शु-यजुर्वेदीय सीमन्त

षोडश संस्काराः खंड ~४९शु-यजुर्वेदीय सीमन्त संस्कारम्* वर्तमानमें सीमन्त संस्कारके नामपर(लोकरुढी)गोदभराई रसम करतें हैं..यहाँ रसम यानी रीवाज… शास्त्र कहता हैं(ब्राह्मणोत्पत्ति मार्त्तंड) जो रीवाज शास्त्रके विधान में नहीं सीर्फ रुढीगत हों वह विधान नहीं कहा जा सकता उसका सर्वदा त्याग करैं.(लोकरूढिं परित्यज्य शास्त्राऽज्ञा बलियसि" ब्रा०मार्तं) वर्तमानमें कहीं कहीं सत्यनारायण की कथा के साथ सीर्फ और सीर्फ गोदभराई करतें हैं. यह शास्त्र सम्मत नहीं हैं. हम ऋषिपरम्परासे चलता आ रहा सविधान सीमंत संस्कारकी बात करतें हैं. जीसमें गर्भाशयकी शुद्धी एवं गर्भके बैजीक गार्भीकदोष निवृत्ति एवं सुयोग्य शास्त्रीय विधान से गुणानुधान से तथा आचारसे रीवाज जीसमें संयुक्त हो ऐसा जातकके जन्मपूर्व होने वाले संस्कारको हि महत्व देतें हैं..' पुंसवन अनवलोभन एवं सीमन्त 'प्रायः ऋग्वेदीयों इन तीन संस्कार साथ में करतें हैं. यथा" अनवलोभनस्याप्यमेव कालः" दीपिकायां तु' चतुर्थेऽनवलोभनम् इत्युक्तम्" तथा " चतुर्थे गर्भमासे सीमन्तो नयनम्|१/१४/१२आश्वा०गृ" साथमें यह तीन संस्कार करना हो तो ऋग्वेदियोंके लिए गर्भसे चौथे मासमें करना हि फलदायी होता हैं. परंतु सर्वसम्मत " अथ सीमन्तोन्नयनं चतुर्थे पञ्चमे षष्ठे च इति" हेमाद्रौ वैजवापः" वसिष्ठ जी के मतसे " चतुर्थे सप्तमेमासि षष्ठे वाप्यथवाष्टमे|वसिष्ठ" गर्भसे चौथा पाँचवा छठ्ठा सातवाँ या आठवाँ मास सीमन्तके लिए योग्य हैं. " गर्भलम्भनमारभ्य यावन्न प्रसवस्तदा|कार्ष्णार्जिनिः" गर्भधारण से प्रसव न हुआ हो उनसे पहले भी सीमंत किया जा सकता हैं ऐसा कृष्णार्जिनि शंखका वचन हैं." अरिक्ता पर्वदि वसे कुजजीवार्कवासरे|ज्योतिर्निबन्धे नारदः" रीक्ता तिथियाँ- चौथ अष्टमी तथा चतुर्दशी तथा पर्वों को छोडकर मंगल गुरु तथा रविवार को सीमंत करना श्रेष्ठ हैं. पुंसवन अनवलोभन तथा सीमंत साथ में करना हो तो पुंसवन संस्कारमें कहें हुए नक्षत्रमें हि करना श्रेयस्कर हैं. " चतुर्दशी चतुर्थी च अष्टमी नवमी तथा षष्ठी च द्वादशी चैव पक्षछिद्राह्वया स्मृताः| वसिष्ठः " क्रमादेतासु तिथिषु वर्जनायाश्च नाडिकाः| भूता५ ष्ट८ मनु१४ तत्वां २५ क९ दश१० शेषास्तु शोभनाः|कालनिर्णये" चतुर्दशी की पाँच, चतुर्थी की आठ,अष्टमीकी चौदह, नवमीकी २५. छठकी नौ, द्वादशीकी दश घडीओं का त्याग करके शेष घडी सीमंतमें शुभ हैं ऐसा वसिष्ठजीका मत हैं. " शुभसंस्थे निशानाथे चतुर्थी च चतुर्दशीम् | पौर्णमासीं प्रशंसंति केचित्सीमंतकर्मणि||कालनिर्ण" ग्रभिणीका चंद्र शुभ हो तो सीमंतमें चतुर्थी चतुर्दशी और पूर्णिमा भी प्रशंसनीय हैं.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री. उमरेठ.
शेष पुनः षोडश संस्काराः खंड ५०~ सीमन्तसंस्कारम्*" पूर्वपक्षः शुभः प्रोक्तः कृष्णश्चान्त्यत्रिकं विना|| चतुर्दशी चतुर्थी च शुक्लपक्षे शुभप्रदे||बृहस्पतिः||बृहस्पति कहतें हैं कि सीमंतमें शुक्लपक्ष शुभ हैं और अन्तिम तीन तीथीयों१३-१४-३०को त्यागकर कृष्णपक्षभी शुभ हैं.चतुर्दशी और चतुर्थी शुक्लपक्ष में शुभ हैं." विप्र क्षत्रिययोः कुर्याद्दिवा सीमन्तकर्म तत्||वैश्यशूद्रकयोरेतद्दिवा निश्यपि केचन||नारदः|| नारदजी कहतें हैं कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों का सीमंत दिनमें करना चाहिये.वैश्य और शुद्रों का सीमंत रात और दिनमेंभी हो सकता हैं." सकृच्च संस्कृता नारी सर्वगर्भेषु संस्कृता|| देवलः|| एकबार सींमतसंस्कार हुई नारी सर्वगर्भमें संस्कारित होती हैं. इस लिए दूसरे अन्य गर्भकालमें सीमंत करनेकी आवश्यक्ता नहीं "एतच्च सकृदेव कार्यमिति विज्ञानेश्वरः" ऐसा विज्ञानेश्वर का मत हैं."सकृच्च कृत संस्कारा सीमन्तेन द्विज स्त्रियः|| यं यं गर्भं प्रसूयन्ते स सर्वः संस्कृतो भवेत्"||हारित|| जिस द्विजभामिनीको एकबार सीमंतसंस्कार हुआ हो ऐसी स्त्रीयों जिस जिस गर्भको जन्म देतीं हैं वह सब संस्कृत होते हैं. परंतु वर्तमान समयमें आहार विहार आदि से दूसरे आदि गर्भ में विकृति आ सकतीं हैं. इसलिए " सीमन्तोन्नयनं कर्म न स्त्रीसंस्कार इष्यते|| केचिद्गर्भस्य संस्कारान् प्रतिगर्भं प्रयुञ्जते ||विष्णुः|| विष्णुजी कहतें हैं कि सीमंतसंस्कार स्त्रीका संस्कार नहीं हैं परंतु गर्भका संस्कार होनेसे प्रत्येक गर्भसमयमें करैं." " सकृत् प्रतिगर्भं वा कार्यमिति हेमाद्रे") इसलिए हेमाद्रिमें भी कहा हैं कि संस्कार एकबार या प्रतिगर्भ करैं. वर्तमानमें प्रतिगर्भ करना हि आवश्यक रहैंगा."स्त्री यद्यकृतसीमन्ता प्रसवेत्तु कथंचन|| गृहितपुत्रा विधिवत्पुनः संस्कार मर्हति||सत्यव्रत||यदि सिमन्ततः पूर्वे प्रसूता चेतु भामिनी||तदानीं पेटकेगर्भं स्थाप्य संस्कार माचरेत्||गार्ग्ये||जिस स्त्रीका सींमत न हुआ हो और वह प्रसूता बनती हैं तो ऐसे जन्म हुए जातकको(जातकर्मसे पहले)गोदमें रखकर विधिवत् सींमंत संस्कार करैं." ब्रह्मौदने च सोमे च सीमन्तोन्यने तथा|| जातकर्म नवश्राद्धे भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्||पेराशरमाधवीये धौम्य|| वरण किये हुए ब्राह्मण के सिवा अन्यद्विज सीमंतका,ब्रह्मौदन(जनोईमें कुमारके भोजनसे बचाहुआ अन्न),सोमयागमें,जातकर्ममें या नवश्राद्ध(मरणसे ग्यारहवे दिन किये जानेवाला श्राद्ध) में भोजन किया हों तो उसे चान्द्रायणव्रत करके प्रायश्चित्त करना होता हैं.अगर किसी यजमानके यहाँ कर्मांगब्राह्मण भोजन यदि वरण किये हुए ब्राह्मण नहीं करतें हैं तो यजमानको फल नहीं मिलता" क्योंकि ब्रह्मभोजनान्त ही कर्म साङ्ग कहलाता हैं. और वरण किये हुए ब्राह्मणोंको भोजन करनेमें कोईभी दोष नहीं हैं.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः [3/23, 12:59] ॐनमश्चंडिकायै: षोडश संस्काराः खंड५१~सीमंतम्* पत्न्या सह बहिः शालायां शुभासने प्राङ्गमुखोपविश्य " पत्नीके साथ घरकेबहार संस्कारमंडपमें पवित्र आसनपर बैठे." आचम्य प्राणानायम्य" आचमन एवं प्राणायाम करैं. शांतिपाठपठनान्ते गणाधिपं गुर्वादिन् च देवतान्नमस्कृत्य" सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा" एतत्कर्मप्रधान देवता( पुंसवने- प्रजापतये नमः" सीमंते-धात्रे नमः" पूजाकी सामग्रीको जलसे पवित्र करैं." आयत उपकल्पित(पुंसवन")सीमंतोन्नयन देवतापूजोपहाराणां सर्वेषां पवित्रताऽस्तु" यदि समयसर विधानपूर्वक गर्भाधान पुंसवन संस्कार न किये हो तो..अनादिष्ट प्रायश्चित्त होम करैं. ममाऽअस्याभार्याया स्व स्व काले गर्भाधान पुंसवन संस्कार अकरण जनित दोष परिहारार्थं अनादिष्टप्रायश्चित्तार्थं प्रतिसंस्कारं व्याहृतिं होष्ये.. पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य ब्रह्मासनं वर्ज्य आज्यमधिश्रित्य" स्रुवं प्रताप्य तस्य मूलमध्याग्राणि कुशैः शोधयित्वा जलेन प्रोक्ष्य" पुनः प्रताप्य कुशानामुपरि निदध्यात्" आज्योद्वास्य पवित्राभ्यां त्रिरोत्पूय" पाणिना जलमादाय ऐशानकोणादारभ्यैशानी पर्यन्तं अग्नेः पर्युक्ष्य" विट्नामाग्निं सम्पूज्य" स्रुवेण जुहुयात्> त्यागोच्चारण मात्रम्- ॐभूःस्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा इदं सूर्याय न मम"ॐभूर्भुवः स्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" ॐभूःस्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा इदं सूर्याय न मम"ॐभूर्भुवः स्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"
ॐ त्वन्नो अग्ने०स्वाहा- इदमग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने०स्वाहा- इदमग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐ अयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदमग्नये अयसे च न मम" ॐ जे ते शतं व्वरुण० स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यश्च न मम" ॐ उदुत्तमं वरुण० स्वाहा- इदं वरुणायादित्यादितये च न मम" अनेन अनादिष्ट प्रायश्चित्त होमेन ममाऽस्या भार्याया गर्भाधान पुंसवन स्वकालातिक्रम दोष निवृत्ति रस्तु" कालातिक्रमदोष निवारण हेतु पूर्व न किये हुए गर्भाधान संस्कार "पादकृच्छव्रत" के प्रायश्चित हेतु १००० गर्भाधानके गायत्रीमंत्र जप करनेका संकल्प करैं. संकल्प:~ मम भार्याया गर्भाधान संस्कारस्य अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ व्रतात्मकं सहस्र गायत्रीमंत्रजपं ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये. तेन कालातिक्रम दोष निवृत्तिरस्तु.. पुंसवन संस्कार अधिकारोस्तु" ॐ तद्विष्णोः परमं० देशकालौ संकीर्त्य- ममास्यां वध्वामुत्पत्यस्य बैजिक गार्भिक दोष परिहारार्थं पुंरूपता ज्ञानोदय प्रतिरोध परिहार द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं पुंसवनं तथा च ममाऽस्या भार्याया तनु रुधिर प्रियालक्ष्मीभूत राक्षीगण दूर निरसन क्षम सकल सौभाग्य निदान भूत महालक्ष्मी समावेशनद्वारा प्रतिगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हण जनकातिशय द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं सीमंतोन्नयन संस्कारं करिष्ये... तगङ्गत्वेन गणपतिपूजनं मातृकापूजनं वैश्वदेव संकल्पं आयुष्य मंत्रजपं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि वरणं(अस्य पुंसवन सीमंत संस्कार निष्पतौ भवन्तोभ्यर्चिता मया|| सुप्रसनैः प्रकर्तव्यं संस्कारं विधिपूर्वकम्) च करिष्ये.. तानि कर्माणि कृत्वा" पुंसवन सविधि संस्कार नियत संयमें न करने का प्रायश्चित्त संकल्प- ममाऽस्या भार्याया स्वकाले पुंसवन संस्कार अकरण जनितदोष परिहारार्थं "पादकृच्छ्ररूपं" सहस्रगायत्री मंत्रजपं ब्राह्मण द्वारा आचरिष्ये" तेन पुंसवनसंस्कार अधिकारोस्तु" दिग्रक्षणं पञ्चगव्यकरणञ्च प्रोक्षणं" देवाऽयान्तु इत्यादि भूमिकुर्मानन्तवराहादिन् सम्पूज्य" पूर्वोक्त संकल्पानुसारेण पुंसवन संस्कारं करिष्ये… गणपतिं गंधाक्षतपुष्पैः सम्पूज्य" पुण्याह वाचनम् (पुंसवन संस्कार कर्मणि पुण्याहं इत्यादि००० प्रैषाः" कर्मांग देवता प्रजापतिः प्रीयताम्) स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं वह्निं संस्थाप्य. अग्निं ध्यात्वा देवता परिग्रहार्थं अन्वाधानं करिष्ये- समिद्वयं गृहित्वोत्थाय* अत्र प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याहुत्या" पुंसवन प्रधान प्रजापतिं स्थालीपाकेन एकाहुत्या" स्थालीपाकार्धेन अग्निंस्विष्टकृतं" अग्निं वायुं सूर्यं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान् मरुतः स्वर्क्कान् वरुणं आदित्यमदितीं प्रजापतिं चैताः प्रायश्चितमाज्येन एकैकयाहुत्या पुंसवन संस्कार होमे यक्ष्ये..... समिद्वयं अग्नौप्राश्य" ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं समाप्य " इदं सम्पादितं आज्यं चरुद्रव्यं च अन्वाधानोक्तादेवताभ्यश्च न मम" शोभननामाग्निं सम्पूज्य"
स्थालीपाकेन- ॐ प्रजापते नत्वदेता० इदं प्रजापतये न मम" स्थालीपाकार्धेन अग्निंस्विष्टकृतं " नवाहुतयः" संस्रव प्राशनं" ब्रह्मणे पूर्णपात्रदानम्" पवित्राभ्यां मार्जनम्" पश्चिमे प्रणीता विमोकः" रात्रौ दुर्वांकुरान् वटशृंगा(वटवृक्षकी कूंपण) कण्टकारिकामूलं (शतावरी) श्वेतबृहतीमूलं वा ( सफेद पुष्पवाली भोंयरींगणी)शिशिरेण जलेन पिष्ट्वा वस्त्रगालितं तदुदकं गर्भिणीदक्षिण नासिकायां आसिञ्चति भर्ता"(गर्भिणीको दायाँ श्वास चालु करवाने के लिए कुछ समय वामकुक्षी करवाकर" किसी भी वनस्पतिको पीसकर वस्त्रसे छानकर कुछ बूंदे गर्भिणीके दायें नाकमें मन्त्रसे डालें" गर्भिणीको यह औषध नासिका द्वारा श्वास द्वारा उदराभिगामी करना हैं.)
हिरण्ण्यगर्ब्भ इत्यस्य और्णवाभ ऋषिः अनुष्टुप् छंदः इन्द्रो देवता अद्भ्य इत्यस्य उत्तरनारायण ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः आदित्यो देवता गर्भिण्या नासापुटे औषधिमासेचने विनियोगः~ ॐ हिरण्ण्यगर्ब्भः० ॐअद्भ्यः सम्भ्रेतः०" कूर्मपितं चोपस्थे कृत्वा गर्भमभिमन्त्रयते(औषधी गर्भिणीके उदरपर लगाकर पानीभरा हुआ काँस्यपात्र उदरको स्पर्श करायें.) ॐसुपर्ण्णोसि गरुत्क्माँ० कृतस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दशसंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये" कृतस्य विधेः पुंसवन संस्कारं परिपूर्णताऽस्तु" कर्मांगदेवता प्रीयताम्"
संकल्पाङ्गतया सीमंतोन्नयनं करिष्ये. लाभोपचारैः गणपतिं सम्पूज्य" पुण्याह वाचनम्" कर्मांग देवता धाता प्रीयताम्"
पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" अन्वाधानम्- अत्र प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याहुत्या"प्रजापतिं स्थालीपाकेन एकाहुत्या" शेष स्थालीपाकेन अग्निं स्विष्टकृतं" अग्निं वायुं सूर्यं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान् मरुतः स्नर्क्कान् वरुणं आदित्यमदितिं चैताः प्रायश्चित्ताज्येन एकैकयाहुत्या सीमंतोन्नयन होमे अहं यक्ष्ये" समिधां अग्नौ अवधाय" ब्रह्मासनादि कुशकण्डिकायां पात्रासादनकाले स्रुवनिधानान्ते तण्डुल तिल मुद्गानां पृथक् पृथक् आसादनम्" काष्ठमय मृदुपीठं,युग्मन्यौदुम्बरफलान्य पक्वास्तबकनिबद्धानि(दो गुनी संख्यामें बनाई हुई औदुंबर फलकी वेणी) त्रयोदश परिमाणकास्त्रयो दर्भपिञ्जुलाः(१३/१३ कुशोंके तीन दर्भकीझुडीयाँ) त्र्येणी शलली( शाहुडी=सरोहीके पंख तीन) वीरतर शंकु( पीपलके काष्ठसे निर्मित ३ अंगुलव्यास ८अंगुल दीर्घ तथा आधे अंगुल शंकुकी टोच" वाला वीरतर शंकु)त्राकम्"(लकडेकी तकली) पूर्णपात्रम्(४०मुष्ठी तंडुल भरा हुआ पात्र) ब्रह्माको देने योग्य दक्षिणा" पवित्रकरणादि आज्यभागान्तं कुशकण्डिकां समाप्य"
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः
[3/23, 14:10] ॐनमश्चंडिकायै: षोडश संस्काराः खंड५२~ सीमन्तहोमः संस्कारश्च* मंगलनामाग्निं सम्पूज्य" स्रुवेण चरुं अभिधार्य स्रुवेण चरुं जुहुयात्- मनसा ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" चरोर्धेन ॐअग्नये स्विष्टकृते स्वाहा- इदमग्नये स्विष्टकृते न मम" प्रायश्चिताहुतयः आज्येन ॐभूः स्वाहा- इदमग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐ त्वन्नोऽअग्ने०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐ सत्वन्नोऽअग्ने०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐ अयाश्चाग्ने० स्वाहा- इदमग्नये अयसे च न मम" ॐ जे ते शतं० स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यश्च न मम" ॐ उदुत्तमं वरुण०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यादितये च न मम" मनसा ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" संस्रव प्राशनम्" पवित्राभ्यां मार्जनम्" प्रणितोदकेन संकल्पः ब्रह्मन् इदं पूर्णपात्रं(४०मुष्टि तंडुल पूर्णपात्रम्)सदक्षिणाकं तुभ्यमहं सम्प्रददे न मम" ॐस्वस्ति|| ॐद्यौस्त्वा ददातु पृेथिवीस्त्वा प्रतिगृह्णातु|| प्रणिता विमोकः तज्जलेन मार्जनम्- ॐआपः शिवाः शिवतमाः० अग्निं सम्पूज्य भस्मग्रहणम्" काष्ठपीठोपरी प्राङ्गमुखीं पत्नीं उपविश्य"(यदि सीमंतसे पहले गर्भका प्रसव हुआ हो तो उस बालकको गोदमें रखकर पत्नीको संस्कार करैं."सीमंततः पूर्वे प्रसवं तदा स्वांके पत्नीः प्रसवजात शिशुं नित्वा सीमन्तं उन्नयेत्") दो औदंबर फल को तकलीमें बाँधकर ,सिरोहीके तीनपंखके मूलभाग.कुशाग्र तीन दर्भकी झुडी.विरतर शुंकुके अग्रभाग तरफ सबको एककरके. पत्नीकी दोभागी माँगसे मूर्धा तक इन सबको ३ बार फिराकर सिमंतोन्नयन करैं. ॐभूर्विनयामि(१)
ॐभुवर्विनयामि(२)
ॐस्वर्विनयामि(३)
पाँच औदुंबर फलसे बनी हुई वेणी पत्नीके मूर्धामें मंत्रसे बाँधे.(भावार्थ यह हैं कि यह औदुंबर के वृक्षपर बहोत फल आतें हैं वैसे हे पत्नी तूं अनेकपुत्रको प्राप्त कर")मंत्रः- ॐअय मूर्जावतो वृक्षऽऊर्जीव फलिनी भव" ततो भर्ता (पति) वीणागाथिनौ वीणावादन सहित( दो सामवेदीको)" राजनं संगायेताम्" (कहैं.) प्रैषमाह. तब सामवेदी सोमगान करैं. ॐ सोमऽएवनो राजेमा मानुषीः प्रजाः|| अविमुक्तचक्रऽआसीरंस्तीरे तुभ्यं गंगा" ( वीणावादन और सामगान गर्भिणी और गर्भको आनंद प्रद रहैं. ऐसे प्रयोजनसे हैं.)
स्मृत्युक्तान् दश संख्यान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये कर्मांग देवता प्रीयताम्"(संकल्पके दश ब्राह्मण को सीमंत ब्रह्मभोजनका दोष नहीं.) कृतस्य विधेः सीमंतोन्नयन संस्कार परिपूर्णतास्तु" मातृगणं विसृज्य"
वर्तमानमें सिर्फ " गोद भराई" रीवाज होता हैं. वैदिक सीमंत नहीं.इस लिए वैदिक संस्कारको ही महत्व दिया जायें.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः
( सविधान गर्भाधान पुंसवन किये हुई पत्नीका सीमंत) पुनः
षोडश संस्काराः खंड५२~सीमन्तम्* यह संस्कार यदि सविधिसे गर्भाधान और पुंसवन संस्कार हो गया हो तब करैं." पत्न्या सह बहिः शालायां शुभासने प्राङ्गमुखोपविश्य " पत्नीके साथ घरकेबहार संस्कारमंडपमें पवित्र आसनपर बैठे." आचम्य प्राणानायम्य" आचमन एवं प्राणायाम करैं. शांतिपाठपठनान्ते गणाधिपं गुर्वादिन् च देवतान्नमस्कृत्य" सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा" एतत्कर्मप्रधान देवता धात्रे नमः" पूजाकी सामग्रीको जलसे पवित्र करैं." आयत उपकल्पित सीमंतोन्नयन देवतापूजोपहाराणां सर्वेषां पवित्रतास्तु" ॐ तद्विष्णोः परमं० देशकालौ संकीर्त्य- ममाऽस्या भार्याया तनु रुधिर प्रियालक्ष्मीभूत राक्षीगण दूर निरसन क्षम सकल सौभाग्य निदान भूत महालक्ष्मी समावेशनद्वारा प्रतिगर्भसमुद्भवैनोनिबर्हण जनकातिशय द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं सीमंतोन्नयन संस्कारं करिष्ये... तगङ्गत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता धाता प्रीयताम्)मातृकापूजनं वैश्वदेव संकल्पं आयुष्य मंत्रजपं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि वरणं(अस्य सीमंत संस्कार निष्पतौ भवन्तोभ्यर्चिता मया|| सुप्रसनैः प्रकर्तव्यं संस्कारं विधिपूर्वकम्) च करिष्ये.. तानि कर्माणि कृत्वा" दिग्रक्षणं पञ्चगव्यकरणञ्च प्रोक्षणं" देवाऽयान्तु इत्यादि भूमिकुर्मानन्तवराहादिन् सम्पूज्य"पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" ब्रह्मासनादि कुशकण्डिकायां पात्रासादनकाले स्रुवनिधानान्ते तण्डुल तिल मुद्गानां पृथक् पृथक् आसादनम्" काष्ठमय मृदुपीठं,युग्मन्यौदुम्बरफलान्य पक्वास्तबकनिबद्धानि(दो गुनी संख्यामें बनाई हुई औदुंबर फलकी वेणी) त्रयोदश परिमाणकास्त्रयो दर्भपिञ्जुलाः(१३/१३ कुशोंके तीन दर्भकीझुडीयाँ) त्र्येणी शलली( शाहुडी=सरोहीके पंख तीन) वीरतर शंकु( पीपलके काष्ठसे निर्मित ३ अंगुलव्यास ८अंगुल दीर्घ तथा आधे अंगुल शंकुकी टोच" वाला वीरतर शंकु)त्राकम्"(लकडेकी तकली) पूर्णपात्रम्(४०मुष्ठी तंडुल भरा हुआ पात्र) ब्रह्माको देने योग्य दक्षिणा" पवित्रकरणादि आज्यभागान्तं कुशकण्डिकां समाप्य" चरोःश्रपणकाले तण्डुल तिल मुद्गानां प्रणितोदकेन च शुद्धांभसा त्रिर्त्रिर्वारं पृथक प्रक्षाल्य प्रक्षालित तिलादिनां चरुपात्रेऽकीकृत्य उदकं पुरयित्वा अग्नेर्मध्ये अधिश्रयणम्.
सीमन्तहोमः संस्कारश्च* मंगलनामाग्निं सम्पूज्य" स्रुवेण चरुं अभिधार्य स्रुवेण चरुं जुहुयात्- मनसा ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" चरोर्धेन ॐअग्नये स्विष्टकृते स्वाहा- इदमग्नये स्विष्टकृते न मम" प्रायश्चिताहुतयः आज्येन ॐभूः स्वाहा- इदमग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐ त्वन्नोऽअग्ने०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐ सत्वन्नोऽअग्ने०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐ अयाश्चाग्ने० स्वाहा- इदमग्नये अयसे च न मम" ॐ जे ते शतं० स्वाहा- इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्क्केभ्यश्च न मम" ॐ उदुत्तमं वरुण०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यादितये च न मम" मनसा ॐ प्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" संस्रव प्राशनम्" पवित्राभ्यां मार्जनम्" प्रणितोदकेन संकल्पः ब्रह्मन् इदं पूर्णपात्रं(४०मुष्टि तंडुल पूर्णपात्रम्)सदक्षिणाकं तुभ्यमहं सम्प्रददे न मम" ॐस्वस्ति|| ॐद्यौस्त्वा ददातु पृेथिवीस्त्वा प्रतिगृह्णातु|| प्रणिता विमोकः तज्जलेन मार्जनम्- ॐआपः शिवाः शिवतमाः० अग्निं सम्पूज्य भस्मग्रहणम्" काष्ठपीठोपरी प्राङ्गमुखीं पत्नीं उपविश्य"(यदि सीमंतसे पहले गर्भका प्रसव हुआ हो तो उस बालकको गोदमें रखकर पत्नीको संस्कार करैं."सीमंततः पूर्वे प्रसवं तदा स्वांके पत्नीः प्रसवजातशिशुं नित्वा सीमन्तं उन्नयेत्") दो औदंबर फल को तकलीमें बाँधकर ,सिरोहीके तीनपंखके मूलभाग.कुशाग्र तीन दर्भकी झुडी.विरतर शुंकुके अग्रभाग तरफ सबको एककरके. पत्नीकी दोभागी माँगसे मूर्धा तक इन सबको ३ बार फिराकर सिमंतोन्नयन करैं. ॐभूर्विनयामि(१)
ॐभुवर्विनयामि(२)
ॐस्वर्विनयामि(३)
पाँच औदुंबर फलसे बनी हुई वेणी पत्नीके मूर्धामें मंत्रसे बाँधे.(भावार्थ यह हैं कि यह औदुंबर के वृक्षपर बहोत फल आतें हैं वैसे हे पत्नी तूं अनेकपुत्रको प्राप्त कर")मंत्रः- ॐअय मूर्जावतो वृक्षऽऊर्जीव फलिनी भव" ततो भर्ता (पति) वीणागाथिनौ वीणावादन सहित( दो सामवेदीको)" राजानं संगायेताम्" (कहैं.) प्रैषमाह. तब सामवेदी सोमगान करैं. ॐ सोमऽएवनो राजेमा मानुषीः प्रजाः|| अविमुक्तचक्रऽआसीरंस्तीरे तुभ्यं गंगा" ( वीणावादन और सामगान गर्भिणी और गर्भको आनंद प्रद रहैं. ऐसे प्रयोजनसे हैं.)
स्मृत्युक्तान् दश संख्यान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये कर्मांग देवता प्रीयताम्"(संकल्पके दश ब्राह्मण को सीमंत ब्रह्मभोजनका दोष नहीं.) कृतस्य विधेः सीमंतोन्नयन संस्कार परिपूर्णतास्तु" मातृगणं विसृज्य"
वर्तमानमें सिर्फ " गोद भराई" रीवाज होता हैं. वैदिक सीमंत नहीं.इस लिए वैदिक संस्कारको ही महत्व दिया जायें.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः

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