कर्णवेधम्

षोडशसंस्काराः(कर्णवेधम्)खंड८६~प्रायः यह संस्कार कात्यायन परिशिष्टान्तर्गत हैं " अथ कर्णवेधो वर्षे तृतीये पंचमे वा पुष्येन्दु चित्रा हरि रेवतीषु पूर्वाह्णे || कर्णवेध संस्कार जन्मसे तीसरे या पाँचवें वर्षमें पुष्य मृगशिर्ष चित्रा श्रवण तथा रेवती नक्षत्रोंमें पूर्वाह्नमें मध्याह्नसे पहले किया जाता हैं.इस संस्कारमें बालक या बालिकाके कान बालिकाकी नासिका का वेधन किया जाता हैं. और मनकी एकाग्रता एवं चित्तकी सुस्थिरता हेतु परिगणित हैं. " रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्यते||सुश्रुतसं०चिकित्सा०१६/१||यह छठा संस्कार हैं जिसका आविष्कार आभूषण धारण करने तथा रक्षा निमित्तक हैं." शङ्खोपरि च कर्णान्ते त्यक्त्वा यत्नेन सेवनीम्|व्यात्यासाद्वा सिरां विध्येदन्त्रवृद्धि निवृत्तये||सुश्रुत०चिकि०१९/२४|| कानके उपरी भागको छोड़कर कर्णके अन्तमें नीचे जो नस आती हैं उसको सावधानीसे विंधनें से अन्त्रवृद्धि(हार्निया)की निवृत्ति होती हैं.तथा सदैव भद्र वचन सुनें यह उद्देश्य हैं. सुश्रुत संहिता आदिमें इसका विस्तारसे वर्णन हेैं.कर्णेन्द्रियकी वीर्यवाहिनी नाडियोंसे सम्बन्ध होनेके कारण पुंस्त्व(पौरुषत्व)नष्ट करने वालें रोगोंसे भी रक्षा होती हैं.
मासे षष्ठे सप्तमे वाष्टमे वा वेध्यौ कर्णौ द्वादशे षोडशेह्नि||मध्येनाह्नःपूर्वभागे न रात्रौ नक्षत्रे द्वे द्वे तिथि वर्जयित्वा अत्र जन्ममासो वर्ज्यः|| मदनरत्ने||
मदनरत्नमें वसिष्ठ तथा श्रीधरके वचनसे छठ्ठे सातवें या आठवें मासमें अथवा बारहवें या सोलहवें दिनमें बालकका कर्णवेध संस्कार करने का कहा हैं.वह पूर्वाह्नमें तथा जिसदिन दो तिथियाँ तथा दो नक्षत्र न हों उस दिनोंमें करना आवश्यक हैं.कर्णवेध पहले वर्षमें छठ्ठे से बारहवें मासमें करना हों तो जन्ममास(वैदिकतिथिसे ३०दिन)वर्ज्य हैं."| ज्योतिर्निबन्धे गर्गः- मासे षष्ठे सप्तमे वाप्यष्टमे मासि वत्सरे|कर्णवेधं प्रशंसन्ति पुष्ट्यायुः श्रीविवृद्धये||
ज्योतिर्निबन्धमें गर्गके वचनसे छठ्ठे सातवें या आठवें वर्षोमें कर्णवेध कराना उत्तम हैं फलतः पुष्टि,आयुष्य तथा लक्ष्मीकी वृद्धि होतीं हैं.
मदनरत्ने-प्रथमे सप्तमे मासि अष्टमे दशमेऽथवा|द्वादशे च तथा कुर्यात्कर्णवेधं शुभावहम्||मदनरत्नमें कहा हैं कि पहले सातवें आठवें दशवें या बारहवें मासमें कर्णवेध करानेसे शुभत्व होता हैं.
हेमाद्रौ व्यासः- कार्तिके पौषमासे वा चैत्रे वा फाल्गुनेपि वा|कर्णवेधं प्रशंसन्ति शुक्लपक्षे शुभेदिने|| हेमाद्रिमें व्यासके वचनसे कार्तिक पौष चैत्र अथवा फाल्गुन मासोंमें शुक्लपक्षमें शुभ दिनके मुर्हूतमें कर्णवेध उत्तम माना हैं.
मालिनीछंदः-> हरिहरकरचित्रा- सौम्यपौष्णोत्तरार्या
दितिवसुषु घटाली-सिंहवर्ज्ये सुलग्ने||शशिगुरुबुधकाव्या^नां दिने पर्वरिक्ता रहिततिथिषु शुद्धे- नैधने कर्णवेधः||श्रीधरः||
श्रीधर कहतें हैं कि श्रवण आर्द्रा हस्त चित्रा मृगशिर्ष रेवती उत्तरा पुष्य पुनर्वसु तथा धनिष्ठा इन नक्षत्रों में,कुंभ वृश्चिक तथा सिंह के बिना अन्य लग्नोंमें,सोम गुरु बुध तथा शुक्र इन वारोंमें और पर्व तथा रिक्ता बिना अन्यतिथियोंमें लग्नसे अष्टमभाव शुद्ध हों ऐसे मुर्हूत लग्नमें कर्णवेध करैं.
मदनरत्ने-द्वितीया दशमी षष्ठी सप्तमी च त्रयोदशी||द्वादशी पञ्चमी शस्ता तृतीया कर्णवेधने|| बृहस्पतिः||
मदनरत्नमें बृहस्पतिका वचन हैं कि द्वितीया दशमी षष्ठी सप्तमी त्रयोदशी द्वादशी पञ्चमी और तीज इतनी तिथियों कर्णवेधमें उत्तम हैं.
सौवर्णीराजपुत्रस्य राजती विप्रवैश्ययोः||शूद्रस्यचायसी सूची बालकाष्टाङ्गुलात्मिका||कर्णवेधमें क्षत्रियकों सुवर्णकी,ब्राह्मण तथा वैश्यको चाँदीकी और शुद्रको लोहेकी सुई बालकके आठअँगुल जितनी लंबी होनी चाहिये.
हेमाद्रौ देवलः-कर्णरन्ध्रे रवेश्छाया न विशेदग्रजन्मनः||तं दृष्ट्वा विलयं यान्ति पुण्यौघाश्च पुरोतनाः|| हेमाद्रीमें देवलके वचनसे जिस ब्राह्मणके कानके छिद्रमेंसे सूर्यकी प्रभा न प्रवेशतीं हों उस ब्राह्मणको देखनेसे पूर्वजन्मके पुण्य नष्ट होतें हैं.
शंखस्मृति- अँगुष्ठमात्र सुषिरौ कर्णौ न भवतो यदि||तस्मै श्राद्धं न दातव्यं दत्तं चेदासुरं भवेत्|| जिस ब्राह्मणके कानमें यथेष्ट आभरण डाल सकैं उतनें अँगुष्ठमात्र छिद्रों वालें न हों तो उस ब्राह्मणको श्राद्धमें भोजन नहीं कराना चाहिये क्योकि भोजन करानेसे श्राद्ध आसुर होता हैं.पितरो श्राद्ध ग्रहण नहीं करतें हैं.
षोडशसंस्काराः(कर्णवेधम्)खंड८७~ कृतचूडऽव्रते बाले कर्णवेधो विधियते||व्यासः||व्यासर्षिके वचनसे चूडाकरणकिये हुए बालकको उपनयनसे पहले कर्णवेध संस्कार करायैं....
विधानम्~ मम अस्य(अस्याः) बालस्य वा (चूडाकरणकृतकुमारस्य) बालिकायाः वा (चूडाकरणकृता कुमार्याः)बीज गर्भ समुद्भवैनोनिबर्हणार्थं पुष्ट्यायुः श्री वृद्धिद्वारा आभूषणधारण योग्यता सिद्ध्यर्थं कर्णवेध संस्कारं करिष्ये.....
तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता सविता)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादिवरणं विष्णु शिव ब्रह्म चन्द्र सूर्य दिगीश नासत्यदस्रौ सरस्वती कुलदेवता - गो ब्राह्मणादिनां पूजनं च करिष्ये -- तानि कृत्वा
प्राङ्गमुखङ् कुमारोपवेश्य भद्रंकर्णेभिरित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्तादेवताः कर्णाभिमन्त्रणे विनियोगः -- ॐभद्रं कर्णेभिः०|| इति मन्त्रेण दक्षिणकर्णमभिमन्त्रयते / वक्ष्यन्ती वेदेति मंत्रस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्तादेवताः वामकर्णाभिमन्त्रणे विनियोगः -- ॐ वक्ष्यन्ती वेद०|| इति सव्यमभिमन्त्रयते कुमारस्य मधुरं दत्वाऽथ भिन्द्यात् कुमारस्य दक्षिणमादौ कुमार्याः वामम् // कर्णवेधाङ्गतयैकं ब्राह्मणं भोजयिष्ये || कर्णवेध संस्कार कृतस्यविधेः परिपूर्णताऽस्तु || भगवान् परमेश्वरः प्रीयताम् ||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री,उमरेठ || शेष पुनः

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