विवाहसंस्कारम्
#भिन्न_शाखासु_विवाह_कर्म_विचार ->
चारों वेद की विभिन्न सहस्र शाखाएँ हैं- वेदों की शाखा के सम्बन्ध में व्याकरण महाभाष्य के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि ने लिखा हैं->
#एकशतमध्वर्युः_शाखाः_सहस्रवर्त्मा_सामवेदः || #एकविंशतिधा_बह्वृचम्_नवधाऽथर्वणो_वेदः || अर्थात् यजुर्वेद की १०० शाखाएँ, सामवेद की १०००, ऋग्वेद की २१, और अथर्ववेद की ९ शाखाएँ हैं || शाखा शब्द का अर्थ अवयव या हिस्सा नहीं हैं जैसे रामायण के छः काण्ड हैं या महाभारत के अठारह पर्व | ये काण्ड और पर्व उनके अवयव हैं | एक-एक काण्ड या एक-एक पर्व एक-एक स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं माना जा सकता; क्योंकि वह एक-एक से सापेक्ष और अनुबद्ध हैं | परन्तु वेदों की शाखाएँ परस्पर सापेक्ष अनुबद्ध नहीं हैं | अठारह पर्वों के या सात काण्डों के समुदाय का नाम महाभारत और रामायण हैं, परन्तु इक्कीस शाखाओं के समुदाय का नाम ऋग्वेद नहीं हैं, प्रत्युत प्रत्येक शाखा स्वतन्त्र रूप से ऋग्वेद हैं | क्योंकि एक शाखा दूसरी शाखा की अपेक्षा नहीं रखती | इसलिए किसी भी वेद की एक शाखा का अध्ययन करने ही से समग्र वेद का अध्ययन माना गया हैं | मीमांसा शास्त्र के प्रणेता महर्षि जैमिनि ने --
#स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि अपनी परम्परागत एक किसी भी स्वशाखा-वेद का अध्ययन करना चाहिये | यदि २१ शाखाओं को मिलाकर एक ऋग्वेद माना जाय और १००० शाखाओं के समुदाय को सामवेद माना जाय आदि,,, तो मनुष्य अपने एक जीवन में एक वेद का सम्पूर्ण अध्ययन कर सकैंगा | इस प्रकार तो मनु की यह आज्ञा भी असंगत हो जाती हैं-- #वेदानधीत्य_वेदौ_वा_वेदं_वापि_यथाक्रमम् || #अविलुप्त_ब्रह्मचर्यो_गृहस्थाश्रममाविशत् || अर्थात् द्विजाति मात्र ब्रह्मचर्य का पालन करतें हुए तीनों वेदों, दो वेदों या एक ही वेद को पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें •| ब्रह्मचर्य का काल आठ, बारह, चौबीस या अड़तालीस वर्ष बतलाया गया हैं | इतने ही क्या, सौ वर्ष में भी समस्त शाखाओं के सहित वेदों का अध्ययन कठिन ही नहीं प्रत्युत्त असम्भव ही हैं | अतः एक ही शाखा का अर्थ वेद हैं | आर्ष-परम्परा से जिसकी जो शाखा हो उसका वही वेद हैं | यही वास्तविक शास्त्रीय सिद्धांत हैं |
#अक्रिया_त्रिविधा_प्रोक्ता_विद्वद्भिः_कर्मकारिणाम् | #अक्रिया_च_परोक्ता_च_तृतीयाचायथा_क्रिया ||छान्दोग-परि० कात्यायन || छन्दौगपरिशिष्ट नामक ग्रन्थ में विद्वानो ने तीन प्रकार की अक्रिया बतलाई हैं - *१- कुछ न करना, २- दूसरो के द्वारा(लौकिक) बतलाई गई, ३- अनुचित या अशास्त्रीय* क्रिया |
अपनी शाखा पर आश्रय लेने का विचार---> #स्वशाखाश्रयमुत्सृज्य_परशाखाश्रयं_तु_यः | #कर्त्तुमिच्छन्ति_दुर्मेधा_मोघं_तत्तस्य_चेष्टितम् || #यन्नाम्नातं_स्वशाखायां_परोक्तमविरोधि_यत् | #विद्वद्भिस्तदनुष्ठेयमग्निहोत्रादि_कर्मवत् ||पीयुष धारा ||
जो बुद्धिहीन व्यक्ति अपनी वेद-शाखा का अवलंबन न कर दूसरे की वेद-शाखा पर निर्भर होता हैं | ऐसे व्यक्ति की इस प्रकार चेष्टा करना व्यर्थ हैं ||१|| जो अपनी शाखा में न कहा गया हो एवं दूसरे की शाखा में कहीं गयी बात अपनी वेद-शाखा के विरुद्ध न हो तो ही उसको *अग्निहोत्र* की तरह अपनाना चाहिये | तात्पर्य यह हैं कि जिस प्रकार अग्निहोत्र माध्यन्दिन शाखा में कहा गया हैं, वैसे अन्य शाखा में नहीं | अतः अन्य शाखावाले भी उसका अनुसरण करते हैं | उसी प्रकार अपनी शाखा में जो कर्म अनुक्त हो एवं वह अपनी शाखा के विरुद्ध न हो तो ही, उसे करने में कोई दोष नहीं- परंतु अपनी शाखा में स्पष्ट विधान हो तो अपनी शाखा के अनुसार ही पूर्ण कार्य करना चाहिये | #एकवेदेपि_शाखानां_मध्ये_योऽन्यतमां_श्रयेत् || #स्वशाखां_तु_परित्यज्य_शाखारण्डः_स_उच्यते ||
#आत्मशाखां_परित्यज्य_परशाखासु_वर्तते | #उच्छेत्ता_तस्यवंशस्य_रौरवं_नरकं_व्रजेत् || वीरमित्रोदय- रुद्रकल्पद्रूम ||
एकवेद की भी विभिन्न शाखाओं में से जो अपनी आर्ष-परम्परा की शाखा को छोड़कर अन्यशाखा का आश्रय लेता हैं उसे शाखारंड की कनिष्ट उपमा से कहा हैं | तथा अपनी शाखा को छोड़कर दूसरी शाखा को अनुसरता हैं,वह अपने वंशका(वेद-शाखा आदिका) छेद कर रौरव नरक को जाता हैं |
इसलिए -- कन्यादान तक कन्याका पिताकी जो वेद-शाखा हो वही शाखासे कन्यादानतक का कर्म सम्पादन होता है, तथा --
#वरस्य_या_भवेच्छाखा_तच्छाखा_गृह्यचोदिता | #मधुपर्कः_प्रदातव्यो_ह्यन्यशाखेऽपिदातरि ||पा०गृह्यपरिशिष्ट ||
जिस शाखा का वर हो,उसी शाखा के गृह्यसूत्र में बतलाई गई विधिसे उसे *मधुपर्क* देना चाहिये | भले ही दाता की शाखा कोई भी हो | किन्तु याज्ञिक परम्परा भिन्न हैं वह ब्राह्मणवरण में ही ग्राह्य हैं | बाद में कन्यादान के पश्चात् विवाह का प्रधान संकल्प *(मम भार्यात्व सिद्धये विवाहहोमम् )* आदि वर की शाखानुसार शेष विधान करें,,,,,
चारों वेद की विभिन्न सहस्र शाखाएँ हैं- वेदों की शाखा के सम्बन्ध में व्याकरण महाभाष्य के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि ने लिखा हैं->
#एकशतमध्वर्युः_शाखाः_सहस्रवर्त्मा_सामवेदः || #एकविंशतिधा_बह्वृचम्_नवधाऽथर्वणो_वेदः || अर्थात् यजुर्वेद की १०० शाखाएँ, सामवेद की १०००, ऋग्वेद की २१, और अथर्ववेद की ९ शाखाएँ हैं || शाखा शब्द का अर्थ अवयव या हिस्सा नहीं हैं जैसे रामायण के छः काण्ड हैं या महाभारत के अठारह पर्व | ये काण्ड और पर्व उनके अवयव हैं | एक-एक काण्ड या एक-एक पर्व एक-एक स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं माना जा सकता; क्योंकि वह एक-एक से सापेक्ष और अनुबद्ध हैं | परन्तु वेदों की शाखाएँ परस्पर सापेक्ष अनुबद्ध नहीं हैं | अठारह पर्वों के या सात काण्डों के समुदाय का नाम महाभारत और रामायण हैं, परन्तु इक्कीस शाखाओं के समुदाय का नाम ऋग्वेद नहीं हैं, प्रत्युत प्रत्येक शाखा स्वतन्त्र रूप से ऋग्वेद हैं | क्योंकि एक शाखा दूसरी शाखा की अपेक्षा नहीं रखती | इसलिए किसी भी वेद की एक शाखा का अध्ययन करने ही से समग्र वेद का अध्ययन माना गया हैं | मीमांसा शास्त्र के प्रणेता महर्षि जैमिनि ने --
#स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि अपनी परम्परागत एक किसी भी स्वशाखा-वेद का अध्ययन करना चाहिये | यदि २१ शाखाओं को मिलाकर एक ऋग्वेद माना जाय और १००० शाखाओं के समुदाय को सामवेद माना जाय आदि,,, तो मनुष्य अपने एक जीवन में एक वेद का सम्पूर्ण अध्ययन कर सकैंगा | इस प्रकार तो मनु की यह आज्ञा भी असंगत हो जाती हैं-- #वेदानधीत्य_वेदौ_वा_वेदं_वापि_यथाक्रमम् || #अविलुप्त_ब्रह्मचर्यो_गृहस्थाश्रममाविशत् || अर्थात् द्विजाति मात्र ब्रह्मचर्य का पालन करतें हुए तीनों वेदों, दो वेदों या एक ही वेद को पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें •| ब्रह्मचर्य का काल आठ, बारह, चौबीस या अड़तालीस वर्ष बतलाया गया हैं | इतने ही क्या, सौ वर्ष में भी समस्त शाखाओं के सहित वेदों का अध्ययन कठिन ही नहीं प्रत्युत्त असम्भव ही हैं | अतः एक ही शाखा का अर्थ वेद हैं | आर्ष-परम्परा से जिसकी जो शाखा हो उसका वही वेद हैं | यही वास्तविक शास्त्रीय सिद्धांत हैं |
#अक्रिया_त्रिविधा_प्रोक्ता_विद्वद्भिः_कर्मकारिणाम् | #अक्रिया_च_परोक्ता_च_तृतीयाचायथा_क्रिया ||छान्दोग-परि० कात्यायन || छन्दौगपरिशिष्ट नामक ग्रन्थ में विद्वानो ने तीन प्रकार की अक्रिया बतलाई हैं - *१- कुछ न करना, २- दूसरो के द्वारा(लौकिक) बतलाई गई, ३- अनुचित या अशास्त्रीय* क्रिया |
अपनी शाखा पर आश्रय लेने का विचार---> #स्वशाखाश्रयमुत्सृज्य_परशाखाश्रयं_तु_यः | #कर्त्तुमिच्छन्ति_दुर्मेधा_मोघं_तत्तस्य_चेष्टितम् || #यन्नाम्नातं_स्वशाखायां_परोक्तमविरोधि_यत् | #विद्वद्भिस्तदनुष्ठेयमग्निहोत्रादि_कर्मवत् ||पीयुष धारा ||
जो बुद्धिहीन व्यक्ति अपनी वेद-शाखा का अवलंबन न कर दूसरे की वेद-शाखा पर निर्भर होता हैं | ऐसे व्यक्ति की इस प्रकार चेष्टा करना व्यर्थ हैं ||१|| जो अपनी शाखा में न कहा गया हो एवं दूसरे की शाखा में कहीं गयी बात अपनी वेद-शाखा के विरुद्ध न हो तो ही उसको *अग्निहोत्र* की तरह अपनाना चाहिये | तात्पर्य यह हैं कि जिस प्रकार अग्निहोत्र माध्यन्दिन शाखा में कहा गया हैं, वैसे अन्य शाखा में नहीं | अतः अन्य शाखावाले भी उसका अनुसरण करते हैं | उसी प्रकार अपनी शाखा में जो कर्म अनुक्त हो एवं वह अपनी शाखा के विरुद्ध न हो तो ही, उसे करने में कोई दोष नहीं- परंतु अपनी शाखा में स्पष्ट विधान हो तो अपनी शाखा के अनुसार ही पूर्ण कार्य करना चाहिये | #एकवेदेपि_शाखानां_मध्ये_योऽन्यतमां_श्रयेत् || #स्वशाखां_तु_परित्यज्य_शाखारण्डः_स_उच्यते ||
#आत्मशाखां_परित्यज्य_परशाखासु_वर्तते | #उच्छेत्ता_तस्यवंशस्य_रौरवं_नरकं_व्रजेत् || वीरमित्रोदय- रुद्रकल्पद्रूम ||
एकवेद की भी विभिन्न शाखाओं में से जो अपनी आर्ष-परम्परा की शाखा को छोड़कर अन्यशाखा का आश्रय लेता हैं उसे शाखारंड की कनिष्ट उपमा से कहा हैं | तथा अपनी शाखा को छोड़कर दूसरी शाखा को अनुसरता हैं,वह अपने वंशका(वेद-शाखा आदिका) छेद कर रौरव नरक को जाता हैं |
इसलिए -- कन्यादान तक कन्याका पिताकी जो वेद-शाखा हो वही शाखासे कन्यादानतक का कर्म सम्पादन होता है, तथा --
#वरस्य_या_भवेच्छाखा_तच्छाखा_गृह्यचोदिता | #मधुपर्कः_प्रदातव्यो_ह्यन्यशाखेऽपिदातरि ||पा०गृह्यपरिशिष्ट ||
जिस शाखा का वर हो,उसी शाखा के गृह्यसूत्र में बतलाई गई विधिसे उसे *मधुपर्क* देना चाहिये | भले ही दाता की शाखा कोई भी हो | किन्तु याज्ञिक परम्परा भिन्न हैं वह ब्राह्मणवरण में ही ग्राह्य हैं | बाद में कन्यादान के पश्चात् विवाह का प्रधान संकल्प *(मम भार्यात्व सिद्धये विवाहहोमम् )* आदि वर की शाखानुसार शेष विधान करें,,,,,
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ ||
#षोडश_संस्काराः_खंड_१५९~
#विवाहसंस्कारम्--->
ब्रह्मचारी गुरु की आज्ञा से यथाविधि *समावर्तन-स्नान* कर द्विज-स्नातक होकर सुलक्षणा एवं #सवर्णा_कन्या का पाणिग्रहण करें |
#गुरुणानुमतः_स्नात्वा_समावृत्तो_यथाविधि | #उद्वहेत्_द्विजो_भार्यां_सवर्णां_लक्षणान्विताम् ||मनुः ३/४ ||
===========================
विवाह गृहस्थाश्रम का सर्व-प्रमुख संस्कार हैं | इस संस्कार के प्रमुख तीन उद्देश्य होतें हैं - *(१)- अनर्गल प्रवृत्ति का निरोध, (२)- पुत्रोत्पादन द्वारा वंश की रक्षा एवं (३)- भगवत्प्रेम का अभ्यास | मनुजी ने कहा हैं - #ऋणानि_त्रीण्यपाकृत्य_मनो_मोक्षे_निवेशयेत् | #अनपाकृत्य_मोक्षं_तु_सेवमानो_व्रजत्यधः || #अधीत्य_विधिवद्वेदान्_पुत्रांश्चोत्पाद्य_धर्मतः | #इष्ट्वा_च_शक्तितो_यज्ञैर्मनो_मोक्षे_निवेशयेत् ||मनु० ६/३५-३६||
ऋषि-ऋण, देव-ऋण और पितृ-ऋण- इन तीन ऋणों का शोधन कर अपना चित्त मोक्ष में लगाना चाहिये | तीन ऋणों से बिना छुटकारा पाये मुक्तिमार्ग का आश्रय लेने से मानव का पतन हो जाता हैं | अतएव स्व-शाखावेद के स्वाध्यायद्वारा ऋषि-ऋण, यज्ञ-साधन द्वारा देव-ऋण और पुत्रोत्पत्ति द्वारा पितृऋण से सद्गृहस्थ मुक्त होते हैं | नैष्ठिक ब्रह्मचारी के समस्त ऋण ज्ञानयज्ञ में लय हो जातें हैं | महर्षि *याज्ञवल्क्यजी* ने कहा हैं -
#अविप्लुत_ब्रह्मचर्यो_लक्षण्यां_स्त्रियमुद्वहेत् | #अनन्यपूर्विकां_कान्तामसपिण्डां_यवीयसीम् ||याज्ञ०१/३/५२||
गृहस्थ बनने के लिये मन के अनुरूपा, भिन्न गोत्रीया, अपने से अल्पवयस्का एवं अनन्यपूर्विका(पहले किसी के साथ अविवाहिता) कन्या का पाणिग्रहण करे | इस संदर्भ में मनु आदि अनेक आचार्यों के वचन प्राप्त होतें हैं |
सभी देश-जातियों में वैवाहिक विधियों में बहुत ही असमानता दिखायी पड़ती हैं | उनमें *भोगवृत्ति की प्रमुखता* और *अति निकटता का अनार्ष नियम* भी अपनाया जाता हैं | किंतु शास्त्र के अनुसार #संस्कृति में विवाह- गुरु,देव,अग्नि और ऋषि-महर्षियों का आशीर्वचन प्राप्त कर उनकी प्रदक्षिणा करके शाखोच्चार, प्रतिज्ञा, सूर्य-ध्रुवदर्शन, सप्तपदी एवं सिन्दूर-दान सदृश अतिविशिष्ट वैदिक विधियों द्वारा जीवन पर्यन्त अटूट बन्धन के रूप में सम्पन्न होतें हैं | ऋषियों ने धर्मशास्त्रों में *आठ प्रकार के विवाह* गिनाये हैं, जिनमें *प्रथम चार विवाह उत्तम* और पश्चात् *चार विवाह अधम या निम्न स्तर के कहे गये हैं |
#ब्राह्मो_दैवस्तथैवार्षः_प्राजापत्यस्तथासुरः |
#गान्धर्वो_राक्षसश्चैव_पैशाचश्चाष्टमोऽधमः || मनु० ३/२१||
*(१)- ब्राह्म (२) दैव (३) आर्ष (४) प्राजापत्य (५) आसुर (६) गान्धर्व (७) राक्षस और (८) पैशाच* - ये ८ प्रकार के विवाह हैं | इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार हैं ->
*१-ब्राह्म-विवाह---> ( आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम् | आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ||मनु०३/२७||)*
कन्या को यथा-शक्ति वस्त्रालङ्कार से सज्जित कर वैदिक-विद्या सम्पन्न और शीलवान् वर को घरपर बुलाकर *वैदिक विधि पूर्वक कन्यादान करना- ब्राह्मविवाह* हैं |
*२- दैव-विवाह----> (यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते | अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते ||मनु०३/२८||*) |
ज्योतिष्टोमादि यज्ञों में कर्मकर्ता ऋत्विक् को अलङ्कारादि से विभूषिता कन्या का दान करना *दैव-विवाह* हैं |
*३- आर्ष-विवाह ---> ( एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः | कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते ||मनुः० ३/२९||)* |
यज्ञादि धर्म-कार्यों के लिये एक या दो जोड़ी गाय अथवा बैल लेकर ऋत्विक् को कन्यादान करना *आर्ष विवाह* हैं |
*४- प्राजापत्य-विवाह----> ( सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च | कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः ||)* |
तुम दोनों मिलकर गृहस्थ-धर्म का पालन करो- इस प्रकार कहकर कन्यार्थी वर को शास्त्रविधि से कन्यादान करना *प्राजापत्य-विवाह* हैं |
#निन्दित_विवाह->
*५- आसुर-विवाह ----> ( ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः | कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादसुरो धर्म उच्यते ||मनुः ३/३१||)*
कन्या या उसके कुटुम्बियों को धन-सम्पत्ति देकर कन्या का क्रय करना -- *दहेज देना* *आसुर विवाह* -- हैं |
*६- गान्धर्व-विवाह या स्वेच्छिक-विवाह ---> (इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च | गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः ||)* | वर और कन्या के पारस्परिक प्रेम और शर्त(शपथ) - पर जो विवाह सम्पन्न होता हैं,जो केवल कामवासना से होने वाला और मैथुन के पर ही निर्भर हैं --- #धर्माद्विरुद्ध_भूतेषु_कामः | उसे *गान्धर्व- विवाह* कहतें हैं | स्वयंवर-प्रथा इसी के अन्तर्गत हैं --- आज वर्तमान में विवाह से पहले मुलाकात आदि करना यह भी तो इसके अन्तर्गत ही आ जाता हैं |
*७- राक्षस-विवाह ---> ( हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात् | प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ||मनुः ३/३३||*)||
कन्या का बल-पूर्वक हरण कर विवाह करना *राक्षस विवाह* हैं |
*८- पैशाच-विवाह---> ( सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति | स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः || मनुः ३/३४||*)|
निद्रिता, मद्यपान से विह्वला या किसी अन्य प्रकार से उन्मत्ता-प्रमत्ता कुमारी के साथ एकान्त में सम्बन्धद्वारा किया गया विवाह *पैशाच विवाह* हैं |
*५- आसुर-विवाह ----> ( ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः | कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादसुरो धर्म उच्यते ||मनुः ३/३१||)*
कन्या या उसके कुटुम्बियों को धन-सम्पत्ति देकर कन्या का क्रय करना -- *दहेज देना* *आसुर विवाह* -- हैं |
*६- गान्धर्व-विवाह या स्वेच्छिक-विवाह ---> (इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च | गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः ||)* | वर और कन्या के पारस्परिक प्रेम और शर्त(शपथ) - पर जो विवाह सम्पन्न होता हैं,जो केवल कामवासना से होने वाला और मैथुन के पर ही निर्भर हैं --- #धर्माद्विरुद्ध_भूतेषु_कामः | उसे *गान्धर्व- विवाह* कहतें हैं | स्वयंवर-प्रथा इसी के अन्तर्गत हैं --- आज वर्तमान में विवाह से पहले मुलाकात आदि करना यह भी तो इसके अन्तर्गत ही आ जाता हैं |
*७- राक्षस-विवाह ---> ( हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात् | प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ||मनुः ३/३३||*)||
कन्या का बल-पूर्वक हरण कर विवाह करना *राक्षस विवाह* हैं |
*८- पैशाच-विवाह---> ( सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति | स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः || मनुः ३/३४||*)|
निद्रिता, मद्यपान से विह्वला या किसी अन्य प्रकार से उन्मत्ता-प्रमत्ता कुमारी के साथ एकान्त में सम्बन्धद्वारा किया गया विवाह *पैशाच विवाह* हैं |
केवल ब्राह्मणों में ही जल के साथ संकल्प कर कन्यादान किया जाता हैं - >
#अद्भिरेव_द्विजाग्र्याणां_कन्यादानं_विशिष्यते |
#इतरेषां_तु_वर्णानामितरेतरकाम्यया || मनुः ० ३/३५||
अन्य वर्णों को परस्पर इच्छानुसार केवल वाणी(वचन-रूप संकल्प से देकर) जल से संकल्प किए बिना कन्यादान कर सकतें हैं |
*(दश पूर्वान्परान्वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् | ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयेदेनसः पितॄन् ||मनुः ० ३/३७||*) |
ब्राह्म-विवाह से उत्पन्न होने वाला पुत्र ही (अपने पिता, पितामह आदि) दस पूर्वजों (पुत्र, पौत्रादि ) दस पर कें( पीछेके) वंशजो और एकवीसवाँ अपने आप को पाप से छुड़ाता हैं |
*(दैवोढाजः सुतश्चैव सप्त सप्त परावरान् |* दैव विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र यदि पुण्य कर्म करें तो आगे की और पीछे की सात-सात पैढीओं को मुक्त करवाता हैं | *(आर्षोढाजः सुत स्त्रींस्त्रीन् ------ षट्षट् कायोढजः सुतः ||मनुः ३/३८||*)|
आर्ष विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र आगे-पीछे की तीन-तीन पैढी को मुक्त करवाता हैं, तथा प्राजापत्य-विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र आगे-पीछे की छह-छह पेढीओं को पाप से मुक्त करवाता हैं |
*(ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः | ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसंमताः ||मनुः ३/३९||*)|
ब्राह्म,दैव, आर्ष और प्राजापत्य-विवाह - इन चारो विवाहो से ही शिष्टाचार-युक्त ऐसे ब्रह्मवर्चस्वी पुत्रों का जन्म होता हैं | ----> *(रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः | पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च गतं समा || मनुः ३/४०||*)| तथा वही पुत्रोंरूप, पराक्रम और सत्त्वगुणो से युक्त, धनवान, यशस्वी, सम्पूर्ण वैभव के उपभोग करनेवाले और धर्मिष्ठ होकर पूर्ण आयु को भोगतें हैं |
*((((( इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः | जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः || मनुः ३/४१||)))))*|| ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य-विवाह - इन चारों से विपरीत *आसुर, गांधर्व(स्वयंवर या प्रेम विवाहLove marriages), राक्षस और पैशाच- विवाहों से घातकी,असत्यभाषी और वैदिकधर्म के द्वेषी(पाखंडी) पुत्रों उत्पन्न होतें हैं |
*(परन्तु विधिनाऽनेन या याः कन्या विवाहिताः | ताः सर्वा दुःखमापन्ना इतिहासे समीक्षताम् ||अतः स्वयंवरविधिः सशास्त्रोऽपि न शङ्करः || कौशिक-रामायण ||*)|
कौशिक-रामायण में कहा हैं- स्वयंवर, गांधर्वविवाह या प्रेमविवाह से जिस जिस कन्याओं का विवाह हुए हैं, वह सभी (सीता,दमयन्ती, द्रौपदी आदि) जीवनपर्यन्त दुःखी रही हैं इनके इतिहास साक्षी हैं | इसलिए गाँधर्वविवाह शास्त्रोक्त होने पर भी सुखप्रद नहीं हैं |
*(क्रीता द्रव्येण या नारी सा न पत्नी विधीयते | सा न दैवे न सा पित्र्ये दासीं तां कश्यपोऽब्रवीत् ||बौधायन-स्मृ० १/११/२० --- बौ०धर्मसू० १/११/२४||*)|| -- *(क्रयक्रीता च या कन्या पत्नी सा न विधीयते | तस्यां जाताः सुतास्तेषां पितृपिण्डं न विद्यते ||अत्रिसंहिता ३८७||*)|
पैसे(द्रव्य) देकर खरीदी हुइ स्त्री *पत्नी* नहीं कहलाती, परंतु *दासी* कहलाती हैं,ऐसी स्त्रीओं का तथा उनसे उत्पन्न पुत्रों का देवकार्य तथा पितृकार्य में अधिकार नहीं हैं |
मनुजी ने कहा हैं कि -- > *(अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजाः | निन्दितैर्निन्दिताः नॄणां तस्मान्निद्यान्विवर्जयेत् ||मनुः ३/४२||*)|
अर्थात् अनिन्दित (प्रशस्त) स्त्री-विवाह से अनिन्दित(उत्तम) संताने और निन्दित(कलङ्कित) विवाहों से कलङ्कित संताने ही उत्पन्न होंगी | अतएव निन्दित विवाहों का परित्याग करना चाहिये |
#अद्भिरेव_द्विजाग्र्याणां_कन्यादानं_विशिष्यते |
#इतरेषां_तु_वर्णानामितरेतरकाम्यया || मनुः ० ३/३५||
अन्य वर्णों को परस्पर इच्छानुसार केवल वाणी(वचन-रूप संकल्प से देकर) जल से संकल्प किए बिना कन्यादान कर सकतें हैं |
*(दश पूर्वान्परान्वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् | ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयेदेनसः पितॄन् ||मनुः ० ३/३७||*) |
ब्राह्म-विवाह से उत्पन्न होने वाला पुत्र ही (अपने पिता, पितामह आदि) दस पूर्वजों (पुत्र, पौत्रादि ) दस पर कें( पीछेके) वंशजो और एकवीसवाँ अपने आप को पाप से छुड़ाता हैं |
*(दैवोढाजः सुतश्चैव सप्त सप्त परावरान् |* दैव विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र यदि पुण्य कर्म करें तो आगे की और पीछे की सात-सात पैढीओं को मुक्त करवाता हैं | *(आर्षोढाजः सुत स्त्रींस्त्रीन् ------ षट्षट् कायोढजः सुतः ||मनुः ३/३८||*)|
आर्ष विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र आगे-पीछे की तीन-तीन पैढी को मुक्त करवाता हैं, तथा प्राजापत्य-विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र आगे-पीछे की छह-छह पेढीओं को पाप से मुक्त करवाता हैं |
*(ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः | ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसंमताः ||मनुः ३/३९||*)|
ब्राह्म,दैव, आर्ष और प्राजापत्य-विवाह - इन चारो विवाहो से ही शिष्टाचार-युक्त ऐसे ब्रह्मवर्चस्वी पुत्रों का जन्म होता हैं | ----> *(रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः | पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च गतं समा || मनुः ३/४०||*)| तथा वही पुत्रोंरूप, पराक्रम और सत्त्वगुणो से युक्त, धनवान, यशस्वी, सम्पूर्ण वैभव के उपभोग करनेवाले और धर्मिष्ठ होकर पूर्ण आयु को भोगतें हैं |
*((((( इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः | जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः || मनुः ३/४१||)))))*|| ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य-विवाह - इन चारों से विपरीत *आसुर, गांधर्व(स्वयंवर या प्रेम विवाहLove marriages), राक्षस और पैशाच- विवाहों से घातकी,असत्यभाषी और वैदिकधर्म के द्वेषी(पाखंडी) पुत्रों उत्पन्न होतें हैं |
*(परन्तु विधिनाऽनेन या याः कन्या विवाहिताः | ताः सर्वा दुःखमापन्ना इतिहासे समीक्षताम् ||अतः स्वयंवरविधिः सशास्त्रोऽपि न शङ्करः || कौशिक-रामायण ||*)|
कौशिक-रामायण में कहा हैं- स्वयंवर, गांधर्वविवाह या प्रेमविवाह से जिस जिस कन्याओं का विवाह हुए हैं, वह सभी (सीता,दमयन्ती, द्रौपदी आदि) जीवनपर्यन्त दुःखी रही हैं इनके इतिहास साक्षी हैं | इसलिए गाँधर्वविवाह शास्त्रोक्त होने पर भी सुखप्रद नहीं हैं |
*(क्रीता द्रव्येण या नारी सा न पत्नी विधीयते | सा न दैवे न सा पित्र्ये दासीं तां कश्यपोऽब्रवीत् ||बौधायन-स्मृ० १/११/२० --- बौ०धर्मसू० १/११/२४||*)|| -- *(क्रयक्रीता च या कन्या पत्नी सा न विधीयते | तस्यां जाताः सुतास्तेषां पितृपिण्डं न विद्यते ||अत्रिसंहिता ३८७||*)|
पैसे(द्रव्य) देकर खरीदी हुइ स्त्री *पत्नी* नहीं कहलाती, परंतु *दासी* कहलाती हैं,ऐसी स्त्रीओं का तथा उनसे उत्पन्न पुत्रों का देवकार्य तथा पितृकार्य में अधिकार नहीं हैं |
मनुजी ने कहा हैं कि -- > *(अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजाः | निन्दितैर्निन्दिताः नॄणां तस्मान्निद्यान्विवर्जयेत् ||मनुः ३/४२||*)|
अर्थात् अनिन्दित (प्रशस्त) स्त्री-विवाह से अनिन्दित(उत्तम) संताने और निन्दित(कलङ्कित) विवाहों से कलङ्कित संताने ही उत्पन्न होंगी | अतएव निन्दित विवाहों का परित्याग करना चाहिये |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(विवाह-संस्कार)_खंड~१६०
शास्त्रों में पवित्र, सरल, स्थिर और सुखमय जीवन-यापन के उद्देश्य से मानव और मानवी के लिये अपने जीवन को संयम, सदाचार, त्याग, तप, सेवा, शान्ति एवं धर्म आदि अनेक कल्याण-गुणों से परिष्कृत करने एवं अविनय, कदाचार तथा विलासिता आदि दुर्गुणों से दूर रहने के लिये "विवाह-संस्कार" को आवश्यकतम माना हैं | इस पवित्रतम संस्कार के बिना इन आवश्यक कल्याण-गुणों का विकास एवं दुर्गुणों का उच्छेद दुःशक्य ही नहीं, अपितु असम्भव हैं |
शास्त्रों में पवित्र, सरल, स्थिर और सुखमय जीवन-यापन के उद्देश्य से मानव और मानवी के लिये अपने जीवन को संयम, सदाचार, त्याग, तप, सेवा, शान्ति एवं धर्म आदि अनेक कल्याण-गुणों से परिष्कृत करने एवं अविनय, कदाचार तथा विलासिता आदि दुर्गुणों से दूर रहने के लिये "विवाह-संस्कार" को आवश्यकतम माना हैं | इस पवित्रतम संस्कार के बिना इन आवश्यक कल्याण-गुणों का विकास एवं दुर्गुणों का उच्छेद दुःशक्य ही नहीं, अपितु असम्भव हैं |
इस संस्कार का प्रथमरूप से उल्लेख विश्वके सर्वप्रथम ग्रन्थ *ऋग्वेद* में सूर्या और सोम के विवाहरूप में उपलब्ध होता हैं | विवाह-संस्कार की आवश्यकता एवं विवाह शब्द के अर्थ का भी प्रथमरूप से उल्लेख *ऋग्वेद* के *ब्राह्मणग्रन्थ ऐतरेय* में -- *पृथिवी* और *सूर्य* के विवाहरूप में हुआ हैं |
विवाह-संस्कार की आवश्यकता का आकलन करते हुए इतरा के पुत्र महीदास ने रहस्य का वर्णन करते हुए कहा हैं कि विश्व में जबतक पृथिवी और सूर्य *विवाह-संस्कार* से संस्कृत होकर परस्पर संयत नहीं हुए थे, तबतक परस्पर अपूर्ण होने के कारण दोनों ही *(नावर्षन्न समपतत्)* न तो सूर्य वर्षा करने में समर्थ हो सके और न पृथिवी ही औष्ण्य प्रदान में समर्थ हो सकी | इससे देव-मनुष्यादि पाँच प्रकार की प्रजाएँ निश्चेष्ट और निश्चेतन होकर उच्छिन्न होने लगीं | इस आपत्ति से त्राण पाने के लिये देवों की प्रार्थना पर विश्वकल्याण के लिये सूर्य और पृथिवी #तौ_संयन्तौ_एतं_देवविवाहं_व्यवहेताम् || विवाह-संस्कार से संस्कृत हो गये | इस से दोनों की शक्तियों का परस्पर में विवहन(सम्मेलन) हो गया, जिससे पृथिवी *रथन्तर* शक्ति से सूर्यकिरणों में ताप (औष्ण्य) पहुँचाने लगी | सूर्य *बृहत्* शक्ति से वर्षाद्वारा पृथिवी का प्रीणन करने लगा | दोनों के इस दाम्पत्यभाव से विश्व सुखी, शान्त और समृद्ध होकर प्रकाशित हो गया |
वेद-भाष्यकार सर्व श्री *सायणाचार्यजी ने ऐतरेय ब्राह्मण* का भाष्य करते हुए *विवाह* शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की हैं --====-----> #तदिदं_विपर्यासेन_सम्बन्धनयनं_विवाहम् || अर्थात् परस्पर विरुद्ध-स्वभाव दो मौलिक शक्तियों का विश्वकल्याण के उद्देश्य से अन्योन्य -सम्बन्ध-स्थापन *विवाह* हैं |
विवाह-संस्कार की आवश्यकता का आकलन करते हुए इतरा के पुत्र महीदास ने रहस्य का वर्णन करते हुए कहा हैं कि विश्व में जबतक पृथिवी और सूर्य *विवाह-संस्कार* से संस्कृत होकर परस्पर संयत नहीं हुए थे, तबतक परस्पर अपूर्ण होने के कारण दोनों ही *(नावर्षन्न समपतत्)* न तो सूर्य वर्षा करने में समर्थ हो सके और न पृथिवी ही औष्ण्य प्रदान में समर्थ हो सकी | इससे देव-मनुष्यादि पाँच प्रकार की प्रजाएँ निश्चेष्ट और निश्चेतन होकर उच्छिन्न होने लगीं | इस आपत्ति से त्राण पाने के लिये देवों की प्रार्थना पर विश्वकल्याण के लिये सूर्य और पृथिवी #तौ_संयन्तौ_एतं_देवविवाहं_व्यवहेताम् || विवाह-संस्कार से संस्कृत हो गये | इस से दोनों की शक्तियों का परस्पर में विवहन(सम्मेलन) हो गया, जिससे पृथिवी *रथन्तर* शक्ति से सूर्यकिरणों में ताप (औष्ण्य) पहुँचाने लगी | सूर्य *बृहत्* शक्ति से वर्षाद्वारा पृथिवी का प्रीणन करने लगा | दोनों के इस दाम्पत्यभाव से विश्व सुखी, शान्त और समृद्ध होकर प्रकाशित हो गया |
वेद-भाष्यकार सर्व श्री *सायणाचार्यजी ने ऐतरेय ब्राह्मण* का भाष्य करते हुए *विवाह* शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की हैं --====-----> #तदिदं_विपर्यासेन_सम्बन्धनयनं_विवाहम् || अर्थात् परस्पर विरुद्ध-स्वभाव दो मौलिक शक्तियों का विश्वकल्याण के उद्देश्य से अन्योन्य -सम्बन्ध-स्थापन *विवाह* हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(विवाह-संस्कार)_खंड_१६१~
विवाह संस्कार -- संस्कारों के क्रम में कुलिन द्विज पुरुषों के लिए *(जन्म से पहलें १- गर्भाधान, २- पुंसवन(अनवलोभन)३- सीमन्तोन्नयन(ऋग्वेदीयों में विष्णुबलि)और जन्म के पश्चात् ४- जातकर्म, ५- नामकरण, ६- निष्क्रमण-सूर्यदर्शन(सामवेदीयों में चन्द्रदर्शन), ७-अन्नप्राशन, ८- कर्णवेध, ९- चूडाकरण(चौल), १०- उपनयन(यज्ञोपवीत), ११- वेदारंभ(१२- चतुर्वेदव्रत - १३-केशान्त )१४- समावर्तन और १५- विवाह-संस्कार पंद्रहवें स्थान पर यथा काल यथा क्रम से हैं)* तथा स्त्री के *( जन्म से पहले समंत्रक १- गर्भाधान , २ पुंसवन तथा (ऋग्वेदीयों में अनवलोभन), ३- सीमन्तोन्नयन तथा (ऋग्वेदीओं में विष्णुबलि), जन्म के बाद बिना वेदमंत्र क्रियामात्र से ४- जातकर्म, ५- नामकरण, ६- निष्क्रमण-सूर्यदर्शन(सामवेदीओं में चन्द्रदर्शन), ७- अन्नप्राशन, ८- कर्णवेध, और ९ -चूडाकरण ये नव संस्कार विवाह के पहले के संस्कार होतें हैं | स्त्रीयों के उपनयन, वेदारंभ (चतुर्वेदव्रत),केशान्त, तथा समावर्तन- संस्कार शास्त्र की आज्ञा से नहीं होतें, तथा १०- समंत्रक - विवाह संस्कार दशवें क्रम में यथा काल यथा क्रम से होते हैं)* |
विवाह-संस्कार के लक्षण, उद्देश्य और रहस्य ही इसकी महत्ता को प्रकट कर रहे हैं | वैदिक-ब्राह्मणग्रन्थों में पदे-पदे कहा गया हैं कि #देवानुकारा_वै_मनुष्याः ||
(१)- विवाह-संस्कार, वह संस्कार हैं,जिससे संस्कृत होकर मानव विशेषतः वेद,लोक, प्रजा और धर्म -- इन चार भावों की कृतकृत्यता सम्पादन करनेमें समर्थ होता हैं |
बिन् विवाह-संस्कार के न तो वेदमूलक यज्ञधर्म का ही अधिकार है, न लोकप्रतिष्ठा ही हैं, न प्रजा-समृद्धि हैं और न धर्मसंग्रह ही हैं |
(२) जिस संस्कार के बल से मानव अपने अध्यात्म-प्रपञ्च के साथ संयुक्त करने में समर्थ होतें हैं- वही संस्कार *विवाह संस्कार* हैं |
यजुर्वेद के *शतपथ ब्राह्मण-ग्रन्थ* में भगवान् याज्ञवल्क्य का विज्ञान हैं कि बिना *विवाह-संस्कार* के मानव *अर्धेन्द्र* अर्थात् अपूर्ण हैं | पूर्ण पुरुष प्रजापति के साथ सायुज्य-प्राप्ति करने के लिये इसकी *अर्धेन्द्रता* की *पूर्णेन्द्रता* में परिणति आवश्यक हैं | अर्धेन्द्र पुरुष की वह पूर्णता एक पत्नी के संयोगपर ही निर्भर हैं | यही पत्नी इसके अर्धांश को पूर्ण करती हैं; इसे पूर्ण पुरुष के समकक्ष बनाती हैं | इन सब प्रकृतिसिद्ध कारणों से ही ऋषियों ने इस संस्कार को आवश्यकतम माना हैं |
पुरुष अथवा स्त्री अर्धेन्द्र (अपूर्ण) इसलिये हैं कि विषुवत् वृत्त का आधा दृश्यभाग ही पुरुष में आता हैं, अदृश्य आधाभाग स्त्रीका उत्पादक बनता हैं | पूरे विषुवत् वृत्त में ९०-९०-९०-९० इस क्रम से चार पाद हैं | इसलिये संवत्सर प्रजापति भी चतुष्पाद हैं | इसको दो पाद अग्निप्रधान हैं तथा दो पाद सोमप्रधान हैं #अग्निषोमात्मकं_विश्वम् ||
अतएव अग्निप्रधान पुरुष भी द्विपाद हैं और सोमप्रधाना स्त्री भी द्विपदा हैं | जबतक चारों मिल नहीं जाते, तबतक इसमें *चतुष्पाद-ब्रह्म* की पूर्णता नहीं आती |
खगोल(संवत्सर) - का सूर्य(अग्नि)प्रधान आधा दृश्यभाग बाह्य संस्था से सम्बन्ध रखता हैं | अतएव तत्प्रधान पुरुष बाह्य संस्था का संचालक माना गया हैं | रात्रिप्रधान आधे अदृश्यभाग का अभ्यन्तर संस्थासे सम्बन्ध हैं | अतएव सोमप्रधाना स्त्री घर की प्रतिष्ठा हैं | गृहसंस्था का संचालन एकमात्र स्त्रीपर ही अवलम्बित हैं | सीमानुगता होने से लज्जा, शील, विनय, सेवा, त्याग एवं पतिवर्त्यानुगता आदि इसके नैसर्गिक धर्म हैं | सौम्यधर्मानुगता स्त्री एवं उग्रकर्मानुगत पुरुष दोनों जबतक *विवाहसूत्र* से सीमित नहीं हो जाते, तबतक दोनों ही अर्धेन्द्र हैं, अपूर्ण हैं |
विवाह संस्कार -- संस्कारों के क्रम में कुलिन द्विज पुरुषों के लिए *(जन्म से पहलें १- गर्भाधान, २- पुंसवन(अनवलोभन)३- सीमन्तोन्नयन(ऋग्वेदीयों में विष्णुबलि)और जन्म के पश्चात् ४- जातकर्म, ५- नामकरण, ६- निष्क्रमण-सूर्यदर्शन(सामवेदीयों में चन्द्रदर्शन), ७-अन्नप्राशन, ८- कर्णवेध, ९- चूडाकरण(चौल), १०- उपनयन(यज्ञोपवीत), ११- वेदारंभ(१२- चतुर्वेदव्रत - १३-केशान्त )१४- समावर्तन और १५- विवाह-संस्कार पंद्रहवें स्थान पर यथा काल यथा क्रम से हैं)* तथा स्त्री के *( जन्म से पहले समंत्रक १- गर्भाधान , २ पुंसवन तथा (ऋग्वेदीयों में अनवलोभन), ३- सीमन्तोन्नयन तथा (ऋग्वेदीओं में विष्णुबलि), जन्म के बाद बिना वेदमंत्र क्रियामात्र से ४- जातकर्म, ५- नामकरण, ६- निष्क्रमण-सूर्यदर्शन(सामवेदीओं में चन्द्रदर्शन), ७- अन्नप्राशन, ८- कर्णवेध, और ९ -चूडाकरण ये नव संस्कार विवाह के पहले के संस्कार होतें हैं | स्त्रीयों के उपनयन, वेदारंभ (चतुर्वेदव्रत),केशान्त, तथा समावर्तन- संस्कार शास्त्र की आज्ञा से नहीं होतें, तथा १०- समंत्रक - विवाह संस्कार दशवें क्रम में यथा काल यथा क्रम से होते हैं)* |
विवाह-संस्कार के लक्षण, उद्देश्य और रहस्य ही इसकी महत्ता को प्रकट कर रहे हैं | वैदिक-ब्राह्मणग्रन्थों में पदे-पदे कहा गया हैं कि #देवानुकारा_वै_मनुष्याः ||
(१)- विवाह-संस्कार, वह संस्कार हैं,जिससे संस्कृत होकर मानव विशेषतः वेद,लोक, प्रजा और धर्म -- इन चार भावों की कृतकृत्यता सम्पादन करनेमें समर्थ होता हैं |
बिन् विवाह-संस्कार के न तो वेदमूलक यज्ञधर्म का ही अधिकार है, न लोकप्रतिष्ठा ही हैं, न प्रजा-समृद्धि हैं और न धर्मसंग्रह ही हैं |
(२) जिस संस्कार के बल से मानव अपने अध्यात्म-प्रपञ्च के साथ संयुक्त करने में समर्थ होतें हैं- वही संस्कार *विवाह संस्कार* हैं |
यजुर्वेद के *शतपथ ब्राह्मण-ग्रन्थ* में भगवान् याज्ञवल्क्य का विज्ञान हैं कि बिना *विवाह-संस्कार* के मानव *अर्धेन्द्र* अर्थात् अपूर्ण हैं | पूर्ण पुरुष प्रजापति के साथ सायुज्य-प्राप्ति करने के लिये इसकी *अर्धेन्द्रता* की *पूर्णेन्द्रता* में परिणति आवश्यक हैं | अर्धेन्द्र पुरुष की वह पूर्णता एक पत्नी के संयोगपर ही निर्भर हैं | यही पत्नी इसके अर्धांश को पूर्ण करती हैं; इसे पूर्ण पुरुष के समकक्ष बनाती हैं | इन सब प्रकृतिसिद्ध कारणों से ही ऋषियों ने इस संस्कार को आवश्यकतम माना हैं |
पुरुष अथवा स्त्री अर्धेन्द्र (अपूर्ण) इसलिये हैं कि विषुवत् वृत्त का आधा दृश्यभाग ही पुरुष में आता हैं, अदृश्य आधाभाग स्त्रीका उत्पादक बनता हैं | पूरे विषुवत् वृत्त में ९०-९०-९०-९० इस क्रम से चार पाद हैं | इसलिये संवत्सर प्रजापति भी चतुष्पाद हैं | इसको दो पाद अग्निप्रधान हैं तथा दो पाद सोमप्रधान हैं #अग्निषोमात्मकं_विश्वम् ||
अतएव अग्निप्रधान पुरुष भी द्विपाद हैं और सोमप्रधाना स्त्री भी द्विपदा हैं | जबतक चारों मिल नहीं जाते, तबतक इसमें *चतुष्पाद-ब्रह्म* की पूर्णता नहीं आती |
खगोल(संवत्सर) - का सूर्य(अग्नि)प्रधान आधा दृश्यभाग बाह्य संस्था से सम्बन्ध रखता हैं | अतएव तत्प्रधान पुरुष बाह्य संस्था का संचालक माना गया हैं | रात्रिप्रधान आधे अदृश्यभाग का अभ्यन्तर संस्थासे सम्बन्ध हैं | अतएव सोमप्रधाना स्त्री घर की प्रतिष्ठा हैं | गृहसंस्था का संचालन एकमात्र स्त्रीपर ही अवलम्बित हैं | सीमानुगता होने से लज्जा, शील, विनय, सेवा, त्याग एवं पतिवर्त्यानुगता आदि इसके नैसर्गिक धर्म हैं | सौम्यधर्मानुगता स्त्री एवं उग्रकर्मानुगत पुरुष दोनों जबतक *विवाहसूत्र* से सीमित नहीं हो जाते, तबतक दोनों ही अर्धेन्द्र हैं, अपूर्ण हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(विवाह-संस्कार)#खंड_१६२~
जिस संस्कार से संस्कृत होनेपर शरीरों के पृथक्-पृथक् रहनेपर भी संस्कृत दो व्यक्तियों की आत्मा एक बन जाती हैं, वही संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं | अतएव लोकान्तर में भी इस दाम्पत्य भाव का प्रवाह प्रवाहित रहता हैं |
स्थूल दृष्टि अबुद्ध मानवों के ज्ञान की तो कुछ कीमत नहीं हैं | उनकी दृष्टि में तो विवाह एक लौकिक कर्म हैं | वैषयिक तृप्ति का साधन हैं, परंतु एक प्रबुद्ध मानव की दृष्टि में तो *विवाह* एक अलौकिक सम्बन्ध ही हैं | उनकी दृष्टि में विवाह एक ऐसा धार्मिक सम्बन्ध(संस्कार) हैं, जो कभी किसी भी उपाय से विच्छिन्न नहीं किया जा सकता |
जिस संस्कार के बल से मानव मानवी मात्र में निसर्गतः प्रवृत्त अपने राग को एक मानवी में और मानवी मात्र में निसर्गतः प्रवृत्त अपने राग को एक मानव में संयत(नियन्त्रित) करने में समर्थ हो सके, वही संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं |
*शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ* में महर्षि याज्ञवल्क्य का विज्ञान हैं कि एक ही तत्त्व स्त्री-पुरुष दो भागों में विभक्त हो गया, अतः इन में परस्पर आकर्षण निसर्गजन्य हैं | सर्वतः प्रवृत्त इस राग को एक में नियन्त्रित करना आवश्यक हैं | इसका सर्वोत्तम और सरल उपाय *विवाह-संस्कार* ही हैं |
जिस संस्कार के बल से लौकिक राग को दिव्य-राग(भक्ति) में परिणत किया जा सकता हैं, वही दिव्य संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं | लौकिक प्रेम ही आसक्ति हैं, अलौकिक प्रेम ही भक्ति हैं | लौकिक आसक्ति ही संसार हैं | ईश्वर में आसक्ति ही भक्ति हैं | भक्ति ही मुक्ति हैं | लौकिक आसक्ति का तिरोभाव एवं अलौकिक आसक्ति का आविर्भाव ब्रह्मचर्य, संयम सेवा और सदाचार आदि दिव्य गुणों से ही सम्भव हैं | इन दिव्य गुणों के उत्पादन में विवाह ही सहकारी माना गया हैं | अतः विवाह-संस्कार को भी *महर्षि वात्स्यायन* मुक्ति का परम्परया कारण मानतें हैं | उनका आदेश हैं ----->
#तदेतद्_ब्रह्मचर्येण_परेण_च_समाधिना | #विहितो_लोकयात्रार्थं_न_रागार्थोऽस्य_संविधिः || #एवमर्थं_च_कामं_च_धर्मं_चोपाचरन्नरः |
#इहामुत्र_च_निःशल्यमत्यन्तं_सुखमश्नुते ||
============================
नियन्त्रित काम का सेवन भगवदुपासना हैं | यह *गीता* और *ऐतरेय ब्राह्मण* दोनों का आदेश हैं |
जिस संस्कार से संस्कृत होकर मानव-मानवी व्यक्ति-स्वातन्त्र्य, उसके द्वारा कुटुम्ब-स्वातन्त्र्य, उसके द्वारा समाज-स्वान्तन्त्र्य, उसके द्वारा राष्ट्र-स्वान्तन्त्र्य और उसके द्वारा विश्व-स्वान्तन्त्र्य की रक्षा करने में समर्थ हो सकतें हैं, वही विश्व-रक्षक संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं |
तन्त्र शब्द का अर्थ वेदो में *मर्यादा* हैं | अपनी अपनी नैसर्गिक मर्यादा ही अपना अपना स्वातन्त्र्य हैं | उच्छृङ्खलता ही पारतन्त्र्य हैं | अतः व्यक्तिगत स्वातन्त्त्र्य का अर्थ हुआ व्यक्ति-मर्यादा | अनुशासन(धर्म), विनय, विद्या, सरलता, त्याग, तप, सेवावृत्ति एवं जितेन्द्रियता आदि से ही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य हैं | इस प्रकार का स्वतन्त्र व्यक्ति ही #राष्ट्ररक्षा और #विश्वरक्षा में सहयोगी बन सकता हैं | व्यक्ति-स्वातन्त्र्य(मर्यादित जीवन) का *विवाह-संस्कार* मूल हैं | जैसा कि कहा गया हैं -- >
#रक्षन्_धर्मार्थकामानां_स्थितिं_स्वां_लोकवर्तिनीम् | #अस्य_शास्त्रस्य_तत्त्वज्ञो_भवत्येव_जितेन्द्रियः || --- जितेन्द्रियता ही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य हैं |
जिस संस्कार से संस्कृत मानव तीन ऋणों से छुटकारा पाने का अधिकारी हो जाता है, वही संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं |
मानव-मात्र जन्मना ही देवऋण, पितृऋण एवं मनुष्यऋण -- इन तीन ऋणों से ऋणी रहता हैं | इनको हटाये बिना इसका कल्याण सम्भव नहीं हैं | इन तीनों ऋणों का क्रमशः यज्ञ, प्रजोत्पत्ति और अतिथि-सत्कार से निराकरण होता हैं | अतः प्रत्येक दशा में *विवाह-संस्कार* आवश्यक हो जाता हैं |
जिस संस्कार से संस्कृत होनेपर शरीरों के पृथक्-पृथक् रहनेपर भी संस्कृत दो व्यक्तियों की आत्मा एक बन जाती हैं, वही संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं | अतएव लोकान्तर में भी इस दाम्पत्य भाव का प्रवाह प्रवाहित रहता हैं |
स्थूल दृष्टि अबुद्ध मानवों के ज्ञान की तो कुछ कीमत नहीं हैं | उनकी दृष्टि में तो विवाह एक लौकिक कर्म हैं | वैषयिक तृप्ति का साधन हैं, परंतु एक प्रबुद्ध मानव की दृष्टि में तो *विवाह* एक अलौकिक सम्बन्ध ही हैं | उनकी दृष्टि में विवाह एक ऐसा धार्मिक सम्बन्ध(संस्कार) हैं, जो कभी किसी भी उपाय से विच्छिन्न नहीं किया जा सकता |
जिस संस्कार के बल से मानव मानवी मात्र में निसर्गतः प्रवृत्त अपने राग को एक मानवी में और मानवी मात्र में निसर्गतः प्रवृत्त अपने राग को एक मानव में संयत(नियन्त्रित) करने में समर्थ हो सके, वही संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं |
*शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ* में महर्षि याज्ञवल्क्य का विज्ञान हैं कि एक ही तत्त्व स्त्री-पुरुष दो भागों में विभक्त हो गया, अतः इन में परस्पर आकर्षण निसर्गजन्य हैं | सर्वतः प्रवृत्त इस राग को एक में नियन्त्रित करना आवश्यक हैं | इसका सर्वोत्तम और सरल उपाय *विवाह-संस्कार* ही हैं |
जिस संस्कार के बल से लौकिक राग को दिव्य-राग(भक्ति) में परिणत किया जा सकता हैं, वही दिव्य संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं | लौकिक प्रेम ही आसक्ति हैं, अलौकिक प्रेम ही भक्ति हैं | लौकिक आसक्ति ही संसार हैं | ईश्वर में आसक्ति ही भक्ति हैं | भक्ति ही मुक्ति हैं | लौकिक आसक्ति का तिरोभाव एवं अलौकिक आसक्ति का आविर्भाव ब्रह्मचर्य, संयम सेवा और सदाचार आदि दिव्य गुणों से ही सम्भव हैं | इन दिव्य गुणों के उत्पादन में विवाह ही सहकारी माना गया हैं | अतः विवाह-संस्कार को भी *महर्षि वात्स्यायन* मुक्ति का परम्परया कारण मानतें हैं | उनका आदेश हैं ----->
#तदेतद्_ब्रह्मचर्येण_परेण_च_समाधिना | #विहितो_लोकयात्रार्थं_न_रागार्थोऽस्य_संविधिः || #एवमर्थं_च_कामं_च_धर्मं_चोपाचरन्नरः |
#इहामुत्र_च_निःशल्यमत्यन्तं_सुखमश्नुते ||
============================
नियन्त्रित काम का सेवन भगवदुपासना हैं | यह *गीता* और *ऐतरेय ब्राह्मण* दोनों का आदेश हैं |
जिस संस्कार से संस्कृत होकर मानव-मानवी व्यक्ति-स्वातन्त्र्य, उसके द्वारा कुटुम्ब-स्वातन्त्र्य, उसके द्वारा समाज-स्वान्तन्त्र्य, उसके द्वारा राष्ट्र-स्वान्तन्त्र्य और उसके द्वारा विश्व-स्वान्तन्त्र्य की रक्षा करने में समर्थ हो सकतें हैं, वही विश्व-रक्षक संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं |
तन्त्र शब्द का अर्थ वेदो में *मर्यादा* हैं | अपनी अपनी नैसर्गिक मर्यादा ही अपना अपना स्वातन्त्र्य हैं | उच्छृङ्खलता ही पारतन्त्र्य हैं | अतः व्यक्तिगत स्वातन्त्त्र्य का अर्थ हुआ व्यक्ति-मर्यादा | अनुशासन(धर्म), विनय, विद्या, सरलता, त्याग, तप, सेवावृत्ति एवं जितेन्द्रियता आदि से ही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य हैं | इस प्रकार का स्वतन्त्र व्यक्ति ही #राष्ट्ररक्षा और #विश्वरक्षा में सहयोगी बन सकता हैं | व्यक्ति-स्वातन्त्र्य(मर्यादित जीवन) का *विवाह-संस्कार* मूल हैं | जैसा कि कहा गया हैं -- >
#रक्षन्_धर्मार्थकामानां_स्थितिं_स्वां_लोकवर्तिनीम् | #अस्य_शास्त्रस्य_तत्त्वज्ञो_भवत्येव_जितेन्द्रियः || --- जितेन्द्रियता ही व्यक्ति-स्वातन्त्र्य हैं |
जिस संस्कार से संस्कृत मानव तीन ऋणों से छुटकारा पाने का अधिकारी हो जाता है, वही संस्कार *विवाह-संस्कार* हैं |
मानव-मात्र जन्मना ही देवऋण, पितृऋण एवं मनुष्यऋण -- इन तीन ऋणों से ऋणी रहता हैं | इनको हटाये बिना इसका कल्याण सम्भव नहीं हैं | इन तीनों ऋणों का क्रमशः यज्ञ, प्रजोत्पत्ति और अतिथि-सत्कार से निराकरण होता हैं | अतः प्रत्येक दशा में *विवाह-संस्कार* आवश्यक हो जाता हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः(विवाह-संस्कार)#खंड_१६३~
पृथ्वी की अन्य सब जातियों से हिंदू-जाति की अपनी कुछ विशेषता हैं | इस विशेषता की आधारशिला इसकी आध्यात्मिकता में निहित हैं | हमारे त्रिकालदर्शी पू,पाद महर्षियों ने मनुष्य के वैयक्तिक और सामूहिक जीवन का सच्चा सुख, सच्ची शान्ति और सच्चे आनन्द का तत्त्व अपनी दिव्य दृष्टि से देख लिया था | इस कारण उन्होंनें मनुष्य के प्रत्येक क्रिया-कलाप, आचार-व्यवहार एवं प्रत्येक चेष्टा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कुछ नियमों द्वारा नियन्त्रित कर दिया | इसी कारण सामान्य से सामान्य क्रिया में भी धर्माधर्म का सम्बन्ध बाँधा गया हैं | हमारा सोना,उठना, स्नान, भोजन करना,हँसना, बोलना, मल-मूत्र त्याग करना आदि सभी शारीरिक,मानसिक तथा बौद्धिक चेष्टाओं को धर्म द्वारा इस प्रकार नियन्त्रित किया गया हैं कि इनको करते हुए हम जिस दिशा में हैं, उससे नीचे न गिरें और इहलौकिक स्वास्थ्य, सुख-शान्ति और दीर्घायु प्राप्त करते हुए पारलौकिक अभ्युदय तथा सुख-शान्ति को भी प्राप्त कर सकें, एवं अन्त में अपनी आध्यात्मिक उन्नति द्वारा पूर्णता प्राप्त कर परमात्मा के दर्शन कर कृतकृत्य हो सकें | #वेद_पुराण और #धर्मशास्त्रों का सारा प्रयास मनुष्य जीवन के इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हैं |
किसी समय हिंदू समस्त पृथ्वी का शासन करतें थे, इधर सैंकड़ो वर्षों से पराधीन रहीं; अब पुनः भगवान् की कृपा से उसकी बाहरी परतन्त्रता की जंजीर तो टूट गयी हैं, परन्तु अभी उसकी मानसिक तथा बौद्धिक परतन्त्रता दूर नहीं हुईं | क्योंकि हिंदूओं का एक ऐसा समूह *"विदेशीय भाषा, विदेशीय रहन-सहन एवं विदेशीय तथा विजातीय आदर्श का स्वप्न देखता हैं | उसका हृदय विदेशी हैं |"* जिसका आधार ही असत्य हैं, वह वस्तु कभी स्थायी नहीं हो सकती, जैसा *"भगवान्"*ने गीता में कहा ही हैं --- #नासतो_विद्यते_भावो_नाभावो_विद्यते_सतः ||
अर्थात् *"असत्"* का भाव नहीं होता और *"सत्"* का कभी अभाव नहीं होता | इसी सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी की सबसे प्राचीन हिंदूजाति आज भी विद्यमान हैं; क्योंकि हिंदूसंस्कृति सत्यपर अवलम्बित हैं --- जहाँ अन्य कितनी ही जातियाँ काल-कवलित हो चुकीं, उनका पृथ्वी पर नाम-निशान भी नहीं रहा |
हिंदू-संस्कृति में #विवाह_प्रवृत्ति का एक सबसे बड़ा #संस्कार हैं और उसका कुछ विशेष लक्ष्य भी हैं | पृथ्वी की अन्यान्य जातियों में विवाह केवल इन्द्रियों की तृप्ति और भोग का साधन मात्र हैं ; क्योंकि उनके जीवन का लक्ष्य *" खाओ, पीओ, मौज करो"* हैं | उनकी संस्कृति उनको यही सिखाती हैं | हमारी हिंदू संस्कृति में विवाह का क्या लक्ष्य या आदर्श हैं, यही यहाँ विचारणीय विषय हैं |
*"मीमांसा-शास्त्र"* में सिद्ध हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही #स्त्रीधारा एवं #पुरुषधारा --- ये दो धाराएँ स्वतन्त्र चलीं | यथा *"कर्ममीमांसा दर्शन"* में -----> *"#द्वे_धारे_स्वतन्त्ररूपत्वात् ||धर्मपाद सू ५५||"*
*"भगवान् मनु ने"* भी कहा हैं ----> #द्विधा_कृत्वाऽऽत्मनो_देहमर्द्धेन_पुरुषोऽभवत् | #अर्द्धेन_नारी_तस्यां_स_विराजमसृजत्_प्रभुः || सृष्टि के प्रारंभ में परमात्माने अपने को दो भागों में विभक्त किया, वे आधे में पुरुष और आधे में नारी हो गये |
*"भगवान् ने भगवद्गीता"* में भी कहा हैं - #प्रकृतिं_पुरुषं_चैव_विद्ध्यनादी_उभावपि ||
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इन दोनों में कौन भाग पुरुष और कौन सा भाग स्त्री बना, इस विषय में भी *"देवी भागवत"* में कहा हैं ---> *(स्वेच्छामयः स्वेच्छायं द्विधारूपो बभूव ह | स्त्रीरूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान् स्मृतः ||)*| अर्थात् स्वेच्छामय भगवान् स्वेच्छा से दो रूप हो गये, वाम भाग के अंश से स्त्री और दक्षिण भाग के अंश से पुरुष बने | इन सब प्रमाणों से स्पष्ट हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्त्रीधारा तथा पुरुषधारा --- ये दो धाराएँ पृथक् -पृथक् चलीं | ये ही दोनों *"उद्भिज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज"* योनियों में स्त्री एवं पुरुष के रूप में आगे बढ़ती-बढ़ती मनुष्य-योनि में पहुँचती हैं | इन दोनों के सहयोग से ही सृष्टि का विस्तार होता आया हैं | इसी कारण सृष्टि के प्रत्येक स्तर में स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति विद्यमान हैं | *"स्वेदज, अण्डज तथा जरायुज"* योनियों में स्त्री-पुरुषधारा प्रत्यक्ष ही हैं |
*"उद्भिज"* अर्थात् वृक्षादि में भी ये दोनों धाराएँ हैं; किसी-किसी उद्भिज में दोनों अलग-अलग हैं, किसी-किसी में एक ही वृक्ष में ये दोनों शक्तियाँ हैं | इनके स्त्रीपराग एवं पु-पराग सम्मिलन भ्रमरों द्वारा या वायु द्वारा होकर इनकी सृष्टि आगे बढ़ती हैं | ये ही दोनों शक्तियाँ जडराज्य में भी देखी जाती हैं | ---- जैसे विद्युत्-शक्ति में #आकर्षण-शक्ति(--) और #विकर्षण-शक्ति(+) दोनों विद्यमान हैं | ये दोनों शक्तियाँ अलग-अलग रहने से कार्यकारिणी नहीं होतीं; किंतु दोनों को मिला देनेसे पंखे चलते हैं, बत्ती जलती हैं तथा और अनेक अद्भुत कार्य-सम्पन्न होते हैं | *"मीमांसा शास्त्र"* का यह भी सिद्धांत हैं कि ये दोनों धाराएँ जब से प्रारम्भ हुईं, मनुष्ययोनि तक बराबर अलग-अलग चली आयी हैं | मनुष्य योनि में आने पर भी साधारण क्रम में ऐसा नहीं होता हैं कि स्त्री पुरुष हो जाय, अथवा पुरुष स्त्री बन जाय | साथ ही यह भी विज्ञानसिद्ध और प्रत्यक्ष भी देखा जाता हैं कि बिना दोनों के सहयोग के सृष्टि का कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होता हैं , दोनों अलग-अलग रहकर कुछ भी नहीं कर पातें --- जैसे मूल में देखा जाता हैं कि परमपुरुष परमात्मा बिना अपनी शक्ति के निष्क्रय बन जाते हैं | उनका सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य उनकी शक्ति प्रकृति के कारण ही हैं | बिना शक्ति के वे कुछ भी कर सकने में असमर्थ हैं | *"गीता में भगवान् ने"* इसी सिद्धान्त की पुष्टि की हैं, यथा --- *( प्रकृतिं स्वामवष्टम्य विसृजामि पुनः पुनः | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ||)*|
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इसी प्रकार उनकी शक्ति भी बिना भगवान् के सान्निध्य के जड हो जाती हैं | वह जो कुछ संसार का सृजन करती हैं, वह परमपुरुष परमात्मा की अध्यक्षता में उन्हीं के लिये करती हैं | जैसे *भगवान् ने कहा* ही हैं ---- > *( मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |)*€| अर्थात् मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती हैं | इस प्रकार यही देखा जाता हैं कि -------->
*( शक्तिं विना महेशानि प्रेतत्वं तस्य निश्चितम् | शक्ति संयोगमात्रेण कर्मकर्ता सदाशिव || ||)* ||परमपुरुष परमात्मा #शिव बिना अपनी प्रकृति के निष्क्रय #शव बन जातें हैं | शक्ति संयोग मात्र से सदाशिव कर्म कर सकतें हैं |
इसी तरह शक्तिरूपिणी प्रकृति भी बिना उनके अधिष्ठान के कार्यकारिणी नहीं होतीं | अतः ईश्वर की ईश्वर ता उनकी शक्ति पर अवलम्बित हैं और शक्ति की तो सत्ता ही शक्तिमान् पर अवलम्बित हैं | इससे यह भी सिद्ध होता हैं कि दोनों एक दूसरे कें पूरक हैं | दर्शनशास्त्र का यह भी सिद्धान्त हैं कि स्त्रीधारा पुरुषधारामयी होकर ही कैवल्य की अधिकारिणी होती हैं | --- यथा *#स्त्रीधारा_पुंधारामयी_कैवल्याधिकारिणी || कर्ममी०धर्मपा०सू ५६||*
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मनुष्ययोनि में आनेतक ये दोनों धाराएँ नियमित रूप से प्राकृतिक नियम से क्रमशः आगे बढती रहती हैं | क्योंकि मनुष्य योनि से पहलेके योनियों के जीव अपनी शारीरिक,मानसिक और बौद्धिक असम्पूर्णता के कारण असमर्थ रहतें हैं, अतः वे प्रकृति के नियमों का उलङ्घन नहीं कर पाते | इस कारण उनकी क्रमोन्नति अबाधितरूप से होती रहती हैं, उसी क्रमोन्नति के क्रम से वे मनुष्ययोनि में पहुँच जाते हैं | मनुष्ययोनि में पहुँचकर दोनों पूर्णावयव स्त्री तथा पुरुष बन जातें हैं | यहाँ उनके *"अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय"* कोषों का पूर्ण विकास हो जाता हैं; साथ ही उनको प्राकृतिक नियमोंपर बलात्कार करने की शक्ति भी आ जाती हैं | अतः यहाँ *"प्रकृति के नियमों का उलङ्घनकर अनर्गल अनियन्त्रित-रूप से विषयों का भोग _और मनमाना आहार-विहार करने से इनकी अधोगति होने लगती हैं |"*
किसी समय हिंदू समस्त पृथ्वी का शासन करतें थे, इधर सैंकड़ो वर्षों से पराधीन रहीं; अब पुनः भगवान् की कृपा से उसकी बाहरी परतन्त्रता की जंजीर तो टूट गयी हैं, परन्तु अभी उसकी मानसिक तथा बौद्धिक परतन्त्रता दूर नहीं हुईं | क्योंकि हिंदूओं का एक ऐसा समूह *"विदेशीय भाषा, विदेशीय रहन-सहन एवं विदेशीय तथा विजातीय आदर्श का स्वप्न देखता हैं | उसका हृदय विदेशी हैं |"* जिसका आधार ही असत्य हैं, वह वस्तु कभी स्थायी नहीं हो सकती, जैसा *"भगवान्"*ने गीता में कहा ही हैं --- #नासतो_विद्यते_भावो_नाभावो_विद्यते_सतः ||
अर्थात् *"असत्"* का भाव नहीं होता और *"सत्"* का कभी अभाव नहीं होता | इसी सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी की सबसे प्राचीन हिंदूजाति आज भी विद्यमान हैं; क्योंकि हिंदूसंस्कृति सत्यपर अवलम्बित हैं --- जहाँ अन्य कितनी ही जातियाँ काल-कवलित हो चुकीं, उनका पृथ्वी पर नाम-निशान भी नहीं रहा |
हिंदू-संस्कृति में #विवाह_प्रवृत्ति का एक सबसे बड़ा #संस्कार हैं और उसका कुछ विशेष लक्ष्य भी हैं | पृथ्वी की अन्यान्य जातियों में विवाह केवल इन्द्रियों की तृप्ति और भोग का साधन मात्र हैं ; क्योंकि उनके जीवन का लक्ष्य *" खाओ, पीओ, मौज करो"* हैं | उनकी संस्कृति उनको यही सिखाती हैं | हमारी हिंदू संस्कृति में विवाह का क्या लक्ष्य या आदर्श हैं, यही यहाँ विचारणीय विषय हैं |
*"मीमांसा-शास्त्र"* में सिद्ध हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही #स्त्रीधारा एवं #पुरुषधारा --- ये दो धाराएँ स्वतन्त्र चलीं | यथा *"कर्ममीमांसा दर्शन"* में -----> *"#द्वे_धारे_स्वतन्त्ररूपत्वात् ||धर्मपाद सू ५५||"*
*"भगवान् मनु ने"* भी कहा हैं ----> #द्विधा_कृत्वाऽऽत्मनो_देहमर्द्धेन_पुरुषोऽभवत् | #अर्द्धेन_नारी_तस्यां_स_विराजमसृजत्_प्रभुः || सृष्टि के प्रारंभ में परमात्माने अपने को दो भागों में विभक्त किया, वे आधे में पुरुष और आधे में नारी हो गये |
*"भगवान् ने भगवद्गीता"* में भी कहा हैं - #प्रकृतिं_पुरुषं_चैव_विद्ध्यनादी_उभावपि ||
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इन दोनों में कौन भाग पुरुष और कौन सा भाग स्त्री बना, इस विषय में भी *"देवी भागवत"* में कहा हैं ---> *(स्वेच्छामयः स्वेच्छायं द्विधारूपो बभूव ह | स्त्रीरूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान् स्मृतः ||)*| अर्थात् स्वेच्छामय भगवान् स्वेच्छा से दो रूप हो गये, वाम भाग के अंश से स्त्री और दक्षिण भाग के अंश से पुरुष बने | इन सब प्रमाणों से स्पष्ट हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्त्रीधारा तथा पुरुषधारा --- ये दो धाराएँ पृथक् -पृथक् चलीं | ये ही दोनों *"उद्भिज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज"* योनियों में स्त्री एवं पुरुष के रूप में आगे बढ़ती-बढ़ती मनुष्य-योनि में पहुँचती हैं | इन दोनों के सहयोग से ही सृष्टि का विस्तार होता आया हैं | इसी कारण सृष्टि के प्रत्येक स्तर में स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति विद्यमान हैं | *"स्वेदज, अण्डज तथा जरायुज"* योनियों में स्त्री-पुरुषधारा प्रत्यक्ष ही हैं |
*"उद्भिज"* अर्थात् वृक्षादि में भी ये दोनों धाराएँ हैं; किसी-किसी उद्भिज में दोनों अलग-अलग हैं, किसी-किसी में एक ही वृक्ष में ये दोनों शक्तियाँ हैं | इनके स्त्रीपराग एवं पु-पराग सम्मिलन भ्रमरों द्वारा या वायु द्वारा होकर इनकी सृष्टि आगे बढ़ती हैं | ये ही दोनों शक्तियाँ जडराज्य में भी देखी जाती हैं | ---- जैसे विद्युत्-शक्ति में #आकर्षण-शक्ति(--) और #विकर्षण-शक्ति(+) दोनों विद्यमान हैं | ये दोनों शक्तियाँ अलग-अलग रहने से कार्यकारिणी नहीं होतीं; किंतु दोनों को मिला देनेसे पंखे चलते हैं, बत्ती जलती हैं तथा और अनेक अद्भुत कार्य-सम्पन्न होते हैं | *"मीमांसा शास्त्र"* का यह भी सिद्धांत हैं कि ये दोनों धाराएँ जब से प्रारम्भ हुईं, मनुष्ययोनि तक बराबर अलग-अलग चली आयी हैं | मनुष्य योनि में आने पर भी साधारण क्रम में ऐसा नहीं होता हैं कि स्त्री पुरुष हो जाय, अथवा पुरुष स्त्री बन जाय | साथ ही यह भी विज्ञानसिद्ध और प्रत्यक्ष भी देखा जाता हैं कि बिना दोनों के सहयोग के सृष्टि का कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होता हैं , दोनों अलग-अलग रहकर कुछ भी नहीं कर पातें --- जैसे मूल में देखा जाता हैं कि परमपुरुष परमात्मा बिना अपनी शक्ति के निष्क्रय बन जाते हैं | उनका सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य उनकी शक्ति प्रकृति के कारण ही हैं | बिना शक्ति के वे कुछ भी कर सकने में असमर्थ हैं | *"गीता में भगवान् ने"* इसी सिद्धान्त की पुष्टि की हैं, यथा --- *( प्रकृतिं स्वामवष्टम्य विसृजामि पुनः पुनः | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ||)*|
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इसी प्रकार उनकी शक्ति भी बिना भगवान् के सान्निध्य के जड हो जाती हैं | वह जो कुछ संसार का सृजन करती हैं, वह परमपुरुष परमात्मा की अध्यक्षता में उन्हीं के लिये करती हैं | जैसे *भगवान् ने कहा* ही हैं ---- > *( मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |)*€| अर्थात् मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती हैं | इस प्रकार यही देखा जाता हैं कि -------->
*( शक्तिं विना महेशानि प्रेतत्वं तस्य निश्चितम् | शक्ति संयोगमात्रेण कर्मकर्ता सदाशिव || ||)* ||परमपुरुष परमात्मा #शिव बिना अपनी प्रकृति के निष्क्रय #शव बन जातें हैं | शक्ति संयोग मात्र से सदाशिव कर्म कर सकतें हैं |
इसी तरह शक्तिरूपिणी प्रकृति भी बिना उनके अधिष्ठान के कार्यकारिणी नहीं होतीं | अतः ईश्वर की ईश्वर ता उनकी शक्ति पर अवलम्बित हैं और शक्ति की तो सत्ता ही शक्तिमान् पर अवलम्बित हैं | इससे यह भी सिद्ध होता हैं कि दोनों एक दूसरे कें पूरक हैं | दर्शनशास्त्र का यह भी सिद्धान्त हैं कि स्त्रीधारा पुरुषधारामयी होकर ही कैवल्य की अधिकारिणी होती हैं | --- यथा *#स्त्रीधारा_पुंधारामयी_कैवल्याधिकारिणी || कर्ममी०धर्मपा०सू ५६||*
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मनुष्ययोनि में आनेतक ये दोनों धाराएँ नियमित रूप से प्राकृतिक नियम से क्रमशः आगे बढती रहती हैं | क्योंकि मनुष्य योनि से पहलेके योनियों के जीव अपनी शारीरिक,मानसिक और बौद्धिक असम्पूर्णता के कारण असमर्थ रहतें हैं, अतः वे प्रकृति के नियमों का उलङ्घन नहीं कर पाते | इस कारण उनकी क्रमोन्नति अबाधितरूप से होती रहती हैं, उसी क्रमोन्नति के क्रम से वे मनुष्ययोनि में पहुँच जाते हैं | मनुष्ययोनि में पहुँचकर दोनों पूर्णावयव स्त्री तथा पुरुष बन जातें हैं | यहाँ उनके *"अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय"* कोषों का पूर्ण विकास हो जाता हैं; साथ ही उनको प्राकृतिक नियमोंपर बलात्कार करने की शक्ति भी आ जाती हैं | अतः यहाँ *"प्रकृति के नियमों का उलङ्घनकर अनर्गल अनियन्त्रित-रूप से विषयों का भोग _और मनमाना आहार-विहार करने से इनकी अधोगति होने लगती हैं |"*
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः
#षोडशसंस्काराः(विवाह संस्कार)#खंड_१६४~>
विवाह का प्रथम उद्देश्य स्त्रीधारा को पुरुषधारा में मिलाकर उसे मुक्ति की अधिकारिणी बनाना तथा दोनों की अनर्गल अनियन्त्रित पशुवृत्तियों को नियन्त्रित कर दोनों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक,इहलौकिक, पारलौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति करना और दोनों के मधुर समन्वय से दोनों की पूर्णता सिद्ध करना एवं सांसारिक सुख-शान्ति प्राप्त करना हैं | इस विवाह-संस्कार के द्वारा स्त्री स्त्री और पुरुष दोनों अपनी-अपनी अनर्गल भोगप्रवृत्तियों को एक दूसरे में केन्द्रीभूत एवं नियन्त्रित कर आत्मसंयम और त्याग के अभ्यास द्वारा एक दूसरे की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनतें हैं | इसीलिये स्त्री के लिये पातिव्रत्य और पुरुष के लिये भी एक-पत्नीव्रत धर्म ही प्रशस्त एवं आदर्श हैं |
विवाह का दूसरा प्रधान उद्देश्य उत्तम धार्मिक सन्तान की उत्पत्ति द्वारा पितृऋण से उऋण होना तथा प्रजातन्तु की रक्षा करना हैं | ये केवल पुरुष जाति के लिये हैं | पुरुषजाति के ऊपर १- देवऋण, २- ऋषिऋण, तथा ३- पितृऋण --- ये तीन ऋण हैं,जैसा भगवान् मनु ने कहा हैं --- #ऋणानि_त्रीण्यपाकृत्य_मनो_मोक्षे_निवेशयेत् || अर्थात् (उक्त) तीनों ऋणों को शोधकर मन को मोक्ष में लगाना चाहिये |
*#अधीत्य_विविधान्_वेदान्_पुत्रांश्चोत्पाद्य_धर्मतः | #इष्ट्वा_च_शक्तितो_यज्ञैर्मनो_मोक्षे_निवेशयेत् ||* अर्थात् वेद-वेदांगो के स्वाध्याय से ऋषिऋण, यज्ञों के अनुष्ठान से देवऋण और धर्मानुकुल स्वजाति में (व्रात्य रहित) पुत्रोत्पादन द्वारा पितृऋण से उऋण होकर मोक्ष में मन लगायें | इन्हीं उद्देश्यों से भगवती श्रुति(तैतरीय शिक्षावल्ली) भी कहती हैं --- *(प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः ||)* -- प्रजातन्तु उच्छिन्न मत करो |
विवाह का तीसरा उद्देश्य स्त्री एवं पुरुष के मधुर पवित्र समन्वय तथा सामञ्जस्य द्वारा पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रिय जीवन की सुव्यवस्था एवं सुख-स्वास्थ्य-शान्ति की रक्षा करना हैं | विवाह के इन तीनों प्रधान उद्देश्यों में प्रथम उद्देश्य दोनों के लिये समान हैं, दुसरा केवल पुरुष के लिये हैं और तीसरा व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र तीनों के लिये हैं |
स्त्री एवं पुरुषजाति में मौलिक भेद होने से दोनों की प्रकृति और प्रवृत्ति में भी मौलिक भेद हैं | जैसे मूल प्रकृति परम पुरुष के अधीन हैं, उसी प्रकार उसकी अंशभूता स्त्रीजाति का पुरुषजाति के अधीन रहने का स्वभाव हैं; वह कभी स्वतन्त्र नहीं रह सकती | इसी कारण स्त्रीजाति के लिये पातिव्रत्यधर्म का विधान हैं, जो उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुकूल भी हैं और यही स्त्रीजाति के लिये सीधा सरल सुरक्षित उन्नति का मार्ग हैं | इसी कारण शास्त्रों में स्त्रीजाति की स्वतन्त्रता का निषेध किया हैं | लोक-व्यवहार में भी देखा जाता हैं कि जो स्त्रीयाँ उच्छृङ्खल होकर पिता, भ्राता, पति, पुत्र आदि स्वजनों का संरक्षण नहीं मानतीं, या जिनका ऐसा कोई संरक्षक नहीं हैं, वे अनुचितरूप से किसी अन्य पुरुष का नियन्त्रण मानती ही हैं और विपथगामिनी हो जाया करती हैं; क्योकिं स्वतन्त्र रहना उनका स्वभाव ही नहीं हैं | हजारों में कोई एक स्त्री होती हैं,जो स्वतन्त्र रहकर भी अच्छी तरह अपना धर्म तथा जीवन-निर्वाह करती हैं | विवाहरूपी पवित्र संस्कारों के द्वारा स्त्री अपनी स्वाभाविक प्रकृति, प्रवृत्ति और अधिकार के अनुकूल पति-तन्मयता द्वारा अपनी आध्यात्मिक उन्नति करती हैं और पुरुष अपनी उच्छृङ्खल पशु-प्रवृत्तियों को धर्मानुकूल नियोजितकर देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण से मुक्त होकर अन्त में निःश्रेयस का अधिकारी बन जाता हैं | विवाह-संस्कार के समय कन्या जिन प्रतिज्ञाओं के साथ वर को आत्मसमर्पण करती हैं और वह उसे स्वीकार करता हैं,उनमें भी इन्हीं सिद्धान्तों की पुष्टि होती हैं | यथा --->>>
*( तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञदानं - मया सह त्वं यदि किन्नु कुर्याः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी ||१|| हव्यप्रदानैरमरान्पितॄंश्च - कव्यप्रदानैर्यदि पूजयेथाः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं द्वितीयम् ||२|| कुटुम्बरक्षाभरणे यदि त्वं - कुर्याः पशूनां परिपालनं च | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं तृतीयम् ||३|| आयव्ययौ धान्यधनादिकानां - पृष्ट्वा निवेशं च गृहे निदध्याः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं चतुर्थम् ||४|| देवालयारामतडागकूप - वापीर्विदध्या यदि पूजयेथाः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं च पञ्चमम् ||५|| देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा - यदा विदध्याः क्रयविक्रयौ त्वम् | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं च षष्ठम् ||६|| न सेवनीया परपारकीया - त्वया भवोद्भाविनि कामिनीति | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं च सप्तमम् ||७|| )*|
अर्थात् तीर्थ,व्रतोद्यापन, यज्ञ, दान, हव्यदानद्वारा देवताओं का पूजन, कव्यदान द्वारा पितरों का पूजन, कुटुम्ब की रक्षा एवं पालन, पशुपालन, आयव्यय आदि की व्यवस्था, देवालय,बाग, तड़ाग, कूप, वापी आदि बनवाना, स्वदेश या परदेश में क्रय-विक्रय -- जो कुछ तुम करोंगे, सब में मैं तुम्हारी सदा वामाङ्गिनी रहूँगी | तुम कभी परकीया स्त्री का सेवन नहीं करोगे इत्यादि | और भी --->
*( धनं धान्यं च मिष्टान्नं व्यञ्जनाद्यं च यद् गृहे | मदधीनं च कर्तव्यं वधूराद्ये पदे वदेत् ||१|| कुटुम्बं रक्षयिष्यामि सदा ते मञ्जुभाषिणी | दुःखे धीरा सुखे हृष्टा द्वितीये साब्रवीद्वचः ||२|| पतिभक्तिरता नित्यं क्रीडिष्यामि त्वया सह | त्वदन्यं न नरं मंस्ये तृतीये साब्रवीदियम् ||३|| लालयामि च केशान्तं गन्धमाल्यानुलेपनैः | काञ्चनैर्भूषणैस्तुभ्यं तुरीये सा पदे वदेत् ||४|| आर्ते आर्ता भविष्यामि सुखदुःखविभागिनी | तवाज्ञां पालयिष्यामि पञ्चमे सा पदे वदेत् ||५|| यज्ञे होमे च दानादौ भविष्यामि त्वया सह | #धर्मार्थकामकार्येषु वधूः षष्ठे पदे वदेत् ||६|| #अत्रांशे_साक्षिणो_देवा_मनोभावप्रबोधिनः | #वञ्चनं_न_करिष्यामि_सप्तमे_सा_पदे_वदेत् ||७||)*|
वधू कहती हैं कि "धन-धान्य, मिष्टान्न आदि जो कुछ घर में हैं, सब मेरे अधीन रहेगा; मैं सदा मधुरभाषिणी, कुटुम्ब की रक्षा करनेवाली, दुःख में धीर और सुख में प्रसन्न रहूँगी | पतिपरायणा होकर तुम्हारे ही साथ विहार करूँगी, तुम्हारे सिवा अन्य किसी पुरुष को पुरुष ही नहीं समझूँगी | गन्ध, माला, लेपन-भूषण आदि से तुम्हें सदा प्रसन्न करूँगी | मैं सदा तुम्हारे दुःख में दुःखिनी, सुख में सुखिनी हो तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगी | यज्ञ, दान, होम तथा अन्य सभी धर्म, अर्थ, काम के साधक कार्यों में सदा तुम्हारे साथ रहूँगी | मेरी इन प्रतिज्ञाओं में अन्तर्यामी देवतागण साक्षी रहें, मैं कभी तुम्हारी वञ्चना नहीं करूँगी | इत्यादि प्रतिज्ञाएँ सप्तपदी-गमन(सात अचल पर्वतों का पूजन कर, अचलता का अनुगमन) के समय वधू करती हैं; अनन्तर वर उनको इन शब्दों में स्विकार करता हैं ---> *( मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं ते अस्तु | मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम् ||)*-- अपना हृदय मेरे काम में लगाओ, अपना चित्त मेरे चित्त के अनुरूप करो, तुम मेरे मन में अपना मन मिलाकर मेरे वचन का पालन करो | प्रजापति तुम्हें मुझे प्रसन्न करने में प्रवृत्त करें |
इस प्रकार विवाहरूपी पवित्र संस्कार-सूत्र में वर-वधू को आबद्धकर दोनों की उच्छृङ्खल, अनर्गल भोगप्रवृत्तियों को संयत और नियन्त्रित किया जाता हैं तथा दोनों को धर्मानुकुल काम-अर्थ का सेवन तथा धर्मार्जन में प्रवृत्त किया जाता हैं | वस्तुतः पति-पत्नी में पवित्र प्रेम तथा एकात्मता से ही गार्हस्पत्य-जीवन की सुख-शान्ति,उत्तम सन्तान की उत्पत्ति और दोनों की आध्यात्मिक उन्नति होती हैं | पति-पत्नी में अटूट प्रेम दोनों की प्रकृति-प्रवृत्तियों के मेल से ही सम्भव हैं | इसी कारण हमारे धर्माचार्यों ने विवाह के पहिले वर-वधू के लक्षण, कुल,शील,सनाथता,विद्या,ऐश्वर्य,आरोग्य,वय,जाति तथा जन्मपत्र मिलाना आदि अनेक विषयों पर विचार करने का विधान किया हैं | इन्हीं कारणों से असवर्ण-विवाह,स्वगोत्र-विवाह,वर से अधिक वयवाली कन्या से विवाह,विधवा-विवाह आदि धर्म-विरुद्ध होने से वर्जित हैं | महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा हैं कि --- *( अविलुप्त ब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत् / अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिण्डां यवीयसीम् ||)*| अर्थात् ब्रह्मचारी गृहस्थ होने के लिये अपने अनुरूप, अपने से भिन्नगोत्रीया, अपने से अल्पवयस्का तथा *जिसका पहले किसी के साथ विवाह न हुआ हो, ऐसी कन्या* के साथ विवाह करें |
1856 में विधवा-पुनर्विवाह पारित हुआ ये वेदनिर्णित नहीं हैं,
प्रश्न‒स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती ?
विवाह का प्रथम उद्देश्य स्त्रीधारा को पुरुषधारा में मिलाकर उसे मुक्ति की अधिकारिणी बनाना तथा दोनों की अनर्गल अनियन्त्रित पशुवृत्तियों को नियन्त्रित कर दोनों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक,इहलौकिक, पारलौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति करना और दोनों के मधुर समन्वय से दोनों की पूर्णता सिद्ध करना एवं सांसारिक सुख-शान्ति प्राप्त करना हैं | इस विवाह-संस्कार के द्वारा स्त्री स्त्री और पुरुष दोनों अपनी-अपनी अनर्गल भोगप्रवृत्तियों को एक दूसरे में केन्द्रीभूत एवं नियन्त्रित कर आत्मसंयम और त्याग के अभ्यास द्वारा एक दूसरे की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनतें हैं | इसीलिये स्त्री के लिये पातिव्रत्य और पुरुष के लिये भी एक-पत्नीव्रत धर्म ही प्रशस्त एवं आदर्श हैं |
विवाह का दूसरा प्रधान उद्देश्य उत्तम धार्मिक सन्तान की उत्पत्ति द्वारा पितृऋण से उऋण होना तथा प्रजातन्तु की रक्षा करना हैं | ये केवल पुरुष जाति के लिये हैं | पुरुषजाति के ऊपर १- देवऋण, २- ऋषिऋण, तथा ३- पितृऋण --- ये तीन ऋण हैं,जैसा भगवान् मनु ने कहा हैं --- #ऋणानि_त्रीण्यपाकृत्य_मनो_मोक्षे_निवेशयेत् || अर्थात् (उक्त) तीनों ऋणों को शोधकर मन को मोक्ष में लगाना चाहिये |
*#अधीत्य_विविधान्_वेदान्_पुत्रांश्चोत्पाद्य_धर्मतः | #इष्ट्वा_च_शक्तितो_यज्ञैर्मनो_मोक्षे_निवेशयेत् ||* अर्थात् वेद-वेदांगो के स्वाध्याय से ऋषिऋण, यज्ञों के अनुष्ठान से देवऋण और धर्मानुकुल स्वजाति में (व्रात्य रहित) पुत्रोत्पादन द्वारा पितृऋण से उऋण होकर मोक्ष में मन लगायें | इन्हीं उद्देश्यों से भगवती श्रुति(तैतरीय शिक्षावल्ली) भी कहती हैं --- *(प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः ||)* -- प्रजातन्तु उच्छिन्न मत करो |
विवाह का तीसरा उद्देश्य स्त्री एवं पुरुष के मधुर पवित्र समन्वय तथा सामञ्जस्य द्वारा पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रिय जीवन की सुव्यवस्था एवं सुख-स्वास्थ्य-शान्ति की रक्षा करना हैं | विवाह के इन तीनों प्रधान उद्देश्यों में प्रथम उद्देश्य दोनों के लिये समान हैं, दुसरा केवल पुरुष के लिये हैं और तीसरा व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र तीनों के लिये हैं |
स्त्री एवं पुरुषजाति में मौलिक भेद होने से दोनों की प्रकृति और प्रवृत्ति में भी मौलिक भेद हैं | जैसे मूल प्रकृति परम पुरुष के अधीन हैं, उसी प्रकार उसकी अंशभूता स्त्रीजाति का पुरुषजाति के अधीन रहने का स्वभाव हैं; वह कभी स्वतन्त्र नहीं रह सकती | इसी कारण स्त्रीजाति के लिये पातिव्रत्यधर्म का विधान हैं, जो उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुकूल भी हैं और यही स्त्रीजाति के लिये सीधा सरल सुरक्षित उन्नति का मार्ग हैं | इसी कारण शास्त्रों में स्त्रीजाति की स्वतन्त्रता का निषेध किया हैं | लोक-व्यवहार में भी देखा जाता हैं कि जो स्त्रीयाँ उच्छृङ्खल होकर पिता, भ्राता, पति, पुत्र आदि स्वजनों का संरक्षण नहीं मानतीं, या जिनका ऐसा कोई संरक्षक नहीं हैं, वे अनुचितरूप से किसी अन्य पुरुष का नियन्त्रण मानती ही हैं और विपथगामिनी हो जाया करती हैं; क्योकिं स्वतन्त्र रहना उनका स्वभाव ही नहीं हैं | हजारों में कोई एक स्त्री होती हैं,जो स्वतन्त्र रहकर भी अच्छी तरह अपना धर्म तथा जीवन-निर्वाह करती हैं | विवाहरूपी पवित्र संस्कारों के द्वारा स्त्री अपनी स्वाभाविक प्रकृति, प्रवृत्ति और अधिकार के अनुकूल पति-तन्मयता द्वारा अपनी आध्यात्मिक उन्नति करती हैं और पुरुष अपनी उच्छृङ्खल पशु-प्रवृत्तियों को धर्मानुकूल नियोजितकर देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण से मुक्त होकर अन्त में निःश्रेयस का अधिकारी बन जाता हैं | विवाह-संस्कार के समय कन्या जिन प्रतिज्ञाओं के साथ वर को आत्मसमर्पण करती हैं और वह उसे स्वीकार करता हैं,उनमें भी इन्हीं सिद्धान्तों की पुष्टि होती हैं | यथा --->>>
*( तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञदानं - मया सह त्वं यदि किन्नु कुर्याः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी ||१|| हव्यप्रदानैरमरान्पितॄंश्च - कव्यप्रदानैर्यदि पूजयेथाः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं द्वितीयम् ||२|| कुटुम्बरक्षाभरणे यदि त्वं - कुर्याः पशूनां परिपालनं च | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं तृतीयम् ||३|| आयव्ययौ धान्यधनादिकानां - पृष्ट्वा निवेशं च गृहे निदध्याः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं चतुर्थम् ||४|| देवालयारामतडागकूप - वापीर्विदध्या यदि पूजयेथाः | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं च पञ्चमम् ||५|| देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा - यदा विदध्याः क्रयविक्रयौ त्वम् | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं च षष्ठम् ||६|| न सेवनीया परपारकीया - त्वया भवोद्भाविनि कामिनीति | वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं - जगाद कन्या वचनं च सप्तमम् ||७|| )*|
अर्थात् तीर्थ,व्रतोद्यापन, यज्ञ, दान, हव्यदानद्वारा देवताओं का पूजन, कव्यदान द्वारा पितरों का पूजन, कुटुम्ब की रक्षा एवं पालन, पशुपालन, आयव्यय आदि की व्यवस्था, देवालय,बाग, तड़ाग, कूप, वापी आदि बनवाना, स्वदेश या परदेश में क्रय-विक्रय -- जो कुछ तुम करोंगे, सब में मैं तुम्हारी सदा वामाङ्गिनी रहूँगी | तुम कभी परकीया स्त्री का सेवन नहीं करोगे इत्यादि | और भी --->
*( धनं धान्यं च मिष्टान्नं व्यञ्जनाद्यं च यद् गृहे | मदधीनं च कर्तव्यं वधूराद्ये पदे वदेत् ||१|| कुटुम्बं रक्षयिष्यामि सदा ते मञ्जुभाषिणी | दुःखे धीरा सुखे हृष्टा द्वितीये साब्रवीद्वचः ||२|| पतिभक्तिरता नित्यं क्रीडिष्यामि त्वया सह | त्वदन्यं न नरं मंस्ये तृतीये साब्रवीदियम् ||३|| लालयामि च केशान्तं गन्धमाल्यानुलेपनैः | काञ्चनैर्भूषणैस्तुभ्यं तुरीये सा पदे वदेत् ||४|| आर्ते आर्ता भविष्यामि सुखदुःखविभागिनी | तवाज्ञां पालयिष्यामि पञ्चमे सा पदे वदेत् ||५|| यज्ञे होमे च दानादौ भविष्यामि त्वया सह | #धर्मार्थकामकार्येषु वधूः षष्ठे पदे वदेत् ||६|| #अत्रांशे_साक्षिणो_देवा_मनोभावप्रबोधिनः | #वञ्चनं_न_करिष्यामि_सप्तमे_सा_पदे_वदेत् ||७||)*|
वधू कहती हैं कि "धन-धान्य, मिष्टान्न आदि जो कुछ घर में हैं, सब मेरे अधीन रहेगा; मैं सदा मधुरभाषिणी, कुटुम्ब की रक्षा करनेवाली, दुःख में धीर और सुख में प्रसन्न रहूँगी | पतिपरायणा होकर तुम्हारे ही साथ विहार करूँगी, तुम्हारे सिवा अन्य किसी पुरुष को पुरुष ही नहीं समझूँगी | गन्ध, माला, लेपन-भूषण आदि से तुम्हें सदा प्रसन्न करूँगी | मैं सदा तुम्हारे दुःख में दुःखिनी, सुख में सुखिनी हो तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगी | यज्ञ, दान, होम तथा अन्य सभी धर्म, अर्थ, काम के साधक कार्यों में सदा तुम्हारे साथ रहूँगी | मेरी इन प्रतिज्ञाओं में अन्तर्यामी देवतागण साक्षी रहें, मैं कभी तुम्हारी वञ्चना नहीं करूँगी | इत्यादि प्रतिज्ञाएँ सप्तपदी-गमन(सात अचल पर्वतों का पूजन कर, अचलता का अनुगमन) के समय वधू करती हैं; अनन्तर वर उनको इन शब्दों में स्विकार करता हैं ---> *( मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं ते अस्तु | मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम् ||)*-- अपना हृदय मेरे काम में लगाओ, अपना चित्त मेरे चित्त के अनुरूप करो, तुम मेरे मन में अपना मन मिलाकर मेरे वचन का पालन करो | प्रजापति तुम्हें मुझे प्रसन्न करने में प्रवृत्त करें |
इस प्रकार विवाहरूपी पवित्र संस्कार-सूत्र में वर-वधू को आबद्धकर दोनों की उच्छृङ्खल, अनर्गल भोगप्रवृत्तियों को संयत और नियन्त्रित किया जाता हैं तथा दोनों को धर्मानुकुल काम-अर्थ का सेवन तथा धर्मार्जन में प्रवृत्त किया जाता हैं | वस्तुतः पति-पत्नी में पवित्र प्रेम तथा एकात्मता से ही गार्हस्पत्य-जीवन की सुख-शान्ति,उत्तम सन्तान की उत्पत्ति और दोनों की आध्यात्मिक उन्नति होती हैं | पति-पत्नी में अटूट प्रेम दोनों की प्रकृति-प्रवृत्तियों के मेल से ही सम्भव हैं | इसी कारण हमारे धर्माचार्यों ने विवाह के पहिले वर-वधू के लक्षण, कुल,शील,सनाथता,विद्या,ऐश्वर्य,आरोग्य,वय,जाति तथा जन्मपत्र मिलाना आदि अनेक विषयों पर विचार करने का विधान किया हैं | इन्हीं कारणों से असवर्ण-विवाह,स्वगोत्र-विवाह,वर से अधिक वयवाली कन्या से विवाह,विधवा-विवाह आदि धर्म-विरुद्ध होने से वर्जित हैं | महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा हैं कि --- *( अविलुप्त ब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत् / अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिण्डां यवीयसीम् ||)*| अर्थात् ब्रह्मचारी गृहस्थ होने के लिये अपने अनुरूप, अपने से भिन्नगोत्रीया, अपने से अल्पवयस्का तथा *जिसका पहले किसी के साथ विवाह न हुआ हो, ऐसी कन्या* के साथ विवाह करें |
1856 में विधवा-पुनर्विवाह पारित हुआ ये वेदनिर्णित नहीं हैं,
प्रश्न‒स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती ?
उत्तर‒माता-पिताने कन्यादान कर दिया तो अब उसकी कन्या संज्ञा ही नहीं रही; अतः उसका पुनः दान कैसे हो सकता है ? अब उसका पुनर्विवाह करना तो पशुधर्म ही है ।
सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते ।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥
(मनुस्मृति ९ । ४७, महाभारत वन॰ २९४ । २६)
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥
(मनुस्मृति ९ । ४७, महाभारत वन॰ २९४ । २६)
‘कुटुम्बमें धन आदिका बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या एक ही बार दी जाती है और ‘मैं दूँगा’‒यह वचन भी एक ही बार दिया जाता है । सत्पुरुषोंके ये तीनों कार्य एक ही बार होते हैं ।’
शास्त्रीय, धार्मिक, शारीरिक और व्यवहारिक‒चारों ही दृष्टियोंसे स्त्रीके लिये पुनर्विवाह करना अनुचित है । शास्त्रीय दृष्टिसे देखा जाय तो शास्त्रमें स्त्रीको पुनर्विवाहकी आज्ञा नहीं दी गयी है । धार्मिक दृष्टिसे देखा जाय तो पितृऋण पुरुषपर ही रहता है । स्त्रीपर पितृऋण आदि कोई ऋण नहीं है । शारीरिक दृष्टिसे देखा जाय तो स्त्रीमें कामशक्तिको रोकनेकी ताकत है, एक मनोबल है । व्यावहारिक दृष्टिसे देखा जाय तो पुनर्विवाह करनेपर उस स्त्रीकी पूर्वसन्तान कहाँ जायगी ? उसका पालन-पोषण कौन करेगा ? क्योंकि वह स्त्री जिससे विवाह करेगी, वह उस सन्तानको स्वीकार नहीं करेगा । अतः स्त्रीजातिको चाहिये कि वह पुनर्विवाह न करके ब्रह्मचर्यका पालन करे, संयमपूर्वक रहे ।
शास्त्रमें तो यहाँतक कहा गया है कि जिस स्त्रीकी पाँच-सात सन्तानें हैं, वह भी यदि पतिकी मृत्युके बाद ब्रह्मचर्यका पालन करती है तो वह नैष्ठिक ब्रह्मचारीकी गतिमें जाती है । फिर जिसकी सन्तान नहीं है, वह यदि पतिके मरनेपर ब्रह्मचर्यका पालन करती है तो उसकी नैष्ठिक ब्रह्मचारीकी गति होनेमें कहना ही क्या है ?
प्रश्न‒यदि युवा स्त्री विधवा हो जाय तो उसको क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒जीवित अवस्थामें पति जिन बातोंको अच्छा मानते थे और जो बातें उनके अनुकूल थीं, उनकी मृत्युके बाद भी विधवा स्त्रीको उन्हींके अनुसार आचरण करते रहना चाहिये । उसको ऐसा विचार करना चाहिये कि भगवान्ने जो प्रतिकूलता भेजी है, यह मेरी तपस्याके लिये है । जान-बूझकर की गयी तपस्यासे यह तपस्या बहुत ऊँची है । भगवान्के विधानके अनुसार किये गये तप, संयमकी बहुत अधिक महिमा है । ऐसा विचार करके उसको मनमें हर समय उत्साह रखना चाहिये कि मैं कैसी भाग्यशालिनी हूँ कि भगवान्ने मेरेको ऐसा तप करनेका सुन्दर अवसर दिया है !
*(नान्यस्मिन्विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः | अन्यस्मिन्हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम् || नो द्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्वचित् | न विवाहविधावुक्तं विधवा वेदनं पुनः || मनुः ९/६४-६५||)*----
द्विजातिओं को विधवा स्त्री का दूसरे पुरुष के साथ नियोग नहीं करवाना चाहिए | क्योंकि परपुरुष के साथ नियोग करानेवालों नें एकपतिरूप-सनातन धर्म का नाश किया हैं | (वेद के) वैवाहिक मंत्रों में कहीं भी नियोग कहा हुआ नहीं हैं और विवाहविधि में विधवा का पुनर्विवाह भी नहीं कहा हुआ हैं |
*(अनेकानि सहस्राणि कुमार ब्रह्मचारिणाम् | दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुल सन्ततिम् || मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः ||मनुः० ५/१५९-१६०||)* हजारों लाखों बाल ब्रह्मचारी ब्राह्मणकुल की वृद्धि के लिए विना सन्तान के ही स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं | अतः पति की मृत्यु के बाद जो स्त्रियाँ ब्रह्मचर्य से रहती हैं,वे पुत्रहीन भी स्वर्ग को पाती हैं, जैसे ब्रह्मचारीयों को मिला हैं |
*( मृते भर्त्तरि या नारि ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता | सा मृता लभते स्वर्गँ यथा ते ब्रह्मचारिणः ||पाराश०स्मृ४/३१||)*-- पति के मर जाने पर जो स्त्री ब्रह्मचर्य के नियम में स्थित हो, वह मरने के उपरान्त ब्रह्मचारी के समान स्वर्ग में जाती हैं |
*(अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते | सेह निन्दामवाप्नोति पतिलोकाच्च हीयते || मनुः ५/१६१|| व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् | शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ||५/१६४||)*---- >
जो स्त्रियाँ पुत्र की लालसा से व्यभिचार करती हैं वे लोक में निन्दा पाकर अन्त में पतिलोक से भ्रष्ट हो जाती हैं | पति का त्याग कर व्यभिचारीणी नानाविध रोगों से ग्रस्त होकर मृत्यु के बाद लोमड़ी की योनि में जन्मी जाती हैं |
*(सकृत्प्रदीयते कन्या हरं स्तांचोर दण्डभाक् || याज्ञवल्क्य ||)* एकबार ही कन्यादान होता हैं उसको जो हटावैं वह चोर के समान दण्डयोग्य हैं ---- >
#चोरसमान_दण्ड-- *मनुः ९/२७०/२७१*|
*( मृते भर्त्तरि या नारि ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता | सा मृता लभते स्वर्गँ यथा ते ब्रह्मचारिणः ||पाराश०स्मृ४/३१||)*-- पति के मर जाने पर जो स्त्री ब्रह्मचर्य के नियम में स्थित हो, वह मरने के उपरान्त ब्रह्मचारी के समान स्वर्ग में जाती हैं |
*(अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते | सेह निन्दामवाप्नोति पतिलोकाच्च हीयते || मनुः ५/१६१|| व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् | शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ||५/१६४||)*---- >
जो स्त्रियाँ पुत्र की लालसा से व्यभिचार करती हैं वे लोक में निन्दा पाकर अन्त में पतिलोक से भ्रष्ट हो जाती हैं | पति का त्याग कर व्यभिचारीणी नानाविध रोगों से ग्रस्त होकर मृत्यु के बाद लोमड़ी की योनि में जन्मी जाती हैं |
*(सकृत्प्रदीयते कन्या हरं स्तांचोर दण्डभाक् || याज्ञवल्क्य ||)* एकबार ही कन्यादान होता हैं उसको जो हटावैं वह चोर के समान दण्डयोग्य हैं ---- >
#चोरसमान_दण्ड-- *मनुः ९/२७०/२७१*|
पति के जीते हुए या मृत्यु के बाद जो स्त्री दूसरा पुरुष नहीं करतीं वह इस लोक में कीर्ति प्राप्त कर मरने के बाद देवी-उमा(पार्वती) के साथ सुख पाती हैं ---> *(मृते जीवति वा पत्यौ या नान्यमुपगच्छति | सेह कीर्तिमवाप्नोति मवाप्नोति मोदते चोमया सह ||या०स्मृ०आ० ७५||)*|
पुरुष की दो या अधिक स्त्रीयाँ हो सकती हैं परंतु - स्त्री के एक से अधिक पति नहीं हो सकतें हैं |
तथा च कात्यायनः --- >>> *(यदेकस्मिन्यूपे द्वे रशने परिव्ययति | तस्मादेको द्वे भार्य्ये विन्दते || इति || तस्मादेको बह्वीर्विन्दते इति श्रुतिः || तस्मादेकस्य बह्वयो जाया भवन्ति नैकस्या बहवः सहपतय इति श्रृतिः ||)*|
वेदशास्त्र के आर्ष धर्म हैं इनसे विरोध जो केवल तर्क के आश्रित कथन हैं वह वेद-शास्त्र के विरुद्ध हैं ----------->👇👇👇👇👇👇👇👇
पुरुष की दो या अधिक स्त्रीयाँ हो सकती हैं परंतु - स्त्री के एक से अधिक पति नहीं हो सकतें हैं |
तथा च कात्यायनः --- >>> *(यदेकस्मिन्यूपे द्वे रशने परिव्ययति | तस्मादेको द्वे भार्य्ये विन्दते || इति || तस्मादेको बह्वीर्विन्दते इति श्रुतिः || तस्मादेकस्य बह्वयो जाया भवन्ति नैकस्या बहवः सहपतय इति श्रृतिः ||)*|
वेदशास्त्र के आर्ष धर्म हैं इनसे विरोध जो केवल तर्क के आश्रित कथन हैं वह वेद-शास्त्र के विरुद्ध हैं ----------->👇👇👇👇👇👇👇👇
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
भारतीय संस्कृति के अन्वेषण में उसका आदि स्रोत हिमालय पर विराजमान शिवा-शिव के दर्शनों से उपलब्ध होता हैं | उनकी पवित्रता, आचारनिष्ठा और व्यवहारप्रियता ही आदिम संस्कृति का उद्गम स्थल हैं | -----> #श्रुतिस्मृतिपुराणैश्च_स्तुता_कल्याणदायिनी | #व्यवहारात्मिका_पुण्या_आदिमा_सैव_संस्कृतिः ||
अर्थात् श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों ने जिसकी सराहना की हैं, जो सब को कल्याण प्रदान करनेवाली, परम पवित्र तथा व्यावहारिक हैं, वही आदिम संस्कृति हैं |
#जन्मान्तरीयसम्बन्धस्तथा_पाणिपवित्रता | #तपःप्रधाना_नार्यश्च_कन्यादानस्य_श्रेष्ठता || #स्त्रियः_प्रसादाय_कृतिः_जायात्वमेकरूपता ||
अर्थात् श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों ने जिसकी सराहना की हैं, जो सब को कल्याण प्रदान करनेवाली, परम पवित्र तथा व्यावहारिक हैं, वही आदिम संस्कृति हैं |
#जन्मान्तरीयसम्बन्धस्तथा_पाणिपवित्रता | #तपःप्रधाना_नार्यश्च_कन्यादानस्य_श्रेष्ठता || #स्त्रियः_प्रसादाय_कृतिः_जायात्वमेकरूपता ||
अर्थात् जन्मान्तर का सम्बन्ध, पाणि(हाथ)की पवित्रता, नारी का तपोमय स्वरूप, कन्यादान की श्रेष्ठता, स्त्री को प्रसन्न रखने का यत्न, जायापद तथा दम्पति की एकरूपता--- ये सात भाव सर्वोच्च आदिम संस्कृति के अन्तर्गत हैं, जो मानवजीवन की पूर्णता और दाम्पत्यप्रेम की पवित्रता के द्योतक हैं |
ब्रह्म का शिवरूपी चिदाभास जब अन्तःकरण की बुद्धिरूपा वार्वती में प्रतिबिम्बित होता हैं, तभी जीव की उत्पत्ति होती हैं और यह जीवसंसृति मोक्ष या महाप्रलय तक निरन्तर संसारचक्र चलाती रहती हैं | अमैथुनी सृष्टि के बाद प्राणि जगत् के सञ्चालनार्थ पुरुष-स्त्री सम्बन्ध आवश्यक हो गया | चौरासी लाख योनियों में विभिन्न भेदों से यह विद्यमान हैं | जीवसृष्टि के उद्भिज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज -- ये चार मुख्य भेद हैं | पूर्वत्रय से जरायुज श्रेष्ठ हैं, और जरायुजों में मानव श्रेष्ठ हैं | उनमें भी असंस्कृत और संस्कृत भेद से संस्कृत मानव श्रेष्ठ हैं | वे जीव और जीवन के रहस्यों को जान सकतें हैं | महाप्रलय पर्यन्त पुनर्जन्म या आवागमन को मानतें हैं | उन्हीं संस्कृत स्त्री-पुरुषों का दाम्पत्य-जीवन संस्कृति हैं | वे दम्पति संसारचक्र में साथ साथ रहतें हैं, यही #जन्मान्तरीय सम्बन्ध हैं | *"(सखे सप्तपदा मामनुव्रता भव)"* कहते हुए भूलोक से सप्तलोक पर्यन्त सातों लोकों में विचरण करतें हैं | दम्पति के धर्मानुष्ठान और सहकार्यों का फल सम्मिलित अथवा अर्द्धार्द्ध विभक्त हो जाता हैं | इसलिए जन्मान्तर में भी वे बराबर साथ-साथ रहते हैं | कभी कोई असहधर्मी विक्षेप के कारण इस युगलजोड़ी का बिछुड़ना भी हो जाता हैं ; किंतु वह अस्थायी होता हैं | कालान्तर में वे फिर आकर मिल जातें हैं | उनका वियोगकाल भी आदर्श और कल्याणकारी होता हैं | वियोगकाल में एक दूसरे की प्रतिक्षा करतें हैं | इसी का नाम "करुणरस" हैं | संयोगकाल में दोनों धर्मिष्ठ, आचारनिष्ठ होकर अपनी जीवनयात्रा को सजाते हैं | इसी का नाम "श्रृङ्गार रस" हैं | मा सती का वियोग होनेपर -- *"(यदैव पूर्वे जनने शरीरं - सा दक्षरोषात् सुदती ससर्ज | तदा प्रभृत्येव विमुक्तसङ्गः - पतिःपशूनामपरिग्रहोऽभूत् || )"* |
ब्रह्म का शिवरूपी चिदाभास जब अन्तःकरण की बुद्धिरूपा वार्वती में प्रतिबिम्बित होता हैं, तभी जीव की उत्पत्ति होती हैं और यह जीवसंसृति मोक्ष या महाप्रलय तक निरन्तर संसारचक्र चलाती रहती हैं | अमैथुनी सृष्टि के बाद प्राणि जगत् के सञ्चालनार्थ पुरुष-स्त्री सम्बन्ध आवश्यक हो गया | चौरासी लाख योनियों में विभिन्न भेदों से यह विद्यमान हैं | जीवसृष्टि के उद्भिज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज -- ये चार मुख्य भेद हैं | पूर्वत्रय से जरायुज श्रेष्ठ हैं, और जरायुजों में मानव श्रेष्ठ हैं | उनमें भी असंस्कृत और संस्कृत भेद से संस्कृत मानव श्रेष्ठ हैं | वे जीव और जीवन के रहस्यों को जान सकतें हैं | महाप्रलय पर्यन्त पुनर्जन्म या आवागमन को मानतें हैं | उन्हीं संस्कृत स्त्री-पुरुषों का दाम्पत्य-जीवन संस्कृति हैं | वे दम्पति संसारचक्र में साथ साथ रहतें हैं, यही #जन्मान्तरीय सम्बन्ध हैं | *"(सखे सप्तपदा मामनुव्रता भव)"* कहते हुए भूलोक से सप्तलोक पर्यन्त सातों लोकों में विचरण करतें हैं | दम्पति के धर्मानुष्ठान और सहकार्यों का फल सम्मिलित अथवा अर्द्धार्द्ध विभक्त हो जाता हैं | इसलिए जन्मान्तर में भी वे बराबर साथ-साथ रहते हैं | कभी कोई असहधर्मी विक्षेप के कारण इस युगलजोड़ी का बिछुड़ना भी हो जाता हैं ; किंतु वह अस्थायी होता हैं | कालान्तर में वे फिर आकर मिल जातें हैं | उनका वियोगकाल भी आदर्श और कल्याणकारी होता हैं | वियोगकाल में एक दूसरे की प्रतिक्षा करतें हैं | इसी का नाम "करुणरस" हैं | संयोगकाल में दोनों धर्मिष्ठ, आचारनिष्ठ होकर अपनी जीवनयात्रा को सजाते हैं | इसी का नाम "श्रृङ्गार रस" हैं | मा सती का वियोग होनेपर -- *"(यदैव पूर्वे जनने शरीरं - सा दक्षरोषात् सुदती ससर्ज | तदा प्रभृत्येव विमुक्तसङ्गः - पतिःपशूनामपरिग्रहोऽभूत् || )"* |
पूर्वजन्म में सुन्दर दाँतों वाली सतीजी ने दक्षपर क्रुद्ध होकर जब अपने शरीर का त्याग किया था, तब से भगवान् शिव विषय-संग रहित होकर पत्नीशून्य हो गये | किसी पत्नी की इच्छा नहीं की | तो किया क्या ? --->
*"( स्वयं विधाता तपसः फलानां - केनापि कामेन तपश्चचार |)"*---
स्वयं तप का फल देनेवाले शङ्करभगवान् किसी जन्मान्तरीय सती-सम्मिलन की कामना से स्वयं तप करने लगे |
इधर माँ सती ने पर्वतराज हिमालय के घर पार्वतीरूप से अवतार ग्रहण किया और तारुण्यपूर्व ही पिताजी की आज्ञा लेकर तप करने शैलशिखर पर चली गयीं | वहाँ उन्हों ने घोर तपस्या की --
*"(स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता - परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः | तदप्यपाकीर्णमतः प्रियंवदां - वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः ||)"*~~
अपने आप सूखकर गिरे हुए पत्तों को खाकर जीवन धारण करना तपस्या की पराकाष्ठा होती हैं; किंतु पार्वतीजी ने पर्णाहार भी त्याग दिया था | अतः पुराणवेत्ताओं नें उन्हें "अपर्णा" नाम से अभिहित किया |
दम्पति में यह जन्मान्तरीय सम्मिलन का तपस्यापूर्ण रहा | यह हैं भारतीय संस्कृति का जन्मान्तरीय दम्पति-सम्बन्ध |
अनादि काल से ही भारतीय ललनाओं की पाणिपवित्रता चली आयी हैं | उनका पाणिग्रहण पति ही करता हैं |
*"स्कन्द पुराण- कुमारिका खण्ड"* में कथानक हैं ---;> पार्वतीजी की घोर तपस्या देखकर शङ्करभगवान् बटु *"ब्रह्मचारी"* का रूप धरकर पार्वती जी के तपस्याश्रम में आयें | सखियों ने बहुमान-पुरस्सर ब्रह्मचारी का आतिथ्यसत्कार किया | वे पार्वती से मिलना और बातचीत करना चाहते थे | सखियों ने कहा -- भगवन् ! गृहीतनियमा गिरिजा का पाँच मुर्हूत बाद नियम समाप्त होगा | तबतक आप प्रतीक्षा कीजिये | फिर हमारी सखी से धर्मवार्ता कीजियेगा | आश्रमशोभा देखने के विचार से ब्रह्मचारीजी इतस्ततः भ्रमण करते हुए एक जलकुण्ड में गिर पड़े और तारस्वर से चिल्लाने लगे--- कोई समर्थ मेरा उद्धार करें; दौडो़ दौडो़ | विजयादि सखियाँ दौड़ी आयीं | उन्हों ने कुण्ड से निकालने के लिये अपने हाथ बढ़ाये ----- *"( स चुक्रोश ततो गाढ़ं दूरे दूरे पुनः पुनः | नाहं स्पृश्याम्यसंसिद्धां म्रिये वा साम्प्रतं त्वहम् ||)"* ---
ब्रह्मचारी ने उनका हाथ नहीं पकडा़ और ऊँचे स्वर से बार बार कहा -- दूर रहो, दूर रहो; मैं सिद्धिरहित स्त्री का स्पर्श नहीं करूँगा, चाहे इसी समय मर जाऊँ | इतने में नियम समाप्त करके पार्वती जी स्वयं आ पहुँची और अपना बायाँ हाथ ब्रह्मचारी को निकालने के लिए बढ़ाया |
ब्रह्मचारी ने कहा -- *"( भद्रे यच्छुचि नैव स्याद्यच्चैवावज्ञया कृतम् | सदोषेण कृतं यच्च तदादद्यां न कर्हिचित् || सव्यं चाशुचि ते हस्तं नावलम्बामि कर्हिचित् ||)"* --- हे भद्रे ! जो पवित्र नहीं हैं, जो अपमान से किया गया हैं और जो दोषयुक्त किया गया हैं, उसको मैं कभी ग्रहण नहीं करूँगा | तुम्हारा बायाँ हाथ, जो स्वभावतः अपवित्र माना गया हैं, मैं कदापि नहीं पकडूँगा |
*"( इत्युक्त्वा पार्वती प्राह नाहं हस्तं च दक्षिणम् | ददामि कस्यचिद्विप्र देवदेवाय कल्पितम् || दक्षिणं मे करं देवो ग्रहीता भव एव च | स्मर्यते चोग्रतपसा सत्यमेतन्मयोदितम् ||)"* ---- ब्रह्मचारी की बात सुनकर पार्वतीजी बोलीं -- हे विप्र ! दायाँ हाथ तो मैनें देवदेव महादेव को समर्पित करने के लिये सङ्कल्प कर रखा हैं; अतः अपना दाहिना हाथ किसीको न दूँगी | मेरे दाहिने हाथ को ग्रहण करनेवाले पूर्वजन्म के मेरे स्वामी भगवन् शिव ही होंगे | इस उग्र तपस्या के द्वारा मैं उन्हीं का चिन्तन कर रही हूँ | यह सत्य बात मैंने आपसे कही हैं |
यह सुनकर ब्रह्मचारी बोलें--- *"( यद्येवमवलेपस्ते गमनं केन वार्यते ?)"*-- यदि तुमको महादेवजी पर इतना गर्व हैं तो रोकता कौन हैं? जाओ, अपनी प्रतिज्ञा का यत्नपूर्वक पालन करो और मुझे योँ ही मरने दो | किंतु रुद्र के लिये वह तपस्या कैसी, जो मरते हुए ब्राह्मण को उसी दशा में छोड़ने को बाध्य करती हों? ब्राह्मण को नहीं मानती हो तो मेरी दृष्टि से दूर हो जाओ; और यदि पूजनीय मानती हो तो मुझको ऊपर निकाल लो |
पार्वतीजी बड़े धर्मसङ्कट में पड़ गयीं | फिर उन्हों ने सोच-विचारकर निश्चय किया और -- *"#विप्रस्योद्धरणं_सर्वधर्मेभ्योऽमन्यताधिकम् | #ततः_सा_दक्षिणं_दत्त्वा_करं_तं_प्रोज्जहार_च ||* ---
ब्राह्मण के उद्धार को सब धर्मों से अधिक माना तथा अपना दाहिना हाथ बढ़ाकर ब्राह्मण को ऊपर निकाल लिया | जब दो धर्म परस्पर एक दूसरे के विरोधी होकर अड़ जाते हैं, तब अपनी हानि करके भी एक धर्म का त्यागकर दूसरे अपेक्षाकृत प्रबलधर्म का ग्रहण करना पड़ता हैं |
किसी भी परपुरुष को दक्षिण हस्त से स्पर्श करना अधर्म था, परंतु पार्वतीजी ने ब्राह्मण के प्राणरक्षार्थ इसे स्वीकार किया |
*#नरं_नारी_प्रोद्धरति_मज्जन्तं_भववारिधौ | #एतत्संदर्शनार्थाय_तथा_चक्रे_भवोद्भवः || स्क०पु०कु०ख०||* ----
स्त्री भवसागर में डूबते हुए पुरुष का उद्धार कर देती हैं, इस बात को भलीभाँति दिखलाने के लिये संसार को उत्पन्न करनेवाले भगवान् शिव ने यह लीला की |
पार्वतीजी ने ब्रह्मचारी को निकालकर विषम धर्म का पालन किया, किंतु इस करग्रहण से अपने शरीर को उच्छिष्ट माना | अतः स्नान करके वे योगासन पर जा बैठी और इस उच्छिष्ट शरीर को, जो ब्राह्मण के स्पर्श द्वारा अशुद्ध हो गया हैं, भगवान् शंकर के लिए अयोग्य मानकर योगाग्नि से भस्म कर देने का निश्चय किया | यह देखकर ब्रह्मचारी ने कहा --- ब्राह्मण की इच्छा से कोई बातचीत करके अपना मनोरथ पूरा करो |
पार्वतीजी ने शरीरत्याग के पहले एक मुर्हूत(दो घड़ी =४८ मीनट) इस काम के लिए दिया | बातचीत में ब्रह्मचारी ने उच्च तपस्या का वर्णन करते हुए शिवजी के प्रति कुछ निन्दा-वाक्य कहे | सखियों के द्वारा निवारण करनेपर भी ब्रह्मचारी नहीं माने |तब पार्वतीजी ने सोचा कि *"निन्दक तो पापी होता ही हैं, निन्दा सुननेवाला भी पाप का भागी होता हैं |"* अतएव यहाँ से हट जाना ही ठीक हैं | ऐसा निश्चय करके वे क्रोध करके तुरंत वहाँ से चल दीं |
तब छद्मरूप से ब्रह्मचारी बने हुए भगवान् शिवजी ने अपना दिव्य शंकरस्वरूप प्रकट कर दिया और हँसते हुए भागती हुई पार्वतीजी को पकड़ लिया | तथा कहा --- *"( अद्यप्रभृत्यवनताङ्गि तवास्मि दासः - क्रीतस्तपोभिरिति वादिनि चन्द्रमौलौ | अह्नाय सा नियमजं कलममुत्ससर्ज - क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते ||)"*---
हे अवनताङ्गि ! आज से मैं तुम्हारा तपस्या द्वारा क्रीत दास हूँ | पार्वतीजी का सारा क्लेश जाता रहा | कार्य सिद्ध होनेपर कष्ट भी आनन्दस्वरूप में परिणत हो जाता हैं | पार्वतीजी ने अपनी पाणिपवित्रता सुरक्षित समझी | यह हैं तपोमय जीवन और पाणिपवित्रतारूपी उच्च भारतीय संस्कृति |
अमूल्य निधि, सर्वोच्च पवित्र वस्तु का व्यावहारिक क्रय-विक्रय, लेन-देन या सामयिक नियमानुबन्ध नहीं होता | उसका तो परम पुण्यरूप दान ही होता हैं |
जब भगवान् शिव ने पार्वतीजी से कहा - *"( प्राह तां च महादेवो दासोऽस्मि तव शोभने | तपोद्रव्येण क्रीतश्च समादिश यथेप्सितम् ||)"*--- शोभने ! मैं तुम्हारा तपोद्रव्य-क्रीत दास हूँ; जो इच्छा हो, आदेश करो | पालन करने के लिये सत्वर प्रस्तुत हूँ |
तब पार्वतीजी बोलीं-- मेरा मन मनोरथ पूर्ण हुआ | मन तो प्रथम से ही आपको समर्पण कर चुकी हूँ | अन्तःकरण के तीन भाग- चीत्त,बुद्धि और अहंकार अब समर्पण करती हूँ | किंतु यह शरीर जन्मदाता और पालक माता-पिता का हैं | इसे आप उनसे ही दानस्वरूप लेकर उनका सम्मान और इष्टरूपा संस्कृति की रक्षा करें |
*"( मनसस्त्वं प्रभुः शम्भो दत्तं तच्च मया तव | वपुषः पितरावेतौ सम्मानयितुमर्हसि ||)"*----------------------- यह हैं कन्यादानरूपी भारतीय संस्कृति ---------------
भगवान् शिव ने "तथाऽस्तु" कहकर पार्वकीजी को घर भेजा और स्वयं कैलास चले गये | पार्वतीजी का स्वयंवर हुआ | हिमाचल ने देवताओं को निमन्त्रणपत्र भेजे | श्रीभगवान् विष्णु ने उत्तर में लिखा ------ *"( मातास्माकं हि सा देवी मेरौ गत्वा नमामि ताम् ||)"* ---- पार्वती देवी मेरी माता हैं; मैं मेरु पर्वतपर पहुँचकर उन्हें प्रणाम करूँगा | श्री ब्रह्माजीवे पुरोहिती करने के लिये अना स्वीकार किया | ऐसे ही अन्य देवों के भी स्वीकृतिपत्र आये | समयपर सब देव स्वयंवर समारोह में उपस्थित हुए | तब पार्वतीजी ने भगवान् शिव के गले में जयमाला डाली और चरणों में सिर अर्पण किया | ब्रह्माजी ने विधिवत् विवाह कराया |
हिमाचल का एकमात्र पुत्र मैनाक इन्द्रवज्रभय से समुद्र में छिपा था | लइभुजवा(लाजाहोम) भाई ही करवाता हैं | नगराज को चिन्ता हुई, तब भगवान् विष्णु ने कहा --- *#अत्र_चिन्ता_न_कर्तव्या_नगराज_कथंचन | #अहं_भ्राता_जगन्मातुरेतदेवन्न_चान्यथा ||*
और भगवान् विष्णु ने लाई भूनी |
===================================
*#पतिर्भार्यां_संप्रविश्य_गर्भो_भूत्वेह_जायते | #जायायास्तद्धि_जायात्वं_यदस्यां_जायते_पुनः ||*
पति भार्या में प्रविष्टकर गर्भ होकर जो पुत्र नाम से पुनः उत्पन्न होता हैं, वही जायात्व हैं ----- इसी आधिदैविक संस्कृति की रक्षार्थ भगवान् शिव ने लीला की --- > *#शिशुर्भूत्वा_महादेवः_क्रीडार्थं_वृषभध्वजः | #उत्सङ्गतलसंसुप्तो_बभूव_भगवान्_भवः || #जायेति_तत्पदं_ख्यातुं_तस्य_सत्यार्थमीश्वरः ||*
जायात्व की उच्च प्रतिष्ठा के स्थापनार्थ भगवान् शिव लीला से ही बालरूप होकर पार्वतीजी की गोद में सो गये | यह उत्सङ्ग संस्वप्न भारतीय संस्कृति में अब भी चला आ रहा हैं |
सर्वोच्च भोगैश्वर्य की अधिकारिणी माँ पार्वतीजी थीं ही; किंतु उनके सुख सुविधार्थ शंकर भगवान् जरा-जरा सी बातोंपर भी कितना ध्यान रखतें थे , इसका उदाहरण अर्द्धनारीश्वर रूप में देखिये ---
*"( आत्मीयं चरणं दघाति पुरतो निम्नोन्नतायां भुवि - स्वीयेनैव करेण कर्षति तरोः पुष्पं श्रमाशङ्कया | तल्पे किं च मृगत्वचा विरचिते निद्राति भागैर्निजै- रन्तः प्रेमभरालसां प्रियतमामङ्के दधानो हरः ||)"*------
प्रेमपूरित अन्तःकरणवाली अपनी प्रियतमा पार्वती को अङ्क(अर्द्धाङ्ग) में धारण किये हुए अर्धनारीश्वर भगवान् शङ्कर पार्वती को परिश्रम से बचाने के लिये सब काम अपने - पुरुषभाग के अङ्गो से ही लेते हैं | चलते समय आगे की नीची-ऊँची भूमिपर पहले अपना ही पैर रखतें हैं | गिरिराज-किशोरी थक न जायँ - इस आशङ्का से वे अपने ही हाथ बढ़ाकर वृक्ष से फूल तोड़तें हैं तथा मृगचर्म बिछायी हुई शय्यापर शयन करते समय अपने ही भाग के अङ्गों को नीचे रखकर नींद लेते हैं |
"शिवा-शिव- दाम्पत्य" - भारतीय संस्कृति में सर्वोच्च हैं | जितने उत्तमोत्तम भोग्य पदार्थ हैं, वे सब शिव ने पार्वतीजी को दिये और स्वयं क्या लिया, यह भी देख लीजिये ------>
*#मन्दारमालाकुलितालकायै - #कपालमालाङ्कितशेखराय | #दिव्याम्बरायै_च_दिगम्बराय - #नमःशिवायै_च_नमःशिवाय ||*
भगवती पार्वती और भगवान् शिव को नमस्कार हैं 🙏 🙏 🙏 | पार्वतीजी की अलकावली में पारिजात पुष्पों की माला गुथी हुई और भगवान् शिव के मस्तकपर खोपड़ियों की माला सजी हैं | पार्वतीजी तो दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं और शिवजी दिगम्बर हैं ----- उनके शरीरपर एक भी वस्त्र नहीं हैं | 😅😅😅
*#नमः_पार्वतीपतये_हर_हर_महादेव ||*
*"( स्वयं विधाता तपसः फलानां - केनापि कामेन तपश्चचार |)"*---
स्वयं तप का फल देनेवाले शङ्करभगवान् किसी जन्मान्तरीय सती-सम्मिलन की कामना से स्वयं तप करने लगे |
इधर माँ सती ने पर्वतराज हिमालय के घर पार्वतीरूप से अवतार ग्रहण किया और तारुण्यपूर्व ही पिताजी की आज्ञा लेकर तप करने शैलशिखर पर चली गयीं | वहाँ उन्हों ने घोर तपस्या की --
*"(स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता - परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः | तदप्यपाकीर्णमतः प्रियंवदां - वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः ||)"*~~
अपने आप सूखकर गिरे हुए पत्तों को खाकर जीवन धारण करना तपस्या की पराकाष्ठा होती हैं; किंतु पार्वतीजी ने पर्णाहार भी त्याग दिया था | अतः पुराणवेत्ताओं नें उन्हें "अपर्णा" नाम से अभिहित किया |
दम्पति में यह जन्मान्तरीय सम्मिलन का तपस्यापूर्ण रहा | यह हैं भारतीय संस्कृति का जन्मान्तरीय दम्पति-सम्बन्ध |
अनादि काल से ही भारतीय ललनाओं की पाणिपवित्रता चली आयी हैं | उनका पाणिग्रहण पति ही करता हैं |
*"स्कन्द पुराण- कुमारिका खण्ड"* में कथानक हैं ---;> पार्वतीजी की घोर तपस्या देखकर शङ्करभगवान् बटु *"ब्रह्मचारी"* का रूप धरकर पार्वती जी के तपस्याश्रम में आयें | सखियों ने बहुमान-पुरस्सर ब्रह्मचारी का आतिथ्यसत्कार किया | वे पार्वती से मिलना और बातचीत करना चाहते थे | सखियों ने कहा -- भगवन् ! गृहीतनियमा गिरिजा का पाँच मुर्हूत बाद नियम समाप्त होगा | तबतक आप प्रतीक्षा कीजिये | फिर हमारी सखी से धर्मवार्ता कीजियेगा | आश्रमशोभा देखने के विचार से ब्रह्मचारीजी इतस्ततः भ्रमण करते हुए एक जलकुण्ड में गिर पड़े और तारस्वर से चिल्लाने लगे--- कोई समर्थ मेरा उद्धार करें; दौडो़ दौडो़ | विजयादि सखियाँ दौड़ी आयीं | उन्हों ने कुण्ड से निकालने के लिये अपने हाथ बढ़ाये ----- *"( स चुक्रोश ततो गाढ़ं दूरे दूरे पुनः पुनः | नाहं स्पृश्याम्यसंसिद्धां म्रिये वा साम्प्रतं त्वहम् ||)"* ---
ब्रह्मचारी ने उनका हाथ नहीं पकडा़ और ऊँचे स्वर से बार बार कहा -- दूर रहो, दूर रहो; मैं सिद्धिरहित स्त्री का स्पर्श नहीं करूँगा, चाहे इसी समय मर जाऊँ | इतने में नियम समाप्त करके पार्वती जी स्वयं आ पहुँची और अपना बायाँ हाथ ब्रह्मचारी को निकालने के लिए बढ़ाया |
ब्रह्मचारी ने कहा -- *"( भद्रे यच्छुचि नैव स्याद्यच्चैवावज्ञया कृतम् | सदोषेण कृतं यच्च तदादद्यां न कर्हिचित् || सव्यं चाशुचि ते हस्तं नावलम्बामि कर्हिचित् ||)"* --- हे भद्रे ! जो पवित्र नहीं हैं, जो अपमान से किया गया हैं और जो दोषयुक्त किया गया हैं, उसको मैं कभी ग्रहण नहीं करूँगा | तुम्हारा बायाँ हाथ, जो स्वभावतः अपवित्र माना गया हैं, मैं कदापि नहीं पकडूँगा |
*"( इत्युक्त्वा पार्वती प्राह नाहं हस्तं च दक्षिणम् | ददामि कस्यचिद्विप्र देवदेवाय कल्पितम् || दक्षिणं मे करं देवो ग्रहीता भव एव च | स्मर्यते चोग्रतपसा सत्यमेतन्मयोदितम् ||)"* ---- ब्रह्मचारी की बात सुनकर पार्वतीजी बोलीं -- हे विप्र ! दायाँ हाथ तो मैनें देवदेव महादेव को समर्पित करने के लिये सङ्कल्प कर रखा हैं; अतः अपना दाहिना हाथ किसीको न दूँगी | मेरे दाहिने हाथ को ग्रहण करनेवाले पूर्वजन्म के मेरे स्वामी भगवन् शिव ही होंगे | इस उग्र तपस्या के द्वारा मैं उन्हीं का चिन्तन कर रही हूँ | यह सत्य बात मैंने आपसे कही हैं |
यह सुनकर ब्रह्मचारी बोलें--- *"( यद्येवमवलेपस्ते गमनं केन वार्यते ?)"*-- यदि तुमको महादेवजी पर इतना गर्व हैं तो रोकता कौन हैं? जाओ, अपनी प्रतिज्ञा का यत्नपूर्वक पालन करो और मुझे योँ ही मरने दो | किंतु रुद्र के लिये वह तपस्या कैसी, जो मरते हुए ब्राह्मण को उसी दशा में छोड़ने को बाध्य करती हों? ब्राह्मण को नहीं मानती हो तो मेरी दृष्टि से दूर हो जाओ; और यदि पूजनीय मानती हो तो मुझको ऊपर निकाल लो |
पार्वतीजी बड़े धर्मसङ्कट में पड़ गयीं | फिर उन्हों ने सोच-विचारकर निश्चय किया और -- *"#विप्रस्योद्धरणं_सर्वधर्मेभ्योऽमन्यताधिकम् | #ततः_सा_दक्षिणं_दत्त्वा_करं_तं_प्रोज्जहार_च ||* ---
ब्राह्मण के उद्धार को सब धर्मों से अधिक माना तथा अपना दाहिना हाथ बढ़ाकर ब्राह्मण को ऊपर निकाल लिया | जब दो धर्म परस्पर एक दूसरे के विरोधी होकर अड़ जाते हैं, तब अपनी हानि करके भी एक धर्म का त्यागकर दूसरे अपेक्षाकृत प्रबलधर्म का ग्रहण करना पड़ता हैं |
किसी भी परपुरुष को दक्षिण हस्त से स्पर्श करना अधर्म था, परंतु पार्वतीजी ने ब्राह्मण के प्राणरक्षार्थ इसे स्वीकार किया |
*#नरं_नारी_प्रोद्धरति_मज्जन्तं_भववारिधौ | #एतत्संदर्शनार्थाय_तथा_चक्रे_भवोद्भवः || स्क०पु०कु०ख०||* ----
स्त्री भवसागर में डूबते हुए पुरुष का उद्धार कर देती हैं, इस बात को भलीभाँति दिखलाने के लिये संसार को उत्पन्न करनेवाले भगवान् शिव ने यह लीला की |
पार्वतीजी ने ब्रह्मचारी को निकालकर विषम धर्म का पालन किया, किंतु इस करग्रहण से अपने शरीर को उच्छिष्ट माना | अतः स्नान करके वे योगासन पर जा बैठी और इस उच्छिष्ट शरीर को, जो ब्राह्मण के स्पर्श द्वारा अशुद्ध हो गया हैं, भगवान् शंकर के लिए अयोग्य मानकर योगाग्नि से भस्म कर देने का निश्चय किया | यह देखकर ब्रह्मचारी ने कहा --- ब्राह्मण की इच्छा से कोई बातचीत करके अपना मनोरथ पूरा करो |
पार्वतीजी ने शरीरत्याग के पहले एक मुर्हूत(दो घड़ी =४८ मीनट) इस काम के लिए दिया | बातचीत में ब्रह्मचारी ने उच्च तपस्या का वर्णन करते हुए शिवजी के प्रति कुछ निन्दा-वाक्य कहे | सखियों के द्वारा निवारण करनेपर भी ब्रह्मचारी नहीं माने |तब पार्वतीजी ने सोचा कि *"निन्दक तो पापी होता ही हैं, निन्दा सुननेवाला भी पाप का भागी होता हैं |"* अतएव यहाँ से हट जाना ही ठीक हैं | ऐसा निश्चय करके वे क्रोध करके तुरंत वहाँ से चल दीं |
तब छद्मरूप से ब्रह्मचारी बने हुए भगवान् शिवजी ने अपना दिव्य शंकरस्वरूप प्रकट कर दिया और हँसते हुए भागती हुई पार्वतीजी को पकड़ लिया | तथा कहा --- *"( अद्यप्रभृत्यवनताङ्गि तवास्मि दासः - क्रीतस्तपोभिरिति वादिनि चन्द्रमौलौ | अह्नाय सा नियमजं कलममुत्ससर्ज - क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते ||)"*---
हे अवनताङ्गि ! आज से मैं तुम्हारा तपस्या द्वारा क्रीत दास हूँ | पार्वतीजी का सारा क्लेश जाता रहा | कार्य सिद्ध होनेपर कष्ट भी आनन्दस्वरूप में परिणत हो जाता हैं | पार्वतीजी ने अपनी पाणिपवित्रता सुरक्षित समझी | यह हैं तपोमय जीवन और पाणिपवित्रतारूपी उच्च भारतीय संस्कृति |
अमूल्य निधि, सर्वोच्च पवित्र वस्तु का व्यावहारिक क्रय-विक्रय, लेन-देन या सामयिक नियमानुबन्ध नहीं होता | उसका तो परम पुण्यरूप दान ही होता हैं |
जब भगवान् शिव ने पार्वतीजी से कहा - *"( प्राह तां च महादेवो दासोऽस्मि तव शोभने | तपोद्रव्येण क्रीतश्च समादिश यथेप्सितम् ||)"*--- शोभने ! मैं तुम्हारा तपोद्रव्य-क्रीत दास हूँ; जो इच्छा हो, आदेश करो | पालन करने के लिये सत्वर प्रस्तुत हूँ |
तब पार्वतीजी बोलीं-- मेरा मन मनोरथ पूर्ण हुआ | मन तो प्रथम से ही आपको समर्पण कर चुकी हूँ | अन्तःकरण के तीन भाग- चीत्त,बुद्धि और अहंकार अब समर्पण करती हूँ | किंतु यह शरीर जन्मदाता और पालक माता-पिता का हैं | इसे आप उनसे ही दानस्वरूप लेकर उनका सम्मान और इष्टरूपा संस्कृति की रक्षा करें |
*"( मनसस्त्वं प्रभुः शम्भो दत्तं तच्च मया तव | वपुषः पितरावेतौ सम्मानयितुमर्हसि ||)"*----------------------- यह हैं कन्यादानरूपी भारतीय संस्कृति ---------------
भगवान् शिव ने "तथाऽस्तु" कहकर पार्वकीजी को घर भेजा और स्वयं कैलास चले गये | पार्वतीजी का स्वयंवर हुआ | हिमाचल ने देवताओं को निमन्त्रणपत्र भेजे | श्रीभगवान् विष्णु ने उत्तर में लिखा ------ *"( मातास्माकं हि सा देवी मेरौ गत्वा नमामि ताम् ||)"* ---- पार्वती देवी मेरी माता हैं; मैं मेरु पर्वतपर पहुँचकर उन्हें प्रणाम करूँगा | श्री ब्रह्माजीवे पुरोहिती करने के लिये अना स्वीकार किया | ऐसे ही अन्य देवों के भी स्वीकृतिपत्र आये | समयपर सब देव स्वयंवर समारोह में उपस्थित हुए | तब पार्वतीजी ने भगवान् शिव के गले में जयमाला डाली और चरणों में सिर अर्पण किया | ब्रह्माजी ने विधिवत् विवाह कराया |
हिमाचल का एकमात्र पुत्र मैनाक इन्द्रवज्रभय से समुद्र में छिपा था | लइभुजवा(लाजाहोम) भाई ही करवाता हैं | नगराज को चिन्ता हुई, तब भगवान् विष्णु ने कहा --- *#अत्र_चिन्ता_न_कर्तव्या_नगराज_कथंचन | #अहं_भ्राता_जगन्मातुरेतदेवन्न_चान्यथा ||*
और भगवान् विष्णु ने लाई भूनी |
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*#पतिर्भार्यां_संप्रविश्य_गर्भो_भूत्वेह_जायते | #जायायास्तद्धि_जायात्वं_यदस्यां_जायते_पुनः ||*
पति भार्या में प्रविष्टकर गर्भ होकर जो पुत्र नाम से पुनः उत्पन्न होता हैं, वही जायात्व हैं ----- इसी आधिदैविक संस्कृति की रक्षार्थ भगवान् शिव ने लीला की --- > *#शिशुर्भूत्वा_महादेवः_क्रीडार्थं_वृषभध्वजः | #उत्सङ्गतलसंसुप्तो_बभूव_भगवान्_भवः || #जायेति_तत्पदं_ख्यातुं_तस्य_सत्यार्थमीश्वरः ||*
जायात्व की उच्च प्रतिष्ठा के स्थापनार्थ भगवान् शिव लीला से ही बालरूप होकर पार्वतीजी की गोद में सो गये | यह उत्सङ्ग संस्वप्न भारतीय संस्कृति में अब भी चला आ रहा हैं |
सर्वोच्च भोगैश्वर्य की अधिकारिणी माँ पार्वतीजी थीं ही; किंतु उनके सुख सुविधार्थ शंकर भगवान् जरा-जरा सी बातोंपर भी कितना ध्यान रखतें थे , इसका उदाहरण अर्द्धनारीश्वर रूप में देखिये ---
*"( आत्मीयं चरणं दघाति पुरतो निम्नोन्नतायां भुवि - स्वीयेनैव करेण कर्षति तरोः पुष्पं श्रमाशङ्कया | तल्पे किं च मृगत्वचा विरचिते निद्राति भागैर्निजै- रन्तः प्रेमभरालसां प्रियतमामङ्के दधानो हरः ||)"*------
प्रेमपूरित अन्तःकरणवाली अपनी प्रियतमा पार्वती को अङ्क(अर्द्धाङ्ग) में धारण किये हुए अर्धनारीश्वर भगवान् शङ्कर पार्वती को परिश्रम से बचाने के लिये सब काम अपने - पुरुषभाग के अङ्गो से ही लेते हैं | चलते समय आगे की नीची-ऊँची भूमिपर पहले अपना ही पैर रखतें हैं | गिरिराज-किशोरी थक न जायँ - इस आशङ्का से वे अपने ही हाथ बढ़ाकर वृक्ष से फूल तोड़तें हैं तथा मृगचर्म बिछायी हुई शय्यापर शयन करते समय अपने ही भाग के अङ्गों को नीचे रखकर नींद लेते हैं |
"शिवा-शिव- दाम्पत्य" - भारतीय संस्कृति में सर्वोच्च हैं | जितने उत्तमोत्तम भोग्य पदार्थ हैं, वे सब शिव ने पार्वतीजी को दिये और स्वयं क्या लिया, यह भी देख लीजिये ------>
*#मन्दारमालाकुलितालकायै - #कपालमालाङ्कितशेखराय | #दिव्याम्बरायै_च_दिगम्बराय - #नमःशिवायै_च_नमःशिवाय ||*
भगवती पार्वती और भगवान् शिव को नमस्कार हैं 🙏 🙏 🙏 | पार्वतीजी की अलकावली में पारिजात पुष्पों की माला गुथी हुई और भगवान् शिव के मस्तकपर खोपड़ियों की माला सजी हैं | पार्वतीजी तो दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं और शिवजी दिगम्बर हैं ----- उनके शरीरपर एक भी वस्त्र नहीं हैं | 😅😅😅
*#नमः_पार्वतीपतये_हर_हर_महादेव ||*
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
आजकल विवाह-संस्कार जैसा ढंग चलने लगा हैं,उससे विवाह की पवित्रता पहले ही समाप्त हो जाती हैं | २५-३० वर्ष की अवस्था तक लड़कियों को अविवाहित रखने से उनका हृदय पातिव्रत्य-संस्कार के उपयुक्त नहीं रह जाता | हमारे शास्त्रों में विवाह का काल ऋतुदर्शन(रजस्वला होने से ) पहले हैं -----------> √ #अष्टवर्षा_भवेद्गौरी_नववर्षा_च_रोहिणी | #दशवर्ष_भवेत्कन्या_अत_ऊर्ध्वं_रजस्वला || #माता_चैव_पिता_चैव_ज्येष्ठोभ्राता_तथैव_च | #त्रयस्ते_नरकं_यांति_दृष्ट्वा_कन्यां_रजस्वलाम् || #तस्माद्विवाहयेत्कन्यां_यावन्नर्तुमती_भवेत् | #विवाहो_ह्यष्टवर्षीयाः_कन्यायास्तु_प्रशस्यते ||व्यासस्मृ०||
अर्थात् आठवर्ष तक कन्या गौरी हैं, नवमें वर्ष में रोहिणी और दशवें वर्ष में कन्या कहा गया हैं | इसके उपरांत कन्या की संज्ञा (स्त्री) रजस्वला हो जाती हैं | (कुमारी पूजा में भी कन्या का लक्षण---> #यावत्पुष्पं_न_जायते || रजस्वला नहीं हो वहाँतक की २ से १०वर्ष की आयुवाली को ही कन्याकाल कहा हैं )|
कन्या को रजस्वला हुई देखकर - बड़ाभाई, माता और पिता यह तीनों नरक में जातें हैं | ( #या_राका_सुकुचा_तथा_ऋतुमति_ततालये_तिष्ठती- #तां_दृष्ट्वा_पितरः_पतन्ति_नरके_घोरेऽति_घोरेऽपि_च || मुर्हूत-सं०चंद्रि०|| अर्थात् विवाह के पहले पिता के घर ऋतुमती और यौवन के चिन्हों वाली कन्या हो जाय तो उसे देखकर पितरों को नरक भोगना पड़ता हैं )--
इस कारण रजोदर्शन के बिना हुए ही कन्या का विवाह करना श्रेष्ठ हैं - और आठ वर्ष की कन्या का विवाह करना परम श्रेष्ठ हैं | क्योंकि -- #गौरीं_दद्ब्रह्मलोकं_सावित्रं_रोहिणीं_ददत् | #कन्यां_ददत्स्वर्गलोकमतः_परमऽसद्गतिम् ||नारद ||
अर्थात् गौरी(८ वर्ष की कन्या ) का दान देनेवाला ब्रह्मलोक में जाता हैं --> आर्षविवाह-पद्धति के संकल्प भी दैखें -- "(समस्त पितॄणां ब्रह्मलोकवाप्त्यादि कल्पोक्त फल प्राप्त्यर्थम् आदि ००)" रोहिणी (९ वर्ष की कन्या) का दान देनेवाला सूर्यलोक में जाता हैं - संकल्प हैं "( समस्त पितॄणां सूर्यलोकवाप्त्यादि कल्पोक्त फल प्राप्त्यर्थम् आदि ००)" कन्या(१० वर्ष की कन्या ) का दान देनेवाला स्वर्गलोक में जाता हैं - संकल्प हैं "( समस्त पितॄणां स्वर्गलोकवाप्त्यादि कल्पोक्त फल प्राप्त्यर्थम् आदि ००)" आर्ष-श्रेष्ठ विवाह में -- #श्रृत्वा_कन्याप्रदानं_च_पितरः_प्रपितामहाः | #विमुक्ताः_सर्वपापेभ्यो_ब्रह्मलोके_व्रजन्ति_ते || शु-य-वि-पद्धति || अर्थात् कन्यादान होतें हुए सुनकर,कन्या-दाता-(पिता)पितामह और प्रपितामहादि पितृगण सभी प्रकार के पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक को जातें हैं |
और रजस्वला का दान देनेवाला अपने समस्त पितरों के सहित नरकलोक में जाता हैं |
अर्थात् आठवर्ष तक कन्या गौरी हैं, नवमें वर्ष में रोहिणी और दशवें वर्ष में कन्या कहा गया हैं | इसके उपरांत कन्या की संज्ञा (स्त्री) रजस्वला हो जाती हैं | (कुमारी पूजा में भी कन्या का लक्षण---> #यावत्पुष्पं_न_जायते || रजस्वला नहीं हो वहाँतक की २ से १०वर्ष की आयुवाली को ही कन्याकाल कहा हैं )|
कन्या को रजस्वला हुई देखकर - बड़ाभाई, माता और पिता यह तीनों नरक में जातें हैं | ( #या_राका_सुकुचा_तथा_ऋतुमति_ततालये_तिष्ठती- #तां_दृष्ट्वा_पितरः_पतन्ति_नरके_घोरेऽति_घोरेऽपि_च || मुर्हूत-सं०चंद्रि०|| अर्थात् विवाह के पहले पिता के घर ऋतुमती और यौवन के चिन्हों वाली कन्या हो जाय तो उसे देखकर पितरों को नरक भोगना पड़ता हैं )--
इस कारण रजोदर्शन के बिना हुए ही कन्या का विवाह करना श्रेष्ठ हैं - और आठ वर्ष की कन्या का विवाह करना परम श्रेष्ठ हैं | क्योंकि -- #गौरीं_दद्ब्रह्मलोकं_सावित्रं_रोहिणीं_ददत् | #कन्यां_ददत्स्वर्गलोकमतः_परमऽसद्गतिम् ||नारद ||
अर्थात् गौरी(८ वर्ष की कन्या ) का दान देनेवाला ब्रह्मलोक में जाता हैं --> आर्षविवाह-पद्धति के संकल्प भी दैखें -- "(समस्त पितॄणां ब्रह्मलोकवाप्त्यादि कल्पोक्त फल प्राप्त्यर्थम् आदि ००)" रोहिणी (९ वर्ष की कन्या) का दान देनेवाला सूर्यलोक में जाता हैं - संकल्प हैं "( समस्त पितॄणां सूर्यलोकवाप्त्यादि कल्पोक्त फल प्राप्त्यर्थम् आदि ००)" कन्या(१० वर्ष की कन्या ) का दान देनेवाला स्वर्गलोक में जाता हैं - संकल्प हैं "( समस्त पितॄणां स्वर्गलोकवाप्त्यादि कल्पोक्त फल प्राप्त्यर्थम् आदि ००)" आर्ष-श्रेष्ठ विवाह में -- #श्रृत्वा_कन्याप्रदानं_च_पितरः_प्रपितामहाः | #विमुक्ताः_सर्वपापेभ्यो_ब्रह्मलोके_व्रजन्ति_ते || शु-य-वि-पद्धति || अर्थात् कन्यादान होतें हुए सुनकर,कन्या-दाता-(पिता)पितामह और प्रपितामहादि पितृगण सभी प्रकार के पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक को जातें हैं |
और रजस्वला का दान देनेवाला अपने समस्त पितरों के सहित नरकलोक में जाता हैं |
इस विषय में सभी स्मृतिकार एकमत हैं कि कन्या का विवाह रजोदर्शन से पहले हो जाना चाहिए | इसका कारण थोड़ा ही विचार करने से स्पष्ट हो जाता हैं | ऋतु होना कन्या के स्त्रीत्व की पूर्णता का सूचक हैं | स्त्रीत्व की पूर्णता होतें ही कन्या की दृष्टि पुरुष की और जाना स्वाभाविक और प्रकृति के नियम के अनुकूल ही हैं | अतः कन्या अपने को स्त्रीरूप में अनुभव करतें ही पुरुषरूप में अपने पति को ही देखें, अन्य पुरुषपर उसकी भोगबुद्धि उत्पन्न ही न होने पाये - इस आदर्श सतीत्व की रक्षा के लिये रजोदर्शन से पूर्व कन्या का विवाह कर देने की आज्ञा सब महर्षियों ने दी हैं | कन्याकाल में कन्या का विवाह-संस्कार होने से ही आदर्श सतीत्व की रक्षा होनी सम्भव हैं, अन्यथा नहीं "(क्वचित् ज्ञानवती सतीः)"| विदेशीय अनुकरण से तथा अँधे संविधानों के कारण शिक्षित समाज में युवतीविवाह की प्रथा चलने लगीं -- अधिकतः कहीं भी कन्यादान नहीं हो रहा हैं; उससे न तो सतीत्वधर्म की पूरी रक्षा हो सकती हैं, न पतिपत्नी में वैसा आदर्श प्रेम हो सकता हैं और न पारिवारिक तथा सामाजिक सुखशान्ति की रक्षा होना सम्भव हैं | इसका स्वरूप कुछ न कुछ सामने आने भी लगा ही हैं |
कुछ थोड़े विदेशी तथा विजातीय सभ्यता-संस्कृति के पक्षपाती लोगों को छोड़कर शेष करोडों मनुष्य जो भारतीय संस्कृति के पक्षपाती हैं और अपने ऋषिमुनियों की आज्ञाओं का अनुसरण करनेवालें हैं, उनको भी कानून बनाकर विवश किया जा रहा हैं कि कन्याओं को युवती बनाकर विवाह करें |
अतः इस अवस्था में संस्कार की रक्षा के लिये कन्याओं के वाग्दान की प्राचीन प्रथा दृढ़ करनी चाहिये | इस समय आपत्काल के अनुसार कन्यावस्था में अथवा रजोदर्शन से पूर्व यदि कन्या का विवाह न किया जा सके तो कन्या का वाग्दान करके इस पवित्र संस्कार एवं प्राचीन मर्यादा की रक्षा करनी ही चाहिये |
कुछ थोड़े विदेशी तथा विजातीय सभ्यता-संस्कृति के पक्षपाती लोगों को छोड़कर शेष करोडों मनुष्य जो भारतीय संस्कृति के पक्षपाती हैं और अपने ऋषिमुनियों की आज्ञाओं का अनुसरण करनेवालें हैं, उनको भी कानून बनाकर विवश किया जा रहा हैं कि कन्याओं को युवती बनाकर विवाह करें |
अतः इस अवस्था में संस्कार की रक्षा के लिये कन्याओं के वाग्दान की प्राचीन प्रथा दृढ़ करनी चाहिये | इस समय आपत्काल के अनुसार कन्यावस्था में अथवा रजोदर्शन से पूर्व यदि कन्या का विवाह न किया जा सके तो कन्या का वाग्दान करके इस पवित्र संस्कार एवं प्राचीन मर्यादा की रक्षा करनी ही चाहिये |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः
#षोडशसंस्काराः_खंड_१६८=सगाई = गोना }-->
(#विवाहसंस्कारप्राग्वाग्दानम्)
विवाह में कहे गये नक्षत्र, कृत्तिका,तीनों पूर्वा, श्रवण,धनिष्ठा इन नक्षत्रों में शुभ दिन देखकर वरकन्या का वाग्दान(सगाई) करना शुभ हैं --> *#विवाहोदितमे_पूर्वाधनिष्ठाकृत्तिकाश्रवे | #कुमारीवरयोः_कार्यं_वरणं_च_शुभेऽहनि ||मु०चिं०||*
==================>
विवाह में कहे मुर्हूत नक्षत्रादि --> उत्तरायन में मीन के सूर्य वाला चैत्र मास छोड़कर वैशाख,ज्येष्ठ,आषाढ़, फाल्गुन, मार्गशिर्ष और माघ -- ये मास क्रम से मेष, वृषभ,मिथुन, कुंभ,वृश्चिक और मकर ये राशि के सूर्य वाले मास हो तो विवाह कार्य में शुभ हैं | इनके सिवा अन्य राशिवाले मासों में कभी भी विवाह नहीं करना चाहिये | कन्या,तुला,मिथुन और वृषभ इन लग्नों में रिक्ता(४-९-१४ तिथियाँ) और अमावस सिवा अन्य तिथियों में शुभ वारों में रोहिणी, तीनों उत्तरा,रेवती,मूल, स्वाति, मृगशीर्ष, मघा,अनुराधा और हस्त इन नक्षत्रों में विवाह करना शुभ हैं ---> *"(उत्तरायणगे सूर्ये मीनं चैत्रं च वर्जयेत् | अजगोद्वंद्वकुंभालिमृगराशिगते रवौ || मुख्यं करग्रहं त्वन्यराशिगे न कदाचन | कन्यातुलामिथुनगे लग्ने च शुभ वासरे || रिक्ता कुहूवर्जितासु तिथिषूद्वाह उत्तमः | रोहिण्युत्तररेवत्यो मूलं स्वाती मृगो मघा || अनुराधा च हस्तश्च विवाहे मंगलप्रदाः || कश्यपः ||)"*
===============> पारस्कर गृह्यसूत्र में अश्विनी, चित्रा, श्रवण,धनिष्ठा यह चार नक्षत्र अधिक लिये हैं ----> *#त्रिषु_त्रिषु_उत्तरादिषु / #स्वातौ_मृगशिरसि_रोहिण्यां_वा ||पा०गृ० १/४/६-७||*
======>
दो शुभ कार्य एक ही घर में एक साथ करना अशुभ हैं | परन्तु जरूरी हो तो नौ दिनों का अन्तर रखना चाहिए| यदि उससे भी अधिक जरूरी हो तो द्वारभेद और आचार्य भेद रखकर करना चाहिए ---> *( द्विशोभनं त्वेकगृहे त्वनिष्टं शुभं तु पश्चान्नवभिर्दिनैश्च | आवश्यकं शोभनमुत्सवो वा द्वारेऽथ वाचार्यविभेदतः शुभः ||विसिष्ठः ||)*
=====> प्रथमगर्भ से उत्पन्न पुत्र तथा कन्या का विवाह उनके जन्ममास जन्मनक्षत्र एवं जन्मतिथि में करना अशुभ होता हैं | यदि दोनों (पुत्र पुत्री) #द्वितीयगर्भ से उत्पन्न हो (ज्येष्ठ सन्तान न हो) तो जन्ममास-नक्षत्र एवं तिथि में भी विवाह शुभकारक एवं सन्तानकारक हैं ----> *"(आद्यगर्भसुतकन्ययोर्द्वयो-- र्जन्ममासभतिथौ करग्रहः | नोचितोऽथ विबुधैः प्रशस्यते -- चेद् द्वितीयजनुषोः सुतप्रदः ||मु०चि०||)*
========> दो ज्येष्ठ का विवाह मध्यम कहा गया हैं | अर्थात् ज्येष्ठ मास तथा वर-कन्या में से कोई एक ज्येष्ठमें जन्मा हो तो ज्येष्ठद्वन्द्व होता हैं जो मध्यम हैं | यदि तीन ज्येष्ठ हो अर्थात् ज्येष्ठमास, ज्येष्ठ में जन्मा वर और ज्येष्ठ में जन्मी कन्या तीनों ही ज्येष्ठ हो तो कभी भी विवाह शुभ नहीं होता | कुछ पूर्वाचार्यों ने ज्येष्ठ मास में सूर्य जबतक कृत्तिका नक्षत्र में रहें तबतक छोड़कर शेष ज्येष्ठ मास में विवाह किया जा सकता हैं | वर और कन्या दोनों का जन्म ज्येष्ठ मास में हो तो कभी भी ज्येष्ठ मास में विवाह न करें अर्थात् कृत्तिका के सूर्य को छोड़कर शेष ज्येष्ठ मास में ज्येष्ठाद्वन्द्व विवाह करें परंतु त्रिज्येष्ठा का त्याग करें.. ---> *( ज्येष्ठद्वन्द्वं मध्यमं सम्प्रदिष्टं त्रिज्येष्ठं चेन्नैव युक्तं कदाऽपि / केचित्सूर्यं वह्निगं प्रोज्झ्य चाऽऽहुर्नैवाऽन्योन्यं ज्येष्ठयोः स्याद्विवाहः ||मु०च०||)*
=======================
(#विवाहसंस्कारप्राग्वाग्दानम्)
विवाह में कहे गये नक्षत्र, कृत्तिका,तीनों पूर्वा, श्रवण,धनिष्ठा इन नक्षत्रों में शुभ दिन देखकर वरकन्या का वाग्दान(सगाई) करना शुभ हैं --> *#विवाहोदितमे_पूर्वाधनिष्ठाकृत्तिकाश्रवे | #कुमारीवरयोः_कार्यं_वरणं_च_शुभेऽहनि ||मु०चिं०||*
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विवाह में कहे मुर्हूत नक्षत्रादि --> उत्तरायन में मीन के सूर्य वाला चैत्र मास छोड़कर वैशाख,ज्येष्ठ,आषाढ़, फाल्गुन, मार्गशिर्ष और माघ -- ये मास क्रम से मेष, वृषभ,मिथुन, कुंभ,वृश्चिक और मकर ये राशि के सूर्य वाले मास हो तो विवाह कार्य में शुभ हैं | इनके सिवा अन्य राशिवाले मासों में कभी भी विवाह नहीं करना चाहिये | कन्या,तुला,मिथुन और वृषभ इन लग्नों में रिक्ता(४-९-१४ तिथियाँ) और अमावस सिवा अन्य तिथियों में शुभ वारों में रोहिणी, तीनों उत्तरा,रेवती,मूल, स्वाति, मृगशीर्ष, मघा,अनुराधा और हस्त इन नक्षत्रों में विवाह करना शुभ हैं ---> *"(उत्तरायणगे सूर्ये मीनं चैत्रं च वर्जयेत् | अजगोद्वंद्वकुंभालिमृगराशिगते रवौ || मुख्यं करग्रहं त्वन्यराशिगे न कदाचन | कन्यातुलामिथुनगे लग्ने च शुभ वासरे || रिक्ता कुहूवर्जितासु तिथिषूद्वाह उत्तमः | रोहिण्युत्तररेवत्यो मूलं स्वाती मृगो मघा || अनुराधा च हस्तश्च विवाहे मंगलप्रदाः || कश्यपः ||)"*
===============> पारस्कर गृह्यसूत्र में अश्विनी, चित्रा, श्रवण,धनिष्ठा यह चार नक्षत्र अधिक लिये हैं ----> *#त्रिषु_त्रिषु_उत्तरादिषु / #स्वातौ_मृगशिरसि_रोहिण्यां_वा ||पा०गृ० १/४/६-७||*
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दो शुभ कार्य एक ही घर में एक साथ करना अशुभ हैं | परन्तु जरूरी हो तो नौ दिनों का अन्तर रखना चाहिए| यदि उससे भी अधिक जरूरी हो तो द्वारभेद और आचार्य भेद रखकर करना चाहिए ---> *( द्विशोभनं त्वेकगृहे त्वनिष्टं शुभं तु पश्चान्नवभिर्दिनैश्च | आवश्यकं शोभनमुत्सवो वा द्वारेऽथ वाचार्यविभेदतः शुभः ||विसिष्ठः ||)*
=====> प्रथमगर्भ से उत्पन्न पुत्र तथा कन्या का विवाह उनके जन्ममास जन्मनक्षत्र एवं जन्मतिथि में करना अशुभ होता हैं | यदि दोनों (पुत्र पुत्री) #द्वितीयगर्भ से उत्पन्न हो (ज्येष्ठ सन्तान न हो) तो जन्ममास-नक्षत्र एवं तिथि में भी विवाह शुभकारक एवं सन्तानकारक हैं ----> *"(आद्यगर्भसुतकन्ययोर्द्वयो-- र्जन्ममासभतिथौ करग्रहः | नोचितोऽथ विबुधैः प्रशस्यते -- चेद् द्वितीयजनुषोः सुतप्रदः ||मु०चि०||)*
========> दो ज्येष्ठ का विवाह मध्यम कहा गया हैं | अर्थात् ज्येष्ठ मास तथा वर-कन्या में से कोई एक ज्येष्ठमें जन्मा हो तो ज्येष्ठद्वन्द्व होता हैं जो मध्यम हैं | यदि तीन ज्येष्ठ हो अर्थात् ज्येष्ठमास, ज्येष्ठ में जन्मा वर और ज्येष्ठ में जन्मी कन्या तीनों ही ज्येष्ठ हो तो कभी भी विवाह शुभ नहीं होता | कुछ पूर्वाचार्यों ने ज्येष्ठ मास में सूर्य जबतक कृत्तिका नक्षत्र में रहें तबतक छोड़कर शेष ज्येष्ठ मास में विवाह किया जा सकता हैं | वर और कन्या दोनों का जन्म ज्येष्ठ मास में हो तो कभी भी ज्येष्ठ मास में विवाह न करें अर्थात् कृत्तिका के सूर्य को छोड़कर शेष ज्येष्ठ मास में ज्येष्ठाद्वन्द्व विवाह करें परंतु त्रिज्येष्ठा का त्याग करें.. ---> *( ज्येष्ठद्वन्द्वं मध्यमं सम्प्रदिष्टं त्रिज्येष्ठं चेन्नैव युक्तं कदाऽपि / केचित्सूर्यं वह्निगं प्रोज्झ्य चाऽऽहुर्नैवाऽन्योन्यं ज्येष्ठयोः स्याद्विवाहः ||मु०च०||)*
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#वाग्दानविधानम्=}->
(१-क)ज्योतिर्विदादिष्टे विवाहनक्षत्रादियुते शुभे काले प्रशस्तवेषैर्युग्मब्राह्मणैः पुरंध्रीभिर्ज्ञातिबांधवैश्च सह वरपिता गंधाक्षतपुष्पयुग्मवस्त्रभूषणतांबूलादि गृहित्वा तूर्यमंगलवाद्यादिभिर्युतः कन्यागृहमागत्य शुभवस्त्रपीठासने प्रत्यङ्मुख उपविशेत् ( ज्योतिर्विद ने दिए हुए विवाहोक्त उत्तम मूर्हूत में मंगलवस्त्रों को धारण कर दो ब्राह्मण, सुवासीनीयों तथा ज्ञातिबन्धवों के साथ वर के पिता पूजनसामग्री लिए मंगलवाद्यों के वादन पूर्वक कन्याके घर जाकर वस्त्रबीछाएँ हुए आसनयुक्त मंगलपीठ पर पश्चिमाभिमुख होकर बैठे)
(२-क) तद्वदासने कन्यापिता प्राङ्गमुख उपविश्य स्वदक्षिणतः प्राङ्गमुखीं कन्यामुपवेश्य ( इस प्रकार वरपिता के सामने पूर्वाभिमुख होकर बैठे, अपनी बाजू में दाहिनी ओर पूर्वाभिमुखी कन्या भी बैठे)
(२-ख) स्वपुरतः गणपतिं कलशं च संस्थाप्य (कन्यापिता अपनी सामने गणपतिजी का स्थापन करकें कलशादि पूजन उपहारादि रखें..
(२-ग) श्री गणपत्यादिस्मरणपूर्वकं देशकालौ संकीर्त्य (कन्यापिता आचमन,प्राणायाम आदि करकें देवतानमस्कारपूर्वक गणपत्यादि मंगलसूचक देवताओं का समंत्र स्मरण करें बाद में देशकाल का संकीर्तन करकें संकल्प करें)
(२-घ) संकल्प-- करिष्यमाण कन्या(एकादशाब्दिकोर्द्ध्वा = वृषल्यर्थं -- #पुत्री)विवाहांगभूतं वाग्दानमहं करिष्ये ....
(१-ख) -- #वरपिताऽपि (वर के पिता भी संकल्प करें)--> करिष्यमाण पुत्रविवाहांगभूतं कन्या निरीक्षणं करिष्ये..
(१-२) वर-कन्या के पिता संकल्प करें--> तदंगविहितं गणपतिपूजनं वरुणपूजनं च करिष्ये .... (१-२) वर-कन्या के पिता दोनौं साथ में गणपति का आवाहन कर वरुण(कलशपूजन)के बाद गणपतिपूजन करें (#उभौ_कुर्याताम्)|
#वाग्दान -- {वरपिता अपना (वर का)गोत्रआदि का उच्चार करतें हुए विवाहार्थ पुत्र की पत्नी के लिए बाद में कन्या का गोत्रादि उच्चारण करकें वरण करें... }
(१-ग)- कन्यापितरं प्रति ब्रूयात् ---> /// वरपिता ___गोत्रोत्पन्नाय __प्रवरान्विताय __शर्मणे(वर्मणे,गुप्ताय)वराय // __ गोत्रोत्पन्नां __ प्रवरान्वितां__ नाम्नीं कन्यां भार्यात्वेन वृणीमहे |
(२-च) कन्या के पिता अपनी पत्नी, भाई आदि बाँधवो की अनुमति लेकर - यथोक्त वर-कन्या के गोत्रोच्चारपूर्वक (#वृणीध्वम्) वरण करें ऐसा कहैं ... यथा --> गोत्रोत्पन्नाय __प्रवरान्विताय __शर्मणे(वर्मणे,गुप्ताय)वराय // __ गोत्रोत्पन्नां __ प्रवरान्वितां__ नाम्नीं कन्यां भार्यात्वेन #वृणीध्वम् (पुनर्वारद्वयं "वृणीध्वम्" इति ब्रूयात् प्रयोगरत्नादयः)|
(१-घ) वर के पिता कन्या का निरिक्षण करकें कुंकुम,अक्षत, पुष्प, युग्म वस्त्र(वस्त्रोपवस्त्रे),भूषण, तांबूल आदि कन्या के हाथ में देकर कन्या को तिलक करें..( ततो वरपिता कन्यानिरीक्षणपूर्वकं कुंकुमाक्षतपुष्पयुग्मवस्त्रभूषण तांबूलादिभिः कन्यां स्थाने पूजयेत् |
(१-२)बाद में कन्या और वर के पिता क्रमशः एकदूसरें का गंधादि से पूजन करें ..(ततो दाता प्रत्यङ्गमुखोपविष्टवरपितरं गंधतांबूलादिभिः पूजयेत् // स च वरपिता दातारं पूजयेत् ||)
(२-छ)-- कन्या के पिता हल्दी के टूकड़ों सहित पाँच अथवा सात सूपारी लेकर वरपिता के प्रति मंत्रादि पढ़कर वाग्दान करे-
#अव्यंगेऽपतितेऽक्लीबे_दशदोषविवर्जिते(रजस्वलायाः नैव)| इमां कन्यां(पुत्रीं) प्रदास्यामि देवाग्निद्विजसन्निद्धौ || (पूर्णअंगोवाली,अक्षतयोनिवाली,क्लीब तथा लतापादि दशदोषों से रहिता यह कन्या में देव,अग्नि और द्विजों के सान्निद्ध्य में कन्यादान करूँगा.. /// वर्तमान में वृषलीदोषों वाली कन्याएँ होती हैं. उन एकादशवर्ष से अधिक वय वाली कन्या के लिए उपरोक्त उत्तरपद वाला मंत्र ही पढ़ें, पूर्वपद छोड़ दे)----- __गोत्रोत्पन्नाय __प्रवरान्विताय _ _ शर्मणःप्रपौत्राय __ _ शर्मणः पौत्राय __शर्मणःपुत्राय __ शर्मणेवराय -- ___ गोत्रेत्पन्नाम् ___ प्रवरान्विताम् ___ शर्मणःप्रपौत्रीम् __ _ शर्मणःपौत्रीम् ____ _ शर्मणःपुत्रीम् ___नाम्नीमिमां कन्यां(पुत्रीं) ज्योतिर्विदादिष्टे मुर्हूते दास्ये इति वाचा संप्रददे || (वरपिता के वस्त्र में हल्दी-टूकडा.सूपारी आदि रखकर वस्त्रग्रन्थि बाँधे -- बाद में गाँठ पर चंदन आदि से तिलक करें... )-----> वरपितृवस्त्रप्रान्ते हरिद्राखंडपूगीफलानि "जदाबध्नन्" इति मंत्रेण बद्ध्वा ग्रन्थिं चंदनेनार्चयित्वा वदेत् ---( कन्या के पिता श्लोक को पढै़)---=> #वाचा_दत्ता_मया_कन्या_पुत्रार्थे_स्वीकृता_त्वया | #कन्यावलोकनविधौ_निश्चितस्त्वं_सुखी_भव ||
(१-च) वरपिता हल्दी के टूकडो़ सहित पाँच अथवा सात सूपारी लेकर गोत्रोच्चार आदि पढैं--- वरपिता पूर्ववत् हरिद्रादिखंडयुतपूगीफलानि गृहित्वा "(___ गोत्रोत्पन्नाम् __ प्रवरान्विताम् ___ शर्मणः प्रपौत्रीम् ___ शर्मणः पौत्रीम् ___ शर्मणः पुत्रीम् __ नाम्नीमिमां कन्यां(युवतीम्) ____ गोत्रोत्पन्नाय ___ प्रवरान्विताय__ शर्मणः प्रपौत्राय ___ शर्मणः पौत्राय ___ शर्मणः पुत्राय _शर्मणे वराय दातारो भवन्तो निश्चिंता भवन्ति ) हाथ में रखे हुए हल्दीटूकडो़, सूपारी आदि कन्यापिता के वस्त्र में रखकर वस्त्रग्रन्थि लगाएँ ग्रन्थि का पूजन करें))-----> दातृवस्त्रप्रांते " जदाबध्नन्" इति मंत्रेण ग्रन्थिं चन्दनेनार्चयित्वा पठेत् (वरपिता मंत्र पाठ करें)--> #वाचा_दत्ता_त्वया_कन्या_पुत्रार्थे_स्विकृता_मया | #वरावलोकनविधौ_निश्चिन्तस्त्वं_सुखीभव ||
(१-क)ज्योतिर्विदादिष्टे विवाहनक्षत्रादियुते शुभे काले प्रशस्तवेषैर्युग्मब्राह्मणैः पुरंध्रीभिर्ज्ञातिबांधवैश्च सह वरपिता गंधाक्षतपुष्पयुग्मवस्त्रभूषणतांबूलादि गृहित्वा तूर्यमंगलवाद्यादिभिर्युतः कन्यागृहमागत्य शुभवस्त्रपीठासने प्रत्यङ्मुख उपविशेत् ( ज्योतिर्विद ने दिए हुए विवाहोक्त उत्तम मूर्हूत में मंगलवस्त्रों को धारण कर दो ब्राह्मण, सुवासीनीयों तथा ज्ञातिबन्धवों के साथ वर के पिता पूजनसामग्री लिए मंगलवाद्यों के वादन पूर्वक कन्याके घर जाकर वस्त्रबीछाएँ हुए आसनयुक्त मंगलपीठ पर पश्चिमाभिमुख होकर बैठे)
(२-क) तद्वदासने कन्यापिता प्राङ्गमुख उपविश्य स्वदक्षिणतः प्राङ्गमुखीं कन्यामुपवेश्य ( इस प्रकार वरपिता के सामने पूर्वाभिमुख होकर बैठे, अपनी बाजू में दाहिनी ओर पूर्वाभिमुखी कन्या भी बैठे)
(२-ख) स्वपुरतः गणपतिं कलशं च संस्थाप्य (कन्यापिता अपनी सामने गणपतिजी का स्थापन करकें कलशादि पूजन उपहारादि रखें..
(२-ग) श्री गणपत्यादिस्मरणपूर्वकं देशकालौ संकीर्त्य (कन्यापिता आचमन,प्राणायाम आदि करकें देवतानमस्कारपूर्वक गणपत्यादि मंगलसूचक देवताओं का समंत्र स्मरण करें बाद में देशकाल का संकीर्तन करकें संकल्प करें)
(२-घ) संकल्प-- करिष्यमाण कन्या(एकादशाब्दिकोर्द्ध्वा = वृषल्यर्थं -- #पुत्री)विवाहांगभूतं वाग्दानमहं करिष्ये ....
(१-ख) -- #वरपिताऽपि (वर के पिता भी संकल्प करें)--> करिष्यमाण पुत्रविवाहांगभूतं कन्या निरीक्षणं करिष्ये..
(१-२) वर-कन्या के पिता संकल्प करें--> तदंगविहितं गणपतिपूजनं वरुणपूजनं च करिष्ये .... (१-२) वर-कन्या के पिता दोनौं साथ में गणपति का आवाहन कर वरुण(कलशपूजन)के बाद गणपतिपूजन करें (#उभौ_कुर्याताम्)|
#वाग्दान -- {वरपिता अपना (वर का)गोत्रआदि का उच्चार करतें हुए विवाहार्थ पुत्र की पत्नी के लिए बाद में कन्या का गोत्रादि उच्चारण करकें वरण करें... }
(१-ग)- कन्यापितरं प्रति ब्रूयात् ---> /// वरपिता ___गोत्रोत्पन्नाय __प्रवरान्विताय __शर्मणे(वर्मणे,गुप्ताय)वराय // __ गोत्रोत्पन्नां __ प्रवरान्वितां__ नाम्नीं कन्यां भार्यात्वेन वृणीमहे |
(२-च) कन्या के पिता अपनी पत्नी, भाई आदि बाँधवो की अनुमति लेकर - यथोक्त वर-कन्या के गोत्रोच्चारपूर्वक (#वृणीध्वम्) वरण करें ऐसा कहैं ... यथा --> गोत्रोत्पन्नाय __प्रवरान्विताय __शर्मणे(वर्मणे,गुप्ताय)वराय // __ गोत्रोत्पन्नां __ प्रवरान्वितां__ नाम्नीं कन्यां भार्यात्वेन #वृणीध्वम् (पुनर्वारद्वयं "वृणीध्वम्" इति ब्रूयात् प्रयोगरत्नादयः)|
(१-घ) वर के पिता कन्या का निरिक्षण करकें कुंकुम,अक्षत, पुष्प, युग्म वस्त्र(वस्त्रोपवस्त्रे),भूषण, तांबूल आदि कन्या के हाथ में देकर कन्या को तिलक करें..( ततो वरपिता कन्यानिरीक्षणपूर्वकं कुंकुमाक्षतपुष्पयुग्मवस्त्रभूषण तांबूलादिभिः कन्यां स्थाने पूजयेत् |
(१-२)बाद में कन्या और वर के पिता क्रमशः एकदूसरें का गंधादि से पूजन करें ..(ततो दाता प्रत्यङ्गमुखोपविष्टवरपितरं गंधतांबूलादिभिः पूजयेत् // स च वरपिता दातारं पूजयेत् ||)
(२-छ)-- कन्या के पिता हल्दी के टूकड़ों सहित पाँच अथवा सात सूपारी लेकर वरपिता के प्रति मंत्रादि पढ़कर वाग्दान करे-
#अव्यंगेऽपतितेऽक्लीबे_दशदोषविवर्जिते(रजस्वलायाः नैव)| इमां कन्यां(पुत्रीं) प्रदास्यामि देवाग्निद्विजसन्निद्धौ || (पूर्णअंगोवाली,अक्षतयोनिवाली,क्लीब तथा लतापादि दशदोषों से रहिता यह कन्या में देव,अग्नि और द्विजों के सान्निद्ध्य में कन्यादान करूँगा.. /// वर्तमान में वृषलीदोषों वाली कन्याएँ होती हैं. उन एकादशवर्ष से अधिक वय वाली कन्या के लिए उपरोक्त उत्तरपद वाला मंत्र ही पढ़ें, पूर्वपद छोड़ दे)----- __गोत्रोत्पन्नाय __प्रवरान्विताय _ _ शर्मणःप्रपौत्राय __ _ शर्मणः पौत्राय __शर्मणःपुत्राय __ शर्मणेवराय -- ___ गोत्रेत्पन्नाम् ___ प्रवरान्विताम् ___ शर्मणःप्रपौत्रीम् __ _ शर्मणःपौत्रीम् ____ _ शर्मणःपुत्रीम् ___नाम्नीमिमां कन्यां(पुत्रीं) ज्योतिर्विदादिष्टे मुर्हूते दास्ये इति वाचा संप्रददे || (वरपिता के वस्त्र में हल्दी-टूकडा.सूपारी आदि रखकर वस्त्रग्रन्थि बाँधे -- बाद में गाँठ पर चंदन आदि से तिलक करें... )-----> वरपितृवस्त्रप्रान्ते हरिद्राखंडपूगीफलानि "जदाबध्नन्" इति मंत्रेण बद्ध्वा ग्रन्थिं चंदनेनार्चयित्वा वदेत् ---( कन्या के पिता श्लोक को पढै़)---=> #वाचा_दत्ता_मया_कन्या_पुत्रार्थे_स्वीकृता_त्वया | #कन्यावलोकनविधौ_निश्चितस्त्वं_सुखी_भव ||
(१-च) वरपिता हल्दी के टूकडो़ सहित पाँच अथवा सात सूपारी लेकर गोत्रोच्चार आदि पढैं--- वरपिता पूर्ववत् हरिद्रादिखंडयुतपूगीफलानि गृहित्वा "(___ गोत्रोत्पन्नाम् __ प्रवरान्विताम् ___ शर्मणः प्रपौत्रीम् ___ शर्मणः पौत्रीम् ___ शर्मणः पुत्रीम् __ नाम्नीमिमां कन्यां(युवतीम्) ____ गोत्रोत्पन्नाय ___ प्रवरान्विताय__ शर्मणः प्रपौत्राय ___ शर्मणः पौत्राय ___ शर्मणः पुत्राय _शर्मणे वराय दातारो भवन्तो निश्चिंता भवन्ति ) हाथ में रखे हुए हल्दीटूकडो़, सूपारी आदि कन्यापिता के वस्त्र में रखकर वस्त्रग्रन्थि लगाएँ ग्रन्थि का पूजन करें))-----> दातृवस्त्रप्रांते " जदाबध्नन्" इति मंत्रेण ग्रन्थिं चन्दनेनार्चयित्वा पठेत् (वरपिता मंत्र पाठ करें)--> #वाचा_दत्ता_त्वया_कन्या_पुत्रार्थे_स्विकृता_मया | #वरावलोकनविधौ_निश्चिन्तस्त्वं_सुखीभव ||
(२-ज) कन्यापिता तंडूलपूर्णपात्र में तंडूल की ढ़गली में इन्द्र की पत्नी शची का #निवेशनः मंत्र से आवाहन करकें पुत्री(कन्या) के हाथ से पूजा करवाएँ... बाद मे पुत्री(कन्या) देवी-शची को वंदन करतें हुए प्रार्थना करें -- #देवेंद्राणि_नमस्तुभ्यं_देवेंद्रप्रियभामिनि | #विवाहं_भाग्यमारोग्यं_पुत्रलाभं_च_देहि_मे (शीघ्रलाभं-- इति पाठान्तरः) ||
बाद में वर के पक्ष से पधारें हुईं सुवासिनीयों कन्या की आरती उतार कर - तिलक,भूषण आदि सत्कारों से मांगलिक करें... ( पुरंध्रीभिर्नीराजनादि मांगलिकं कार्यम्) विप्रान् गंधतांबूलदक्षिणादिभिः संपूज्य तेषामाशिषो गृहीत्वा गणपत्यादि विसर्जयेत् ||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री उमरेठ|| शेष पुनः
बाद में वर के पक्ष से पधारें हुईं सुवासिनीयों कन्या की आरती उतार कर - तिलक,भूषण आदि सत्कारों से मांगलिक करें... ( पुरंध्रीभिर्नीराजनादि मांगलिकं कार्यम्) विप्रान् गंधतांबूलदक्षिणादिभिः संपूज्य तेषामाशिषो गृहीत्वा गणपत्यादि विसर्जयेत् ||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री उमरेठ|| शेष पुनः
#षोडशसंस्काराः(विवाह)#खंड_१६९=}->
"(अयुग्मे दुर्भगा नारी युग्मे तु विधवा भवेत् | तस्माद् गर्भान्विते युग्मे विवाहे सा पतिव्रता || मासत्रयादूर्ध्वमयुग्मवर्षे - युग्मेपि मासत्रयमेव यावत् | विवाहशुद्धिं प्रवदन्ति सन्तो वात्स्यादयः स्त्रीजनिजन्ममासात् ||राज मार्तंड||)"
👆अयुग्म वर्ष में विवाही कन्या दुर्भागिन् और युग्म वर्ष में विवाही कन्या विधवा होती हैं, इसलिये गर्भसे युक्त युग्म वर्ष में विवाह होने से वह कन्या पतिपरायण होती हैं, स्त्री के जन्ममहीने से अयुग्मवर्ष में तीनमास के बाद तथा युग्मवर्ष में तीनमासतक विवाह की शुद्धि वात्स्यादि मुनिप्रवरों ने मानी हैं |
👆अयुग्म वर्ष में विवाही कन्या दुर्भागिन् और युग्म वर्ष में विवाही कन्या विधवा होती हैं, इसलिये गर्भसे युक्त युग्म वर्ष में विवाह होने से वह कन्या पतिपरायण होती हैं, स्त्री के जन्ममहीने से अयुग्मवर्ष में तीनमास के बाद तथा युग्मवर्ष में तीनमासतक विवाह की शुद्धि वात्स्यादि मुनिप्रवरों ने मानी हैं |
"(स्त्रीणां गुरुबलं श्रेष्ठं पुरुषाणां रवेर्बलम् | तयोश्चंद्रबलं श्रेष्ठमिति गर्गेण भाषितम् || जन्मत्रिदशमारिस्थः पूजया शुभदो गुरुः | विवाहेऽथ चतुर्थाष्टद्वादशस्थो मृतिप्रदः || ज्योतिर्नि०गर्गः||)"
👆 स्त्रियों को गुरु का बल और पुरुषों को सूर्य का बल तथा दोनों को चन्द्र का बल देखना चाहिये और तीसरा, छठा गुरु "गुरु की पूजा(बृहस्पति शांति), से अच्छा होता हैं और चौथा आठवां बारहवां विवाह में मृत्युप्रद हैं |
👆 स्त्रियों को गुरु का बल और पुरुषों को सूर्य का बल तथा दोनों को चन्द्र का बल देखना चाहिये और तीसरा, छठा गुरु "गुरु की पूजा(बृहस्पति शांति), से अच्छा होता हैं और चौथा आठवां बारहवां विवाह में मृत्युप्रद हैं |
👉 जन्मराशी से गोचरगुरु में विवाह का फल-> " (नष्टात्मजा धनवती विधवा कुशीला- पुत्रान्विता हतधवा सुभगा विपुत्रा | स्वामिप्रिया विगतपुत्रधवा धनाढ्या- वन्ध्या भवेत् सुरगुरौ क्रमशोभिजन्मा ||देवलः||)"
👆 १- संताननाश, २- धनवती, ३- विधवा, ४- कुशीला, ५- पुत्रों से युक्त, ६- पतिमृत्यु, ७- सुहागिन, ८- पुत्रहिन,९- पति की प्यारी, १०- पुत्र और पतिहिन, ११- धन से युक्त और १२-- वन्ध्या होती हैं |
👆 १- संताननाश, २- धनवती, ३- विधवा, ४- कुशीला, ५- पुत्रों से युक्त, ६- पतिमृत्यु, ७- सुहागिन, ८- पुत्रहिन,९- पति की प्यारी, १०- पुत्र और पतिहिन, ११- धन से युक्त और १२-- वन्ध्या होती हैं |
*"(#झषचापकुलीरस्थो_जीवोपिशुभगोचरः | #अतिशोभनतां_दद्याद्विवाहोपनादिषु ||बृहस्पति स्स्वयम् ||)"*
👆 मीन, धन, कर्क का गुरु अशुभ भी हो, तो विवाह और यज्ञोपवीत में श्रेष्ठ हैं |
"( द्वादश दशमचतुर्थे.. जन्मनि.. षष्टाष्टमे तृतीये च | प्राप्ते पाणिग्रहणे.. जीवे... वैधव्यमाप्नोति ||लल्लः||)"
👆विवाह में गुरु बारहवां,दशवां, चौथा, पहला, छठा, आठवा, तीसरा हो तो, वह कन्या विधवा होती हैं | *कुंभविवाह* में भी यही जानना चाहिये |
👆 मीन, धन, कर्क का गुरु अशुभ भी हो, तो विवाह और यज्ञोपवीत में श्रेष्ठ हैं |
"( द्वादश दशमचतुर्थे.. जन्मनि.. षष्टाष्टमे तृतीये च | प्राप्ते पाणिग्रहणे.. जीवे... वैधव्यमाप्नोति ||लल्लः||)"
👆विवाह में गुरु बारहवां,दशवां, चौथा, पहला, छठा, आठवा, तीसरा हो तो, वह कन्या विधवा होती हैं | *कुंभविवाह* में भी यही जानना चाहिये |
*"( सर्वत्रापि शुभं दद्याद्द्वादशाब्दापरं गुरुः | """"पञ्चषष्ठाब्दयोरेव शुभगोचरता"" मता | "" सप्तमात्पञ्चवर्षेषु स्वोच्चस्वर्क्षगतो यदि | अशुभोपि शुभं दद्याच्छुभऋक्षेषु किं पुनः ||रजस्वलायाः कन्याया गुरुशुद्धिं न चिन्तयेत्| अष्टमेपि प्रकर्तव्यो विवाहस्त्रिगुणार्चनात् || अर्कगुर्वोबलं गौर्यारोहिण्यर्कबला स्मृता | कन्या चन्द्रबला प्रोक्ता वृषली लग्नतो बला |अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी | दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला< पाठान्तरे--- द्वादशे वृषली भवेत् >||गर्गः|| )"""*
👆 *कन्या की बारहवर्ष की अवस्था के बाद* गुरु सब स्थानों में शुभदायी हैं | *पाँचवे और छठे वर्ष में ही गुरु का शुभ गोचरबल देखना चाहिये,सातवर्ष से पाँचवर्षतक (अर्थात् ७,८,९,१०,११ वर्षों में) अशुभगुरु भी अपनी उच्चराशि ४ का, और स्वराशि ९,१२ का हो तो फिर मंगल देता हैं | अर्थात् सात से ग्यारहवर्ष में या बारहवर्ष के बाद गुरु उच्च का या स्वराशि का हो तो विवाह मंगलप्रद हैं | परन्तु अन्य शुभराशियों में स्थित गुरु इन -- ७ से ११ या १२ से अधिक वर्ष की कन्या हो तो शुभ ही हैं इसमें क्या कहा जाय, केवल अशुभराशि के गुरु की "बृहस्पति शांति" करके विवाह कर सकतें हैं |*
इसलिये यहाँ गर्गजी ने कहा हैं कि बारहवर्ष(रजस्वला) के बाद गुरुशुद्धि की आवश्यकता नहीं, आठवें गुरु में भी तीनगुनी पूजा कर विवाह हो सकता हैं |
👆 *कन्या की बारहवर्ष की अवस्था के बाद* गुरु सब स्थानों में शुभदायी हैं | *पाँचवे और छठे वर्ष में ही गुरु का शुभ गोचरबल देखना चाहिये,सातवर्ष से पाँचवर्षतक (अर्थात् ७,८,९,१०,११ वर्षों में) अशुभगुरु भी अपनी उच्चराशि ४ का, और स्वराशि ९,१२ का हो तो फिर मंगल देता हैं | अर्थात् सात से ग्यारहवर्ष में या बारहवर्ष के बाद गुरु उच्च का या स्वराशि का हो तो विवाह मंगलप्रद हैं | परन्तु अन्य शुभराशियों में स्थित गुरु इन -- ७ से ११ या १२ से अधिक वर्ष की कन्या हो तो शुभ ही हैं इसमें क्या कहा जाय, केवल अशुभराशि के गुरु की "बृहस्पति शांति" करके विवाह कर सकतें हैं |*
इसलिये यहाँ गर्गजी ने कहा हैं कि बारहवर्ष(रजस्वला) के बाद गुरुशुद्धि की आवश्यकता नहीं, आठवें गुरु में भी तीनगुनी पूजा कर विवाह हो सकता हैं |
*गौरी (८ वर्ष की कन्या)को सूर्य और गुरुबल, रोहिणी(९ वर्षकी कन्या)को सूर्य का बल और कन्या(१० से ११ वर्षान्त की कन्या ) को चन्द्र का बल तथा रजस्वला या वृषली(बारहवर्ष प्रारंभ से अधिक वयवाली स्त्री) के लिए लग्नबल देखना चाहिये* |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री,उमरेठ ||शेष पुनः
#षोडशसंस्काराः(विवाह)#खंड_१७०=}->
"( पिता पितामहो भ्राता सकुल्यो जननी तथा | कन्याप्रदः पूर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः || अप्रयच्छन् समाप्नोति भ्रूणहत्यामृतावृतौ || याज्ञवल्क्य||)"
👆कन्यादाता का क्रम पिता, पितामह, भाई,स्वगोत्र कुल का मनुष्य, माता इनमें से पूर्व पूर्व के अभाव में अगला अगला #सावधानी में कन्यादान के अधिकारी हैं, यदि ८ वर्ष से ११ वर्षान्त मध्य की कन्या का दान न करें तो कन्या के रजोवती होतें ही प्रतिमास भ्रूणहत्या लगती हैं |
"(गम्यं त्वभावे दातॄणां कन्या कुर्यात्स्वयं वरम् || याज्ञवल्क्यः ||)" तत्र " गम्यं वरम्" 👉 यदि कोई दाता न होय तो अपने वर्णानुकुल शास्त्रदृष्ट्या जो अधिकारक्षेत्र में हो तदनुसार योग्य वर को स्वयं वर लेना चाहिये - विस्तार से अन्वर्थक में भी समजें👉
#त्रिपुरुषं_पतितसावित्रीकाणामत्ये_संस्कारो_नाध्यापनं_च ||
👆कन्यादाता का क्रम पिता, पितामह, भाई,स्वगोत्र कुल का मनुष्य, माता इनमें से पूर्व पूर्व के अभाव में अगला अगला #सावधानी में कन्यादान के अधिकारी हैं, यदि ८ वर्ष से ११ वर्षान्त मध्य की कन्या का दान न करें तो कन्या के रजोवती होतें ही प्रतिमास भ्रूणहत्या लगती हैं |
"(गम्यं त्वभावे दातॄणां कन्या कुर्यात्स्वयं वरम् || याज्ञवल्क्यः ||)" तत्र " गम्यं वरम्" 👉 यदि कोई दाता न होय तो अपने वर्णानुकुल शास्त्रदृष्ट्या जो अधिकारक्षेत्र में हो तदनुसार योग्य वर को स्वयं वर लेना चाहिये - विस्तार से अन्वर्थक में भी समजें👉
#त्रिपुरुषं_पतितसावित्रीकाणामत्ये_संस्कारो_नाध्यापनं_च ||
तीन पीढ़ी तक यदि सावित्री का पतन हो अर्थात् (नियतकाल में उपनयन से उपदेश न हो), तो ऐसे द्विज की सन्तान का न तो कोई संस्कार होगा और न वेदादि का अध्यापन | यथार्थ कि कुमार के पिता,पितामह एवं प्रपितामह पतितसावित्रीक हो जाय तो न तो उसका(कुमारका) कोई संस्कार किया जाय और न ही वेदादि का अध्यापन ...
#आषोडशाद्वर्षाद्_ब्राह्मणस्यानतीतः_कालो_भवति ||पा-गृ२/५/३६|| #आद्वाविंशाद्_राजन्यस्य||पा-गृ२/५/३७|| #आचतुर्विंशाद्_वैश्यस्य||पा-गृ२/५/३८||
ब्राह्मण बालक के उपनयन संस्कार की अवधि सोलह वर्ष तक ही है. क्षत्रिय कुमार के उपनयन की अवधि बाइस वर्ष की ही है और वैश्य कुमार के उपनयन की अन्तिम अवधि चौबीस वर्ष की ही हैं...
पारस्करादि गृह्यसूत्रों के सिद्धांत की सम्पुष्टि मनुने भी की है--->
#आषोडशाद्_ब्राह्मणस्य_सावित्री_नातिवर्तते | #आद्वाविंशेः_क्षत्रबन्धोः_आचतुर्विंशतेर्विशः ||मनु२||
#आषोडशाद्_ब्राह्मणस्य_सावित्री_नातिवर्तते | #आद्वाविंशेः_क्षत्रबन्धोः_आचतुर्विंशतेर्विशः ||मनु२||
अब सावित्री-पतित व्रात्यों ----
#द्विजातयः_सवर्णासु_जनयन्त्यव्रतांस्तु_यान् | #तान्सावित्री_परिभ्रष्टान्व्रात्यानिति_विनिर्दिशेत् ||मनुः१०/२०||
द्विजाति अपनी सवर्णा स्त्री में उत्पन्न पुत्रों का यदि अंतिम-अवधि पर भी उपनयन संस्कार न करें तो वें "गायत्रीभ्रष्ट" व्रात्य कहलातें हैं |
#द्विजातयः_सवर्णासु_जनयन्त्यव्रतांस्तु_यान् | #तान्सावित्री_परिभ्रष्टान्व्रात्यानिति_विनिर्दिशेत् ||मनुः१०/२०||
द्विजाति अपनी सवर्णा स्त्री में उत्पन्न पुत्रों का यदि अंतिम-अवधि पर भी उपनयन संस्कार न करें तो वें "गायत्रीभ्रष्ट" व्रात्य कहलातें हैं |
गृह्यसूत्रों तथा वैदिक मत से- #अत_ऊर्ध्वं_पतितसावित्रीका_भवन्ति ||पा-गृ२/५/३९||
ऊपर कही गयी अवधि के बाद वे पतितसावित्री वाले हो जातें है....
#नैनानुपनयेयुर्नाध्यापयेयुर्न_याजयेयुर्न_चैभिर्व्यवहरेयुः ||पा-गृ२/५/४०||
इन पतितसावित्री वालें कुमारों का कोई आचार्य ! उपनयन -संस्कार न कराए, इन्हें वेदादि न पढाए, इनसे यज्ञादि न कराए और इन लोगों के साथ किसी भी तरह (विवाहादि सम्बन्ध) आदि का व्यवहार न करे.
#त्रिपुरुषं_पतितसावित्रीकाणामत्ये_संस्कारो_नाध्यापनं_च || २/५/४२||
तीन पीढ़ी तक या कईं पैढ़यों से यदि सावित्री का पतन हो अर्थात् (नियतकाल में उपनयन से उपदेश न हो), तो ऐसे व्यक्ति की सन्तान का न तो कोई संस्कार होगा और न वेदादि का अध्यापन | यथार्थ कि कुमार के पिता,पितामह एवं प्रपितामह पतितसावित्रीक हो जाय तो न तो उसका(कुमारका) कोई संस्कार किया जाय और न वेदादि का अध्यापन ही..
आज के कलियुग में बहोत कम क्षत्रिय और वैश्य उपवीती होतें हैं... जब पारस्कर आदि ने कहा कि पतित सावित्रीकों के साथ व्यवहार न करें तो फिर मानना ही पड़ेगा की कलीयुग में (जो परम्परा से यज्ञोपवीत और वेदाध्ययन रहित हो)ऐसे पतितों की सन्तान चाहे ब्राह्मणी (क्षत्रीया,और वैश्या) के साथ गृह्यसूत्रों के कहने पर भी पतित व्रात्य (ब्राह्मण की पुत्री) तथा क्षत्रीया वैश्या कन्या के साथ ब्राह्मण विवाह नहीं कर सकता है..
क्योंकि--- पारस्करादि सूत्रों का #तिस्रो_ब्राह्मणस्य_वर्णानुपूर्व्येण ||१/४/८|| प्रथम काण्ड की चौथी कण्डिका का नवमे सूत्र के मत का यथा योग्य निर्णय #पारस्कर_गृह्यसूत्र के द्वितीय काण्ड की पञ्चमी कण्डिका का ४० वाँ सूत्र आदेश से होता है.. कि इन लोगों के साथ किसी भी तरह (विवाहादि सम्बन्ध) आदि का व्यवहार न करे.
मन्वपि-- #नेतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि_हि_कर्हिचित्||
#ब्राह्मान्यौनांश्च_संबन्धान्नाचरेद्_ब्राह्मणः_सह||२/४०||
ब्राह्मण को चाहिये कि वह इन पतित व्रात्यों के साथ आपत्तिमें भी विद्याध्ययन अथवा विवाह आदि सम्बन्ध न करें........
ऊपर कही गयी अवधि के बाद वे पतितसावित्री वाले हो जातें है....
#नैनानुपनयेयुर्नाध्यापयेयुर्न_याजयेयुर्न_चैभिर्व्यवहरेयुः ||पा-गृ२/५/४०||
इन पतितसावित्री वालें कुमारों का कोई आचार्य ! उपनयन -संस्कार न कराए, इन्हें वेदादि न पढाए, इनसे यज्ञादि न कराए और इन लोगों के साथ किसी भी तरह (विवाहादि सम्बन्ध) आदि का व्यवहार न करे.
#त्रिपुरुषं_पतितसावित्रीकाणामत्ये_संस्कारो_नाध्यापनं_च || २/५/४२||
तीन पीढ़ी तक या कईं पैढ़यों से यदि सावित्री का पतन हो अर्थात् (नियतकाल में उपनयन से उपदेश न हो), तो ऐसे व्यक्ति की सन्तान का न तो कोई संस्कार होगा और न वेदादि का अध्यापन | यथार्थ कि कुमार के पिता,पितामह एवं प्रपितामह पतितसावित्रीक हो जाय तो न तो उसका(कुमारका) कोई संस्कार किया जाय और न वेदादि का अध्यापन ही..
आज के कलियुग में बहोत कम क्षत्रिय और वैश्य उपवीती होतें हैं... जब पारस्कर आदि ने कहा कि पतित सावित्रीकों के साथ व्यवहार न करें तो फिर मानना ही पड़ेगा की कलीयुग में (जो परम्परा से यज्ञोपवीत और वेदाध्ययन रहित हो)ऐसे पतितों की सन्तान चाहे ब्राह्मणी (क्षत्रीया,और वैश्या) के साथ गृह्यसूत्रों के कहने पर भी पतित व्रात्य (ब्राह्मण की पुत्री) तथा क्षत्रीया वैश्या कन्या के साथ ब्राह्मण विवाह नहीं कर सकता है..
क्योंकि--- पारस्करादि सूत्रों का #तिस्रो_ब्राह्मणस्य_वर्णानुपूर्व्येण ||१/४/८|| प्रथम काण्ड की चौथी कण्डिका का नवमे सूत्र के मत का यथा योग्य निर्णय #पारस्कर_गृह्यसूत्र के द्वितीय काण्ड की पञ्चमी कण्डिका का ४० वाँ सूत्र आदेश से होता है.. कि इन लोगों के साथ किसी भी तरह (विवाहादि सम्बन्ध) आदि का व्यवहार न करे.
मन्वपि-- #नेतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि_हि_कर्हिचित्||
#ब्राह्मान्यौनांश्च_संबन्धान्नाचरेद्_ब्राह्मणः_सह||२/४०||
ब्राह्मण को चाहिये कि वह इन पतित व्रात्यों के साथ आपत्तिमें भी विद्याध्ययन अथवा विवाह आदि सम्बन्ध न करें........
यदि इन पतित सावित्रिक या व्रात्यों ने अपने विवाहसे पहले या अपनी पत्नी का प्रजोत्पत्तिनिमित्त-गर्भाधान से पहले व्रात्यप्रायश्चित्त सहित उपनयन-संस्कार करवाया हो तो उनकें उत्पन्न बालकों द्विजोत्पन्न कहलायेंगे, इन बालकों का उपनयन वर्णोचित काल में तथा उत्पन्न कन्या का विवाह यथोचित अधिकारक्षेत्र के द्विजपुत्रों(ब्राह्मण+ब्राह्मणी, ब्राह्मण + व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्ना क्षत्रिया,ब्राह्मण +व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्ना वैश्या, व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्न क्षत्रिय + व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्ना क्षत्रिया वा व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्ना वैश्या, व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्न वैश्य+ व्रात्यशुद्धि पूर्वक द्विजोत्पन्ना वैश्या) से हो सकता हैं...
परंतु इन व्रात्यों ने गर्भाधानके बाद या संतानोत्पत्ति के बाद व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन किया हो तो उत्पन्न बालकों व्रात्योत्पन्न-भूर्जकण्टक कहे जातें हैं 👉 "( #व्रात्यात्तु_जायते_विप्रात्पापात्मा_भूर्जकण्टकः ||मनुः १०/२१||)"
परंतु इन व्रात्यों ने गर्भाधानके बाद या संतानोत्पत्ति के बाद व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन किया हो तो उत्पन्न बालकों व्रात्योत्पन्न-भूर्जकण्टक कहे जातें हैं 👉 "( #व्रात्यात्तु_जायते_विप्रात्पापात्मा_भूर्जकण्टकः ||मनुः १०/२१||)"
================== व्रात्य क्षत्रिय से उत्पन्न बालकों को निच्छिवी या झल्ल, मल्ल, नट, करण, खस या द्रविड कहें जातें हैं 👉
"( झल्लो मल्लश्च राजन्याद् व्रात्यान्निच्छिविरेव च | नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड एव च || मनुः १०/२२||)"
================== व्रात्य वैश्योत्पन्न बालकों को सुधन्वाचार्य या कारुष, विजन्मा, मैत्र, सात्वत कहे जातें हैं 👉
"( वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च | कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च ||मनुः १०/२३||)"
यथा - इन व्रात्यों ने अपनी पत्नी में गर्भाधान के बाद अपना व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन-संस्कार करवाया हो और उत्पन्न बालक हो तो उनका भी व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन उक्तकाल में हो सकता हैं परंतु उत्पन्ना-कन्या का विवाह व्रात्य में ही हो सकता हैं..
वर्णों के परस्पर व्यभिचार, जिस वर्ण में काल-अनुसार जिसका विवाह शास्त्र विरुद्ध कहा हो तथा सगोत्रादि अयोग्य विवाहों, और अधिकार क्षेत्र के उपनयनादि-संस्कार(उपनयनोचित नित्य-स्वकर्म)त्याग से वर्णसंकरों जन्मतें हैं 👉 "( व्यभिचारेण वर्णानामवेद्यावेदनेन च | स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकराः ||मनुः १०/२४||)"
गीता में भी कहा हैं -- > कुल का नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होने से सारे कुल को सब ओर से पाप दबा लेता हैं,अयोग्य संबन्ध आदि के पाप से घिर जाने पर कुल की स्त्रीयाँ दूषित हो जाती हैं, स्त्रियों के दूषित होनेपर उस कुल में वर्णसंकरता आ जाती हैं | वह वर्णसंकरता उन कुलघातियों और कुलको नरक में ले जानेका कारण बनती हैं, क्योंकि उनसे पितरलोग पिण्डदान और तर्पण आदि की जलक्रिया नष्ट हो जाने के कारण अपने स्थान से पतित हो जातें हैं | वर्णसंकरता को उत्पन्न करनेवाले उपर्युक्तदोषों से उन कुलघातियों के सनातन-कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जातें हैं | जिनके कुलधर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे मनुष्यों का निस्सन्देह नरक में वास होता हैं 👉 "(कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः | धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युतः|| अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः | स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः || संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च | पतन्ति पितरो येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः || दोषेरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंस्कारकारकैः | उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः || उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां मनुष्याणां जनार्दन | नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||१/४०-४४||)"
"( झल्लो मल्लश्च राजन्याद् व्रात्यान्निच्छिविरेव च | नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड एव च || मनुः १०/२२||)"
================== व्रात्य वैश्योत्पन्न बालकों को सुधन्वाचार्य या कारुष, विजन्मा, मैत्र, सात्वत कहे जातें हैं 👉
"( वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च | कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च ||मनुः १०/२३||)"
यथा - इन व्रात्यों ने अपनी पत्नी में गर्भाधान के बाद अपना व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन-संस्कार करवाया हो और उत्पन्न बालक हो तो उनका भी व्रात्यप्रायश्चित्त पूर्वक उपनयन उक्तकाल में हो सकता हैं परंतु उत्पन्ना-कन्या का विवाह व्रात्य में ही हो सकता हैं..
वर्णों के परस्पर व्यभिचार, जिस वर्ण में काल-अनुसार जिसका विवाह शास्त्र विरुद्ध कहा हो तथा सगोत्रादि अयोग्य विवाहों, और अधिकार क्षेत्र के उपनयनादि-संस्कार(उपनयनोचित नित्य-स्वकर्म)त्याग से वर्णसंकरों जन्मतें हैं 👉 "( व्यभिचारेण वर्णानामवेद्यावेदनेन च | स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकराः ||मनुः १०/२४||)"
गीता में भी कहा हैं -- > कुल का नाश होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होने से सारे कुल को सब ओर से पाप दबा लेता हैं,अयोग्य संबन्ध आदि के पाप से घिर जाने पर कुल की स्त्रीयाँ दूषित हो जाती हैं, स्त्रियों के दूषित होनेपर उस कुल में वर्णसंकरता आ जाती हैं | वह वर्णसंकरता उन कुलघातियों और कुलको नरक में ले जानेका कारण बनती हैं, क्योंकि उनसे पितरलोग पिण्डदान और तर्पण आदि की जलक्रिया नष्ट हो जाने के कारण अपने स्थान से पतित हो जातें हैं | वर्णसंकरता को उत्पन्न करनेवाले उपर्युक्तदोषों से उन कुलघातियों के सनातन-कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जातें हैं | जिनके कुलधर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे मनुष्यों का निस्सन्देह नरक में वास होता हैं 👉 "(कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः | धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युतः|| अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः | स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः || संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च | पतन्ति पितरो येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः || दोषेरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंस्कारकारकैः | उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः || उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां मनुष्याणां जनार्दन | नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ||१/४०-४४||)"
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उन्हीं भाईंयों का कन्यादान में अधिकार हैं जिनका (उपनयन-संस्कार) हो चुका हो, याज्ञवल्क्य ने कहा हैं कि - जिन भाईंयों का उपनयन-संस्कार न हुआ हो उनका संस्कार प्रथम संस्कृत भाई करें,बहनों का भी विवाह अपने अंश में से चतुर्थ अंश को देकर करे, यथा नीचे दिये हुए श्लोक में "च" कार से पूर्वसंस्कृत पद की अनुवृत्ति होने से विवाहयोग्य द्रव्य देने में या अपने अंश के तुल्य वा चौथाई द्रव्य देने में असमर्थ संस्कृत का ग्रहण हो तो माताओं का कन्यादान में अधिकार हैं भाईयों का नहीं.. इस तरह कन्यादान देनेवाला अधिकारी समग्र विवाह-संस्कार में अपना द्रव्यलगाकर कन्यादान करें यथार्थ होता हैं, अतः परधन से कन्यादान व्यर्थ हुआ जानें.. 👉"( असंस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वंसंस्कृतैः | भगिन्यश्च निजादंशाद्दत्वांशं तु तुरीयकम् ||याज्ञवल्क्यः|| #अत्र चकारेण पूर्वसंस्कृतैरित्यस्यानुवृत्ते #र्विवाहपर्याप्तद्रव्यदाने स्वांशसमांशचतुर्थभागदाने वा संस्कृतग्रहणं व्यर्थं स्यात् | तेनानुपनीत भ्रातृमात्रादिसत्त्वे मात्रादेरेवधिकारो - न - भ्रातुरित्युक्तम् ||सम्बन्ध तत्त्वे || )"
उन्हीं भाईंयों का कन्यादान में अधिकार हैं जिनका (उपनयन-संस्कार) हो चुका हो, याज्ञवल्क्य ने कहा हैं कि - जिन भाईंयों का उपनयन-संस्कार न हुआ हो उनका संस्कार प्रथम संस्कृत भाई करें,बहनों का भी विवाह अपने अंश में से चतुर्थ अंश को देकर करे, यथा नीचे दिये हुए श्लोक में "च" कार से पूर्वसंस्कृत पद की अनुवृत्ति होने से विवाहयोग्य द्रव्य देने में या अपने अंश के तुल्य वा चौथाई द्रव्य देने में असमर्थ संस्कृत का ग्रहण हो तो माताओं का कन्यादान में अधिकार हैं भाईयों का नहीं.. इस तरह कन्यादान देनेवाला अधिकारी समग्र विवाह-संस्कार में अपना द्रव्यलगाकर कन्यादान करें यथार्थ होता हैं, अतः परधन से कन्यादान व्यर्थ हुआ जानें.. 👉"( असंस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वंसंस्कृतैः | भगिन्यश्च निजादंशाद्दत्वांशं तु तुरीयकम् ||याज्ञवल्क्यः|| #अत्र चकारेण पूर्वसंस्कृतैरित्यस्यानुवृत्ते #र्विवाहपर्याप्तद्रव्यदाने स्वांशसमांशचतुर्थभागदाने वा संस्कृतग्रहणं व्यर्थं स्यात् | तेनानुपनीत भ्रातृमात्रादिसत्त्वे मात्रादेरेवधिकारो - न - भ्रातुरित्युक्तम् ||सम्बन्ध तत्त्वे || )"
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री,उमरेठ || शेष पुनः
#षोडशसंस्काराः(विवाह)#खंड_१७१=}->
जहाँ कन्या स्वयं अधिकारक्षेत्र के वर्ण के वर को वरे वहाँ कन्या को नान्दीश्राद्ध करना चाहिये इस तरह माता कन्यादान करे तो माता को नान्दीश्राद्ध करना चाहिये- वहाँ प्रधान संकल्प मात्र को करके दूसरे श्राद्ध के सम्बन्धित षोडश व सप्त- मातृकापूजा तथा श्राद्ध ब्राह्मण से करायें...👉 "( कन्या स्वयंवरे मातुर्दातृत्वे च- ताभ्यामेव #नान्दीश्राद्धं कार्यम् / तत्र च स्वयं प्रधानसंकल्पमात्रं कृत्वाऽन्य ब्राह्मणद्वारा कारयेदिति || प्रयोग पारि०||)"
वर को उपनीत-भाईयों के न होनेपर स्वयं नान्दीश्राद्ध करें, वर की माता न करे, पुत्रों के विद्यमान होतें हुए अन्य से "स्वधा" न करायें इस प्रकार निषेध के कारण और यज्ञोपवीत से पुत्रों को अधिकार होने से माता का अधिकार नहीं हैं 👉 "( वरस्तु संस्कृतभ्रात्राद्यभावे स्वयमेव नान्दीश्राद्धं कुर्यात् / न माता / पुत्रेषु विद्यमानेषु नान्यं वै कारयेत्स्वधाम् इति निषेधात् / उपनयनेन कर्माधिकारस्य जातत्वाच्च ||पृथ्विचन्द्रोदयः ||)"
वर को उपनीत-भाईयों के न होनेपर स्वयं नान्दीश्राद्ध करें, वर की माता न करे, पुत्रों के विद्यमान होतें हुए अन्य से "स्वधा" न करायें इस प्रकार निषेध के कारण और यज्ञोपवीत से पुत्रों को अधिकार होने से माता का अधिकार नहीं हैं 👉 "( वरस्तु संस्कृतभ्रात्राद्यभावे स्वयमेव नान्दीश्राद्धं कुर्यात् / न माता / पुत्रेषु विद्यमानेषु नान्यं वै कारयेत्स्वधाम् इति निषेधात् / उपनयनेन कर्माधिकारस्य जातत्वाच्च ||पृथ्विचन्द्रोदयः ||)"
*पिता स्वयं कन्यादान करैं वा पिता की अनुमति से भाई करैं, नाना, मामा, सकुल्या वा बांधव करैं -- इन सबके अभाव में #सावधान हो तो माता करैं यदि वह सावधान न हो तो सजातीय मनुष्य को कन्यादान करना चाहिये, पिता के वंशी को सकुल्य और माता माता के वंशी को बाँधव कहें हैं 👉 "( पिता दद्यात्स्वयं कन्यां भ्राता वानुमते पितुः | मातामहो मातुलश्च सकुल्यो बान्धवस्तथा || माता त्वभावे सर्वेषां प्रकृतौ यदि वर्तते | तस्यामप्रकृतिस्थायां कन्यां दद्युः स्वजातयः || सकुल्यः पितृपक्षीयो बान्धवो मातृवंशजः || माधवीयेऽपरार्के च नारदः ||)"
अपने से उत्पन्न हुई कन्या को पिता स्वयं कन्यादान करे और पिता न हो तो अपने बाँधव (पिता के),दे यदि वह भी न हो तो नाना विवाहै अथवा धर्म से उत्पन्न हुई कन्या का माता कन्यादान करें और औरसी से भिन्न क्षेत्रज कन्या का मातामह वा मामा कन्यादान करें, इस प्रकार औरसी कन्या के दान में पिता आदि का होते अनुमति बिना और का अधिकार नहीं हैं 👉 "( स्वयमेवौरसीं दद्यात्पित्रभावे स्वबान्धवः | मातामहस्ततोन्यां हि माता वा धर्मजां सुताम् || ततोन्यामौरसीभिन्नां धर्मजां नियोगात् क्षेत्रजां मातामहो माता मातुलो वा दद्यात् | तेनौरसीदाने पितृबन्धुषु सत्सु मातामहादीनां नाधिकारः अनुमतिं विना ||मदन पारि० कात्यायनः)"
जब कोई देनेवाला न हो तो कन्या राजा के पास चली जाय | इस प्रकार राजा कन्यादान का अधिकारी हुआ 👉 "( #यदा_तु_नैव_कश्चित्स्यात्कन्या_राजानमाव्रजेत् ||मनुः||)"
#परकीयकन्यादान_विशेषः - पराई कन्या के दान में सुवर्ण देकर दूसरे की कन्या को अपनी करके धर्म की विधि से अपने गोत्र(अनाथी के लिए) में भी कन्या का दान हो सकता हैं 👉 "( आत्मीकृत्य सुवर्णेन परकीयां तु कन्यकाम् | धर्मेण विधिना दानमसगोत्रोपि युञ्जते || मदन रत्ने/ स्कन्द पु०||)"
गौरी (८ वर्ष की कन्या #अष्टवर्षाभवेत्गौरी)का दान देनेवाला स्वर्गलोक में, रोहिणी (९ वर्ष की कन्या #नववर्षा_च_रोहिणी) का दाता वैकुण्ठ में , कन्या(१०वर्ष से ११ वर्षान्त #दशवर्षा_भवेत्_कन्या )का दाता ब्रह्मलोक में तथा रजस्वला( #द्वादशे_वृषली_भवेत्
#द्वादशे_तु_रजस्वला = (जन्मतो गर्भाधानाद्वा इत्यपि पराशरमाधवीय वचनेन) गर्भ से ११वर्षपूर्णान्त के बाद बारहवर्ष की कन्या)का दाता रौरव नरक में जाता हैं 👉 "( गौरीं ददन्नाकपृष्ठे वैकुण्ठं रोहिणीं ददत् | कन्यां ददद्ब्रह्मलोकं रौरवं तु रजस्वलाम् ||)" कन्यादान होता हुआ सुनकर पितरों पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक की ओर प्रयाण करतें हैं 👉 "( श्रृत्वा कन्या प्रदानं च पितरः प्रपितामहाः | विमुक्ताः सर्वपापेभ्यो ब्रह्मलोके व्रजन्ति ते || यजुः शाखीय कर्म०||)" संकल्पेपि भिन्नता भवति 👉 गौरीदाने- समस्त पितृणां अक्षय्य स्वर्गलोकवाप्त्यादि कामः / रोहिणीदाने - समस्त पितृणां अक्षय्य वैकुण्ठलोकवाप्त्यादि कामः/ कन्यादाने- समस्त पितृणां अक्षय्य ब्रह्मलोकलोकवाप्त्यादि कामः / प्रायश्चित्त पूर्वकं वृषलीदाने -- केवल - अस्याः रोहिण्याः अनेन वरेण धर्मप्रजया उभयोः वंशवृद्ध्यर्थं (पितृणां न स्वर्गलोक,वैकुण्ठ,ब्रह्मलोकवाप्त्यादयः).
#द्वादशे_तु_रजस्वला = (जन्मतो गर्भाधानाद्वा इत्यपि पराशरमाधवीय वचनेन) गर्भ से ११वर्षपूर्णान्त के बाद बारहवर्ष की कन्या)का दाता रौरव नरक में जाता हैं 👉 "( गौरीं ददन्नाकपृष्ठे वैकुण्ठं रोहिणीं ददत् | कन्यां ददद्ब्रह्मलोकं रौरवं तु रजस्वलाम् ||)" कन्यादान होता हुआ सुनकर पितरों पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक की ओर प्रयाण करतें हैं 👉 "( श्रृत्वा कन्या प्रदानं च पितरः प्रपितामहाः | विमुक्ताः सर्वपापेभ्यो ब्रह्मलोके व्रजन्ति ते || यजुः शाखीय कर्म०||)" संकल्पेपि भिन्नता भवति 👉 गौरीदाने- समस्त पितृणां अक्षय्य स्वर्गलोकवाप्त्यादि कामः / रोहिणीदाने - समस्त पितृणां अक्षय्य वैकुण्ठलोकवाप्त्यादि कामः/ कन्यादाने- समस्त पितृणां अक्षय्य ब्रह्मलोकलोकवाप्त्यादि कामः / प्रायश्चित्त पूर्वकं वृषलीदाने -- केवल - अस्याः रोहिण्याः अनेन वरेण धर्मप्रजया उभयोः वंशवृद्ध्यर्थं (पितृणां न स्वर्गलोक,वैकुण्ठ,ब्रह्मलोकवाप्त्यादयः).
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री,उमरेठ || शेष पुनः
#षोडशसंस्काराः(विवाह)#खंड_१७२=}-×>
#वैधव्यादिदोषहर_विष्णुमूर्तिदान विधान-
कन्या के विवाह से पूर्व चन्द्रतारा के बल से युक्त विवाहोचित मुर्हूत में यह विधान करें 👉 "( विवाहात्पूर्वकाले च चन्द्रताराबलान्विते | विवाहोक्ते व तां दद्यात् #वैधव्यादि निवृत्तये || ब्राह्मणं साधुमामन्त्र्य संपूज्य विविधार्हणैः | तस्मै दद्याद्विधानेन विष्णोर्मूति चतुर्भुजाम् || सूर्यारुण संवादः ||)"
कन्या के विवाह से पूर्व चन्द्रतारा के बल से युक्त विवाहोचित मुर्हूत में यह विधान करें 👉 "( विवाहात्पूर्वकाले च चन्द्रताराबलान्विते | विवाहोक्ते व तां दद्यात् #वैधव्यादि निवृत्तये || ब्राह्मणं साधुमामन्त्र्य संपूज्य विविधार्हणैः | तस्मै दद्याद्विधानेन विष्णोर्मूति चतुर्भुजाम् || सूर्यारुण संवादः ||)"
श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रयुक्त करके उसकी अनेक प्रकारों से पूजा करके विधि से दक्षिणा सहित इस प्रकार की विष्णुमूर्तिदान करें कि जिसके चार भुजा हो, अतिशुद्ध वर्णवाले सुवर्ण से अथवा अपनी शक्ति के अनुसार धन से निर्मित की हो, सुन्दर शंख,चक्र,गदा, कमल, पीतवस्त्र, कमल की माला को धारण कर रही हो 👉 "( शुद्धवर्ण सुवर्णेन वित्तशक्त्याथवा पुनः | निर्मितां रुचिरां शंखगदाचक्राब्ज संयुताम् || दधानां वाससी पीते कुमुदोत्पलमालिनीम् | सदक्षिणां च तां दद्यान्मन्त्रमेनमुदीरयेत् ||)"
#विधान-- शुद्धवर्ण सुवर्णेन वित्तशक्त्याथवा स्वर्णकारेण रचितां चतुर्भूजां शङ्खचक्रगदापद्मोपेतां पद्ममालालंकृतां सलक्षणां विष्णुमूर्तिमानीय, उक्ते मुर्हूते ब्राह्मणं निमंत्र्य - #देशकालौ संकीर्तनान्ते - मम अस्याः कन्यायाः पुनर्भूत्व-वैधव्यादिदोषापनुत्तये च सकलसौभाग्यवत् पुत्रपौत्राद्यविच्छिन्न संतति फलकामः सूर्यारुणसंवादोक्तरित्या सविधिना ब्राह्मणाय कन्याद्वारा विष्णुमूर्तिदानं करिष्ये...
#स्वयंकन्या करोति तदा - मम पुनर्भूत्व-वैधव्यादिदोषापनुत्तये च सकलसौभाग्यवत् पुत्रपौत्राद्यविच्छिन्न संतति फलकामः सूर्यारुणसंवादोक्तरित्या सविधिना ब्राह्मणाय विष्णुमूर्तिदानमहं करिष्ये...
तत्रादौ गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता विष्णुः) प्रतिग्रहितृ-ब्राह्मण,आचार्य वरणं च करिष्ये.. #प्रतिग्रहीतृब्राह्मण_वरणम् - ___ गोत्रस्य __ शर्माहं(वर्माहं/गुप्तोहं) वा __ गोत्रायाः अमुकी कन्याहम् ____ गोत्रं___शर्माणं ब्राह्मणं वैधव्यादिदोषापनुत्तये विष्णुमूर्तिदान प्रतिग्रहार्थं त्वामहं वृणे... प्रतिग्रहकर्ता-ब्राह्मणः वृतोस्मिति प्रतिवचनं दद्यात्
वृताय ब्राह्मणाय एकस्मिन् पात्रे गंधपुष्पाक्षतयुक्तैर्जलं पादप्रक्षालनार्थं दद्यात् (स्वयं कन्यायजमाना पक्षे -- प्रतिग्रहकर्ता ब्राह्मण स्वयमेवपादप्रक्षालनं स्वशाखानुसारेण करोति) ... इदं ते पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनम् - गंध,पुष्प,पुष्पमाला सदक्षिणादिभिश्च संतोष्य - साचार्यं प्रार्थयेत् = विष्णुमूर्तिदानविधोनस्य भवन्तोभ्यर्चिता मया / सुप्रसन्नैः प्रकर्तव्यं विधानं विधिपूर्वकम् ||
नूतनविष्णोमूर्तेः अग्न्युत्तारणपूर्वकं प्रतिष्ठां सम्पाद्य षोडशोपचारैश्च सम्पूज्य || प्रार्थयेत् -- मंत्रहिनं क्रियाहिनं०० ||
#स्वयंकन्या करोति तदा - मम पुनर्भूत्व-वैधव्यादिदोषापनुत्तये च सकलसौभाग्यवत् पुत्रपौत्राद्यविच्छिन्न संतति फलकामः सूर्यारुणसंवादोक्तरित्या सविधिना ब्राह्मणाय विष्णुमूर्तिदानमहं करिष्ये...
तत्रादौ गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता विष्णुः) प्रतिग्रहितृ-ब्राह्मण,आचार्य वरणं च करिष्ये.. #प्रतिग्रहीतृब्राह्मण_वरणम् - ___ गोत्रस्य __ शर्माहं(वर्माहं/गुप्तोहं) वा __ गोत्रायाः अमुकी कन्याहम् ____ गोत्रं___शर्माणं ब्राह्मणं वैधव्यादिदोषापनुत्तये विष्णुमूर्तिदान प्रतिग्रहार्थं त्वामहं वृणे... प्रतिग्रहकर्ता-ब्राह्मणः वृतोस्मिति प्रतिवचनं दद्यात्
वृताय ब्राह्मणाय एकस्मिन् पात्रे गंधपुष्पाक्षतयुक्तैर्जलं पादप्रक्षालनार्थं दद्यात् (स्वयं कन्यायजमाना पक्षे -- प्रतिग्रहकर्ता ब्राह्मण स्वयमेवपादप्रक्षालनं स्वशाखानुसारेण करोति) ... इदं ते पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनम् - गंध,पुष्प,पुष्पमाला सदक्षिणादिभिश्च संतोष्य - साचार्यं प्रार्थयेत् = विष्णुमूर्तिदानविधोनस्य भवन्तोभ्यर्चिता मया / सुप्रसन्नैः प्रकर्तव्यं विधानं विधिपूर्वकम् ||
नूतनविष्णोमूर्तेः अग्न्युत्तारणपूर्वकं प्रतिष्ठां सम्पाद्य षोडशोपचारैश्च सम्पूज्य || प्रार्थयेत् -- मंत्रहिनं क्रियाहिनं०० ||
कन्याहस्ताभ्यां प्रतिग्रहीत्रे ब्राह्मणाय मूर्तिदानम् --> जो मैने पूर्वजन्म में विष उपविष तथा शस्त्र आदि के समागम में पति को मारा हैं, उससे प्राप्त होनेवाला दुःख और धन के नाश करनेवाले महाघोर अपयश के तथा वैधव्य आदि अत्यन्त दुःखों के समूह के नाश के निमित्त तथा सुख के प्राप्ति निमित्त बहुत सौभाग्य की प्राप्ति के निमित्त इस सुवर्ण से निर्मित हुई महाविष्णु की प्रतिमा को हे ब्राह्मण ! शक्ति के अनुसार देती हूँ, इस दिन से अब मैं पापों से छूटती हूँ इस प्रकार (हृदय से सपश्चाताप करतें हुएँ) मंत्रों को तीनबार जप करतें हुए विष्णुप्रतिमा ब्राह्मण को दान दे दैं..👉 *"( #यन्मया_प्राञ्चि_जनुषि_घ्नन्त्या_पतिसमागमम् | #विषोपविषशस्त्राद्यैर्हतो_वातिविरक्तया || #प्राप्यमानं_महाघोरं_यशः_सौख्यधनापहम् | #वैधव्याद्यतिदुःखौघनाशाय_शुभलब्धये || #बहुसौभाग्यलब्ध्यै_च_महाविष्णोरिमां_तनुम् | #सौवर्णीं_निर्मितां_शक्त्या_तुभ्यं_संप्रददे_द्विज || अनघाद्याहं अस्मि || त्रिवारं जपेत् ||)"*
प्रतिग्रहकर्ता-ब्राह्मण - #एवमस्तु अपि त्रिवारं वदेत् || कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा ० यस्यस्मृत्या च नामोक्त्या ० अनेन सविधिना विष्णुमूर्तिदान कर्मणा कृतेन पापहा महाविष्णुः प्रीयताम् |
इस प्रकार ब्राह्मण के प्रत्यभिवाद( आशीर्वाद याचना की प्रतिपूर्ति के वचन) को स्वीकार करके अपने घर में प्रविष्ट हो..👉 "( एवमस्त्विति तस्योक्तिं गृहित्वा स्वगृहं विशेत् || *#अश्वत्थवृक्षसेचनं यावज्जीवं कुर्यात् ||* इति सूर्यारुण संवादोक्त विष्णुमूर्तिदान विधानम् || कुंभ विवाह हो या विष्णुमूर्तिदान-विधान के बाद कन्या को जीवनपर्यन्त पीपल के वृक्ष को जल से सिंचना चाहिये...
इस प्रकार ब्राह्मण के प्रत्यभिवाद( आशीर्वाद याचना की प्रतिपूर्ति के वचन) को स्वीकार करके अपने घर में प्रविष्ट हो..👉 "( एवमस्त्विति तस्योक्तिं गृहित्वा स्वगृहं विशेत् || *#अश्वत्थवृक्षसेचनं यावज्जीवं कुर्यात् ||* इति सूर्यारुण संवादोक्त विष्णुमूर्तिदान विधानम् || कुंभ विवाह हो या विष्णुमूर्तिदान-विधान के बाद कन्या को जीवनपर्यन्त पीपल के वृक्ष को जल से सिंचना चाहिये...
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री, उमरेठ || शेष पुनः
कुम्भविवाह अथवा यह विधान दौनों में से एक -->
कुम्भविवाह में ११ वर्ष से अधिकवय की कन्या के लिए विधान - प्रथम भुवनेश्वरीशांतिविशेष, #कन्याके #अतिक्रान्त हुए #कर्णवेधान्त तक के संस्कारों का #अनादिष्ट प्रायश्चित्तहोम और प्रायश्चित्त स्विकरण, विष्णुवरप्रतिनिधिरूप ब्राह्मण द्वारा "कुष्मांडमंत्रों से " वृषलीपतित्वदोष निवृत्त्यर्थ आज्य से विट् नामाग्नि में होम, ऋतुसंख्यांक गणनानुसार गौदान वा अशक्तौ एकामपि वा तन्मूल्य दान, बाद में कुम्भविधान के संकल्प में कन्या की जगह "वृषली-कन्या" उच्चारण यह सब सामान्य आचार्योंके लिये पद्धति सानुकुल और सुगम नहीं रहती, अतः यह #विष्णुप्रतिमादान ही सुगम विधान हैं..
कुम्भविवाह में ११ वर्ष से अधिकवय की कन्या के लिए विधान - प्रथम भुवनेश्वरीशांतिविशेष, #कन्याके #अतिक्रान्त हुए #कर्णवेधान्त तक के संस्कारों का #अनादिष्ट प्रायश्चित्तहोम और प्रायश्चित्त स्विकरण, विष्णुवरप्रतिनिधिरूप ब्राह्मण द्वारा "कुष्मांडमंत्रों से " वृषलीपतित्वदोष निवृत्त्यर्थ आज्य से विट् नामाग्नि में होम, ऋतुसंख्यांक गणनानुसार गौदान वा अशक्तौ एकामपि वा तन्मूल्य दान, बाद में कुम्भविधान के संकल्प में कन्या की जगह "वृषली-कन्या" उच्चारण यह सब सामान्य आचार्योंके लिये पद्धति सानुकुल और सुगम नहीं रहती, अतः यह #विष्णुप्रतिमादान ही सुगम विधान हैं..
#षोडशसंस्काराः(विवाह)#खंड_१७३=}->
विवाह-निश्चय करनेपर यदि किसी की मृत्यु हो जाय तो विवाह न करे, करने से कन्या विधवा होती हैं 👉 "( कृते तु निश्चये पश्चान्मृत्युर्भवति कस्यचित् | तदा न मङ्गलं कुर्यात् कृते वैधव्यमाप्नुयात् ||ज्योतिर्नि० गर्गः||)"
वधू और वर के विवाह का निश्चय किये उपरान्त वधू अथवा वर के घर किसी मनुष्य की मृत्यु हो जाय तो उस समय बुद्धिमान् ! विवाह न करें 👉 "( वधूवरार्थं घटिते सुनिश्चिते - वरस्य गेहेप्यथ कन्यकायाः | मृत्युर्यदि स्यान्मनुजस्य कस्यचित् -तदा न कार्यं खलु मङ्गलं बुधैः ||ज्योतिर्मेधातिथिः||)"
वाग्दान(सगाई) के निश्चय होनेपर बाद में किसी सगोत्री मनुष्य की मृत्यु हो जाय तो तब विवाह न करे, कारण कि वह विवाह निश्चय स्त्रीवैधव्यकारी होता हैं 👉 "( कृते वाङ्निश्चये पश्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य गोत्रिणः | तदा न मङ्गलं कार्यं नारीवैधव्यदं ध्रुवम् || स्मृ०चन्द्रि०||)"
वाग्दान के उपरान्त कन्या वा वर के कुल में मृत्यु हो जाय तो उस समय मांगलिक-कर्म न करें, कारण कि वह कुल का नाशक होता हैं 👉 "( वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः | तदोद्वाहो नैव कार्यः स्ववंशक्षयदो यतः ||भृगुः||)"
वर वा वधू का पिता,पितामह,पितामही,माता,मामा,मामी चाचा,चाची सगा-भाई-भाभी, चाचा का पुत्र, विवाहित बहन की मृत्यु "विवाह में" प्रतिकूल समझनी चाहिये 👉 "( वरवध्वोः पिता माता पितृव्यश्च सहोदरः | एतेषां प्रतिकूलं च महाविघ्नप्रदं भवेत् || पिता पितामहश्चैव माता चैव पितामही | पितृव्यस्त्रीसुतो भ्राता भगिनी चाविवाहिता || एभिरत्र विपनैश्च प्रतिकूलं बुधैः स्मृतम् ||शौनकः||)"
वाग्दान के बाद माता वा भाई की मृत्यु हो जाय तो अपने वंश के हित की इच्छावाला विवाह न करैं 👉 "( वाग्दानानन्तरं माता पिता भ्राता विपद्यते | विवाहो नैव कर्तव्यः स्ववंशस्थितिमिच्छता ||मांडव्यः||)"
वाग्दान के बाद जहाँ दोनों कुलों में किसी की मृत्यु हो गई हो तो एकवर्ष से उपरान्त विवाह शुभदायी होता हैं, अर्थात् मृतक की संवत्सरपूर्ण क्रियाओं के बाद 👉 "( वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः | तदा संवत्सरादूर्ध्वं विवाहः शुभदो भवेत् ||मेधातिथिः||)"
प्रतिकूल हो जाय तो तो तीन ऋतुतक अर्थात् छहमास तक मंगल न करें, यह माता के विषय में जानना चाहिये क्योकिं #पितुरब्दशौचं_स्यात्तदर्धं_मातुरेव_च ||स्मृ०र०||
👉 "( प्रतिकूले न कर्तव्यो गच्छेद्यावदृतुत्रयम् ||मेधातिथिः||)"
👉 "( प्रतिकूले न कर्तव्यो गच्छेद्यावदृतुत्रयम् ||मेधातिथिः||)"
पिता के मरणोपरान्त एकवर्ष, माता की मृत्यु में छह मास, स्त्री की मृत्यु में तीन मास और भाई तथा पुत्र की मृत्यु में डेढ़ मासतक प्रतिकूलता(अशौच) रहता हैं और दूसरे सपिंड मनुष्यों का अशौच एक मास तक कहा हैं 👉 "( पितुरब्दमशौचं स्यात्तदर्धं मातुरेव च | मासत्रयं तु भार्यायास्तदर्धं भ्रातृपुत्रयोः || अन्येषां तु सपिण्डानामाशौचं मासमीरितम् ||स्मृति ०रत्ना०||)"
प्रतिकूल के होने पर भी एक महीने के उपरान्त एकमास के बाद करना चाहे तो #विनायकशान्ति तथा गौदान करके फिर वाग्दान पूर्वक विवाह करना चाहिये, इसी प्रकार मेधातिथि ने कहा हैं कि कोई संकट प्राप्त हो तो याज्ञवल्क्य मुनिने गणेश(विनायक)शांति लिखी हैं इसे करके फिर मंगल कार्य को करे..👉 "( प्रतिकूलेपि कर्तव्यो विवाहो मासतः परः | #शान्तिं विधाय गां दत्वा वाग्दानादि चरेत् पुनः ||ज्योतिः प्रकाशे || तथा च -- " #संकटे_समनुप्राप्ते_याज्ञवल्क्येन_योगिना | #शान्तिरुक्ता_गणेशस्य_कृत्वा_तां_शुभमाचरेत् ||मेधातिथिः||)"
तीन पुरुष पर्यन्त सगोत्रियों को प्रतिकूल रहता हैं, इसी प्रकार प्रवेश( वर का विवाह,सप्रवेशगृहवास्तु),निष्क्रमण तथा मुण्डन(चौल या चूडाकरण तथा उपनयन), मण्डन(मण्डप)लड़की के विवाह, में भी प्रतिकूलता जाननी चाहिये, चतुर्थ मनुष्य पर्यन्त के प्रतिकूल में प्रेतकर्म(पिण्डदान आदि द्वादशाहान्त के कर्म) के किये बिना अभ्युदय कर्म को करना नहीं चाहिये, इस प्रकार पाँचवे का प्रतिकूल दोष चोथेतक जानना पाँचवें में निवृत्त हो जाता हैं 👉 "( पुरुषत्रय पर्यन्तं प्रतिकूलं स्वगोत्रिणाम् || प्रवेशान्निर्गमस्तद्वत्तथा मण्डनमुण्डने || प्रेतकर्माण्यनिर्वर्त्य चरेन्नाभ्युदयक्रियाम् || आचतुर्थं ततः पुंसि पञ्चमे शुभदं भवेत् ||मेधातिथिः||)"
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री, उमरेठ|| शेष पुनः
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