निष्क्रमणम्

षोडश संस्काराः(निष्क्रमणम्) खंड६६~ बैजिक गार्भिक दोषोका शमन तथा आयुष्काम इस संस्कारका महत्व हैं.भगवान् सूर्य नारायण कर्मनिष्ठ और तेजोमय हैं इनकी कृपासे शिशु श्रेष्ठ नैष्ठिककर्म में प्रवृत्त तथा तेजस्वी हो इस सब प्रकारसे रक्षा हो इस उद्देश्यसे यह संस्कार" चतुर्थे मासि कर्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्||मनुस्मृतिः|| पारस्कर गृह्यसूत्रे->" चतुर्थे मासि निष्क्रमणिका|| सूर्यं उदीक्षयति तच्चक्षुरिति||" जन्मसे चौथे मासमें सूर्यनारायण, दिक्पाल,दिशायें,चन्द्र,अर्क, वासुदेव,गगन आदिके पूजनकर सूतिका गृहसे सूर्यनारायणके दिव्य तेजोमय प्रकाशमें ले जायाँ जाता हैं.वर्तमान स्थिति यह हैं कि" दवाखानोंमें गर्भिणीकी प्रसूती कराई जाती हैं; और एक दो दिनमें घर ले जाते हैं , ऐसेमें दवाईखानोंका वातावरण तथा शिशुके जनमतें ही प्रकाशको देखनेसे बालकके कान और आँखोकी बीमारीयाँ होनीकी सँभवना होती हैं.अस्तु
वर्तमान में भले ही दवाईखाने में से खुले वातावरण में ले जाना पड़े परंतु - बालक की आँखो पर तेज न आएँ ऐसा मुख पर दोतीन गुने वस्त्र से ढ़ककर कान में रुई ड़ाले - >> वातावरण प्रसूतिका ऐसा होना चाहियेकि जहाँ शांत और पवित्र वातावरण हों किसीभी तरह भगवन्नाम स्मरणका गुंजारव हो, सवर्ण जातियाँ हो, प्रकाश दीपकका ही हो या बहोतकम प्रकाश हों, जन्मसे पहलीबार नवजात शिशुको प्रथम दिव्य प्रकाशकी अनुभूति हो तथ्य यह हैं कि परमात्मासे न कोई ज्यादा पराक्रमी और न कोई तेजस्वी हैं.
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पूर्वानूक्रम--- निष्क्रमण-सं० विधान एक दिन का हैं परंतु जबतक निष्क्रमण संस्कार नहीं हो जाता तबतक प्रसुतिगृह या अपने गृह में बालकको ज्यादा तेज और भारी आवाजों से दूर रखना यही यथार्थ पूर्वानुक्रम सहित निष्क्रमण संस्कार सार्थक हैं | अतः वर्तमान में स्वगृह में रहैं | ज्योतिर्निबन्धके मतसे" तृतीये वा चतुर्थे वा मासि निष्क्रमणं भवेत्||" जन्मसे तीसरे या चौथे मासमें निष्क्रमण कहा हैं. यह नियम सामवेदियोंके लिये है| ततस्तृतीये कर्तव्यं मासि सूर्यस्य दर्शनम्|| चतुर्थे मासि कर्तव्यं शिशोश्चन्द्रस्य दर्शनम्|| यमस्मृतौ|| सामवेदियोंको तीसरे मासमें सूर्यका तथा चौथे मासमें चन्द्रका दर्शन करवाना चाहिये." अत्र- सूर्येन्द्वोःकर्मणी ये च तयोः श्राद्धं न विद्यते|| इति छन्दोगपरिशिष्टात् छन्दोगानां(सामवेदिनां) निष्क्रमणे वृद्धिश्राद्धं नास्तीति कल्पतरु:||" शिशुको सूर्यदर्शन और चन्द्रदर्शन करानेमें वृद्धिश्राद्ध नहीं होता- ऐसा छंदोगपरिशिष्टमें कहा हैं इसलिये सामवेदियोंके निष्क्रमणमें वृद्धिश्राद्ध नहीं हैं ऐसा कल्पतरु कहता हैं. ---------------------------------------------------
शार्दूलविक्रिडितछंदः- मैत्रे पुष्यपुनर्वसु प्रथमभे पौष्णेनुकूले विधौ हस्ते चैव सुरेश्वरे च मृगभे तारासु शस्तासु च|| कुर्यान्निष्क्रमणं शिशोर्बुधगुरौ शुक्रे विरिक्ते तिथौ कन्या कुम्भतुलामृगारि भवने सौम्यग्रहालोकिते||व्यासः|| अनुराधा,पुष्य, पुनर्वसु, अश्विनी, ज्येष्ठा, मृगशिरा, रेवती, और हस्त इतने नक्षत्र तथा शुभतारा अनुकुलचन्द्र हो तब बुध ,गुरु ,शुक्र इन वारोमें, रिक्ता(४/८/१४) इन तिथियोंको त्यागकर अन्य तिथियोंमें, सौम्यग्रहकी दृष्टिवालें कन्या,कुंभ,तुला,तथा सिंह इतने लग्नोंमे, शिशुका निष्क्रमण करना चाहिये.
ॐस्वस्ति||पु ह शास्त्री.उमरेठ. शेष पुनः
षोडश संस्काराः(निष्क्रमणम्)खंड ६७~ अन्नप्राशनकाले वा कुर्यान्निष्क्रमणक्रियाम्||मदनरत्ने||
मदनरत्नमें कहां हैं कि चौथेमास अथवा अन्नप्राशन(षष्ठेमासे अन्नप्राशनम्||पारस्कर गृ०सू०||छठ्ठेमासमें ) समय शिशुका निष्क्रमणसंस्कार करैं.
दिगीशानां दिनेतत्र तथा चन्द्रार्कयोर्द्विजैः|| पूजनं वासुदेवस्य गगनस्य च कारयेत्||बहिर्निष्कासयेद्गेहात् शंखपुण्याहनिस्वनैः|| चन्द्रार्कयोर्दिगीशानां दिशां च गगनस्य च|| निक्षेपार्थमिमं दध्मि ते मे रक्षन्तु सर्वदा|| अप्रमत्तं प्रमत्तं वा दिवारात्रमथापि वा|| रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः||विष्णुधर्मे||
विष्णुधर्ममें कहा हैं कि निष्क्रमणके दिन यजनके लिए ब्राह्मणों(तीन या तीन से ज्यादा) को निमंत्रित करकें दिक्पाल,चंद्र,सूर्य,विष्णु,तथा आकाशका पूजन करायें.शंखवादन और पुण्याहके शब्दोंको उच्चारतें हुए शिशिको सूतिकागृह(या निमित्तकगृह)से बहार ले जायें. उस समय देवताओंको प्रार्थना करैं कि " चंद्र,सूर्य, दिक्पालों, दिशायें, और आकाश! यह शिशु आपको रक्षणके लिये सोंप रहा हूं.आप देवताओं! इस शिशुका सर्वदा रक्षण करैं.रात्रि तथा दिनमें यह बालक किसीकेसाथ सुरक्षित हों या न हों सभी समयमें सर्व ईन्द्रादिक देवताओं इस शिशुका सर्वदा रक्षण करैं. ॐस्वस्ति||🌞पु ह शास्त्री.उमरेठ.🌝 शेष पुनः💥
षोडश संस्काराः(गृहनिष्क्रमणम्)खंड६८~ गर्भाधानादि नामकरणसंस्कार कालातिक्रम संस्कार सहित गृहनिष्क्रमण संस्कार विधानम्*
अमुक शर्माहं मम जातस्य शिशोः जरायुजटित विविध उच्चावच मातृ चर्वितान्न विषमार्तिक गर्भाम्बुपान जनित सकल दोष निबर्हण आयुर्मेधावृद्धि बीज गर्भ समुद्भवैनो निबर्हणार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं जातकर्म संस्कारं, आयुः वृद्धि व्यवहारसिद्धिः" बीज गर्भ समुद्भव एनो निबर्हण द्वारा( बैजीक और गार्भिकपापोंके शमन तथा आयुः और व्यवहार कामनासे) नामकरणसंस्काराख्यं, बीजगर्भसमुद्भवैनो निबर्हण द्वारा आयुः श्रीवृद्धि द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं गृहनिष्क्रमण संस्कारं च तंत्रेण करिष्ये..
तदङ्गत्वेन गणपतिपूजनं मातृकापूजनं वैश्वदेवसंकल्पं आयुष्मंत्रजपं नान्दीश्राद्धं ब्रह्माचार्यादि वरणं करिष्ये.... तानि कर्माणि कृत्वा~>
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गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतसंस्कार यह संस्कार त्रय जन्मके पहले किये जाने वालें कईं आचार्योंके मतसे प्रतिगर्भ संस्कार हैं. जो संस्कार समयसर वैदिक विधान अनुसार न किया हों और जन्मोत्तरके जातकर्मादि संस्कार करवाना हों तों पहले जन्मसे पहले किये जाने वाले यह तीन कालातिक्रम संस्कारोंका अनादिष्टप्रायश्चित्तहोम करकें प्रायश्चित्तार्थ प्रतिसंस्कार पादकृच्छ्रव्रतरूप गायत्रीमंत्र जपका संकल्प करना होता हैं.तथा जन्मोत्तर जातकर्म,नामकरण संस्कारद्वय निष्क्रमणसंस्कारसे पहले न कियें होतो उनकाभी प्रायश्चित्त करना अनिवार्य हैं..यह कालातिक्रमदोष परिहारके लिये कियेजाने वालें प्रायश्चित्तसे गृहनिष्क्रमणसंस्कारका अधिकारत्व प्राप्त होता हैं.
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अनादिष्टप्रायश्चित्त होमः- गणानांत्वा०|| संकल्पः अस्य(अस्या)शिशोः जन्मपूर्वे गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतसंस्काराणां जन्मोत्तर जातकर्म,नामकर्म संस्कारयोश्च स्व स्वकाले अकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं अनादिष्ट प्रायश्चित्तं होष्ये..अरत्निमात्रेस्थंडिले भूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" अग्निं ध्यात्वा-अत्र ब्रह्मोपवेशनं नैवम्- आज्यं निरुप्य अधिश्रित्य" स्रुवं प्रताप्य स्रुवस्य कुशाग्रैः सम्मार्ज्य तदग्रमूलमध्यानि शोधयित्वा पुनः प्रताप्य " स्वदक्षिणे कुशानामुपरि निधाय" आज्योद्वास्य कुशरूपे द्वेपवित्रे कृत्वा पवित्राभ्यां आज्यस्य त्रिरोत्पूय आज्यमवेक्ष्य" जलेन ईशान कोणादारभ्य ऐशानपर्यन्तं पर्युक्षणं कृत्वा न इतरथावृत्तिः विट् नामाग्नये नमः इति सम्पूज्य० जुहुयात्- (ब्रह्मोपवेशनादि अभावात् त्यागदानं न किन्तुपठनमेव)गर्भाधान अनादिष्टम्- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"पुंसवनअनादिष्टम्-ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"सीमन्तोन्नयनअनादिष्टम्-ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"जातकर्मअनादिष्टम्- ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"नामकरणअनादिष्टम्-ॐभूः स्वाहा- इदं अग्नये न मम" ॐभुवः स्वाहा- इदं वायवे न मम" ॐस्वः स्वाहा- इदं सूर्याय न मम" ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- इदं प्रजापतये न मम"
ॐत्वन्नोऽअग्ने वरुणस्य०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐसत्वन्नोऽअग्ने वमो०स्वाहा- इदं अग्निवरुणाभ्यां न मम" ॐअयाश्चाग्ने०स्वाहा- इदं अग्नये अयसे न मम" ॐ जेते शतंवरुण० इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्योदेवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम"ॐ उदुत्तमं वरुणपाश०स्वाहा- इदं वरुणायादित्यायादितये च न मम"ॐप्रजापतये स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" अनेन अनादिष्टप्रायश्चित्त कृतेन गर्भाधानादि नामकरणसंस्काराणां कालातिक्रम दोष परिहारोस्तु| पुनःसंकल्पः- अस्य(अस्या) शिशोः जन्मपूर्वे गर्भाधान,पुंसवन,सीमंतसंस्काराणां स्व स्व कालेअकरण जनित प्रत्यवाय परिहारार्थं कालातिक्रम दोषनिवृत्ति पूर्वकं जातकर्म,नामकर्म,निष्क्रमणसंस्कारेषु अधिकार प्राप्त्यर्थं गर्भाधानकालातिक्रम दोष परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रगायत्रीमंत्र जपं, पुंसवन कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्रगायत्रीमंत्र जपं, सीमंतसंस्कार कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्रीमंत्र जपं, जातकर्मसंस्कार कालातिक्रमदोष प्रत्यवाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्रीमंत्र जपं,नामकरणसंसार कालातिक्रमदोष प्रत्वाय परिहारार्थं पादकृच्छ्ररूपं सहस्र गायत्रीमंत्र जपं (कुल गर्भाधानसे नामकरणपर्यंतके ५०००गायत्रीमंत्र जप) स्वयं (वा ब्राह्मण द्वारा) आचरिष्ये.तेन गर्भाधान,पुंसवन, सीमंत, जातकर्म,नामकर्म संस्काराणां कालातिक्रमदोष परिहारोस्तु|| जातकर्म, नामकरणसंस्कारयोः अधिकारप्राप्तिरस्तु||
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कालातिक्रम जातकर्मसंस्कारः- अद्येत्यादि..... अमुक शर्माहं मम जातस्य शिशोः जरायुजटित विविध उच्चावच मातृ चर्वितान्न विषमार्तिक गर्भाम्बुपान जनित सकल दोष निबर्हण आयुर्मेधावृद्धि बीज गर्भ समुद्भवैनो निबर्हणार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं जातकर्म संस्कारं करिष्ये....| तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनम्(कर्मांग देवता मृत्युः)च करिष्ये..
अथ जातकर्मम्->
मेधाजननम्* ततः शिशुं दक्षिणकरस्यानामिकया स्वर्णांतर्हितया विषममात्रया मधु घृते एकी कृत्य प्राशयति"(पिता विषम मात्रामें मधु और गोघृत मिश्र करके सुवर्णशलाकासे शिशुको मंत्रके साथ क्रमसे शिशुको चार बार चटायें.) भूरादिव्याहृति त्रयस्य प्रजापति र्ऋषिः गायत्री उष्णिक् अनुष्टुप् छन्दांसि अग्नि र्वायुर्सूर्याश्च देवताः समधुघृत प्राशने विनियोगः- मंत्राः ॐभूःस्त्वयि दधामि(१)" ॐभुवः स्त्वयि दधामि(२)"ॐस्वः स्त्वयि दधामि(३)"ॐभूर्भुवःस्वः सर्वं त्वयि दधामि(४)" एतच्च मेधाजननम्.....
बालिकाको - बिना वेद मंत्र पढे तीनबार " नमो भगवते वासुदेवाय " अथवा " ऐं वाग्वादिन्यै नमः" मंत्रसे मधुघृत प्राशन करायैं.
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आयुष्यकरणम्*शिशुके दायेंकान समीप या नाभिसमीप मंत्रोका पठन करैं." √कुमारस्य नाभिसमीपेवा दक्षिणकर्णसमीपे अग्निरित्यादि मन्त्रान् जपति" यथा* अग्निरायुष्मानित्यादि अष्टमंत्राणां प्रजापति र्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता: जपे विनियोगः- ॐअग्निरायुष्मान्स वनस्पतिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(१) ॐसोमऽआयुष्मान्सऽओषधिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(२) ॐब्रह्मायुष्मत्तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(३) ॐदेवाऽआयुष्मन्तस्तेमृतेनायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(४)ॐऋषयऽआयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मान्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(५) ॐपितरऽआयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(६) ॐयज्ञऽआयुष्मानास दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(७) ॐसमुद्रऽआयुष्मान्स दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(८) यह आठों मन्त्रोंकी पुनः दो आवृत्ति करैं.(इत्येतावत् पर्यन्तम् पुनर्त्रिः जपति) तत त्र्यायुखं इति च त्रिर्जपति)त्र्यायुखं मंत्र तीनबार पढैं." ॐत्र्यायुखञ्जमदग्ग्ने:०तात्पर्य- जमदग्नि,कश्यप(विपरितं भवति पश्यकः यः कं(ब्रह्म)पश्यति सः पश्यकः" और देवों जैसी लंबी आयु मिले तथा उनके जैसा बालक हों | इत्येता त्रिर्वारं पठित्वा" बालककी सर्वविध उन्नति और दीर्घायुकी कामनासे शिशुके अंगोंका स्पर्श करतें हुए "दिवस्परि"इत्यादि ११ मंत्रोका पाठ करैं.दिवस्परिप्रभृति मंत्ररुद्रस्य वत्सप्रीऋषिः त्रिष्टुप् छंदः अष्टमस्य पंक्तिश्छंद आयुर्देवता परिमर्शने विनियोगः- ॐदिवस्परि प्रथमञ्जज्ञेऽअग्निरस्मद् द्वितीयं परि जातवेदाः| तृेतीयमप्सु नृेमणाऽअजस्रमिन्धानऽ एनञ्जरते स्वाधीः||१|| विद्मातेऽ अग्ने त्रेधा त्रयाणि विद्मा ते धाम विभृेता पुरुत्रा| विद्मा ते नाम परमङ्गुहा जद्विद्मा तमुत्सं जतऽआजगन्थ||२|| समुद्रे त्वा नृेमणा ऽअप्स्वन्तर्नृेचक्षाऽईधे दिवो अग्न ऽऊधन्| तृेतीये त्वा रजसि तस्थिवा गुं समपामुपस्थे महिखा ऽअवर्धन्||३|| अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद् वीरुधः समञ्जन्सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः||४|| श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीखाणां प्रारेपणः सोमगोपाः| वसुः सूनुः सहसोऽअप्सु राजा विभात्यग्रऽ उषसाभिधानः||५||
विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भऽआ रोदसीऽअपृेणाज्जायमानः| वीडुञ्चिदद्रिमभिनत् परायञ्जना जदग्निमयजन्त पञ्च||६||उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्त्येख्वग्निरमृेतो निधायि|इयर्त्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिखा द्यामिनक्षन्||७|| दृेशानो रुक्मऽउर्व्या व्यद्यौद्दुर्मरेखमायुः श्रिये रुचानः| अग्निरमृतोऽ अभवद्वयोभिर्जदेनं द्यौरजनयत्सुरेताः||८|| जस्ते ऽअद्य कृेणवद् भद्रशोचेऽपूपं देव घृेतवन्तमग्ने|प्र तं नय प्रतरं वस्योऽअच्छामि सुम्नं देवभक्तं जविष्ठ||९|| आ तं भज सौश्रवसेख्वग्नऽउक्थऽउक्थऽ आभज शस्यमाने| प्रियःसूर्ज्जे प्रियोऽअग्ना भवात्युज्जातेनभि नददुज्जनित्वैः||१०||त्वामग्ने जजमानाऽअनु द्युन् विश्वा वसु दधिरे वार्ज्जाणि| त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो विवव्रुः||११|| १२/१८-२८|| बालकके पाँच प्राण(प्राण, व्यान,अपान, उदान, समान,)प्रभावी बननेकी प्रार्थना करैं.मानव का अस्तित्व प्राण हैं.शिशुकी पूर्वादिक्रमसे चारों दिशामें चार ब्राह्मण तथा पाँचवेको नैऋत्य में बिठायें.पिता पूर्वमें स्थित ब्राह्मणसे कहैं- इममनुप्राण" ब्राह्मण बालकको उद्देशते हुए कहैं- प्राण इति पूर्वः(१) दक्षिण स्थित ब्राह्मणको- इममनुव्यान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे कहैं- व्यान इति दक्षिणः(२) पश्चिम स्थित ब्राह्मणको- इममन्वपान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- अपान इति अपरः(३)उत्तरमें स्थित ब्राह्मणको- इममनूदान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- उदान इति उत्तरः(४) नैर्ऋत्यमें स्थित ब्राह्मणको- इममनुसमान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- समान इति पञ्चमः(अविद्यमानेषु विप्रेषु स्वयमेव पूर्वादिदिशं परिक्रम्य प्राणेत्यादि ब्रूयात्=यदि पाँच ब्राह्मण न हो तो पिता स्वयं पूर्वादि क्रमसे दिशाओंमें घूमकर प्राणः,व्यानः,अपानः,उदानः, और नैर्ऋत्यमें जाकर समानः ऐसे पाँच प्रैष(वाक्यों) बोलें.
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हे भूमि " तुम्हारा हृदय सूर्य जानता हैं वह चन्द्रस्थित हैं.मैं भी आपको जानता हूँ.जैसे सूर्यसे प्रकाशित चन्द्र हैं, वैसे आपकी कृपासे मिले संतान से हम पिता-पुत्र"सौ"साल तक प्रसन्न रहैं.जीवन सफल करैं.मानवजीवन सार्थक करैं.प्रभुके कृपापात्र बनैं.ऐसी भावनाके साथ पिता भूमिका स्पर्श करके पश्चात शिशुके अंगोका स्पर्श करैं.(स शिशु यस्मिन् भूभागे जातो भवति तमभिमंत्रयते) वेदते भूमिहृदयमिति प्रजापतिर्ऋषिः पंक्तिश्छंदः पृथिवी देवताऽभिमंत्रणे विनियोगः- ॐवेद ते भूमि हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्| वेदाहं तन्मां तत् विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत गूँ शृणुयाम शरदः शतम्|| अश्माभवेति प्रजापतिर्ऋषिः बृहतीछंदः आशीर्देवता अभिमर्शने विनियोगः- शिशुके अंगोका स्पर्श करैं-तात्पर्य*हे शिशु तू पाषाण समान न तूटने वाला सहनशील समर्थ, कुठारकी तरह दुष्ट नाशक,सुवर्ण समान परिक्षक बनकर तेजस्वी बन तूमेरी आत्मा पुत्र के रूपमें हैं.सौ सालकी आयु वाला बन. ॐअश्माभवपरशुर्भव हिरण्यमस्रुतं भव| आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्|| यदि पुत्री हो तो यह क्रिया अमंत्रक यथा आयुष्मती भव" ऐसे प्रैषसे आशीर्वाद दें.
संक्ल्पः- अस्य(अस्याः)शिशोः आयुः वृद्धि व्यवहारसिद्धिः" बीज गर्भ समुद्भव एनो निबर्हण द्वारा( बैजीक और गार्भिकपापोंके शमन तथा आयुः और व्यवहार कामनासे) नामकरणसंस्काराख्यं कर्मं करिष्ये" तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं(कर्मांग देवता सविता प्रीयताम्)च करिष्ये.
उक्तानि तानि कर्माणि समाप्य" स्थंडिले पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य" अग्निं ध्यात्वा" अन्वाधानम्*घृताक्तासमिद्धद्वयं गृत्वोत्थाय- अत्र पार्थीवनामाग्नौ- प्रजापतिं इन्द्रं अग्निं सोमं एकैकयाज्याऽहुत्या" अग्निं विष्णुं रुद्रं अपः सवितारं च प्रजापतिं पञ्चगव्येन एकैकयाऽहुत्या"अग्निं वायुं सूर्यं अग्निवरुणौ अग्निवरुणौ अग्निमयसं वरुणं सवितारं विष्णुं विश्वान्देवान्मरुतःस्वर्क्कान् वरुणं आदित्यमदितिं प्रजापतिं चैताः प्रायश्चित्तदेवताः आज्येनेकैकयाऽहुत्या अग्निंस्विष्टकृतं आज्येन नामकरण संस्कारहोमेऽहं यक्ष्ये" व्याहृतिनां प्रजापतिः बृहती प्रजापतिर्देवता अन्वाधान समिद्ध होमे विनियोगः- ॐभूर्भुवः स्वः स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" ब्रह्मासनादि विशेषतः केवलं स्रुवं- आज्यं- पञ्चगव्यं चासाद्य" आधारावाज्याहुत्यन्त कुशकण्डिकां समाप्य" पार्थीवनामाग्निं सम्पूज्य" प्रधान होमः- पञ्चगव्येन (१) इरावती मंत्रस्य वसिष्ठ ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः विष्णुर्देवता पञ्चगव्य होमे विनियोगः- ॐइरावती धेनुमती० स्वाहा- इदं अग्नये न मम"(२) इदं विष्णुरित्यस्य मेधातिथिर्ऋषिः गायत्री छंदः विष्णुर्देवता होमे विनियोगः- ॐ इदं विष्णुर्वि० स्वाहा स्वाहा🔥- इदं विष्णवे न मम"( स्वाहा कुर्यान्न चात्रान्ते न चैव जुहुयाद्धविः|| स्वाहाकारेण हुत्वाग्नौ पश्चान्मंत्रं समापयेत्||कर्मप्रदीपे) (३) मानस्तोकेति कुत्सऋषिः जगतीछन्दः रुद्रोदेवता होमे विनियोगः- ॐमानस्तोके० स्वाहा- इदं रुद्राय न मम"( अत्र प्रणीतोदकस्पर्शः बालस्य च)(४) शन्नोदेवीति दध्यङ्गथर्वणऋषिः गायत्री छंदः आपो देवता होमे विनियोगः- ॐशन्नोदेवी०स्वाहा- इदं अद्भ्यो न मम" ( ५) तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्रऋषिः गायत्रीछंदः सविता देवता होमे विनियोगः( तूष्णीं) ॐतत्सवितुर्वरेण्यं० इदं सवित्रे न मम"(६) प्रजापते इत्यस्य हिरण्यगर्भऋषिः त्रिष्टुप् छंदः प्रजापतिर्देवता होमे विनियोगः- ॐप्रजापते नत्वदेतान्यन्योविश्वारूपाणि० स्वाहा- इदं प्रजापतये न मम" प्रायश्चित्ताऽहुतयः आज्येन- ॐभूः स्वाहा - इदं अग्नये न मम" इत्यादयो नवाऽहुतयः तदन्ते आज्येन स्विष्टकृतं हुत्वा" होमकर्मणा कृतेन परमेश्वरः प्रीयताम्" संस्रव प्राशनादि प्रणीताविमोकान्तम् समापयेत् _/\_
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ. शेष पुनः
षोडश संस्काराः(नामकरण सं०) ततो यजमानः(शिशोःपिता)- काँस्यपात्रे तंडुलान् प्रसार्य सुवर्णशलाकया वा कुशशलाकया स्वगणपतिभक्त नाम लेख्यम्( कुलके जो गणपति हैं उनका नाम जैसे पौलत्स्यके " एकदंतगणपतिभक्त"[भक्ता]" ) स्वकुलदेवता नाम लेख्यम् ( कुलदेवीका नाम " जैसे पौलत्स्यके " दुर्गागौरीभक्त[भक्ता]") मास नाम लेख्यम् आचार्यके मार्गदर्शन अनुसार ( जिसमासमें जन्म हुआ हों उस मासके देवता का नामसे बालककी पहचान " जैसे चैत्रादि क्रमसे- वैकुण्ठ" जनार्दन" उपेन्द्र" यज्ञपुरुष" वासुदेव" हरि" योगिश" पुंडरिकाक्ष" कृष्ण" अनन्त" अच्युत" चक्रधर" अधिके- पुरुषोत्तम" बालिकाके -> श्रीमती"लक्ष्मी" पद्मालया" पद्मा" कमला"श्रीदेवी" हरिप्रिया"वसुमती" माधवी"आर्या" योगिनी"नारायणी" अधिके राधिका* जैसे भाद्रपदमें बालकका जन्म होनेवालेंका नाम " हरि" बालिकाका श्रीदेवी") नक्षत्रनाम लेख्यम्( जिसनक्षत्रके जिसचरणमें जन्म हों उस अक्षर या नक्षत्र संबधित राशिके अनुसारका नाम) व्यवहारनाम लेख्यम्( सार्थक,आदर्शप्रद, उच्चारण सुलभ, शास्त्रमान्य,कर्णसुलभ,)
संकल्पः- अस्य(अस्या)शिशोः बहवः आयुष्य प्राप्ति अर्थं नामदेवता प्रतिष्ठा पूजनं च करिष्ये" ॐगणानान्त्वा० ॐअम्बेऽअम्बिके० ॐजेन कर्म्माण्य० ॐभूर्भुवःस्वः नामदेवतायैनमः आवाहयामि" ॐमनोजुति:० इति प्रतिष्ठाप्य नामदेवतायै नमः इत्यनेन पञ्चोपचारै र्वा लाभोपचारैः सम्पूज्य" अनया पूजया नामदेवता प्रीयतां न मम"स्वपिता शिशोः कर्णे कथयति( यहाँ नाम आचार्यके मार्गदर्शनसे पिता बालकके कर्णमें सुनातें हैं ऐसा धर्मशास्त्रका निर्णय हैं परंतु" पिताके साथ बालककी "बुआ" रहकर आचार्यके कहें अनुसार जो नाम कहैं वह बालकके पिताको " बुआ बतायें" उस नाम पिता बालकके कानमें कहैं") जैसे आचार्यादेशः- हे शिशोः त्वं " अमुक गणपति भक्तोसि" (अन्य पुस्तकोमें बालक ब्राह्मणको अभिवादन करैं " जैसे सर्वान्ब्राह्मणान्अभिवादय" ऐसा कहा हैं परंतु जन्मे हुए एकवर्षसे भी नन्हीं उम्रवालें बच्चे कहाँसे " अभिवादन आचार सिखपायैंगे" तथा वह जो आदेश देतें हैं उस आदेशका तात्कालिक आचारपालन करपायेंगा? उत्तर नहीं इस लिये वह जो अन्यपुस्तिकाओमें लिखा हैं उसका अभिप्राय " कालातिक्रमकालमें" किये हुए जनेऊके साथ वालें संस्कारोके लिये कहा हुआ जानें)(२) आचार्यादेशः- हे शिशो त्वं अमुककुलदेव्याभक्तोसि(भक्तासि) (३) हे शिशो त्वं मासनाम्ना_____ असि (४) हे शिशो त्वं नक्षत्रनाम्ना वा राशिनाम्ना_____शर्मासि" वर्मासि" गुप्तोसि" दासोसि"(बालिकाके लिए- देव्यासि)(५) हे शिशो त्वं व्यवहारनाम्ना_____ शर्मासि" आदि. ब्राह्मणाः आशीर्वादं दद्युः( यहाँ बहुवचनके समर्थनसे तीन ब्राह्मण या तीनसे अधिक ब्राह्मण वरण होना चाहिये)
ॐएषवै प्रतिष्ठा० ॐवेदोसि जेनत्वं०नाम्ना सप्रतिष्ठमस्तु"आयुष्मान् भव सौम्य(आयुष्मती भव सौम्ये) ॐअश्माभव- परशुर्भव- हिरण्यमस्रुतं भव|| आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्) बालिकाओंको अमंत्रक- सुवीरा भव" मार्कण्डेय महाभागः०
नामकरण संस्कारकर्म कृतस्य विधेः परिपूर्णतास्तु" स्मृत्यिक्तान् दशब्राह्मणान् भोजयिष्ये तेन कर्मांगदेवता प्रीयताम् ॐतत् सत् श्री परमेश्वरः प्रीयताम् न मम"
षोडश संस्काराः(निष्क्रमणसंस्कार विधानम् आचम्य प्राणानायम्य" सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा" मम शिशोः बीज गर्भ समुद्भवैनो निबर्हण द्वारा आयुःश्रीवृद्धि द्वारा श्रीपरमेश्वर प्रीत्यर्थं निष्क्रमणसंस्कारं करिष्ये| इति संकल्प्य" तदङ्गत्वेन गणपति पूजनं,पुण्याहवाचनं(कर्मांगदेवता सविता प्रीयताम्), च करिष्ये| लाभोपचारैः गणपतिं सम्पूज्य" पुण्याहवाचनं च समाप्य" संकल्प~ करिष्यमाण निष्क्रमणकर्मणि सर्वारिष्ट निवृत्तये जले दिगीशानां दिशां चन्द्रस्य अर्कस्य वासुदेवस्य गगनस्य च पूर्वांगत्वेन पूजनं करिष्ये|
बृहत्ताम्रमयभांडपात्रे गंगादि नदीः स्मरन् जलमापूर्य" ॐआवोदेवासऽ० इत्यनेन ॐभूर्भुवःस्वःजले दिगीशादिदेवा गगनपर्यन्ता आगच्छन्तु तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु| इति प्रतिष्ठाप्य नाममंत्रेण गंधाक्षतपुष्पैःपूजयेत्" तद्यथा~ ॐदिगीशेभ्यो नमः, ॐदिग्भ्यो नमः, ॐचन्द्राय नमः, ॐअर्काय नमः, ॐवासुदेवाय नमः, ॐगगनाय नमः| ॐभूर्भुवःस्वः दिगीशादिभ्यो नमः धूप दीप नैवेद्यादिभिः सम्पूज्य" प्रार्थना~ चन्द्रार्कयोर्दिगीशानां दिशां च गगनस्य च|| निक्षेपार्थं इमं दद्मिः ते मे रक्षन्तु बालकम्(बालिकाम्)|| अप्रमत्तं प्रमत्तं वा दिवा रात्रावथापि वा|| रक्षन्तु सततं सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः|| (विष्णुधर्मोत्तरे)|| सूर्य पूजनम्~ ताम्रपात्रे रक्तचन्दनादिना सूर्याकृतिं निर्माय" ॐ आकृष्णेनेत्यस्य हिरण्यस्तूपाङ्गिरस ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः सूर्योदेवता आवाहने विनियोगः||ॐआकृेष्णेन रजसा० ॐभूर्भुवःस्वः भो सूर्य इहागच्छ इह तिष्ठ सूर्याय नमः सूर्यं आवाहयामि|| ॐमनोजुति०इति प्रतिष्ठाप्य" ध्येयः सदा सवितृमंडल० इति ध्यात्वा" लाभोपचारैः सम्पूज्य" पश्चात् अर्घ्यदानम्~ ॐएहि सूर्यसहस्रांशो नमस्ते विश्वभावन| अनुकंपय मां देव गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते||शिशुं अलङ्कृत्य गृहाद्बहिरानीय सूर्यमुदीक्षति तच्चक्षुरिति मंत्रेण~ ॐतच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्गाथर्वण उष्णिक् सूर्योदेवता सूर्योदीक्षणे विनियोगः|| मातापितरौ शिशोःहस्ताभ्यांकरसंपुटौकृत्वा सूर्यं पश्यन् नमस्कुर्यात्" ॐतच्चक्षुर्देवहितं पुरस्तात्०भगवते श्री सूर्यनारायणाय नमः"(अस्यार्थः~ देवोंके नेत्र समान भगवान् सविता पूर्वाकाशमें उदित हो रहैं हैं.उनकी कृपासे हम सौ वर्ष पर्यंत नेत्रशक्ति, श्रवणशक्ति, वाक्शक्ति, संपन्न रहैं. तेजस्वी जीवन हो और सौ से भी अधिक साल तक प्रसन्नतासे रहैं.)||संकल्पः~ कृतस्यविधेः निष्क्रमण संस्कार परिपूर्णतास्तु|| कृतस्य निष्क्रमण संस्कारस्य सांगतासिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दशब्राह्मणान् भोजयिष्ये. तेन सविता प्रीयतां न मम||🌄
ॐस्वस्ति||🌞पु ह शास्त्री||उमरेठ||🌝शेष पुनः

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