अन्नशुद्धिः
षोडश संस्काराः(अन्नशुद्धिः)खंड १०९~ अन्नका मानव-जीवनमें बहुत महत्व हैं |पञ्चतत्त्वोंसे निर्मित इस देहको धारण किये रखनेके लिये मनुष्यको अन्नकी आवश्यकता होती हैं | अन्न,जो कि पृथ्वीरूपिणी गोमाताका दुग्ध हैं,मनुष्यके भौतिक शरीरको पोषित करनेके साथ-साथ उसके सूक्ष्म शरीरके अवधारणमें भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता हैं | अन्नमय,मनोमय,ज्ञानमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय - इन पाँच कोशोंके विकासका मुख्य आधार अन्न ही हैं | मनुष्य जैसा अन्न ग्रहण करता हैं,उसीके आधारपर उसका अन्नमयकोश निर्मित होता हैं, उसीके अनुरूप मनोमयकोश अर्थात् मानसिक वृत्तियाँ स्थिर होती हैं तथा उसीके अनुसार ज्ञानमय एवं विज्ञानमयकोश विकसित होतें हैं | सत्-असत् अन्नके आधारपर ही आनन्द अथवा दुःखकी प्राप्ति होती हैं | जन्मसे पूर्व गर्भमें ही शिशुको पिताके वीर्य तथा माताके रजकणोंसे संस्कार मिलने लगतें हैं | इसे ही विज्ञानकी भाषामें वंशानुगत-संस्कार कह सकतें हैं | पिता यदि सात्त्विक वृत्तिसे प्राप्त अन्नका सेवन करता हैं तो बीजरूपमें बालकको वे सात्त्विक संस्कार सहज ही प्राप्त हो जातें हैं | इसी प्रकार माता भी गर्भावस्थाके समयमें जैसा अन्न लेती हैं,वह अन्न रसरूप बनकर बालकको प्राप्त होता हैं,जो उसकी शारीरिक तथा मानसिक संरचनाको प्रभावित करता हैं | गर्भस्थ शिशुपर पड़नेवाले इस प्रभावको आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार कर चुका हैं | सदाचारसे कमाया हुआ अन्न खानेपर मनुष्यमें सद्वृत्तियोंका विकास होता हैं | भ्रष्टाचार,हिंसा,अनीति,पाप,चोरी,छल,कपट तथा झूठके आश्रयसे कमाये हुए अन्नके उपभोगसे मनुष्यकी वृत्तियाँ वैसी ही बन जाती हैं | ऐसा दूषित अन्न खानेसे व्यक्तिका आचरण भी दूषित हो जाता हैं | साथ ही सदाचारी व्यक्तिको तो ऐसा अन्न पचना ही कठिन हो जाता हैं | हमारे शास्त्र कहतें हैं- "आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः||छान्दोग्य०७/२६/२|| अर्थात् आहारकी शुद्धिसे सात्त्विक गुणोंका संस्कार बनता हैं और फिर भगवान् की अखण्ड स्मृति होने लगती हैं | आजके समयकी बहुत सी समस्याओंका हल केवल अन्नकी शुचितासे हो सकता हैं | बस,आवश्यकता हैं कि व्यक्ति शुद्ध अन्न ग्रहण करनेका निर्णय कर लैं | इससे उसके अंदर अनेक सद्गुण स्वयं ही आ जायँगे,उसकी इच्छाओंकी अनन्ततापर सहज ही अंकुश लग जायगा,उसकी आवश्यकताएँ भी अपने-आप सीमित हो जायँगी | यह सब होनेपर वह सहजरूपसे सदाचारमें प्रवृत्त रहेगा | उसे छल-कपट-बेईमानीसे धन कमानेकी लालसा ही नहीं होगी | घरका मुखिया यदि सदाचारमें प्रवृत्त होगा तो उसका पूरा परिवार सदाचारकी प्रेरणा प्राप्त करैंगा | परिवारसे समाज़में और समाज़से राष्टेरमें सदाचार व्याप्त हो जायगा | एक बात और,शुद्ध अन्नके सेवनसे अनेक प्रकारके रोगोंसे भी छुटकारा मिल जायगा और थोड़े सेवनसे अधिक तृप्ति मिलेगी,सो अलग | यह मानव-शरीर परमात्माका ही मन्दिर हैं | इसमें ईश्वर-अंशरूपी जीवका वास हैं | उसे यदि शुद्ध -शुचितापूर्ण भोजनका नैवेद्य दिया जायगा तो भीतर बैठा परमात्मा अतीव प्रसन्न होगा | वैसे भोजनभी एक प्रकारका यज्ञ ही हैं | मनुष्यद्वारा ग्रहण किये गये भोजनका उसकी जठराग्निमें हवन होता हैं,जिसे वहाँ विद्यमान यज्ञपुरुष परमात्मा ग्रहण करता हैं | इसके लिये भगवान् श्रीकृष्णने गीता(१५/१४) में स्पष्ट कहा हैं-"# अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः | प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||# अर्थात् मैं समस्त प्राणियोंके शरीरमें जठराग्निरूपमें स्थित होकर श्वास-प्रश्वासको सन्तुलित रखतें हुए चार प्रकारके अन्नोंको पचाता हूँ |
अन्नकी शुचिताके साथ एक बात और महत्त्वपूर्ण हैं,वह हैं अन्नका संस्कार | अन्न यद्यपि शुद्ध हो तो भी उसका संस्कार होनेसे मणि-काञ्चनयोग हो जाता हैं | यह तो आवश्यक हैं ही कि अन्न सदाचारसे कमाया गया हो,लेकिन उसका संस्कार भी आवश्यक हैं | इसके लिये कुछ बातोंपर विशेषरूपसे ध्यान देना चाहिये |
१ जो व्यक्ति भोजन बनाये वह सात्त्विक प्रवृत्तिका हो | वास्तविकता तो यह हैं कि भोजन बनानेवालेके स्पर्श द्वारा उसकी मानसिक वृत्तियोंका सूक्ष्म प्रभाव भोजनमें आ जाता हैं| किसी संत-महात्मा का स्पर्श किया हुआ भोजन "प्रसाद" बनकर एक विशिष्ट प्रकारकी शान्ति,तृप्ति एवं आनन्द देता हैं,जबकि कोई दुष्प्रवृत्तिवाला व्यक्ति उसे स्पर्श कर दे तो वह अशुद्ध हो जाता हैं,यहाँतक कि ऐसे लोगोंकी दृष्टिके स्पर्शमात्रसे अन्न दूषित हो जाता हैं अतः ऐसा भोजन त्याज्य हैं |
अन्नकी शुचिताके साथ एक बात और महत्त्वपूर्ण हैं,वह हैं अन्नका संस्कार | अन्न यद्यपि शुद्ध हो तो भी उसका संस्कार होनेसे मणि-काञ्चनयोग हो जाता हैं | यह तो आवश्यक हैं ही कि अन्न सदाचारसे कमाया गया हो,लेकिन उसका संस्कार भी आवश्यक हैं | इसके लिये कुछ बातोंपर विशेषरूपसे ध्यान देना चाहिये |
१ जो व्यक्ति भोजन बनाये वह सात्त्विक प्रवृत्तिका हो | वास्तविकता तो यह हैं कि भोजन बनानेवालेके स्पर्श द्वारा उसकी मानसिक वृत्तियोंका सूक्ष्म प्रभाव भोजनमें आ जाता हैं| किसी संत-महात्मा का स्पर्श किया हुआ भोजन "प्रसाद" बनकर एक विशिष्ट प्रकारकी शान्ति,तृप्ति एवं आनन्द देता हैं,जबकि कोई दुष्प्रवृत्तिवाला व्यक्ति उसे स्पर्श कर दे तो वह अशुद्ध हो जाता हैं,यहाँतक कि ऐसे लोगोंकी दृष्टिके स्पर्शमात्रसे अन्न दूषित हो जाता हैं अतः ऐसा भोजन त्याज्य हैं |
२- भोजन बनानेका स्थान स्वच्छ होना चाहिये और जिन पात्रोंमें भोजन बनाना हैं,वे भी साफ तथा शुद्ध हों | इसके अतिरिक्त भोजन बनानेवाला भी साफ-सुथरा हो,धुले-स्वच्छ कपड़े पहने तथा हाथोंको भलीभाँति धोकर बनायें | ऐसी शुचिताका पालन करनेसे अन्नमें किसी प्रकारके रोगके कीटाणु आनेकी सम्भावना नहीं रहती |
३- भोजन बनानेवालेके मनमें विशुद्ध प्रेमभाव होना चाहिये | आजकल अनेक घरोंमें सेवकोंद्वारा भोजन बनाया जाता हैं | वे सेवक प्रायः व्यवसाय मानकर भोजन बनातें हैं | अतः भोजनमें भाव नहीं रहता | अधिकर यह दोष "हॉटल-धाबेंवालैं भोजन" में भी रहता हैं | जहाँ घरकी महिलाएँ -माँ या पत्नी भोजन बनाती हैं,वे अनेक प्रकारकी सावधानियाँ तो बरतती ही हैं,अपितु उनके मनमें पति एवं बच्चोंके प्रति विशेष प्रेम होनेसे उसका सहज प्रभाव भोजनमें आ जाता हैं,जिससे भोजनमें एक विशिष्ट स्वाद आ जाता हैं,ऐसा भोजन आनन्द एवं तृप्ति देता हैं |
४- अन्न यदि ईश्वरार्पणके भावसे बनाया जाय तो उसमें प्रेम एवं भक्ति दोनों भावोंका समन्वित प्रभाव आ जाता हैं | फिर अपने इष्टको भोग लगानेके बाद वह अन्न परम शुद्ध होकर दिव्य प्रसादमें रूपान्तरित हो जाता हैं | प्रसाद तो तुष्टि-पुष्टिके साथ प्रसन्नता भी देता है और उसमें ईश्वरकृपा भी सहज ही समाहित हो जाती हैं | यह तो हुआ अन्नका "भावात्मक संस्कार" | इसके अतिरिक्त अन्नका क्रियात्मक संस्कार भी आवश्यक हैं | इसके पीछे हमारी भारतीय संस्कृतिकी आध्यात्मिकताकी भावना प्रधान हैं | इसके लिए आवश्यक हैं | १- भोजन बनाकर प्रथम "बलिवैश्वदेव" किया जाय तथा पञ्चबलि निकाली जाय,अग्निदेवको अन्न प्रदान किया जाय,गायको गोग्रास दिया जाय,इससे भोजन शुद्ध होता हैं तथा गायको अन्न देनेसे अनेक प्रकारसे अप्रत्यक्षरूपमें हमें गोमाताका आशीर्वाद प्राप्त होता हैं |
२- गरीबको अन्न देनेसे अन्नभी संस्कारित होता हैं,इससे स्वयं दाताको भी विशेष संतोष तथा आनन्द मिलता हैं | सात्त्विकभावसे सात्त्विक अन्नदान करनेवाले व्यक्ति इस अनन्दको जानतें हैं | निश्चय ही ऐसा सात्त्विक यज्ञका पुण्यलाभ प्राप्त करता हैं |
३- समय-समयपर कच्चा या पक्का अन्न किसी अन्य व्यक्ति-भूखे अथवा ब्राह्मण को दान देना चाहिये | भूखे व्यक्ति,ब्राह्मण तथा अतिथिको भोजन करानेसे स्वयं परमात्मा तृप्त होतें हैं | इससे अन्नका संस्कार तो होता ही हैं,अपितु दान देनेसे अप्रत्य़क्षरूपमें उसकी वृद्धि भी होती हैं |
सात्त्विक तथा संस्कारित अन्न ग्रहण करनेंसे चित्त सहज ही शुद्ध हो जायगा,वृत्तिमें उद्दात्तता आयेगी,स्वभावमें सरलता,प्रेम,अक्रोध,निरुद्विग्नताका समावेश होगा और सच्चे सुख एवं आनन्दकी प्राप्ति होगी |
अन्नकी शुचिताके साथ एक बात और महत्त्वपूर्ण हैं,वह हैं अन्नका संस्कार | अन्न यद्यपि शुद्ध हो तो भी उसका संस्कार होनेसे मणि-काञ्चनयोग हो जाता हैं | यह तो आवश्यक हैं ही कि अन्न सदाचारसे कमाया गया हो,लेकिन उसका संस्कार भी आवश्यक हैं | इसके लिये कुछ बातोंपर विशेषरूपसे ध्यान देना चाहिये |
१ जो व्यक्ति भोजन बनाये वह सात्त्विक प्रवृत्तिका हो | वास्तविकता तो यह हैं कि भोजन बनानेवालेके स्पर्श द्वारा उसकी मानसिक वृत्तियोंका सूक्ष्म प्रभाव भोजनमें आ जाता हैं| किसी संत-महात्मा का स्पर्श किया हुआ भोजन "प्रसाद" बनकर एक विशिष्ट प्रकारकी शान्ति,तृप्ति एवं आनन्द देता हैं,जबकि कोई दुष्प्रवृत्तिवाला व्यक्ति उसे स्पर्श कर दे तो वह अशुद्ध हो जाता हैं,यहाँतक कि ऐसे लोगोंकी दृष्टिके स्पर्शमात्रसे अन्न दूषित हो जाता हैं अतः ऐसा भोजन त्याज्य हैं |
अन्नकी शुचिताके साथ एक बात और महत्त्वपूर्ण हैं,वह हैं अन्नका संस्कार | अन्न यद्यपि शुद्ध हो तो भी उसका संस्कार होनेसे मणि-काञ्चनयोग हो जाता हैं | यह तो आवश्यक हैं ही कि अन्न सदाचारसे कमाया गया हो,लेकिन उसका संस्कार भी आवश्यक हैं | इसके लिये कुछ बातोंपर विशेषरूपसे ध्यान देना चाहिये |
१ जो व्यक्ति भोजन बनाये वह सात्त्विक प्रवृत्तिका हो | वास्तविकता तो यह हैं कि भोजन बनानेवालेके स्पर्श द्वारा उसकी मानसिक वृत्तियोंका सूक्ष्म प्रभाव भोजनमें आ जाता हैं| किसी संत-महात्मा का स्पर्श किया हुआ भोजन "प्रसाद" बनकर एक विशिष्ट प्रकारकी शान्ति,तृप्ति एवं आनन्द देता हैं,जबकि कोई दुष्प्रवृत्तिवाला व्यक्ति उसे स्पर्श कर दे तो वह अशुद्ध हो जाता हैं,यहाँतक कि ऐसे लोगोंकी दृष्टिके स्पर्शमात्रसे अन्न दूषित हो जाता हैं अतः ऐसा भोजन त्याज्य हैं |
२- भोजन बनानेका स्थान स्वच्छ होना चाहिये और जिन पात्रोंमें भोजन बनाना हैं,वे भी साफ तथा शुद्ध हों | इसके अतिरिक्त भोजन बनानेवाला भी साफ-सुथरा हो,धुले-स्वच्छ कपड़े पहने तथा हाथोंको भलीभाँति धोकर बनायें | ऐसी शुचिताका पालन करनेसे अन्नमें किसी प्रकारके रोगके कीटाणु आनेकी सम्भावना नहीं रहती |
३- भोजन बनानेवालेके मनमें विशुद्ध प्रेमभाव होना चाहिये | आजकल अनेक घरोंमें सेवकोंद्वारा भोजन बनाया जाता हैं | वे सेवक प्रायः व्यवसाय मानकर भोजन बनातें हैं | अतः भोजनमें भाव नहीं रहता | अधिकर यह दोष "हॉटल-धाबेंवालैं भोजन" में भी रहता हैं | जहाँ घरकी महिलाएँ -माँ या पत्नी भोजन बनाती हैं,वे अनेक प्रकारकी सावधानियाँ तो बरतती ही हैं,अपितु उनके मनमें पति एवं बच्चोंके प्रति विशेष प्रेम होनेसे उसका सहज प्रभाव भोजनमें आ जाता हैं,जिससे भोजनमें एक विशिष्ट स्वाद आ जाता हैं,ऐसा भोजन आनन्द एवं तृप्ति देता हैं |
४- अन्न यदि ईश्वरार्पणके भावसे बनाया जाय तो उसमें प्रेम एवं भक्ति दोनों भावोंका समन्वित प्रभाव आ जाता हैं | फिर अपने इष्टको भोग लगानेके बाद वह अन्न परम शुद्ध होकर दिव्य प्रसादमें रूपान्तरित हो जाता हैं | प्रसाद तो तुष्टि-पुष्टिके साथ प्रसन्नता भी देता है और उसमें ईश्वरकृपा भी सहज ही समाहित हो जाती हैं | यह तो हुआ अन्नका "भावात्मक संस्कार" | इसके अतिरिक्त अन्नका क्रियात्मक संस्कार भी आवश्यक हैं | इसके पीछे हमारी भारतीय संस्कृतिकी आध्यात्मिकताकी भावना प्रधान हैं | इसके लिए आवश्यक हैं | १- भोजन बनाकर प्रथम "बलिवैश्वदेव" किया जाय तथा पञ्चबलि निकाली जाय,अग्निदेवको अन्न प्रदान किया जाय,गायको गोग्रास दिया जाय,इससे भोजन शुद्ध होता हैं तथा गायको अन्न देनेसे अनेक प्रकारसे अप्रत्यक्षरूपमें हमें गोमाताका आशीर्वाद प्राप्त होता हैं |
२- गरीबको अन्न देनेसे अन्नभी संस्कारित होता हैं,इससे स्वयं दाताको भी विशेष संतोष तथा आनन्द मिलता हैं | सात्त्विकभावसे सात्त्विक अन्नदान करनेवाले व्यक्ति इस अनन्दको जानतें हैं | निश्चय ही ऐसा सात्त्विक यज्ञका पुण्यलाभ प्राप्त करता हैं |
३- समय-समयपर कच्चा या पक्का अन्न किसी अन्य व्यक्ति-भूखे अथवा ब्राह्मण को दान देना चाहिये | भूखे व्यक्ति,ब्राह्मण तथा अतिथिको भोजन करानेसे स्वयं परमात्मा तृप्त होतें हैं | इससे अन्नका संस्कार तो होता ही हैं,अपितु दान देनेसे अप्रत्य़क्षरूपमें उसकी वृद्धि भी होती हैं |
सात्त्विक तथा संस्कारित अन्न ग्रहण करनेंसे चित्त सहज ही शुद्ध हो जायगा,वृत्तिमें उद्दात्तता आयेगी,स्वभावमें सरलता,प्रेम,अक्रोध,निरुद्विग्नताका समावेश होगा और सच्चे सुख एवं आनन्दकी प्राप्ति होगी |
ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री ||
उमरेठ || शेष पुनः
उमरेठ || शेष पुनः
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