सामवेदे पुंसवन संस्कारम्

सामवेदे पुंसवन संस्कारम्(मंत्रात्मक नाभि अभिमर्शन रूपम्)
पुंसवन संस्कारः~
यजमानः आचम्य प्राणानायम्य" ~ देशकालौ संकीर्त्य अस्यां मम भार्यायां उत्पत्संयमान गर्भस्य " वा" (सर्वगर्भाणां)बैजिक गार्भिक दोष परिहार पुंरूपता ज्ञानोदय प्रतिरोधि परिहार द्वारा पुंसवन संस्काराख्यं करिष्ये....
तदङ्गत्वेन गणपति पूजनं पुण्याहवाचनम्(कर्मांगदेवता-प्रजापतिः)मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं आचार्यादिवरणं च करिष्ये....
अङंगसंकल्पोक्त क्रमेण वरणान्तकर्माणि समाप्य....
सामवेदे अग्निस्थापन पद्धतिः~
खंड १ * तीन कुशोंसे कुंडके भींतर पश्चिमसे पूर्वकी और तीन बार संमार्जन" त्रिभिःकुशैः कुण्डस्य(स्थंडिलस्य) पश्चिमभागाद् आरभ्य प्राञ्चं त्रिवारं संमृज्य३| वैसे ही गोमयसे तीन बार लेपन करैं." तथैव गोमयेन त्रिवारं उपलिप्य" यजमान अपना बायाँ हाथ जबतक अग्निस्थापन न हों तबतक कुंडपर रखें." ततो वामहस्तं अग्निर्निधानपर्यन्तं कुण्डे (स्थंडिले) निधाय" कुंड(स्थंडिल)के मध्यभागसे दक्षिणकी ओर देढअंगुल जमीन छोड़कर पश्चिमसे पूर्वकी ओर दायें हाथसे दर्भमूल द्वारा १२अंगुलकी रेखा करें.
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१२अं ॐस्वस्ति||
पु ह शास्त्री.उमरेठ
शेष पुऩः
सामवेदे अग्निस्थापन पद्धतिः~ खंड २* दक्षिणहस्तेन कुशमूलेन कुण्डस्य(स्थंडिलस्य) सार्धांगुलमितां भूमिं दक्षिणतः त्यक्त्वा प्राग्गतां प्रादेशमात्रां लेखाम्" पहले की हुई रेखाके मूलभागसे उत्तरकी और २१ अंगुलकी रेखा करैं.
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१२ १२ १२ १२ १२
तन्मूललग्नां उदग्दिग्गतां द्वितीयां एकविंशत्यंगुलमितां लेखाम् उल्लिख्य" प्रथम की हुई रेखासे ७/७ अंगुलका अंतर रहैं वैसे पश्चिमसे पूर्वकी और १२/१२ अंगुलकी तीन रेखा करैं." प्रथम रेखायाः उत्तरस्यां सप्तांगुलम् अन्तरं त्यक्त्वा प्रादेशमात्रा: तिस्रः रेखाः कुर्यात्" कि हुई रेखाओं की जमीनसे अनामिका और अंगुठे के सहयोगसे मीट्टी लेकर तीन बार कुंडके बहार ईशानकी और एकहाथकी दूरीपर फैंक दैं."उल्लेखन क्रमेण अनामिका अंगुष्ठाभ्यां पांसून् नीत्वा ऐशान्यां अरत्निमात्र प्रदेशे निक्षिपेत्"
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनःसामवेदे अग्निस्थापन पद्धतिः~
खंड ३* निकाली हुई मिट्टीकी जगहपर छते हाथसे तीन बार जल छींडके." जलेन ताः अभ्युक्ष्य३" कुशोंसे कुंड(स्थंडिल)को प्रदक्षिण रितिसे साफ करैं." दर्भैः परिसमुह्य३" गोमय और जलके योगसे कुंड(स्थंडिल)के भींतर प्रदक्षिण रितिसे लेपन करैं." गोमयोदकाभ्यां उपलिप्य३" कुशके मूलभागसे कुंड(स्थंडिल) के भींतरकी जमीनपर पश्चिमसे पूर्वकी और तीन रेखायें करैं."कुश मूलेन पश्चिमतः पूर्वान्तः उल्लिख्य३" अनामिका और अंगुठेसे की हुई रेखाओंमें से मिट्टी उखेड़कर कुंडके बहार ईशानकोनेमें हाथदूरीपर डालैं."अनामिकांगुष्ठयोगेन उद्धृत्य३" पुनः छते हाथके पीछले हिस्सेसे(प्रजापत्य तीर्थ) से जल छिंड़के." उदकेन अभ्युक्ष्य३"
विनियोग- अग्निं दूतेति भरद्वाज गायत्र्यग्निः स्थापने विनियोगः
५. २. २ १ २
ॐअग्निन्दूताम्|वृणीमहाइ|०
चन्द्रमनामाग्निं प्रतिष्ठापयामि
आवाहनम्- अग्न आयाहीति गौतमो गायत्र्यग्निः आवाहने विनियोगः
४ ५ ४ २ ५ २
ॐअग्न आयाहि|० अग्ने वैश्वानर शांडिल्य गोत्र शांडिल्य असितदेवलेतित्रिप्रवरान्वित भूमिमातः वरुण पितः मेषध्वज प्राङ्गमुख मम संमुखो भव "
गोबरकंडेके टुकड़े और समिद्यकाष्ठ डालकर अग्निको प्रदिप्त करैं." तत इन्धन प्रक्षेपेण सुसमिध्य अग्निं प्रज्वाल्य"
ध्यानम्- अग्निं प्रज्वलितं वंदे० रुद्रतेजः समुद्भूतं द्विमूर्द्धानं त्रिनासिकम्| षण्नेत्रं च चतुः श्रोत्रं त्रिपादं सप्तहस्तकम्||याम्यभागे चतुर्हस्तं सव्यभागे त्रिहस्तकम्|स्रुवं स्रुचं च शक्तिं च अक्षमालां च दक्षिणे||तोमरं व्यजनं चैव घृतपात्रं च वामके| बिभ्रतं सप्तभिर्हस्तैः द्विमुखं सप्तजिह्वकम्||दक्षिणे च चतुर्जिह्वं त्रिजिह्वमुत्तरं मुखम्| कोटिद्वादश मूर्त्याख्यं द्विपञ्चाशत्कलायुतम्||स्वाहा स्वधा वषट्कारैरंकितं मेषवाहनम्|रक्तमाल्याम्बरधरं रक्तपद्मासनस्थितम्||त्वं मुखं सर्व देवानां सप्तार्चिरमितद्युते|आगच्छ भगवन्नग्ने यज्ञे$स्मिन् संनिधो भव||सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोक्षिशिरोमुखम्| विश्वरूपो महानग्निः प्रणितः सर्वकर्मसु|| न्यञ्चकरणम्- दाईना गुंटना मोड़कर दायेँ हाथकी अंगुलियाँ सन्मुख हों ऐसे दायेँ हाथ से कुंडके वायव्य कोणको स्पर्श करैं." दक्षिणं जान्वाच्य दक्षिण हस्तम् आत्माभिमुखांगुल्यग्रं कुण्डस्य(स्थंडिलस्य) वायुकोणे सन्न्यस्य" बायेँ हाथकी अंगुलीयाँ अग्निकी चरफ रहैं ऐसे बायेँ हाथसे कुंडके नैऋत्यकोऩे का स्पर्श करैं." वाम हस्तमं अग्न्यभिमुखांगुल्यग्रं नैर्ऋतकोणे सन्न्यस्य"( वायव्यमें दायाँ हाथ छता और नैर्ऋत्यमें बायाँ हाथ उलटा) इदं भूमेरिति प्रजापतिः अनुष्टुबग्निः न्यञ्चकरणे विनियोगः- (मं - ब्रा२'४'१ ) ॐ इदं भूमे र्भजामह इदं भद्रँ सुमङ्गलम्| परा सप्तनान् बाधस्वान्येषां विन्दते धनम्||
अग्निकी और अंगुलियाँ रहैं वैसे दोनों हाथोंसे कुश पकडकर तीनबार जलसे कुंडकी दायीं औरसे मंत्रपढते हुए परिसमुहन करैं." इमँ स्तोमेति त्रयाणां कुत्सोजगत्यग्निः परिसमुहने विनियोगः- ॐ इमँ स्तोम मर्हते जातवेदसे रथमिव संमहे मामनीषया| भद्रा हि नः प्रमतिरस्यसँ सद्यग्ने सख्ये मारिषा मा वयं तव||
भरामेध्मं कृणवामा हवीँषि ते चितयन्तः पर्वणा पर्वणा वयम्|जीवातवे प्रतरँ साधयाधियोऽग्ने सख्ये मारिषा मा वयं तव||
शके मत्वा समिधँ साधयाधियस्त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम्| त्वमादित्याँ आवह तान् ह्युश्मस्यग्ने सख्ये मारिषा मा वयं तव(मं- ब्रा २;४/ २-४)
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनःसामवेदे अग्निस्थापन पद्धतिः~
खंड ५* कुश-क०
प्रदक्षिण रितिसे अग्निकीे दक्षिण दिशा में कुंड से १ हाथ दूर पूर्वाभिमुख होकर ब्रह्मपीठपर तीन कुश पूर्वाग्र रखकर ठीक वैसे ही वापस आयें.
ततः प्रादक्षिण्येन अग्नेर्दक्षिणतो गत्वा,कुण्डात्(स्थंडिलाद्) बाहुमात्रां भूमिं दक्षिणतस्त्यक्त्वा, ब्रह्मणःपीठोपरि त्रीन् कुशानास्तीर्य,स्वासनमागच्छेत्".
ब्रह्माकी उपमावाले वरणिय ब्राह्मण प्रदक्षिणरितिसे ब्रह्मापीठके पास जायेँ.
अथ ब्रह्मा प्रादक्षिण्येन अग्नेर्दक्षिणतो गत्वा.
ब्रह्मासनके अग्निकोणसे ब्रह्मासन अंदर आ जायेँ वैसे प्रदक्षिणरितिसे नैर्ऋत्यकोणतक अविच्छिन्न जलधारा करैं.
स्वासने अग्निमारभ्य प्रादक्षिण्येन उदङ्गमुखीं जलधारामविच्छिन्नां दत्त्वा,
पश्चिमाभिमुख होकर ब्रह्मापीठपर पहले रखे हुए पूर्वाग्र कुशोंमें से एक बायेँ हाथके अनामिका और अंगुठेसे लेकर मंत्रान्ते नैर्ऋत्य की और डाल दैं.
आस्तीर्ण कुशानां पूर्वतः प्रत्यङ्गमुखस्तिष्ठन वामहस्ताङ्गुष्ठानामिकाभ्यां आसनात् कुशं गृहित्वा,
निरस्त इत्यस्य प्रजापतिर्यजुः परावसुर्देवता तृणनिरसने विनियोगः-
ॐनिरस्त परावसुः|गो०गृ१/६/१४ इति यजुषा नैर्ऋत्यां तत् तृणं निक्षिप्य. (जलसे दायेँ कानका स्पर्श करैं.) उदकं स्पृष्ट्वा.
पच्चास दर्भोंसे निर्मित ब्रह्मग्रन्थियुक्त"कुशब्रह्मा"को ब्रह्माजीकी पीठपर स्थापित करैं.
आवसोः इत्यस्य वशिष्ठो यजुः परावसुर्देवता ब्रह्मोपवेशने विनियोगः-
ॐआवसोः सदने सीदामि|गो०गृ १/६/१५
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनःसामवेदे अग्निस्थापन पद्धतिः~
खंड ६* कुश०क/ पात्रासदनम्
अग्नि(कुंड) की उत्तरमें जमीनपर पूर्वसे उत्तरतक हवनीय साधन सामग्री रखने हेतु पात्रासादन के लीए पूर्वाग्र कुशों बीछायें.
अग्नेरुत्तरस्यां पूर्वपूर्वक्रमेण उत्तरदिगताग्रं पात्रासादनार्थं प्रागग्रान् दर्भान् आस्तीर्य.
उन बीछायें हुए कुशोपर उत्तरदिशासे यथाक्रमसे शुद्धजलपात्र(शुद्धोदकम्)
कुशाः ( समूलाग्रकुशों) कांस्यपात्र ( कांस्यपात्रम्)
चारमुष्टिप्रमाणसे कुशों( विशाखच्छिन्न परिस्तरणार्थं मुष्टिचतुष्टयबर्हिः) २० संख्यामें २४ अंगुलके काष्ठ ( प्रादेशद्वयमितो विंशति काष्ठक इध्मः) घृत ( घृतम्)
घी रखनेका पात्र( आज्यस्थाली)
दो समिद्ध १२ अंगुलकी( प्रादेशमितं समिद् द्वयम्)
पाँच कुशों मार्जन हेतु( संमार्गकुशाः)
स्रुव और स्रुची(स्रुक् स्रुवौ)
गरम पानीकापात्र(सुपात्रस्थं उष्णोदकम्)
आठ किलो तंडुल समा जायें उतना तंडुलसे भरा हुआ पात्र ( बहुभोक्तृपुरुषाहार परिमितमन्नादिना पूर्णपात्रम्)
अन्य होमादि द्रव्यों ( अन्यानि उपकल्पनियानि)
गोनिष्क्रय भूतं द्रव्यम्. ( निष्क्रय द्रव्यको गायत्री मंत्रसे अभिमन्त्रीत करैं.)
गायत्र्या तद् अभिमन्त्र्य.
कुशाग्रोसे जलद्वारा पात्रासादनकी साधन सामग्रीको क्रमसे प्रोक्षित करैं.
कुशाग्रगृहितजलेनासादनक्रमेण पात्राणि कर्मसाधन सामग्रीं च प्रोक्ष्य.| परिस्तरणम्*
पात्रासादनमें रखे हुए चारमुष्टि कुशो को दायेँ हाथसे लेकर चार भाग करैं.
आसादित बर्हिश्चतुर्धा विभज्य.
उसमेंसे दायें हाथमें एक भाग लेकर दूसरे तीन भाग अलग अलग रखकर दायें हाथमें रहैं हुए कुशोंमेंसे एकचतुर्थांश भाग कुँड की दूसरी परिधीपर दायेँ हाथसे कुशमूल अग्निकोणमें कुशाग्रों ईशानमें आयें वैसे रखें.
एकं भागं दक्षिणेनादाय.
सव्येकृत्वा तस्माच्चतुर्थाँशमादाय
अग्निकोणादारभ्य उदकसंस्थमग्नेः पुरस्तात् स्तृत्वा.
बायेँ हाथमें रखे हुए कुशोंमेसे द्वितीयाँश भागसे दायेँ हाथसे कुशमूल नैऋत्यमें और कुशाग्रों अग्निकोणमें आयें वैसे पूर्वाग्र रखें.
द्वितीयांशमादाय दक्षिणे आग्नेयी संलग्नं स्तृत्वा.
बायेँ हाथमेंसे तृतीयांश कुशोंको लेकर उत्तरमें वायव्यकोणमें कुशमूल और ईशानमें कुशाग्रों रहैं वैसे पूर्वाग्र रखे.
तृतीयाँशमादाय उत्तरे प्रागग्रम् ऐशानी संलग्नं स्तृत्वा.
बायें हाथमें रहे हुए शेष कुशों को दायेँ हाथसे लेकर पश्चिममें नैर्ऋत्यमें कुशमूल और वायव्यमें कुशाग्रों रहें वैसे उदगाग्र रखे.
चतुर्थांशं पश्चात् नैर्ऋतिकोणादारभ्य उदक् संस्थं स्तृणुयात्.
अब नीचे रखे हुए कुशोंके तीन भागमेंसे एक भाग दायें हाथसे लेकर बायेँ हाथमें रखे.
ततो द्वितीयभागमादाय सव्ये कृत्वा पूर्ववत्स्तरणम्.
पुनः द्वितीयभागके कुशोंमेंसे चौथेभागके कुशों को दायें हाथसे पूर्वमें उदगाग्र रखें.
दक्षिणमें द्वितीयाँशसे पूर्वाग्र रखें.
उत्तरमें तृतीयाँशसे पूर्वाग्ररखे.
पश्चिममें शेष कुशोंको उदगाग्र रखें.
प्रथमास्तृतानां प्रागग्रैः
अग्रैः मूलानिच्छादयन् स्तृत्वा.
पुनः जमीनपर रखें हुए दो भागके कुशोंमेसे एक भाग लेकर पहले बतायें हुए तरिकेसे चारौं दिशामें कुशोंके चारभाग करके रखें
तृतीयभागमादाय पूर्ववत् मूलानि आच्छादयन् स्तृत्वा.
एसी तरह तीनभागोंके कुशों का उपयोग हो गया.अब चौथे भागके कुशोंको यज्ञवास्तु के लिए रहने दें
चतुर्थभागं यज्ञवास्त्वर्थमेव शेषयेत्.
अग्नि(कुंड)की उत्तरमें जमीनपर बीछायें हुए कुशोपर प्रणितापात्र शुद्धजलसे भरकर रखें.
ततोऽग्नेरुत्तरतः शुद्धोदकपूर्णां प्रणीतां स्थापयेत्. ॐप्रणय..
वीश संख्यामें रखे हुए २४ अंगुलके इध्म दायें हाथसे लेकर बायें हाथमें रखे.
आसादित विंशतिध्ममादाय.
दायें हाथ में प्रणिताका थोडा जल लेकर छते हाथसे पानी इध्मपर छिड़के.
प्रणिताभिरद्भिरभ्युक्ष्य.
प्रजापतिका मनसे चतुर्थ्यन्त स्मरणकरके अग्निमें वह इध्म डाल दें.
प्रजापतिं मनसा स्मृत्वा अग्नावादध्यात्...
इदं प्रजातये न मम.
सामवेद की कुशकण्डिका में प्रोक्षणी स्थापन नहीं होता.
पवित्रछेदनम्* चोथे भागके रहे हुए कशोमें से दो कुश पूर्वाग्र रहैं वैसे बायैं हाथमें रखे.
आस्तीर्ण शेषाद् बर्हिषः कुशद्वयमादाय सव्ये कृत्वा.
कुशोंके अग्रभागोसे १२अंगुल के मापसे( प्रादेश) जव या खील(डांगर) रखके उन कुशमूलोंको अग्रभागतक मोड़कर दायें हाथसे नखका स्पर्श किये बिना समंत्र छेदन करैं.
प्रादेशमात्रं मिमीय व्रीहि यवद्यौषधी मन्तर्धाय मन्त्रेण छिनेत् न नखेन.
ॐपवित्रे स्थो वैष्णव्यौ| गो० गृ०१-७-२०)
कुशके छिनेहुए मूलोंको उत्तरकी जमीनपर फैंक दे. ते पवित्रे गृहित्वा द्वयोर्मूलं उत्तरतः निक्षिप्य.
पवित्रोंको बायें हाथमें रखकर दायें हाथसे प्रणिताके जलसे समन्त्र प्रोक्षण करें.
ते पवित्रे सव्येन गृहित्वा प्रणितोदकेन दक्षिणहस्तेन च प्रोक्षेत् .अनेन मन्त्रेण
ॐविष्णोर्मनसा पूते स्थः|गो०गृ०१-७-२१इति प्रणिताद्भिः प्रोक्ष्य.
आज्य संस्कारः* आज्यस्थालीको अग्नि और अपनेसे बीच जमीनपर रखे.
आज्यस्थालीं आत्माग्नयोरन्तराले संस्थाप्य.
उस आज्यस्थालीमें दो कुश उदगाग्र रखें.
तस्यामुदगग्रे पवित्रे संन्यस्य.
पात्रासादनमें रखा हुआ घी आज्यस्थालीके पवित्रोपर गिरे वैसे आज्यस्थालीमें डालें.
आसादितमाज्य मादाय सपवित्रायामाज्यस्थाल्यामावपेत्.
आज्यस्थालीमे रखे हुए कुशो के पीछले हिस्से( अन्त्यभाग) को दोनों हाथके अंगुठेसे और पवित्राग्रों को दोनों अनामिकासे पकडे़ं.
ततोऽगुङ्गुष्ठाभ्यां पवित्रे मूलदेशे संगृह्य अनामिकाभ्यां अग्रदेशे गृहित्वा.
पवित्राग्रों पूर्वतरफ. रहैं वैसे कुशमध्यभागोंसे आज्यस्थालीके घीको पश्चिम मेंसे उंचा ( उपरकी और)मन्त्रपढकर छिंडके.
आज्यस्थाल्याः आज्यं मध्यतः पवित्राभ्यां ॐ देवस्यत्वा सवितोत्पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्यस्य रश्मिभिः| गो०गृ०१-७-२३) इति मन्त्रेणैकवारं उत्पूय.
पुनः मौन होते हुए इसी तरह मध्यके भाग और पूर्वभागके आज्यका उत्पवन करैं.
एवं तूष्णीं वारद्वयं मध्ये पूर्वदेशे चोत्पूय.
उन पवित्रोंको बायें हाथमें रखकर दायें हाथसे प्रणिताके जलसे पवित्रोंको धोकर वह पवित्रों अग्निमें समर्पित करें.
पवित्रे सव्येनादाय दक्षिणेन प्रणिताभिरद्भिः संप्रोक्ष्याग्नौ प्रक्षिपेत्.
आज्यस्थालीको अग्निपर रखकर घीको गरम करैं.
अग्नौ आज्यमधिश्रित्य.
घी गरम हो जायें तब आज्यस्थालीको अग्नि( कुंड) से उत्तरमें जमीनपर रखकर उस आज्यस्थालीको अग्नि( कुंड) की पश्चिम दिशामें जमीनपर रख दें.
उदगोद्वास्य.आत्माग्न्ययोरन्तराले आसादयेत्.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः
सामवेदे अग्निस्थापन पद्धतिः~
खंड १० कुश० क०
प्रसेचनम्* प्रणिता का जल दायें हाथमें लेकर बाये हाथसे दाये हाथके मणिबंधका स्पर्श करते हुए कुंड(अग्नि) की दक्षिण दिशामें नैर्ऋत्यसे अग्निकोण पर्यन्त जलधारा करैं.
प्रणितास्थं जलं हस्तद्वयेनादाय अग्नेर्दक्षिणतः
ॐअदितेऽनुमन्यस्व(गो०गृ०१-३-१)
इति प्रसिञ्च्य..
पुनः प्रणिता के जलसे पश्चिममें नैर्ऋत्यसे वायव्य कोणतक जलधारा-
पश्चात् ॐअनुमतेऽनुमन्यस्व|
गो०गृ० १-३-२)
पुनः तीसरी बार प्रणिताजलसे उत्तरमें वायव्यसे ईशानकोण तक जलधारा
उत्तरतः ॐसरस्वत्यनुमन्यस्व|
गो०गृ१-३-३
ततो हस्तेन जलमादाय देवसवितरिति प्रजापति स्त्रिष्टुप् सविता पर्युक्षणे विनियोगः
पर्युक्षणम्- दायें हाथमें प्रणिताका थोडा जल लेकर कुंड( अग्नि) की बहारी सीमामें ईशान कोणसे ईशान कोणपर्यन्त वैसे पर्युक्षणकी तीन जलधारा देवें.
ॐदेव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय| दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु| मं०ब्रा१-१-१ एवं प्रदक्षिणमग्निं सकृत् त्रिर्वा पर्युक्ष्य.
ब्रह्मायजन- दायें हाथमें गंधाक्षतपुष्प और कुश रखें.
ततो दक्षिणेन गंधाक्षतकुशानादाय.
ॐतपश्च तेजश्च श्रद्धा च ह्रीश्च सत्यं चा क्रोधश्च त्यागश्च धृति श्च धर्मश्च सत़्त्वं च वाक्चमनश्चात्मा च ब्रह्म च तानि प्रपद्ये तानि मामवन्तु भूर्भुवःस्वरों३ महान्तमात्मानं प्रपद्ये| विरुपाक्षोसिदन्तांजिस्तस्य ते शय्यापर्णे गृहा अन्तरिक्षे विमितँ हिरण्मयं तद्देवानाँ हृदयान्ययस्मये कुम्भे अन्तः सन्निहितानि तानि बलभृच्च बलसाच्च रक्षतो प्रमनी अनिमिषतः सत्यं यत्ते द्वादशपुत्रास्ते त्वा संवत्सरे संवत्सरे कामप्रेण यज्ञेन याजयित्वा पुनर्ब्रह्मचर्यमुपयन्ति त्वं देवेषु ब्राह्मणोस्यहं मनुष्येषु ब्राह्मणो वै ब्राह्मणमुपधावत्युपत्वा धावामि जपन्तमामाप्रतिजापीर्जुह्वन्तं मामाप्रतिहौषीः कुर्वन्तं मामाप्रतिकार्षीस्त्वां प्रपद्ये त्वया प्रसूत इदं कर्मकरिष्यामि तन्मेराध्यतां तन्मे समृध्यतां तन्म उपपद्यताँ समुद्रोमा विश्वव्यचा ब्रह्मानुजानातु तुथोमा विश्ववेदा ब्रह्मणः पुत्रोऽनुजानातु श्वात्रोमा प्रचेतामैत्रारुणोऽनुजानातु तस्मै विरुपाक्षाय दंतांजये समुद्राय विश्वव्यचसे तुथाय विश्ववेदसे श्वात्राय प्रचेतसे सहस्राक्षाय ब्रह्मणः पुत्राय नमः|मं०ब्रा १-४-५) ब्रह्मणे नमः सर्वोपचारान् सम०
कुशके बिना पुष्पाक्षत ब्रह्माजीको चढाकर कुशसहित हाथ वापस लाकर कुश अग्निमें डाल देवैं.
इत्यन्तं पठित्वा पुष्पाक्षतमग्नेः प्रादक्षिण्येन सामाचाराद् ब्रह्मणे दत्वा तथैव हस्तं परावर्त्याग्नौ समिधं प्रक्षिपेत्. स्रुवेको दायेँ हाथसे लेकर पात्रासादनमें रखे हुए गरम पानीसे धों ले. ततः स्रुव मेक्षणं च दक्षिणेनादाय आसादितोष्णोदकेन प्रक्षाल्य. स्रुवेको बायें हाथमें लेकर दायें हाथसे संमार्गकुशों५ द्वारा कुशाग्रोंसे सीधे स्रुव के मूलभाग और अग्रभाग छिद्र सहितका संमार्जन करें. स्रुवा उलटा करके कुशमूलोंसे संमार्जन करैं.
सव्ये कृत्वा आसादितान् सम्मार्गकुशानादाय संमार्गकुशैरग्रैर्मूलतो पर्यन्तं स्रुवं समृज्य.
दायें हाथमें स्रुवको रखकर उलटाकरके अग्निपर तपायें.
दक्षिणेनादाय.अधोमुखं प्राञ्चमग्नौ प्रताप्य. दायें हाथमें लेकर दायें हाथसे प्रणिताके जलसे स्रवेंका प्रोक्षण करें.
सव्ये कृत्वा प्रणिताभिरद्भिः संप्रोक्ष्य. स्रुवको बताये हुए तरीके से सम्मार्जन करैं.
पुनस्तथैव कुशैः संमार्ज्य.
अग्निपर स्रुवको उलटाकरके तपायें.
पुनरेवप्रताप्य. घी और चरुस्थालीसे बायीँ और पूर्वाग्र कुशोपर स्रुवा रखें.
आत्माग्न्ययोरन्तराले आज्यचर्वोत्तरत कुशाग्रोपरि आसादयेत्. आज्यभाग होमः-
स्रुवके मूलसे चार अंगुल भाग छोडकर स्रुवेको पकडे़.
ततश्चतुरङ्गुलं स्रुवस्य मूलं त्यक्त्वा स्रुवमादाय.
अग्निमें उत्तरभाग के उपरके हिस्सेमें( ईशान की और) होम करें.
अग्नेरुत्तरभागे प्राञ्च जुहुयात्.
ॐअग्नये स्वाहा- इदमग्नये न मम. केवल उच्चार ( प्रणितामें त्याग नकरैं) अग्निके दक्षिण भागमें ( अग्निकोण तरफ) अग्नेर्दक्षिणभागे प्राञ्च जुहुयात्.
ॐसोमाय स्वाहा- इदं सोमाय न मम.चान्द्रमसनामाग्निं पञ्चोपचारैः सम्पूज्य"व्याहृति त्रयहोमः~ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम"ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम" पुनःपुंसवनाङ्गव्याहृतिचतुष्टय होमः~ॐभूःस्वाहा-इदं अग्नये न मम"ॐभुवःस्वाहा-इदं वायवे न मम" ॐस्वःस्वाहा-इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा-इदं प्रजापतये न मम"स्विष्टकृद्धोमं समाप्य"
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पत्नीके पीछे पूर्वाभिमुख रह कर(ततो वध्वाः पश्चिमतः प्राङ्गमुखोऽवस्थाय)"दायेँ हाथसे पत्नीका दायें कँधे का मौन रहते हुए स्पर्श करैं.(दक्षिण हस्तेन पत्न्या दक्षिण स्कन्धं तूष्णीं अभिमृश्य)" उनके वस्त्रमें हाथ से पत्निकी नाभिपर मंत्र पढकर हाथ घुमायें.(वस्त्रादिभिरव्यहितां नाभिमभिमृशन्मन्त्रेण - पुंमांसावित्यस्य प्रजापतिरनुष्टुप् मित्रावरुणादयः नाभ्यभिमर्शने विनियोगः- ॐपुमा गुं सौ मित्रावरुणौ पुमा गुं सावश्विनावुभौ| पुमानग्निश्च वायुश्च पुमान् गर्भस्तदोदरे|| पुनःव्याहृतित्रयं हुत्वा||
समिध अग्निमें समर्पित करके अग्निका प्रणिताजलसे तीन बार पर्युक्षण करें.
समिधं हुत्वा,देवसवितरिति पर्युक्षणं कुर्यात्- ॐदेव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय| दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु|मं०ब्रा १-१-१)
दक्षिणमें नैर्ऋत्यसे अग्निकोणपर्यन्त जलधारा- ॐअदितेऽन्वमँस्थाःइति दक्षिणतः
नैर्ऋत्यसे वायव्यकोण पर्यन्त पश्चिममें जलधारा- ॐअनुमतेऽन्वमँस्थाः इति पश्चिमस्याम्.
उत्तरमें वायव्यकोणसे ईशानकोण पर्यन्तजलधारा-
ॐसरस्वत्यन्वमँस्थाः इत्युत्तरतः पूर्ववत् प्रसेचनं कृत्वा.
यज्ञवास्तु करणम्- परिस्तरण समयपर जो शेष कुशों रखे हुए थे उनको दायें हाथकी मुष्टिमें रखकर कुशों को अभ्यञ्जन करावें.( शेष घृतादिका स्पर्श)
परिस्तरण समयावशेषित बर्हिमुष्टिं दक्षिणेनादाय प्रजापतिर्यजुर्विश्वेदेवाः बर्हिरभ्यञ्जने विनियोगः-
आज्यस्थालीके आज्यसे
अभ्यञ्जन- ॐअक्तुँ रिहाणा व्यन्तु वयः| गो०गृ० १-८-२६)
इतिमन्त्रेण आज्यस्थालीस्थे आज्ये, शेष चरुका कुशाग्रोंसे स्पर्श- तद् अनवशेषे चरौ वा अग्राण्यभ्यज्य.
पुनः मौन होते हुए दो बार घी और चरुका स्पर्श करायें.
पुनः द्विस्तूष्णिम् अभ्यज्य.
दायें हाथसे कुशोंको मूलोंसे पकड़कर अग्रभागोंको बायें हाथसे पकड़े.
ततो दक्षिणेन मूलदेशे संगृह्याग्रदेशे वामेन संगृह्य,
देवसवितः मन्त्रसे कुशोके मध्यभागका घीसे स्पर्श करायें.
मौन होते हुए दो बार घीका स्पर्श-
सकृन्मन्त्रेण द्विस्तूष्णिम्.मध्यमदेशमभ्यज्य.
दायें हाथसे कुशोके मध्यभागसे मूलभागके अंतर बीचमेंसे पकडें.
दक्षिणेन मध्यदेशादधो गृहित्वा.
पुनः देव सवितः मन्त्रसे कुशमूलोंका स्पर्श और मौन होकर दोबार स्पर्श करायें.
पूर्ववन्मूलदेशमभ्यज्य.
दायें हाथमेंसे बायें हाथमें कुशोंको लेकर दायेँ हाथसे प्रणिताके जलसे कुशोपर जल मुष्टिसे छिड़के.
सव्ये कृत्वा,दक्षिणेन प्रणिताभिरद्भिरभ्युक्ष्य.
दायें हाथसे लेकर मंत्रान्ते कुशोंका होम करैं.दक्षिणेनादाय बर्हिहोमं कुर्यात्.
ॐयःपशूनामधिपती०|गो०गृ०१-८-२७) इदं रुद्राय पशुपतये न मम.प्रणिताके जलका स्पर्श करै्.
घीसे मन्त्रान्ते आहुति दें.-
ॐवसुभ्यःस्वाहा- इति मन्त्रेण स्रुवेणाज्याहुतिं हुत्वा.इदं वसुभ्यो न मम.
अग्निकी प्रदक्षिणा करैं- ततो प्रदक्षिणमग्निं परिक्राम्य,
प्रणिताका जल पश्चिमकी और गिरादें.
चमसं(प्रणिता) निनिय.
फिरसे जलभरकर प्रणिताको उनके स्थानपर कुंडसमिप रखें.
पुनः पुरयित्वा,स्थाने निदध्यात्,
आचारसे प्रणिताके गिरे हुए जलसे यजमानको प्रोक्षित करैं.
आचारात् सुसम्प्रोक्षितमस्तु,
ब्रह्मणे ( पात्रासादन समये आसादित )पूर्णपात्रं सफलं सदक्षिणाकं ब्रह्मन् तुभ्यमहं सम्प्रददे न मम"ब्राह्मणेभ्यो दक्षिणां दत्वा" दशब्राह्मणान्भोजयेत्|| इति मंत्रात्मक नाभि अभिमर्शनमात्रेण पुंसवनम्
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ|| शेष पुनः

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