त्री , शूद्र एवं द्विजबन्धुओं ( वर्णसंकरों) को वेदश्रवण का शास्त्र से स्पष्ट निषेध प्राप्त है -
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ( श्रीमद्भागवतम् १|४|२५)
तथापि अनुलोम वर्णसंकरों (उच्च द्विज वर्ण से निम्न द्विज वर्ण में उत्पन्न सन्तानपरम्परा ) हेतु शास्त्र कहता है कि इनके उपनयनादि संस्कार माता की जाति के अनुसार ही होते हैं -
पुत्रा येsन्तरस्त्रीजाः क्रमेणोक्ता द्विजन्मनः |
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते || (मनुस्मृति १०|१४)
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते || (मनुस्मृति १०|१४)
.............................................. बिना उपनयन के वेदोच्चारण कैसा ? अतः स्पष्ट है कि वेद पढ़ने का अधिकार स्त्री, शूद्र एवं वर्णसंकरों (प्रतिलोम यथा - शूद्र से द्विजवर्ण मे उत्पन्न सन्तान परम्परा ) का नहीं है |
गायत्रीमन्त्र , महामृत्युंजय मन्त्र आदि - ये सभी वेद मन्त्र हैं, वेद के अनधिकारियों को इनका जपादि नहीं करना चाहिए , अपितु इसके स्थान पर आप श्रीभगवान् के अमोघ नामों का स्मरण कीजिये | भगवान् के पवित्र नाम में वे सभी शक्तियां समाहित हैं, जो उक्त मन्त्रों में हैं , अतः सभी को श्रीभगवान् के अनन्त नामों का स्मरण कर अपना कल्याण करना चाहिए |
कलियुग केवल नाम अधारा | सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा ||
|| जय श्री राम ||
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