नामकरण संस्कार
षोडश संस्काराः (नामकरणम्) खंड६४~ नामकरण संस्कार सोलहसंस्कारोंके क्रममें पाँचवा संस्कार हैं.देवगुरु बृहस्पतिने नामको जगत् के सम्पूर्ण व्यवहार हेतुका केन्द्र कहा हैं- " नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः|| नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्य स्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म|| वीरमित्रोदय सं०प्र०|| सांसारिक जीवनमें वस्तुकी तरह व्यक्तिके संवयंके परिचय हेतु भी नामकरण आवश्यक हैं.जीवमात्रके सम्यक् ज्ञानके लिये भाषामें संज्ञा शब्दकी अवधारणा हैं.वास्तवमें नामकरण व्यक्तिवाचक संज्ञा-निर्धारणका ही संस्कारित स्वरूप हैं.नामकरण-संस्कार हेतु हमारे प्राचीन ऋषि-महर्षियोंने बड़ा ही वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म चिन्तन किया हैं ताकि प्रदत्ताभिधान(नामसंज्ञा)से जातकके व्यक्तित्वका स्वरूप आत्मोन्नतिकारक एवं चरित्रवान् हो सके.सुविचारित नामकरणके पश्चात् जातक तदनुरूप बननेका आजीवन सतत प्रयास करता हैं.नामित व्यक्तिसे समाज भी तदनुरूप ही बननेकी अपेक्षा करता हैं.इसी कारणसे ब्राह्मण वर्णके नाम क्षमा,सत्य, शील,त्याग, आस्तिक्य,भक्ति,शान्ति,विनम्रता,संतोष,देवभक्ति,आदि गुणाधारित होते थे.क्षत्रिय वर्णके नाम वीरता,धैर्य,शौर्य,रणकौशल,निड़रता,आदि. वैश्यवर्णके नाम धन-सम्पत्ति,लक्ष्मी,ऐश्वर्यवान्,दया,दान,आदि, एवं शूद्र वर्णके नाम सेवा आदि गुणोंसे युक्त होतें थे. हमारे ऋषिमुनियोंने नामकरण- संस्कारमें कैसे,कब एवं कौन-सा नाम रखें,इसका विस्तृत शास्त्रीय विवेचन किया हैं.इसका सूत्रग्रन्थों,स्मृतिग्रन्थों,निबन्ध-ग्रन्थों एवं ज्योतिषीय मुर्हूतग्रन्थोमें सम्यक् उल्लेख हुआ हैं." नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्यकारयेत्|| पुण्ये तिथौ मुर्हूते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते||मनुस्मृतिः२/३०|| मनुने १०वें,१२ वें या शुभ नक्षत्र,तिथियुक्त मुर्हूतमें नामकरण करने हेतु कहा हैं,जबकि-" दशम्यामुत्थाप्य ब्रह्मणान् भोजयित्वा पिता नाम करोति||पारस्कर गृ०१/१७/१|| पारस्करगृह्यसूत्रमें इसे १०वें दिन करनेको कहा हैं.मदनरत्नमें इसका वर्णाननसार निर्धारण करनेका कहा हैं." द्वादशे दशमे वाऽपि जन्मतोऽपि त्रयोदशे|| षोडशे विंशतौ चैव द्वाविंशे वर्णतः क्रमात्||अर्थात् जन्मसे १०वें १२ वें या वर्णानुसार ब्राह्मणको१३ वें, क्षत्रियकों १६ वें, वैश्यको २० वें दिन एवं शूद्रको २२ वें दिन नामकरण संस्कार करना चाहिये. मासान्त सौवाँ दिन,एवं वर्षान्त आदि गौणकालका भी उचित मुर्हूतमें उल्लेख हैं. धर्मसिन्धु पूर्वार्ध ३ परिच्छेदमें इसे जातकर्मके तुरंत बाद या ब्राह्मणोंके लिये जन्मसे ११ या १२ वें दिन, क्षत्रियोंके लिये १३ वें या १६ वें दिन, वैश्योंके लिये १६ वें या २० दिन एवं शूद्रोंके लिये २२ वें दिन या मासान्तमें करनेका उल्लेख हैं. मुख्यकालमें करनेके लिये कोई आवश्यक शुभदिन तिथि या नक्षत्रका विचार न करैं.परंतु गौणकालमें आवश्यक शुभमुर्हूतका जरूर विचार करैं."अत्र मलमास गुरु-शुक्रास्तादि दोषो नास्ति||धर्मसि०"|| नामकरण संस्कारमें मलमास,गुरुशुक्रका अस्त,सिंहस्थगुरु,चतुर्मास,दक्षिणायन आदिका दोष नहीं हैं.परंतु गौणकालके नामकरणमें " वैधृति,व्यतीपात्त, ग्रहण,संक्रान्ति, अमावास्या,भद्रा, आदि कुयोग वर्जित हैं.अपराह्ण एवं रात्रिकालकाभी निषेध हैं.पूर्वार्ध श्रेष्ठ और मध्याह्म मध्यम हैं. मुर्हूतप्रकाशमें "अन्यत्रापि शुभे योगे वारे बुधशशाङ्कयोः|| भानोर्गुरोः स्थिरे लग्ने बालनामकृतिः शुभा|| पुनर्वसु" पुष्य" हस्त" चित्रा" स्वाती" अनुराधा"ज्येष्ठा" मृगशिर्ष" मूल" उत्तरात्रय" आदि ग्राह्य नक्षत्र माने गये हैं. अन्यत्र शतभिषा" श्रवण" एवं रेवतीभी ग्राह्य मानें गयें हैं.तिथि २' ३' ५' ७'१०'११'१३' एवं कृष्णप्रतिपदा ग्राह्य हैं. स्थिर लग्न स्थिर शुभ नवांश, शुभ गोचर चन्द्र एवं सोम" बुध" गुरु" रवि" आदि वार प्रशस्त हैं.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री. उमरेठ. शेष पुनः
[7/2, 15:02] ॐनमश्चंडिकायै": षोडश संस्काराः(नामकरणम्)खंड ६५~ भारतमें नामकरणका विशेष उद्देश्य हैं.अधिकतर देवी-देवताओंके नामपर ही नामकरण होना चाहिये..इसके कारणभी हैं.बच्चोंको पुकारनेके साथ ही लोंगोको ईश्वरके नामोच्चारणका सुअवसर मिल जाता है.पुराणोंके अनुसार" वेश्याएँभी अपने तोतोंसे "राम" नाम रटवाकर भवसागरसे तर गईं.कहतें हैं,पापमें डूबा हुआ "अजामिल" भी धोखेसे अपने पुत्र " नारायण" को पुकार कर विष्णुलोकका अधिकारी बन गया था.ऐसी अनेक कथाएँ हैं.इससे यह अनुमान होता हैं कि देवता या महापुरुषके नामपर ही बालकका नामकरण करना उचित हैं.आज,इस नईं सदीओंमें नामकरणसे न तो इस प्राचीन संस्कृतिकी रक्षा होतीं है और न नैतिकताका पालन ही हो पाता हैं.कोई अपनी बच्चीको" लिलि" कहता है तो कोई "बेबी"और कोई डोली".धीरे धीरे अब ये रूप यहाँतक बिगड़तें जातें हैं कि कुछ लोग अपने लाड़लोंको " जैक" जेसन" हेनरी" और हार्वे" -जैसे नामोंसे पुकारकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट करतें हैं! बालकका नाम ऐसा रखना चाहिये,जिसका अर्थ सुन्दर हो- उच्चारण मधुर और कोमल हो,जो सुननेमें कर्कश और घृणाजनक न हो.बालकके पैतृकगुण और कुलपरम्परागत प्रतिष्ठाके अनुरूप हों.जातीय विशेषता और रूप-रंग के प्रतिकूल न हों,नामकरण के विधान आचार्य द्वारा ही होतीं हैं.जिस विधानमें क्रमशः गणपतिपूजन मातृकापूजन नान्दीश्राद्ध आदि कर्म करकें आचार्य स्वयं नामकरण करतें हैं. बुआएँ नहीं! नामकरण संस्कार चारों वर्णोंका होता हैं. स्त्री एवं शूद्रोंका बिना वैदिक मंत्र पढैं और द्विजातिओंका समन्त्रक होता हैं.नाम कैसा हो- " मङ्गल्यं ब्राह्मणस्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्|| वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्|| शर्मवद् ब्राह्मणस्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्|| वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्|| स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्|| मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्|| मनुस्मृतिः२/३१/-३३|| शर्मेति ब्रह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्|| गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः||विष्णुपुराण३/१०/९|| इन श्लोकोंसे प्रमाणित यह हैं कि ब्राह्मणका नाम मङ्गलकारी एवं नामान्तशर्मयुक्त,क्षत्रियोंका बल तथा रक्षासमन्वित नामान्तवर्मायुक्त,वैश्यका धन, पुष्टिसमन्वित और नामान्तगुप्तयुक्त, तथा शूद्रोंका दैन्य और सेवाभावसमन्वित नामान्तदासयुक्त, स्त्रियोंके नाम सुकोमल,मनोहारी,मङ्गलकारी, तथा दीर्घवर्णान्त होने चाहिये; जैसे यशोदा. गृह्यसूत्रकार आचार्य पारस्करने कहा हैं कि बालकका नाम दो या चार अक्षरयुक्त,प्रथमाक्षर घोषवर्णयुक्त(वर्गका तीसरा,चौथा,पाँचवाँ वर्ण) मध्यमें अन्तःस्थ( य,र,ल,व आदि) एवं नामका अन्तिम वर्ण दीर्घ एवं कृदन्त हो,तद्धितान्त न हों. यथा- देवशर्मा" शूरशर्मा"भगवत्प्रसादशर्मा"(८ अक्षर)" आदि. कन्याका नाम विषमवर्णी तीन पाँच सात आदि अक्षरयुक्त, दीर्घवर्णान्त एवं तद्धितान्त न होना चाहिये- यथा* श्रीदेवी.हेमांगी,वासवद्दत्ता,आदि. धर्मसिन्धुने चारनाम बतायें हैं- देवनाम( जोकुलगणेश और कुलदेवीभक्त कहा जाता हैं.) " मासनाम( जिस वैदिक मासमें जन्म हुआ हो उस अनुसार जैसे कि मलमासमें जन्म होनेपर पुरुषबालकका "पुरुषोत्तम"और बालिकाका " राधा"वैसे चैत्रादिमास अनुसार वैकुण्ठ आदि)नक्षत्रनाम( जिस नक्षत्र और राशिमें जन्म हों तदनुसारका नाम) व्यावहारिकनाम( जो गुण और वर्ण अननसार हों. अभी अभी थोडे गतदिनोंमें सोशियल मिड़ीयासे एक धर्मप्रचारकका प्रस्ताव प्रश्न था कि " राम" का जन्म तो पुनर्वसुमें था और जन्म अनुसार तुला राशिभी नहीं थी पर " राम" नाम क्यों रखा? मैनें जवाब में कहा वह नामकरण संस्कारके अनुसार चारनाम रखनेकी शास्त्रोंमें व्यवस्था हैं. उसमेंसे " राम" नाम वसिष्ठजीने व्यावहारिक नामानुसार गुण आधारित सामुद्रिकशास्त्रानुसार रखा हैं. चिद्वाचको रकारः स्यात्सद्वाच्योऽकार उच्यते..
मकरानन्दवाची स्यात्सच्चिदानन्दमव्ययम् || चिद् वाचक "रकार" सत् वाचक "आकार" तथा आनन्दवाचक " मकार" से सत्चिदानन्द गुणत्रय बोधक हैं " राम" नाम. प्रचारकको बेहद संतोष हुआ" आगे- विवाहे सर्वमाङ्गल्ये यात्रायां ग्रहगोचरे| जन्मराशि प्रधानत्वं नामराशिं न चिन्तयेत्|| विवाहादि मंगलकार्यों तथा मुर्हूतादि विषयोंमें जन्मकी राशि और नक्षत्रनाम का प्राधान्य हैं.व्यावहारिक नामका नहीं.वैसे- " देशे ग्रामे गृहे युद्धे सेवायां व्यवहारके|| नामराशि प्रधानत्वं जन्मराशिं न चिन्तयेत्|| अर्थात्- गाँवमें" घरमें" युद्धमें" सेवामें" और समस्त जगद्रूपव्यावहारमें उच्चारणमात्र नामराशिका महत्व हैं जन्मराशिका नहीं.निर्णयसिन्धुमें बालकका नाम मास,गुरु,एवं कुलदेवताके नामपर भी करने हेतु विकल्प हैं,देवमन्दिर" हाथी" घोडा" वृक्ष" वापी" सरोवर" लता" तथा राजप्रासादके नामकरणका भी शास्त्रोंमें विचार किया हैं.बालकका नाम लता दिशा सरोवर या नदी पैड़ आदि पर नहीं रखना चाहिये.
[7/2, 15:02] ॐनमश्चंडिकायै": षोडश संस्काराः(नामकरणम्)खंड ६५~ भारतमें नामकरणका विशेष उद्देश्य हैं.अधिकतर देवी-देवताओंके नामपर ही नामकरण होना चाहिये..इसके कारणभी हैं.बच्चोंको पुकारनेके साथ ही लोंगोको ईश्वरके नामोच्चारणका सुअवसर मिल जाता है.पुराणोंके अनुसार" वेश्याएँभी अपने तोतोंसे "राम" नाम रटवाकर भवसागरसे तर गईं.कहतें हैं,पापमें डूबा हुआ "अजामिल" भी धोखेसे अपने पुत्र " नारायण" को पुकार कर विष्णुलोकका अधिकारी बन गया था.ऐसी अनेक कथाएँ हैं.इससे यह अनुमान होता हैं कि देवता या महापुरुषके नामपर ही बालकका नामकरण करना उचित हैं.आज,इस नईं सदीओंमें नामकरणसे न तो इस प्राचीन संस्कृतिकी रक्षा होतीं है और न नैतिकताका पालन ही हो पाता हैं.कोई अपनी बच्चीको" लिलि" कहता है तो कोई "बेबी"और कोई डोली".धीरे धीरे अब ये रूप यहाँतक बिगड़तें जातें हैं कि कुछ लोग अपने लाड़लोंको " जैक" जेसन" हेनरी" और हार्वे" -जैसे नामोंसे पुकारकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट करतें हैं! बालकका नाम ऐसा रखना चाहिये,जिसका अर्थ सुन्दर हो- उच्चारण मधुर और कोमल हो,जो सुननेमें कर्कश और घृणाजनक न हो.बालकके पैतृकगुण और कुलपरम्परागत प्रतिष्ठाके अनुरूप हों.जातीय विशेषता और रूप-रंग के प्रतिकूल न हों,नामकरण के विधान आचार्य द्वारा ही होतीं हैं.जिस विधानमें क्रमशः गणपतिपूजन मातृकापूजन नान्दीश्राद्ध आदि कर्म करकें आचार्य स्वयं नामकरण करतें हैं. बुआएँ नहीं! नामकरण संस्कार चारों वर्णोंका होता हैं. स्त्री एवं शूद्रोंका बिना वैदिक मंत्र पढैं और द्विजातिओंका समन्त्रक होता हैं.नाम कैसा हो- " मङ्गल्यं ब्राह्मणस्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्|| वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्|| शर्मवद् ब्राह्मणस्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्|| वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्|| स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्|| मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्|| मनुस्मृतिः२/३१/-३३|| शर्मेति ब्रह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्|| गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः||विष्णुपुराण३/१०/९|| इन श्लोकोंसे प्रमाणित यह हैं कि ब्राह्मणका नाम मङ्गलकारी एवं नामान्तशर्मयुक्त,क्षत्रियोंका बल तथा रक्षासमन्वित नामान्तवर्मायुक्त,वैश्यका धन, पुष्टिसमन्वित और नामान्तगुप्तयुक्त, तथा शूद्रोंका दैन्य और सेवाभावसमन्वित नामान्तदासयुक्त, स्त्रियोंके नाम सुकोमल,मनोहारी,मङ्गलकारी, तथा दीर्घवर्णान्त होने चाहिये; जैसे यशोदा. गृह्यसूत्रकार आचार्य पारस्करने कहा हैं कि बालकका नाम दो या चार अक्षरयुक्त,प्रथमाक्षर घोषवर्णयुक्त(वर्गका तीसरा,चौथा,पाँचवाँ वर्ण) मध्यमें अन्तःस्थ( य,र,ल,व आदि) एवं नामका अन्तिम वर्ण दीर्घ एवं कृदन्त हो,तद्धितान्त न हों. यथा- देवशर्मा" शूरशर्मा"भगवत्प्रसादशर्मा"(८ अक्षर)" आदि. कन्याका नाम विषमवर्णी तीन पाँच सात आदि अक्षरयुक्त, दीर्घवर्णान्त एवं तद्धितान्त न होना चाहिये- यथा* श्रीदेवी.हेमांगी,वासवद्दत्ता,आदि. धर्मसिन्धुने चारनाम बतायें हैं- देवनाम( जोकुलगणेश और कुलदेवीभक्त कहा जाता हैं.) " मासनाम( जिस वैदिक मासमें जन्म हुआ हो उस अनुसार जैसे कि मलमासमें जन्म होनेपर पुरुषबालकका "पुरुषोत्तम"और बालिकाका " राधा"वैसे चैत्रादिमास अनुसार वैकुण्ठ आदि)नक्षत्रनाम( जिस नक्षत्र और राशिमें जन्म हों तदनुसारका नाम) व्यावहारिकनाम( जो गुण और वर्ण अननसार हों. अभी अभी थोडे गतदिनोंमें सोशियल मिड़ीयासे एक धर्मप्रचारकका प्रस्ताव प्रश्न था कि " राम" का जन्म तो पुनर्वसुमें था और जन्म अनुसार तुला राशिभी नहीं थी पर " राम" नाम क्यों रखा? मैनें जवाब में कहा वह नामकरण संस्कारके अनुसार चारनाम रखनेकी शास्त्रोंमें व्यवस्था हैं. उसमेंसे " राम" नाम वसिष्ठजीने व्यावहारिक नामानुसार गुण आधारित सामुद्रिकशास्त्रानुसार रखा हैं. चिद्वाचको रकारः स्यात्सद्वाच्योऽकार उच्यते..
मकरानन्दवाची स्यात्सच्चिदानन्दमव्ययम् || चिद् वाचक "रकार" सत् वाचक "आकार" तथा आनन्दवाचक " मकार" से सत्चिदानन्द गुणत्रय बोधक हैं " राम" नाम. प्रचारकको बेहद संतोष हुआ" आगे- विवाहे सर्वमाङ्गल्ये यात्रायां ग्रहगोचरे| जन्मराशि प्रधानत्वं नामराशिं न चिन्तयेत्|| विवाहादि मंगलकार्यों तथा मुर्हूतादि विषयोंमें जन्मकी राशि और नक्षत्रनाम का प्राधान्य हैं.व्यावहारिक नामका नहीं.वैसे- " देशे ग्रामे गृहे युद्धे सेवायां व्यवहारके|| नामराशि प्रधानत्वं जन्मराशिं न चिन्तयेत्|| अर्थात्- गाँवमें" घरमें" युद्धमें" सेवामें" और समस्त जगद्रूपव्यावहारमें उच्चारणमात्र नामराशिका महत्व हैं जन्मराशिका नहीं.निर्णयसिन्धुमें बालकका नाम मास,गुरु,एवं कुलदेवताके नामपर भी करने हेतु विकल्प हैं,देवमन्दिर" हाथी" घोडा" वृक्ष" वापी" सरोवर" लता" तथा राजप्रासादके नामकरणका भी शास्त्रोंमें विचार किया हैं.बालकका नाम लता दिशा सरोवर या नदी पैड़ आदि पर नहीं रखना चाहिये.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः
शुद्धिकृता आवृत्तिः*
षोडश संस्काराः (नामकरण सं० विधानम्) खंड६६~ प्रथमं पञ्चगव्येन सूतिका शिशुं च प्रोक्ष्य" सूतिकायै पञ्चगव्यं दत्वा शिशुं संस्नाप्य" अहतं परिधाप्य" * ज्ञातव्यः- अनेकतर कर्मकांड पुस्तकोमें बालकको बाल- पुत्र- अथवा कुमार" जैसे विशेष शब्दोंका प्रयोग किया हैं. परंतु उम्रके अनुसार संकल्पमें परिवर्तन करैं. ब्रह्मकर्मसमुच्चयमें" जो कुमारस्य" आदिका लेखित प्रयोग हैं वह जातकर्मादि संस्कारोंसे कालातिक्रम दोष वालें संस्कारोंमें ५ वर्षके उम्रसे प्रयुक्त होतें हैं." प्राक् चूडाकरणाद्बाल प्रागन्नप्राशनाद्शिशुः| कौमारकः स विज्ञेयो यावन् मौञ्जीनिबन्धनः||वीरमित्रोदय|| शिशु अवस्था जन्मसे लेकर पुरे ६ मासके बालककी, बालक अवस्था ६मास १ दिनसे लेकर २ वर्षके बालककी,कुमार अवस्था २ वर्ष १ दिनसे लेकर पूरे पाँचवेवर्षसे अधिक उम्रवालों की तथा विद्याभ्यास और समावर्तन संस्कारसे युक्त स्नातक हैं.
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गर्भाधान पुंसवन और सीमंतसंस्कार साङ्गोपाङ्ग विधान न किया हो तो संकल्पः- अस्य(अस्या)शिशोः जन्मपूर्वे गर्भाधानपुंसवनसीमंतसंस्काराणां कालातिक्रम दोष प्रत्यवाय परिहारार्थं प्रतिसंस्कारमुद्दिश्य पादकृच्छ्ररूपं सहस्रद्वयं गायत्री मंत्रजपं स्वयं वा(ब्राह्मणद्वारा) आचरिष्ये. तेन कालातिक्रम दोष परिहारोस्तु" (विधानम्-) कृतस्वस्त्ययनः सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा० देशकालौ संकिर्तनान्ते-( यदि बालकका जातकर्म संस्कार साङ्गोपाङ्ग न हुए हों तो " संकल्प:- अस्य(अस्या) शिशोः स्वकाले जातकर्म संस्कारस्य अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अनादिष्ट प्रायश्चित्तं होष्ये..अरत्निमात्रेस्थंडिले भूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" अग्निं ध्यात्वा-अत्र ब्रह्मोपवेशनं नैवम्- आज्यं निरुप्य अधिश्रित्य" स्रुवं प्रताप्य स्रुवस्य कुशाग्रैः सम्मार्ज्य तदग्रमूलमध्यानि शोधयित्वा पुनः प्रताप्य " स्वदक्षिणे कुशानामुपरि निधाय" आज्योद्वास्य कुशरूपे द्वेपवित्रे कृत्वा पवित्राभ्यां आज्यस्य त्रिरोत्पूय आज्यमवेक्ष्य" जलेन ईशान कोणादारभ्य ऐशानपर्यन्तं पर्युक्षणं कृत्वा न इतरथावृत्तिः विट् नामाग्नये नमः इति सम्पूज्य० जुहुयात्- (ब्रह्मोपवेशनादि अभावात् त्यागदानं न किन्तुपठनमेव) ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" ॐत्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने वमो०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐअयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदं अग्नये अयसे न मम" ॐ जेते शतंवरुण० इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम"ॐ उदुत्तमं वरुणपाश०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यायादितये च न मम"ॐप्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" अनेन अनादिष्टप्रायश्चित्त होमेन अस्य(अस्या)शिशोः जातकर्म संस्कारस्य कालातिक्रमदोष निवृत्तिरस्तु" पादकृच्छ्रप्रायश्चित्तरूपं सहस्रसंख्यांकं गायत्रीमंत्रजपं स्वयं वा( ब्राह्मणद्वारा) आचरिष्ये.तेन अस्य(अस्या)शिशोः जातकर्माधिकार प्राप्तिरस्तु"
*सम्पूर्णा पद्धति जातकर्म संस्कारः
षोडश संस्काराः खंड ५८~ प्राक् चूडाकरणाद्बालः प्रागन्नप्राशनाद्शिशुः| कुमारकः स विज्ञेयो यावद्मौञ्जिनिबन्धनः|| अन्नप्राशनसे(७माससे) पहले जातककी अवस्था "शिशु" चूडाकरण (३वर्षसे) पहले "बालक" उपनयन(ब्राह्मण५-८" क्षत्रिय ११" वैश्य१२ से पहले की अवस्था "कुमार" उपनयनके बाद १२वर्षतक"बटुक" संज्ञा जाने*
जातकर्म संस्कारः विधानम्* आचम्य प्राणानायम्य"सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा" अद्येत्यादि..... अमुक शर्माहं मम जातस्य शिशोः जरायुजटित विविध उच्चावच मातृ चर्वितान्न विषमार्तिक गर्भाम्बुपान जनित सकल दोष निबर्हण आयुर्मेधावृद्धि बीज गर्भ समुद्भवैनो निबर्हणार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं जातकर्म संस्कारं करिष्ये....| तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनम्(कर्मांग देवता मृत्युः) मातृकापूजनम् आयुष्यमंत्रजपं वैश्वदेवसंकल्पं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि वरणं करिष्ये...
दशोपचारैःगणपतिंसम्पूज्य" प्रैषात्मक विधिना पुण्याहवाचनं समाप्य" दशोपचारैःमातृकापूजनं च आयुष्यमंत्रं जपित्वा" वैश्वदेवसंक्ल्पं कृत्वा" नान्दीश्राध्धं- समये सति (युग्म ब्राह्मणभोजन पर्याप्तं अन्ननिष्क्रयी सुवर्णं अमृतरूपेण वः स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः) आचार्यादिन्वृत्वा"
मेधाजननम्* ततः शिशुं दक्षिणकरस्यानामिकया स्वर्णांतर्हितया विषममात्रया मधु घृते एकी कृत्य प्राशयति"(पिता विषम मात्रामें मधु और गोघृत मिश्र करके सुवर्णशलाकासे शिशुको मंत्रके साथ क्रमसे शिशुको चार बार चटायें.) भूरादिव्याहृति त्रयस्य प्रजापति र्ऋषिः गायत्री उष्णिक् अनुष्टुप् छन्दांसि अग्नि र्वायुर्सूर्याश्च देवताः समधुघृत प्राशने विनियोगः- मंत्राः ॐभूःस्त्वयि दधामि(१)" ॐभुवः स्त्वयि दधामि(२)"ॐस्वः स्त्वयि दधामि(३)"ॐभूर्भुवःस्वः सर्वं त्वयि दधामि(४)" एतच्च मेधाजननम्.....
जातकर्म संस्कारः विधानम्* आचम्य प्राणानायम्य"सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा" अद्येत्यादि..... अमुक शर्माहं मम जातस्य शिशोः जरायुजटित विविध उच्चावच मातृ चर्वितान्न विषमार्तिक गर्भाम्बुपान जनित सकल दोष निबर्हण आयुर्मेधावृद्धि बीज गर्भ समुद्भवैनो निबर्हणार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं जातकर्म संस्कारं करिष्ये....| तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनम्(कर्मांग देवता मृत्युः) मातृकापूजनम् आयुष्यमंत्रजपं वैश्वदेवसंकल्पं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि वरणं करिष्ये...
दशोपचारैःगणपतिंसम्पूज्य" प्रैषात्मक विधिना पुण्याहवाचनं समाप्य" दशोपचारैःमातृकापूजनं च आयुष्यमंत्रं जपित्वा" वैश्वदेवसंक्ल्पं कृत्वा" नान्दीश्राध्धं- समये सति (युग्म ब्राह्मणभोजन पर्याप्तं अन्ननिष्क्रयी सुवर्णं अमृतरूपेण वः स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः) आचार्यादिन्वृत्वा"
मेधाजननम्* ततः शिशुं दक्षिणकरस्यानामिकया स्वर्णांतर्हितया विषममात्रया मधु घृते एकी कृत्य प्राशयति"(पिता विषम मात्रामें मधु और गोघृत मिश्र करके सुवर्णशलाकासे शिशुको मंत्रके साथ क्रमसे शिशुको चार बार चटायें.) भूरादिव्याहृति त्रयस्य प्रजापति र्ऋषिः गायत्री उष्णिक् अनुष्टुप् छन्दांसि अग्नि र्वायुर्सूर्याश्च देवताः समधुघृत प्राशने विनियोगः- मंत्राः ॐभूःस्त्वयि दधामि(१)" ॐभुवः स्त्वयि दधामि(२)"ॐस्वः स्त्वयि दधामि(३)"ॐभूर्भुवःस्वः सर्वं त्वयि दधामि(४)" एतच्च मेधाजननम्.....
बालिकाको - बिना वेद मंत्र पढे तीनबार " नमो भगवते वासुदेवाय " अथवा " ऐं वाग्वादिन्यै नमः" मंत्रसे मधुघृत प्राशन करायैं.
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षोडश संस्काराः खंड ५९~जातकर्म संस्कारः(२) आयुष्यकरणम्*शिशुके दायेंकान समीप या नाभिसमीप मंत्रोका पठन करैं." √कुमारस्य नाभिसमीपेवा दक्षिणकर्णसमीपे अग्निरित्यादि मन्त्रान् जपति" यथा* अग्निरायुष्मानित्यादि अष्टमंत्राणां प्रजापति र्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता: जपे विनियोगः- ॐअग्निरायुष्मान्स वनस्पतिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(१) ॐसोमऽआयुष्मान्सऽओषधिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(२) ॐब्रह्मायुष्मत्तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(३) ॐदेवाऽआयुष्मन्तस्तेमृतेनायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(४)ॐऋषयऽआयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मान्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(५) ॐपितरऽआयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(६) ॐयज्ञऽआयुष्मानास दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(७) ॐसमुद्रऽआयुष्मान्स दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(८) यह आठों मन्त्रोंकी पुनः दो आवृत्ति करैं.(इत्येतावत् पर्यन्तम् पुनर्त्रिः जपति) तत त्र्यायुखं इति च त्रिर्जपति)त्र्यायुखं मंत्र तीनबार पढैं." ॐत्र्यायुखञ्जमदग्ग्ने:०तात्पर्य- जमदग्नि,कश्यप(विपरितं भवति पश्यकः यः कं(ब्रह्म)पश्यति सः पश्यकः" और देवों जैसी लंबी आयु मिले तथा उनके जैसा बालक हों | इत्येता त्रिर्वारं पठित्वा" बालककी सर्वविध उन्नति और दीर्घायुकी कामनासे शिशुके अंगोंका स्पर्श करतें हुए "दिवस्परि"इत्यादि ११ मंत्रोका पाठ करैं.दिवस्परिप्रभृति मंत्ररुद्रस्य वत्सप्रीऋषिः त्रिष्टुप् छंदः अष्टमस्य पंक्तिश्छंद आयुर्देवता परिमर्शने विनियोगः- ॐदिवस्परि प्रथमञ्जज्ञेऽअग्निरस्मद् द्वितीयं परि जातवेदाः| तृेतीयमप्सु नृेमणाऽअजस्रमिन्धानऽ एनञ्जरते स्वाधीः||१|| विद्मातेऽ अग्ने त्रेधा त्रयाणि विद्मा ते धाम विभृेता पुरुत्रा| विद्मा ते नाम परमङ्गुहा जद्विद्मा तमुत्सं जतऽआजगन्थ||२|| समुद्रे त्वा नृेमणा ऽअप्स्वन्तर्नृेचक्षाऽईधे दिवो अग्न ऽऊधन्| तृेतीये त्वा रजसि तस्थिवा गुं समपामुपस्थे महिखा ऽअवर्धन्||३|| अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद् वीरुधः समञ्जन्सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः||४|| श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीखाणां प्रारेपणः सोमगोपाः| वसुः सूनुः सहसोऽअप्सु राजा विभात्यग्रऽ उषसाभिधानः||५||
विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भऽआ रोदसीऽअपृेणाज्जायमानः| वीडुञ्चिदद्रिमभिनत् परायञ्जना जदग्निमयजन्त पञ्च||६||उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्त्येख्वग्निरमृेतो निधायि|इयर्त्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिखा द्यामिनक्षन्||७|| दृेशानो रुक्मऽउर्व्या व्यद्यौद्दुर्मरेखमायुः श्रिये रुचानः| अग्निरमृतोऽ अभवद्वयोभिर्जदेनं द्यौरजनयत्सुरेताः||८|| जस्ते ऽअद्य कृेणवद् भद्रशोचेऽपूपं देव घृेतवन्तमग्ने|प्र तं नय प्रतरं वस्योऽअच्छामि सुम्नं देवभक्तं जविष्ठ||९|| आ तं भज सौश्रवसेख्वग्नऽउक्थऽउक्थऽ आभज शस्यमाने| प्रियःसूर्ज्जे प्रियोऽअग्ना भवात्युज्जातेनभि नददुज्जनित्वैः||१०||त्वामग्ने जजमानाऽअनु द्युन् विश्वा वसु दधिरे वार्ज्जाणि| त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो विवव्रुः||११|| १२/१८-२८|| बालकके पाँच प्राण(प्राण, व्यान,अपान, उदान, समान,)प्रभावी बननेकी प्रार्थना करैं.मानव का अस्तित्व प्राण हैं.शिशुकी पूर्वादिक्रमसे चारों दिशामें चार ब्राह्मण तथा पाँचवेको नैऋत्य में बिठायें.पिता पूर्वमें स्थित ब्राह्मणसे कहैं- इममनुप्राण" ब्राह्मण बालकको उद्देशते हुए कहैं- प्राण इति पूर्वः(१) दक्षिण स्थित ब्राह्मणको- इममनुव्यान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे कहैं- व्यान इति दक्षिणः(२) पश्चिम स्थित ब्राह्मणको- इममन्वपान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- अपान इति अपरः(३)उत्तरमें स्थित ब्राह्मणको- इममनूदान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- उदान इति उत्तरः(४) नैर्ऋत्यमें स्थित ब्राह्मणको- इममनुसमान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- समान इति पञ्चमः(अविद्यमानेषु विप्रेषु स्वयमेव पूर्वादिदिशं परिक्रम्य प्राणेत्यादि ब्रूयात्=यदि पाँच ब्राह्मण न हो तो पिता स्वयं पूर्वादि क्रमसे दिशाओंमें घूमकर प्राणः,व्यानः,अपानः,उदानः, और नैर्ऋत्यमें जाकर समानः ऐसे पाँच प्रैष(वाक्यों) बोलें.
षोडश संस्काराः खंड ५९~जातकर्म संस्कारः(२) आयुष्यकरणम्*शिशुके दायेंकान समीप या नाभिसमीप मंत्रोका पठन करैं." √कुमारस्य नाभिसमीपेवा दक्षिणकर्णसमीपे अग्निरित्यादि मन्त्रान् जपति" यथा* अग्निरायुष्मानित्यादि अष्टमंत्राणां प्रजापति र्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता: जपे विनियोगः- ॐअग्निरायुष्मान्स वनस्पतिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(१) ॐसोमऽआयुष्मान्सऽओषधिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(२) ॐब्रह्मायुष्मत्तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(३) ॐदेवाऽआयुष्मन्तस्तेमृतेनायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(४)ॐऋषयऽआयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मान्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(५) ॐपितरऽआयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(६) ॐयज्ञऽआयुष्मानास दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(७) ॐसमुद्रऽआयुष्मान्स दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(८) यह आठों मन्त्रोंकी पुनः दो आवृत्ति करैं.(इत्येतावत् पर्यन्तम् पुनर्त्रिः जपति) तत त्र्यायुखं इति च त्रिर्जपति)त्र्यायुखं मंत्र तीनबार पढैं." ॐत्र्यायुखञ्जमदग्ग्ने:०तात्पर्य- जमदग्नि,कश्यप(विपरितं भवति पश्यकः यः कं(ब्रह्म)पश्यति सः पश्यकः" और देवों जैसी लंबी आयु मिले तथा उनके जैसा बालक हों | इत्येता त्रिर्वारं पठित्वा" बालककी सर्वविध उन्नति और दीर्घायुकी कामनासे शिशुके अंगोंका स्पर्श करतें हुए "दिवस्परि"इत्यादि ११ मंत्रोका पाठ करैं.दिवस्परिप्रभृति मंत्ररुद्रस्य वत्सप्रीऋषिः त्रिष्टुप् छंदः अष्टमस्य पंक्तिश्छंद आयुर्देवता परिमर्शने विनियोगः- ॐदिवस्परि प्रथमञ्जज्ञेऽअग्निरस्मद् द्वितीयं परि जातवेदाः| तृेतीयमप्सु नृेमणाऽअजस्रमिन्धानऽ एनञ्जरते स्वाधीः||१|| विद्मातेऽ अग्ने त्रेधा त्रयाणि विद्मा ते धाम विभृेता पुरुत्रा| विद्मा ते नाम परमङ्गुहा जद्विद्मा तमुत्सं जतऽआजगन्थ||२|| समुद्रे त्वा नृेमणा ऽअप्स्वन्तर्नृेचक्षाऽईधे दिवो अग्न ऽऊधन्| तृेतीये त्वा रजसि तस्थिवा गुं समपामुपस्थे महिखा ऽअवर्धन्||३|| अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद् वीरुधः समञ्जन्सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः||४|| श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीखाणां प्रारेपणः सोमगोपाः| वसुः सूनुः सहसोऽअप्सु राजा विभात्यग्रऽ उषसाभिधानः||५||
विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भऽआ रोदसीऽअपृेणाज्जायमानः| वीडुञ्चिदद्रिमभिनत् परायञ्जना जदग्निमयजन्त पञ्च||६||उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्त्येख्वग्निरमृेतो निधायि|इयर्त्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिखा द्यामिनक्षन्||७|| दृेशानो रुक्मऽउर्व्या व्यद्यौद्दुर्मरेखमायुः श्रिये रुचानः| अग्निरमृतोऽ अभवद्वयोभिर्जदेनं द्यौरजनयत्सुरेताः||८|| जस्ते ऽअद्य कृेणवद् भद्रशोचेऽपूपं देव घृेतवन्तमग्ने|प्र तं नय प्रतरं वस्योऽअच्छामि सुम्नं देवभक्तं जविष्ठ||९|| आ तं भज सौश्रवसेख्वग्नऽउक्थऽउक्थऽ आभज शस्यमाने| प्रियःसूर्ज्जे प्रियोऽअग्ना भवात्युज्जातेनभि नददुज्जनित्वैः||१०||त्वामग्ने जजमानाऽअनु द्युन् विश्वा वसु दधिरे वार्ज्जाणि| त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो विवव्रुः||११|| १२/१८-२८|| बालकके पाँच प्राण(प्राण, व्यान,अपान, उदान, समान,)प्रभावी बननेकी प्रार्थना करैं.मानव का अस्तित्व प्राण हैं.शिशुकी पूर्वादिक्रमसे चारों दिशामें चार ब्राह्मण तथा पाँचवेको नैऋत्य में बिठायें.पिता पूर्वमें स्थित ब्राह्मणसे कहैं- इममनुप्राण" ब्राह्मण बालकको उद्देशते हुए कहैं- प्राण इति पूर्वः(१) दक्षिण स्थित ब्राह्मणको- इममनुव्यान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे कहैं- व्यान इति दक्षिणः(२) पश्चिम स्थित ब्राह्मणको- इममन्वपान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- अपान इति अपरः(३)उत्तरमें स्थित ब्राह्मणको- इममनूदान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- उदान इति उत्तरः(४) नैर्ऋत्यमें स्थित ब्राह्मणको- इममनुसमान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- समान इति पञ्चमः(अविद्यमानेषु विप्रेषु स्वयमेव पूर्वादिदिशं परिक्रम्य प्राणेत्यादि ब्रूयात्=यदि पाँच ब्राह्मण न हो तो पिता स्वयं पूर्वादि क्रमसे दिशाओंमें घूमकर प्राणः,व्यानः,अपानः,उदानः, और नैर्ऋत्यमें जाकर समानः ऐसे पाँच प्रैष(वाक्यों) बोलें.
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हे भूमि " तुम्हारा हृदय सूर्य जानता हैं वह चन्द्रस्थित हैं.मैं भी आपको जानता हूँ.जैसे सूर्यसे प्रकाशित चन्द्र हैं, वैसे आपकी कृपासे मिले संतान से हम पिता-पुत्र"सौ"साल तक प्रसन्न रहैं.जीवन सफल करैं.मानवजीवन सार्थक करैं.प्रभुके कृपापात्र बनैं.ऐसी भावनाके साथ पिता भूमिका स्पर्श करके पश्चात शिशुके अंगोका स्पर्श करैं.(स शिशु यस्मिन् भूभागे जातो भवति तमभिमंत्रयते) वेदते भूमिहृदयमिति प्रजापतिर्ऋषिः पंक्तिश्छंदः पृथिवी देवताऽभिमंत्रणे विनियोगः- ॐवेद ते भूमि हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्| वेदाहं तन्मां तत् विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत गूँ शृणुयाम शरदः शतम्|| अश्माभवेति प्रजापतिर्ऋषिः बृहतीछंदः आशीर्देवता अभिमर्शने विनियोगः- शिशुके अंगोका स्पर्श करैं-तात्पर्य*हे शिशु तू पाषाण समान न तूटने वाला सहनशील समर्थ, कुठारकी तरह दुष्ट नाशक,सुवर्ण समान परिक्षक बनकर तेजस्वी बन तूमेरी आत्मा पुत्र के रूपमें हैं.सौ सालकी आयु वाला बन. ॐअश्माभवपरशुर्भव हिरण्यमस्रुतं भव| आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्|| यदि पुत्री हो तो यह क्रिया अमंत्रक यथा आयुष्मती भव" ऐसे प्रैषसे आशीर्वाद दें.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष विधान पुनः
शेष विधान पुनः
षोडश संस्काराः खंड६०~ जातकर्म संस्कारः-( तत्र शिशोः मातरमभिमंत्रयेत्) शिशुकी माताका यजमान स्पर्श करैं (आचार्य या कुलिन व्यक्ति बिना स्पर्श कियें प्रसुता के उद्देश्यसे मंत्रपाठ करैं.) इडासीति प्रजापतिर्ऋषिः गायत्री छंदः इडा देवता अभिमंत्रणे विनियोगः- ॐइडासि मैत्रा वरुणी वीरे वीरमजीजनथाः सात्वं वीरवती भवयास्मान् वीरवतोऽकरत् ||( हे वीर स्त्री तू यज्ञपात्ररूप हैं.मित्रावरुण के अंश से उत्पन्न हुई हो.जैसे इला से पुरुरवा की उत्पत्ति तथा मैत्रावरुण से अगत्स्य और वशिष्ठ जैसे प्रभावी संतान हुए वैसे तेरी संतान हों.तुझसे हम वीरसंतान वाले हुए.)पिता शिशुकी माताके स्तनपर जल छिंडकें. " तस्या दक्षिणस्तनं प्रक्षाल्य शिशवे प्रयच्छति" माता पहले दायें स्तनसे शिशुको स्तनपान करायें.... (यह क्रिया संस्कार कुशल आचार्य मर्यादा बनाये रखकर करवाँ सकतें हैं... पाठको को निःसंदेह वैदिक विधान अपनाना चाहिये इसमें कोई भी शर्म लज्जा न रखें) इममिति सप्तर्षिर्ऋषयः त्रिष्टुप् छंदः अग्निर्देवता दक्षस्तन प्रदाने विनियोगः-ॐइम गूँ स्तनमूर्जस्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये| उत्सञ्जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रिय गूँ सदनमा विशस्व|| (हे अग्ने ! लोकमें रहता हुआ उर्जायुक्त दूध से पूर्ण इस स्तनका पान करों.हे सर्वतोगामी शिशु मधु स्वाद युक्त माँ के स्तनका सेवन कर ,समुद्र समान विशाल गंभीर माँकी गोद तेरा आश्रय हों)
यस्ते स्तन इति दीर्घतमा ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः गौर्देवता वामस्तन प्रदाने विनियोगः- बायें स्तनका पान करायें.~> ॐयस्ते स्तनः शशयो यो मयोर्भूयो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः| येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवेऽकः||(हे सरस्वति ! जो तुम्हारा स्तन अन्यद्वारा अनुपयुक्त तथा रमणीय धनको धारण करनेवाला बहोत आनंद देनेवाला हैं तथा जिससे सभी को वरणीय वस्तु देती हो,वह सब शिशुके लिए सुलभ हो.
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ततः प्रसवित्री शयनीय मस्तकोपरि भूमौ पानीयपूर्ण उदकुंभं रक्षार्थं निदध्यात्"( प्रसूताके मस्तकके पीछे जमिनपर जलसे भरा मृदकुंभ रखैं.यह कलश दश दिन तक रखैं. यदि दशवें दिन करतें हो तो एकरात्रि कुंभ रखैं.) आपइति प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः आपो देवता जलपूर्णभाजन स्थापने विनियोगः- ॐआपो देवेषु जाग्रथ यथा देवेषु जाग्रथ एवमस्या सूतिकाया सपुत्रियां जाग्रथ|| (हे जल देवता आप जैसे देंवोके लिए जागरुक रहतें हो वैसे सूतिका एवं उसके संतानके लिए सदैव उद्यत रहो)
होम कर्मः- पहले दिन जातकर्म करैं तो प्रत्येक दिन सुबह श्याम दो दो आहुतियाँ ब्राह्मण द्वारा दें.. अथवा दशवे दिन जातकर्म करतें हो तो कुल चालीस आहुतियाँ दें... इसमैं ब्रह्मासन और कुशकंडिका नहीं होती.)
पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य- अग्निं ध्यायन् अक्षतैरावाह्य" अग्निं पर्युक्ष्य नेतरथावृत्तिः" प्रगल्भनामाग्निं सम्पूज्य" तंडुलमिश्रसर्षपैः होमः- शुण्डामर्कामंत्रस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टिप् छंदः अग्निर्दैवता सतंडुलसर्षप द्रव्यहोमे विनीयोगः- ॐशण्डा मर्काऽउपवीरः शौण्डिकेयऽउलूखलः| मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा- इदं शुण्डामर्काभ्यां उपवीराय मलिम्लुचाय द्रोणेभ्यश्च्यवनाय न मम" आलिखन्निति प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः अग्निर्देवता सतंडुल सर्षपद्रव्य होमे विनियोगः- ॐआलिखन्ननिमिषः किं वदन्तऽउपश्रुति र्हर्यक्षः कुंभी शत्रुःपात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा- इदं आलिखतेऽनिमिषाय किंवदद्भ्यउपश्रृतये हर्य्यक्षयाय कुंभी शत्रवे पात्रपाणये नृमणये हंत्रीमुखाय सर्षपायारुणाय च्यव्नाय न मम"(दोनों होम मंत्रके अर्थ-(१) तोडनेवाला, मारनेवाला,घातक, नीच, आश्रितका घातक, मलिन हेतु वाला, विकृत नासिकावाला, इन्द्रियोंको शिथिल करनेवाला,ये सभी यहाँसे नष्ट हो जाये.(२)चारों औरसे तोडनेवाला,अनिमेष दृष्टि, अपकारके लिए उद्युत,पिंगलनेत्र,स्तंभन करनेवाला, शिशुका घातक, हाथमें खपापरवाला, नरघातक,हिंसकमुखवाला,सरसौं जैसा उग्र, नाशक यहाँसे नष्ट हो जायें.)
जन्माहुआ शिशु बहोत रुदन करैं शांत न हो या कोई उपद्रव लगैं तो मत्स्यजाल या सुत्तरका कापड जिसमें छिद्र हों वह बालकको ओढाकर मंत्रपाठ करैं."यदि शिशोःन नामयति न रोदिति न हृष्यति न तुष्यति च तदैतनैमित्तिकं कर्तव्यम्|| तदा तं बालकं जालेन प्रच्छाद्य वा वाससाङ्कमादाय तं बालं पिता जपति" मंत्रः*ॐकूर्कुरःसकूर्कुरः कूर्कुरो बालबन्धनः| चेच्चेच्छुनक सृज नमस्तेऽस्तु सीसरो लपेता पह्वर||१||तत्सत्यं यत्ते देवा वरमददुः स त्वं कुमारमेव वा वृणीथाः| चेच्चेच्छुनक सृज नमस्तेऽस्तु सीसरो लपेतापह्वर||२||
पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य- अग्निं ध्यायन् अक्षतैरावाह्य" अग्निं पर्युक्ष्य नेतरथावृत्तिः" प्रगल्भनामाग्निं सम्पूज्य" तंडुलमिश्रसर्षपैः होमः- शुण्डामर्कामंत्रस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टिप् छंदः अग्निर्दैवता सतंडुलसर्षप द्रव्यहोमे विनीयोगः- ॐशण्डा मर्काऽउपवीरः शौण्डिकेयऽउलूखलः| मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा- इदं शुण्डामर्काभ्यां उपवीराय मलिम्लुचाय द्रोणेभ्यश्च्यवनाय न मम" आलिखन्निति प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः अग्निर्देवता सतंडुल सर्षपद्रव्य होमे विनियोगः- ॐआलिखन्ननिमिषः किं वदन्तऽउपश्रुति र्हर्यक्षः कुंभी शत्रुःपात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा- इदं आलिखतेऽनिमिषाय किंवदद्भ्यउपश्रृतये हर्य्यक्षयाय कुंभी शत्रवे पात्रपाणये नृमणये हंत्रीमुखाय सर्षपायारुणाय च्यव्नाय न मम"(दोनों होम मंत्रके अर्थ-(१) तोडनेवाला, मारनेवाला,घातक, नीच, आश्रितका घातक, मलिन हेतु वाला, विकृत नासिकावाला, इन्द्रियोंको शिथिल करनेवाला,ये सभी यहाँसे नष्ट हो जाये.(२)चारों औरसे तोडनेवाला,अनिमेष दृष्टि, अपकारके लिए उद्युत,पिंगलनेत्र,स्तंभन करनेवाला, शिशुका घातक, हाथमें खपापरवाला, नरघातक,हिंसकमुखवाला,सरसौं जैसा उग्र, नाशक यहाँसे नष्ट हो जायें.)
जन्माहुआ शिशु बहोत रुदन करैं शांत न हो या कोई उपद्रव लगैं तो मत्स्यजाल या सुत्तरका कापड जिसमें छिद्र हों वह बालकको ओढाकर मंत्रपाठ करैं."यदि शिशोःन नामयति न रोदिति न हृष्यति न तुष्यति च तदैतनैमित्तिकं कर्तव्यम्|| तदा तं बालकं जालेन प्रच्छाद्य वा वाससाङ्कमादाय तं बालं पिता जपति" मंत्रः*ॐकूर्कुरःसकूर्कुरः कूर्कुरो बालबन्धनः| चेच्चेच्छुनक सृज नमस्तेऽस्तु सीसरो लपेता पह्वर||१||तत्सत्यं यत्ते देवा वरमददुः स त्वं कुमारमेव वा वृणीथाः| चेच्चेच्छुनक सृज नमस्तेऽस्तु सीसरो लपेतापह्वर||२||
बालकका चारों औरसे स्पर्शकरैं- "शिशुं अभिमृशति" ॐ न नामयति न रुदति न हृष्यति न ग्लायति| यत्र वयं वदामो यत्र चाभिमृशसि||
कृतस्य जातसंस्कार संस्कार साङ्गता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दश ब्राह्मणान् सूतकान्ते भोजयिष्ये. तेन कर्माँगदेवता प्रीयताम् न मम" ब्राह्मणेभ्यो दक्षिणां दास्ये..... यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या" यदि दश दिनके बाद करना हों तो पहले अनादिष्ट प्रायश्चित्त होम करैं कालातिक्रम दोष निवृत्तिके लिए पादकृच्छ्रव्रतरूप १००० गायत्रमंत्र जप संकल्प करैं. फिर जातकर्म संस्कार करै. कालातिक्रम जातकर्ममें स्तनपान और अभिमर्शन तकका विधान करैं .जलकुँभ स्थापन और होम नहीं होता _____इति जातकर्म नामकरण संस्कार अधिकारप्राप्तिरस्तु
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गर्भाधान पुंसवनऔर सीमंत संस्कार जन्मसे पूर्व किये हो तथा जन्मोत्तर जातकर्म संस्कार किया हो तो यहां से विधान प्रारंभ करैं.कालातिक्रम दोषमें उपरोक्त विधान प्रायश्चित्त करके विधानकी शुरुआत करैं..
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गर्भाधान पुंसवनऔर सीमंत संस्कार जन्मसे पूर्व किये हो तथा जन्मोत्तर जातकर्म संस्कार किया हो तो यहां से विधान प्रारंभ करैं.कालातिक्रम दोषमें उपरोक्त विधान प्रायश्चित्त करके विधानकी शुरुआत करैं..
पुनः प्रधान संक्ल्पः- अस्य(अस्याः)शिशोः आयुः वृद्धि व्यवहारसिद्धिः" बीज गर्भ समुद्भव एनो निबर्हण द्वारा( बैजीक और गार्भिकपापोंके शमन तथा आयुः और व्यवहार कामनासे) नामकरणसंस्काराख्यं कर्मं करिष्ये" तदंगत्वेन गणपतिपूजनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं ब्राह्मणवरणं पुण्याहवाचनं( कर्मांग देवता सविता) च करिष्ये.. उक्तानि तानि कर्माणि समाप्य" स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" अग्निं ध्यात्वा" अन्वाधानम्*घृताक्तासमिद्धद्वयं गृत्वोत्थाय- अत्र पार्थीवनामाग्नौ- प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याऽहुत्या" अग्निं विष्णुं रुद्रं अपः सवितारं च प्रजापतिं पञ्चगव्येन एकैकयाऽहुत्या"अग्निं वायुं सूर्यं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान्मरुतःस्वर्क्कान् वरुणं आदित्यमदितिं प्रजापतिं चैताः प्रायश्चित्तदेवताः आज्येनेकैकयाऽहुत्या अग्निंस्विष्टकृतं आज्येन नामकरण संस्कारहोमेऽहं यक्ष्ये" व्याहृतिनां प्रजापतिः बृहती प्रजापतिर्देवता अन्वाधान समिद्ध होमे विनियोगः- ॐभूर्भुवः स्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" ब्रह्मासनादि विशेषतः केवलं स्रुवं- आज्यं- पञ्चगव्यं चासाद्य" आधारावाज्याहुत्यन्त कुशकण्डिकां समाप्य" पार्थीवनामाग्निं सम्पूज्य" प्रधान होमः- पञ्चगव्येन (१) इरावती मंत्रस्य वसिष्ठ ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः विष्णुर्देवता पञ्चगव्य होमे विनियोगः- ॐइरावती धेनुमती० स्वाहा- इदं अग्नये न मम"(२) इदं विष्णुरित्यस्य मेधातिथिर्ऋषिः गायत्री छंदः विष्णुर्देवता होमे विनियोगः- ॐ इदं विष्णुर्वि० स्वाहा स्वाहा🔥- इदं विष्णवे न मम"( स्वाहा कुर्यान्न चात्रान्ते न चैव जुहुयाद्धविः|| स्वाहाकारेण हुत्वाग्नौ पश्चान्मंत्रं समापयेत्||कर्मप्रदीपे) (३) मानस्तोकेति कुत्सऋषिः जगतीछन्दः रुद्रोदेवता होमे विनियोगः- ॐमानस्तोके० स्वाहा- इदं रुद्राय न मम"( अत्र प्रणीतोदकस्पर्शः बालस्य च)(४) शन्नोदेवीति दध्यङ्गथर्वणऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता होमे विनियोगः- ॐशन्नोदेवी०स्वाहा- इदं अद्भ्यो न मम" ( ५) तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्रऋषिः गायत्रीछंदः सविता देवता होमे विनियोगः( तूष्णीं) ॐतत्सवितुर्वरेण्यं० इदं सवित्रे न मम"(६) प्रजापते इत्यस्य हिरण्यगर्भऋषिः त्रिष्टुप् छंदः प्रजापतिर्देवता होमे विनियोगः- ॐप्रजापते नत्वदेतान्यन्योविश्वारूपाणि० स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" प्रायश्चित्ताऽहुतयः आज्येन- ॐभूः स्वाहा - इदं अग्नये न मम" इत्यादयो नवाऽहुतयः तदन्ते आज्येन स्विष्टकृतं हुत्वा" होमकर्मणा कृतेन परमेश्वर प्रीयताम्" संस्रव प्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम् समापयेत् _/\_
षोडश संस्काराः(नामकरण सं०) खंड६७~ ततो यजमानः(शिशोःपिता)- काँस्यपात्रे तंडुलान् प्रसार्य सुवर्णशलाकया वा कुशशलाकया स्वगणपतिभक्त नाम लेख्यम्( कुलके जो गणपति हैं उनका नाम जैसे पौलत्स्यके " एकदंतगणपतिभक्त"[भक्ता]" ) स्वकुलदेवता नाम लेख्यम् ( कुलदेवीका नाम " जैसे पौलत्स्यके " दुर्गागौरीभक्त[भक्ता]") मास नाम लेख्यम् आचार्यके मार्गदर्शन अनुसार ( जिसमासमें जन्म हुआ हों उस मासके देवता का नामसे बालककी पहचान " जैसे चैत्रादि क्रमसे- वैकुण्ठ" जनार्दन" उपेन्द्र" यज्ञपुरुष" वासुदेव" हरि" योगिश" पुंडरिकाक्ष" कृष्ण" अनन्त" अच्युत" चक्रधर" अधिके- पुरुषोत्तम" बालिकाके -> श्रीमती"लक्ष्मी" पद्मालया" पद्मा" कमला"श्रीदेवी" हरिप्रिया"वसुमती" माधवी"आर्या" योगिनी"नारायणी" अधिके राधिका* जैसे भाद्रपदमें बालकका जन्म होनेवालेंका नाम " हरि" बालिकाका श्रीदेवी") नक्षत्रनाम लेख्यम्( जिसनक्षत्रके जिसचरणमें जन्म हों उस अक्षर या नक्षत्र संबधित राशिके अनुसारका नाम) व्यवहारनाम लेख्यम्( सार्थक,आदर्शप्रद, उच्चारण सुलभ, शास्त्रमान्य,कर्णसुलभ,)
संकल्पः- अस्य(अस्या)शिशोः बहवः आयुष्य प्राप्ति अर्थं नामदेवता प्रतिष्ठा पूजनं च करिष्ये" ॐगणानान्त्वा० ॐअम्बेऽअम्बिके० ॐजेन कर्म्माण्य० ॐभूर्भुवःस्वः नामदेवतायैनमः आवाहयामि" ॐमनोजुति:० इति प्रतिष्ठाप्य नामदेवतायै नमः इत्यनेन पञ्चोपचारै र्वा लाभोपचारैः सम्पूज्य" अनया पूजया नामदेवता प्रीयतां न मम"स्वपिता शिशोः कर्णे कथयति( यहाँ नाम आचार्यके मार्गदर्शनसे पिता बालकके कर्णमें सुनातें हैं ऐसा धर्मशास्त्रका निर्णय हैं परंतु" पिताके साथ बालककी "बुआ" रहकर आचार्यके कहें अनुसार जो नाम कहैं वह बालकके पिताको " बुआ बतायें" उस नाम पिता बालकके कानमें कहैं") जैसे आचार्यादेशः- हे शिशोः त्वं " अमुक गणपति भक्तोसि" (अन्य पुस्तकोमें बालक ब्राह्मणको अभिवादन करैं " जैसे सर्वान्ब्राह्मणान्अभिवादय" ऐसा कहा हैं परंतु जन्मे हुए एकवर्षसे भी नन्हीं उम्रवालें बच्चे कहाँसे " अभिवादन आचार सिखपायैंगे" तथा वह जो आदेश देतें हैं उस आदेशका तात्कालिक आचारपालन करपायेंगा? उत्तर नहीं इस लिये वह जो अन्यपुस्तिकाओमें लिखा हैं उसका अभिप्राय " कालातिक्रमकालमें" किये हुए जनेऊके साथ वालें संस्कारोके लिये कहा हुआ जानें)(२) आचार्यादेशः- हे शिशो त्वं अमुककुलदेव्याभक्तोसि(भक्तासि) (३) हे शिशो त्वं मासनाम्ना_____ असि (४) हे शिशो त्वं नक्षत्रनाम्ना वा राशिनाम्ना_____शर्मासि" वर्मासि" गुप्तोसि" दासोसि"(बालिकाके लिए- देव्यासि)(५) हे शिशो त्वं व्यवहारनाम्ना_____ शर्मासि" आदि. ब्राह्मणाः आशीर्वादं दद्युः( यहाँ बहुवचनके समर्थनसे तीन ब्राह्मण या तीनसे अधिक ब्राह्मण वरण होना चाहिये)
ॐएषवै प्रतिष्ठा० ॐवेदोसि जेनत्वं०नाम्ना सप्रतिष्ठमस्तु"आयुष्मान् भव सौम्य(आयुष्मती भव सौम्ये) ॐअश्माभव- परशुर्भव- हिरण्यमस्रुतं भव|| आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्) बालिकाओंको अमंत्रक- सुवीरा भव" मार्कण्डेय महाभागः०
नामकरण संस्कारकर्म कृतस्य विधेः परिपूर्णतास्तु" स्मृत्यिक्तान् दशब्राह्मणान् भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवता प्रीयताम् ॐतत् सत् श्री परमेश्वरः प्रीयताम् न मम"
षोडश संस्काराः(नामकरण सं०) खंड६७~ ततो यजमानः(शिशोःपिता)- काँस्यपात्रे तंडुलान् प्रसार्य सुवर्णशलाकया वा कुशशलाकया स्वगणपतिभक्त नाम लेख्यम्( कुलके जो गणपति हैं उनका नाम जैसे पौलत्स्यके " एकदंतगणपतिभक्त"[भक्ता]" ) स्वकुलदेवता नाम लेख्यम् ( कुलदेवीका नाम " जैसे पौलत्स्यके " दुर्गागौरीभक्त[भक्ता]") मास नाम लेख्यम् आचार्यके मार्गदर्शन अनुसार ( जिसमासमें जन्म हुआ हों उस मासके देवता का नामसे बालककी पहचान " जैसे चैत्रादि क्रमसे- वैकुण्ठ" जनार्दन" उपेन्द्र" यज्ञपुरुष" वासुदेव" हरि" योगिश" पुंडरिकाक्ष" कृष्ण" अनन्त" अच्युत" चक्रधर" अधिके- पुरुषोत्तम" बालिकाके -> श्रीमती"लक्ष्मी" पद्मालया" पद्मा" कमला"श्रीदेवी" हरिप्रिया"वसुमती" माधवी"आर्या" योगिनी"नारायणी" अधिके राधिका* जैसे भाद्रपदमें बालकका जन्म होनेवालेंका नाम " हरि" बालिकाका श्रीदेवी") नक्षत्रनाम लेख्यम्( जिसनक्षत्रके जिसचरणमें जन्म हों उस अक्षर या नक्षत्र संबधित राशिके अनुसारका नाम) व्यवहारनाम लेख्यम्( सार्थक,आदर्शप्रद, उच्चारण सुलभ, शास्त्रमान्य,कर्णसुलभ,)
संकल्पः- अस्य(अस्या)शिशोः बहवः आयुष्य प्राप्ति अर्थं नामदेवता प्रतिष्ठा पूजनं च करिष्ये" ॐगणानान्त्वा० ॐअम्बेऽअम्बिके० ॐजेन कर्म्माण्य० ॐभूर्भुवःस्वः नामदेवतायैनमः आवाहयामि" ॐमनोजुति:० इति प्रतिष्ठाप्य नामदेवतायै नमः इत्यनेन पञ्चोपचारै र्वा लाभोपचारैः सम्पूज्य" अनया पूजया नामदेवता प्रीयतां न मम"स्वपिता शिशोः कर्णे कथयति( यहाँ नाम आचार्यके मार्गदर्शनसे पिता बालकके कर्णमें सुनातें हैं ऐसा धर्मशास्त्रका निर्णय हैं परंतु" पिताके साथ बालककी "बुआ" रहकर आचार्यके कहें अनुसार जो नाम कहैं वह बालकके पिताको " बुआ बतायें" उस नाम पिता बालकके कानमें कहैं") जैसे आचार्यादेशः- हे शिशोः त्वं " अमुक गणपति भक्तोसि" (अन्य पुस्तकोमें बालक ब्राह्मणको अभिवादन करैं " जैसे सर्वान्ब्राह्मणान्अभिवादय" ऐसा कहा हैं परंतु जन्मे हुए एकवर्षसे भी नन्हीं उम्रवालें बच्चे कहाँसे " अभिवादन आचार सिखपायैंगे" तथा वह जो आदेश देतें हैं उस आदेशका तात्कालिक आचारपालन करपायेंगा? उत्तर नहीं इस लिये वह जो अन्यपुस्तिकाओमें लिखा हैं उसका अभिप्राय " कालातिक्रमकालमें" किये हुए जनेऊके साथ वालें संस्कारोके लिये कहा हुआ जानें)(२) आचार्यादेशः- हे शिशो त्वं अमुककुलदेव्याभक्तोसि(भक्तासि) (३) हे शिशो त्वं मासनाम्ना_____ असि (४) हे शिशो त्वं नक्षत्रनाम्ना वा राशिनाम्ना_____शर्मासि" वर्मासि" गुप्तोसि" दासोसि"(बालिकाके लिए- देव्यासि)(५) हे शिशो त्वं व्यवहारनाम्ना_____ शर्मासि" आदि. ब्राह्मणाः आशीर्वादं दद्युः( यहाँ बहुवचनके समर्थनसे तीन ब्राह्मण या तीनसे अधिक ब्राह्मण वरण होना चाहिये)
ॐएषवै प्रतिष्ठा० ॐवेदोसि जेनत्वं०नाम्ना सप्रतिष्ठमस्तु"आयुष्मान् भव सौम्य(आयुष्मती भव सौम्ये) ॐअश्माभव- परशुर्भव- हिरण्यमस्रुतं भव|| आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्) बालिकाओंको अमंत्रक- सुवीरा भव" मार्कण्डेय महाभागः०
नामकरण संस्कारकर्म कृतस्य विधेः परिपूर्णतास्तु" स्मृत्यिक्तान् दशब्राह्मणान् भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवता प्रीयताम् ॐतत् सत् श्री परमेश्वरः प्रीयताम् न मम"
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ. शेष पुनः
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