अनुपनीतस्य उपवीतादौ आचाराः

षोडशसंस्काराः(अनुपनीतस्य उपवीतादौ आचाराः)खंड १०५~ प्रागुपनयनात्कामचारवादभक्षाः इति गौतमः| उपनयनसे पहलें बालकको यथेष्ट आचरण,यथेष्ट भाषण और यथेष्ट भक्षण करनेका दोष नहीं" भक्षणं लशुनादेरपि इति हरदत्तः| लहसुन वगेरह भक्षणका भी दोष नहीं ऐसा हरदत्त ने कहा हैं| यह व्याख्या अनजानेमें किये हुए भक्षणादिके लिए हैं | इसका मतलब यह नहीं कि जो मरजीमें आयें वह बालकको खीलाना चाहिये" बालकने स्वतंत्रतासे सङ्गतिके वशात् जो अनाचार,अभक्षण,अभाषण किया वह दोषरूप नहीं | परंतु जानबुझकर उपनयनसे पहलें बालकको दोष नहीं लगता यह गिरौनी सोच से बालकको जो मरजी में आयें वह बोलने दो खाने दो या आचरण करनें दो यह "माता पिता का लक्षण नहीं" *माताशत्रु पितावैरी येन बालो न पाठितः| न शोभते सभामध्ये हँस मध्ये बको यथा |" माता पिता का कर्त्तव्य हैं कि बालकको उपनयनसे पहले ही अच्छे संस्कारोंकी जानकारीयाँ दे और कुलपरम्परा तथा ऋषिकुल परम्परा से प्रभावित करैं |
***प्राक् चूडाकरणाद्बालः प्रागन्नप्राशनाच्छिशुः| कुमारकस्तु विज्ञेयो यावन्मौञ्जीनिबन्धनम्|| अन्नप्राशन छहमासपुरे होनेसे पहले बालककी अवस्था शिशु,चूडाकरण दोवर्षपुरे होनेसे पहले शिशुकी अवस्था बालक,तथा उपनयन संस्कार होनेसे पहले यानी आठवर्ष पुरे होने से पहले कुमार की अवस्था हैं | शिशोरभ्युक्षणं प्रोक्तं बालस्याचमनं स्मृतम् | रजस्वलादि संस्पर्शे स्नानमेव कुमारके ||वृद्धशातातपः|| अपरार्कमें वृद्धशातातपके वचनसे रजस्वला चांडाल आदिका स्पर्श होनेसे शिशुको जल छांटना चाहिये,बालकको बैठाकर शुद्धजलसे तीन आचमन करायें, कुमारको स्नान करना चाहिये| "बालस्य पञ्चमाद्वर्षाद्रक्षार्थं शौचमाचरेत् इति स्मृतेः||" पाँचवे वर्षतक रक्षाके लिए भी स्नान करवाना चाहिये | "ऊनैकादशवर्षस्य पञ्चवर्षात् परस्य च | चरेद्गुरुः सुहृच्चैव प्रायश्चित्तं विशुद्धये || हरदत्तः|| पाँचवर्षसे अधिक और ग्यारहवर्षपूर्णसे कम हों ऐसे बालकको अशुद्धि प्राप्त हो तो बालकके पिता अथवा दूसरे सबंधीजनको बालककी शुद्धिके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिये || सूतकाद् द्विगुणं शावं शावाद् द्विगुणमार्तवम्| आर्तवाद् द्विगुणा सूतिस्थतोऽपि शावदाहक || स्मृतेः|| जननसूतकसे अधिक मृत्युसूतकका दोष हैं, मृत्युसूतक से अधिक रजस्वला के स्पर्श का दोष हैं, रजस्वला से अधिक सूतिकाके स्पर्शका दोष हैं और सूतिकासे अधिक शबदाह करनेवालेका स्पर्शका दोष हैं|| अतः रजस्वलादिकके स्पर्शादिसे प्रायश्चित्त करना जरुरी हैं| विद्वान् को स्वयं उचित अनुचितका ध्यान रखतें हुए कैसे गृहमें अवागमन तथा भोजन करना पानी आदि भी पीना विचारणीय हैं|
ॐस्वस्ति| पु ह शास्त्री उमरेठ| शेष पुनः

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