वेदारम्भ संस्कार
#षोडश_संस्काराः_खंड_१४२~
#वेदारम्भ-संस्कार~> उपनयन हो जाने के बाद द्विजबटु को ब्रह्मचर्य का पालन करतें हुए गुरुके पास बैठकर वेदादि शास्त्रों को सीखने के लिए प्रथम प्रारंभ करना इस संस्कार का प्रयोजन हैं | उपनयन के पश्चात् द्विजबटु को नियमित दंड धारण करतें हुए --- संध्योपासना और सायंप्रातरग्निपरिचर्या करतें रहना चाहिये,, ब्रह्मचारी को धरतीपर पतली पथारी बीछ़ाकर सोना चाहिये...| पारस्कराचार्य ने गृह्यसूत्र में कहा हैं कि--- #वेदं_समाप्य_स्नायात् ||२/६/१|| अर्थात् वेदों के पद और अर्थ का विधिवत् अध्ययन समाप्त कर समावर्तन-स्नान करें | ऐसी आज्ञा होने से वेदारंभ ( संस्कार के बाद सम्पूर्ण अद्ययन )के बिना ब्रह्मचर्य की समाप्ति नहीं हैं | चारों वेद के अभ्यास को जितना समय लगैं उतना ब्रह्मचर्य पालन करना हैं | #ब्रह्मचर्यं_वाऽष्टाचत्वारिंशतम् ||२/६/२|| #द्वादशके_प्येके ||२/६/३|| एक वेद के अध्ययन को कमसे कम बारहवर्ष कहैं गयें हैं |इस लिए एक - वेद ग्रहण करने के लिए बारहवर्ष का ब्रह्मचर्य अथवा चारों वेदों को ग्रहण करने में अधिक समय या कम समय में वेद ग्रहण कर सकता हो तो--- #गुरुणा_नुज्ञातः||२/६/४|| गुरु की आज्ञासे कभी भी समावर्तन - स्नान हो सकता हैं |बालकका कर्तव्य हैं कि वेदाध्ययन करता हुआ विद्या का अभ्यास करें,शास्त्रों का तथा अनेक प्रकार की भाषाओं और लिपियों का ज्ञान प्राप्त करें | भिक्षा लाकर गुरुको समर्पित कर दें और गुरुका दिया हुआ भोजन स्वयं करें | यह स्वयं मनुजी ने कहा हैं---> #समाहृत्य_तु_तद्_भैक्षं_यावदर्थममायया | #निवेद्य_गुरवेऽश्नीयादाचम्य_प्राङ्गमुखः_शुचिः ||मनुस्मृ२/५१|| अर्थात् जितनी अवश्यक हो,उतनी भिक्षा लाकर निष्कपट- भावसे गुरुको समर्पण करें और फिर आचमन करके पवित्र हो पूर्वाभिमुख होकर भोजन करें | नित्यप्रति गुरुको नमस्कार करना,उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञाका पालन करना ब्रह्मचारीका उत्तम धर्म हैं | उसे तत्परता के साथ शिक्षा और विद्या अध्ययन में ही विशेषतया मन लगाना चाहिये | जो बालक बाल्यावस्था में विद्या नहीं पढ़ता एवं शिक्षा ग्रहण नहीं करता तथा किसी कुत्सित क्रिया द्वारा वीर्य नष्ट कर देता हैं,उसे सदा के लिये पश्चाताप करना पड़ता हैं | शिक्षा ग्रहण करना,विद्या का अभ्यास करना,ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना--- ये तीनों उसके लिये इस लोक ओर परलोक में बहुत ही लाभदायक हैं | ब्रह्मचर्य के बिना आयु,बल,बुद्धि,तेज, कीर्ति और यश का विनाश होता हैं और मरने के बाद दुर्गति होती हैं | इसलिये बालकों को ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक शिक्षा और विद्या प्राप्त करने के लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये | माता पिता को उचित हैं कि वे बाल्यावस्थामें ही बालकको योग्य (वर्णधर्मानुसार) विद्याभ्यास करायें ; क्योंकि ---- जो माता-पिता अपने बालकको योग्य विद्या (#सा_विद्या_या_विमुक्तये= जो मुक्ति दे सकें ऐसी साश्वत विद्यायें) नहीं पढ़ातें,वे बालकके साथ शत्रुता का व्यवहार करतें हैं इसलिये वे शत्रुतुल्य हैं---- #माता_शत्रुः_पिता_वैरी_येन_बालो_न_पाठितः | #न_शोभते_सभामध्ये_हंसमध्ये_बको_यथा || चाणक्य || अर्थात् वह माता शत्रु और पिता वैरी के समान हैं, जिसने अपने बालकको विद्या नहीं पढा़यी; क्योंकी बिना पढ़ा हुआ बालक कर्तव्याऽकर्तव्यका निर्णय लेने में सक्षम न होनें के कारण सभा में वैसे ही शोभा नहीं पाता,जैसे हंसो के बीच बगुला ' | विद्या का अर्थ नाना प्रकार की भाषाओं और लिपियों का ज्ञान तथा शिक्षा का अर्थ हैं उत्तम गुण और उत्तम आचरणों को सीखकर उनको अपने जीवनमें लाना एवं ब्रह्मचर्यव्रत के पालनका अर्थ है सब प्रकार के मैथुनोंका त्याग करना---- (#स्मरणं_कीर्तनं_केलिः_प्रेक्षणं_गुह्यभाषणम् | #संकल्पोऽध्यवसायश्च_क्रियानिष्पत्तिरेव_च ||) अर्थात् स्त्रीका स्मरण,स्त्री सम्बन्धी बातचीत,स्त्रियों के साथ खेलना, स्त्रियों को देखना,स्त्री से गुप्त भाषण करना,स्त्री से मिलने का निश्चय करना और संकल्प करना तथा स्त्रीसङ्ग करना आठ प्रकार के मैथुनों में कहा हैं| इन सब का सर्वथा त्याग तथा ब्रह्म के स्वरूप में विचरण करना अर्थात् परमात्माके स्वरूप का मनन करना |
#वेदारम्भ-संस्कार~> उपनयन हो जाने के बाद द्विजबटु को ब्रह्मचर्य का पालन करतें हुए गुरुके पास बैठकर वेदादि शास्त्रों को सीखने के लिए प्रथम प्रारंभ करना इस संस्कार का प्रयोजन हैं | उपनयन के पश्चात् द्विजबटु को नियमित दंड धारण करतें हुए --- संध्योपासना और सायंप्रातरग्निपरिचर्या करतें रहना चाहिये,, ब्रह्मचारी को धरतीपर पतली पथारी बीछ़ाकर सोना चाहिये...| पारस्कराचार्य ने गृह्यसूत्र में कहा हैं कि--- #वेदं_समाप्य_स्नायात् ||२/६/१|| अर्थात् वेदों के पद और अर्थ का विधिवत् अध्ययन समाप्त कर समावर्तन-स्नान करें | ऐसी आज्ञा होने से वेदारंभ ( संस्कार के बाद सम्पूर्ण अद्ययन )के बिना ब्रह्मचर्य की समाप्ति नहीं हैं | चारों वेद के अभ्यास को जितना समय लगैं उतना ब्रह्मचर्य पालन करना हैं | #ब्रह्मचर्यं_वाऽष्टाचत्वारिंशतम् ||२/६/२|| #द्वादशके_प्येके ||२/६/३|| एक वेद के अध्ययन को कमसे कम बारहवर्ष कहैं गयें हैं |इस लिए एक - वेद ग्रहण करने के लिए बारहवर्ष का ब्रह्मचर्य अथवा चारों वेदों को ग्रहण करने में अधिक समय या कम समय में वेद ग्रहण कर सकता हो तो--- #गुरुणा_नुज्ञातः||२/६/४|| गुरु की आज्ञासे कभी भी समावर्तन - स्नान हो सकता हैं |बालकका कर्तव्य हैं कि वेदाध्ययन करता हुआ विद्या का अभ्यास करें,शास्त्रों का तथा अनेक प्रकार की भाषाओं और लिपियों का ज्ञान प्राप्त करें | भिक्षा लाकर गुरुको समर्पित कर दें और गुरुका दिया हुआ भोजन स्वयं करें | यह स्वयं मनुजी ने कहा हैं---> #समाहृत्य_तु_तद्_भैक्षं_यावदर्थममायया | #निवेद्य_गुरवेऽश्नीयादाचम्य_प्राङ्गमुखः_शुचिः ||मनुस्मृ२/५१|| अर्थात् जितनी अवश्यक हो,उतनी भिक्षा लाकर निष्कपट- भावसे गुरुको समर्पण करें और फिर आचमन करके पवित्र हो पूर्वाभिमुख होकर भोजन करें | नित्यप्रति गुरुको नमस्कार करना,उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञाका पालन करना ब्रह्मचारीका उत्तम धर्म हैं | उसे तत्परता के साथ शिक्षा और विद्या अध्ययन में ही विशेषतया मन लगाना चाहिये | जो बालक बाल्यावस्था में विद्या नहीं पढ़ता एवं शिक्षा ग्रहण नहीं करता तथा किसी कुत्सित क्रिया द्वारा वीर्य नष्ट कर देता हैं,उसे सदा के लिये पश्चाताप करना पड़ता हैं | शिक्षा ग्रहण करना,विद्या का अभ्यास करना,ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना--- ये तीनों उसके लिये इस लोक ओर परलोक में बहुत ही लाभदायक हैं | ब्रह्मचर्य के बिना आयु,बल,बुद्धि,तेज, कीर्ति और यश का विनाश होता हैं और मरने के बाद दुर्गति होती हैं | इसलिये बालकों को ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक शिक्षा और विद्या प्राप्त करने के लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये | माता पिता को उचित हैं कि वे बाल्यावस्थामें ही बालकको योग्य (वर्णधर्मानुसार) विद्याभ्यास करायें ; क्योंकि ---- जो माता-पिता अपने बालकको योग्य विद्या (#सा_विद्या_या_विमुक्तये= जो मुक्ति दे सकें ऐसी साश्वत विद्यायें) नहीं पढ़ातें,वे बालकके साथ शत्रुता का व्यवहार करतें हैं इसलिये वे शत्रुतुल्य हैं---- #माता_शत्रुः_पिता_वैरी_येन_बालो_न_पाठितः | #न_शोभते_सभामध्ये_हंसमध्ये_बको_यथा || चाणक्य || अर्थात् वह माता शत्रु और पिता वैरी के समान हैं, जिसने अपने बालकको विद्या नहीं पढा़यी; क्योंकी बिना पढ़ा हुआ बालक कर्तव्याऽकर्तव्यका निर्णय लेने में सक्षम न होनें के कारण सभा में वैसे ही शोभा नहीं पाता,जैसे हंसो के बीच बगुला ' | विद्या का अर्थ नाना प्रकार की भाषाओं और लिपियों का ज्ञान तथा शिक्षा का अर्थ हैं उत्तम गुण और उत्तम आचरणों को सीखकर उनको अपने जीवनमें लाना एवं ब्रह्मचर्यव्रत के पालनका अर्थ है सब प्रकार के मैथुनोंका त्याग करना---- (#स्मरणं_कीर्तनं_केलिः_प्रेक्षणं_गुह्यभाषणम् | #संकल्पोऽध्यवसायश्च_क्रियानिष्पत्तिरेव_च ||) अर्थात् स्त्रीका स्मरण,स्त्री सम्बन्धी बातचीत,स्त्रियों के साथ खेलना, स्त्रियों को देखना,स्त्री से गुप्त भाषण करना,स्त्री से मिलने का निश्चय करना और संकल्प करना तथा स्त्रीसङ्ग करना आठ प्रकार के मैथुनों में कहा हैं| इन सब का सर्वथा त्याग तथा ब्रह्म के स्वरूप में विचरण करना अर्थात् परमात्माके स्वरूप का मनन करना |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ|| शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः_खंड_१४३~
#वेदारम्भ_संस्कार---->
गुरुकुल में ब्रह्मचारी को मन-इन्द्रियों के संयमपूर्वक यम-नियमों का पालन करना चाहिये | इसके सिवा उसे विशेष नियमों का भी पालन करना हैं---> #नित्यं_स्नात्वा_शुचिः_कुर्याद्_देवर्षिपितॄतर्पणम् | #देवताभ्यर्चनं_चैव_समिदाधानमेव_च ||मनु २/१७६||
ब्रह्मचारी को चाहिये कि वह नित्य स्नान करकें (संध्योपासना से) शुद्ध होकर देवता,ऋषि और दिव्यपितरों(अग्निष्वातादि पितृगण),का तर्पण तथा देवताओं का पूजन अौर अग्निहोत्र(सायंप्रातरग्नि परिचर्या)अवश्य करें | #वर्जयेन्मधु_मांसं_च_गन्धं_माल्यं_रसान्_स्त्रियः | #शुक्तानि_यानि_सर्वाणि_प्राणिनां_चैव_हिंसनम् || #अभ्यङ्गमञ्जनं_चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम् | #कामं_क्रोधं_च_लोभं_च_नर्त्तनं_गीतवादनम् || #द्यूतं_च_जनवादं_च_परिवादं_तथानृतम् | #स्त्रीणां_च_प्रेक्षणालम्भमुपघातं_परस्य_च ||मनु २/१७७-१७९||
#वेदारम्भ_संस्कार---->
गुरुकुल में ब्रह्मचारी को मन-इन्द्रियों के संयमपूर्वक यम-नियमों का पालन करना चाहिये | इसके सिवा उसे विशेष नियमों का भी पालन करना हैं---> #नित्यं_स्नात्वा_शुचिः_कुर्याद्_देवर्षिपितॄतर्पणम् | #देवताभ्यर्चनं_चैव_समिदाधानमेव_च ||मनु २/१७६||
ब्रह्मचारी को चाहिये कि वह नित्य स्नान करकें (संध्योपासना से) शुद्ध होकर देवता,ऋषि और दिव्यपितरों(अग्निष्वातादि पितृगण),का तर्पण तथा देवताओं का पूजन अौर अग्निहोत्र(सायंप्रातरग्नि परिचर्या)अवश्य करें | #वर्जयेन्मधु_मांसं_च_गन्धं_माल्यं_रसान्_स्त्रियः | #शुक्तानि_यानि_सर्वाणि_प्राणिनां_चैव_हिंसनम् || #अभ्यङ्गमञ्जनं_चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम् | #कामं_क्रोधं_च_लोभं_च_नर्त्तनं_गीतवादनम् || #द्यूतं_च_जनवादं_च_परिवादं_तथानृतम् | #स्त्रीणां_च_प्रेक्षणालम्भमुपघातं_परस्य_च ||मनु २/१७७-१७९||
शहद,मांस,सुगन्धित वस्तु,फूलों के हार,रस, स्त्री और सिरकेकी भाँति बनी हुई समस्त मादक वस्तुओं का सेवन तथा प्राणियों की हिंसा करना एवं उबटन(फ्रेश्यल)लगाना,आँखो को अञ्जन आँजना,जूते और छाते का उपयोग करना तथा काम,क्रोध और लोभ का आचरण करना एवं नाचना,गाना,बजाना तथा जूआ,गाली-गलौंच और निन्दा आदि करना एवं झूठ बोलना और स्त्रियों को देखना,आलिङ्गन करना तथा दूसरे का तिरस्कार करना--- इन सब का ब्रह्मचारी को त्याग कर देना चाहिये |
धर्म के आधार-ग्रन्थों के मुख्य भाग ये हैं---- १ वेद,२-वेदाङ्ग,३- उपवेद, ४- इतिहास और पुराण, ५- स्मृति,६ दर्शन, ७- निबन्ध तथा ८- आगम |
वेद के छः भाग हैं--१ मन्त्रसंहिता, २-ब्राह्मणग्रन्थ, ३- आरण्यक, ४- सूत्रग्रन्थ, ५- प्रतिशाख्य और ६- अनुक्रमणी |
वेद चार हैं -- १ ऋग्वेद, २- यजुर्वेद, ३- सामवेद और ४- अथर्ववेद | किंतु ये चार वेदके विभाजन हैं | मूलतः वेद एक ही हैं | वेदों का यह विभाजन करनेके कारण ही महर्षि कृष्णद्वैपायन वेद व्यास कहे जातें हैं | यज्ञों में चार मुख्य ऋत्विज् होतें हैं--- होता, अध्वर्यु,उद्गाता और ब्रह्मा | ऋग्वेद के ऋत्विज् को होता,यजुर्वेद वालेकों अध्वर्यु,सामवेद वालें को उद्गाता तथा अथर्ववेद के ऋत्विज् को ब्रह्मा कहतें हैं |
त्रयी भी वेदोंका एक नाम हैं-- वेदत्रयी का यह अर्थ हैं कि पहले प्रधान वेद तीन ही रहैं---- #स्त्रियामृक्सामयजुषी_इति_वेदास्त्रयी| अमरकोष||
धर्म के आधार-ग्रन्थों के मुख्य भाग ये हैं---- १ वेद,२-वेदाङ्ग,३- उपवेद, ४- इतिहास और पुराण, ५- स्मृति,६ दर्शन, ७- निबन्ध तथा ८- आगम |
वेद के छः भाग हैं--१ मन्त्रसंहिता, २-ब्राह्मणग्रन्थ, ३- आरण्यक, ४- सूत्रग्रन्थ, ५- प्रतिशाख्य और ६- अनुक्रमणी |
वेद चार हैं -- १ ऋग्वेद, २- यजुर्वेद, ३- सामवेद और ४- अथर्ववेद | किंतु ये चार वेदके विभाजन हैं | मूलतः वेद एक ही हैं | वेदों का यह विभाजन करनेके कारण ही महर्षि कृष्णद्वैपायन वेद व्यास कहे जातें हैं | यज्ञों में चार मुख्य ऋत्विज् होतें हैं--- होता, अध्वर्यु,उद्गाता और ब्रह्मा | ऋग्वेद के ऋत्विज् को होता,यजुर्वेद वालेकों अध्वर्यु,सामवेद वालें को उद्गाता तथा अथर्ववेद के ऋत्विज् को ब्रह्मा कहतें हैं |
त्रयी भी वेदोंका एक नाम हैं-- वेदत्रयी का यह अर्थ हैं कि पहले प्रधान वेद तीन ही रहैं---- #स्त्रियामृक्सामयजुषी_इति_वेदास्त्रयी| अमरकोष||
ब्राह्मणोंको षडङ्ग वेदाभ्यास अवश्य करना चाहिये,क्योंकि स्वाध्याय को परम तप कहा गया हैं | यह वेदाभ्यास पाँच प्रकार का हैं---> #वेदस्वीकरणं_पूर्वं_विचारोऽभ्यसनं_जपः | #ततो_दानं_च_शिष्येभ्यो_वेदाभ्यासो_हि_पञ्चधा ||दक्षस्मृ२/२६-२७||
१- वेदों का स्वयं गुरुमुख से अध्ययन करना, २- उसके अर्थोंपर विचार करना, ३- उसका बार- बार अभ्यास करना, ४- जप करना तथा ५- शिष्योंको उसका अध्ययन कराना | इस तरह अठारह विद्याओं का अभ्यास करना चाहिये.....
#अङ्गानि_वेदाश्चत्वारो_मीमांसा_न्यायविस्तरः | #पुराणं_धर्मशास्त्रं_च_विद्या_ह्येता_चतुर्दशः || #आयुर्वेदो_धनुर्वेदो_गन्धर्वोवेद_एव_च | #अर्थशास्त्रं_चतुर्थं_तु_विद्या_ह्यष्टादश_स्मृताः ||लौगाक्षि||
१- वेदों का स्वयं गुरुमुख से अध्ययन करना, २- उसके अर्थोंपर विचार करना, ३- उसका बार- बार अभ्यास करना, ४- जप करना तथा ५- शिष्योंको उसका अध्ययन कराना | इस तरह अठारह विद्याओं का अभ्यास करना चाहिये.....
#अङ्गानि_वेदाश्चत्वारो_मीमांसा_न्यायविस्तरः | #पुराणं_धर्मशास्त्रं_च_विद्या_ह्येता_चतुर्दशः || #आयुर्वेदो_धनुर्वेदो_गन्धर्वोवेद_एव_च | #अर्थशास्त्रं_चतुर्थं_तु_विद्या_ह्यष्टादश_स्मृताः ||लौगाक्षि||
अङ्गो सहित चारों वेद अर्थात् १- ऋग्वेद २- यजुर्वेद ३- सामवेद ४- अथर्ववेद ---- ये चार वेद और ५- शिक्षा ६- कल्प ७- निरुक्त ८- व्याकरण ९- छन्द तथा १०- ज्योतिष --- ये वेदों के अङ्ग ११- मीमांसादर्शन १२- न्यायदर्शन १३- पुराण और १४- मन्वादि धर्मशास्त्र --- ये चौदह विद्याएँ हैं | इन सभी के मूल में धर्मतत्त्व ही निहित हैं | इसी के साथ १- आयुर्वेद २- धनुर्वेद ३- गन्धर्ववेद तथा ४ अर्थशास्त्र ये चार उपवेद मिलाकर अठारह विद्यास्थान हैं |
अनध्याय को छोड़कर शुभ मुर्हूतमें गुरुकुल में या आचार्य के गृह जाकर यह "वेदारम्भ_संस्कार" किया जाता हैं | संस्कार-विधि सम्पन्नता के बाद गुरु शिष्य को सबसे पहले पवित्रता,आचार,संध्योपासन का कर्म सिखाये | जो शिष्य अध्ययन करना चाहता हैं, उसे शास्त्र-विधि स् आचमन करना चाहिये | वेद पढ़ने के पहले और बाद में गुरुके दोनों चरणों का स्पर्श करना चाहिये | #व्यत्यस्त_पाणिना_कार्यमुपसंग्रहणं_गुरोः | #सव्येन_सव्यः_स्प्रष्टव्यो_दक्षिणेन_च_दक्षिणः ||मनु २/७२||
गुरु के चरण छूकर प्रणाम करने का विधान यह हैं कि बायें हाथ से बायाँ पैर और दाहिने हाथ से दाहिना पैर छूना चाहिये | इसी को "व्यत्यस्तपाणि" कहतें हैं | गुरुको आलस्यहीन होकर पढाना चाहिये | अध्यापन आरम्भ करने से पहले #अधीष्व_भोः" कहना चाहिये तथा पढ़ाने के बाद #विरामोऽस्तु" ऐसा कहकर विराम करना चाहिये | शिष्य को चाहिये कि वेद के आरम्भ और अन्त में "ॐ" (प्रणव) का उच्चारण करें | यदि पहले "ॐ(प्रणव)"का उच्चारण नहीं किया जाता तो अध्ययन नष्ट हो जाता हैं | यदि अन्त में "ॐ(प्रणव) का उच्चारण नहीं किया जाता हैं तो वह ठहरता नहीं अर्थात् विस्मृत रहता हैं | ॐ- कार के उच्चारण करने का नियम यह हैं कि शिष्य पूर्वकी ओर मुख करके कुशासन पर बैठकर दोनों हाथों में पवित्री पहन लें और तीन प्राणायाम करे | उसके बाद "ॐ" कार का उच्चारण करें | प्रजापति ने ऋग्वेद से "अ" यजुर्वेद से "उ" और सामवेद से "म" -- ॐ कारके इन तीनों अक्षरोंको निकाला हैं | इसी तरह क्रम से "भूः" ,"भुवः", और "स्वः", --- इन तीन महाव्याहृतियोंको निकाला हैं | ब्रह्मा ने उपर्युक्त तीनों वेदों से क्रमशः गायत्री के तीन पादों को भी निकाला हैं |
#गायत्री_जप_का_महत्व---> संध्याकाल में ॐ और तीनों महाव्याहृतियोँ के साथ गायत्री-मन्त्र का जप करता हुआ द्विज वेद पढ़ने के पुण्य को प्राप्त करता हैं |गायत्री-मन्त्र को प्रतिदिन एकहजार बार एकमास तक जप करनेवाला द्विज(जिसका उपनयन हो), महान् पाप से उसी तरह छूट जाता हैं, जैसे केंचुल से सर्प छूट जाता हैं | जो द्विज गायत्री का जप नहीं करता और समयपर होनेवाली अग्निहोत्र आदि क्रियाओं को नहीं करता,वह निन्दनीय होता हैं | ॐकार पूर्वक तीनों महाव्याहृतियाँ अनश्वर हैं और त्रिपदा गायत्री वेदों का मुख भाग हैं अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति का द्वार हैं | जो द्विज प्रतिदिन आलस्य रहित होकर तीनवर्ष तक ॐकार और महाव्याहृतिसहित गायत्री का जप करता हैं, वह ब्रह्म स्वरूप हो जाता हैं | ॐ कार ही ब्रह्मस्वरूप हैं, प्राणायाम श्रेष्ठ तपस्या हैं | गायत्री से श्रेष्ठ दूसरा कोई मन्त्र नहीं हैं | और मौन से बढ़कर सत्य बोलना श्रेष्ठ हैं | अमावास्या और पूर्णिमा को किये जानेवाले दर्श और पौर्णमास यज्ञों के साथ जो वैश्वदेव आदि चार पाक होतें हैं,ये जप-यज्ञ के सोलहवें भागके भी बराबर नहीं---(भाव यह हैं कि यज्ञादि क्रियाएँ फल देकर नष्ट हो जाती हैं) | ॐ ही ब्रह्मस्वरूप हैं | ॐ कार का जप नाम और नामी में अभेद होनेके कारण अनश्वर हैं | ब्राह्मण जपसे ही सिद्धी को प्राप्त करता हैं | इस में कोई सन्देह नहीं हैं || मनुस्मृति सार||
अनध्याय को छोड़कर शुभ मुर्हूतमें गुरुकुल में या आचार्य के गृह जाकर यह "वेदारम्भ_संस्कार" किया जाता हैं | संस्कार-विधि सम्पन्नता के बाद गुरु शिष्य को सबसे पहले पवित्रता,आचार,संध्योपासन का कर्म सिखाये | जो शिष्य अध्ययन करना चाहता हैं, उसे शास्त्र-विधि स् आचमन करना चाहिये | वेद पढ़ने के पहले और बाद में गुरुके दोनों चरणों का स्पर्श करना चाहिये | #व्यत्यस्त_पाणिना_कार्यमुपसंग्रहणं_गुरोः | #सव्येन_सव्यः_स्प्रष्टव्यो_दक्षिणेन_च_दक्षिणः ||मनु २/७२||
गुरु के चरण छूकर प्रणाम करने का विधान यह हैं कि बायें हाथ से बायाँ पैर और दाहिने हाथ से दाहिना पैर छूना चाहिये | इसी को "व्यत्यस्तपाणि" कहतें हैं | गुरुको आलस्यहीन होकर पढाना चाहिये | अध्यापन आरम्भ करने से पहले #अधीष्व_भोः" कहना चाहिये तथा पढ़ाने के बाद #विरामोऽस्तु" ऐसा कहकर विराम करना चाहिये | शिष्य को चाहिये कि वेद के आरम्भ और अन्त में "ॐ" (प्रणव) का उच्चारण करें | यदि पहले "ॐ(प्रणव)"का उच्चारण नहीं किया जाता तो अध्ययन नष्ट हो जाता हैं | यदि अन्त में "ॐ(प्रणव) का उच्चारण नहीं किया जाता हैं तो वह ठहरता नहीं अर्थात् विस्मृत रहता हैं | ॐ- कार के उच्चारण करने का नियम यह हैं कि शिष्य पूर्वकी ओर मुख करके कुशासन पर बैठकर दोनों हाथों में पवित्री पहन लें और तीन प्राणायाम करे | उसके बाद "ॐ" कार का उच्चारण करें | प्रजापति ने ऋग्वेद से "अ" यजुर्वेद से "उ" और सामवेद से "म" -- ॐ कारके इन तीनों अक्षरोंको निकाला हैं | इसी तरह क्रम से "भूः" ,"भुवः", और "स्वः", --- इन तीन महाव्याहृतियोंको निकाला हैं | ब्रह्मा ने उपर्युक्त तीनों वेदों से क्रमशः गायत्री के तीन पादों को भी निकाला हैं |
#गायत्री_जप_का_महत्व---> संध्याकाल में ॐ और तीनों महाव्याहृतियोँ के साथ गायत्री-मन्त्र का जप करता हुआ द्विज वेद पढ़ने के पुण्य को प्राप्त करता हैं |गायत्री-मन्त्र को प्रतिदिन एकहजार बार एकमास तक जप करनेवाला द्विज(जिसका उपनयन हो), महान् पाप से उसी तरह छूट जाता हैं, जैसे केंचुल से सर्प छूट जाता हैं | जो द्विज गायत्री का जप नहीं करता और समयपर होनेवाली अग्निहोत्र आदि क्रियाओं को नहीं करता,वह निन्दनीय होता हैं | ॐकार पूर्वक तीनों महाव्याहृतियाँ अनश्वर हैं और त्रिपदा गायत्री वेदों का मुख भाग हैं अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति का द्वार हैं | जो द्विज प्रतिदिन आलस्य रहित होकर तीनवर्ष तक ॐकार और महाव्याहृतिसहित गायत्री का जप करता हैं, वह ब्रह्म स्वरूप हो जाता हैं | ॐ कार ही ब्रह्मस्वरूप हैं, प्राणायाम श्रेष्ठ तपस्या हैं | गायत्री से श्रेष्ठ दूसरा कोई मन्त्र नहीं हैं | और मौन से बढ़कर सत्य बोलना श्रेष्ठ हैं | अमावास्या और पूर्णिमा को किये जानेवाले दर्श और पौर्णमास यज्ञों के साथ जो वैश्वदेव आदि चार पाक होतें हैं,ये जप-यज्ञ के सोलहवें भागके भी बराबर नहीं---(भाव यह हैं कि यज्ञादि क्रियाएँ फल देकर नष्ट हो जाती हैं) | ॐ ही ब्रह्मस्वरूप हैं | ॐ कार का जप नाम और नामी में अभेद होनेके कारण अनश्वर हैं | ब्राह्मण जपसे ही सिद्धी को प्राप्त करता हैं | इस में कोई सन्देह नहीं हैं || मनुस्मृति सार||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः_खंड_१४४~
#वेदारम्भ_संस्कार->
#विद्यापीठ-गुरुकुल----> द्विजबालक पाँचवे वर्ष पूर्ण होने से पूर्व अक्षरारंभ-संस्कार के प्रारंभ के बाद ८ वर्ष के उपनयन काल पूर्व -- >
आचार्य से वर्णमाला का ज्ञान/ भाषा का ज्ञान कुलाचार आदि तो सीख ही लेता था |
#लालयेत्_पञ्चवर्षाणि_दशवर्षाणि_ताडयेत् ||) ब्राह्मणादि द्विजबालकों के क्रम से ८/११/१२ इत्यादि वर्षों में उपनयन-संस्कार करकें शुभ मुर्हूत में गुरुकी अनुमति लेकर गुकुकुल में ही वेदारंभ-संस्कार सम्पन्न हो,,, ऐसा शास्त्र नियम हैं------------>
#वेदारम्भ_संस्कार->
#विद्यापीठ-गुरुकुल----> द्विजबालक पाँचवे वर्ष पूर्ण होने से पूर्व अक्षरारंभ-संस्कार के प्रारंभ के बाद ८ वर्ष के उपनयन काल पूर्व -- >
आचार्य से वर्णमाला का ज्ञान/ भाषा का ज्ञान कुलाचार आदि तो सीख ही लेता था |
#लालयेत्_पञ्चवर्षाणि_दशवर्षाणि_ताडयेत् ||) ब्राह्मणादि द्विजबालकों के क्रम से ८/११/१२ इत्यादि वर्षों में उपनयन-संस्कार करकें शुभ मुर्हूत में गुरुकी अनुमति लेकर गुकुकुल में ही वेदारंभ-संस्कार सम्पन्न हो,,, ऐसा शास्त्र नियम हैं------------>
#विद्याभ्यास_में_स्मृति_मेधा_वर्द्धक_औषधीयाँ-- १ सारस्वतारिष्ट (इसके संयोजक द्रव्यौषधी का प्रकार और गुण अष्टांगहृदय आदि वैद्यक-ग्रंथो में चर्चित हैं) प्राचीन विद्यापीठों में इस अरिष्ट का उपयोग शिष्यों की स्मरण शक्ति बढा़ने के लिए चार/ चार मास तक मिताहार, ऋतुचर्या तथा दिनचर्या-रात्रिचर्या के पालन के साथ साथ २- त्रिफला+सैंधवनमक-मिश्रण का अनुपान साथ ... (पारस्कर गृह्यसूत्र में त्रिफला का यह प्रयोग स्वर-शुद्धि के लिए बताया हैं) देतें थे )|३- शंखपुष्पी+वचा(वज) के योग का मीठा- पेय | ४- ब्राह्मीचूर्ण / ब्राह्मीघृत/ | लौकी का(कालीमीर्च+ सैंधव युक्त)सूप | ५- अश्वत्थ का सेवन और अश्वत्थ फलों का मुरब्बा | ६- पालाशके पञ्चांग का चूर्ण सेवन तथा दण्डधारण (यह ब्रह्मचर्य और मेधाशक्ति को बढाता हैं) | ७- ज्योतिष्मति तैल की दो/तीन बूंदे का सेवन दूध या पताशेके साथ | ८- भीगोंएँ हुए चने |९- भीगायें हुए मूँग और अँकुर आदि औषधके रूप में ग्राह्य करतें रहैं हैं |
साथ में बुद्धि के परमात्मा भगवान् सूर्यनारायण की तीनों-संध्या और गायत्रीमंत्ररूप से उपासना | शिवोपासना/ सरस्वत्युपासना/ अग्निकी समिधादान द्वारा उपासना / और गुरुशुश्रूषा / के साथ साथ आत्म और देहबल प्राप्त कराने के लिए (प्राणों की शुद्धीहेतु प्राणायाम-योग-व्यायाम- १२सूर्यनमस्कार / मन की शुद्धि हेतु मन्त्रोपासना-वेदाध्ययन / तथा अन्न की शुद्धि हेतु गुरुके यज्ञोपयोगी समिध-काष्ठ आदि एकत्रित करना- भोजन से पहले(पुरुषसूक्त,शिवसंकल्पसूक्त, पवमानसूक्त, ऋग्वेदीय- तरत्समंदीसूक्त,ऋग्वेदीय-अघमर्षणसूक्त, महापुरुषविद्या, गीताजी के अध्यायों का पठन, उपनिषत् मंत्रो का पठन,ब्रह्मार्पण आदि होता हैं) गुरुकुल में प्रकृतिमय वातावरण होने से अनुभव ऐसा होता रहता कि प्रकृति और देवताओं का भी सहयोग हो |सूर्यास्त से पहले दैनिक अध्ययन को विराम देकर सायंसन्ध्योपासना सायंअग्निपरिचर्या/ सायंभोजन / के बाद चिंतन-मनन-आदि सत्संग - कपड़े आदि साफ करना / रात्रिप्रार्थना और रात्रिशयन / दूसरे दिन बुहारी(कचरासाफ करना) सेवा- शीतजलसे सभी ऋतुओं में स्नान, प्रातःसंध्योपासना के बाद अग्निपरिचर्या/ मंगलपद्य-धून के साथ प्रभात फेरी/ गौसेवा-मंदिर(प्रासाद-देवालय)सेवा/शाक सुधारना/ अल्पाहार और गौ शाला के दूध की व्यवस्था/ स्वाध्याय/ आदि नित्यक्रम थें | शीतकाल, ऊष्णकाल और वर्षाकाल में यम-नियम के पालन करतें हुए संयम को बढा़कर इन्द्रिय निग्रहसे ब्रह्मचर्य की रक्षा करना, ऐसे नित्य-क्रम से शिष्य में ऊच्चकोटी के अनेकविध गुण सम्पन्न होतें हैं | सभीअवस्थाओं में आनंद का ही आस्वाद लेना सीख लेता हैं इसे कहतें हैं-- "तितिक्षा" का गुण, जो बडे़ होकर शिष्य को सर्वाऽवस्था में सुख-दुःखमें किसी भी तरह सहनशीलता-त्याग और संयम से प्राप्त-विशिष्टगुण काम आयें |
१-"काकचेष्टा"--कौएँ के जैसे सचेत, २-"बकध्यान"-- बगुले की तरह लक्ष्य साधन, ३-"श्वाननिद्रा"--- (गाढ़निद्रा न करतें हुए) गुरुसेवा आदि में तत्पर, ४- "अल्पाहारी" आवश्यकता से थोडा़ कम भोजन, ५-"गृहत्यागी" ---अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाने स्वगृहसे दूर रहना --- यह पाँच लक्षण विद्यार्थी के हैं | #क्षणशः_कणशश्चैव_विद्यामर्थं_च_चिन्तयेत् | #क्षणविना_कुतो_विद्या_कण_विना_कुतो_धनम् ||
विद्यार्थी को चाहिये कि विद्यार्जन हेतु क्षणेक्षण का उपयोग कर लैं, क्योंकि क्षण बित जानेपर विद्या कहाँसे प्राप्त होंगी ? दूसरा अर्थ के बारे में सोचने की आवश्यकता यह हैं कि थोडा़ थोड़ा करकें पैसे ईकठ्ठे हो सकतें हैं जिसको चंदपैसो की किंमत नहीं उससे धन संचित नहीं हो सकता |
१-"काकचेष्टा"--कौएँ के जैसे सचेत, २-"बकध्यान"-- बगुले की तरह लक्ष्य साधन, ३-"श्वाननिद्रा"--- (गाढ़निद्रा न करतें हुए) गुरुसेवा आदि में तत्पर, ४- "अल्पाहारी" आवश्यकता से थोडा़ कम भोजन, ५-"गृहत्यागी" ---अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाने स्वगृहसे दूर रहना --- यह पाँच लक्षण विद्यार्थी के हैं | #क्षणशः_कणशश्चैव_विद्यामर्थं_च_चिन्तयेत् | #क्षणविना_कुतो_विद्या_कण_विना_कुतो_धनम् ||
विद्यार्थी को चाहिये कि विद्यार्जन हेतु क्षणेक्षण का उपयोग कर लैं, क्योंकि क्षण बित जानेपर विद्या कहाँसे प्राप्त होंगी ? दूसरा अर्थ के बारे में सोचने की आवश्यकता यह हैं कि थोडा़ थोड़ा करकें पैसे ईकठ्ठे हो सकतें हैं जिसको चंदपैसो की किंमत नहीं उससे धन संचित नहीं हो सकता |
हमारे कितनेक ब्रह्मबंधु हैं जो किसी न किसी विद्यापीठ-गुरुकुल से विद्या-शिक्षा सम्पन्न हैं | पहले विद्यापीठ-गुरुकुल में जबतक शिष्य विद्या सम्पन्न स्नातक न हो तब तक गुरु शिष्य को विद्या और शिक्षा देतें ही रहतें थे यह आधुनिक परीक्षा के जैसे वार्षिक/ अर्धवार्षिक परीक्षायें नहीं थी / गुरुकुल में तो नित्य परीक्षायें होती ही रहती थी | कोई शिष्य एकपाठी(एकबार पढायें तो याद रखने वाला),कोई द्विपाठी,कोई त्रिपाठी तो कोई मंदपाठी (धीमीगति से सीखनेवाले) भी होतें थे | गुरुकुल के नियम थे कि जबतक शिष्य विद्या और शिक्षा में पक्का न हो जाय तबतक उसको उसकी धारणाशक्ति के अनुसार ही अध्यापन करवायाँ जाता था | इसका मतलब यह निकलता हैं कि ---- १०० मैं से १०० पूरे स्नातक बन सकतें थें | एक ही विद्यालय मैं पढनेवालें शिष्यों में कोई अंतर ही नहीं रहता था | पूर्वजन्म के पुण्य से - सहजता-और रुची के अनुसार दुसरें अनेक विषयों को भी जानकर महत्वता को प्राप्त करतें थे |
हमारे #भागवत_विद्यापीठ_सोला(अहमदाबाद) के प्रबुद्ध विद्वान पू, गुरुओं ने आज के युगमें श्रवण परम्परासे एक प्रज्ञाचक्षु ब्राह्मणबंधु को भागवतजी का उत्तम कथाकार बनाया हैं जो आज समाजको धर्मका ज्ञान देनेको समर्थ बना चूका हैं| परंतु यह विद्यापीठ-गुरुकुलों को चलाने के लिए राष्ट्रहित-समग्रजीवहित को ध्यान में रखकर क्षत्रिय-राजाओं आर्थिक-शारिरीक सहयोग देतें रहतें थे | आज के युग में यह द्विजों से ही संभव हैं कि --- वर्तमान विद्यापीठ-गुरुकुलों को यथायोग्य सहयोग दैं |
#अर्थस्य_साधने_सिद्धे_उत्कर्षे_रक्षणे_व्यये | #नाशोपभोग_आयासस्त्रासश्चिन्ता_भ्रमो_नृणाम् || #स्तेयं_हिंसानृतं_दम्भः_कामः_क्रोधः_स्मयो_मदः | #भेदो_वैरमविश्वासः_संस्पर्धा_व्यसनानि_च || #एते_पञ्चदशानर्था_ह्यर्थमूला_मता_नृणाम् | #तस्मादनर्थमर्थाख्यं_श्रेयोऽर्थी_दूरतस्त्यजेत् || श्रीमद्भागवत११/२३/१७-१९||
अर्थात् धन कमानेमें, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने (संभालने),एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में ---जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम,भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता हैं | चोरी,हिंसा,झूठबोलना, दम्भ,काम,क्रोध, गर्व, अहंकार, भेद-बुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जूआ और मदीरा ये पंद्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं | इसलिये कल्याण की कामनावालें पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ(जरुरीयात) एवं परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ कों दूरसे ही छोड़ दें | परमार्थ में लगाये |
अर्थात् धन कमानेमें, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने (संभालने),एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में ---जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम,भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता हैं | चोरी,हिंसा,झूठबोलना, दम्भ,काम,क्रोध, गर्व, अहंकार, भेद-बुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जूआ और मदीरा ये पंद्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं | इसलिये कल्याण की कामनावालें पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ(जरुरीयात) एवं परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ कों दूरसे ही छोड़ दें | परमार्थ में लगाये |
#सुवर्णं_रजतं_वस्त्रं_मणिरत्नं_च_वासव | #सर्वमेव_भवेद्दत्तं_वसुधां_यः_प्रयच्छति || बृहस्पतिस्मृ ५||
आचार्य बृहस्पति(देवाचार्य) देवराज इन्द्रसे कहतें हैं --- राजन् जो भूमिदान देता हैं,उसके द्वारा सुवर्ण,रजत,वस्त्र,मणि और रत्न आदि सब कुछ का दान दे दिया गया, ऐसा समझना चाहिये; क्योंकि ये सभी पृथ्वी से ही प्राप्त होतें हैं |
#फालकृष्टां_महीं_दत्त्वा_सबीजां_शस्यशालिनीम् | #यावत्_सूर्यकरा_लोकास्तावत्_स्वर्गे_महीयते || बृ०स्मृ६||
अपनी आजीविकाके परवश हुआ व्यक्ति जो कुछ भी पाप करता हैं,वह सब "गोचर्म(एक माप) " के बराबर भूमिके दान कर देने से नष्ट हो जाता हैं (#अपि_गोचर्ममात्रेण_भूमिदानेन_शुद्ध्यति||बृ०स्मृ०७||) और वह व्यक्ति शुद्ध हो जाता हैं |
#दशहस्तेन_दण्डेन_त्रिंशद्दण्डा_निवर्तनम् | #दश_तान्येव_विस्तारो_गोचर्मैतन्महाफलम् ||बृ०स्मृ ८||
दस हाथ के दण्डसे तीस दण्डका एक निवर्तन होता हैं (१० हाथ = १ दण्ड/ ३०दण्ड = ३०० हाथ= १ निवर्तन ) , और दस निवर्तन विस्तारवाली(१०निवर्तन =३००० हाथ लंबी-चौडी) या लगभग सवा-कि,मी० लंबी-चौडी़ भूमि "गोचर्म" भूमि कहलाती हैं |
अपनी आजीविकाके परवश हुआ व्यक्ति जो कुछ भी पाप करता हैं,वह सब "गोचर्म(एक माप) " के बराबर भूमिके दान कर देने से नष्ट हो जाता हैं (#अपि_गोचर्ममात्रेण_भूमिदानेन_शुद्ध्यति||बृ०स्मृ०७||) और वह व्यक्ति शुद्ध हो जाता हैं |
#दशहस्तेन_दण्डेन_त्रिंशद्दण्डा_निवर्तनम् | #दश_तान्येव_विस्तारो_गोचर्मैतन्महाफलम् ||बृ०स्मृ ८||
दस हाथ के दण्डसे तीस दण्डका एक निवर्तन होता हैं (१० हाथ = १ दण्ड/ ३०दण्ड = ३०० हाथ= १ निवर्तन ) , और दस निवर्तन विस्तारवाली(१०निवर्तन =३००० हाथ लंबी-चौडी) या लगभग सवा-कि,मी० लंबी-चौडी़ भूमि "गोचर्म" भूमि कहलाती हैं |
अन्य परिमाप से --- #सवृषं_गोसहस्रं_च_यत्र_तिष्ठत्यतन्द्रितम् | #बालवत्सप्रसूतानां_तद्गोचर्म_इति_स्मृतम् ||बृ०स्मृ० ९||
एक वृषभ तथा बछड़े-बछड़ियों सहित एकहजार गायें,जितनी भूमि में आराम से इधर-उधर टहल सकें,घूम-फिर सकें,उतनी लंबी-चौडी भूमि "गौचर्म-भूमि" कहलाती हैं |
#त्रीण्याहुरतिदानानि_गावः_पृथ्वी_सरस्वती | #तारयन्ती_हि_दातारं_सर्वात्_पापादसंशयम् ||बृ०स्मृ १८-१९||
एक वृषभ तथा बछड़े-बछड़ियों सहित एकहजार गायें,जितनी भूमि में आराम से इधर-उधर टहल सकें,घूम-फिर सकें,उतनी लंबी-चौडी भूमि "गौचर्म-भूमि" कहलाती हैं |
#त्रीण्याहुरतिदानानि_गावः_पृथ्वी_सरस्वती | #तारयन्ती_हि_दातारं_सर्वात्_पापादसंशयम् ||बृ०स्मृ १८-१९||
१- गोदान, २- भूमिदान और ३- विद्यादान --- ये तीन दान महादानों से भी बड़े अतिदान कहे गयें हैं | अतिदान करनेवाला सब प्रकार के पापों से उद्धार हो जाता हैं,ये दाता को तार देतें हैं |
अन्य किसी ग्रन्थ में--- #अन्नदानं_महादानं_विद्यादानं_महत्तरम् | #अन्नेन_क्षणिका_तृप्तिर्यावज्जिवतु_विद्यया ||
अर्थात् अन्नदान महादान हैं और विद्यादान उत्तममहादान हैं | अन्नदानसे क्षणिक क्षुधा शांत होगी,परंतु विद्या के प्रभाव से प्रतिग्राही आजिवन अनेनकविध उपयोगी बनी रहैंगी |हेमाद्री-दानखंडमें कहा हैं कि-- #गावो_अन्नं_वसनं_सर्वदोषापहारकम् || गाय,अन्न और कपड़ें का दान सभी दोषों को दूर कर देंतें हैं |
#भूमिहरणसे_महान्_पाप~
#भूमिदो_भूमिहर्ता_च_नापरं_पुण्यपापयोः |बृ०स्मृ०३०||
भूमिदान करने से जितने महान् पुण्य की प्राप्ति होती हैं,उतने ही पापकी प्राप्ति भूमिहरण करनेवाले को होती हैं |------------->
#गवां_कोटिप्रदानेन_भूमिहर्ता_न_शुद्ध्यति ||बृ०स्मृ०३९||
भूमिहर्ता यदि करोंड़ो गोदान भी करें तब भी वह शुद्ध नहीं होता |
अन्य किसी ग्रन्थ में--- #अन्नदानं_महादानं_विद्यादानं_महत्तरम् | #अन्नेन_क्षणिका_तृप्तिर्यावज्जिवतु_विद्यया ||
अर्थात् अन्नदान महादान हैं और विद्यादान उत्तममहादान हैं | अन्नदानसे क्षणिक क्षुधा शांत होगी,परंतु विद्या के प्रभाव से प्रतिग्राही आजिवन अनेनकविध उपयोगी बनी रहैंगी |हेमाद्री-दानखंडमें कहा हैं कि-- #गावो_अन्नं_वसनं_सर्वदोषापहारकम् || गाय,अन्न और कपड़ें का दान सभी दोषों को दूर कर देंतें हैं |
#भूमिहरणसे_महान्_पाप~
#भूमिदो_भूमिहर्ता_च_नापरं_पुण्यपापयोः |बृ०स्मृ०३०||
भूमिदान करने से जितने महान् पुण्य की प्राप्ति होती हैं,उतने ही पापकी प्राप्ति भूमिहरण करनेवाले को होती हैं |------------->
#गवां_कोटिप्रदानेन_भूमिहर्ता_न_शुद्ध्यति ||बृ०स्मृ०३९||
भूमिहर्ता यदि करोंड़ो गोदान भी करें तब भी वह शुद्ध नहीं होता |
निस्वार्थ भाव से कुआँ,बावडी,तालाब, देवालय, धर्मशाला, विद्यालय, अनाथालय, चिकित्सालय, मन्दिर, पौसला आदि बनवाना तथा उनका जीर्णोद्धार और छायादार एवं फलदार वृक्ष लगाना तथा मार्ग आदि बनवाना--- ये सभी लोकोपकार एवं जनहित के कार्य करना -करवाना पूर्त-धर्म कहलाता हैं |
पूर्त-धर्म की महिमा--->
#यस्तडागं_नवं_कुर्यात्_पुराणं_वापि_खानयेत् | #स_सर्वं_कुलमुद्धृत्य_स्वर्गेलोके_महीयते || #वापीकूपतडागानि_उद्यानोपवनानि_च | #पुनः_संस्कारकर्ता_च_लभते_मोलिकं_फलम् || #निदाघकाले_पानीयं_यस्य_तिष्ठति_वासव | #स_दुर्गं_विषमं_कृत्स्नं_न_कदाचिदवाप्नुयात् ||बृ०स्मृ ६२-६४||
पूर्त-धर्म की महिमा--->
#यस्तडागं_नवं_कुर्यात्_पुराणं_वापि_खानयेत् | #स_सर्वं_कुलमुद्धृत्य_स्वर्गेलोके_महीयते || #वापीकूपतडागानि_उद्यानोपवनानि_च | #पुनः_संस्कारकर्ता_च_लभते_मोलिकं_फलम् || #निदाघकाले_पानीयं_यस्य_तिष्ठति_वासव | #स_दुर्गं_विषमं_कृत्स्नं_न_कदाचिदवाप्नुयात् ||बृ०स्मृ ६२-६४||
पुराने तालाबका जीर्णोद्धार कराता हैं,वह अपने कुल का उद्धार कर देता हैं और स्वयं भी स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता हैं | इस तरह पुराने बावड़ी,कुआँ,तालाब, बाग-बगीचे का जीर्णोद्धार करानेवाला नये तालाव आदि बनवाने का फल प्राप्त करता हैं | जिसके बनाये हुए तालाब आदि में गरमी के दिनों में भी पानी बना रहता हैं,सूखता नहीं, उसे कभी कठोर विषम दुःख प्राप्त नहीं होता अर्थात् वह सर्वदा सुखी रहता हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री, उमरेठ || शेष पुनः
#अनेन_क्रमयोगेन_संस्कृतात्मा_द्विजः_शनैः | #गुरौ_वसन्सञ्चिनुयाद्_ब्रह्माधिगमिकं_तपः ||मनुः२/१६४||
जातकर्मसे उपनयन-संस्कारोंसे संस्कृत द्विज गुरुके समीप रहकर वेद पढ़ने के लिये तपस्या का आचरण करें |
#तपो_विशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च_विधिचोदितैः | #वेदः_कृत्स्नाऽधिगन्तव्यः_सरहस्यो_द्विजन्मना ||मनुः२/१६५||
विधिपूर्वक बतलायें गयें विशेष तपस्याओं(चान्द्रायण,कृच्छ्र=प्राजापत्य) करतें हुए उपनिषदों के रहस्य सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करें | वेदाध्ययन के लिये सबसे बड़ी तपस्या वेदका अध्ययन ही हैं | यही बात भृगुजी बता रहैं हैं कि तपस्या करनेवाले ब्राह्मणको चाहिये कि वह वेदाध्ययन ही सर्वदा करें,क्योंकि ब्राह्मण के लिये इस लोक में वेदाध्ययन ही सबसे बड़ी तपस्या कही गयी हैं ||मनुः २/१६६||
#आ_हवै_स_नखाग्रेभ्यः_परमं_तप्यते_तपः | #यः_स्रग्व्यपि_द्विजोऽधीते_स्वाध्यायं_शक्तितोऽन्वहम् ||२/१६७ मनुः|| जो ब्राह्मण पुष्पमाला धारण करके भी(अर्थात् ब्रह्मचर्य के नियमों में जो माला धारण करना निषेध हैं उसको पहनकर भी) नित्यप्रति शक्तिके अनुसार वेद पढ़ता हैं,वह चरण के नखोंतक अर्थात् सर्वदेहव्यापी बड़ा भारी तप करता हैं || यहाँ "पुष्पमाला ब्रह्मचारी को नहीं ही पहननी चाहिये" क्योंकि यह पद्य केवल वेदाध्ययन की प्रसंशा के लिये ही कहा हैं |
#यो_नधीत्य_द्विजो_वेदमन्यत्र_कुरुते_श्रमम् | #स_जीवेन्नेव_शूद्रत्वमाशु_गच्छन्ति_सान्वयः ||२/१६८मनुः||
जो द्विज वेद न पढ़कर अर्थशास्त्र आदि में श्रम करता हैं,वह पुत्र-पौत्रादि पूरे वंश के साथ शूद्रभाव को प्राप्त होता हैं |
#मातुरग्रे_द्विजननं_द्वितीयं_मौञ्जिबन्धने | #तृतीयं_यज्ञदीक्षायां_द्विजस्य_श्रुतिचोदनात् ||२/१६९ मनुः ||
वेदके विधान अनुसार द्विज के तीन जन्म होतें हैं -----> पहला जन्म मातासे, दूसरा जन्म यज्ञोपवीत-संस्कार से और तीसरा जन्म ज्योतिष्टोम आदि यज्ञोंकी दिक्षा से प्राप्त होता हैं | इन तीनों जन्म में यज्ञोपवीत से जो दूसरा जन्म होता हैं, उसमें --- #तत्रास्य_माता_सावित्री_पिता_त्वाचार्य_उच्यते ||२/१७०मनुः||
उसकी माता सावित्री(गायत्री) तथा उसके पिता आचार्य रहतें हैं |
#वेदप्रधानादाचार्यं_पितरं_परिचक्षते ||२/१७०||
उपनयन संस्कार के बाद आचार्य वेदाध्ययन करवातें हैं इसलिए आचार्य को पिता कहा हैं | ((((((((((((#न_ह्यस्मिन्_युज्यते_कर्म_किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् ||२/१७० मनुः||)))))))))))))))
यज्ञोपवीत-संस्कार से पहले द्विज वैदिक या स्मार्त कोई काम नहीं कर सकता | तथा --- ((((((( #नाभिव्याहालयेद्_ब्रह्म_स्वधानिननयनादृते||२/१७२मनुः||))))))))))) उपनयन-संस्कार रहित बालक स्वधायुक्त श्राद्धकर्म के अतिरिक्त और किसी कर्म में वेद का उच्चारण न करें | क्योंकि
#कृतोपनयनस्यास्य_व्रतादेशनमिष्यते | #ब्रह्मणो_ग्रहणं_चैव_क्रमेण_विधिपूर्वकम् ||१७३|| यज्ञोपवीत-संस्कार होने के बाद ही विधि से वेद को क्रमपूर्वक गुरु से पढ़नेका विधान हैं |
#य_इमां_पृथिवीं_सर्वां_सर्वरत्नोपशोभिताम् | #दद्याच्छास्त्रं_च_शिष्येभ्यो_तच्च_तच्च_द्वयं_समम् ||यमस्मृ०||
सभी रत्नोसे भरी हुई समग्र पृथ्वीका दान करें, इससे ज्यादा अपने सुपात्र शिष्य को जो गुरु वेदादि सत्-शास्त्रादि पढा़ते हैं, उनको अधिक पुण्य को प्राप्त होता हैं |
जातकर्मसे उपनयन-संस्कारोंसे संस्कृत द्विज गुरुके समीप रहकर वेद पढ़ने के लिये तपस्या का आचरण करें |
#तपो_विशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च_विधिचोदितैः | #वेदः_कृत्स्नाऽधिगन्तव्यः_सरहस्यो_द्विजन्मना ||मनुः२/१६५||
विधिपूर्वक बतलायें गयें विशेष तपस्याओं(चान्द्रायण,कृच्छ्र=प्राजापत्य) करतें हुए उपनिषदों के रहस्य सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करें | वेदाध्ययन के लिये सबसे बड़ी तपस्या वेदका अध्ययन ही हैं | यही बात भृगुजी बता रहैं हैं कि तपस्या करनेवाले ब्राह्मणको चाहिये कि वह वेदाध्ययन ही सर्वदा करें,क्योंकि ब्राह्मण के लिये इस लोक में वेदाध्ययन ही सबसे बड़ी तपस्या कही गयी हैं ||मनुः २/१६६||
#आ_हवै_स_नखाग्रेभ्यः_परमं_तप्यते_तपः | #यः_स्रग्व्यपि_द्विजोऽधीते_स्वाध्यायं_शक्तितोऽन्वहम् ||२/१६७ मनुः|| जो ब्राह्मण पुष्पमाला धारण करके भी(अर्थात् ब्रह्मचर्य के नियमों में जो माला धारण करना निषेध हैं उसको पहनकर भी) नित्यप्रति शक्तिके अनुसार वेद पढ़ता हैं,वह चरण के नखोंतक अर्थात् सर्वदेहव्यापी बड़ा भारी तप करता हैं || यहाँ "पुष्पमाला ब्रह्मचारी को नहीं ही पहननी चाहिये" क्योंकि यह पद्य केवल वेदाध्ययन की प्रसंशा के लिये ही कहा हैं |
#यो_नधीत्य_द्विजो_वेदमन्यत्र_कुरुते_श्रमम् | #स_जीवेन्नेव_शूद्रत्वमाशु_गच्छन्ति_सान्वयः ||२/१६८मनुः||
जो द्विज वेद न पढ़कर अर्थशास्त्र आदि में श्रम करता हैं,वह पुत्र-पौत्रादि पूरे वंश के साथ शूद्रभाव को प्राप्त होता हैं |
#मातुरग्रे_द्विजननं_द्वितीयं_मौञ्जिबन्धने | #तृतीयं_यज्ञदीक्षायां_द्विजस्य_श्रुतिचोदनात् ||२/१६९ मनुः ||
वेदके विधान अनुसार द्विज के तीन जन्म होतें हैं -----> पहला जन्म मातासे, दूसरा जन्म यज्ञोपवीत-संस्कार से और तीसरा जन्म ज्योतिष्टोम आदि यज्ञोंकी दिक्षा से प्राप्त होता हैं | इन तीनों जन्म में यज्ञोपवीत से जो दूसरा जन्म होता हैं, उसमें --- #तत्रास्य_माता_सावित्री_पिता_त्वाचार्य_उच्यते ||२/१७०मनुः||
उसकी माता सावित्री(गायत्री) तथा उसके पिता आचार्य रहतें हैं |
#वेदप्रधानादाचार्यं_पितरं_परिचक्षते ||२/१७०||
उपनयन संस्कार के बाद आचार्य वेदाध्ययन करवातें हैं इसलिए आचार्य को पिता कहा हैं | ((((((((((((#न_ह्यस्मिन्_युज्यते_कर्म_किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् ||२/१७० मनुः||)))))))))))))))
यज्ञोपवीत-संस्कार से पहले द्विज वैदिक या स्मार्त कोई काम नहीं कर सकता | तथा --- ((((((( #नाभिव्याहालयेद्_ब्रह्म_स्वधानिननयनादृते||२/१७२मनुः||))))))))))) उपनयन-संस्कार रहित बालक स्वधायुक्त श्राद्धकर्म के अतिरिक्त और किसी कर्म में वेद का उच्चारण न करें | क्योंकि
#कृतोपनयनस्यास्य_व्रतादेशनमिष्यते | #ब्रह्मणो_ग्रहणं_चैव_क्रमेण_विधिपूर्वकम् ||१७३|| यज्ञोपवीत-संस्कार होने के बाद ही विधि से वेद को क्रमपूर्वक गुरु से पढ़नेका विधान हैं |
#य_इमां_पृथिवीं_सर्वां_सर्वरत्नोपशोभिताम् | #दद्याच्छास्त्रं_च_शिष्येभ्यो_तच्च_तच्च_द्वयं_समम् ||यमस्मृ०||
सभी रत्नोसे भरी हुई समग्र पृथ्वीका दान करें, इससे ज्यादा अपने सुपात्र शिष्य को जो गुरु वेदादि सत्-शास्त्रादि पढा़ते हैं, उनको अधिक पुण्य को प्राप्त होता हैं |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
#अथ_ब्रह्मचारिव्रतलोपे_प्रायश्चित्तम्---->
ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण होनेतक द्विज-बटु से शौचाचार,आचमन,सन्ध्यावंदन, दर्भ,भिक्षा का आचरण, अग्निकार्य न हुआ हो, शूद्रादि पतितों के स्पर्श,कौपीन,मौञ्जिबन्धन(मेखला कटिसूत्र), यज्ञोपवीत,दण्ड, मृगचर्म(पवित्र-आसन),का त्याग हुआ हो,दिन में शयन,अथवा छत्रधारण,पादुका पहन कर चला हो,पुष्पकी माला धारण,गंध आदि (फैसपैक,साबुन) का उद्वर्तन अथवा लेपन, आँखो का अञ्जन,ताम्बुल चर्वण, जल-क्रीडा,जूआ खेला हो, नृत्य,लौकीक-गीत आदि में रत ,वेदों तथा धर्मशास्त्रों से विपरित पाखण्ड तथा कुतर्क, बासीभोजन,आदि नियमों का उल्लंघन हुआ हो तो ----शास्त्रमें #बौधायनोक्त--- तीनकृच्छ्र(प्राजापत्य) व्रत का प्रायश्चित्त बताया हैं | तथा बतायें अनुसार प्रायश्चित्त होम करैं ------->
#देशकालौ_संकीर्त्य --> मम शौचाचमन,सन्ध्यावन्दन, दर्भभिक्षाऽग्निकार्यराहित्य शूद्रादि स्पर्शनकौपीन कटि सूत्र यज्ञोपवीत मेखला दण्डाजिनत्याग दिवास्वापच्छत्रधारण,पादुकाध्यारोहण मालाधारणोद्वर्तनानुलेपनाञ्जन ताम्बूलचर्वण, जलक्रीडाद्यूत नृत्यगीतवाद्याद्यभिरति पाखण्डादिसम्भाषण पर्युषित भोजनादि ब्रह्मचारि व्रतलोपज सकलदोष परिहारार्थं महाव्याहृति-प्रायश्चितं होष्ये.. तत्र गणपतिं स्मृत्वा- स्थंडिले वीट् नामानं लौकिकाऽग्निं संस्थाप्य | (चरुं वर्ज )ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्तं कृत्वा वीट्नामाग्निं सम्पूज्य |
प्रथमं-- ॐ भूः स्वाहा-इदं अग्नये न मम | ॐ भुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ स्वः स्वाहा - इदं सूर्याय न मम | ॐ भूर्भुवःस्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | ॐ भूरग्नये च पृथिव्यै च महते च स्वाहा- इदं अग्नये पृथिव्यै महते च न मम |ॐ भुवो वायवे चान्तरिक्षाय च महते च स्वाहा - इदं वायवे चान्चरिक्षाय महते च न मम | ॐ सुवरादित्याय च दिवे च महते च स्वाहा - इदं आदित्याय दिवे महते च न मम | ॐ भूर्भुवःसुवश्चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यश्च दिग्भ्यश्च महते च स्वाहा - इदं चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यो दिग्भ्यो महते च न मम | ॐ पाहि नो अग्ने एनसे स्वाहा - इदं अग्नये न मम | ॐ पाहि नो अग्ने विश्ववेदसे स्वाहा- इदं अग्नये न मम | ॐ यज्ञं पाहि विभावसो स्वाहा- इदं अग्नये न मम | ॐ सर्वं पाहि शतक्रतो स्वाहा- इदं अग्नये न मम | ॐ पुनरूर्जानिर्त्तस्व पुनरग्नऽइखायुखा| पुनर्नः पाह्य गूँ हसः स्वाहा - इदं अग्नये न मम | ॐ सहरज्जा निवर्त्तस्वाग्ग्ने पिन्न्वस्वधारया | व्विश्श्वप्पस्न्या व्विश्वतस्प्परि स्वाहा- इदं अग्नये न मम | भूराद्यानवाहुतभिर्हुत्वा स्विष्टकृतम् | संस्रवप्राशनादि भस्मधारणान्तं समाप्य | अनेन ब्रह्मचारिव्रतलोप प्रायश्चित्त होम कर्मणा भगवान् अग्निस्वरूपी परमात्मा प्रीयताम् || एतद् अल्प-(ब्रह्मचर्य)धर्म लोपे प्रायश्चित्तम्, #बहुधर्मलोपे तु प्रायश्चित्त विशेष शौनकोक्तः-ऋग्वेदस्य #तं_बोधिया०००#जपेन्मन्त्रं_लक्षं_चैव_शिवालये || पुनर्व्रतं प्रारभेतेति स्मृत्यर्थसारे || #सन्ध्याग्निकार्यलोपे - स्नात्वाऽष्टसहस्रं #भिक्षालोपेऽष्टशतं #अभ्यासलोपे_द्विगुणं(षोडशशतं)#गायत्रीजपम् |पुनः (यज्ञोपवीत) संस्कारश्चेत्युक्तम् || इति ||
पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण होनेतक द्विज-बटु से शौचाचार,आचमन,सन्ध्यावंदन, दर्भ,भिक्षा का आचरण, अग्निकार्य न हुआ हो, शूद्रादि पतितों के स्पर्श,कौपीन,मौञ्जिबन्धन(मेखला कटिसूत्र), यज्ञोपवीत,दण्ड, मृगचर्म(पवित्र-आसन),का त्याग हुआ हो,दिन में शयन,अथवा छत्रधारण,पादुका पहन कर चला हो,पुष्पकी माला धारण,गंध आदि (फैसपैक,साबुन) का उद्वर्तन अथवा लेपन, आँखो का अञ्जन,ताम्बुल चर्वण, जल-क्रीडा,जूआ खेला हो, नृत्य,लौकीक-गीत आदि में रत ,वेदों तथा धर्मशास्त्रों से विपरित पाखण्ड तथा कुतर्क, बासीभोजन,आदि नियमों का उल्लंघन हुआ हो तो ----शास्त्रमें #बौधायनोक्त--- तीनकृच्छ्र(प्राजापत्य) व्रत का प्रायश्चित्त बताया हैं | तथा बतायें अनुसार प्रायश्चित्त होम करैं ------->
#देशकालौ_संकीर्त्य --> मम शौचाचमन,सन्ध्यावन्दन, दर्भभिक्षाऽग्निकार्यराहित्य शूद्रादि स्पर्शनकौपीन कटि सूत्र यज्ञोपवीत मेखला दण्डाजिनत्याग दिवास्वापच्छत्रधारण,पादुकाध्यारोहण मालाधारणोद्वर्तनानुलेपनाञ्जन ताम्बूलचर्वण, जलक्रीडाद्यूत नृत्यगीतवाद्याद्यभिरति पाखण्डादिसम्भाषण पर्युषित भोजनादि ब्रह्मचारि व्रतलोपज सकलदोष परिहारार्थं महाव्याहृति-प्रायश्चितं होष्ये.. तत्र गणपतिं स्मृत्वा- स्थंडिले वीट् नामानं लौकिकाऽग्निं संस्थाप्य | (चरुं वर्ज )ब्रह्मासनाद्याज्यभागान्तं कृत्वा वीट्नामाग्निं सम्पूज्य |
प्रथमं-- ॐ भूः स्वाहा-इदं अग्नये न मम | ॐ भुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ स्वः स्वाहा - इदं सूर्याय न मम | ॐ भूर्भुवःस्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | ॐ भूरग्नये च पृथिव्यै च महते च स्वाहा- इदं अग्नये पृथिव्यै महते च न मम |ॐ भुवो वायवे चान्तरिक्षाय च महते च स्वाहा - इदं वायवे चान्चरिक्षाय महते च न मम | ॐ सुवरादित्याय च दिवे च महते च स्वाहा - इदं आदित्याय दिवे महते च न मम | ॐ भूर्भुवःसुवश्चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यश्च दिग्भ्यश्च महते च स्वाहा - इदं चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यो दिग्भ्यो महते च न मम | ॐ पाहि नो अग्ने एनसे स्वाहा - इदं अग्नये न मम | ॐ पाहि नो अग्ने विश्ववेदसे स्वाहा- इदं अग्नये न मम | ॐ यज्ञं पाहि विभावसो स्वाहा- इदं अग्नये न मम | ॐ सर्वं पाहि शतक्रतो स्वाहा- इदं अग्नये न मम | ॐ पुनरूर्जानिर्त्तस्व पुनरग्नऽइखायुखा| पुनर्नः पाह्य गूँ हसः स्वाहा - इदं अग्नये न मम | ॐ सहरज्जा निवर्त्तस्वाग्ग्ने पिन्न्वस्वधारया | व्विश्श्वप्पस्न्या व्विश्वतस्प्परि स्वाहा- इदं अग्नये न मम | भूराद्यानवाहुतभिर्हुत्वा स्विष्टकृतम् | संस्रवप्राशनादि भस्मधारणान्तं समाप्य | अनेन ब्रह्मचारिव्रतलोप प्रायश्चित्त होम कर्मणा भगवान् अग्निस्वरूपी परमात्मा प्रीयताम् || एतद् अल्प-(ब्रह्मचर्य)धर्म लोपे प्रायश्चित्तम्, #बहुधर्मलोपे तु प्रायश्चित्त विशेष शौनकोक्तः-ऋग्वेदस्य #तं_बोधिया०००#जपेन्मन्त्रं_लक्षं_चैव_शिवालये || पुनर्व्रतं प्रारभेतेति स्मृत्यर्थसारे || #सन्ध्याग्निकार्यलोपे - स्नात्वाऽष्टसहस्रं #भिक्षालोपेऽष्टशतं #अभ्यासलोपे_द्विगुणं(षोडशशतं)#गायत्रीजपम् |पुनः (यज्ञोपवीत) संस्कारश्चेत्युक्तम् || इति ||
पु ह शास्त्री.उमरेठ||शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः_खंड_१४७~ >
#वेदारम्भ_संस्कार_विधानम् || |(यज्ञोपवीत दिये हुए बटुक के माता-पिता को चाहिये कि यह उत्तमोत्तम वेदादि-धर्मशास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का #वेदारंभ_संस्कार वेदगुरु के समीप या गुरुकुल में जाकर ही सम्पन्न करैं........
वर्तमान समय में जनेऊके संस्कार के दिन ही यह संस्कार "(लोकाचार को प्राधान्य देकर हड़बडी में और कम समय में करवाँ देते तो हैं) परंतु जहाँ तक पुरे समय में वेदमंत्र बटु ग्रहण नहीं कर लेता वहाँ तक तो यह संस्कार #व्यग्रचित्त से ही किया गया माना जायेंगा.. उसका फल भी #व्यग्रचित्ते_हतो_जपः- नहींवत् ही हैं | पूरा वेदाभ्यास करें यह तो #पुण्योदयसे- ही किन्हीं पुण्यात्मा को लाभ मिलता हैं,इसमें भी #सम्पूर्ण_वेद ग्रहण कर #शौचाचार आदि का यथायोग्य पालन ही वेदग्राही को पावन और तेजस्वी कर सकता हैं- (अभक्ष्य पदार्थ आदि शौचाचार से रहितों को तो भगवान् वेद-नारायण भी #आचारहिनं_न_पुनन्ति_वेदाः || पावन नहीं करतें...))||
#वेदारम्भ_संस्कार_विधानम् || |(यज्ञोपवीत दिये हुए बटुक के माता-पिता को चाहिये कि यह उत्तमोत्तम वेदादि-धर्मशास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का #वेदारंभ_संस्कार वेदगुरु के समीप या गुरुकुल में जाकर ही सम्पन्न करैं........
वर्तमान समय में जनेऊके संस्कार के दिन ही यह संस्कार "(लोकाचार को प्राधान्य देकर हड़बडी में और कम समय में करवाँ देते तो हैं) परंतु जहाँ तक पुरे समय में वेदमंत्र बटु ग्रहण नहीं कर लेता वहाँ तक तो यह संस्कार #व्यग्रचित्त से ही किया गया माना जायेंगा.. उसका फल भी #व्यग्रचित्ते_हतो_जपः- नहींवत् ही हैं | पूरा वेदाभ्यास करें यह तो #पुण्योदयसे- ही किन्हीं पुण्यात्मा को लाभ मिलता हैं,इसमें भी #सम्पूर्ण_वेद ग्रहण कर #शौचाचार आदि का यथायोग्य पालन ही वेदग्राही को पावन और तेजस्वी कर सकता हैं- (अभक्ष्य पदार्थ आदि शौचाचार से रहितों को तो भगवान् वेद-नारायण भी #आचारहिनं_न_पुनन्ति_वेदाः || पावन नहीं करतें...))||
#विधानम्--->
#यजमानः - पूजा,होमोपयोगी संभारान् गृहित्वा शुभे मुर्हूते गुरुकुले वा गुरोः समीपे गत्वा | आचम्य प्राणानायम्य | सुमुखश्चेत्यादि पठन् | देशकालौ संकीर्त्य -- मम अस्य पुत्रस्य वेदारम्भ संस्काराङ्ग निमित्तं गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता अपापकः) मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं च करिष्ये | तानि कर्माणि कृत्वा वेदारंभार्थं स्वस्य गोत्रोच्चार पूर्वकं वेदगुरोः गोत्रादिकं द्वितीयान्तमुक्त्वा मम पुत्रस्य वेदारंभार्थं भो गुरो त्वामहं वृणे |पाद्य,पादार्घ,गंधाक्षतपुष्पैश्च गुरुं सम्पूज्य || तत्र वेद-गुरुः देशकालौ संकीर्त्य अस्य कुमारस्य यजुर्वेद-व्रतादेशं करिष्ये | ततः पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य | वैश्वानरं ध्यात्वा --- अन्वाध्यायेत् - अत्र प्रजापतिमिन्द्रमग्निंसोमं, अन्तरिक्षं,वायुं,ब्रह्माणं, छंदांसि, प्रजापतिं,देवान्, ऋषीन्, श्रद्धां, मेधां, सदसस्पतिमनुमतिमग्निं,वायुं, सूर्य्यमग्नीवरुणौ, अग्नीवरुणौ,अग्निं, वरुणं,सवितारं,विष्णुं, विश्वान्देवान्मरुतः स्वर्कान्वरुणं आदित्यं अदितिं प्रजापतिं स्विष्टकृतं चाज्येनाहं यक्ष्ये |अन्वाधान-समिद्द्वयम् अग्नौ प्राश्य | ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं कृत्वा | अग्निपूजनम् --- व्रतादेशे समुद्भवनामाग्नये नमः गंधादिभिः संपूज्य | गुरुः --- आज्येन जुहोति ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा- इदं अन्तरिक्षाय न मम | ॐ वायवे स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा- इदं छन्दोभ्यो न मम | ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | ॐ देवेभ्यः स्वाहा- इदं देवेभ्यो न मम | ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा- इदं ऋषिभ्यो न मम | ॐ श्रद्धायै स्वाहा- इदं श्रद्धायै न मम | ॐ मेधायै स्वाहा- इदं मेधायै न मम | ॐ सदसस्पतये स्वाहा- इदं सदसस्पतये न मम | ॐ अनुमतये स्वाहा- इदं अनुमतये न मम | भूराद्याः स्विष्टकृदन्ताः दशाहुतयश्च | संस्रवप्राशनादिदक्षिणादानान्तं समाप्य | ततो कुमारः- देशकालौ संकीर्त्य ब्रह्मवर्चस सिद्ध्यर्थं वेदसरस्वती पूजनमहं करिष्ये | ॐ व्वेदोसि जेनत्वन्देव००||२/२१|| ॐ पावकानः सरस्वती००||२०/८४|| ॐ भूर्भुवःस्वः भगवते वेदनारायणाय नमः तथा च भगवती महासरस्वत्यै नमः इति शोडषोपचारैः सम्पूज्य | अञ्जलौ पुष्पाण्यादाय - शुक्लां ब्रह्म विचारसार परमां०००|| अजास्यः पीतवर्णः स्याद्यजुर्वेदोऽक्षसूत्रधृत् | वामे कुलिशपाणिस्तु भूतिदो मङ्गलप्रदः || इति संप्रार्थ्य || अनया पूजया वेदसरस्वत्यौ प्रीयेतां न मम ||शीष्य गुरोः पादस्पर्शनं कुर्यात् गुरुः-- अधीष्व भोः इत्युच्चरन् ॐ गणनाथसरस्वतीरवि००|| प्रथमं सप्रणवव्याहृतित्रयसहितं गायत्रीं ततो यजुर्वेदेन आरभेत || ॐ इखेत्त्वोर्ज्जेत्त्वा००||१/१|| ॐ स्वस्ति || ॐ यजुर्वेदाय नमः || विरामोऽस्तु || यजमानः--- कृतस्य गुरोः समीपे वेदारम्भाख्यस्य कर्मणः साङ्गता सिद्धर्थं यथाशक्ति ब्राह्मणान् भोजयिष्ये तेन श्री कर्माङ्गदेवता प्रीयतां न मम || मातृगणं विसृज्य || लंबोदर नमस्तुभ्यं ००||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
#षोडश_संस्काराः_खंड_१४८~>
#एकस्मिन्_दिने_स्वशाखोक्त_क्रमेण_वेदारंभः-
यह विधान एक ही दिनमें चारों वेदों,तीन या दो वेदों स्वशाखा- क्रमसे कोे प्रारंभ करने में उपयुक्त हैं |
#एकस्मिन्_दिने_स्वशाखोक्त_क्रमेण_वेदारंभः-
यह विधान एक ही दिनमें चारों वेदों,तीन या दो वेदों स्वशाखा- क्रमसे कोे प्रारंभ करने में उपयुक्त हैं |
#स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है।
#अधीत्य_शाखामात्मीयामन्यशाखां_ततः_पठेत् || #स्वशाखां_यः_परित्यज्य_शाखारण्डः_स_उच्यते ||वसिष्ठः ||
अपने कुलपरम्परासे(गोत्र-प्रवर आदि से),जिस वेद की जो शाखा हो, पहले उनका अध्ययन कर अन्य दूसरी शाखा का अध्ययन करना चाहिये,जो अपनी शाखा का त्याग कर दूसरी शाखा का अध्ययनादि करता हैं उन्हें धर्मवेताओंने शाखारंड की कनिष्ठ उपमा दी हैं | पूर्वमीमांसादि में भी कहा हैं कि -- सभी वेदों का अध्ययन,अथवा तीन,दो, या एक का अध्ययन करें, दूसरी शाखाओं का अध्ययन करना हो तो प्रथम अपनी ही शाखा के वेद से प्रारंभ कर यथा क्रमसे ऋग्वेद आदि की शाखा का अध्ययन करें, किसी भी वेदकी एक ही शाखा का अध्ययन करने से पुरे वेद का अध्ययन ही हुआ जानें ------------------------------------> #वेदानधीत्य_वेदौ_वेदं_वाऽपि_यथाक्रमम् || इत्यादि शाखापर्यालोचनया वेदान्तराध्ययनस्यापि कर्तव्यतानगमात् ऋग्वेदादिषु एकैकस्मिन् वेदे एकैका शाखा अध्येतव्या इति फलति || तत्रापि प्रथमं स्वशाखामधीत्य वेदान्तरगतशाखान्तराध्ययनं कर्तव्यम् | इदं सर्वं पूर्वमीमांसायां द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थपादे शाखान्तराधिकरणे वार्तिकादौ स्पष्टम् ।।) ==========================================
वीरमित्रोदय-रुद्रकल्पद्रुमादौ--->
#एकवेदेपि_शाखानां_मध्ये_योऽन्यतमां_श्रयेत् । #स्वशाखां_तु_परित्यज्य_शाखारंडः_स_उच्यते । ।
एक वेद की भी भिन्न शाखाओं में से अपनी ही शाखा का ही अध्ययन से विपरित अन्यशाखा का आश्रय लेता हैं, वह भी शाखरंड की कनिष्ठ उपमा को प्राप्त करता हैं ।
#आत्मशाखां_परित्यज्य_परशाखासु_वर्तते । #उच्छेता_तस्य_वंशस्य_रौरवं_नरकं_व्रजेत् ।।
जो अपनी शाखा का त्याग कर दूसरी शाखा का अध्ययन आदि कर्म (तत्रापि श्रौतानि कर्माणि,स्मार्त्तानि शान्तिक पौष्टिकानि च स्वशाखयैव कर्तव्यानि) श्रौत,स्मार्तादि शांतिक-पौष्टिक कर्म करता हैं, वह अपने वंश का उच्छेद कर रौरवनरक को जाता हैं ।
#अधीत्य_शाखामात्मीयामन्यशाखां_ततः_पठेत् || #स्वशाखां_यः_परित्यज्य_शाखारण्डः_स_उच्यते ||वसिष्ठः ||
अपने कुलपरम्परासे(गोत्र-प्रवर आदि से),जिस वेद की जो शाखा हो, पहले उनका अध्ययन कर अन्य दूसरी शाखा का अध्ययन करना चाहिये,जो अपनी शाखा का त्याग कर दूसरी शाखा का अध्ययनादि करता हैं उन्हें धर्मवेताओंने शाखारंड की कनिष्ठ उपमा दी हैं | पूर्वमीमांसादि में भी कहा हैं कि -- सभी वेदों का अध्ययन,अथवा तीन,दो, या एक का अध्ययन करें, दूसरी शाखाओं का अध्ययन करना हो तो प्रथम अपनी ही शाखा के वेद से प्रारंभ कर यथा क्रमसे ऋग्वेद आदि की शाखा का अध्ययन करें, किसी भी वेदकी एक ही शाखा का अध्ययन करने से पुरे वेद का अध्ययन ही हुआ जानें ------------------------------------> #वेदानधीत्य_वेदौ_वेदं_वाऽपि_यथाक्रमम् || इत्यादि शाखापर्यालोचनया वेदान्तराध्ययनस्यापि कर्तव्यतानगमात् ऋग्वेदादिषु एकैकस्मिन् वेदे एकैका शाखा अध्येतव्या इति फलति || तत्रापि प्रथमं स्वशाखामधीत्य वेदान्तरगतशाखान्तराध्ययनं कर्तव्यम् | इदं सर्वं पूर्वमीमांसायां द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थपादे शाखान्तराधिकरणे वार्तिकादौ स्पष्टम् ।।) ==========================================
वीरमित्रोदय-रुद्रकल्पद्रुमादौ--->
#एकवेदेपि_शाखानां_मध्ये_योऽन्यतमां_श्रयेत् । #स्वशाखां_तु_परित्यज्य_शाखारंडः_स_उच्यते । ।
एक वेद की भी भिन्न शाखाओं में से अपनी ही शाखा का ही अध्ययन से विपरित अन्यशाखा का आश्रय लेता हैं, वह भी शाखरंड की कनिष्ठ उपमा को प्राप्त करता हैं ।
#आत्मशाखां_परित्यज्य_परशाखासु_वर्तते । #उच्छेता_तस्य_वंशस्य_रौरवं_नरकं_व्रजेत् ।।
जो अपनी शाखा का त्याग कर दूसरी शाखा का अध्ययन आदि कर्म (तत्रापि श्रौतानि कर्माणि,स्मार्त्तानि शान्तिक पौष्टिकानि च स्वशाखयैव कर्तव्यानि) श्रौत,स्मार्तादि शांतिक-पौष्टिक कर्म करता हैं, वह अपने वंश का उच्छेद कर रौरवनरक को जाता हैं ।
#अथ_वेदारम्भम् -
यजमानः - पूजा,होमोपयोगी संभारान् गृहित्वा शुभे मुर्हूते गुरुकुले वा गुरोः समीपे गत्वा | आचम्य प्राणानायम्य | सुमुखश्चेत्यादि पठन् | देशकालौ संकीर्त्य -- मम अस्य पुत्रस्य वेदारम्भ संस्काराङ्ग निमित्तं गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता अपापकः) मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं च करिष्ये | तानि कर्माणि कृत्वा वेदारंभार्थं स्वस्य गोत्रोच्चार पूर्वकं वेदगुरोः गोत्रादिकं द्वितीयान्तमुक्त्वा मम पुत्रस्य वेदारंभार्थं भो गुरो त्वामहं वृणे |पाद्य,पादार्घ,गंधाक्षतपुष्पैः गुरुं सम्पूज्य || तत्र वेद-गुरुः देशकालौ संकीर्त्य अस्य कुमारस्य -वेदव्रतादेशं करिष्ये | ततः पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य | वैश्वानरं ध्यात्वा --- अन्वाध्यायेत् - अत्र प्रजापतिमिन्द्रमग्निंसोमं, अन्तरिक्षं,वायुं,ब्रह्माणं,छंदांसि,----------------------------------> {यदि ऋग्वेदारम्भस्तदा(पृथिवीं,अग्निं,ब्रह्माणं,छंदांसि)}------>
{यदि सामवेदारम्भस्तदा(दिवं,सूर्यं,ब्रह्माणं,छंदांसि)}-------> {यद्यथर्ववेदारम्भस्तदा(दिशः,चन्द्रमसं,ब्रह्माणं,छंदांसि)}----> प्रजापतिं,देवान्, ऋषीन्, श्रद्धां, मेधां, सदसस्पतिमनुमतिमग्निं,वायुं, सूर्य्यमग्नीवरुणौ, अग्नीवरुणौ,अग्निं, वरुणं,सवितारं,विष्णुं, विश्वान्देवान्मरुतः स्वर्कान्वरुणं आदित्यं अदितिं प्रजापतिं स्विष्टकृतं चाज्येनाहं यक्ष्ये |अन्वाधान-समिद्द्वयम् अग्नौ प्राश्य | ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं कृत्वा | अग्निपूजनम् --- व्रतादेशे समुद्भवनामाग्नये नमः गंधादिभिः संपूज्य | गुरुः --- आज्येन जुहोति ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा- इदं अन्तरिक्षाय न मम | ॐ वायवे स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा- इदं छन्दोभ्यो न मम | (ऋग्वेदाहुतयः)--> ॐपृथिव्यै स्वाहा- इदं पृथिव्यै न मम | ॐ अग्नये स्वाहा - इदं अग्नये न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम |ॐ छंदोभ्यः स्वाहा-इदं छंदोभ्यो न मम | (सामवेदाहुतयः)-- ॐदिवे स्वाहा- इदं दिवे न मम | ॐ सूर्याय स्वाहा- इदं सूर्याय न मम |ॐ ब्रह्मणे स्वाहा-इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छंदोभ्यः स्वाहा -इदं छंदोभ्यो न मम | (अथर्ववेदाहुतयः)--- ॐ दिग्भ्यः स्वाहा-इदं दिग्भ्यो न मम | ॐ चन्द्रमसे स्वाहा- इदं चन्द्रमसे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छंदोभ्यः स्वाहा-इदं छंदोभ्यो न मम | (प्रजापत्यादि सर्वसमानम्)--> ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | ॐ देवेभ्यः स्वाहा- इदं देवेभ्यो न मम | ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा- इदं ऋषिभ्यो न मम | ॐ श्रद्धायै स्वाहा- इदं श्रद्धायै न मम | ॐ मेधायै स्वाहा- इदं मेधायै न मम | ॐ सदसस्पतये स्वाहा- इदं सदसस्पतये न मम | ॐ अनुमतये स्वाहा- इदं अनुमतये न मम | भूराद्याः स्विष्टकृदन्ताः दशाहुतयश्च | संस्रवप्राशनादिदक्षिणादानान्तं समाप्य | ततो कुमारः- देशकालौ संकीर्त्य ब्रह्मवर्चस सिद्ध्यर्थं वेदसरस्वती पूजनमहं करिष्ये | ॐ व्वेदोसि जेनत्वन्देव००२/२१|| ॐ पावकानः सरस्वती००२०/८४|| ॐ भूर्भुवःस्वः भगवते वेदनारायणाय नमः तथा च भगवती महासरस्वत्यै नमः इति शोडषोपचारैः सम्पूज्य | अञ्जलौ पुष्पाण्यादाय - शुक्लां ब्रह्म विचारसार परमां०००|| अजास्यः पीतवर्णः स्याद्यजुर्वेदोऽक्षसूत्रधृत् | वामे कुलिशपाणिस्तु भूतिदो मङ्गलप्रदः || (ऋग्वेद)--ऋग्वेदः श्वेतवर्णः स्याद् द्विभुजो रासभाननः | अक्षमालाधरः सौम्य प्रीतोव्याख्यायनोद्यतः|| (सामवेद)- नीलोत्पलदलाभासः सामवेदो हयाननः | अक्षमालान्वितो दक्षे वामे कुम्भधरः स्मृतः || (अथर्ववेद)-- अथर्वणाभिधो वेदो धवलो मर्कटाननः | अक्षमालान्वितो वामे दक्षे कुम्भधरः स्मृतः || इति संप्रार्थ्य || अनया पूजया वेदसरस्वत्यौ प्रीयेतां न मम ||शीष्य गुरोः पादस्पर्शनं कुर्यात् गुरुः-- अधीष्व भोः इत्युच्चरन् ॐ गणनाथसरस्वतीरवि००|| प्रथमं सप्रणवव्याहृतित्रयसहितं गायत्रीं ततो यजुर्वेदेन आरभेत || ॐ इखेत्त्वोर्ज्जेत्त्वा००||१/१|| ॐ स्वस्ति || ॐ यजुर्वेदाय नमः || ऋग्वेदारम्भे-- (सप्रणवव्याहृतिगायत्र्यन्ते)ॐ अग्निमीळे पुरोहितं००||ॐस्वस्ति || ॐ ऋग्वेदाय नमः | सामवेदारम्भे(सप्रणवव्याहृतिगायत्र्यन्ते) ॐ अग्नऽआयाहि०००|| ॐ स्वस्ति || ॐ सामवेदाय नमः || अथर्ववेदारम्भे(सप्रणवगायत्र्यन्ते) ॐ शन्नो देवी०००|| ॐस्वस्ति || ॐ अथर्ववेदाय नमः || एवं वेदाध्ययनं कारयित्वा | यजमानः--- कृतस्य गुरोः समीपे वेदारम्भाख्यस्य कर्मणः साङ्गता सिद्धर्थं यथाशक्ति ब्राह्मणान् भोजयिष्ये तेन श्री कर्माङ्गदेवता प्रीयतां न मम || मातृगणं विसृज्य || लंबोदर नमस्तुभ्यं ००||
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यजमानः - पूजा,होमोपयोगी संभारान् गृहित्वा शुभे मुर्हूते गुरुकुले वा गुरोः समीपे गत्वा | आचम्य प्राणानायम्य | सुमुखश्चेत्यादि पठन् | देशकालौ संकीर्त्य -- मम अस्य पुत्रस्य वेदारम्भ संस्काराङ्ग निमित्तं गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता अपापकः) मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं च करिष्ये | तानि कर्माणि कृत्वा वेदारंभार्थं स्वस्य गोत्रोच्चार पूर्वकं वेदगुरोः गोत्रादिकं द्वितीयान्तमुक्त्वा मम पुत्रस्य वेदारंभार्थं भो गुरो त्वामहं वृणे |पाद्य,पादार्घ,गंधाक्षतपुष्पैः गुरुं सम्पूज्य || तत्र वेद-गुरुः देशकालौ संकीर्त्य अस्य कुमारस्य -वेदव्रतादेशं करिष्ये | ततः पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य | वैश्वानरं ध्यात्वा --- अन्वाध्यायेत् - अत्र प्रजापतिमिन्द्रमग्निंसोमं, अन्तरिक्षं,वायुं,ब्रह्माणं,छंदांसि,----------------------------------> {यदि ऋग्वेदारम्भस्तदा(पृथिवीं,अग्निं,ब्रह्माणं,छंदांसि)}------>
{यदि सामवेदारम्भस्तदा(दिवं,सूर्यं,ब्रह्माणं,छंदांसि)}-------> {यद्यथर्ववेदारम्भस्तदा(दिशः,चन्द्रमसं,ब्रह्माणं,छंदांसि)}----> प्रजापतिं,देवान्, ऋषीन्, श्रद्धां, मेधां, सदसस्पतिमनुमतिमग्निं,वायुं, सूर्य्यमग्नीवरुणौ, अग्नीवरुणौ,अग्निं, वरुणं,सवितारं,विष्णुं, विश्वान्देवान्मरुतः स्वर्कान्वरुणं आदित्यं अदितिं प्रजापतिं स्विष्टकृतं चाज्येनाहं यक्ष्ये |अन्वाधान-समिद्द्वयम् अग्नौ प्राश्य | ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं कृत्वा | अग्निपूजनम् --- व्रतादेशे समुद्भवनामाग्नये नमः गंधादिभिः संपूज्य | गुरुः --- आज्येन जुहोति ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा- इदं अन्तरिक्षाय न मम | ॐ वायवे स्वाहा- इदं वायवे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छन्दोभ्यः स्वाहा- इदं छन्दोभ्यो न मम | (ऋग्वेदाहुतयः)--> ॐपृथिव्यै स्वाहा- इदं पृथिव्यै न मम | ॐ अग्नये स्वाहा - इदं अग्नये न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम |ॐ छंदोभ्यः स्वाहा-इदं छंदोभ्यो न मम | (सामवेदाहुतयः)-- ॐदिवे स्वाहा- इदं दिवे न मम | ॐ सूर्याय स्वाहा- इदं सूर्याय न मम |ॐ ब्रह्मणे स्वाहा-इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छंदोभ्यः स्वाहा -इदं छंदोभ्यो न मम | (अथर्ववेदाहुतयः)--- ॐ दिग्भ्यः स्वाहा-इदं दिग्भ्यो न मम | ॐ चन्द्रमसे स्वाहा- इदं चन्द्रमसे न मम | ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इदं ब्रह्मणे न मम | ॐ छंदोभ्यः स्वाहा-इदं छंदोभ्यो न मम | (प्रजापत्यादि सर्वसमानम्)--> ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम | ॐ देवेभ्यः स्वाहा- इदं देवेभ्यो न मम | ॐ ऋषिभ्यः स्वाहा- इदं ऋषिभ्यो न मम | ॐ श्रद्धायै स्वाहा- इदं श्रद्धायै न मम | ॐ मेधायै स्वाहा- इदं मेधायै न मम | ॐ सदसस्पतये स्वाहा- इदं सदसस्पतये न मम | ॐ अनुमतये स्वाहा- इदं अनुमतये न मम | भूराद्याः स्विष्टकृदन्ताः दशाहुतयश्च | संस्रवप्राशनादिदक्षिणादानान्तं समाप्य | ततो कुमारः- देशकालौ संकीर्त्य ब्रह्मवर्चस सिद्ध्यर्थं वेदसरस्वती पूजनमहं करिष्ये | ॐ व्वेदोसि जेनत्वन्देव००२/२१|| ॐ पावकानः सरस्वती००२०/८४|| ॐ भूर्भुवःस्वः भगवते वेदनारायणाय नमः तथा च भगवती महासरस्वत्यै नमः इति शोडषोपचारैः सम्पूज्य | अञ्जलौ पुष्पाण्यादाय - शुक्लां ब्रह्म विचारसार परमां०००|| अजास्यः पीतवर्णः स्याद्यजुर्वेदोऽक्षसूत्रधृत् | वामे कुलिशपाणिस्तु भूतिदो मङ्गलप्रदः || (ऋग्वेद)--ऋग्वेदः श्वेतवर्णः स्याद् द्विभुजो रासभाननः | अक्षमालाधरः सौम्य प्रीतोव्याख्यायनोद्यतः|| (सामवेद)- नीलोत्पलदलाभासः सामवेदो हयाननः | अक्षमालान्वितो दक्षे वामे कुम्भधरः स्मृतः || (अथर्ववेद)-- अथर्वणाभिधो वेदो धवलो मर्कटाननः | अक्षमालान्वितो वामे दक्षे कुम्भधरः स्मृतः || इति संप्रार्थ्य || अनया पूजया वेदसरस्वत्यौ प्रीयेतां न मम ||शीष्य गुरोः पादस्पर्शनं कुर्यात् गुरुः-- अधीष्व भोः इत्युच्चरन् ॐ गणनाथसरस्वतीरवि००|| प्रथमं सप्रणवव्याहृतित्रयसहितं गायत्रीं ततो यजुर्वेदेन आरभेत || ॐ इखेत्त्वोर्ज्जेत्त्वा००||१/१|| ॐ स्वस्ति || ॐ यजुर्वेदाय नमः || ऋग्वेदारम्भे-- (सप्रणवव्याहृतिगायत्र्यन्ते)ॐ अग्निमीळे पुरोहितं००||ॐस्वस्ति || ॐ ऋग्वेदाय नमः | सामवेदारम्भे(सप्रणवव्याहृतिगायत्र्यन्ते) ॐ अग्नऽआयाहि०००|| ॐ स्वस्ति || ॐ सामवेदाय नमः || अथर्ववेदारम्भे(सप्रणवगायत्र्यन्ते) ॐ शन्नो देवी०००|| ॐस्वस्ति || ॐ अथर्ववेदाय नमः || एवं वेदाध्ययनं कारयित्वा | यजमानः--- कृतस्य गुरोः समीपे वेदारम्भाख्यस्य कर्मणः साङ्गता सिद्धर्थं यथाशक्ति ब्राह्मणान् भोजयिष्ये तेन श्री कर्माङ्गदेवता प्रीयतां न मम || मातृगणं विसृज्य || लंबोदर नमस्तुभ्यं ००||
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(यज्ञोपवीत दिये हुए बटुक के माता-पिता को चाहिये कि यह उत्तमोत्तम वेदादि-धर्मशास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का #वेदारंभ_संस्कार वेदगुरु के समीप या गुरुकुल में जाकर ही सम्पन्न करैं........
वर्तमान समय में जनेऊके संस्कार के दिन ही यह संस्कार "(लोकाचार को प्राधान्य देकर हड़बडी में और कम समय में करवाँ देते तो हैं) परंतु जहाँ तक पुरे समय में वेदमंत्र बटु ग्रहण नहीं कर लेता वहाँ तक तो यह संस्कार #व्यग्रचित्त से ही किया गया माना जायेंगा.. उसका फल भी #व्यग्रचित्ते_हतो_जपः- नहींवत् ही हैं | पूरा वेदाभ्यास करें यह तो #पुण्योदयसे- ही किन्हीं पुण्यात्मा को लाभ मिलता हैं,इसमें भी #सम्पूर्ण_वेद ग्रहण कर #शौचाचार आदि का यथायोग्य पालन ही वेदग्राही को पावन और तेजस्वी कर सकता हैं------>
(अभक्ष्य पदार्थ आदि शौचाचार से रहितों को तो भगवान् वेद-नारायण भी #आचारहिनं_न_पुनन्ति_वेदाः||देवीभा०|| पावन नहीं करतें...)) अतः अनाचारी वेदपाठी से अधिक गायत्रीजप करनेवाले सद्-विप्र का महत्व हैं ||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
वर्तमान समय में जनेऊके संस्कार के दिन ही यह संस्कार "(लोकाचार को प्राधान्य देकर हड़बडी में और कम समय में करवाँ देते तो हैं) परंतु जहाँ तक पुरे समय में वेदमंत्र बटु ग्रहण नहीं कर लेता वहाँ तक तो यह संस्कार #व्यग्रचित्त से ही किया गया माना जायेंगा.. उसका फल भी #व्यग्रचित्ते_हतो_जपः- नहींवत् ही हैं | पूरा वेदाभ्यास करें यह तो #पुण्योदयसे- ही किन्हीं पुण्यात्मा को लाभ मिलता हैं,इसमें भी #सम्पूर्ण_वेद ग्रहण कर #शौचाचार आदि का यथायोग्य पालन ही वेदग्राही को पावन और तेजस्वी कर सकता हैं------>
(अभक्ष्य पदार्थ आदि शौचाचार से रहितों को तो भगवान् वेद-नारायण भी #आचारहिनं_न_पुनन्ति_वेदाः||देवीभा०|| पावन नहीं करतें...)) अतः अनाचारी वेदपाठी से अधिक गायत्रीजप करनेवाले सद्-विप्र का महत्व हैं ||
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ || शेष पुनः
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