शु-यजुर्वेदीय पुंसवन संस्कार
षोडश संस्काराः खंड ४७~शु-यजुर्वेदीय पुंसवन संस्कार* पुत्रकी प्राप्तिके लिए शास्त्रोमें पुंसवन संस्कारका विधान हैं." गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वरूपप्रतिपादनम्"स्मृ०सं" इस गर्भसे पुत्र उत्पन्न हो,इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता हैं." पुन्नाम्नो नरकात् त्रायते इति पुत्रः" अर्थात्" पुम् नामक नरकसे जो (त्राण) रक्षा करता हैं.उसे पुत्र कहा जाता हैं.इस वचनके आधारपर नरकसे बचनेके लिये मनुष्य पुत्र-प्राप्तिकी कामना करतें हैं.मनुष्यकी इस अभिलाषाकी पूर्तिके लिये ही शास्त्रोमें पुंसवन संस्कारका मिलता हैं. यह संस्कार अष्टांगहृदय के अनुसार गर्भके प्रथममासान्तमें कहा हैं.
"अव्यक्तः प्रथमेमासि सप्ताहात्कललीभवेत्| गर्भः पुंसवना न्यत्र पूर्वं व्यक्ते: प्रयोजयेत्" अष्टा०ह ३७" पारस्कर गृह्यसूत्र अनुसार-" अथ पुंसवनं पुरा स्पन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा" तदर्थ दूसरे या तीसरे माहमें कहा हैं." बृहस्पतिः तृतीये मासि कर्त्तव्यं गृहेरन्यत्र शोभनम् || गृष्टे श्चतुर्थेमासे तु षष्ठे मास्यथ वाष्टमे||(" सकृत प्रसूता गृष्टिः") एतेन प्रतिगर्भमपि भवतीति ज्ञायते"नि०सिं०३/पू/ यह संस्कार प्रतिगर्भ में भी चोथे छठे अथवा आठवेमासमें करैं ऐसा निर्णय सिंधुमें बृहस्पतिका वचन हैं. " कर्त्ता स्याद्देवरस्तस्या यस्याः पत्युरसंभवः| आवर्त्तत इदं कर्म प्रतिगर्भमिति स्थिति:|| बृहद्वचकारिका" जिसके पतिसे अशक्तिमें या कोई आतुर परिस्थितिमें पुंसवन न हो सके तो देवरके पास पुंसवन करवा सकतें हैं." गर्भाधानादि संस्कर्त्ता पतिः श्रेष्ठतमः स्मृतः|| अभावे स्वकुलीनः स्याद्बान्धवोऽन्यत्र गोत्रजः|| ब्राह्मे" गर्भाधानादिक संस्कार करनेमें पति सर्व श्रेष्ठ हैं. परंतु पति उपस्थित न हो तो सभी संस्कार पतिकुल बांधव या गोत्रजको करना चाहिये>यहाँ सभी संस्कार कुलबांधवादिको अधिकारी बताया हैं.परंतु इसमें पतिसे नियोग हुआ हो और विधानोक्त संस्कार न हुए हो तो केवल स्वकाले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहार हेतु अनादिष्टप्रायश्चित होम तथा पादकृच्छव्रतात्मकं प्रायश्चित हेतु १००० गायत्री जप संकल्प करके पुंसवनादि संस्कार तत्काकिक करैं." मृतो देशान्तरगतो भर्त्ता स्त्री यद्यसंस्कृता| देवरो वा गुरोर्वाऽपि वंश्यो वापि समातरेत्||मदनरत्ने"पति का देहांत हुआ हो या देशांतर में हो स्त्रीको संस्कार न हुए हो तो स्त्रीके देवर, या पतिके कुलगुरु अथवा कुलवंशजसे संस्कार हो सकतें हैं. हस्त,मूल,श्रवण,पुनर्वसु,मृगशिरा, पुष्य, " अनूराधान् हविषा वर्धयन्तः" ऐसी श्रुति होने स् अनुराधा पुन्नक्षत्र ही माना जाता हैं. इनमेंसे किसी एक रात्रिव्यापक नक्षत्रमें( जो नक्षत्र रात्रिमें चन्द्रोदयके बाद भी हो क्योंकी यह संस्कारका मूलकर्म ओषधि सेचन रात्रिमें हैं( सोम ओषधिनां अधिपतिः) सोम ओषघियोंका स्वामि हैं. इस लिये चन्द्रकी किरणें ओषधिमें सम्मिलित होना प्रभावशाली माना जाता हैं.रिक्ता- ४'८'१४ पर्व और नवमी तिथियों को त्याग करके अन्य तिथिओं में." मृत्युश्च सौरे स्तनु हानि रिन्दोर्मृतप्रजा पुंसवने बुधस्य| काकी च वन्ध्या भवतीह शुक्रे स्त्री पुत्र लाभो रवि भौम जीवैः" ज्योतिर्निबन्धे वसिष्ठ:" पुंसवन शनिवारमें करनेसे संकट,सोमवारमें शरीरहानी, बुधवारमें संतानको कष्ट,शुक्रवारमें काकवंध्या,रवि मंगल या गुरुवारमें करनेसे पुत्रलाभ हो ता हैं... इस संस्कार में अष्टांगहृदयके अनुसार"नासयाऽस्य वा पीतं वटश्रृंगाष्टकं तथा| क्षिरेण श्वेतबृहतीमूलं नासापुटे स्वयम् पुत्रार्थं दक्षिणे सिञ्चेद्वामे दुहितृ वाञ्छया"सफेद भोंयरींगणी कू जड़ दूधमें पीसकर या वडवृक्षकी जीस डाली पर फल आ चूकें हों वैसी डाली की आठ कूंपण दूधमें पीसकर पुत्रेच्छासे गर्भवती स्त्री के दायें नाकमें और पुत्रीकी इच्छा से बायें नाकमें सेचन करें." बली पुरुषाकारो हि दैवमप्यति वर्तते" अष्टां०हृ१/३७" बलवान पुरुषार्थ से देवों भी भाग्य पलट सकतें हैं.अतः असम्भव कार्य को सम्भव बनता हैं.
"अव्यक्तः प्रथमेमासि सप्ताहात्कललीभवेत्| गर्भः पुंसवना न्यत्र पूर्वं व्यक्ते: प्रयोजयेत्" अष्टा०ह ३७" पारस्कर गृह्यसूत्र अनुसार-" अथ पुंसवनं पुरा स्पन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा" तदर्थ दूसरे या तीसरे माहमें कहा हैं." बृहस्पतिः तृतीये मासि कर्त्तव्यं गृहेरन्यत्र शोभनम् || गृष्टे श्चतुर्थेमासे तु षष्ठे मास्यथ वाष्टमे||(" सकृत प्रसूता गृष्टिः") एतेन प्रतिगर्भमपि भवतीति ज्ञायते"नि०सिं०३/पू/ यह संस्कार प्रतिगर्भ में भी चोथे छठे अथवा आठवेमासमें करैं ऐसा निर्णय सिंधुमें बृहस्पतिका वचन हैं. " कर्त्ता स्याद्देवरस्तस्या यस्याः पत्युरसंभवः| आवर्त्तत इदं कर्म प्रतिगर्भमिति स्थिति:|| बृहद्वचकारिका" जिसके पतिसे अशक्तिमें या कोई आतुर परिस्थितिमें पुंसवन न हो सके तो देवरके पास पुंसवन करवा सकतें हैं." गर्भाधानादि संस्कर्त्ता पतिः श्रेष्ठतमः स्मृतः|| अभावे स्वकुलीनः स्याद्बान्धवोऽन्यत्र गोत्रजः|| ब्राह्मे" गर्भाधानादिक संस्कार करनेमें पति सर्व श्रेष्ठ हैं. परंतु पति उपस्थित न हो तो सभी संस्कार पतिकुल बांधव या गोत्रजको करना चाहिये>यहाँ सभी संस्कार कुलबांधवादिको अधिकारी बताया हैं.परंतु इसमें पतिसे नियोग हुआ हो और विधानोक्त संस्कार न हुए हो तो केवल स्वकाले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहार हेतु अनादिष्टप्रायश्चित होम तथा पादकृच्छव्रतात्मकं प्रायश्चित हेतु १००० गायत्री जप संकल्प करके पुंसवनादि संस्कार तत्काकिक करैं." मृतो देशान्तरगतो भर्त्ता स्त्री यद्यसंस्कृता| देवरो वा गुरोर्वाऽपि वंश्यो वापि समातरेत्||मदनरत्ने"पति का देहांत हुआ हो या देशांतर में हो स्त्रीको संस्कार न हुए हो तो स्त्रीके देवर, या पतिके कुलगुरु अथवा कुलवंशजसे संस्कार हो सकतें हैं. हस्त,मूल,श्रवण,पुनर्वसु,मृगशिरा, पुष्य, " अनूराधान् हविषा वर्धयन्तः" ऐसी श्रुति होने स् अनुराधा पुन्नक्षत्र ही माना जाता हैं. इनमेंसे किसी एक रात्रिव्यापक नक्षत्रमें( जो नक्षत्र रात्रिमें चन्द्रोदयके बाद भी हो क्योंकी यह संस्कारका मूलकर्म ओषधि सेचन रात्रिमें हैं( सोम ओषधिनां अधिपतिः) सोम ओषघियोंका स्वामि हैं. इस लिये चन्द्रकी किरणें ओषधिमें सम्मिलित होना प्रभावशाली माना जाता हैं.रिक्ता- ४'८'१४ पर्व और नवमी तिथियों को त्याग करके अन्य तिथिओं में." मृत्युश्च सौरे स्तनु हानि रिन्दोर्मृतप्रजा पुंसवने बुधस्य| काकी च वन्ध्या भवतीह शुक्रे स्त्री पुत्र लाभो रवि भौम जीवैः" ज्योतिर्निबन्धे वसिष्ठ:" पुंसवन शनिवारमें करनेसे संकट,सोमवारमें शरीरहानी, बुधवारमें संतानको कष्ट,शुक्रवारमें काकवंध्या,रवि मंगल या गुरुवारमें करनेसे पुत्रलाभ हो ता हैं... इस संस्कार में अष्टांगहृदयके अनुसार"नासयाऽस्य वा पीतं वटश्रृंगाष्टकं तथा| क्षिरेण श्वेतबृहतीमूलं नासापुटे स्वयम् पुत्रार्थं दक्षिणे सिञ्चेद्वामे दुहितृ वाञ्छया"सफेद भोंयरींगणी कू जड़ दूधमें पीसकर या वडवृक्षकी जीस डाली पर फल आ चूकें हों वैसी डाली की आठ कूंपण दूधमें पीसकर पुत्रेच्छासे गर्भवती स्त्री के दायें नाकमें और पुत्रीकी इच्छा से बायें नाकमें सेचन करें." बली पुरुषाकारो हि दैवमप्यति वर्तते" अष्टां०हृ१/३७" बलवान पुरुषार्थ से देवों भी भाग्य पलट सकतें हैं.अतः असम्भव कार्य को सम्भव बनता हैं.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ. षोडश संस्काराः खंड ४८~ पुंसवनम्* पुन्नक्षत्रयुतोभय चन्द्र तारानुकूलदिवसमवगत्य ततः पूर्वदिने वधूमुपवासं कारयित्वा अग्रिमदिने तस्याः स्नाताया अहतवासो युगपरिधानानन्तरं शुचिः स्नातः आचम्य प्राणानायम्य. देशकालौ संकिर्तनान्ते - मम भार्यायाः गर्भाधानसंस्कारस्य स्वकाले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अनादिष्ट प्रायश्चित्तं होष्ये..अरत्निमात्रेस्थंडिले भूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" अग्निं ध्यात्वा-अत्र ब्रह्मोपवेशनं नैवम्- आज्यं निरुप्य अधिश्रित्य" स्रुवं प्रताप्य स्रुवस्य कुशाग्रैः सम्मार्ज्य तदग्रमूलमध्यानि शोधयित्वा पुनः प्रताप्य " स्वदक्षिणे कुशानामुपरि निधाय" आज्योद्वास्य कुशरूपे द्वेपवित्रे कृत्वा पवित्राभ्यां आज्यस्य त्रिरोत्पूय आज्यमवेक्ष्य" जलेन ईशान कोणादारभ्य ऐशानपर्यन्तं पर्युक्षणं कृत्वा न इतरथावृत्तिः विट् नामाग्नये नमः इति सम्पूज्य० जुहुयात्- (ब्रह्मोपवेशनादि अभावात् त्यागदानं न किन्तुपठनमेव) ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" ॐत्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने वमो०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐअयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदं अग्नये अयसे न मम" ॐ जेते शतंवरुण० इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम"ॐ उदुत्तमं वरुणपाश०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यायादितये च न मम"ॐप्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" अनेन अनादिष्टप्रायश्चित्त कृतेन अस्याः भार्यायाःगर्भाधान संस्कारस्य कालातिक्रमदोष परिहारोस्तु" मम भार्यायाः गर्भाधानसंस्कारस्य कालातिक्रमदोष परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रसंख्याकं गायत्रीमंत्रजपं स्वयं वा (ब्राह्मणद्वारा ) आचरिष्ये तेन पुंसवनसंस्कार अधिप्राप्तिरस्तु"
पुनः प्रधान संकल्पः- देशकालौ संकीर्त्य ममास्यां वध्वामुत्पत्यस्य बैजिक गार्भिक दोष परिहारार्थं पुंरूपता ज्ञानोदय प्रतिरोध परिहार द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं पुंसवनाख्यं कर्माहं करिष्ये.... तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता प्रजापतिः) मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि ब्राह्मणवरणं च करिष्ये.... तानि कर्माणि समाप्य, दिग्रक्षणादि भूमिपूजनान्तं कृत्वा स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं वह्निं संस्थाप्य. अग्निं ध्यात्वा देवता परिग्रहार्थं अन्वाधानं करिष्ये- समिद्वयं गृहित्वोत्थाय* अत्र प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याहुत्या" पुंसवन प्रधान प्रजापतिं स्थालीपाकेन एकाहुत्या" स्थालीपाकार्धेन अग्निंस्विष्टकृतं" अग्निं वायुं सूर्यं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान् मरुतः स्वर्क्कान् वरुणं आदित्यमदितीं प्रजापतिं चैताः प्रायश्चितमाज्येन एकैकयाहुत्या पुंसवन संस्कार होमे यक्ष्ये..... समिद्वयं अग्नौप्राश्य" ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं समाप्य " इदं सम्पादितं आज्यं चरुद्रव्यं च अन्वाधानोक्तादेवताभ्यश्च न मम" शोभननामाग्निं सम्पूज्य"
स्थालीपाकेन- ॐ प्रजापते नत्वदेता० इदं प्रजापतये न मम" स्थालीपाकार्धेन अग्निंस्विष्टकृतं " नवाहुतयः" संस्रव प्राशनं" ब्रह्मणे पूर्णपात्रदानम्" पवित्राभ्यां मार्जनम्" पश्चिमे प्रणीता विमोकः" रात्रौ दुर्वांकुरान् वटशृंगा(वटवृक्षकी कूंपण) कण्टकारिकामूलं (शतावरी) श्वेतबृहतीमूलं वा ( सफेद पुष्पवाली भोंयरींगणी)शिशिरेण जलेन पिष्ट्वा वस्त्रगालितं तदुदकं गर्भिणीदक्षिण नासिकायां आसिञ्चति भर्ता"(गर्भिणीको दायाँ श्वास चालु करवाने के लिए कुछ समय वामकुक्षी करवाकर" किसी भी वनस्पतिको पीसकर वस्त्रसे छानकर कुछ बूंदे गर्भिणीके दायें नाकमें मन्त्रसे डालें" गर्भिणीको यह औषध नासिका द्वारा श्वास द्वारा उदराभिगामी करना हैं.)
हिरण्ण्यगर्ब्भ इत्यस्य और्णवाभ ऋषिः अनुष्टुप् छंदः इन्द्रो देवता अद्भ्य इत्यस्य उत्तरनारायण ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः आदित्यो देवता गर्भिण्या नासापुटे औषधिमासेचने विनियोगः~ ॐ हिरण्ण्यगर्ब्भः० ॐअद्भ्यः सम्भ्रेतः०" कूर्मपितं चोपस्थे कृत्वा गर्भमभिमन्त्रयते(औषधी गर्भिणीके उदरपर लगाकर पानीभरा हुआ काँस्यपात्र उदरको स्पर्श करायें.) ॐसुपर्ण्णोसि गरुत्क्माँ० कृतस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दशसंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये" कृतस्य विधेः पुंसवन संस्कारं परिपूर्णताऽस्तु" कर्मांगदेवता प्रीयताम्"
पुनः प्रधान संकल्पः- देशकालौ संकीर्त्य ममास्यां वध्वामुत्पत्यस्य बैजिक गार्भिक दोष परिहारार्थं पुंरूपता ज्ञानोदय प्रतिरोध परिहार द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं पुंसवनाख्यं कर्माहं करिष्ये.... तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता प्रजापतिः) मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि ब्राह्मणवरणं च करिष्ये.... तानि कर्माणि समाप्य, दिग्रक्षणादि भूमिपूजनान्तं कृत्वा स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं वह्निं संस्थाप्य. अग्निं ध्यात्वा देवता परिग्रहार्थं अन्वाधानं करिष्ये- समिद्वयं गृहित्वोत्थाय* अत्र प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याहुत्या" पुंसवन प्रधान प्रजापतिं स्थालीपाकेन एकाहुत्या" स्थालीपाकार्धेन अग्निंस्विष्टकृतं" अग्निं वायुं सूर्यं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान् मरुतः स्वर्क्कान् वरुणं आदित्यमदितीं प्रजापतिं चैताः प्रायश्चितमाज्येन एकैकयाहुत्या पुंसवन संस्कार होमे यक्ष्ये..... समिद्वयं अग्नौप्राश्य" ब्रह्मासनादि आज्यभागान्तं समाप्य " इदं सम्पादितं आज्यं चरुद्रव्यं च अन्वाधानोक्तादेवताभ्यश्च न मम" शोभननामाग्निं सम्पूज्य"
स्थालीपाकेन- ॐ प्रजापते नत्वदेता० इदं प्रजापतये न मम" स्थालीपाकार्धेन अग्निंस्विष्टकृतं " नवाहुतयः" संस्रव प्राशनं" ब्रह्मणे पूर्णपात्रदानम्" पवित्राभ्यां मार्जनम्" पश्चिमे प्रणीता विमोकः" रात्रौ दुर्वांकुरान् वटशृंगा(वटवृक्षकी कूंपण) कण्टकारिकामूलं (शतावरी) श्वेतबृहतीमूलं वा ( सफेद पुष्पवाली भोंयरींगणी)शिशिरेण जलेन पिष्ट्वा वस्त्रगालितं तदुदकं गर्भिणीदक्षिण नासिकायां आसिञ्चति भर्ता"(गर्भिणीको दायाँ श्वास चालु करवाने के लिए कुछ समय वामकुक्षी करवाकर" किसी भी वनस्पतिको पीसकर वस्त्रसे छानकर कुछ बूंदे गर्भिणीके दायें नाकमें मन्त्रसे डालें" गर्भिणीको यह औषध नासिका द्वारा श्वास द्वारा उदराभिगामी करना हैं.)
हिरण्ण्यगर्ब्भ इत्यस्य और्णवाभ ऋषिः अनुष्टुप् छंदः इन्द्रो देवता अद्भ्य इत्यस्य उत्तरनारायण ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः आदित्यो देवता गर्भिण्या नासापुटे औषधिमासेचने विनियोगः~ ॐ हिरण्ण्यगर्ब्भः० ॐअद्भ्यः सम्भ्रेतः०" कूर्मपितं चोपस्थे कृत्वा गर्भमभिमन्त्रयते(औषधी गर्भिणीके उदरपर लगाकर पानीभरा हुआ काँस्यपात्र उदरको स्पर्श करायें.) ॐसुपर्ण्णोसि गरुत्क्माँ० कृतस्य कर्मणः सांगता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दशसंख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये" कृतस्य विधेः पुंसवन संस्कारं परिपूर्णताऽस्तु" कर्मांगदेवता प्रीयताम्"
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री. उमरेठ.
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