चूडाकरणम्

षोडश संस्काराः(चूडाकरणम्)खंड८७~यह संस्कार षोडश संस्कारोके क्रममें नवमा संस्कार हैं.... "चूडा क्रियते अस्मिन्||वीरमित्रोदय|| इस विग्रहके अनुसार चूडाकरण संस्कार का अभिप्राय हैं,वह संस्कार जिसमें बालकको"चूडा"अर्थात् शिखा दी जाय|अमरकोष के अनुसार भी चूडाका अभिप्राय शिखासे ही हैं|इसलिये गृह्यसूत्रमें दिया गया हैं कि-" एकशिखस्त्रिशिखःपञ्चशिखो वा यथैवैषां कुलधर्मः स्याद्यथर्षिः शिखा निदधातीति||" अर्थात् बालकको कुलधर्मके अनुसार एक शिखा या तीन अथवा पाँच शिखा धारण कराये| इन वचनोंसे इस संस्कारका समय जन्मसे द्वितीय या तृतीय वर्ष हैं|| शरीर विज्ञानके अनुसार यह समय दाँतोंके निकलनेका है|इसके कारण बालकके शरीरमें कई प्रकारकी व्याधिका होना स्वाभाविक हैं|इस प्रकार उसका शरीर निर्बल हो जाता हैं;बाल झड़ने लगतें है, ऐसे समयमें इस संस्कारका विधान करके महर्षियोंने बालकको अस्वस्थ्यकारक कारणोंसे बचानेका प्रयास किया हैं||इसमें अनुष्ठेय प्रधान कार्य शिशुका केश मुण्डन हैं||चूडाकर्म संस्कार बल आयु तथा तेजकी वृद्धिके लिये किया जानेवाला संस्कार हैं|गर्भावस्थामें जो केश उत्पन्न होतें हैं,उन सबको दूरकर चूडाकरणके द्वारा शिशुको शिक्षा तथा संस्कारका पात्र बनाया जाता हैं|इसी कारण यह कहा गया हैं कि चूडाकरणके द्वारा अपात्रीकरण दोषका निवारण होता हैं तथा बैजिक व गार्भिक दोषोका परिमार्जन होता हैं|| वर्णधर्म और आश्रमधर्म संस्कारोंके ही बलपर स्थिर किये गयें हैं||यहाँतक कि भारतीय संस्कृतिका मूल आधार भी संस्कार हैं||अतएव त्रिकालदर्शी महर्षियोंने अपनी अपनी स्मृतियों संस्कारपर बल दिया और इन्हैं जीवित रखनेंमें ही हमारी संस्कृति एवं सभ्यता पल्लवित,विकसित और चिरस्थायीरूपमें प्रकाशित हो सकेगी यह समझा -" अतःपरं द्विजातीनां संस्कृतिर्नियतोच्यते||संस्काररहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्||आश्वालायन|| महर्षि आश्वालायनने तो ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्योंके लिये नियत संस्कारोका अनुष्ठान न करनेसे उनका द्विज जन्म ग्रहण ही निरर्थक होता हैं ऐसी घोषणा की हैं| शुक्लयजुर्वेद३/६३में इस संस्कारसे सम्बन्धित चर्चा की गयी हैं| यथा-"नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय||अर्थात् हे बालक! दीर्घायुके लिये अन्नग्रहणमें समर्थ बनानेके लिये,उत्पादनशक्तिके लिये और बल तथा पराक्रमप्राप्तिके योग्य होनेके लिये तेरा मुण्डन करता हूँ|
इस संस्कालका दूसरा नाम मुण्डन संस्कारभी हैं| यह संस्कार त्वचासम्बन्धी रोगोंके लिये अत्यन्त लाभकारी होता हैं|शिखा को छोड़कर सिरके शेष बालोंको मूँड़ देनेसे शरीरका तापक्रम शान्त अर्थात् सामान्य हो जाता हैं और उस समय होनेवाली फुंसी,दस्त आदि व्याधियाँ स्वतः शिथिल हो जाती हैं|एकबार मूँड़देनेके बाद बाल फिर झड़ते नहीं,वे बद्धमूल हो जातें हैं|इसलिये मुण्डन क्षौर आदिके लाभका वर्णन करते हुए महर्षि चरक (सूत्रस्थान ५/९९)ने लिखा हैं- पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्|केशश्मश्रुनखादिनां कल्पनं संप्रसाधनम्|| अर्थात् क्षौरादि कर्म करवाने,नाखून कटवाने और कंधी आदिसे बालोंको साफ रखनेसे पुष्टि,वृष्यता,आयु,पवित्रता और सुन्दरता आदिकी वृद्धि होती हैं|बालकका मुण्डन करानेके अनन्तर उसके सिरमें दहीं आदि की मालिश विधान हैं,जिससे मस्तिष्कके मज्जातन्तुओंको कोमलता,शीतलता तथा शक्ति प्राप्त होती हैं|जो आगे चलकर बालककी बौद्धिक शक्तिके विकासमें सहायक होती हैं;क्योंकि सुस्वास्थ्यके लिये सिर ठण्डा होना अपेक्षित हैं||(शिखा)-> बुद्धि बल आयु एवं तेजके साथ शिखाका क्या महत्व है? इसके उत्तरके लिये मानव शरीरकी रचना को समझना चाहिये| वेदवाक्य है कि- दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट्| अर्थात् दीर्घ आयु,बल और तेजके लिये शिखाको स्पर्श करता हूँ| इस प्रकार मानवमात्रको शिखाधारणके लिये प्रेरित किया गया हैं|स्मृतिका वचन हैं- सदोपवीतिना भाव्यं सदा बद्धशिखेन च| विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम्|| अर्थात् द्विजमात्रको निरन्तर यज्ञोपवीत पहने रहना चाहिये और शिखा बँधी होनी चाहिये|बिना यज्ञोपवीत और बिना शिखा के किये हुए सभी कार्य व्यर्थ हो जातें हैं|
हमारी सम्पूर्ण शारीरिक प्रवृत्तिका केन्द्र हमारा मस्तिष्क हैं|मानसिक तथा शारीरिक क्रियाओंका संचालन उसीके द्वारा होता हैं|यदि वह मस्तिष्क समुचित शक्तिसम्पन्न हैं तो मनुष्य भी स्वस्थ रहता हुआ वेदोक्त" जीवेम शरदःशतम्"(यजुः३६/२४)के अनुसार सौ वर्षसे भी अधिक दीर्घजीवी हो सकता हैं|
षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड८८~शिखा ज्ञानशक्ति को अक्षुण्ण रखनेंमें सहायक होती हैं|शिखा छेदनके बाद बडे बडे तेजस्वी पुरुष भी प्रभाहीन हो जातें हैं|इसके सम्बन्धमें महाभारतके खिलभाग हरिवंशपुराण में एक कथा आती हैं|
गुरु वसिष्ठका एक सगर नामक शिष्य था|उसके पिता राजा बाहुको पश्चिमी प्रान्तके राजाओंने युद्धमें पराजित कर दिया,जिससे दुःखी होकर राजाने वनमें अपने प्राण त्याग दियें| सगर पिताकी मृत्यनके प्रतिशोध के लिये खड़ा हुआ तो सभी राजा भयसे गुरु वसिष्ठजीकी शरणमें आये| वसिष्ठजीने उन्है अभयदान दिया|
बादमें वे शिष्य सगरको समझाने लगे तो उसे सन्तोष न हुआ| गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए उसने राजाओंका वध तो नहीं किया,किंतु अर्धमुण्डन करकें उन्हैं छोड़ दिया|ऐसा करनेपर सभी राजा निस्तेज -प्रभाहिन हो गयें|ऐसी ही कथा भागवत में भी आती हैं-
अर्जनने मृत्युदण्डके बदले अश्वत्थामा का सिर मूँड़ दिया था,मणि निकाल ली थी| शिखा ही द्विजोंकी मणि हैं,उसके छेदनसे द्विज निस्तेज हो जाता हैं|भूलसे भी शिखाहिन होनेसे प्रायश्चित्त करना पड़ता हैं-"शिखा छिन्दन्ति ये मोहात्द्वेषादज्ञानतोऽपि वा|तप्तकृच्छ्रेण शुद्ध्यन्ति त्रयो वर्णा द्विजातयः||लघुहारित||मोहसे, देखादेखीसे अथवा भूलसे भी शिखाछेदन हो जायें तो"तप्तकृच्छ्रं चरन्विप्रो जलक्षीरघृतानिलान्|प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः||मनुः||स्नानकरकें संयमसे रहकर पहले तीनदिन एकबार केवल गरम जल पीना,दूसरे तीनदिन एकबार केवल गरम गायका दूध पीना,और तीसरे तीनदिन एकबार केवल गरम गायका घी चाटना तथा चौथे तीनदिन केवल वायुभक्षण अर्थात् कुछभी खानापीना नही|ऐसे बारहदिनका व्रत होता हैं| परंतु उसमें -" अपां पिबेच्च त्रिपलं पलमेकं च सर्पिषः|पयःपिबेत्तु त्रिपलं त्रिमात्रं चोक्तमानतः|| अर्थात् शास्त्रके कहै हुए मापसे तीनदिन ३पल=बारह बारह तोला जल,दूसरे तीनदिन तीनपल दूध,तीसरे तीनदिन एकपल=चारतोला घी और चौथे तीनदिन केवल उपवास वायुपर रहना हैं अर्थात्"सव्याहृतिप्रणवकाःप्राणायामस्तु षोडश||१६प्राणायाम करैं|तप्तकृच्छ्रव्रतके नियम- "महाव्याहृतिभिर्होमः कर्तव्यः स्वयमन्वहम्|अहिंसा सत्यमक्रोधमार्जवं च समाचरेत्||मनुः|| व्रत करनेवालें द्विजको प्रतिदिन विट्नामाग्निमें घीसे ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम१ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम२ॐस्वः स्वाहा-इदं सूर्याय न मम३ ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा-इदं प्रजापतये न मम४ इन महाव्याहृतियोंसे होम करकें प्रायश्चित्तकी पँचवारुणी मंत्रोसे(ॐत्वन्नोऽअग्ने०इत्यादि) आहुतियां दे कर होम करना|| अहिंसा,सत्य,अक्रोध तथा विनम्र रहना|| स्थानासनाभ्यां विहरेदशक्तोऽधः शयीत वा|ब्रह्मचारी व्रती च स्याद्गुरुदेवद्विजार्चकः||प्रायश्चित्त व्रतार्थी दिनमें उठे बैठे परंतु लैटना तथा सोना नहीं चाहिये|अशक्तोंको कोईभी बीछौना बीछायें बीना जमीनपर ही आराम और शयन करैं|| ब्रह्मचर्यका पालन, व्रतनियमके आधिन तथा गुरु ब्राह्मण और इषटदेवका पूजन करैं|| सावित्रीं च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः|सर्वेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थमादृतः||मनुः|| शक्तिअनुसार नित्य गायत्रीमंत्र जप करैं तथा ऋग्वेदीय अघमर्षण मंत्रोका(ॐऋतं च सत्यं०इति)जप करना ऐसे सभी प्रायश्चित्तोके नियममें हैं||
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षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड८९~ शिखा हमारी ज्ञानशक्तिको चैतन्य रखते हुए उसे सदैव अभिवृद्धिकी और अग्रसर करती हैं| वैज्ञानिक विचारसे भी काली वस्तु सूर्यकी किरणोंमेंसे अधिक ताप तथा शक्ति का आकर्षण किया करती हैं|इसे विज्ञानके छात्र अच्छी तरह समझतें हैं| प्रकृतिमें यह नियम पाया जाता हैं कि प्रत्येक वस्तुका अल्प अँश अपने महान् अँशीमें मिलकर अपनी पूर्णताको प्राप्त होता हैं|प्रकृतिकी सभी वस्तुएँ इसी नियमके अधीन काम कर रही हैं|जैसे सभी नदीयाँ अपनी अतुल जलराशिको समुद्रमें मिलाकर शान्त होती हैं|कोई भी पार्थिव वस्तु ऊपर फैंकी जाय तो पार्थिवपनके कारण ही गुरुत्वाकर्षणके नियमसे पृथिवीकी ओर आकर्षित होती हैं|दीपककी लौ भगवान् सूर्यका सूक्ष्मांश होनेसे ऊर्ध्वगामी अर्थात् सदैव ऊपरकी ओर जाती हैं| अण्ड -पिण्डवाद के अनुसार इसी नियमको अपने शरीरपर भी परखना चाहिये| शास्त्रके अनुसार हमारी बुद्धि सूर्यका अँश हैं|इसलिये हम प्रतिदिन गायत्रीमंत्रसे अपनी बुद्धि एवं मेधा को जाग्रत् करनेके लिये भगवान् सूर्यकी उपासना करतें हैं और उनसे बुद्धिकी याचना करतें हैं|
पाश्चात्य विज्ञानवादियोंने सूर्यको जीवन-शक्तिका मूल कारण माना हैं| उसी सूर्यांशभूता बुद्धि तथा प्राणशक्तिको जाग्रत् करनेके लिये ऋषियोंने बुद्धिके केन्द्र मस्तिष्कपर गोखुरके समान बालोंका एक गुच्छा रखनेका विधान किया हैं|
बालोंका यह गुच्छा जिसे हम शिखा कहतें हैं,काले रंगका होनेके कारण सूर्यसे मेधा एवं प्रकाशिनीशक्तिका विशेष आकर्षण करके ऊर्ध्वाभिमुखी बुद्धिको औरभी उन्नत तथा सबल करनेंमें सहायक होता हैं|
शिखा(चूडा)ब्रह्मरन्ध्रकी रक्षिका हैं| शिखाके ठीक नीचे मज्जातन्तुओंद्वारा निर्मित बुद्धिचक्र हैं तथा उसीके समीप ब्रह्मरन्ध्र हैं| इन दोनोंके ऊपर सहस्रदल-कमल हैं, वही अमृतरूपी ब्रह्मका अधिष्ठान अर्थात् स्थान हैं| शास्त्रीय विधिसे जब मनुष्य परमपुरुष परमात्माका ध्यान करता हैं या वेदादिका स्वाध्याय करता हैं,तब इनके अनुष्ठानसे समुत्पन्न अमृत-तत्त्व वायुवेगसे सहस्रदलकर्णिकामें प्रविष्ट हो जाता हैं|यह अमृत-तत्त्व यहीं नहीं रुकता,अपितु अपने केन्द्रस्वरूप भगवान् सूर्यमें लीन होने हेतु सिरसे भी बाहर निकलनेका प्रयत्न करता हैं|शिखाग्रन्थिसे टकराकर वह विद्युत् प्रवाहस्वरूप अमृत वापस होकर सहस्रदलकर्णिकामें रुक जाता हैं| कदाचित् शिखा खुली हो या शिखा न हो तो वह अमृत उस द्वारसे बाहर होकर अल्प वेगवाला होनेके कारण सूर्यसे तो मिल नहीं पाता,किंतु अन्तरिक्षमें ही विलीन हो जाता हैं| इसलिये स्मृतिकारोंने-" स्नाने दाने जपे होमे सन्ध्यायां देवतार्चने| शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रवीत्|| अर्थात् स्नान,सन्ध्या,जप,होम,स्वाध्याय,दान आदि कर्मोंके समय शिखामें ग्रन्थि लगाकर ही कार्योंके सम्पादनका विधान बताया हैं| शिखाग्रन्थि-बन्धनके वैदिक और स्मृतिमन्त्र हैं-" चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेजः समन्विते|तिष्ठ देवि शिखा मध्ये तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे|| दिव्यतेजसे युक्त चित्स्वरूपा महामाया शिखामें स्थिर रहकर मेरे तेजकी वृद्धि करैं..
षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड९०~ मस्तकाभ्यन्तरोपरिष्टात् सिरासन्धिसन्निपातो रोमावर्तोऽधिपतिस्तत्रापि सद्य एव[मरणम्]||सुश्रुतसं०३/६/२७|| सुश्रुतसंहिता में कहा हैं कि शिखाके अधोभागमें एक मर्मस्थान होता हैं,जहाँ आघात पहुँचनेपर सद्यःमृत्यु होती हैं|अर्थात् मस्तकके भीतर ऊपरको जहाँपर बालोंका आवर्त(भँवर)होता हैं,वह सम्पूर्ण नाडि़यों और सन्धियोंका सन्निपात हैं,उस स्थानको अधिपति-मर्म कहते हैं|वहाँ पर चोट लगनेसे तत्काल मृत्यु होती हैं|
शिखा इस अत्यन्त कोमल तथा सद्योमारक मर्मस्थानके लिये प्रकृति प्रदत्त कवच हैं,जो कि आकस्मिक आघातों एवं उग्र शीत-आतपादिसे इस मर्मस्थानको बचाती हैं|
अन्तरेण तालुके य एष स्तन इवावलम्बते सेन्द्रयोनिः यत्रासौ केशान्तो विवर्तते व्यपोह्य शीर्षकपाले||तैत०उ०शीक्षावल्ली६|| तैतरीयोपनिषद् की शीक्षावल्लीके छठ्ठे अनुवाकमें शिखा रखनेका रहस्य इस प्रकार कहा हैं- मुखके अंदर दोनों तालुओंके मध्यमें स्तनकी तरह जो मांसपिण्ड लटकता रहता हैं,उसके आगे केशोंका मूलस्थान ब्रह्मरन्ध्र हैं|वहाँसे सिरके कपालका भेदन करके"इन्द्रयोनि" अर्थात् परमात्माकी प्राप्तिका मार्ग सुषुम्ना नाडी आती हैं| यह नाडी अपने मूलस्थानसे ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर बढ़ते हुए ललाटके मध्यमें विचरती हैं| इसके उत्कृष्ट रन्ध्रभाग शिखास्थलके ठीक नीचे खुलते हैं| योगी इसे सुषुम्नाका मूलस्थान मानतें हैं| वैद्यगण इसे"मस्तुलिङ्ग" कहतें हैं| मस्तुलिङ्गके साथवाले अग्रभागको योगी ब्रह्मरन्ध्र कहतें हैं| यह ज्ञानशक्तिका केन्द्र हैं| ये दोंनो जितने स्वस्थ या सामर्थ्यवान् होंगे,ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियोंमें उतनी ही शक्ति बढैंगी|
प्रकृतिकी विलक्षण महिमा देखियें! ये पास पास होते हुए भी अपनी प्रकृतिमें भिन्न हैं|ब्रह्मरन्ध्र(जिसे वैद्य मस्तिष्क कहतें हैं) शान्तिप्रिय हैं तो मस्तुलिङ्ग ऊष्ण प्रकृतिका हैं| शिरो वेदनामें तालुके बाल काटनेसे वेदना शान्त होती हैं,पर मस्तुलिङ्गके लिये ऊष्णता पानेके लिये उसके ऊपर गोखुरके आकारका केशगुच्छ रखा जाता हैं,ताकि वह भास्करसे आवश्यक ताप ग्रहण करता रहैं| बालोंके गुच्छोंको शिखाके रूपमें रखे जानेका यही रहस्य हैं,यही उसकी विशेषता हैं| यह विज्ञानानुकुल बात हैं कि काली वस्तु सूर्यकी किरणोंमेंसे अधिक ताप तथा शक्तिको आकर्षित करते हुए उससे अधिक -से- अधिक ऊर्जा ग्रहण करती हैं|महर्षियोंका निर्देश हैं कि शिखाधारक प्रतिदिन स्नानादिके बाद पूजन,होम,सन्ध्या आदिमें प्रयुक्त होनेंके पूर्व शिखा बन्धन हेतु सुखासनपर बैठकर आचमन और पवित्रीकरण करे| इसके पश्चात् शिखाबन्धनका मन्त्र पढतें हुए शिखाके मूलको बायें हाथसे पकडतें हुए तर्जनी या अँगूठेको शिखासे सटाकर शेष शिखाभागको शिखाकी लम्बाईके अनुपातमें एक या दो फेरा(तर्जनी या अँगूठेको घेरेमें लेते हुए) देकर गाँठ लगाये- इसके उपरान्त जबतक सिरपर समुचित लम्बाईकी शिखा नहीं आ जाती, तबतक तीनों वर्णोंके द्विजातीय पुरुषोंको("अथ चेत् प्रमादान्निशिखं वपनं स्यात् तत्र कौशीं शिखां ब्रह्मग्रन्थिसमन्वितां दक्षिण कर्णोपरि आशिखा बन्धादवतिष्ठेत्||काठकगृह्यसूत्र|| कुशाकी शिखा तैयार करके उसमें ब्रह्मग्रन्थि लगाते हुए उसे दाहिने कन्धे या कानपर रखकर पूजन-यजन करते रहना चाहिये|शौचेऽथ शयने सङ्गे भोजने दन्तधावने| शिखामुक्तिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रवीत्||मनुजीने कहा हैं कि मल-मूत्रविसर्जन,अपवित्र अवस्था /कार्यों,शयन, स्त्रीसङ्ग, भोजन तथा दाँतसाफ करनेसे पहले शिखा खोल देनी चाहिये|शिखा रखने एवं इसके नियमों के अनुशीलनसे सद्बुद्धि सद्वृत्ति,शुचिता और सद्विचारमें वृद्धि होती हैं| इसलिये चूडा(शिखा)करण संस्कार मानव जीवनकी सर्वाङ्गीण उन्नतिके लिये परमोपयोगी हैं|
षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड९१~ जाताधिकाराजन्मादि तृतीयेऽद्वे तु चौलम्|आद्येऽब्दे कुर्वते केचित्पञ्चमेऽब्दे द्वितीयके||उपनीत्यासहैवेति विकल्पाः कुलधर्मतः||प्र०पारि/षड्गुरुशिष्यः|| प्रयोगपारिजातमें षड्गुरु शिष्यके वचनसे अधिकारी पुरुषों को चाहिये की जन्मसे तीसरे, कितनेक पहले वर्षमें,कितनेक पाँचवें वर्षमें,कितनेक दूसरे वर्षमें और कितनेक उपनयनसंस्कारके साथ चूडाकरणसंस्कार करतें हैं यह विकल्पोंको कुलधर्म के अनुसार आचरना चाहिये|
तृतीयेऽब्दे शिशोर्गर्भाज्जन्मतो वा विशेषतः| पञ्चमे सप्तमे वापि स्त्रियाः पुंसोपि वा समम्||बृहस्पतिः|| बृहस्पतिजीके वचनसे पुत्र या पुत्रीको गर्भसे और विशेषसे जन्मसे तीसरे पाँचवे या सातवें वर्षमें चूडाकरण करैं||
जन्मतस्तु तृतीयेब्दे श्रेष्ठमिच्छन्ति पण्डिताः|पञ्चमे सप्तमे वापि जन्मतो मध्यमं भवेत् ||अधमं गर्भतः स्यात्तु नवमैकादशेपि वा||नारदः|| नारदजी कहतें हैं कि जन्मसे तीसरे वर्षमें चौल करना उत्तम हैं.जन्मसे पाँचवे अथवा सातवें वर्षमें चौल करना मध्यम हैं.और गर्भसे नवमें अथवा ग्यारहवें वर्षमें चौल करना अधम हैं ऐसा पंडितो का मानना हैं||
उत्तरायणगे सूर्ये विशेषात्सौम्यगोलके|शुक्लपक्षे शुभं प्रोक्तं कृष्णपक्षे शुभेतरत्||अशुभोन्त्यत्रिभागः स्यात्कृष्णपक्षे त्रिधाकृते||पारिजाते बृहस्पतिः||पारिजातमें बृहस्पतिजीका वचन हैं कि सूर्य उत्तरायणमें और उसमें भी उत्तरगोलमें हो उस समय में शुद्धपक्षमें चूडाकरण शुभ हैं||और कृष्णपक्षमें करना शुभ नहीं हैं कृष्णपक्षके तीनभागमें जो अंतिम भाग हैं वह ही अशुभ हैं|
द्वित्रिपञ्चमसप्तम्यामेकादश्यां तथैव च|दशम्यां च त्रयोदश्यां कार्यं क्षौरं विजानता||वसिष्ठः||पारिजातमें वसिष्ठजी का वचन हैं कि द्वितीया,तीज,पाँचम,सातम,दशम, अगीयारस और त्रयोदशी इस तिथिओंमें समजदार मनुष्य बालकका क्षौर करायें||
षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड९२~षष्ट्यष्टमी चतुर्थी च नवमी च चतुर्दशी|द्वादशी दर्श पूर्णेद्वे प्रतिपच्चैव निन्दिताः||नृसिंहीये||नृहसिंयमें कहा हैं कि षष्ठी,अष्टमी,चतुर्थी,नवमी, चतुर्दशी,द्वादशी,अमावस,पुर्णिमा और प्रतिपदा इन तिथिओं चौलमें निंदित हैं|
रवेरङ्गारकस्यैव सूर्यपुत्रस्य चैव हि| निन्दिता दिवसाः क्षौरे शेषाः कार्यकराः स्मृताः||वसिष्ठः||रवि,मंगल और शनिवार क्षौरमें निन्दित हैं शेष वारों कार्यसिद्धिप्रद हैं||
ज्योतिर्निबन्धे बृहस्पतिः||पापग्रहाणां वारादौ विप्राणां शुभदं रवौ|क्षत्रियाणां क्षमासूनौ विट्शूद्राणां शनौ शुभम्|| ज्योतिर्निबन्धमें बृहस्पतिजीका कहना हैं- क्षौरमें क्रुरक्रहके वारोमें ब्राह्मणोंको रविवार,क्षत्रियको मंगलवार तथा वैश्य और शूद्रोंको शनिवार शुभदायी हैं.
हस्ताश्विविष्णुपौष्णाश्च श्रविष्ठादित्यपुष्यभम्||सौम्यचित्रे नवक्षौरे उत्तमा नवतारकाः||त्रीण्युत्तराणि वायव्यं रोहिणी वारुणं तथा||क्षौर षण्मध्यमाः प्रोक्ताः शेषा द्वादश गर्हिताः||चौलमें हस्त,अश्विनी,श्रवण, रेवती,धनिष्ठा,पुनर्वसु,पुष्य,मृगशिर्ष और चित्रा यह नौ नक्षत्र उत्तम हैं.तीनों उत्तरा,स्वाती,रोहिणी,और शतभिषा यह छह नक्षत्र मध्यम हैं तथा शेष बारह नक्षत्र निदिंत हैं.
निधने जन्मनक्षत्रे वैनाशे चन्द्रमेष्टमे| विपत्करे वधे क्षौरं प्रत्यरे च विवर्जयेत्||निधनतारा,जन्मनक्षत्र,विपत् तारा,वधतारा, प्रत्यरितारा और अष्टम चंद्रमा चौलमें त्याग करैं.यह निर्णय- लग्नशुद्धिरन्ये च योगा ज्योतिर्विद्भ्यो ज्ञेया|| लग्नशुद्धि और योग ज्योतिर्विद से जानना जरुरी हैं. जैसे कि चूडाकरणमुर्हूतसमयकी कुंडलीमें केन्द्र तथा त्रिकोणमें शुभग्रह,तीन छह ग्यारहवें स्थानमें पापग्रह हों- तथा चौथे आठवेँऔर बारहवें स्थानमें चन्द्र तथा लग्नेश न हों- लग्नस्थान पापग्रहसे किसीभी तरह पिडीत न हो इत्यादि...|
एतच्च शिशोर्मातरि गर्भिण्यां न कार्यम्|~> वृद्धगार्ग्यः|| पुत्रचूडाकृतौ माता यदि सा गर्भिणी भवेत्| शस्त्रेण मृत्युमाप्नोति तस्मात्क्षौरं विवर्जयेत्|| शिशुकी माता गर्भिणी हों तो चूडाकरण संस्कार न करैं- इस विषयपर ज्योतिर्निबन्ध तथा मदनरत्नमें वृद्धगार्ग्यने कहा हैं कि यदि चौलकर्मके समय बालककी माता यदि गर्भिणी हो तो शस्त्राघात होती हैं इसलिये ऐसे समयमें चौल नहीं करना चाहिये.इस विषयपर नारदजी का कहना हैं- ||सूनोर्मातरि गर्भिण्यां चूडाकर्मं न कारयेत| पञ्चाब्दात् प्रागथोर्ध्वं तु गर्भिण्यामपि कारयेत्|| बालककी उम्र पाँच वर्षसे कम हों तो ही बालकी माता गर्भवती होनेपर चौल न करैं परंतु पाँच वर्षसे अधिकका बालक हों तो करनेंमें कोई दोष नहीं.||गर्भिण्यामपि पञ्चमासवर्यन्तं न दोषः||इत्युक्तं मुर्हूतदीपिकायां गर्गेण|| पञ्चमासादूर्ध्वं मातुर्गर्भस्य जायते मृत्यु||इति|| मुर्हूतदीपिकामें गर्गाचार्यने कहा हैं- गर्भिणीको पाँचमास हो गयें हो तो माता तथा शिशुको कष्टकारक हैं इस वाक्यसे माता गर्भिणी हो तो भी पाँच मासतकमें चौल करनेमें दोष नहीं हैं.
षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड९३~ ज्वरस्योत्पादनं यस्य लग्नं तस्य न कारयेत्|दोष निर्गमनात्पश्चात्स्वस्थो धर्मं समाचरेत्||गर्गः|| गर्गाचार्य कहतें हैं- जिसका मंगलकार्य करना हो उसको यदि बुखार आता हो तो मंगलकार्य न करैं.स्वस्थ निरोगी हो जानेके पश्चात मंगलकार्य करैं.
कुले ऋतुत्रयादर्वाङ्मण्डनान्न तु मुण्डनम्||प्रवेशान्निर्गमो नेष्टो न कुर्यान्मङ्गलत्रयम्||कात्यायनः||कुलमें उपनयन या विवाह करनें के पश्चात तीन ऋतुओंके भींतर(६मास)में चौल , पुत्रके विवाह पश्चात पुत्री का विवाह और तीन मंगल कार्य नहीं करने चाहियें.
न चूडा जन्मभाग्नेय दारुणेषु शनौ कुजे||प्रतिपद्भद्ररिक्तासु विद्यारम्भस्तु पञ्चमे|| दीपिका|| जन्मनक्षत्र,कृत्तिका,दारुणनक्षत्र, शनि,मंगलवार,प्रतिपदा,रिक्ता,और भद्रा तिथिओंमें चौल न करैं तथा पाँचवे वर्षमें जो विद्यारंभ करना हो वर भी कहैं हुए नक्षत्रादिक में न करैं.
शूद्रस्यानियताः केशवेशाः इति वसिष्ठोक्ते:- यत्तु~>
न शिखी नोपवीती स्यान्नोच्चरेत्संस्कृतां गिरम्||पाद्मे|| वसिष्ठजी का कहना हैं कि शूद्रको केशवेश नहीं रखना चाहिये इसलिये शिखा रखनेका अधिकार नहीं इस बाबतकी पुष्टी पद्मपुराणमें कहा हैं- शूद्रोंको शिखा और उपवीत धारण नहीं करना चाहिये..
निवृत्ते चूडे होमे तु प्राङ्ग नामकरणात्तथा|चरेत्सांतपनं भुक्त्वा जातकर्मणि चैव हि||अतोन्येषु तु संय्कारेषूपवासेन शुद्ध्यति||पराशरमाधवीये|| चूडाकरणके होम पश्चात,नामकरणसे पहले और जातकर्म संस्कारोंमें भूलसे भोजन करनेमें आया हो तो "सांतपनकृच्छ्र"नामक प्रायश्चित्त व्रत करैं..और दुसरे अन्य संस्कारोमें भोजनका प्रायश्चित्त उपवास करनेसे शुद्धि होती हैं.||इदं भोजनं वृतानांब्राह्मणानां नैव दोषोस्ति|| वृतानां ब्राह्मणानां भोजनात् कर्मसमाप्तिरेव|| इस भोजन संबधित निर्णय संस्कारमें वरण किये हुए ब्राह्मणोंको नहीं लगता क्योंकि ब्रह्मभोजनसंकल्प कराने से वरणियब्राह्मण भोजन करैंगे ही तभी कर्मसमाप्ति होगीं...यथा जातकर्ममें सूतकनिवृत्तिके बाद ब्रह्मभोजन करानेके संसल्प किया जाये अथवा सभी संस्कारोंमें कच्चाअन्न(आमान्न)देनेका संकल्प करना उचित रहैंगा...||
एते संस्काराः स्त्रीणाममंत्रकाः कार्याः होमस्तु समंत्रकः||प्रयोगपारिजाते||यह संस्कारो पुत्रीको बिना वेदमंत्रसे करना चाहिये तथा संस्कार सबंधित होम समंत्रक करैं.
अमन्त्रका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः||मनुः|| मनुजी का भी करना हैं कि यह संस्कारो कन्याको अमंत्रक करना चाहिये.. यहाँ चूडाकरणसे क्न्याके विवाहपूर्व संस्कार पूर्ण होतें हैं|
ॐस्वस्ति|पु ह शास्त्री|उमरेठ|| शेष पुनः

षोडशसंस्काराः[सकालिक चूडाकरणं(केशाधिवासनम्)]खंड९४~
विधानम्* चूडाकर्मदिनात् पूर्वं रात्रौ-||मण्डपोत्तरदेशे|| गणपतिं स्मृत्वा ||अद्येत्यादि देशकालौ संकीर्तनान्ते अस्यां सन्ध्यायां अस्य(अस्याः) बालस्य(बालिकायाः) बैजिक गार्भिक दुरितोपशमनपूर्वक दीर्घायुष्यावाप्तये श्वः करिष्यमाण चूडासंस्कार कर्मणः पूर्वाङ्गत्व सिद्धये शिष्टाचारात् केशाधिवासनं करिष्ये.... मातुरंके अलंकृत बालकं(बालिकां) निवेशयित्वा-
दक्षिणदिशि स्थितानां केशानां भागत्रयं विभज्य||पुनरेकीकृत्य||(बालिकायाःअमंत्रकम्) प्रजापतेरिति नारायणऋषिः गायत्रीछंदः प्रजापतिः दक्षिणकेशाभिमंत्रणे विनियोगः- ॐप्रजापतेस्त्वा हिंकारेणावजिघ्रामि गवां हिंकारेणावजिघ्रामि सहस्रायुषासौ जीव शरदां शतम्|| पश्चिमदिशिस्थितानां केशानां त्रिभागं कृत्वा||पुनरेकीकृत्य||
अस्मै इति प्रजापतिः त्रिष्टुप् इन्द्रो पश्चिमस्थ केशाभिमंत्रणे विनियोगः- ॐअस्मै प्रयन्धि मघवन् नृजीषन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः|अस्मै शतं शरदो जीव सेधा अस्मै वीराञ्छाश्वत इन्द्रशिप्रिन् ||
उत्तरस्थ केशानां भागत्रयं कृत्वा||पुनरेकीकृत्य||क्षेमायेति अङ्गिरा प्रतिष्ठा ब्रह्मा उत्तरस्थ केशाभिमंत्रणे विनियोगः-ॐ क्षेमाय वः शान्त्यै प्रपद्ये शिव गूँशग्म गूँ शँय्यो बलाय वर्चसे शँय्यो|| पूर्वस्थितानां केशानां भागत्रयं कृत्वा||पुनरेकीकृत्य|| इंद्र इति ब्रह्मा उष्णिक् इन्द्रो पूर्वस्थकेशाभिमंत्रणे विनियोगः- ॐ इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तं दक्षस्य सुभगत्वमस्मै|| पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्|| यदिति दीर्घतमा त्रिष्टुप् इन्द्रो शिखाभिमंत्रणे विनियोगः- ॐ यदश्वायवास उपस्तृणंत्यधीवासं या हिरण्यान्यमस्मै|सन्दानमर्वन्तं पड्वीशं प्रियादेवेष्वायामयन्ति||
पीतकौशेय वस्त्रखंडेषु रोचना(गोरोचन)यव दूर्वा गौरसर्षप अक्षत राजिका(राई)पूग मायूरपिच्छ स्वर्ण रजतैः पञ्चपोटलिकाः कृत्वा रक्तसूत्रेण प्रत्येकं त्रिरावेट्य|| दक्षिणादिक्रमेण केशेषु एकैकं पोटलिकाः शिरसि बध्नियात्||
ॐएतन्ते देव सवितर्ज्जज्ञम्प्राहु र्बृेहस्प्पतये ब्ब्रह्म्मणे| तेन जज्ञमवतेन जज्ञपतिन्तेन मामव||२/१२||मनोजूतिर्ज्जुखता०||२/१३||सुप्रतिष्ठितमस्तु||इति प्रतिष्ठाप्य||
ॐस्वस्ति|पु ह शास्त्री|उमरेठ|| शेष पुनः
सकालिक~
षोडशसंस्काराः(चूडाकरणम्)खंड९५~ कृतनित्यक्रियो यजमानः स्वयमाचार्यद्वारा वा संस्कुर्यात्|| आचम्य प्राणानायम्य||शिखांबद्ध्वा||सुमुखश्चत्यादि पठन्| मम अस्य(अस्याः) बालकस्य(बालिकायाः)बीजगर्भसमुद्भवैनो निबर्हणपूर्वकमायुर्बलाभिवृद्ध्यर्थं चूडाकरणसंस्कारं करिष्ये|तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता शिखीनः प्रीयताम्) मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि वरणं च करिष्ये||तानि कर्माणि क्रमेण समाप्य| पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं वेदिकायां अग्निं संस्थाप्य|अग्निं ध्वात्वा अन्वाध्यायात्||अन्वाधानम्- अत्र प्रजापतिमीन्द्रमग्निंसोमं एकैकयाज्याहुत्या-प्रधान अग्निं वायुं सोमं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान्मरुतःस्वर्क्कान् वरुणमादित्यमदितिं प्रजापतिं चैताः चूडाकरणहोमप्रधानदेवता एकैकयाऽज्याहुत्या||अग्निंस्विष्टकृतं चूडाकरणसंस्कार होमेऽहं यक्ष्ये||समस्तव्याहृदिनां प्रजापतिःबृहती प्रजापतिर्देवता अन्वाधानसमिद्धोमे विनियोगः|ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा-इदं प्रजापतये न मम|| दक्षिणतोब्रह्मासनादि चरुवर्जं पात्रासादने शीतोदकं उष्णोदकं नवनीतपिण्डो घृतपिण्डो दधिपिण्डो वा त्र्येणीशलली साग्राणि सप्तविंशतिकुशतरुणानि क्षुरः आनडुह(बलदका गोबर)गोमयपिण्डः इत्युपकल्पनीयानि पवित्रीकरणादि आधारावाज्यभागान्तं हुत्वा"सभ्यनामाग्निं बहिर्नैवेद्यान्तं पञ्चोपचारैः सम्पूज्य|| भूरादिनवाहुतयः हुत्वा स्विष्टकृतादिकं कुर्यात् आपःशिवा००००० भेषजं इत्यन्तं मार्जनान्तं समापयेत्|| ततो लग्नसामयिक ग्रहप्रीतिकारक दानानि कृत्वा(मुर्हूतसमय शुभ लग्नके स्वामिदेवता प्रीत्यर्थ वस्तुएँ ब्राह्मणको दान करैं)||
षोडश संस्काराः(शेष चूडाकरणम्)खंड९६~ अद्येत्यादि००अस्य(अस्याः)बालकस्य(बालिकायाः)चूडाकर्मकर्तुं अधिकारार्थं दक्षिण गोदानं मुण्डनं च करिष्ये|| तत एकस्मिन् पात्रे शीतास्वप्सूष्णाऽअप आसिंचति(एक पात्रमें गरम और ठंडे पानीकी धारा करैं)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐउष्णेन वायउदकेनेह्यदिते केशान्वप||अथात्र नवनीतपिंडं घृतपिंडं दध्नो वा पिंडं प्रास्यति(उस गरम ठंडे मिश्र जलमें मख्खन,घी या दहीं डालें) ||ततः उदकमादाय(वह मिश्र जल लेकर) दक्षिणगोदानं उंदति|(बालकके दायीं और रहैं बालोंमें लगायें)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐसवित्रा प्रसूता दैव्याऽआपऽउन्दन्तुते तनूम्|दीर्घायुत्वाय वर्चसे|| ततस्त्रेण्या शलल्या केशान विनीय|(सीरौहीके तीन शलाकासे दायींबाजूके बालोंकी लट अलग करैं.)||त्रीणि कुशतरुणान्यंतरदधाति||(पात्रासादनमें रखें२७कुशोंमें से तीन कुशोंको दायीबाजूकी बालोंकी लटोंमें परौंये) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐओषधेत्रायस्व||बायें हाथसे यह कुशसहित बालोंकी लटको पकड़कर रखैं- शिवोनामासिमंत्रेण लोहक्षुरमादधाति|(शिवोनामासि... आधेमंत्रसे लोहेका अस्त्रा दायें हाथसे लें) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मामाहि गूँ सीः||केशोंके साथ कुश और अस्त्रेको स्पर्श करायें.."केश कुश क्षुर संलग्निकरणम्->"बालिकायाः अमंत्रकम्" ॐ निवर्त्तयाम्म्यायुखेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायस्पोखाय सुप्प्रजास्त्वाय सुवीर्ज्जाय||दायें हाथके पकडे हुए अस्त्रेसे उन बालों का छेदन करैं-" ततः छेदनम्" अनेन मंत्रेण(बालिकायाः अमंत्रकम्)-ॐयेना वपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो व्वरुणस्य व्विद्वान्| तेन ब्ब्रह्मणोवपते दमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथासम्|| काटैं हुए बालोंसहित कुशोंको" अग्निसे उत्तरमें रखें हुए बलद(बैल)के गोबर में खोंस दैं| अनेन सकेशानि कुशतरुणानि प्रच्छिद्य || आनडुह गोमय पिंडे प्रास्य|| पुनः समस्त क्रीयाएँ मौन रहते हुए बिना मंत्र पढे दो बार करैं-" एवं द्विरपरं तूष्णीम्||तद्यथा- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| पुनः- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| इति दक्षिणगोदानम्|| पुनर्जलमादाय- अस्य बालकस्य(बालिकायाः) चूडाकर्मकर्तुमधिकारार्थं पश्चिम गोदानं मुंडनं च करिष्ये|इति संकल्प्य|(बालकके सिरके पीछली और रहैं बालोंमें लगायें)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐसवित्रा प्रसूता दैव्याऽआपऽउन्दन्तुते तनूम्|दीर्घायुत्वाय वर्चसे|| ततस्त्रेण्या शलल्या केशान विनीय|(सीरौहीके तीन शलाकासे दायींबाजूके बालोंकी लट अलग करैं.)||त्रीणि कुशतरुणान्यंतरदधाति||(पात्रासादनमें रखें२७कुशोंमें से तीन कुशोंको दायीबाजूकी बालोंकी लटोंमें परौंये) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐओषधेत्रायस्व||बायें हाथसे यह कुशसहित बालोंकी लटको पकड़कर रखैं- शिवोनामासिमंत्रेण लोहक्षुरमादधाति|(शिवोनामासि... आधेमंत्रसे लोहेका अस्त्रा दायें हाथसे लें) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मामाहि गूँ सीः||केशोंके साथ कुश और अस्त्रेको स्पर्श करायें.."केश कुश क्षुर संलग्निकरणम्->"बालिकायाः अमंत्रकम्" ॐ निवर्त्तयाम्म्यायुखेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायस्पोखाय सुप्प्रजास्त्वाय सुवीर्ज्जाय||दायें हाथके पकडे हुए अस्त्रेसे उन बालों का छेदन करैं-" ततः छेदनम्" अनेन मंत्रेण(बालिकायाः अमंत्रकम्)-ॐत्र्यायुखञ्जमदग्ग्नेः कश्श्यपस्य त्त्र्यायुखम्|जद्देवेखु त्र्यायुखन्तन्नोऽअस्तु त्र्यायुखम्|| काटैं हुए बालोंसहित कुशोंको" अग्निसे उत्तरमें रखें हुए बलद(बैल)के गोबर में खोंस दैं| अनेन सकेशानि कुशतरुणानि प्रच्छिद्य || आनडुह गोमय पिंडे प्रास्य|| पुनः समस्त क्रीयाएँ मौन रहते हुए बिना मंत्र पढे दो बार करैं-" एवं द्विरपरं तूष्णीम्||तद्यथा- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| पुनः- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| इति पश्चिम गोदानम्|| हस्ते जलमादाय- अस्य बालकस्य (बालिकायाः) चूडाकर्मकर्तुमधिकारार्थं उत्तरगोदानं मुंडनं च करिष्ये| (बालकके सिरके बायीं और रहैं बालोंमें लगायें)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐसवित्रा प्रसूता दैव्याऽआपऽउन्दन्तुते तनूम्|दीर्घायुत्वाय वर्चसे|| ततस्त्रेण्या शलल्या केशान विनीय|(सीरौहीके तीन शलाकासे दायींबाजूके बालोंकी लट अलग करैं.)||त्रीणि कुशतरुणान्यंतरदधाति||(पात्रासादनमें रखें२७कुशोंमें से तीन कुशोंको दायीबाजूकी बालोंकी लटोंमें परौंये) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐओषधेत्रायस्व||बायें हाथसे यह कुशसहित बालोंकी लटको पकड़कर रखैं- शिवोनामासिमंत्रेण लोहक्षुरमादधाति|(शिवोनामासि... आधेमंत्रसे लोहेका अस्त्रा दायें हाथसे लें) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मामाहि गूँ सीः||केशोंके साथ कुश और अस्त्रेको स्पर्श करायें.."केश कुश क्षुर संलग्निकरणम्->"बालिकायाः अमंत्रकम्" ॐ निवर्त्तयाम्म्यायुखेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायस्पोखाय सुप्प्रजास्त्वाय सुवीर्ज्जाय||दायें हाथके पकडे हुए अस्त्रेसे उन बालों का छेदन करैं-" ततः छेदनम्" अनेन मंत्रेण(बालिकायाः अमंत्रकम्)-ॐयेन भूरिश्चरादिवं ज्योक्च पश्चाद्धि सूर्यम्| तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये|| काटैं हुए बालोंसहित कुशोंको" अग्निसे उत्तरमें रखें हुए बलद(बैल)के गोबर में खोंस दैं| अनेन सकेशानि कुशतरुणानि प्रच्छिद्य || आनडुह गोमय पिंडे प्रास्य|| पुनः समस्त क्रीयाएँ मौन रहते हुए बिना मंत्र पढे दो बार करैं-" एवं द्विरपरं तूष्णीम्||तद्यथा- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| पुनः- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| इति उत्तर गोदानम्|| अस्त्रेको बंध करके बालकके सिरके आजुबाजु प्रदक्षिणरितिसे घुमायें-" क्षुरेण शिरः प्रदक्षिणं परिहरति- (बालिकायाः अमंत्रकम्)" ॐयत्क्षुरेण मज्जयता सुपेशसा वप्तावावपति केशाञ्छिन्धि शिरोमास्यायुः प्रमोषीः||पुनः बिना मंत्र दो बार अस्त्रेको घुमायैं-" द्विस्तूष्णीम्"|| दहीं वाले जलसे सिरके सभी बालोंको गिलें करैं-" ततस्तेनैवोदकेन सर्वं शिर आर्द्रं कृत्वा"| अस्त्रा मंत्रपढकर नापितको दैं दे" क्षुरं नापिताय प्रयच्छति"|(बालिकायाः अमंत्रकम्)- ॐअक्षुण्वन्परिवप|| नापित कहता हैं-" वपामि"|इति नापितो ब्रूयात्| नापित उत्तराभिमुख बैठे हुए बालकके पूर्वकी तरफ तक और पूर्वाभिमुख बैठे हुए बालकके उत्तरी तरफ तक बाल साफ करैं|-" नापितः उदङ्ग मुख(मुखी) स्थितस्य(स्थितायाः)बालकस्य प्राक्संस्थं प्राङ्ग मुख(मुखी) स्थितस्य(स्थितायाः) उदकसंस्थं केशवपनं कुर्यात्| कुलव्यवस्थासे शिखा रखें(बिना शिखा रखें मुंडन न कर दैं)-" कुलव्यवस्थया शिखास्थापनं केशशेषं करोति|| मुंडे हुए सभी बालों गोबरमें छुपाकर वस्त्रसे वेष्टितकर तालाब या जलाशयमें प्रवाहित करैं-" ततः सर्वान्केशान् गोमयपिंडे वस्त्रादिनाऽऽवेष्टय अनुगुप्तं कृत्वा तडागे जलमध्ये वा प्रक्षिपेत्|| बालकको स्नान करवाकर मस्तकमें स्वस्तिक तथा ललाटमें तिलक करैं|-> ततःबालकं(बालिकां) स्नापयित्वा मस्तके स्वस्तिकं तथा च ललाटे तिलकं कुर्यात्|
कृतस्य चौलाख्यस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दशसंख्याकान् वा यथाशक्तिः ब्राह्मणान् यथाकाले संपन्नेन अहं भोजयिष्ये| तेन कर्मांग देवता केशिनः प्रीयतां न मम|| लम्बोदर नमस्तुभ्यं००|| यथा शक्त्या चौलविधेः परिपूर्णताऽस्तु| अस्तुपरिपूर्णः|
ॐस्वस्ति|पु ह शास्त्री| उमरेठ| शेष पुनः

षोडश संस्काराः{कालातिक्रमचूडाकरणम्-(जन्मपूर्व गर्भाधान पुंसवन सीमंतोन्नयन संस्कार तथा जातकर्मादि कर्णवेध पर्यन्तके संस्कार समयानुसार विधान से न हुए हो तो)-} खंड ९७~प्रातः नित्यकर्मं समाप्य| आसने बहिःशालायां उपविश्य|आचम्य प्राणानायम्य|| सुमुखश्चेत्यादि पठन् || देशकालौ संकीर्त्य" अस्य(अस्याः)बालकस्य (बालिकायाः) चूडाकरणान्तान् संस्कारान् तंत्रेण करिष्ये| तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादिवरणं बालकस्य (बालिकायाः) जन्मपूर्वं गर्भाधान पुंसवन सीमंतोन्नयनाञ्च जातकर्म नामकरण निष्क्रमणान्नप्राशन कर्णवेधान्तानां संस्काराणां स्व स्व काले अकरण जनित दोष प्रत्यवाय परिहारार्थं अनादिष्टप्रायश्चित्तं होष्ये| अङ्ग संक्ल्पानुसारेण क्रमेण गणपतिपूजनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादिवरणान्तानि कर्माणि समाप्य| अरत्निमात्रे स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य||अग्निं ध्यात्वा| ब्रह्मोपवेशनादि कुशकंडिकां वर्ज्य| आज्यं निरुप्य| अधिश्रित्य| स्रुवं प्रताप्य| तदग्रमूलमध्यानि शोधयित्वा पुनः प्रताप्य " स्वदक्षिणे कुशानामुपरि निधाय" आज्योद्वास्य कुशरूपे द्वेपवित्रे कृत्वा पवित्राभ्यां आज्यस्य त्रिरोत्पूय आज्यमवेक्ष्य" जलेन ईशान कोणादारभ्य ऐशानपर्यन्तं पर्युक्षणं कृत्वा न इतरथावृत्तिः विट् नामाग्नये नमः इति सम्पूज्य० जुहुयात्- (ब्रह्मोपवेशनादि अभावात् त्यागदानं न किन्तुपठनमेव) गर्भाधानअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|पुंसवनअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|सीमन्तोन्नयन अनादिष्टं होष्ये" ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|जातकर्मअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"| नामकरणअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|निष्क्रमण अनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|अन्नप्राशन अनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|कर्णवेधअनादिष्टं होष्ये- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"|
वरुणस्य०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने वमो०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐअयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदं अग्नये अयसे न मम" ॐ जेते शतंवरुण० इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम"ॐ उदुत्तमं वरुणपाश०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यायादितये च न मम"ॐप्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" अनेन अनादिष्टप्रायश्चित्त कृतेन गर्भाधानादि कर्णवेधान्तानां संस्काराणां कालातिक्रम दोष परिहारोस्तु| पुनःसंकल्पः- अस्य(अस्या)बालकस्य(बालिकायाः) जन्मपूर्वे गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतसंस्काराणां स्व स्व कालेअकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं कालातिक्रम दोषनिवृत्ति पूर्वकं च जातकर्म,नामकर्म,निष्क्रमण अन्नप्राशन कर्णवेध संस्कारेषु अधिकार प्राप्त्यर्थं गर्भाधानकालातिक्रम दोष परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रगायत्रीमंत्र जपं, पुंसवन कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रगायत्रीमंत्र जपं, सीमंतसंस्कार कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्रीमंत्र जपं, जातकर्मसंस्कार कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्रीमंत्र जपं,नामकरणसंस्कारस्य कालातिक्रमदोष प्रत्वाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्रीमंत्र जपं,निष्क्रमणसंस्कारस्य कालातिक्रम दोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्री मंत्र जपं अन्नप्राशनसंस्कारस्य कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रगायत्री मंत्रजपं कर्णवेधसंस्कारस्य कालातिक्रम दोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रगायत्री मंत्रजपं (कुल गर्भाधानसे कर्णवेध पर्यंतके ८०००गायत्रीमंत्र जप) स्वयं (वा ब्राह्मण द्वारा) आचरिष्ये.तेन गर्भाधान,पुंसवन, सीमंत, जातकर्म,नामकर्म,निष्क्रमणान्नप्राशन कर्णवेधान्तानां संस्काराणां कालातिक्रमदोष परिहारोस्तु|| जातकर्म, नामकरण निष्क्रमणान्नप्राशन कर्णवेध संस्काराणामधिकारप्राप्तिरस्तु||
जातकर्मादि कर्णवेध पर्यन्तके सभी संस्कार क्रमसे करैं- प्रतिसंस्कार के संकल्प पश्चात् "तदङ्गत्वेन पञ्चोपचारैः गणपतिपूजनं(स्व स्व कर्मांग देवतानुद्दिश्य स्वस्तिपुण्याह वाचनं प्रतिसंस्कारादौ समाप्य|
| मम अस्य(अस्याः) बालकस्य(बालिकायाः)बीजगर्भसमुद्भवैनो निबर्हणपूर्वकमायुर्बलाभिवृद्ध्यर्थं चूडाकरणसंस्कारं करिष्ये|तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता शिखीनः प्रीयताम्)| पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं वेदिकायां अग्निं संस्थाप्य|
अग्निं ध्वात्वा अन्वाध्यायात्||अन्वाधानम्- अत्र प्रजापतिमीन्द्रमग्निंसोमं एकैकयाज्याहुत्या-प्रधान अग्निं वायुं सोमं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान्मरुतःस्वर्क्कान् वरुणमादित्यमदितिं प्रजापतिं चैताः चूडाकरणहोमप्रधानदेवता एकैकयाऽज्याहुत्या||अग्निंस्विष्टकृतं चूडाकरणसंस्कार होमेऽहं यक्ष्ये||समस्तव्याहृदिनां प्रजापतिःबृहती प्रजापतिर्देवता अन्वाधानसमिद्धोमे विनियोगः|ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा-इदं प्रजापतये न मम|| दक्षिणतोब्रह्मासनादि चरुवर्जं पात्रासादने शीतोदकं उष्णोदकं नवनीतपिण्डो घृतपिण्डो दधिपिण्डो वा त्र्येणीशलली साग्राणि सप्तविंशतिकुशतरुणानि क्षुरः आनडुह(बलदका गोबर)गोमयपिण्डः इत्युपकल्पनीयानि पवित्रीकरणादि आधारावाज्यभागान्तं हुत्वा"सभ्यनामाग्निं बहिर्नैवेद्यान्तं पञ्चोपचारैः सम्पूज्य|| भूरादिनवाहुतयः हुत्वा स्विष्टकृतादिकं कुर्यात् आपःशिवा००००० भेषजं इत्यन्तं मार्जनान्तं समापयेत्|| ततो लग्नसामयिक ग्रहप्रीतिकारक दानानि कृत्वा(मुर्हूतसमय शुभ लग्नके स्वामिदेवता प्रीत्यर्थ वस्तुएँ ब्राह्मणको दान करैं)||
षोडश संस्काराः(शेष चूडाकरणम्)खंड९६~ अद्येत्यादि००अस्य(अस्याः)बालकस्य(बालिकायाः)चूडाकर्मकर्तुं अधिकारार्थं दक्षिण गोदानं मुण्डनं च करिष्ये|| तत एकस्मिन् पात्रे शीतास्वप्सूष्णाऽअप आसिंचति(एक पात्रमें गरम और ठंडे पानीकी धारा करैं)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐउष्णेन वायउदकेनेह्यदिते केशान्वप||अथात्र नवनीतपिंडं घृतपिंडं दध्नो वा पिंडं प्रास्यति(उस गरम ठंडे मिश्र जलमें मख्खन,घी या दहीं डालें) ||ततः उदकमादाय(वह मिश्र जल लेकर) दक्षिणगोदानं उंदति|(बालकके दायीं और रहैं बालोंमें लगायें)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐसवित्रा प्रसूता दैव्याऽआपऽउन्दन्तुते तनूम्|दीर्घायुत्वाय वर्चसे|| ततस्त्रेण्या शलल्या केशान विनीय|(सीरौहीके तीन शलाकासे दायींबाजूके बालोंकी लट अलग करैं.)||त्रीणि कुशतरुणान्यंतरदधाति||(पात्रासादनमें रखें२७कुशोंमें से तीन कुशोंको दायीबाजूकी बालोंकी लटोंमें परौंये) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐओषधेत्रायस्व||बायें हाथसे यह कुशसहित बालोंकी लटको पकड़कर रखैं- शिवोनामासिमंत्रेण लोहक्षुरमादधाति|(शिवोनामासि... आधेमंत्रसे लोहेका अस्त्रा दायें हाथसे लें) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मामाहि गूँ सीः||केशोंके साथ कुश और अस्त्रेको स्पर्श करायें.."केश कुश क्षुर संलग्निकरणम्->"बालिकायाः अमंत्रकम्" ॐ निवर्त्तयाम्म्यायुखेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायस्पोखाय सुप्प्रजास्त्वाय सुवीर्ज्जाय||दायें हाथके पकडे हुए अस्त्रेसे उन बालों का छेदन करैं-" ततः छेदनम्" अनेन मंत्रेण(बालिकायाः अमंत्रकम्)-ॐयेना वपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो व्वरुणस्य व्विद्वान्| तेन ब्ब्रह्मणोवपते दमस्यायुष्यं जरदष्टिर्यथासम्|| काटैं हुए बालोंसहित कुशोंको" अग्निसे उत्तरमें रखें हुए बलद(बैल)के गोबर में खोंस दैं| अनेन सकेशानि कुशतरुणानि प्रच्छिद्य || आनडुह गोमय पिंडे प्रास्य|| पुनः समस्त क्रीयाएँ मौन रहते हुए बिना मंत्र पढे दो बार करैं-" एवं द्विरपरं तूष्णीम्||तद्यथा- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| पुनः- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| इति दक्षिणगोदानम्|| पुनर्जलमादाय- अस्य बालकस्य(बालिकायाः) चूडाकर्मकर्तुमधिकारार्थं पश्चिम गोदानं मुंडनं च करिष्ये|इति संकल्प्य|(बालकके सिरके पीछली और रहैं बालोंमें लगायें)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐसवित्रा प्रसूता दैव्याऽआपऽउन्दन्तुते तनूम्|दीर्घायुत्वाय वर्चसे|| ततस्त्रेण्या शलल्या केशान विनीय|(सीरौहीके तीन शलाकासे दायींबाजूके बालोंकी लट अलग करैं.)||त्रीणि कुशतरुणान्यंतरदधाति||(पात्रासादनमें रखें२७कुशोंमें से तीन कुशोंको दायीबाजूकी बालोंकी लटोंमें परौंये) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐओषधेत्रायस्व||बायें हाथसे यह कुशसहित बालोंकी लटको पकड़कर रखैं- शिवोनामासिमंत्रेण लोहक्षुरमादधाति|(शिवोनामासि... आधेमंत्रसे लोहेका अस्त्रा दायें हाथसे लें) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मामाहि गूँ सीः||केशोंके साथ कुश और अस्त्रेको स्पर्श करायें.."केश कुश क्षुर संलग्निकरणम्->"बालिकायाः अमंत्रकम्" ॐ निवर्त्तयाम्म्यायुखेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायस्पोखाय सुप्प्रजास्त्वाय सुवीर्ज्जाय||दायें हाथके पकडे हुए अस्त्रेसे उन बालों का छेदन करैं-" ततः छेदनम्" अनेन मंत्रेण(बालिकायाः अमंत्रकम्)-ॐत्र्यायुखञ्जमदग्ग्नेः कश्श्यपस्य त्त्र्यायुखम्|जद्देवेखु त्र्यायुखन्तन्नोऽअस्तु त्र्यायुखम्|| काटैं हुए बालोंसहित कुशोंको" अग्निसे उत्तरमें रखें हुए बलद(बैल)के गोबर में खोंस दैं| अनेन सकेशानि कुशतरुणानि प्रच्छिद्य || आनडुह गोमय पिंडे प्रास्य|| पुनः समस्त क्रीयाएँ मौन रहते हुए बिना मंत्र पढे दो बार करैं-" एवं द्विरपरं तूष्णीम्||तद्यथा- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| पुनः- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| इति पश्चिम गोदानम्|| हस्ते जलमादाय- अस्य बालकस्य (बालिकायाः) चूडाकर्मकर्तुमधिकारार्थं उत्तरगोदानं मुंडनं च करिष्ये| (बालकके सिरके बायीं और रहैं बालोंमें लगायें)बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐसवित्रा प्रसूता दैव्याऽआपऽउन्दन्तुते तनूम्|दीर्घायुत्वाय वर्चसे|| ततस्त्रेण्या शलल्या केशान विनीय|(सीरौहीके तीन शलाकासे दायींबाजूके बालोंकी लट अलग करैं.)||त्रीणि कुशतरुणान्यंतरदधाति||(पात्रासादनमें रखें२७कुशोंमें से तीन कुशोंको दायीबाजूकी बालोंकी लटोंमें परौंये) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐओषधेत्रायस्व||बायें हाथसे यह कुशसहित बालोंकी लटको पकड़कर रखैं- शिवोनामासिमंत्रेण लोहक्षुरमादधाति|(शिवोनामासि... आधेमंत्रसे लोहेका अस्त्रा दायें हाथसे लें) बालिकायाः अमंत्रकम्* ॐशिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मामाहि गूँ सीः||केशोंके साथ कुश और अस्त्रेको स्पर्श करायें.."केश कुश क्षुर संलग्निकरणम्->"बालिकायाः अमंत्रकम्" ॐ निवर्त्तयाम्म्यायुखेन्नाद्याय प्प्रजननाय रायस्पोखाय सुप्प्रजास्त्वाय सुवीर्ज्जाय||दायें हाथके पकडे हुए अस्त्रेसे उन बालों का छेदन करैं-" ततः छेदनम्" अनेन मंत्रेण(बालिकायाः अमंत्रकम्)-ॐयेन भूरिश्चरादिवं ज्योक्च पश्चाद्धि सूर्यम्| तेन ते वपामि ब्रह्मणा जीवातवे जीवनाय सुश्लोक्याय स्वस्तये|| काटैं हुए बालोंसहित कुशोंको" अग्निसे उत्तरमें रखें हुए बलद(बैल)के गोबर में खोंस दैं| अनेन सकेशानि कुशतरुणानि प्रच्छिद्य || आनडुह गोमय पिंडे प्रास्य|| पुनः समस्त क्रीयाएँ मौन रहते हुए बिना मंत्र पढे दो बार करैं-" एवं द्विरपरं तूष्णीम्||तद्यथा- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| पुनः- दहींवाला जल लगायें" उन्दनम्"| तीनकांटोसे बालोंको सहरायें" विनयनम्"|तीन कुशोंको बालोंमें खोसैं" त्रिकुशतरुणान्तर्धानम्| अस्त्रा लेवें-" क्षुर ग्रहणम्"|बालों तथा कुशको अस्त्रे का स्पर्श करायें"संलग्नीकरणम्"| दायें हाथमें पकड़ें हुए अस्त्रेसे बालोंका छेदन करैं"छेदनम्"| काटैं हुए बालोंको गोबरमें छुपायें"आनडुह गोमय पिंडे प्रासनम्|| इति उत्तर गोदानम्|| अस्त्रेको बंध करके बालकके सिरके आजुबाजु प्रदक्षिणरितिसे घुमायें-" क्षुरेण शिरः प्रदक्षिणं परिहरति- (बालिकायाः अमंत्रकम्)" ॐयत्क्षुरेण मज्जयता सुपेशसा वप्तावावपति केशाञ्छिन्धि शिरोमास्यायुः प्रमोषीः||पुनः बिना मंत्र दो बार अस्त्रेको घुमायैं-" द्विस्तूष्णीम्"|| दहीं वाले जलसे सिरके सभी बालोंको गिलें करैं-" ततस्तेनैवोदकेन सर्वं शिर आर्द्रं कृत्वा"| अस्त्रा मंत्रपढकर नापितको दैं दे" क्षुरं नापिताय प्रयच्छति"|(बालिकायाः अमंत्रकम्)- ॐअक्षुण्वन्परिवप|| नापित कहता हैं-" वपामि"|इति नापितो ब्रूयात्| नापित उत्तराभिमुख बैठे हुए बालकके पूर्वकी तरफ तक और पूर्वाभिमुख बैठे हुए बालकके उत्तरी तरफ तक बाल साफ करैं|-" नापितः उदङ्ग मुख(मुखी) स्थितस्य(स्थितायाः)बालकस्य प्राक्संस्थं प्राङ्ग मुख(मुखी) स्थितस्य(स्थितायाः) उदकसंस्थं केशवपनं कुर्यात्| कुलव्यवस्थासे शिखा रखें(बिना शिखा रखें मुंडन न कर दैं)-" कुलव्यवस्थया शिखास्थापनं केशशेषं करोति|| मुंडे हुए सभी बालों गोबरमें छुपाकर वस्त्रसे वेष्टितकर तालाब या जलाशयमें प्रवाहित करैं-" ततः सर्वान्केशान् गोमयपिंडे वस्त्रादिनाऽऽवेष्टय अनुगुप्तं कृत्वा तडागे जलमध्ये वा प्रक्षिपेत्|| बालकको स्नान करवाकर मस्तकमें स्वस्तिक तथा ललाटमें तिलक करैं|-> ततःबालकं(बालिकां) स्नापयित्वा मस्तके स्वस्तिकं तथा च ललाटे तिलकं कुर्यात्|
कृतस्य चौलाख्यस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दशसंख्याकान् वा यथाशक्तिः ब्राह्मणान् यथाकाले संपन्नेन अहं भोजयिष्ये| तेन कर्मांग देवता केशिनः प्रीयतां न मम|| लम्बोदर नमस्तुभ्यं००|| यथा शक्त्या चौलविधेः परिपूर्णताऽस्तु| अस्तुपरिपूर्णः|
ॐस्वस्ति|पु ह शास्त्री| उमरेठ| शेष पुनः

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