अक्षरारम्भम्
षोडशसंस्काराः(अक्षरारम्भम्)खंड ९८~ लिपिमें प्रयुक्त होनेवाले अक्षरों से जिस संस्कारका श्रीगणेश किया जाय,उसे अक्षरारम्भ अथवा विद्यारम्भ संस्कार कहतें हैं| ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी में महामुनि पाणिनी लिपीका उल्लेख करतें हैं| भगवान् बुद्धके समयमें अनेक लिपियाँ प्रचलित थीं| भगवान् कृष्णने श्रीमद्भगवद्गीतामें अक्षरोंमें अकारको सर्वश्रेष्ठ माना हैं| महाभारतके लेखनका गुरुभार भगवान् श्रीगणेशने सँभाला था| तान्त्रिक वाङ्गमय में अक्षरोंकी देवताके रूपमें पूजा की जाती हैं| षट्चक्रों के पट़ल अक्षर -ध्वनियोंसे स्पन्दित होतें हैं| वेदोंका सारभूत "ॐ" एकाक्षर हैं| लिपिज्ञान भारतीय मनीषियोंको अति प्राचीन कालसे था,किंतु कुछ आधुनिकोंके मतानुसार प्राचीन कालमें भारतीय लिपिज्ञानसे अपरिचित थे| इसकी सम्पुष्टि में वे वेदोंकी श्रृति परम्पराको प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत करतें हैं| यद्यपि वेदों का अभ्यास गुरुमुखसे ही किया जाता था|केवल अक्षरारम्भ और व्याकरण आदिका लेखन ही किया जाता था| इस लिए अनधिकारी को वेदादिशास्त्रों तथा आगमरहस्यों का विद्यादान नहीं हो रहा था, तथापि लौकिक व्यवहार के निर्वाह हेतु लिपिका निश्चयतः आविर्भाव हो चुका था| शौनकिय और माध्यन्दिनसंहिता में तो "लिख्" धातुका अनेक बार प्रयोग किया गया हैं| आधुनिक युगमें बड़े बड़े पुस्तकालयों में वेदादिकी पुस्तकें छपी हुई मिल रही होने से जिसके हाथमें आ जाय वह अपनेको अधिकारी समज़ बैठता हैं| विद्यारम्भ संस्कार चूडाकरण संस्कारके अनन्तर ही करना चाहिये" वृत्तचौलकर्मा लिपिं संख्यानं चोपयुञ्जीत|" जन्मसे पाँचवे वर्षमें इसकी सम्पन्नता को उपयुक्त माना गया हैं|(लालयेत् पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्|प्राप्ते तु षोडशेवर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्||गरुडपु०आचार११४/५९चाणक्यनीति३/१८)हमारें आदर्श ऋषियोंका मानना हैं कि; बालकका जन्मसे पाँचवर्षतक प्रेमसे लालन करना चाहियें क्योंकि यह पाँचवर्ष यही काल हैं जिसमें बालक अपने कुलपरम्पराके आचार विचार और व्यवहार परिवारमें रहकर लालनपालनसे सीखैं,आजकल तो बालकको तीनवर्षका होने पर बालमंदिरमें भर्ती करना होता हैं ऐसेमें बालक की कच्ची और कोमल बुद्धिपर पढाईका भार ऊभर आता हैं और बच्चे बाह्य जगत् के व्यवहारमय बनकर चीडे-चीडे रहतें हैं इसकी असर जब बालक धीरे धीरे बड़ा होने लगता हैं तब मालुम पड़ता हैं बालककी खेलने कुदनेकी उम्रसे ही पढा़का भार सहन नहीं कर पाता| तथा ऐसी छोटीं उम्रमें कच्चीबुद्धि तथा मनपर असर पड़नेसे अभ्यासका प्राथमिक ज्ञान कच्चा रह जाता हैं| वर्णाक्षर और स्वरकी मात्राभी सही तरह से बड़े होनेपरभी पहचाननेंमें मुश्केलीयाँ रहतीं हैं|छठ्ठे वर्ष से दशवर्ष तक यानी पंद्रहवर्षकी उम्र तक बालकको आचारसे भले बुरे के ख्यालसे अनुशासित करना चाहिये| जब बालक सोलहवें वर्षका हो जायें तब उसके साथ मित्र जैसी मंत्रणा करनी चाहिये उनकीरुचीयोंको ख्यालमें रखकर शारीरिक विज्ञान आदि विषयोंपर समजाना चाहियें...| उपयुक्त पाँचवे वर्षमें देशकालमें किया गया संस्कार बालकके मनपर अमिट प्रभाव छोडता हैं|जिस प्रकार मिट्टीके कच्चे घडे़पर लाल-काले आदि रंगोसे जो रेखाएँ खींच दी जाती हैं,वे उसे पकानेपर अमिट हो जाती हैं,उसी प्रकार बालमनपर यथासमय डाला गया संस्कार अमिट रहता हैं| कोमल शाखाको चाहे जिस ओर मोड़,वृक्षकी शाखाके रूपमें बढ़नेपर भी वह पूर्ववत् मुडी रहैंगी,किंतु पश्चात् उसे दूसरी दिशामें मोड़ना सम्भव न होगा,वह टूट जायैंगी| समयसे पहले या समय बीत जानेंपर संस्कार की आचारपूर्ण महत्वता कम हों जाती हैं| अक्षरारम्भके लिये पाँचवा वर्ष उपयुक्त माना गया हैं| संस्कारमयूखमें मार्कण्डेयजीका वचन हैं-"प्राप्तेऽथ पञ्चमे वर्षे विद्यारम्भं तु कारयेत्"| इस संस्कारको हरिशयनी एकादशी तक ही करना चाहिये| देवताओंकी जागरित अवस्थामें दिव्यशक्तिकी प्राप्ति होती हैं| देवोत्थानी एकादशीसे अक्षरारम्भ संस्कार सम्पन्न किया जाना चाहिये| संस्कार प्रकाशमें विश्वामित्रका वचन प्रमाण हैं-"प्राप्ते तु पञ्चमे वर्षे त्वप्रसुप्ते जनार्दने| विद्यारम्भस्तु कर्तव्यो यथोक्त तिथि वासरे||
षोडश संस्काराः(अक्षरारम्भम्)खंड१०३~" अक्षर स्विकृतिं कुर्यात् प्राप्ते पञ्चमहायने||उत्तरायणगे सूर्ये कुम्भमासं विवर्जयेत्||मदनरत्ने|| पाँचवे वर्षमें उत्तरायणमें कुम्भराशिके सूर्यको छोड़कर अन्य पाँच मासोमें अक्षरारम्भ का प्रारंभ करैं|" वर्षे पर्जन्यकेकाले षष्ठीं रिक्तां शनिं कुजम् | अनध्यायान्विना नत्वा देवं ग्रन्थकृतं गुरुम्||दीपिकायाम्|| वर्षाऋतु बिना वरसादके दिनों,षष्ठी,रिक्तातिथि(४/८/१४) तिथियाँ,शनिवार,मंगलवार,और अनध्यायतिथियाँ(१/८/१४/३०/१५)तिथियाँ को छोड़कर शुभ दिनमें ग्रंथकर्तृ तथा गुरुदेवको प्रणाम करतें हुए विद्यारम्भ करैं| " हस्तादित्य समीर मित्र पुरुजित् पौष्णाश्विचित्राच्युतेष्वारार्क्यंश दिनोदयादिरहिते राशौ स्थिरे चोभये|| पक्षे पूर्ण निशाकरे प्रतिपदं रिक्तां विहायाष्टमीं षष्ठीमष्टम शुद्धभाजि भवने प्रोक्ताक्षरस्वीकृतिः||श्रीधरः|| श्रीधरके कहै अनुसार हस्त,पुनर्वसु,स्वाती,अनुराधा,ज्येष्ठा,रेवती,अश्विनी, चित्रा और श्रवण इतनें नक्षत्र शनिके और मंगलके नवमांश,वार के १०/११/१/८लग्न न हो उस समय,स्थिर और द्विस्वभाव लग्नमें,शुक्लपक्ष और लग्नसे आठवाँ स्थान निर्दोष हो तब अक्षरारम्भ करैं, इसमें प्रतिपदा,रिक्ता,अष्टमी तथा षष्ठी इन तिथियोंका त्याग करैं| " पूजयित्वा हरिं लक्ष्मीं तथा देवीं सरस्वतीं| स्वविद्यासूत्रकारांश्च स्वां विद्यां च विशेषतः||एतेषामेव देवानां नाम्ना तु जुहुयाद् घृतम् ||दक्षिणाभिर्द्विजेन्द्राणां कर्त्तव्यं चात्र पूजनम्||विष्णुधर्मोत्तरे|| विष्णुधर्मोत्तरमें कहा हैं कि विष्णु,लक्ष्मी,सरस्वतीदेवी,अपनी विद्याके सूत्रकारों और विशेष करकें अपनी विद्याओंको प्रणाम करतें हुए उन देवताओं के नाममंत्रोसे घृताहुतियाँ देकर दक्षिणासे उत्तम ब्राह्मणोंका पूजन करकें विद्यारम्भ प्रारंभ करैं|| धनुर्विद्या(वर्तमान-बन्दूक आदि शस्त्र)~" अदितिगुरुयमार्क स्वाति चित्राग्नि पित्र्य ध्रुववहरिवसुमूलेष्विन्दुभागान्त्यभेषु|| शनि शशि बुधवारे विष्णुबोधे च पौषे सुसमय तिथि योगे चापविद्याप्रदानम्||दीपिकायाम्|| पुनर्वसु,पुष्य,भरणी,हस्त,स्वाती, चित्रा,कृत्तिका,मघा,ध्रुव नक्षत्रो,श्रवण,धनिष्ठा,मूल,मृगशिर्ष, पूर्वाफाल्गुनी और रेवती इतने नक्षत्रों में,शनि,सोम और बुधवारोंमें,कार्त्तिक तथा पौषमासमें शुभ समयपर शुभतिथियोंमें धनुर्विद्या का प्रारंभ करैं||
ॐस्वस्ति|पु ह शास्त्री उमरेठ| शेष पुनः
षोडशसंस्काराः(अक्षरारम्भ विधानम्)खंड१०४~
पञ्चमाब्दे विहित पंचांगशुद्धदिने नित्यकर्माणि समाप्य | गणाधिपदेवब्राह्मणान्नमस्कृत्य | सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा| संकल्पः- अस्य(अस्याः) बालकस्य (बालिकायाः) लेखनादि बहुलविद्या प्राप्त्यर्थं विद्यारंभं करिष्ये | तदङ्गत्वेनाऽदौ निर्विघ्नता सिद्ध्यर्थं गणपतिपूजनं एतत्प्रधान देवता पूजनं च करिष्ये | ततः पंक्तिरूपेण पञ्चाक्षतपुंजेषु "गणेशं-श्रीहरिं-श्रीलक्ष्मीं-महेश्वरं- श्रीकुलदेवतां-श्री सरस्वतीं-आवाह्य | द्वितीय पंक्तौ अक्षतपुंजेषु-" नारदं- पाणिनीं- पतञ्जलीं-कात्यायनं-साङ्ख्यं- पारस्करं- यास्कं- कपिञ्जलं-गोभिलं-जैमिनीं- विश्वकर्माणं- विद्याचार्यान्- व्यासं- आवाह्य | सविद्यासूत्रान्- व्याकरणं-भाष्यादिग्रंथान् संस्थाप्य | यथाशक्तिः सम्पूज्य | प्रार्थयेत्- वक्रतुंड०| सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी| विश्वरूपे विशालाक्षे विद्यां देहि शुभप्रदे || सर्वविद्ये त्वमाधारः स्मृतिज्ञान प्रदायिके | प्रसन्ना वरदा भूत्वा देहि विद्यां स्मृतिं यशः || अनया पूजया आवाहित देवताः प्रीयन्ताम् | तदनन्तरं स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य | ब्रह्मासनादि(चरुश्रपणस्रुचसंस्कारौ वर्जं, केवल आज्यसंस्कारस्रुवसम्मार्जनादि) आज्यभागान्तं समाप्य | लौकिकाग्नौ(अग्निरूपीपरमेश्वराय नमः)इति अग्निं सम्पूज्य| आज्येनावाहितदेवताभ्योऽष्टाऽष्टसंख्याहुतिर्जुहुयात् || स्विष्टकृदन्तादशाहुतयः कार्याः | संस्रवप्राशनं | पवित्राभ्यां मार्जनं| वह्नौ पवित्रप्रतिपत्तिः| ब्रह्मणे पूर्णपात्रदानम्| प्रणीताविमोकः| ततो बालकः(बालिका) आवाहित देवतां अध्यापकगुरुं च नमस्कृत्य | स्वहस्ताञ्जलौ धान्य-वर्तमाननाणकं-नारिकेलादिकं नित्वा विद्यागुरोःसमिपे संस्थाप्य नमस्कुर्यात् | अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् | तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः|| ततो गुरुः स्वयमुत्तरमुखः काष्ठपट्टिकायां कुंकुमादिन् प्रसार्य | सुवर्णशलाकया(दर्भशलाकया वा) ॐनमः सिद्धम्(बालिकायाः-नमःसिद्धम्)| अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः | क ख ग घ ङ | च छ ज झ ञ | ट ठ ड ढ ण | त थ द ध न | प फ ब भ म | य र ल व श ष स ह ळ क्ष | इत्यादि स्वरव्यञ्जनादि रूप मातृका वर्णान् लिखित्वा | बालक(बालिका)- लिखित सरस्वत्यै नमः इति लाभोपचारैः सम्पूज्य | शुक्लां ब्रह्म विचार सार०| इति संप्रार्थ्य | जल मादाय अनया पूजया लिखित सरस्वती प्रीयताम् | अध्यापको बालक(बालिका)हस्तेन त्रिवारं लेखनवाचनादिकं कारयेत् | अनन्तरं बालको(बालिका)लिखित देवताक्षराणि गुरुं च चतुःप्रदक्षिणी कृत्य | गुरुं सम्पूज्य | तस्मै गुरवे उष्णीषं समर्प्य | नमस्कुर्यात् | ततः आचार्यं गंधादिभिः संपूज्य तस्मै उपविष्टब्राह्मणेभ्यश्च दक्षिणां दत्वा तदाशिषः स्वीकुर्यात् | तदा सुवासिनी कापि स्त्री बालकं(बालिकां) नीराजयेत् | देवताग्निं च विसृज्य| परमेश्वरार्पणमस्तु |
पञ्चमाब्दे विहित पंचांगशुद्धदिने नित्यकर्माणि समाप्य | गणाधिपदेवब्राह्मणान्नमस्कृत्य | सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा| संकल्पः- अस्य(अस्याः) बालकस्य (बालिकायाः) लेखनादि बहुलविद्या प्राप्त्यर्थं विद्यारंभं करिष्ये | तदङ्गत्वेनाऽदौ निर्विघ्नता सिद्ध्यर्थं गणपतिपूजनं एतत्प्रधान देवता पूजनं च करिष्ये | ततः पंक्तिरूपेण पञ्चाक्षतपुंजेषु "गणेशं-श्रीहरिं-श्रीलक्ष्मीं-महेश्वरं- श्रीकुलदेवतां-श्री सरस्वतीं-आवाह्य | द्वितीय पंक्तौ अक्षतपुंजेषु-" नारदं- पाणिनीं- पतञ्जलीं-कात्यायनं-साङ्ख्यं- पारस्करं- यास्कं- कपिञ्जलं-गोभिलं-जैमिनीं- विश्वकर्माणं- विद्याचार्यान्- व्यासं- आवाह्य | सविद्यासूत्रान्- व्याकरणं-भाष्यादिग्रंथान् संस्थाप्य | यथाशक्तिः सम्पूज्य | प्रार्थयेत्- वक्रतुंड०| सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी| विश्वरूपे विशालाक्षे विद्यां देहि शुभप्रदे || सर्वविद्ये त्वमाधारः स्मृतिज्ञान प्रदायिके | प्रसन्ना वरदा भूत्वा देहि विद्यां स्मृतिं यशः || अनया पूजया आवाहित देवताः प्रीयन्ताम् | तदनन्तरं स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य | ब्रह्मासनादि(चरुश्रपणस्रुचसंस्कारौ वर्जं, केवल आज्यसंस्कारस्रुवसम्मार्जनादि) आज्यभागान्तं समाप्य | लौकिकाग्नौ(अग्निरूपीपरमेश्वराय नमः)इति अग्निं सम्पूज्य| आज्येनावाहितदेवताभ्योऽष्टाऽष्टसंख्याहुतिर्जुहुयात् || स्विष्टकृदन्तादशाहुतयः कार्याः | संस्रवप्राशनं | पवित्राभ्यां मार्जनं| वह्नौ पवित्रप्रतिपत्तिः| ब्रह्मणे पूर्णपात्रदानम्| प्रणीताविमोकः| ततो बालकः(बालिका) आवाहित देवतां अध्यापकगुरुं च नमस्कृत्य | स्वहस्ताञ्जलौ धान्य-वर्तमाननाणकं-नारिकेलादिकं नित्वा विद्यागुरोःसमिपे संस्थाप्य नमस्कुर्यात् | अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् | तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः|| ततो गुरुः स्वयमुत्तरमुखः काष्ठपट्टिकायां कुंकुमादिन् प्रसार्य | सुवर्णशलाकया(दर्भशलाकया वा) ॐनमः सिद्धम्(बालिकायाः-नमःसिद्धम्)| अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः | क ख ग घ ङ | च छ ज झ ञ | ट ठ ड ढ ण | त थ द ध न | प फ ब भ म | य र ल व श ष स ह ळ क्ष | इत्यादि स्वरव्यञ्जनादि रूप मातृका वर्णान् लिखित्वा | बालक(बालिका)- लिखित सरस्वत्यै नमः इति लाभोपचारैः सम्पूज्य | शुक्लां ब्रह्म विचार सार०| इति संप्रार्थ्य | जल मादाय अनया पूजया लिखित सरस्वती प्रीयताम् | अध्यापको बालक(बालिका)हस्तेन त्रिवारं लेखनवाचनादिकं कारयेत् | अनन्तरं बालको(बालिका)लिखित देवताक्षराणि गुरुं च चतुःप्रदक्षिणी कृत्य | गुरुं सम्पूज्य | तस्मै गुरवे उष्णीषं समर्प्य | नमस्कुर्यात् | ततः आचार्यं गंधादिभिः संपूज्य तस्मै उपविष्टब्राह्मणेभ्यश्च दक्षिणां दत्वा तदाशिषः स्वीकुर्यात् | तदा सुवासिनी कापि स्त्री बालकं(बालिकां) नीराजयेत् | देवताग्निं च विसृज्य| परमेश्वरार्पणमस्तु |
ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री उमरेठ| शेष पुनः
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