समावर्तन

#षोडश_संस्काराः_खंड_१५४~
#समावर्तनम् - समावर्तन विद्याध्ययन का अन्तिम संस्कार हैं | विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के अनन्तर ब्रह्मचारी अपने पूज्य *गुरुजी* की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता हैं *(लौटता हैं)*| इसीलिये इसे समावर्तन-संस्कार कहा जाता हैं | ब्रह्मचर्याश्रम की अवधि कम से कम ४८ वर्ष या प्रतिवेद के १२ तक मानी गई हैं | वर्णाश्रम व्यवस्था एक सुदृढ़ नींव हैं, जिस पर हमारी सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था सुनियोजित हैं | इस ४८ या प्रतिवेद १२/१२ वर्ष की अवधि में वेदों का अध्ययन प्रायः समाप्त हो जाता हैं | यद्यपि किसी एक वेद का अध्ययन समाप्त कर लेने पर भी ब्रह्मचारी गुरुजी के आदेश से अध्ययन समाप्त कर स्नानोपरांत अन्य आश्रमों *(१-गृहस्थाश्रम, * वानप्रस्थाश्रम, संन्यस्ताश्रम)* में प्रवेश पा सकता हैं | *गदाधर* ने अपने भाष्य में कहा हैं- *(दीर्घसत्रं वा एष उपैति यो ब्रह्मचर्यमुपैति)* तात्पर्य यह हैं कि ब्रह्मचर्यव्रत का पालन भी एक दीर्घ यज्ञ ही हैं | इसीलिए सत्रान्त में स्नान आवश्यक माना गया हैं |
*[तीन प्रकार के स्नातक*- *१विद्यास्नातक*-(जो कुमार वेद का अध्ययन तो करता हैं, परन्तु वेद-व्रत का पूरी तरह निर्वाह नहीं कर पाता), *२-व्रतस्नातक*- जो स्नातक व्रतपालन करने पर भी वेद का अन्त नहीं कर पाता) और *३- विद्याव्रतस्नातक*- (जो ब्रह्मचारी निष्ठापूर्वक वेद का अध्ययन करते हुए व्रत का भी निर्वाह करता हैं और उसमें सफल सिद्ध होता हैं) पार०गृ०२/७-८||]
+ गृहस्थ-जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना *समावर्तन-संस्कार* फल हैं | संस्कार विधानानुसार वेद-मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए ८ कलशों से विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता हैं, इसलिये यह वेदस्नान-संस्कार भी कहलाता हैं |
*[ आश्वालायन-स्मृति]* के १४ वें अध्याय में समावर्तन-संस्कार के सम्बन्ध में पाँच प्रामाणिक श्लोक मिलतें हैं, जिसके अनुसार केशान्त-संस्कार के बाद विधिपूर्वक स्नान के अनन्तर वह ब्रह्मचारी वेदविद्याव्रत-स्नातक कहलाता हैं | *शु-यजुर्वेद ५/३ उदुत्तमं* मन्त्र द्वारा वरुणदेव से मौञ्जी-मेखला आदि के त्याग की कामना करते हुए प्रार्थना करतें हैं-- हे वरुणदेव ! आप सभी प्राणीयों को बन्धनों और संतापों से मुक्त करने वाले हैं | हमारे मस्तिष्क और कण्ठ प्रभृति उत्तमाङ्गो तथा कमर आदि निम्न अवयवों में पड़े अपने बन्धनों(ब्रह्मचारी-वेद-व्रत) से हमें छुटकारा दीजिए, जिससे आपराधिक मनोवृत्ति से मुक्त होकर हम अपने अनुष्ठानों को सम्पादित कर सकें | हे अदितिनन्दन वरुणदेव ! आप हमें दैन्यरहित अखण्ड ऐश्वर्य पाने का अधिकारी बना दैं | *ऋग्वेद १/२५/२१*- में यह भाव इस तरह बताया हैं - हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं ऊर्ध्वभाग के मौञ्जी, उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूतकी मेखला तथा उपवीत पहननें की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें | इसके बाद गुरुजन घर आते समय उसे लोक-परलोक-हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते हैं---
*सत्यं वद* - तुम सत्य बोलो | *धर्मं चर*- धर्मका आचरण करो | *स्वाध्यायान्मा प्रमदः*- स्वाध्याय से कभी न चूको | *आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यच्छेत्सीः*- आचार्य के लिये दक्षिणा के रूप में वाञ्छित धन लाकर (दो; फिर उनकी आज्ञा से गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करके) संतान-परम्परा को (चालू रखो, #दशास्यां_पुत्रान् ||अथर्व०|| दशपुत्रों उसका) उच्छेद न करना | *सत्यान्न प्रमदितव्यम्*- (तुमको) सत्य से कभी नहीं डिगना चाहिये | *धर्मान्न प्रमदितव्यम्*- धर्म से नहीं डिगना चाहिये | *कुशलान्न प्रमदितव्यम्*- शुभ कर्मों से कभी नहीं चूकना चाहिये | *भूत्यै न प्रमदितव्यम्*- उन्नति के साधनों से कभी नहीं चूकना चाहिये | *स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्*- वेदों के पढ़ने और पढ़ाने में कभी भूल नहीं करनी चाहिये | *देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्*- देवकार्य से और पितृकार्य से कभी नहीं चूकना चाहिये |
*मातृदेवो भव* - तुम माता में भगवद्बुद्धि करनेवाले बनो | *पितृदेवो भव*- पिताको भगवद्रूप समझने वाले होओ | *आचार्यदेवो भव*- आचार्य को देवरूप समझने वाले बनो | *अतिथिदेवो भव*- अतिथि को देवतुल्य समझने वाले होओ | *यान्यनवद्यानि कर्माणि - तानि सेवितव्यानि*- जो-जो निर्दोष (धर्मयुक्त) कर्म हैं, उन्हीं का तुम्हें सेवन करना चाहिये | *नो इतराणि*- दूसरे (दोषयुक्त अधर्म के) कर्मों का कभी आचरण नहीं करना चाहिये | *यान्यस्माकं सुचरितानि- तानि त्वयोपास्यानि- नो इतराणि*- हमारे (आचरणों में से भी) जो-जो अच्छे आचरण हैं, उनका ही तुमको सेवन करना चाहिये, दूसरों का कभी नहीं | *ये के चास्मच्छ्रेयाँ सो ब्राह्मणाः - तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्*- जो कोई भी अपने से श्रेष्ठ (गुरुजन एवं) ब्राह्मण आयें, उनको तुम्हे आसनदान आदि के द्वारा सेवा करके विश्राम देना चाहिये | *श्रद्धया देयम्*- श्रद्धा पूर्वक दान देना चाहिये, *अश्रद्धया न देयम्*- बिना श्रद्धा के नहीं देना चाहिये, *श्रिया देयम्*- आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये, *ह्रिया देयम्*- लज्जासे देना चाहिये(फोटो पड़वाकर नहीं) | *भिया देयम्*- भय से भी दान देना चाहिये,(और जो कुछ भी दिया जाय, वह सब) *संविदा देयम्*- विवेकपूर्वक देना चाहिये |
*अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात् - ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः - युक्ता आयुक्ताः - अलूक्षा धर्मकामाः स्युः - यथा ते तत्र वर्तेरन् - तथा तत्र वर्तेथाः* ----- इसके बाद यदि तुमको कर्तव्य के निर्णय करने में किसी प्रकार की शङ्का हो या सदाचार के विषय में कोई शङ्का कदाचित् हो जाय तो वहाँ जो उत्तम विचारवाले परामर्श देने में कुशल, कर्म और सदाचार में पूर्णतया संलग्न स्निग्ध स्वभाववाले (तथा) एकमात्र धर्म के ही अभिलाषी ब्राह्मण हों, वे जिस प्रकार उस कर्म और आचरण के क्षेत्र में बर्ताव करतें हों, उस कर्म और आचरण के क्षेत्र में वैसे ही तुम को भी बर्ताव करना चाहिये | तथा ---- * अथाभ्याख्यातेषु - ये तत्र ब्राह्मणाः समदर्शिनः - युक्ता आयुक्ताः - अलूक्षा धर्मकामाः स्युः- यथा ते तेषु वर्तेरन् - तथा तेषु वर्तेथाः*---- यदि किसी दोष से लाञ्छित मनुष्यों के साथ बर्ताव करने में( संदेह उत्पन्न हो जाय तो भी) जो वहाँ उत्तम विचार वाले, परामर्श देने में कुशल, सब प्रकार से यथा योग्य सत्कर्म और सदाचार में भलीभाँति लगे हुए रूखेपनसे रहित धर्म के अभिलाषी(विद्वान्) ब्राह्मण हों, वे जिस प्रकार उनके साथ बर्ताव करें, उनके साथ वैसा ही तुमको भी बर्ताव करना चाहिये | *एष आदेशः*- यह शास्त्र की आज्ञा हैं | *एष उपदेशः*- यही (गुरुजनों का अपने शिष्यों और पुत्रों के लिये) उपदेश हैं | *एषा वेदोपनिषत्*- यही वेदों का रहस्य हैं | और *एतदनुशासनम्*- यही परम्परागत शिक्षा हैं | *एवमुपासितव्यम्*- इसी प्रकार तुमको अनुष्ठान करना चाहिये | *एवमुपासितव्यम्*- इसी प्रकार तुमको यह अनुष्ठान करना चाहिये |||तैतरीयोपनिषद् |||
इस उपदेश-प्राप्ति के अनन्तर स्नातक को पुनः गुरुजी को प्रणामकर मौञ्जी-मेखला आदि का परित्याग करके गुरु से विवाह की आज्ञा लेकर अपने माता-पिता आदि अभिभावकों को उस वेद-विद्याव्रत-स्नातक के घर आनेपर माङ्गलिक वस्त्राभूषणों से अलंकृतकर *मधुपर्क* पद्धति से उसका स्वागत-सत्कारपूर्वक अर्चन करना चाहिये |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री. उमरेठ || शेष पुनः




#षोडश_संस्काराः_खंड_१५५~
#समावर्त्तनम् --->
*(भौम भानुजयोर्वारे नक्षत्रे च व्रतोदिते | तारा चन्द्र विशुद्धौ च स्यात्समावर्तनक्रिया ||सुरेश्वर||)*
मंगल और शनि तथा वेद-व्रतों में कहैं नक्षत्र तारा और चन्द्रमा की शुद्धि में समावर्त्तन कर्म करना होता हैं |
*(रोहिण्यां तिष्ये उत्तरयोः फाल्गुन्योर्हस्ते चित्रायामैन्द्रे विशाखायां वा स्नायात् ||बौधायन-सूत्रे||)*
बौधायन-सूत्र में कहा हैं-- रोहिणी, पुष्य, दोनों उत्तरा, दोनों फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, ज्येष्ठा, विशाखा में स्नान करें ||
*(स्नानं माध्याह्नकाले तु होरायां कारयेच्छुभम् | पूर्वाह्णे तदभावे तु कुर्यात्स्नानं यथाविधि ||)*
वसिष्ठ ने कहा हैं कि - मध्याह्न समय ही होरा में यथाविधि स्नान करें, वह न हो तो पूर्वाह्ण में स्नान करैं |
*(सर्व ऋतवो विवाहस्य इति सूत्रात् यदा दक्षिणायने विवाहस्तदा समावर्त्तनमपि तत्रैव | अन्यथोदगयने समावर्त्तने | "" अनाश्रमी न तिष्ठेत"" इति विरोधः स्यादित्युक्तं ||सुदर्शन भाष्ये|| )* -- विवाह की सब ऋतु हैं, इसलिए दक्षिणायन में विवाह करना हो तो दक्षिणायन में भी पहले समावर्त्तन करें, अन्यथा (न करना हो तो) उत्तरायण में समावर्त्तन होगा, तो ""बिना आश्रम कभी न टिकै" इस कथन का विरोध होगा, यह सुदर्शन भाष्य में कहा हैं |
*(व्रतानि विधिना कृत्वा स्वशाखाध्ययनं चरेत् | अकृत्वाभ्यस्ते येन स पापी विधिघातकः ||प्रत्येकं कृच्छ्रमेकैकं चरित्वाज्याहुतीः शतम् | हुत्वा चैव तु गायत्र्या स्नायादित्याह शौनकः ||)*
वेद-व्रतों को विधिपूर्वक करके अपनी शाखा को पढे, बिना वेद-व्रतों के किए जो अध्ययन करता हैं वह पापी विधि को नष्ट करता हैं प्रायश्चित्त के लिए उन्हें शाखा शाखाके प्रति(जितनी शाखायें पढी़ हो उस अनुसार) एक एक कृच्छ्र और गायत्री से घृत की सौ आहुति (विट् नामक अग्नि में ) देकर स्नान करें | यह शौनक का लिखा हुआ हैं ||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः





#षोडश_संस्काराः_खंड_१५६-
#समावर्त्तन_संस्कार_विधानम्-
नित्य कर्माणि सम्पाद्य | आचम्य प्राणानायम्य | सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा-
संकल्पः- ब्रह्मचारी--- मम ब्रह्मचर्य पूर्वक वेदाध्ययनाऽवधौ वेदव्रत-चतुष्टय लोपजनित दोष परिहारार्थं-(प्रतिशाखामुद्दिश्य) गायत्र्याऽष्टोत्तरशतं घृतेन प्रायश्चित्त होमं च करिष्ये | वेदिकायां पञ्चभूसंस्कार पूर्वकमग्निं संस्थाप्य | विट्नामाग्निं सम्पूज्य | पवित्रकरणान्ते आज्यं निरूप्य अधिश्रित्योद्वास्य च पवित्राभ्यां त्रिरोत्पूय अवेक्ष्य जुहुयात् | ॐ भूः स्वाहा-इदं अग्नये न मम | ॐ भुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ स्वः स्वाहा - इदं सूर्याय न मम | ॐ भूभुर्वःस्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | गायत्र्या अष्टोत्तरशतवारं आज्येन सवितारं - इदं सवित्रे न मम इति त्यागपूर्वकं हुत्वा | ॐअग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदमग्नये स्विष्टकृते न मम अनेन वेदव्रत-चतुष्टय लोपजनित दोष परिहारार्थं(प्रतिशाखामुद्दिश्य)गायत्र्याऽष्टोत्तरशतहोम प्रायश्चित्त कर्मणा कृतेन सविता प्रीयताम् | तेन मम वेदव्रत-चतुष्टय लोप जनितदोष परिहारोस्तु | पुनर्जलमादाय- मम वेदव्रत-चतुष्टय लोपजनित दोष परिहार पूर्वक समावर्त्तन-संस्कार अधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं कृच्छ्रव्रतं (वा- चतुःसहस्र गायत्रीमंत्र जपं)अहं करिष्ये | समावर्त्तन-संस्कार अधिकारोस्तु ||
तत आचार्यः ------> देशकालौ संकीर्त्य - अस्य ब्रह्मचारिणो श्रौत-स्मार्त्तकर्माधिकार सम्पादक ब्रह्मचर्य्यसमापन पूर्वक स्मृतिसूत्रोदितविधि स्वीकाराभ्यन्तर्गत गृहस्थाश्रम सिद्धये स्वशाखीय पद्धत्यनुसारेण समावर्त्तन-संस्कारं करिष्ये || तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं पुण्याहवाचनं(कर्माङ्ग देवता इन्द्रः प्रीयताम्)च करिष्ये | क्रमेण अङ्ग-संकल्पानुसारेण सर्वं विधिवत्समाप्य || ततो ब्रह्मचारी वदति --> भो गुरो ! अहं स्नास्ये | ततो गुरुर्वदति-> स्नाही || ब्रह्मचारी--> गुर्वाज्ञां शिरसा धारयन् गुरोः पादोपसंग्रहणं कृत्वा | स्थंडिले पञ्चभूसंस्कारान् कृत्वा अग्निं संस्थाप्य | अग्निं ध्यात्वा | ततो देवता परिग्रहणार्थं अन्वाधानं करिष्ये-- समिद्वयंगृहित्वोत्थाय -> *प्रजापतिमिन्द्रमग्निं सोममन्तरिक्षं वायुं ब्रह्माणं छंदांसि, प्रजापतिं देवान् ऋषीन् श्रद्धां मेधां सदसस्पतिमनुमतिमग्निं वायं सूर्यं वरुणमग्निंसवितारं विष्णुं विश्वान्देवान् मरुतः स्वर्कान् वरुणमादित्यमदितिं प्रजापतिमग्निं स्विष्टकृतं चाज्येनाहं यक्ष्ये || दक्षिणतो ब्रह्मासनादि चरुवर्जं पात्रासादनान्तं कुर्यात् | तत्र विशेषः--- पातेरासादनानन्तरम् उपकल्पनीयानि -- संधुक्षणानि=गोबरकंडे के टुकडों | पर्युक्षणार्थमुदकम् = यर्युक्षण के लिए शुद्धजल | तिस्रः समिधः= तीन समिधाएँ | हरिताः कुशाः= हरित ताजें कुश | अष्टो वारिकुम्भाः = आठ जल के लिए कुम्भ या कलश | दधि तिला वा = दहीं अथवा तिल प्राशन के लिए || धौतवस्त्रम् = नईं-धोती || नापितः= अग्नि के उत्तर में नापित को बीठाएँ | स्नानार्थमुदकम् = स्नान के लिए पर्याप्त जल | औदुम्बरं कनिष्ठिकाग्रवत्स्थूलं द्वादशाङ्गुदीर्घं सरलं सत्वचं दन्तधावनकाष्ठं ब्राह्मणस्य (द्वादशाङ्गुलं राजन्यस्य / अष्टाङ्गुलं वैश्यस्य) = कनिष्ठिकाके अग्रभाग अनुसार स्थूल बारह अङ्गुल का लम्बा छ़ालवाला औदुम्बर के सरल काष्ठ का दातुन ब्राह्मणों के लिए ( बारह अङ्गुल का क्षत्रिय तथा आठ अङ्गुल का वैश्य के लिए दातुन का प्रमाण हैं) | उद्वर्त्तनद्रव्यम् = हल्दी=आँवले का पाउड़र आदि उबटन के द्रव्य | स्नानार्थमुष्णोदकम् = स्नान के लिए गरम-जल | चंदनम् = घीसा हुआ चंदन | अहते वाससी =धोती || यज्ञोपवीते द्वे त्रीणी वा = दो या तीन उपवीत || पुष्पाणि = विविध-पुष्प | उष्णिग्= पगड़ी | कर्णालंकारौ = दो कान के कुंडल | अञ्जनम् = नेत्र के अञ्जन द्रव्य | आदर्शः= काच़ का आय़ना | छत्रम् = छाता | उपानहौ = पैर के जूतें | वैणवदंडः= बाँस की छड़ी | ततः पवित्रच्छेदनादि आधारावाज्यभागान्तं जुहुयात् |
आधारावाज्यभागौ हुत्वा | *व्रतविसर्गे- सूर्यनाम्ने वैश्वानराय नमः* इति गन्धाक्षतपुष्पैः अग्निंसम्पूज्य | यजुर्वेदाहुतयः- ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा- इदं अन्तरिक्षाय न मम | ॐ वायवे स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा -इदं छन्दोभ्यो न मम | ॐ प्रजापतये स्वाहा - इदं प्रजापतये न मम | ॐ देवेभ्यः स्वाहा - इदं देवेभ्यो न मम | ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा - इदं ऋषिभ्यो न मम | ॐ श्रद्धायै स्वाहा - इदं श्रद्धायै न मम | ॐ मेधायै स्वाहा - इदं मेधायै न मम | ॐ सदसस्पतये स्वाहा - इदं सदसस्पतये न मम | ॐ अनुमतये स्वाहा - इदमनुमतये न मम | भूराद्यानवाहुतयः | ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा - इदमग्नये स्विष्टकृते न मम || संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम् | ततो ब्रह्मचारी उपसङ्ग्रहणपूर्वकं गुरुं नमस्कृत्य परिसमूहनादि त्र्यायुषकरणान्तं समिदाधानं तस्मिन्नेवाग्नौ(सायं प्रातरग्नि परिचरण विधिना) कुर्यात् गोत्रनामपूर्वकं वैश्वानरादीनामभिवादनं कुर्यात् |
===========[[ समावर्त्तन स्नानम्]]=========
फिर आचार्यादि शिष्ट पुरष अग्नि के उत्तरभाग में विधिसे दायें से बाँई और आसादित शुद्ध जलसे पूर्ण गंधादि पूजनीय द्रव्यों से पूजन किए हुए आठ कलशों के पूर्व भाग में आसादित प्रागग्र कुशों पर उत्तराभिमुख ब्रह्मचारी स्थित होकर स्नान करें -> *[ततः आचार्यपुरुषैः परिश्रितस्योत्तरभागे भूरसीत्यादिना पूर्णपात्रवर्जं स्थापितानां दक्षिणोत्तरायतानां अष्टानामलजलपूर्णानां गंधपुष्पाद्यर्चितानां उदककम्भानां पूर्वभागे आस्तृतेषु प्रागग्रेषु कुशेषु ब्रह्मचारी उदङ्गमुखः स्थित्वा ]-->* ब्रह्मचारी स्वयं दक्षिणकलश से आरंभ कर सब से पहले प्रथम कलश को दोनों हाथ से ग्रहण करें |
*स्वयं दक्षिणकलशादारभ्य प्रथमकलशात्*- ॐ येऽअप्स्वन्तरित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः अग्निर्गायत्री छंदः आपो देवता कलश ग्रहणे विनियोगः-> येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| पा०गृ० २/६/१०|| इति मंत्रेण प्रथम कलशादुदकं गृहित्वा *(मंत्रार्थ- इस कलश में छिपी रहने वाली गोह्य, अङ्गप्रत्यङ्गो को नष्ट करने वाली उपगोह्य तथा जन्तुहिंसक मयूख प्रभृति मानसिक उत्साह भंग करने वाली,जिसका प्रतिकार न किया जाय तथा बहुविध रोगों से सताने वाली, इन्द्रियों की शक्ति को विनष्ट करनेवाली, आठ प्रकार की अग्नि को दूर हटाकर मैं मेध्य,प्रीतिकारिणी, रोचनशील अग्नि को ग्रहण कर रहा हूँ | ) इनके जलसे अपने को अभिषिक्त करें*
तेनोदकेन --> ॐ तेन मामभिषिञ्चामीत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुष् छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः---- ॐ तेन मामभिषिञ्चामि श्रियै यशसे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय ||पा०गृ० २/६/११|| इति मन्त्रेण स्वस्य मस्तके अभिषिञ्चेत् ||
*(मंत्रार्थ- लक्ष्मी, कीर्त्ति, वेदज्ञान और ब्रह्मतेज की कामना से मैं इस कलश के जल से अपने को अभिषिक्त करता हूँ)* फिर क्रम से दूसरे कलश को दोनों हाथ से ग्रहण करें- ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः ००||२/६/१०|| इति मंत्रेणैव द्वितीयोदकुंभादुदकं गृहित्वा ||-- मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें - ॐयेन श्रियं इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः आपो देवता कलशोदक ग्रहणे विनियोगः - ॐ येन श्रियमकृणुतां येनावमृशता गुँ सुराम् | येनाक्ष्यावभ्यषिञ्चतां यद्वां तदश्विना यशः || इति मंत्रेण अभिषिञ्चेत् || *(मन्त्रार्थ- हे अश्विनीकुमार ! आपने जिस जल से अभिषेक कर देवताओं को श्रीसम्पन्न किया हैं, जिस जल के अभिषेक से उपमन्यु के नेत्ररोग को दूर किया हैं तथा जिसका उपभोग कर आप यशस्वी बने हैं, उसी कीर्ति की कामना से मैं भी इस जल से स्नान करता हूँ)* फिर क्रम से तीसरा कलश धारण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००||२/६/१०|| इत्यनेन तृतीयोदकुभादुदकमादाय || --- मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें- ॐ आपोहिष्ठेत्यस्य सिन्धुद्विप ऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः | - ॐ आपो हिष्ठा००|| इति मंत्रेणाभिषिञ्चेत् || फिर चौथे कलश को धारण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| इत्यनेन चतुर्थोदकुंभादुदकमादाय || मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें- ॐ जो वः शिवतमो इत्यस्य सिन्धुद्विप ऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः- ॐ जो वः शिवतमो००|| इति मंत्रेणाभिषिञ्चेत् | फिर पाँचवे कलश को धारण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें - ॐ तस्माऽअरङ्गमामवो इत्यस्य सिन्धुद्विप ऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः | - ॐ तस्माऽअरङ्गमामवो००|| इति मंत्रेणाभिषिञ्चेत् | फिर बाकी रहैं छठे-सातवें और आठवें कलशों का जल किसी पात्र में ग्रहण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| इत्यनेन षष्ठसप्तमाष्टमोदकुंभेभ्यः उदकमादाय || बिना बोले-चाले मौन रहते हुए अपने को तीनों कलशके इकठ्ठे जल से अभिषिक्त करें ||--- *तूष्णीं वार त्रयाभिषिंचेत् स्नानकर्ताऽऽत्मानम् ||*
तत उदुत्तममिति शिरोमार्गेण --- ॐ उदुत्तममिति शुनःशेप ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः वरुणो देवता मेखलोन्मोचने विनियोगः || *ॐ उदुत्तमं व्वरुणपाश००||* इत्यनेन मेखलान्मुमुच्य ||| *(मंत्रार्थ- हे वरुणदेव ! आप सभी प्राणियों को बन्धनों और सन्तापों से मुक्त करतें वाले हैं | हमारे मस्तिष्क और कण्ठ प्रभृति उत्तमाङ्गो तथा कमर आदि निम्न अवयवों में पड़े अपने (ब्रह्मचर्याश्रम-रूपी)बन्धनों से हमें छुटकारा दीजिए, जिससे आपराधिक मनोवृत्ति से मुक्त होकर हम अपने अनुष्ठानों को सम्पादित कर सकें | हे अदितिनन्दन वरुण ! आप हमें दैन्यरहित अखण्ड ऐश्वर्य पाने का अधिकारी बना दें |)* मौन रहतें हुए अपने दंड तथा अजिन को किसी जगह़ पर रख दैं | - तूष्णीं कृष्णाजिनदण्डयोस्त्यागः || ब्रह्मचारी अपने बाहूओं को ऊँचे करतें हुए दंडवत् मुद्रा में सूर्यनारायण का उपस्थान करें-> ॐ उद्यन्भ्राज इति प्रजापतिर्ऋषिः शक्वरी छंदः सविता देवता सूर्योऽपस्थाने विनियोगः- *ॐ उद्यन्भ्राज भृेष्णु ०००|| २/६/१६ पा०गृ०||* - *(मंत्रार्थ- हे प्रदीप्त सूर्यदेव ! आप अपने तेज से अन्य सभी को अभिभूत करने वालें हैं | आप शुभाशुभ के ज्ञाता हैं | आप प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल अपने उपासकों को दससंख्यक दान देतें हैं | द्रुतगामी मरुतों के बीच जिस प्रकार देवराज ठहरतें हैं,उसी प्रकार अपने उपासकों के बीच आप ठहरतें हैं | मैं भी आप का एक उपासक हूँ | अतः मुझ में भी आप दस-गुना, सौ-गुना, हजार-गुना दान देने की क्षमता भर दैं || यह ब्राह्मण के छः कर्तव्यो में से एक हैं- (दान देना)|*
मौन रहकर दहीं अथवा तिलों का भक्षण करें - *तत स्तूष्णीं दधि तिलान् वा प्राश्य* | शुद्ध जल से आचमन करें- *आचम्य |* केश और नाखून कटवाएँ - *जटालोम नखान्संहृत्य* | फिर औदुम्बर के दातून से मंत्र पढकर दाँत साफ करें(यह नित्य क्रियाओं में भी मान्य हैं) | - ॐ अन्नाद्येति मन्त्रस्य अथर्वण ऋषिः अनुष्टुप् छंदः सोमो देवता दन्तधावने विनियोगः - ॐ अन्नाद्यायव्यूहध्व गूँ००|| *(मंत्रार्थ- हे दाँत ! आत्मशुद्धि के लिए, अन्न खाने के लिए तुम पङ्क्तिबद्ध हो जाओ, क्योंकि इस दन्तधावन की लकड़ी के रूप में सम्पूर्ण वनस्पतियों के अधिष्ठाता राजा-सोम स्वयं उपस्थित हैं | वे मेरे मुँह को सत्कीर्त्ति और षड्विध ऐश्वर्य प्रदान कर उसे शुद्ध कर रहैं हैं )*|| शुद्ध जल से मुखशुद्धि करें - *तत उदकेन मुखशोधनम्* || बाद में पुनः उबटन लगाकर गरम जल से स्नान करें - *ततः पुनः उष्णोदकेन स्नानम् ||* प्राणापानौ मेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः प्राणापानौ देवते चन्दनोपग्रहणे विनियोगः- मस्तकमें, नाक के पास, नेत्रों के पास(या पक्ष्मपुटों पर= आखेँ मुँद कर आँखों पर ), और मुँह के पास घीसा हुआ चन्दन लगायें - १- मस्तक में (गन्धेन अनुलेपनं भाले-- *ॐ प्राणापानौ मे तर्पय || २-आँखों पर - ॐ चक्षुर्म्मे तर्पय || ३- नाक और मुख के पास - ॐ श्रोत्रम्मे तर्पय ||*- *(मन्त्रार्थ- हे उपलेपनाधिष्ठित देव ! तुम मेरे प्राण, अपान, आँख और कान को प्रसन्न करो)*| ॐ पितरः शुन्धध्वमिति प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः अश्वीन्द्रासरस्वती देवताः पाण्यावजनेस्य दक्षिणस्यां दिशि निषेके विनियोगः------||| फिर बायें हाथ से दायें हाथ में जल लेकर अपसव्य(जनेऊ दायें कन्धेपर तथा बायाँ हाथ जनेऊ के अंदर करकें) दक्षिणाभिमुख होकर हाथ में रखा हुआ जल पितृतीर्थ(अँगुठे और तर्जनी के मध्य के प्रदेश) से अपनी दाईँतरफ किसी पात्र में गिरायें - ततः पाण्योरवनेजनं कृत्वा तदुदकमादाय | अपसव्यं कृत्वा | दक्षिणाभिमुखो भूत्वा तदुदकं दक्षिणस्यां दिशि निनयेत् यथा- *ॐ पितरः शुन्धध्वमिति पितरः शुन्धध्वम् ||* जनेऊ पुनः यथावत् पहले के समान धारण करें- *सव्यम्* | जल का स्पर्श करें- *उदकस्पर्शः* | पुनः शरीरमें चन्दनादि उबटन लगाकर मंत्र पढैं- ॐ सुचक्षा इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुष् छंदः सविता देवता जपे विनियोगः |-- ॐ सुचक्षा अहमक्षीभ्यां००|| *(मंत्रार्थ- हे सूर्यदेव ! मैं आँखो से सुदर्शन, मुख से वर्चस्वी और कानों से ठीक ढंग से सुनने वाला बनूँ)*| नई धोती अथवा ऐसी धुली धोती, जो धोबी के घर न धुली हो, वह मन्त्र पढ़कर धारण करें - ॐ परिधास्येति आलम्बायन ऋषिः पंक्तिश्छंदः वासौ देवता वस्त्र परिधाने विनियोगः- *ॐपरिधास्यै यशोधास्यै००||पा०गृ०२/६/२०||* इति वासः परिधाय - *(मन्त्रार्थ- हे वस्त्राधिष्ठित देवता ! कीर्ति एवं लम्बी आयु के लिए मैं यह वस्त्र धारण करता हूँ | धन तथा ऐश्वर्य देने वाले इस वस्त्र के धारण से मैं सौ साल की लम्बी आयु प्राप्त करूँ)* | आचमन करें- *आचम्य* || *#नूतन_यज्ञोपवीत_धारण_विधिना यज्ञोपवीतधारणं कुर्यात् ||*
यज्ञोपवीतं धृत्वा पुनराचम्य यथाशक्तिः गायत्रीं जपन् |
उपवस्त्र धारण करें- ॐ यशसा मा इत्यस्य अथर्वण ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता उत्तरीयवस्त्र धारणे विनियोगः- *ॐ यशसामाद्यावा००||२/६/२१||*- *(मंत्रार्थ- हे वस्त्राधिष्ठित देवता ! यशस्वी द्यावा-पृथिवी, इन्द्र और बृहस्पति मेरे पास आयें, ये यशोभिमानी, भगाधिष्ठाता देवगण मेरे पास आकर मुझे भी यशस्वी बनायें )* || स्नातक पुष्प-माला ग्रहण करें - ॐ जाऽआहरज्जमदग्निरिति मन्त्रस्य भरद्वाज सुमनसोऽनुष्टुप् पुष्पमाला परिग्रहणे विनियोगः- *ॐजाऽआहरज्जमदग्निः००||२/६/२३||* इत्यनेन पुष्पमालां गृहित्वा | *(मन्त्रार्थ- जिन फूलों को प्रजापति जमदग्नि ने श्रद्धा, बुद्धि, कामना और शारीरिक क्रियाओं की सम्पूर्त्ति के लिए धारण किया था, यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु मैं भी उन्हें उक्त गुणों की कामना से ग्रहण कर रहा हूँ |)* उस पुष्पमाला को सिर पर पुष्प-पटिका के तरह मंत्र पढ़कर धारण करें- *ततस्तां पुष्पमालां शिरसि बध्नीयात्*- ॐ जद्यशोप्सरसेतित्यस्य भरद्वाज ऋषिः अनुष्टुप् छंदः सुमनसो देवता पुष्पमाला बन्धने विनियोगः- *ॐजद्यशोप्सरसामिन्द्रश्चकार००||२/६/२४||*- *(मन्त्रार्थ- इन्द्र ने जिन फूलों को गूँथकर स्वर्गीय अप्सरा उर्वशी को लोकप्रिय बनाया था, उन्हें ही मैं भी अपने सिर पर धारण कर रहा हूँ |)*| फिर पगड़ी धारण करें- *संग्रथिताः उष्णीषेण शिरो वेष्टयेत्*- ॐ युवा सुवासाः इत्यस्य विश्वामित्र ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः सूर्यो देवता उष्णीषेण शिरोवेष्टने विनियोगः- *ॐ युवा सुवासाः००||* मंत्र पढ़कर दाये कान में सुवर्ण-कुण्डल धारण करें- *तत दक्षिण कर्णे सुवर्णकुण्डलं धारयेत्*- अलंकरणमिति मंत्रस्य भारद्वाज ऋषिः उष्णिक्छन्दः अलङ्करणदेवता अलङ्करण धारणे विनियोगः- *ॐअलङ्करणमसि भूयोलङ्करणम्भूयात् ||* फिर इसी मंत्र से बायें कान पर सुवर्ण-कुण्डल धारण करें | मंत्र पढ़कर पहले दाईं तथा बाद में बाईं आँखों में काजल लगायें- *ततो वृेत्रस्येत्याक्षिणी अञ्जेत् (प्रथमं दक्षिणं ततो वाममनेनैव मन्त्रेण)*- वृेत्रस्येति मंत्रस्य प्रजापतिर्ऋषिः गायत्री छंदः अञ्जनो देवता चक्षुरञ्जने विनियोगः- *ॐवृेत्रस्यासिक००||३/४||* मंत्र पढ़कर दर्पण में मुख देखैं- *ततो आदर्शे आत्मानं दर्शयेत्*- रोचिष्णुरिति मंत्रस्य सूर्य ऋषिः यजुश्छंदः आशीर्देवता आदर्शे आत्मदर्शने विनियोगः- *ॐरोचिष्णुरसि* || छत्र( वा छाता) धारण करें- *ततः छत्रं प्रतिगृह्णाति* अनेन मन्त्रेण- बृेहस्पते इति मन्त्रस्य गौतम ऋषिः निचृद्गायत्री छंदः छत्रं देवता छत्रग्रहणे विनियोगः- *ॐबृेहस्पतेश्छदिरसिपाप्मनो मामन्तर्धेहि तेजसो यशसो मामन्तर्धेहि ||* इत्यनेन छत्रग्रहणम् - *(मन्त्रार्थ- हे छत्र ! तुमने बृहस्पति को ढँककर उन्हें धूप से बचाया था, उसी तरह तुम मेरे पापों को ढँक दो तथा यश और तेज को प्रकाशित करो)*| मन्त्र पढ़कर दाँये तथा बाँयेँ पैरों में जूते पहने- *उपानहौ प्रमुञ्चते पादयोर्युगपत्*- प्रतिष्ठेति मंत्रस्य विश्वामित्र ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता उपानह् परिधाने विनियोगः- *ॐप्रतिष्ठेस्थो विश्वतोमापातम् ||*- *(मंत्रार्थ- हे उपानह ! तुम दोनों स्थिर होते हुए सब ओर से मेरी रक्षा करो )*| मन्त्र पढ़कर वाँस की छड़ी हाथ में लें- *वैणव-दण्ड ग्रहणम्*- विश्वाभ्य इति मंत्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः दण्डो देवता दण्डग्रहणे विनियोगः- *ॐविश्वाभ्यो मानाष्ट्राभ्यस्परिपाहिसर्वतः ||* - *(मंत्रार्थ- हे वेणु-दण्ड ! तुम सम्पूर्ण राक्षसादि हिंसको से मेरी रक्षा करो |)*|
*दन्तप्रक्षालनादीनि नित्यमपि वासश्छत्रोपानहश्चापूर्वाणि चेन्मन्त्रः||*--> दन्तधावन करतें समय नित्य मन्त्र पढ़े तथा नये कपड़े, छाता,जूते आदि पहनते समय भी (जो जो मन्त्र कहे गएँ वह) मन्त्र अवश्य पढ़े |
आचार्य स्नातकको नियम कहैं- *तत आचार्यः स्नातकस्य नियमाञ्छ्रावयेत् ||* --- *कामादितरः ||पा०गृ०सू०||* द्विजाति भिन्न वर्ण के व्यक्ति भी अपनी इच्छासे इसका पालन कर सकतें हैं- परंतु पहले पूर्व कहैं अधिकार को ध्यान में रखना चाहिये | *शूद्रादिस्पर्शनं न कर्तव्यम् ||*- शूद्र आदि हिन वर्ण का स्पर्श न करें | *नृत्यगीतवादित्राणि न कुर्यान्न च गच्छेत् ||* - नाचने, गाने और बजाने का काम न स्वयं करे और नहीं दूसरों द्वारा अनुष्ठित ऐसे कार्य में सम्मिलित हो | *क्षेमे नक्तं ग्रामान्तरं न गच्छेन्न च धावेत् ||*- यदि कोई विशेष विपत्ति न आये तो रात में दूसरे गाँव में न जाय और अनावश्यक न दौड़े | *उदपानावेक्षण वृक्षारोहण फलप्रपतन सन्धिसर्पण विवृतस्नान विषमलङ्घन शुक्तवदनसन्ध्याऽऽदित्यप्रेक्षणभैक्षणानि न कुर्यात् | न ह वै स्नात्वा भिक्षेतापह वै स्नात्वा भिक्षां जयतीति श्रुतेः ||*- कुएँ में न झाँके, पेड़ पर न चढे़, कच्चे फल तोड़कर न गिराये, सन्धिवेला अर्थात् सायं-प्रातःकाल यात्रा न करें, नंगा स्नान न करें, ऊबड़-खाबड़ भूमि न लाँघे, गन्दी बातें न बोलें, संध्यावेला में सूर्यदर्शन न करें,भीख न माँगें- श्रुति वचन अनुसार समावर्त्तन संस्कार के बाद भिक्षाटन से स्नातक का पतन हो जाता हैं |
*जलमध्ये स्वमुखं न पश्येत् ||* जल में अपना मुख न देखें | *वर्षत्यप्रावृतो व्रजेत् - *(अयं मे इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः जगती छन्दः वज्रो देवता जपे विनियोगः- #अयं_मे_वज्रः_पाप्मानमपहनत् ||* - *(मंत्रार्थ- यह रविरश्मि-संस्कृत जलकण रूपी वज्र मेरे पापों को नष्ट कर दें )* यदि वर्षा पड़ रही हो तो *अयं मे ०००| मंत्र पढ़कर बिना छाता लगाये ही चले | *अजातलोम्नीं विपुंसीं षण्ढं च नोपहसेत् ||* जिस स्त्री की देह में रोआँ न हो, या जिसके मुँह पर मूँछ-दाढ़ी हो या पुरुष-नपुंसक हो उसका उपहास न करें | *गर्भिणी विजन्येति ब्रूयात् | सकुलमिति नकुलम् | भगालमिति कपालम् | मणिधनुरितीन्द्रधनुः | गां धयन्तीं परस्मै नाचक्षीत ||* - गर्भिणी स्री को गर्भिणी न कहकर #कल्याणप्रसवा कहैं | निर्वंश को #सवंश कहें | कपाल को #भगाल कहें | इन्द्रधनुष को #मणिधनुष कहें | बछड़े को दूध पिलाती गाय के बारे में दूसरे कौ नहीं बतलाना चाहिए | *सस्यवत्यां भूमौ केवलायां तृणैरनंतर्हितायां मूत्रपुरीषोत्सर्गं न कुर्यात्*- जिस खेत में किसी भी प्रकार का धान आदि उगा हो, अथवा केवल तृण(घास)-वाली जमीनपर मल-मूत्र त्याग न करें | *धावमानः सन् उत्तिष्ठन् सन् मूत्रपुरीषोत्सर्गं न कुर्यात्*- दौड़ते हुएँ या खड़े रहकर मल-मूत्र त्याग न करें | *विकृतं वासो नाच्छादयीत*- गन्दे,फटे और अनुपयुक्त कपड़े न पहनें | *विकृतं= नील्यादिना विकारमापादितं वस्त्रं न परिदधीत*- विकृत अर्थात् नीली(गळी)गेरुआ आदि से रंगे हुए कपड़े न पहनें | *तृणाद्यन्तरभूमौ शिरः प्रावरणैरावेष्ट्य यज्ञोपवीतं निवीतं कृत्वा आलंबितं कर्णे कृत्वा दिवोदङ्गमुखो रात्रौ दक्षिणमुख उपविश्य मौनी भूत्वा मूत्र-पुरीषोत्सर्गं कुर्यात् |* तृणादि रहित जमीनपर सिर को वस्त्र से लपैट़कर जनेऊ निवीत(गले- में- हार की तरह) करकें कानपर लगाकर मूत्रोत्सर्ग तथा दिन में उत्तराभिमुख और रात्रि में दक्षिणाभिमुख बैठकर मौन रहतें हुएँ मलत्याग करें | *दृठव्रतो वधत्रः स्यात् सर्वत आत्मानं गोपायेत् सर्वेषां मित्रमिव ||*- निष्ठापूर्वक अपने व्रत का पालन करना चाहिए, सब के साथ मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए, दूसरों का रक्षक बनना चाहिए, अपनी रक्षा सर्वतोभावेन करनी चाहिए | *तिस्त्रो रात्रीर्व्रतं चरेत्*- समावर्त्तन के दिन से तीन दिनतक स्नातक को व्रत रखना चाहिए | *अमांसाश्यमृण्यमयपायी*- मांस न खाये तथा मिट्टी के बर्तन में पानी आदि पेय पदार्थ न पीये(क्योंकि मिट्टी के बर्तन का एक बार उपयोग करने से थूँक से जुठा होता हैं- पर काच नहीं)| *स्त्रीशुद्रशव कृष्णशकुनिशुनां चादर्शनमसम्भाषा च तैः*|- नारी, शुद्र, मुर्दा, कौए और कुत्तों को न देखैं और न इनके साथ बातें करें |
*शवशूद्रसूतकान्नानि च नाद्यात्*- मरणोपरान्त उनके गृहसम्बन्धियों का, शूद्र का तथा जननाशौचवाले लोगों का अन्न नहीं खाना चाहिए | *मूत्रपुरीषे ष्ठीवनं चातपे न कुर्यात् सूर्याच्चात्मानं नान्तर्दधीत*- सूर्यके-धूप में मल-मूत्र न त्यागे और थूके नहीं | सूर्य के प्रकाश से अपने को अलग न करें(छाता मत ओढें)| *तप्तेनोदकार्थान् कुर्वीत*- गर्म जल से शौच या आचमन आदि क्रियाएँ न करें | *अवज्योत्य रात्रौ भोजनम्*- रात में दीप जलाकर(प्रकाश में) भोजन करें | *सत्यवदनमेव वा*- *दीक्षीतोऽप्यातपादीनि कुर्यात् प्रवर्ग्यवाँश्चेत् ||२/८/९ पा०गृ०||*- सदा सच ही बोलें, अथवा यज्ञ के लिए दीक्षा-सम्पन्न व्यक्ति भी यदि *सोमयाग* की विशेष विधि से युक्त हैं तो उसे भी इन नियमों का पालन करना चाहिए | *इत्यादयो यमानियमाः कर्तव्याः ||*
#स्नातकस्य_पिता- > देशकालौ संकीर्त्य कृतस्य समावर्त्तन-संस्काराख्यस्य कर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् बटुकान्(८ से १२ वय वाले द्विज बालक) कुमारिकाः सुवासिनीश्च यथाकाले यथा संपन्नान्नेन अहं भोजयिष्ये | तेन कर्माङ्गदेवता प्रीयतां न मम || कृतस्य समावर्त्तनाख्यस्य कर्मणः साङ्गता सिद्ध्यर्थं ब्राह्मणेभ्यो यथोत्साहं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे तेन कर्मांगदेवता *इन्द्रः* प्रीयताम् ||आचार्यादिभ्यो दक्षिणां दत्वा तैराशीषो गृह्णीयात् ||
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री. उमरेठ ||शेष पुनः






#षोडश_संस्काराः_खंड_१५७~
#चतुर्वेदाऽऽध्ययनान्ते_समावर्त्तन_संस्कार_विधानम्-
नित्य कर्माणि सम्पाद्य | आचम्य प्राणानायम्य | सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा-
संकल्पः- ब्रह्मचारी--- मम ब्रह्मचर्य पूर्वक वेदाध्ययनाऽवधौ वेदव्रत-चतुष्टय लोपजनित दोष परिहारार्थं-(प्रतिशाखामुद्दिश्य) गायत्र्याऽष्टोत्तरशतं घृतेन प्रायश्चित्त होमं च करिष्ये | वेदिकायां पञ्चभूसंस्कार पूर्वकमग्निं संस्थाप्य | विट्नामाग्निं सम्पूज्य | पवित्रकरणान्ते आज्यं निरूप्य अधिश्रित्योद्वास्य च पवित्राभ्यां त्रिरोत्पूय अवेक्ष्य जुहुयात् | ॐ भूः स्वाहा-इदं अग्नये न मम | ॐ भुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ स्वः स्वाहा - इदं सूर्याय न मम | ॐ भूभुर्वःस्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | गायत्र्या अष्टोत्तरशतवारं आज्येन सवितारं - इदं सवित्रे न मम इति त्यागपूर्वकं हुत्वा | ॐअग्नये स्विष्टकृते स्वाहा-इदमग्नये स्विष्टकृते न मम अनेन वेदव्रत-चतुष्टय लोपजनित दोष परिहारार्थं(प्रतिशाखामुद्दिश्य) गायत्र्याऽष्टोत्तरशतहोम प्रायश्चित्त कर्मणा कृतेन सविता प्रीयताम् | तेन मम वेदव्रत-चतुष्टय लोप जनितदोष परिहारोस्तु | पुनर्जलमादाय- मम वेदव्रत-चतुष्टय लोपजनित दोष परिहार पूर्वक समावर्त्तन-संस्कार अधिकारार्थ सिद्ध्यर्थं कृच्छ्रव्रतं (वा- चतुःसहस्र गायत्रीमंत्र जपं)अहं करिष्ये | समावर्त्तन-संस्कार अधिकारोस्तु ||
तत आचार्यः ------> देशकालौ संकीर्त्य - अस्य ब्रह्मचारिणो श्रौत-स्मार्त्तकर्माधिकार सम्पादक ब्रह्मचर्य्यसमापन पूर्वक स्मृतिसूत्रोदितविधि स्वीकाराभ्यन्तर्गत गृहस्थाश्रम सिद्धये स्वशाखीय पद्धत्यनुसारेण समावर्त्तन-संस्कारं करिष्ये || तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं पुण्याहवाचनं(कर्माङ्ग देवता इन्द्रः प्रीयताम्)च करिष्ये | क्रमेण अङ्ग-संकल्पानुसारेण सर्वं विधिवत्समाप्य || ततो ब्रह्मचारी वदति --> भो गुरो ! अहं स्नास्ये | ततो गुरुर्वदति-> स्नाही || ब्रह्मचारी--> गुर्वाज्ञां शिरसा धारयन् गुरोः पादोपसंग्रहणं कृत्वा | स्थंडिले पञ्चभूसंस्कारान् कृत्वा अग्निं संस्थाप्य | अग्निं ध्यात्वा | ततो देवता परिग्रहणार्थं अन्वाधानं करिष्ये-- समिद्वयंगृहित्वोत्थाय -> *प्रजापतिमिन्द्रमग्निं सोममन्तरिक्षं वायुं ब्रह्माणं
छंदांसि,पृथ्वीं अग्निं ब्रह्माणं छंदांसि - दिवं सूर्यं ब्रह्माणं छंदांसि - दिशश्चन्द्रमसं ब्रह्माणं छंदांसि || प्रजापतिं देवान् ऋषीन् श्रद्धां मेधां सदसस्पतिमनुमतिमग्निं वायं सूर्यं वरुणमग्निंसवितारं विष्णुं विश्वान्देवान् मरुतः स्वर्कान् वरुणमादित्यमदितिं प्रजापतिमग्निं स्विष्टकृतं चाज्येनाहं यक्ष्ये || दक्षिणतो ब्रह्मासनादि चरुवर्जं पात्रासादनान्तं कुर्यात् | तत्र विशेषः--- पातेरासादनानन्तरम् उपकल्पनीयानि -- संधुक्षणानि=गोबरकंडे के टुकडों | पर्युक्षणार्थमुदकम् = यर्युक्षण के लिए शुद्धजल | तिस्रः समिधः= तीन समिधाएँ | हरिताः कुशाः= हरित ताजें कुश | अष्टो वारिकुम्भाः = आठ जल के लिए कुम्भ या कलश | दधि तिला वा = दहीं अथवा तिल प्राशन के लिए || धौतवस्त्रम् = नईं-धोती || नापितः= अग्नि के उत्तर में नापित को बीठाएँ | स्नानार्थमुदकम् = स्नान के लिए पर्याप्त जल | औदुम्बरं कनिष्ठिकाग्रवत्स्थूलं द्वादशाङ्गुदीर्घं सरलं सत्वचं दन्तधावनकाष्ठं ब्राह्मणस्य (द्वादशाङ्गुलं राजन्यस्य / अष्टाङ्गुलं वैश्यस्य) = कनिष्ठिकाके अग्रभाग अनुसार स्थूल बारह अङ्गुल का लम्बा छ़ालवाला औदुम्बर के सरल काष्ठ का दातुन ब्राह्मणों के लिए ( बारह अङ्गुल का क्षत्रिय तथा आठ अङ्गुल का वैश्य के लिए दातुन का प्रमाण हैं) | उद्वर्त्तनद्रव्यम् = हल्दी=आँवले का पाउड़र आदि उबटन के द्रव्य | स्नानार्थमुष्णोदकम् = स्नान के लिए गरम-जल | चंदनम् = घीसा हुआ चंदन | अहते वाससी =धोती || यज्ञोपवीते द्वे त्रीणी वा = दो या तीन उपवीत || पुष्पाणि = विविध-पुष्प | उष्णिग्= पगड़ी | कर्णालंकारौ = दो कान के कुंडल | अञ्जनम् = नेत्र के अञ्जन द्रव्य | आदर्शः= काच़ का आय़ना | छत्रम् = छाता | उपानहौ = पैर के जूतें | वैणवदंडः= बाँस की छड़ी | ततः पवित्रच्छेदनादि आधारावाज्यभागान्तं जुहुयात् |
आधारावाज्यभागौ हुत्वा | *व्रतविसर्गे- सूर्यनाम्ने वैश्वानराय नमः* इति गन्धाक्षतपुष्पैः अग्निंसम्पूज्य | यजुर्वेदाहुतयः- ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा- इदं अन्तरिक्षाय न मम | ॐ वायवे स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा -इदं छन्दोभ्यो न मम | *ऋग्वेदाऽऽहुतयः* -- ॐपृथ्व्यै स्वाहा-इदं पृथिव्यै न मम || ॐ अग्नये स्वाहा - इदमग्नये न मम || ॐ ब्रह्मणे स्वाहा -इदं ब्रह्मणे न मम || ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा- इदं छंदोभ्यो न मम ||
*सामवेदाऽऽहुतयः*-- ॐ दिवे स्वाहा - इदं दिवे न मम || ॐ सूर्याय स्वाहा- इदं सूर्याय न मम || ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम || ॐ छंदोभ्यः स्वाहा- इदं छन्दोभ्यो न मम ||
*अथर्ववेदाऽऽहुतयः*-- ॐ दिग्भ्यः स्वाहा- इदं दिग्भ्यो न मम || ॐ चन्द्रमसे स्वाहा - इदं चन्द्रमसे न मम || ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम || ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा- इदं छन्दोभ्यो न मम ||
ॐ प्रजापतये स्वाहा - इदं प्रजापतये न मम | ॐ देवेभ्यः स्वाहा - इदं देवेभ्यो न मम | ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा - इदं ऋषिभ्यो न मम | ॐ श्रद्धायै स्वाहा - इदं श्रद्धायै न मम | ॐ मेधायै स्वाहा - इदं मेधायै न मम | ॐ सदसस्पतये स्वाहा - इदं सदसस्पतये न मम | ॐ अनुमतये स्वाहा - इदमनुमतये न मम | भूराद्यानवाहुतयः | ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा - इदमग्नये स्विष्टकृते न मम || संस्रवप्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम् | ततो ब्रह्मचारी उपसङ्ग्रहणपूर्वकं गुरुं नमस्कृत्य परिसमूहनादि त्र्यायुषकरणान्तं समिदाधानं तस्मिन्नेवाग्नौ(सायं प्रातरग्नि परिचरण विधिना) कुर्यात् गोत्रनामपूर्वकं वैश्वानरादीनामभिवादनं कुर्यात् |
===========[[ समावर्त्तन स्नानम्]]=========
फिर आचार्यादि शिष्ट पुरष अग्नि के उत्तरभाग में विधिसे दायें से बाँई और आसादित शुद्ध जलसे पूर्ण गंधादि पूजनीय द्रव्यों से पूजन किए हुए आठ कलशों के पूर्व भाग में आसादित प्रागग्र कुशों पर उत्तराभिमुख ब्रह्मचारी स्थित होकर स्नान करें -> *[ततः आचार्यपुरुषैः परिश्रितस्योत्तरभागे भूरसीत्यादिना पूर्णपात्रवर्जं स्थापितानां दक्षिणोत्तरायतानां अष्टानामलजलपूर्णानां गंधपुष्पाद्यर्चितानां उदककम्भानां पूर्वभागे आस्तृतेषु प्रागग्रेषु कुशेषु ब्रह्मचारी उदङ्गमुखः स्थित्वा ]-->* ब्रह्मचारी स्वयं दक्षिणकलश से आरंभ कर सब से पहले प्रथम कलश को दोनों हाथ से ग्रहण करें |
*स्वयं दक्षिणकलशादारभ्य प्रथमकलशात्*- ॐ येऽअप्स्वन्तरित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः अग्निर्गायत्री छंदः आपो देवता कलश ग्रहणे विनियोगः-> येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| पा०गृ० २/६/१०|| इति मंत्रेण प्रथम कलशादुदकं गृहित्वा *(मंत्रार्थ- इस कलश में छिपी रहने वाली गोह्य, अङ्गप्रत्यङ्गो को नष्ट करने वाली उपगोह्य तथा जन्तुहिंसक मयूख प्रभृति मानसिक उत्साह भंग करने वाली,जिसका प्रतिकार न किया जाय तथा बहुविध रोगों से सताने वाली, इन्द्रियों की शक्ति को विनष्ट करनेवाली, आठ प्रकार की अग्नि को दूर हटाकर मैं मेध्य,प्रीतिकारिणी, रोचनशील अग्नि को ग्रहण कर रहा हूँ | ) इनके जलसे अपने को अभिषिक्त करें*
तेनोदकेन --> ॐ तेन मामभिषिञ्चामीत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुष् छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः---- ॐ तेन मामभिषिञ्चामि श्रियै यशसे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय ||पा०गृ० २/६/११|| इति मन्त्रेण स्वस्य मस्तके अभिषिञ्चेत् ||
*(मंत्रार्थ- लक्ष्मी, कीर्त्ति, वेदज्ञान और ब्रह्मतेज की कामना से मैं इस कलश के जल से अपने को अभिषिक्त करता हूँ)* फिर क्रम से दूसरे कलश को दोनों हाथ से ग्रहण करें- ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः ००||२/६/१०|| इति मंत्रेणैव द्वितीयोदकुंभादुदकं गृहित्वा ||-- मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें - ॐयेन श्रियं इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः आपो देवता कलशोदक ग्रहणे विनियोगः - ॐ येन श्रियमकृणुतां येनावमृशता गुँ सुराम् | येनाक्ष्यावभ्यषिञ्चतां यद्वां तदश्विना यशः || इति मंत्रेण अभिषिञ्चेत् || *(मन्त्रार्थ- हे अश्विनीकुमार ! आपने जिस जल से अभिषेक कर देवताओं को श्रीसम्पन्न किया हैं, जिस जल के अभिषेक से उपमन्यु के नेत्ररोग को दूर किया हैं तथा जिसका उपभोग कर आप यशस्वी बने हैं, उसी कीर्ति की कामना से मैं भी इस जल से स्नान करता हूँ)* फिर क्रम से तीसरा कलश धारण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००||२/६/१०|| इत्यनेन तृतीयोदकुभादुदकमादाय || --- मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें- ॐ आपोहिष्ठेत्यस्य सिन्धुद्विप ऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः | - ॐ आपो हिष्ठा००|| इति मंत्रेणाभिषिञ्चेत् || फिर चौथे कलश को धारण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| इत्यनेन चतुर्थोदकुंभादुदकमादाय || मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें- ॐ जो वः शिवतमो इत्यस्य सिन्धुद्विप ऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः- ॐ जो वः शिवतमो००|| इति मंत्रेणाभिषिञ्चेत् | फिर पाँचवे कलश को धारण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| मंत्र पढकर अपने को अभिषिक्त करें - ॐ तस्माऽअरङ्गमामवो इत्यस्य सिन्धुद्विप ऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता अभिषेके विनियोगः | - ॐ तस्माऽअरङ्गमामवो००|| इति मंत्रेणाभिषिञ्चेत् | फिर बाकी रहैं छठे-सातवें और आठवें कलशों का जल किसी पात्र में ग्रहण करें - ॐ येऽअप्स्वन्तरग्नयः००|| इत्यनेन षष्ठसप्तमाष्टमोदकुंभेभ्यः उदकमादाय || बिना बोले-चाले मौन रहते हुए अपने को तीनों कलशके इकठ्ठे जल से अभिषिक्त करें ||--- *तूष्णीं वार त्रयाभिषिंचेत् स्नानकर्ताऽऽत्मानम् ||*
तत उदुत्तममिति शिरोमार्गेण --- ॐ उदुत्तममिति शुनःशेप ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः वरुणो देवता मेखलोन्मोचने विनियोगः || *ॐ उदुत्तमं व्वरुणपाश००||* इत्यनेन मेखलान्मुमुच्य ||| *(मंत्रार्थ- हे वरुणदेव ! आप सभी प्राणियों को बन्धनों और सन्तापों से मुक्त करतें वाले हैं | हमारे मस्तिष्क और कण्ठ प्रभृति उत्तमाङ्गो तथा कमर आदि निम्न अवयवों में पड़े अपने (ब्रह्मचर्याश्रम-रूपी)बन्धनों से हमें छुटकारा दीजिए, जिससे आपराधिक मनोवृत्ति से मुक्त होकर हम अपने अनुष्ठानों को सम्पादित कर सकें | हे अदितिनन्दन वरुण ! आप हमें दैन्यरहित अखण्ड ऐश्वर्य पाने का अधिकारी बना दें |)* मौन रहतें हुए अपने दंड तथा अजिन को किसी जगह़ पर रख दैं | - तूष्णीं कृष्णाजिनदण्डयोस्त्यागः || ब्रह्मचारी अपने बाहूओं को ऊँचे करतें हुए दंडवत् मुद्रा में सूर्यनारायण का उपस्थान करें-> ॐ उद्यन्भ्राज इति प्रजापतिर्ऋषिः शक्वरी छंदः सविता देवता सूर्योऽपस्थाने विनियोगः- *ॐ उद्यन्भ्राज भृेष्णु ०००|| २/६/१६ पा०गृ०||* - *(मंत्रार्थ- हे प्रदीप्त सूर्यदेव ! आप अपने तेज से अन्य सभी को अभिभूत करने वालें हैं | आप शुभाशुभ के ज्ञाता हैं | आप प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल अपने उपासकों को दससंख्यक दान देतें हैं | द्रुतगामी मरुतों के बीच जिस प्रकार देवराज ठहरतें हैं,उसी प्रकार अपने उपासकों के बीच आप ठहरतें हैं | मैं भी आप का एक उपासक हूँ | अतः मुझ में भी आप दस-गुना, सौ-गुना, हजार-गुना दान देने की क्षमता भर दैं || यह ब्राह्मण के छः कर्तव्यो में से एक हैं- (दान देना)|*
मौन रहकर दहीं अथवा तिलों का भक्षण करें - *तत स्तूष्णीं दधि तिलान् वा प्राश्य* | शुद्ध जल से आचमन करें- *आचम्य |* केश और नाखून कटवाएँ - *जटालोम नखान्संहृत्य* | फिर औदुम्बर के दातून से मंत्र पढकर दाँत साफ करें(यह नित्य क्रियाओं में भी मान्य हैं) | - ॐ अन्नाद्येति मन्त्रस्य अथर्वण ऋषिः अनुष्टुप् छंदः सोमो देवता दन्तधावने विनियोगः - ॐ अन्नाद्यायव्यूहध्व गूँ००|| *(मंत्रार्थ- हे दाँत ! आत्मशुद्धि के लिए, अन्न खाने के लिए तुम पङ्क्तिबद्ध हो जाओ, क्योंकि इस दन्तधावन की लकड़ी के रूप में सम्पूर्ण वनस्पतियों के अधिष्ठाता राजा-सोम स्वयं उपस्थित हैं | वे मेरे मुँह को सत्कीर्त्ति और षड्विध ऐश्वर्य प्रदान कर उसे शुद्ध कर रहैं हैं )*|| शुद्ध जल से मुखशुद्धि करें - *तत उदकेन मुखशोधनम्* || बाद में पुनः उबटन लगाकर गरम जल से स्नान करें - *ततः पुनः उष्णोदकेन स्नानम् ||* प्राणापानौ मेत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः प्राणापानौ देवते चन्दनोपग्रहणे विनियोगः- मस्तकमें, नाक के पास, नेत्रों के पास(या पक्ष्मपुटों पर= आखेँ मुँद कर आँखों पर ), और मुँह के पास घीसा हुआ चन्दन लगायें - १- मस्तक में (गन्धेन अनुलेपनं भाले-- *ॐ प्राणापानौ मे तर्पय || २-आँखों पर - ॐ चक्षुर्म्मे तर्पय || ३- नाक और मुख के पास - ॐ श्रोत्रम्मे तर्पय ||*- *(मन्त्रार्थ- हे उपलेपनाधिष्ठित देव ! तुम मेरे प्राण, अपान, आँख और कान को प्रसन्न करो)*| ॐ पितरः शुन्धध्वमिति प्रजापतिर्ऋषिः यजुश्छंदः अश्वीन्द्रासरस्वती देवताः पाण्यावजनेस्य दक्षिणस्यां दिशि निषेके विनियोगः------||| फिर बायें हाथ से दायें हाथ में जल लेकर अपसव्य(जनेऊ दायें कन्धेपर तथा बायाँ हाथ जनेऊ के अंदर करकें) दक्षिणाभिमुख होकर हाथ में रखा हुआ जल पितृतीर्थ(अँगुठे और तर्जनी के मध्य के प्रदेश) से अपनी दाईँतरफ किसी पात्र में गिरायें - ततः पाण्योरवनेजनं कृत्वा तदुदकमादाय | अपसव्यं कृत्वा | दक्षिणाभिमुखो भूत्वा तदुदकं दक्षिणस्यां दिशि निनयेत् यथा- *ॐ पितरः शुन्धध्वमिति पितरः शुन्धध्वम् ||* जनेऊ पुनः यथावत् पहले के समान धारण करें- *सव्यम्* | जल का स्पर्श करें- *उदकस्पर्शः* | पुनः शरीरमें चन्दनादि उबटन लगाकर मंत्र पढैं- ॐ सुचक्षा इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः यजुष् छंदः सविता देवता जपे विनियोगः |-- ॐ सुचक्षा अहमक्षीभ्यां००|| *(मंत्रार्थ- हे सूर्यदेव ! मैं आँखो से सुदर्शन, मुख से वर्चस्वी और कानों से ठीक ढंग से सुनने वाला बनूँ)*| नई धोती अथवा ऐसी धुली धोती, जो धोबी के घर न धुली हो, वह मन्त्र पढ़कर धारण करें - ॐ परिधास्येति आलम्बायन ऋषिः पंक्तिश्छंदः वासौ देवता वस्त्र परिधाने विनियोगः- *ॐपरिधास्यै यशोधास्यै००||पा०गृ०२/६/२०||* इति वासः परिधाय - *(मन्त्रार्थ- हे वस्त्राधिष्ठित देवता ! कीर्ति एवं लम्बी आयु के लिए मैं यह वस्त्र धारण करता हूँ | धन तथा ऐश्वर्य देने वाले इस वस्त्र के धारण से मैं सौ साल की लम्बी आयु प्राप्त करूँ)* | आचमन करें- *आचम्य* || *#नूतन_यज्ञोपवीत_धारण_विधिना यज्ञोपवीतधारणं कुर्यात् ||*
यज्ञोपवीतं धृत्वा पुनराचम्य यथाशक्तिः गायत्रीं जपन् |
उपवस्त्र धारण करें- ॐ यशसा मा इत्यस्य अथर्वण ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता उत्तरीयवस्त्र धारणे विनियोगः- *ॐ यशसामाद्यावा००||२/६/२१||*- *(मंत्रार्थ- हे वस्त्राधिष्ठित देवता ! यशस्वी द्यावा-पृथिवी, इन्द्र और बृहस्पति मेरे पास आयें, ये यशोभिमानी, भगाधिष्ठाता देवगण मेरे पास आकर मुझे भी यशस्वी बनायें )* || स्नातक पुष्प-माला ग्रहण करें - ॐ जाऽआहरज्जमदग्निरिति मन्त्रस्य भरद्वाज सुमनसोऽनुष्टुप् पुष्पमाला परिग्रहणे विनियोगः- *ॐजाऽआहरज्जमदग्निः००||२/६/२३||* इत्यनेन पुष्पमालां गृहित्वा | *(मन्त्रार्थ- जिन फूलों को प्रजापति जमदग्नि ने श्रद्धा, बुद्धि, कामना और शारीरिक क्रियाओं की सम्पूर्त्ति के लिए धारण किया था, यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु मैं भी उन्हें उक्त गुणों की कामना से ग्रहण कर रहा हूँ |)* उस पुष्पमाला को सिर पर पुष्प-पटिका के तरह मंत्र पढ़कर धारण करें- *ततस्तां पुष्पमालां शिरसि बध्नीयात्*- ॐ जद्यशोप्सरसेतित्यस्य भरद्वाज ऋषिः अनुष्टुप् छंदः सुमनसो देवता पुष्पमाला बन्धने विनियोगः- *ॐजद्यशोप्सरसामिन्द्रश्चकार००||२/६/२४||*- *(मन्त्रार्थ- इन्द्र ने जिन फूलों को गूँथकर स्वर्गीय अप्सरा उर्वशी को लोकप्रिय बनाया था, उन्हें ही मैं भी अपने सिर पर धारण कर रहा हूँ |)*| फिर पगड़ी धारण करें- *संग्रथिताः उष्णीषेण शिरो वेष्टयेत्*- ॐ युवा सुवासाः इत्यस्य विश्वामित्र ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः सूर्यो देवता उष्णीषेण शिरोवेष्टने विनियोगः- *ॐ युवा सुवासाः००||* मंत्र पढ़कर दाये कान में सुवर्ण-कुण्डल धारण करें- *तत दक्षिण कर्णे सुवर्णकुण्डलं धारयेत्*- अलंकरणमिति मंत्रस्य भारद्वाज ऋषिः उष्णिक्छन्दः अलङ्करणदेवता अलङ्करण धारणे विनियोगः- *ॐअलङ्करणमसि भूयोलङ्करणम्भूयात् ||* फिर इसी मंत्र से बायें कान पर सुवर्ण-कुण्डल धारण करें | मंत्र पढ़कर पहले दाईं तथा बाद में बाईं आँखों में काजल लगायें- *ततो वृेत्रस्येत्याक्षिणी अञ्जेत् (प्रथमं दक्षिणं ततो वाममनेनैव मन्त्रेण)*- वृेत्रस्येति मंत्रस्य प्रजापतिर्ऋषिः गायत्री छंदः अञ्जनो देवता चक्षुरञ्जने विनियोगः- *ॐवृेत्रस्यासिक००||३/४||* मंत्र पढ़कर दर्पण में मुख देखैं- *ततो आदर्शे आत्मानं दर्शयेत्*- रोचिष्णुरिति मंत्रस्य सूर्य ऋषिः यजुश्छंदः आशीर्देवता आदर्शे आत्मदर्शने विनियोगः- *ॐरोचिष्णुरसि* || छत्र( वा छाता) धारण करें- *ततः छत्रं प्रतिगृह्णाति* अनेन मन्त्रेण- बृेहस्पते इति मन्त्रस्य गौतम ऋषिः निचृद्गायत्री छंदः छत्रं देवता छत्रग्रहणे विनियोगः- *ॐबृेहस्पतेश्छदिरसिपाप्मनो मामन्तर्धेहि तेजसो यशसो मामन्तर्धेहि ||* इत्यनेन छत्रग्रहणम् - *(मन्त्रार्थ- हे छत्र ! तुमने बृहस्पति को ढँककर उन्हें धूप से बचाया था, उसी तरह तुम मेरे पापों को ढँक दो तथा यश और तेज को प्रकाशित करो)*| मन्त्र पढ़कर दाँये तथा बाँयेँ पैरों में जूते पहने- *उपानहौ प्रमुञ्चते पादयोर्युगपत्*- प्रतिष्ठेति मंत्रस्य विश्वामित्र ऋषिः यजुश्छंदः लिङ्गोक्ता देवता उपानह् परिधाने विनियोगः- *ॐप्रतिष्ठेस्थो विश्वतोमापातम् ||*- *(मंत्रार्थ- हे उपानह ! तुम दोनों स्थिर होते हुए सब ओर से मेरी रक्षा करो )*| मन्त्र पढ़कर वाँस की छड़ी हाथ में लें- *वैणव-दण्ड ग्रहणम्*- विश्वाभ्य इति मंत्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः दण्डो देवता दण्डग्रहणे विनियोगः- *ॐविश्वाभ्यो मानाष्ट्राभ्यस्परिपाहिसर्वतः ||* - *(मंत्रार्थ- हे वेणु-दण्ड ! तुम सम्पूर्ण राक्षसादि हिंसको से मेरी रक्षा करो |)*|
*दन्तप्रक्षालनादीनि नित्यमपि वासश्छत्रोपानहश्चापूर्वाणि चेन्मन्त्रः||*--> दन्तधावन करतें समय नित्य मन्त्र पढ़े तथा नये कपड़े, छाता,जूते आदि पहनते समय भी (जो जो मन्त्र कहे गएँ वह) मन्त्र अवश्य पढ़े |
आचार्य स्नातकको नियम कहैं- *तत आचार्यः स्नातकस्य नियमाञ्छ्रावयेत् ||* --- *कामादितरः ||पा०गृ०सू०||* द्विजाति भिन्न वर्ण के व्यक्ति भी अपनी इच्छासे इसका पालन कर सकतें हैं- परंतु पहले पूर्व कहैं अधिकार को ध्यान में रखना चाहिये | *शूद्रादिस्पर्शनं न कर्तव्यम् ||*- शूद्र आदि हिन वर्ण का स्पर्श न करें | *नृत्यगीतवादित्राणि न कुर्यान्न च गच्छेत् ||* - नाचने, गाने और बजाने का काम न स्वयं करे और नहीं दूसरों द्वारा अनुष्ठित ऐसे कार्य में सम्मिलित हो | *क्षेमे नक्तं ग्रामान्तरं न गच्छेन्न च धावेत् ||*- यदि कोई विशेष विपत्ति न आये तो रात में दूसरे गाँव में न जाय और अनावश्यक न दौड़े | *उदपानावेक्षण वृक्षारोहण फलप्रपतन सन्धिसर्पण विवृतस्नान विषमलङ्घन शुक्तवदनसन्ध्याऽऽदित्यप्रेक्षणभैक्षणानि न कुर्यात् | न ह वै स्नात्वा भिक्षेतापह वै स्नात्वा भिक्षां जयतीति श्रुतेः ||*- कुएँ में न झाँके, पेड़ पर न चढे़, कच्चे फल तोड़कर न गिराये, सन्धिवेला अर्थात् सायं-प्रातःकाल यात्रा न करें, नंगा स्नान न करें, ऊबड़-खाबड़ भूमि न लाँघे, गन्दी बातें न बोलें, संध्यावेला में सूर्यदर्शन न करें,भीख न माँगें- श्रुति वचन अनुसार समावर्त्तन संस्कार के बाद भिक्षाटन से स्नातक का पतन हो जाता हैं |
*जलमध्ये स्वमुखं न पश्येत् ||* जल में अपना मुख न देखें | *वर्षत्यप्रावृतो व्रजेत् - *(अयं मे इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः जगती छन्दः वज्रो देवता जपे विनियोगः- #अयं_मे_वज्रः_पाप्मानमपहनत् ||* - *(मंत्रार्थ- यह रविरश्मि-संस्कृत जलकण रूपी वज्र मेरे पापों को नष्ट कर दें )* यदि वर्षा पड़ रही हो तो *अयं मे ०००| मंत्र पढ़कर बिना छाता लगाये ही चले | *अजातलोम्नीं विपुंसीं षण्ढं च नोपहसेत् ||* जिस स्त्री की देह में रोआँ न हो, या जिसके मुँह पर मूँछ-दाढ़ी हो या पुरुष-नपुंसक हो उसका उपहास न करें | *गर्भिणी विजन्येति ब्रूयात् | सकुलमिति नकुलम् | भगालमिति कपालम् | मणिधनुरितीन्द्रधनुः | गां धयन्तीं परस्मै नाचक्षीत ||* - गर्भिणी स्री को गर्भिणी न कहकर #कल्याणप्रसवा कहैं | निर्वंश को #सवंश कहें | कपाल को #भगाल कहें | इन्द्रधनुष को #मणिधनुष कहें | बछड़े को दूध पिलाती गाय के बारे में दूसरे कौ नहीं बतलाना चाहिए | *सस्यवत्यां भूमौ केवलायां तृणैरनंतर्हितायां मूत्रपुरीषोत्सर्गं न कुर्यात्*- जिस खेत में किसी भी प्रकार का धान आदि उगा हो, अथवा केवल तृण(घास)-वाली जमीनपर मल-मूत्र त्याग न करें | *धावमानः सन् उत्तिष्ठन् सन् मूत्रपुरीषोत्सर्गं न कुर्यात्*- दौड़ते हुएँ या खड़े रहकर मल-मूत्र त्याग न करें | *विकृतं वासो नाच्छादयीत*- गन्दे,फटे और अनुपयुक्त कपड़े न पहनें | *विकृतं= नील्यादिना विकारमापादितं वस्त्रं न परिदधीत*- विकृत अर्थात् नीली(गळी)गेरुआ आदि से रंगे हुए कपड़े न पहनें | *तृणाद्यन्तरभूमौ शिरः प्रावरणैरावेष्ट्य यज्ञोपवीतं निवीतं कृत्वा आलंबितं कर्णे कृत्वा दिवोदङ्गमुखो रात्रौ दक्षिणमुख उपविश्य मौनी भूत्वा मूत्र-पुरीषोत्सर्गं कुर्यात् |* तृणादि रहित जमीनपर सिर को वस्त्र से लपैट़कर जनेऊ निवीत(गले- में- हार की तरह) करकें कानपर लगाकर मूत्रोत्सर्ग तथा दिन में उत्तराभिमुख और रात्रि में दक्षिणाभिमुख बैठकर मौन रहतें हुएँ मलत्याग करें | *दृठव्रतो वधत्रः स्यात् सर्वत आत्मानं गोपायेत् सर्वेषां मित्रमिव ||*- निष्ठापूर्वक अपने व्रत का पालन करना चाहिए, सब के साथ मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए, दूसरों का रक्षक बनना चाहिए, अपनी रक्षा सर्वतोभावेन करनी चाहिए | *तिस्त्रो रात्रीर्व्रतं चरेत्*- समावर्त्तन के दिन से तीन दिनतक स्नातक को व्रत रखना चाहिए | *अमांसाश्यमृण्यमयपायी*- मांस न खाये तथा मिट्टी के बर्तन में पानी आदि पेय पदार्थ न पीये(क्योंकि मिट्टी के बर्तन का एक बार उपयोग करने से थूँक से जुठा होता हैं- पर काच नहीं)| *स्त्रीशुद्रशव कृष्णशकुनिशुनां चादर्शनमसम्भाषा च तैः*|- नारी, शुद्र, मुर्दा, कौए और कुत्तों को न देखैं और न इनके साथ बातें करें |
*शवशूद्रसूतकान्नानि च नाद्यात्*- मरणोपरान्त उनके गृहसम्बन्धियों का, शूद्र का तथा जननाशौचवाले लोगों का अन्न नहीं खाना चाहिए | *मूत्रपुरीषे ष्ठीवनं चातपे न कुर्यात् सूर्याच्चात्मानं नान्तर्दधीत*- सूर्यके-धूप में मल-मूत्र न त्यागे और थूके नहीं | सूर्य के प्रकाश से अपने को अलग न करें(छाता मत ओढें)| *तप्तेनोदकार्थान् कुर्वीत*- गर्म जल से शौच या आचमन आदि क्रियाएँ न करें | *अवज्योत्य रात्रौ भोजनम्*- रात में दीप जलाकर(प्रकाश में) भोजन करें | *सत्यवदनमेव वा*- *दीक्षीतोऽप्यातपादीनि कुर्यात् प्रवर्ग्यवाँश्चेत् ||२/८/९ पा०गृ०||*- सदा सच ही बोलें, अथवा यज्ञ के लिए दीक्षा-सम्पन्न व्यक्ति भी यदि *सोमयाग* की विशेष विधि से युक्त हैं तो उसे भी इन नियमों का पालन करना चाहिए | *इत्यादयो यमानियमाः कर्तव्याः ||*
#स्नातकस्य_पिता- > देशकालौ संकीर्त्य कृतस्य समावर्त्तन-संस्काराख्यस्य कर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् बटुकान्(८ से १२ वय वाले द्विज बालक) कुमारिकाः सुवासिनीश्च यथाकाले यथा संपन्नान्नेन अहं भोजयिष्ये | तेन कर्माङ्गदेवता प्रीयतां न मम || कृतस्य समावर्त्तनाख्यस्य कर्मणः साङ्गता सिद्ध्यर्थं ब्राह्मणेभ्यो यथोत्साहं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे तेन कर्मांगदेवता *इन्द्रः* प्रीयताम् ||आचार्यादिभ्यो दक्षिणां दत्वा तैराशीषो गृह्णीयात् ||
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री. उमरेठ ||शेष






#स्नातकस्य_मधुपर्कार्चन_विधिः||
वैदिक-विद्यापीठ या गुरुकुल में वेदादि का पूर्ण अध्ययन समाप्त कर #समावर्तन-संस्कार के बाद स्नातक-पुत्र का पिता या आचार्य अर्घदान-मधुपर्कादि से अर्चन कर गृह प्रवेश करवाएँ |

#षडर्घ्या_भवंत्याचार्य_ऋत्विग्वैवाह्यो_राजा_प्रिय #स्नातक_इति || १/३/१|| #प्रतिसंवत्सरानर्हयेयुः ||१/३/२|| #यक्ष्यमाणा_स्त्वृत्विजः||१/३/३|| पारस्कर गृह्यसूत्रे ||
१- आचार्य २- यज्ञ का ऋत्विज् ३- विवाहेच्छुक वर ४- क्षत्रिय वंशज-राजा ५- बुझुर्ग-प्रियजन और ६- स्नातक इन छह पुरुषों को अर्घ आदि देकर सत्कार करना चाहिए || वर्ष में एक बार घर आने पर कहे हुए छह समादरणीयों को अर्घ प्रदान कर उनका सन्मान करना चाहिए || यज्ञ सम्पन्न करनेवाले यजमान; *ऋत्विज्* को (कभी भी) अर्घ दे)|| #व्याख्या- वर्ष के अन्त में आने पर अर्घदान का विधान किया जा चुका हैं, परंतु उसी वर्ष में आदि या मध्य में भी यज्ञ के लिए ऋत्विक् आये, तब उनका सत्कार अर्घदान से किया जाता हैं | इसीलिए पा०गृ०सूत्र में *१/३/३* अलग सूत्र की रचना हैं |
देशकालौ संकीर्त्य- ॐ तत् सत् श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं गृहे आगतं स्नातकं मधुपर्केणार्चयिष्ये ||
तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनार्थं ब्राह्मणद्वय-वरणं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता प्रजापतिः) च करिष्ये|| अद्येत्यादि०००शुभपुण्यतिथौ वेदाद्ययन समाप्ति पूर्वकं गृहे आगतं स्नातकं मधुपर्केणार्चयिष्ये...
ॐषडर्घ्या भवंत्याचार्य ऋत्विग्वैवाह्यो राजा प्रिय स्नातक इति || १/३/१|| प्रतिसंवत्सरानर्हयेयुः ||१/३/२|| यक्ष्यमाणा स्त्वृत्विजः||१/३/३|| पारस्कर गृह्यसूत्रे ||
आसनोपविष्ट स्नातकं प्रार्थयेत्- साधु भवानास्तामर्चयिष्यामो भवन्तम्| पिता- अहं अर्चयिष्यामि| पंचविंशतिकुशात्मकं विष्टरं गृहित्वा- ॐविष्टरो विष्टरो विष्टरः प्रतिगृह्यताम्| स्नातक- प्रतिगृह्णामि इति वदन् विष्टरं गृहित्वा आसनादधो उदगग्रं स्थापयेत् - ॐवर्ष्मोस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्य्यः|इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति|| तत्रोपरि स्नातकोपविश्य ||
पिता - पाद्यपात्रं गृहित्वा ॐपादार्थं उदकं पादार्थं उदकं पादार्थं उदकं प्रतिगृह्यताम्|| स्नातक पाद्यजलं गृहित्वा स्वस्य दक्षिणं प्रथमं पश्चात् वामं पादं प्रक्षालयेत् | ॐविराजो दोहोसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः||
पिता - (द्वितीयः)विष्टरो गृहित्वा ॐ विष्टरो विष्टरो विष्टरः प्रतिगृह्यताम्| स्नातक- प्रतिगृह्णामि इति वदन् विष्टरं गृहित्वा द्वितीय विष्टरं आसनादधो उदगग्रं निधाय- ॐवर्ष्मोस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्य्यः| इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति|||
तत्रासने पादौ करोति ||
पिता - गंधपुष्पाक्षतैर्युतं अर्घ्यपात्रं गृहित्वा " अर्घो अर्घो अर्घः प्रतिगृह्यताम्||
स्नातक- प्रतिगृह्णामित्युक्त्वा अर्घं गृहित्वा हस्ताभ्यां शिरसाभिवंदनं कुर्यात् -ॐ आपस्थ युष्माभिः सर्वान् कामानवाप्नवानि|| अर्घ्यदानवत् प्राग्वा उदग्वासिंचेत् ॐसमुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभि गच्छत| अरिष्टाऽस्माकं वीरा मा परा सेचिमत्पयः||
पिता- आचमनीयपात्रं गृहित्वा " आचमनीयं उदकं/आचमनीयं उदकं/आचमनीयं उदकं प्रतिगृह्यताम् ||
स्नातक- प्रतिगृह्णामि इति वदन् स्वदक्षिण करे आचमनीयोदक मादाय - ॐआमागन्यशसास गूं सृेज वरेचसा|तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम्|| इति पठित्वा आचम्य पुनः तूष्णींद्विवारम्||
पिता- काँस्यपात्रे विषममात्रया दधिमधुघृतम् एकीकृत्य तदुपरि द्वितीयं पात्रमधोमुखं निधाय||कांस्यपात्रेण संपुटं गृहित्वा ॐमधुपर्को मधुपर्को मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्|| कांस्यपात्रमुद्घाट्य स्नातक- मधुपर्कं प्रतीक्षते " ॐमित्रस्य त्वा चक्षुखा प्रतिक्षे||इति निरिक्ष्य|| ॐदेवस्यत्त्वा सवितुः प्प्रसवेश्विनोर्ब्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्|प्रतिगृह्णामग्ग्नेेष्ट्वास्येन प्राश्नामि|| प्रतिगृह्णामिति दक्षिणेन प्रगृह्य वामेकृत्वा अनामिकया मधुपर्कं त्रिः प्रदक्षिणमालोडयति ॐ नमः श्यावाश्यायान्नशने यत्तऽआविद्धं तत्ते निष्कृन्तामि| अनामिकाअंगुष्ठेनच त्रिर्निरुक्षयति || अनामिकया त्रिर्वारं प्रतिमन्त्रान्ते प्राशयेत् ॐमधुव्वाता(१)इति प्रथमवारं/ ॐमधुनक्त०(२)इति द्वितीयवारं/ ॐमधुमान्नो०(३)इति तृतीयवारम् |
पिता- आचमनीय जलं दद्यात्- अङ्गन्यासार्थं जलं दद्यात् मंत्रान्पठित्वा दक्षिणस्या अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यां न्यसेत् ||मुखे ॐवाङ्मऽआस्येस्तु|| नासिकयोः ॐनर्सो मे प्राणोस्तु||नेत्रयोः ॐअक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु||कर्णयोः ॐकर्णयोर्मे श्रोतमस्तु||बाह्वोः ॐबाह्वोर्मे बलमस्तु||उर्वोः ॐउर्वोर्मे ओजोस्तु||सर्वांगेषु ॐअरिष्टानिमेङ्गानि तनूस्तन्वामे सह सन्तु||
ॐपरिधास्यै०इति वस्त्रं,ॐयज्ञोपवीतं परमं० इति उपवीतं,ॐसुचक्षा अह० इति गंधं,ॐअनाधृेष्टा० इति अक्षतान्, ॐओषधीः प्रति० इति पुष्पमालां, ॐवसोः पवित्रमसि शत० इति सुगंधितैलं स्नातकाय समर्प्य|
हस्ते जलमादाय अनेन मधुपर्कार्चनेन परमेश्वरः प्रीयतां न मम||
स्नातक अपने माता पिता आचार्य का अभिवादन करें तथा अन्य बड़ों को यथा योग्य नमस्कार करें |
ब्राह्मणाः सुमङ्गल पद्यानि पठेयुः | स्नातकः- मंगल-मंत्रपाठ पठन पूर्वकं गृह-प्रवेशं कुर्यात्
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः



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