जातकर्म संस्कार

षोडश संस्काराः खंड ५४~ जातकर्म संस्कार* शास्त्रानभिनता और पाश्चात्य आचार -विचार के अन्धानुकरणका भयंकर परिणाम यह हुआ कि हिन्दू समाज़ अपनी उन उज्ज्वल परम्पराओंको भी हेय समझने लगा,जो मनुष्यको देवत्वकोटिमैं पहुँचा सकती हैं.आधुनिक शिक्षितवर्ग प्रायः सम्यक् परीक्षण किये बिना ही धार्मिक प्रथाओंका उपहास करनेमें प्रगतिशीलता मानने लगा हैं.हिंदूओंकी " संस्कार" प्रथाभी इन आधुनिकोकी उक्त अवैज्ञानिक वृत्तिका शिकार बन गई हैं.संतानके विधिवत् योग्यसमयपर संस्कार करवानेका महत्व लोग भूलते जा रहैं हैं. फल स्वरूप जातीय ह्रासभी तीव्र गतिसे हो रहा हैं. नैतिक मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिके साथ -साथ बल,वीर्य,प्रज्ञा, और दैवीगुणोंके प्रस्फुटनके लिये शास्त्रोक्त संस्कार विधिसे बढक़र अन्य कोई साधन नहीं हों सकता.शास्त्रमें इसके महत्वके सम्बन्धमें लिखा हैं कि",चित्रकर्म यथाऽनेकैरङ्गैरुन्मील्यते शनैः| ब्राह्मण्यपि तद्ववत् स्यात् संस्कारै र्विधिपूर्वकैः||तूलिकाके बार बार फेरनेसे शनैःशनैः जैसे चित्र अनेकरंगोसे निखर उठता हैं.वैसे ही विधिपूर्वक संस्कारोके अनुष्ठानसे ब्राहामणत्वका विकास होता हैं.यहाँ" ब्राह्मणत्व" शब्द ब्रह्म-वेदन(ब्रह्मको जाननेकी महेच्छा) के अर्थमें प्रयुक्त होता हैं."संस्कार " शब्दका अर्थ ही हैं दोषोंका परिमार्जन करना ,जीवके दोषों और कमियोंको दूरकर उसे धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टय गुणोंका आधान(सिंचना) करना, या योग्य बनाना ही संस्कार करनेका उद्देश्य हैं.संस्कार किस प्रकार दोषोंका परिमार्जन करता हैं,कैसे किस रूपमें उनकी प्रतिक्रिया होती हैं.इसका विश्लेषण करना कठिन हैं.परंतु प्रक्रियाका विश्लेषण न भी किया जायें तो भी उसके परिणामको अस्वीकार नहीं किया जा सकता. (आमलकके चूर्णमे आमलकके रसकी भावना देनेसे वह कई गुना शक्तिशाली रसायन बन जाता हैं.यह प्रत्यक्ष अनुभवकी बात हैं.संस्कारोंके प्रभावके सम्बन्धमें त्रिकालज्ञ महर्षियोंके शब्द प्रमाण हैं. श्रद्धापूर्वक उनका पालन करनेसे विहित फल प्राप्त किया जा सकता हैं.भगवान् मनुका कथन हैं कि "वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादि र्द्विजन्मनाम्| कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च|| मनुस्मृति:" वेदोक्त गर्भाधानादि पुण्यकर्मों द्वारा द्विजगणका शरीर संस्कार करना चाहिये.यह ईस लोक और परलोक दोनोंमें पवित्रकारी हैं.सामान्यरूपसें संस्कारके महत्वके सम्बन्धमें अङ्गुलिनिर्देश करकें जातकर्म -संस्कारके महत्त्वपर किञ्चित प्रकाश डालना हैं. अधिकारानुसार कर्म करनेसे सम्यक् फलकी प्राप्ति होती हैं.संस्कार-कर्ममें भी किसका अधिकार हैं.इससे समझ लेना चाहिये महर्षि याज्ञवल्क्यने कहा हैं ",ब्रह्म क्षत्रिय विट् शूद्रा वर्णास्त्वाद्या स्त्रयो द्विजाः| निषेकाद्याः श्मशानान्ता स्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः||" ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इनमें तीन वर्ण द्विज कहलातें हैं. गर्भाधानसे लेकर मृत्युपर्यन्त इनकी समस्त क्रियाएँ वैदिक मंत्रोंके द्वारा होती हैं. उपनयनादि संस्कारोको छोड़कर शेष संस्कार शूद्रवर्ण बिनामन्त्रके करैं.यम संहितामें कहा हैं कि " शूद्रोऽप्येवं विधः कार्यो विना मन्त्रेण संस्कृतः" शूद्रवर्णके भी ये सब संस्कार बिना मंत्र पढें होने चाहिये षोडश संस्काराः खंड ५६~" श्रृत्वा जातं पिता पुत्रं सचैलं स्नानमाचरेत्||पारिजाते वसिष्ठः" पारिजातमें वसिष्ठजीका वचन हैं कि पुत्रका जन्म हुआ यह सुनकर पिता पहने हुए कपडेंमें स्नान करैं.जन्मनोऽनन्तरं कार्यं जातकर्म यथाविधि| दैवादतीतकालं चेदतीते सूतके भवेत्||हेमाद्रौ बैजवापः" जन्म होनेके बाद विधिसे जातकर्मसंस्कार करैं परंतु यदि दैवयोगसे उस समय न हो पायें तो सूतक निवृत्ति के बाद जातकर्म करैं." प्रादुर्भावे पुत्रपुत्र्योर्ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः| स्नात्वाऽनन्तरमात्मीयान् पितॄन् श्राद्धेन तर्पयेत्|| कार्ष्णाजिनिः" पुत्र या पुत्रीका जन्म हो तब चन्द्र या सूर्यका ग्रहण तो भी तुरंत स्नान करके जातकर्म के नान्दीश्राद्ध से अपने पितृओंको तृप्त करना चाहिये." एतच्च रात्रावपि कार्यम्" पुत्र जन्मनि यात्रायां शर्वर्यां दत्तमक्षयम्"||व्यासः"रात्रिमें जन्म हुआ हो तो भी रात्रिमें जातकर्म संस्कार करना चाहिये क्योंकि व्यासने कहा हैं कि पुत्रके जन्म और यात्रामें रात्रिमें भी यदि दान दिया जायें तो वह अक्षय्य हैं."जातमात्रकुमारस्य जातकर्म विधियते| स्तनप्राशनतः पूर्वं नाभिकर्तनतोऽपि वा||बैजवापः" बैजवापका वचन हैं कि पुत्र जन्म हो तो तुरंत ही जातकर्म करैं या स्तनपान करानेसे पहले करैं. अथवा नालछेदनसे पहले करवाएँ. इस प्रमाणसे जातकर्म पहले दिन करनेका संस्कार हैं यह सिद्ध हैं.“ जाते कुमारे पितृणामामोदात्पुण्यं तदहः। इति हारितेतोक्तेश्च। “ हारितने भी कहा हैं कि बालकके जन्मसे पितृओंको आनंद होता हैं.“श्राद्धमामेन हेम्ना वा कार्यमित्युक्तं। पृथ्वीचन्द्रोदय आदित्यपुराणे“जातश्राद्धे तु पक्वान्नं न दद्याद्ब्राह्मणेष्वपि।। इति“जातकर्म सम्बन्धित श्राद्ध आमान्नसे करैं या सुवर्णसे करैं पृथ्वीचन्द्रोदयमें आदित्यपुराणका वचन हैं कि “पुत्रजन्म सम्बन्धी श्राद्धमें ब्राह्मणोंको पक्व अन्न नहीं देना चाहिये.
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री. उमरेठ
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः षोडश संस्काराः खंड५५- जातकर्मम्*
अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः|| संस्कारार्थं शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम्||मनु२/६६"
जनेऊ वेदारंभ और समावर्तन को छोड्कर स्त्रीयोंको जातकर्मादि चौलसंस्कार अमंत्रक(वेद गृह्यसूत्र तथा उपनीषद् मंत्र) केवल विधानमात्र ही करना चाहिये."गर्भाम्बुपानजो दोषो जातात् सर्वोऽपि नश्यति" जातकर्म संस्कार से माताके गर्भमें आहार रस पानका दोष नष्ट हो जाता हैं.आहार रसका प्रभाव न केवल स्थूल शरीरपर अपितु सूक्ष्मशरीरपर भी पड़ता हैं.सूक्ष्म शरीरका संस्कार हुए बिना नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का स्तर ऊँचा नहीं हो सकता जातकर्म संस्कारसे संतानपर पड़े हुए माताके गर्भकालीन आहार विहार के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं.इस प्रकार उन्नतिका एक प्रतिबन्धक सहज ही हट जाता हैं. " गार्भैर्होमैर्जाकर्मचौडमौञ्जीनिबन्धनैः|| बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते||मनु२/२७" स्थल समय तथा शास्त्रोचित कर्मके विपरित प्रभावसे स्त्रीके संयोग समय गर्भमें पिताकेबीजका वपन तथा स्त्रीके गर्भाशयके मलिन दोषों (अपरिहार्य खाना पीना देखना श्रवण करना प्रवृत्ति करना इत्यादि ) के बुरे प्रभावको और पापोंको नष्ट करने वाले गर्भाधान आदि संस्कार तथा जातकर्म चूडाकर्म मौजीबन्धन(जनेऊ) संस्कार का महत्व हैं." प्राङ्गनाभि वर्धनात्पुंसो जातकर्म विधियते||मनु२/२९" संतानके भूमिष्ठ होते ही जातकर्म संस्कार किया जाता हैं.इस संस्कारके कृत्य नाल छेदनके पहले ही हो जाने चाहिये,क्योंकि नाल छेदन के बाद आशौच लगता हैं. " जनना शौच मध्ये प्रथम षष्ठ दशमदिनेषु दाने प्रतिग्रहे च न दोषः /अन्नं तु निषिद्धम्| पारस्करगृ१/१६) जन्मके पहले दिन नालछेदनसे पहले.छठ्ठे दिन और दशवें दिन सूतक नहीं लगता क्योंकि पहले दिन जातकर्म संस्कार छठ्ठे दिन षष्ठीपूजा और दशवेंदिन ब्राह्मणोकें जातकका नामकरण होता हैं.उसमें कच्चे अनाज आदिका दान प्रतिग्रहमें दोष नहीं हैं जो दोष हैं वह पकेहुए अन्नका दोष हैं.(<- जब जातकर्म पहले दिन विधानपूर्वक नालछेदनसे पहले न किया हो तो दशवें दिन सूतक रहता हैं. क्योंकि सूतक निवृत्तिके बाद ही जातकर्म पश्चात् नामकरण संस्कार होगा.सिर्फ कर्म प्रधान षष्ठीपूजामें सूतक नहीं लगता" यहां " अशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म विधियते|शंखः" के प्रमाणसे जातकर्म संस्कारका प्राथमिक और उत्तम समय नालछेदनसे पहले हैं.परंतु नालछेदनसे पहले जातकर्म न किया हो तो दशवें दिन या क्षत्रियोंको बारहवें दिन सूतकमें नामकरण का अधिकार नहीं रहता क्योंकि सूतक निवृत्तिके बाद ही ज्योतिष शास्त्रके आधारसे शुभ तिथि मुर्हूत तथा शुभनक्षत्रवाले शुभ दिनमें तुरंत पहले जातकर्म करके नामकरण करना अनिवार्य हैं..
षोडश संस्काराः खंड ५६~" श्रृत्वा जातं पिता पुत्रं सचैलं स्नानमाचरेत्||पारिजाते वसिष्ठः" पारिजातमें वसिष्ठजीका वचन हैं कि पुत्रका जन्म हुआ यह सुनकर पिता पहने हुए कपडेंमें स्नान करैं.जन्मनोऽनन्तरं कार्यं जातकर्म यथाविधि| दैवादतीतकालं चेदतीते सूतके भवेत्||हेमाद्रौ बैजवापः" जन्म होनेके बाद विधिसे जातकर्मसंस्कार करैं परंतु यदि दैवयोगसे उस समय न हो पायें तो सूतक निवृत्ति के बाद जातकर्म करैं." प्रादुर्भावे पुत्रपुत्र्योर्ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः| स्नात्वाऽनन्तरमात्मीयान् पितॄन् श्राद्धेन तर्पयेत्|| कार्ष्णाजिनिः" पुत्र या पुत्रीका जन्म हो तब चन्द्र या सूर्यका ग्रहण तो भी तुरंत स्नान करके जातकर्म के नान्दीश्राद्ध से अपने पितृओंको तृप्त करना चाहिये." एतच्च रात्रावपि कार्यम्" पुत्र जन्मनि यात्रायां शर्वर्यां दत्तमक्षयम्"||व्यासः"रात्रिमें जन्म हुआ हो तो भी रात्रिमें जातकर्म संस्कार करना चाहिये क्योंकि व्यासने कहा हैं कि पुत्रके जन्म और यात्रामें रात्रिमें भी यदि दान दिया जायें तो वह अक्षय्य हैं."जातमात्रकुमारस्य जातकर्म विधियते| स्तनप्राशनतः पूर्वं नाभिकर्तनतोऽपि वा||बैजवापः" बैजवापका वचन हैं कि पुत्र जन्म हो तो तुरंत ही जातकर्म करैं या स्तनपान करानेसे पहले करैं. अथवा नालछेदनसे पहले करवाएँ. इस प्रमाणसे जातकर्म पहले दिन करनेका संस्कार हैं यह सिद्ध हैं.“ जाते कुमारे पितृणामामोदात्पुण्यं तदहः। इति हारितेतोक्तेश्च। “ हारितने भी कहा हैं कि बालकके जन्मसे पितृओंको आनंद होता हैं.“श्राद्धमामेन हेम्ना वा कार्यमित्युक्तं। पृथ्वीचन्द्रोदय आदित्यपुराणे“जातश्राद्धे तु पक्वान्नं न दद्याद्ब्राह्मणेष्वपि।। इति“जातकर्म सम्बन्धित श्राद्ध आमान्नसे करैं या सुवर्णसे करैं पृथ्वीचन्द्रोदयमें आदित्यपुराणका वचन हैं कि “पुत्रजन्म सम्बन्धी श्राद्धमें ब्राह्मणोंको पक्व अन्न नहीं देना चाहिये.
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री. उमरेठ
शेष पुनः षोडश संस्काराः खंड ५७~ जातकर्मम्* पुत्रजन्मनि कुर्वीत श्राद्धं हेम्नैव बुद्धिमान्| न पक्वेन न चामेन कल्याणान्यभि कामयन्||हेमाद्रौ" हेमाद्रीमें कहा हैं कि कल्याणके कामना वाले बुद्धिमान् मनुष्यको पुत्रके जन्मपर जातकर्म संबधी श्राद्ध सुवर्णसे ही करैं." जननाशौचे मरणाशौचे च कार्यमित्याह मिताक्षरायां प्रजापतिः" जातकर्मके विषयमें मिताक्षरामें प्रजापतिके वचनसे कहा हैं- आशौच मध्यमें पुत्रका जन्म हो तो जातकर्म संस्कार करनेमें कर्ताकी तात्कालिक शुद्धि होती हैं. " आशौचे तु समुत्पन्ने पुत्रजन्म यदा भवेत्| कर्तुस्तात्कालिकी शुद्धिः पूर्वाशौचेन शुद्ध्यति|| पुत्रजन्मका आशौच भी पहलेके आशौचके साथ समाप्त हो जाता हैं. परंतु स्मृति संग्रहके वचनसे" मृताशौचस्य मध्ये तु पुत्रजन्म यदा भवेत्| आशौचापगमे कार्यं जातकर्म यथाविधि||" मरणका आशौच पूर्ण हो जानेके बाद विधिसे जातकर्म करैं ऐसा वचन होनेसे मृतिशौच पूर्ण हो जानेके बाद ही जातकर्म करैं." मृदु ध्रुव चर क्षिप्र प्रभेष्वेषा मुदयेषु च| गुरौ शुक्रेऽथवा केन्द्रे जातकर्म च नाम च|| स्मृत्यर्थसारे" आशौच पूर्ण हो जानेके बाद करनेमें विकल्पसे मृदु ध्रुव चर तथा क्षिप्र नक्षत्रोंमें उस नक्षत्रके लग्नोंमें और गुरु या शुक्र केन्द्रमें आवैं तब जातकर्म -नामकर्म करैं.यदि काल वशाद् बालकके पिता विदेश गयें हो या हाजिर न हों तो आचार्य स्वयं बालकका जातकर्म संस्कार करैं.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष विधान पुनः

सम्पूर्णा पद्धति जातकर्म संस्कारः
षोडश संस्काराः खंड ५८~ प्राक् चूडाकरणाद्बालः प्रागन्नप्राशनाद्शिशुः| कुमारकः स विज्ञेयो यावद्मौञ्जिनिबन्धनः|| अन्नप्राशनसे(७माससे) पहले जातककी अवस्था "शिशु" चूडाकरण (३वर्षसे) पहले "बालक" उपनयन(ब्राह्मण५-८" क्षत्रिय ११" वैश्य१२ से पहले की अवस्था "कुमार" उपनयनके बाद १२वर्षतक"बटुक" संज्ञा जाने*
जातकर्म संस्कारः विधानम्* आचम्य प्राणानायम्य"सुमुखश्चेत्यादि पठित्वा" अद्येत्यादि..... अमुक शर्माहं मम जातस्य शिशोः जरायुजटित विविध उच्चावच मातृ चर्वितान्न विषमार्तिक गर्भाम्बुपान जनित सकल दोष निबर्हण आयुर्मेधावृद्धि बीज गर्भ समुद्भवैनो निबर्हणार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं जातकर्म संस्कारं करिष्ये....| तदंगत्वेन गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनम्(कर्मांग देवता मृत्युः) मातृकापूजनम् आयुष्यमंत्रजपं वैश्वदेवसंकल्पं नान्दीश्राद्धं आचार्यादि वरणं करिष्ये...
दशोपचारैःगणपतिंसम्पूज्य" प्रैषात्मक विधिना पुण्याहवाचनं समाप्य" दशोपचारैःमातृकापूजनं च आयुष्यमंत्रं जपित्वा" वैश्वदेवसंक्ल्पं कृत्वा" नान्दीश्राध्धं- समये सति (युग्म ब्राह्मणभोजन पर्याप्तं अन्ननिष्क्रयी सुवर्णं अमृतरूपेण वः स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः) आचार्यादिन्वृत्वा"
मेधाजननम्* ततः शिशुं दक्षिणकरस्यानामिकया स्वर्णांतर्हितया विषममात्रया मधु घृते एकी कृत्य प्राशयति"(पिता विषम मात्रामें मधु और गोघृत मिश्र करके सुवर्णशलाकासे शिशुको मंत्रके साथ क्रमसे शिशुको चार बार चटायें.) भूरादिव्याहृति त्रयस्य प्रजापति र्ऋषिः गायत्री उष्णिक् अनुष्टुप् छन्दांसि अग्नि र्वायुर्सूर्याश्च देवताः समधुघृत प्राशने विनियोगः- मंत्राः ॐभूःस्त्वयि दधामि(१)" ॐभुवः स्त्वयि दधामि(२)"ॐस्वः स्त्वयि दधामि(३)"ॐभूर्भुवःस्वः सर्वं त्वयि दधामि(४)" एतच्च मेधाजननम्.....
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष पुनः
षोडश संस्काराः खंड ५९~जातकर्म संस्कारः(२) आयुष्यकरणम्*शिशुके दायेंकान समीप या नाभिसमीप मंत्रोका पठन करैं." √कुमारस्य नाभिसमीपेवा दक्षिणकर्णसमीपे अग्निरित्यादि मन्त्रान् जपति" यथा* अग्निरायुष्मानित्यादि अष्टमंत्राणां प्रजापति र्ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः लिंगोक्ता देवता: जपे विनियोगः- ॐअग्निरायुष्मान्स वनस्पतिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(१) ॐसोमऽआयुष्मान्सऽओषधिभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(२) ॐब्रह्मायुष्मत्तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(३) ॐदेवाऽआयुष्मन्तस्तेमृतेनायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(४)ॐऋषयऽआयुष्मन्तस्ते व्रतैरायुष्मान्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(५) ॐपितरऽआयुष्मन्तस्ते स्वधाभिरायुष्मन्तस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(६) ॐयज्ञऽआयुष्मानास दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(७) ॐसमुद्रऽआयुष्मान्स दक्षिणाभिरायुष्मांस्तेन त्वायुषायुष्मन्तं करोमि(८) यह आठों मन्त्रोंकी पुनः दो आवृत्ति करैं.(इत्येतावत् पर्यन्तम् पुनर्त्रिः जपति) तत त्र्यायुखं इति च त्रिर्जपति)त्र्यायुखं मंत्र तीनबार पढैं." ॐत्र्यायुखञ्जमदग्ग्ने:०तात्पर्य- जमदग्नि,कश्यप(विपरितं भवति पश्यकः यः कं(ब्रह्म)पश्यति सः पश्यकः" और देवों जैसी लंबी आयु मिले तथा उनके जैसा बालक हों | इत्येता त्रिर्वारं पठित्वा" बालककी सर्वविध उन्नति और दीर्घायुकी कामनासे शिशुके अंगोंका स्पर्श करतें हुए "दिवस्परि"इत्यादि ११ मंत्रोका पाठ करैं.दिवस्परिप्रभृति मंत्ररुद्रस्य वत्सप्रीऋषिः त्रिष्टुप् छंदः अष्टमस्य पंक्तिश्छंद आयुर्देवता परिमर्शने विनियोगः- ॐदिवस्परि प्रथमञ्जज्ञेऽअग्निरस्मद् द्वितीयं परि जातवेदाः| तृेतीयमप्सु नृेमणाऽअजस्रमिन्धानऽ एनञ्जरते स्वाधीः||१|| विद्मातेऽ अग्ने त्रेधा त्रयाणि विद्मा ते धाम विभृेता पुरुत्रा| विद्मा ते नाम परमङ्गुहा जद्विद्मा तमुत्सं जतऽआजगन्थ||२|| समुद्रे त्वा नृेमणा ऽअप्स्वन्तर्नृेचक्षाऽईधे दिवो अग्न ऽऊधन्| तृेतीये त्वा रजसि तस्थिवा गुं समपामुपस्थे महिखा ऽअवर्धन्||३|| अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद् वीरुधः समञ्जन्सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः||४|| श्रीणामुदारो धरुणो रयीणां मनीखाणां प्रारेपणः सोमगोपाः| वसुः सूनुः सहसोऽअप्सु राजा विभात्यग्रऽ उषसाभिधानः||५||
विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भऽआ रोदसीऽअपृेणाज्जायमानः| वीडुञ्चिदद्रिमभिनत् परायञ्जना जदग्निमयजन्त पञ्च||६||उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्त्येख्वग्निरमृेतो निधायि|इयर्त्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिखा द्यामिनक्षन्||७|| दृेशानो रुक्मऽउर्व्या व्यद्यौद्दुर्मरेखमायुः श्रिये रुचानः| अग्निरमृतोऽ अभवद्वयोभिर्जदेनं द्यौरजनयत्सुरेताः||८|| जस्ते ऽअद्य कृेणवद् भद्रशोचेऽपूपं देव घृेतवन्तमग्ने|प्र तं नय प्रतरं वस्योऽअच्छामि सुम्नं देवभक्तं जविष्ठ||९|| आ तं भज सौश्रवसेख्वग्नऽउक्थऽउक्थऽ आभज शस्यमाने| प्रियःसूर्ज्जे प्रियोऽअग्ना भवात्युज्जातेनभि नददुज्जनित्वैः||१०||त्वामग्ने जजमानाऽअनु द्युन् विश्वा वसु दधिरे वार्ज्जाणि| त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजं गोमन्तमुशिजो विवव्रुः||११|| १२/१८-२८|| बालकके पाँच प्राण(प्राण, व्यान,अपान, उदान, समान,)प्रभावी बननेकी प्रार्थना करैं.मानव का अस्तित्व प्राण हैं.शिशुकी पूर्वादिक्रमसे चारों दिशामें चार ब्राह्मण तथा पाँचवेको नैऋत्य में बिठायें.पिता पूर्वमें स्थित ब्राह्मणसे कहैं- इममनुप्राण" ब्राह्मण बालकको उद्देशते हुए कहैं- प्राण इति पूर्वः(१) दक्षिण स्थित ब्राह्मणको- इममनुव्यान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे कहैं- व्यान इति दक्षिणः(२) पश्चिम स्थित ब्राह्मणको- इममन्वपान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- अपान इति अपरः(३)उत्तरमें स्थित ब्राह्मणको- इममनूदान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- उदान इति उत्तरः(४) नैर्ऋत्यमें स्थित ब्राह्मणको- इममनुसमान" ब्राह्मण शिशुके उद्देश्यसे- समान इति पञ्चमः(अविद्यमानेषु विप्रेषु स्वयमेव पूर्वादिदिशं परिक्रम्य प्राणेत्यादि ब्रूयात्=यदि पाँच ब्राह्मण न हो तो पिता स्वयं पूर्वादि क्रमसे दिशाओंमें घूमकर प्राणः,व्यानः,अपानः,उदानः, और नैर्ऋत्यमें जाकर समानः ऐसे पाँच प्रैष(वाक्यों) बोलें.
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हे भूमि " तुम्हारा हृदय सूर्य जानता हैं वह चन्द्रस्थित हैं.मैं भी आपको जानता हूँ.जैसे सूर्यसे प्रकाशित चन्द्र हैं, वैसे आपकी कृपासे मिले संतान से हम पिता-पुत्र"सौ"साल तक प्रसन्न रहैं.जीवन सफल करैं.मानवजीवन सार्थक करैं.प्रभुके कृपापात्र बनैं.ऐसी भावनाके साथ पिता भूमिका स्पर्श करके पश्चात शिशुके अंगोका स्पर्श करैं.(स शिशु यस्मिन् भूभागे जातो भवति तमभिमंत्रयते) वेदते भूमिहृदयमिति प्रजापतिर्ऋषिः पंक्तिश्छंदः पृथिवी देवताऽभिमंत्रणे विनियोगः- ॐवेद ते भूमि हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्| वेदाहं तन्मां तत् विद्यात् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत गूँ शृणुयाम शरदः शतम्|| अश्माभवेति प्रजापतिर्ऋषिः बृहतीछंदः आशीर्देवता अभिमर्शने विनियोगः- शिशुके अंगोका स्पर्श करैं-तात्पर्य*हे शिशु तू पाषाण समान न तूटने वाला सहनशील समर्थ, कुठारकी तरह दुष्ट नाशक,सुवर्ण समान परिक्षक बनकर तेजस्वी बन तूमेरी आत्मा पुत्र के रूपमें हैं.सौ सालकी आयु वाला बन. ॐअश्माभवपरशुर्भव हिरण्यमस्रुतं भव| आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्|| यदि पुत्री हो तो यह क्रिया अमंत्रक यथा आयुष्मती भव" ऐसे प्रैषसे आशीर्वाद दें.
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
शेष विधान पुनः
षोडश संस्काराः खंड६०~ जातकर्म संस्कारः-( तत्र शिशोः मातरमभिमंत्रयेत्) शिशुकी माताका यजमान स्पर्श करैं (आचार्य या कुलिन व्यक्ति बिना स्पर्श कियें प्रसुता के उद्देश्यसे मंत्रपाठ करैं.) इडासीति प्रजापतिर्ऋषिः गायत्री छंदः इडा देवता अभिमंत्रणे विनियोगः- ॐइडासि मैत्रा वरुणी वीरे वीरमजीजनथाः सात्वं वीरवती भवयास्मान् वीरवतोऽकरत् ||( हे वीर स्त्री तू यज्ञपात्ररूप हैं.मित्रावरुण के अंश से उत्पन्न हुई हो.जैसे इला से पुरुरवा की उत्पत्ति तथा मैत्रावरुण से अगत्स्य और वशिष्ठ जैसे प्रभावी संतान हुए वैसे तेरी संतान हों.तुझसे हम वीरसंतान वाले हुए.)पिता शिशुकी माताके स्तनपर जल छिंडकें. " तस्या दक्षिणस्तनं प्रक्षाल्य शिशवे प्रयच्छति" माता पहले दायें स्तनसे शिशुको स्तनपान करायें.... (यह क्रिया संस्कार कुशल आचार्य मर्यादा बनाये रखकर करवाँ सकतें हैं... पाठको को निःसंदेह वैदिक विधान अपनाना चाहिये इसमें कोई भी शर्म लज्जा न रखें) इममिति सप्तर्षिर्ऋषयः त्रिष्टुप् छंदः अग्निर्देवता दक्षस्तन प्रदाने विनियोगः-ॐइम गूँ स्तनमूर्जस्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये| उत्सञ्जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रिय गूँ सदनमा विशस्व|| (हे अग्ने ! लोकमें रहता हुआ उर्जायुक्त दूध से पूर्ण इस स्तनका पान करों.हे सर्वतोगामी शिशु मधु स्वाद युक्त माँ के स्तनका सेवन कर ,समुद्र समान विशाल गंभीर माँकी गोद तेरा आश्रय हों)
यस्ते स्तन इति दीर्घतमा ऋषिः त्रिष्टुप् छंदः गौर्देवता वामस्तन प्रदाने विनियोगः- बायें स्तनका पान करायें.~> ॐयस्ते स्तनः शशयो यो मयोर्भूयो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः| येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवेऽकः||(हे सरस्वति ! जो तुम्हारा स्तन अन्यद्वारा अनुपयुक्त तथा रमणीय धनको धारण करनेवाला बहोत आनंद देनेवाला हैं तथा जिससे सभी को वरणीय वस्तु देती हो,वह सब शिशुके लिए सुलभ हों.) नाभिसे आठ अंगुल जगह छोड़कर नाल छेदन करायें.
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वर्तमान कालमें दवाखानेंमें प्रसूति होतीं हैं वहाँ दश दिन कुंभ और अग्निकारक्षण होना संभव नहीं हो सकता इसलिए " यह विधान सांगोपाङ्ग करनेके लिए घरमें प्रसूति करवाने के लिए तबीबको बुलाना पडैंगा या तो दशवें दिन घरमें यह विधान सांगोपाग करना पडैंगा.
ततः प्रसवित्री शयनीय मस्तकोपरि भूमौ पानीयपूर्ण उदकुंभं रक्षार्थं निदध्यात्"( प्रसूताके मस्तकके पीछे जमिनपर जलसे भरा मृदकुंभ रखैं.यह कलश दश दिन तक रखैं. यदि दशवें दिन करतें हो तो एकरात्रि कुंभ रखैं.) आपइति प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः आपो देवता जलपूर्णभाजन स्थापने विनियोगः- ॐआपो देवेषु जाग्रथ यथा देवेषु जाग्रथ एवमस्या सूतिकाया सपुत्रियां जाग्रथ|| (हे जल देवता आप जैसे देंवोके लिए जागरुक रहतें हो वैसे सूतिका एवं उसके संतानके लिए सदैव उद्यत रहो)
होम कर्मः- पहले दिन जातकर्म करैं तो प्रत्येक दिन सुबह श्याम दो दो आहुतियाँ ब्राह्मण द्वारा दें.. अथवा दशवे दिन जातकर्म करतें हो तो कुल चालीस आहुतियाँ दें... इसमैं ब्रह्मासन और कुशकंडिका नहीं होती.)
पञ्चभूसंस्कार पूर्वकं अग्निं संस्थाप्य- अग्निं ध्यायन् अक्षतैरावाह्य" अग्निं पर्युक्ष्य नेतरथावृत्तिः" प्रगल्भनामाग्निं सम्पूज्य" तंडुलमिश्रसर्षपैः होमः- शुण्डामर्कामंत्रस्य प्रजापतिर्ऋषिः त्रिष्टिप् छंदः अग्निर्दैवता सतंडुलसर्षप द्रव्यहोमे विनीयोगः- ॐशण्डा मर्काऽउपवीरः शौण्डिकेयऽउलूखलः| मलिम्लुचो द्रोणासश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा- इदं शुण्डामर्काभ्यां उपवीराय मलिम्लुचाय द्रोणेभ्यश्च्यवनाय न मम" आलिखन्निति प्रजापतिर्ऋषिः अनुष्टुप् छंदः अग्निर्देवता सतंडुल सर्षपद्रव्य होमे विनियोगः- ॐआलिखन्ननिमिषः किं वदन्तऽउपश्रुति र्हर्यक्षः कुंभी शत्रुःपात्रपाणिर्नृमणिर्हन्त्रीमुखः सर्षपारुणश्च्यवनो नश्यतादितः स्वाहा- इदं आलिखतेऽनिमिषाय किंवदद्भ्यउपश्रृतये हर्य्यक्षयाय कुंभी शत्रवे पात्रपाणये नृमणये हंत्रीमुखाय सर्षपायारुणाय च्यव्नाय न मम"(दोनों होम मंत्रके अर्थ-(१) तोडनेवाला, मारनेवाला,घातक, नीच, आश्रितका घातक, मलिन हेतु वाला, विकृत नासिकावाला, इन्द्रियोंको शिथिल करनेवाला,ये सभी यहाँसे नष्ट हो जाये.(२)चारों औरसे तोडनेवाला,अनिमेष दृष्टि, अपकारके लिए उद्युत,पिंगलनेत्र,स्तंभन करनेवाला, शिशुका घातक, हाथमें खपापरवाला, नरघातक,हिंसकमुखवाला,सरसौं जैसा उग्र, नाशक यहाँसे नष्ट हो जायें.)
जन्माहुआ शिशु बहोत रुदन करैं शांत न हो या कोई उपद्रव लगैं तो मत्स्यजाल या सुत्तरका कापड जिसमें छिद्र हों वह बालकको ओढाकर मंत्रपाठ करैं."यदि शिशोःन नामयति न रोदिति न हृष्यति न तुष्यति च तदैतनैमित्तिकं कर्तव्यम्|| तदा तं बालकं जालेन प्रच्छाद्य वा वाससाङ्कमादाय तं बालं पिता जपति" मंत्रः*ॐकूर्कुरःसकूर्कुरः कूर्कुरो बालबन्धनः| चेच्चेच्छुनक सृज नमस्तेऽस्तु सीसरो लपेता पह्वर||१||तत्सत्यं यत्ते देवा वरमददुः स त्वं कुमारमेव वा वृणीथाः| चेच्चेच्छुनक सृज नमस्तेऽस्तु सीसरो लपेतापह्वर||२||
बालकका चारों औरसे स्पर्शकरैं- "शिशुं अभिमृशति" ॐ न नामयति न रुदति न हृष्यति न ग्लायति| यत्र वयं वदामो यत्र चाभिमृशसि||
कृतस्य जातसंस्कार संस्कार साङ्गता सिद्ध्यर्थं स्मृत्युक्तान् दश ब्राह्मणान् सूतकान्ते भोजयिष्ये. तेन कर्माँगदेवता प्रीयताम् न मम" ब्राह्मणेभ्यो दक्षिणां दास्ये..... यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या" यदि दश दिनके बाद करना हों तो पहले अनादिष्ट प्रायश्चित्त होम करैं कालातिक्रम दोष निवृत्तिके लिए पादकृच्छ्रव्रतरूप १००० गायत्रमंत्र जप संकल्प करैं. फिर जातकर्म संस्कार करै. कालातिक्रम जातकर्ममें स्तनपान और अभिमर्शन तकका विधान करैं .जलकुँभ स्थापन और होम नहीं होता _____इति जातकर्म संस्कारः____
ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.
पुनः षष्ठीमहोत्सव विधानम्






ऋग्वेदे जातकर्म-संस्कार विधानम्~
सविधान पूर्वक जन्मसे पहले गर्भाधान,
पुंसवन अनवलोभन,सीमन्तोन्नयन संस्कार हो गयें हो तो ! शिशुके जन्म होनेपर पिता शिशुका मुख देखकर नदीआदि तीर्थजलमें उत्तराभिमुख होकर स्नान करैं अथवा हितकर ठंडेजलसे अपने गृह स्नान करैं |# जातमात्रे पुत्रे पिता मुखं निरीक्ष्य | नद्यादावुदङ्गमुखःस्नात्वा | असंभवे दिवा हृताभिःशीताभिरद्भिः गृह एव स्नात्वा ||" बैठकर तीन बार आचमन करैं |# आचम्य | "सफेद चंदन सफेदपुष्पमाला आदिसे अलंकृत होकर नालछेदनसे पहले सूतिका आदिको स्पर्श न करतें हुये स्तनपान न किये हुए बालकका जलसे मलादिको धुलेहुए शिशुको अपनी माताकी गोदमें पूर्वाभिमुख रखैं |# सितचंदनमाल्यादिभिरलंकृतो नालछेदनात्पूर्वं सूतिकादिव्यतिरिक्तैः अस्पृष्टमकृतस्तनपानं प्रक्षालित मलं शिशुं मातुरुत्संगे प्राङ्गमुखमवस्थाप्य |"
स्वयं पूर्वाभिमुखमासने उपविश्य ||आचम्य || प्राणानायम्य || देशकालौ स्मृत्वा अस्य(अस्याः) शिशोः गर्भांबुपान जनित सकलदोष निबर्हणायुर्मेधाभिवृद्धि बीजगर्भ समुद्भवैनो निबर्हण द्वारा श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं जातकर्म करिष्ये | तदङ्गत्वेन लाभोपचारैः गणपतिपूजनं मातृकापूजनं हिरण्येननान्दीश्राद्धं चतुर्वाक्यैः पुण्याहवाचनं (कर्मांग देवता मृत्युः) च करिष्ये || इत्येतानि कर्माणि संक्षिप्तेन विधानेन पञ्चोपचारैर्वादशोपचारैःसम्पाद्य नान्दीश्राद्धं (हिरण्येन वा तन्नीष्क्रयी द्रव्येण) च पूर्णपात्रान्ते कलशद्वये वरुणं सम्पूज्य चतुर्वाक्यैः पुण्याहवाचनं समाप्य || स्थंडिले तद्गोमयेनोपलिप्यादि संस्कारान् कृत्वा प्रबलनामाग्निं प्रतिष्ठाप्य |
जातकर्म होमे देवता परिग्रहार्थं अन्वाधानं करिष्ये-"अस्मिन्नन्वाहितेग्नौ जातवेदसमग्निमिध्मेन प्रजापतिं प्रजापतिं चाधारदेवते आज्येन अग्नीषोमौ आज्येन जातकर्म होम प्रधान अग्निमिंद्रं प्रजापतिं विश्वान्देवान्ब्रह्माणमाज्येन शेषेण स्विष्टकृतमग्निमिध्मसन्नहनेन रुद्रमयासमग्निंदेवान् विष्णुमग्निंवायुं सूर्यं प्रजापतिंचैताः प्रायश्चित्तदेवता आज्येन(ब्रह्मणो- अयासमग्निं देवान् विष्णुमग्निंवायुंसूर्यँ प्रजापतिंचैताः प्रायश्चित्तदेवता आज्येन) ज्ञाता ज्ञात दोष निबर्हणार्थं त्रिवारमग्निं मरुतश्चाज्येन प्रधानदेवताः सर्वाः सन्निहिताः संतु-जातकर्म संस्कार होमकर्मणाश्वोयक्ष्ये|| समस्तव्याहृतिनां परमेष्ठीप्रजापतिःप्रजापतिर्बृहति अन्वाधान समिद्धोमे विनियोगः- ॐभूर्भुवःस्वःस्वाहा- प्रजापतये इदं न मम|| परिसमूहनादि आज्यभागान्तं कृत्वा-"प्रधानदेवताभ्यश्चतुर्थ्यन्त नाममंत्रेणाज्येन"ॐअग्नये स्वाहा-अग्नयेदं न मम। ॐइंद्राय स्वाहा-इंद्रायेदं न मम। ॐप्रजापतये स्वाहा-प्रजापतय इदं न मम। ॐ विश्वेभ्योदेवेभ्यः स्वाहा-विश्वेभ्योदेवेभ्य इदं न मम। ॐ ब्रह्मणे स्वाहा-ब्रह्मण इदं न मम।। पात्रमें विषममात्रामें शहद और घी मिलाकर पत्थरके नीचे रखकर पत्थरपर सुवर्णके टुकडेंको घीसकर सोनेकी रज शहद और घीके पात्रमें गिरायैं।"# ततो विषममानेन मधुसर्पिषी मिश्रीकृत्य शिलातले निधाय । तत्र सुवर्णं रजो विमोकं यावदावघृष्य भाजने निधाय।
सोनेके टुकड़ेसे यह सुवर्णयुक्तशहदघीका मिश्रण शिशुको चटायें" बच्चीको बिना मंत्र पढैं चटायैं।# तेनैव हिरण्येन शिशुं पाययेत्" कुमार्याश्चेत् अमंत्रकम्-" ॐ प्रत्ते ददामि मधुनो घृतस्यवेदं सवित्रा प्रसूतं मघोनां। आयुष्मान्गुप्तो देवताभिः शतं जीव शरदो लोके अस्मिन्।।
इस सोनेको धोंकर शिशुके दायें कानपर स्पर्श करायें तथा शिशुके मुख समिप अपना मुख करकर मंत्र पढैं"( बालीका को बिना मंत्रसे ही - मेधावीभव मेधावी भव मेधावी भव- ऐसे वाक्य कहैं)।
ॐ मेधां ते देवःसविता मेधां देवी सरस्वती। मेधां ते अश्विनौदेवा वाधत्तां पुष्करस्रजौ।।इत्यृचां जपित्वा।
पुनः उस सोनेका शिशुके बायें कानपर स्पर्श करायैं- उपरोक्त ॐ मेधां ते देव००। मंत्रसे" पुनस्तद्धिरण्यं सव्येकर्णे निधाय ऐतामेवऋचं जपेत् ।।"शिशुकें कंधोका स्पर्श करतें हुए यह मंत्रोको पढैं -बालिका का बिना मंत्रसे स्पर्श करैं सिर्फ "यशस्वी भव" कहैं। ॐ अश्माभव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव। वेदो वै पुत्रनामासि स जीव शरदःशतम्।। ॐ इंद्रं श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे। पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां वाचः सुदिनत्व मह्नां।।अस्मे प्रयंधि मघवन्नृजीषिन्निंद्ररायो विश्ववारस्य भूरेः। अस्मे शतं शरदो जीवसेधा अस्मे वीरान्छश्वत इंद्र शिप्रिन्।। इत्यभिमर्श्य।।
शिशुकी रक्षा तथा आयुवृद्धिकी कामनासे मंत्र पढकर तीनबार शिर को सूँघे । (बालिका का शिर बिनामंत्र सूँघे सिर्फ तीन बार सूँघते हुए-दीर्घायुषी भव " कहैं)। ततो रक्षायुवोभिवृद्ध्यर्थं - ॐ अंगादंगात्संभवसि हृदयादधि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि स जीवः शरदः शतम्।। इति मंत्रमुच्चार्य मूर्धानं त्रिराजिघ्रेत् ।। बालकका नाम जो रखना हैं वह बोलें नामकरणसंस्कार समय पर करना हैं ।" ततः शिशोः करिष्यमाणं नाम तदैव स्मरेत् ।। स्विष्टकृत आदि होम करैं- स्विष्टकृत होमः- स्रुच्याज्य मुपस्तीर्य अग्नौ ऐशानभागे जुहुयात्- ॐयदस्य कर्मणो त्यरीरिचं यद्वान्यून मिहाकरं अग्निष्ट त्स्विष्ट कृद्विद्वान्त्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे | अग्नये स्विष्टकृते सुहुत हुते सर्व प्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्धय स्वाहा- स्विष्टकृते अग्नये इदं न मम" जिससे समिद्धोको बांधीहुई थी वह (१२×३=३६) रज्जु खोलकर अग्निमें समर्पित करैं. इध्मबंधन रज्जुं विस्रस्य ॐरुद्राय स्वाहा- रुद्राय पशुपतये इदं न मम" आचार्यः- प्रायश्चित्ताहुतयः त्यागोच्चारणमात्रम् ॐअयाश्चाग्ने स्यनभिशस्तीश्च सत्य मित्व मया असि | अयासा वयसा कृतो यासन्हव्य मूहिषे यानो धेहि भेषजं स्वाहा-अयासे अग्नये इदं न मम" ॐअतो देवा अवंतु नो यतो विष्णु र्विचक्रमे | पृथिव्याः सप्तधामभिः स्वाहा- देवेभ्य इदं न मम" ॐ इदं विष्णुर्वि० स्वाहा- विष्णवे इदं न मम" ॐभूः स्वाहा- अग्नये इदं न मम"ॐभुवः स्वाहा- वायवे इदं न मम" ॐस्वः स्वाहा- सूर्य्याय इदं न मम"ॐभूर्भुवःस्वः स्वाहा-प्रजापतये इदं न मम" ततो ब्रह्मा- ॐअयाश्चाग्ने स्यनभिशस्तीश्च सत्य मित्व मया असि | अयासा वयसा कृतो यासन्हव्य मूहिषे यानो धेहि भेषजं स्वाहा-अयासे अग्नये इदं न मम" ॐअतो देवा अवंतु नो यतो विष्णु र्विचक्रमे | पृथिव्याः सप्तधामभिः स्वाहा- देवेभ्य इदं न मम" ॐ इदं विष्णुर्वि० स्वाहा- विष्णवे इदं न मम" ॐभूः स्वाहा- अग्नये इदं न मम"ॐभुवः स्वाहा- वायवे इदं न मम" ॐस्वः स्वाहा- सूर्य्याय इदं न मम"ॐभूर्भुवःस्वः स्वाहा-प्रजापतये इदं न मम" आचार्यः- ॐ अनाज्ञातं यदाज्ञातं यज्ञस्य क्रियते मिथु| अग्नेतदस्य कल्पयत्व गूं हित्वेत्थ यथा तथ गूं स्वाहा- अग्नये इदं न मम" ॐपुरुष संमितो यज्ञो यज्ञः पुरुष संमितः | अग्ने तदस्य कल्पयत्व गूं हित्वेत्थ यथा तथ गूं स्वाहा-अग्नये इदं न मम" ॐयत्पाकत्रा मनसा दीन दक्षान यज्ञस्य मन्वते मर्तासः| अग्निष्टद्धोता क्रतु विद्वि जानन्य जिष्ठो देवा गुं शोयजाति स्वाहा- अग्नये इदं न मम" ॐ यद्वोदेवा अति पातया निवाचा च प्रयुती देव हेळनं | अरायो अस्माँ अभिदुच्छु नायते न्यत्रा स्मन्मरुतस्तन्निधेतन स्वाहा- मरुद्भ्य इदं न मम"। स्थंडिलके समीप जो पहले रखा था वह पूर्णपात्र( प्रोक्षणी) पात्र पर दाये हाथसे स्पर्शकरके गंगादि नदीयोंका स्मरण करैं." पूर्वासादितं पूर्णपात्रे गंगादि पुण्यनदीः (गंऽगे च यमुने चैव०) स्मरन् ॐपूर्णमसि पूर्णं मे भूयाः| सर्वमसि सर्वंमे भूयाः अक्षितिरसि मामेष्ठाः|| इति जपित्वा" कुशाग्रोंसे पाँचो दिशाओंमें प्रोक्षणी का जल छिंड़के." कुशाग्रैः पञ्चदिक्षु जलं क्षिपेत्" पूर्वमें- प्राच्यां दिशि देवा ऋत्विजो मार्जयंतां" दक्षिणमें- दक्षिणस्यां दिशि मासाः पितरो मार्जयंतां( उदकोऽपस्पर्श:) पश्चिममें- प्रतिच्यां दिशि ग्रहाः पशवो मार्जयंतां " उत्तरमें- उदीच्यां दिशि आप ओषधि वनस्पतयो मार्जयंतां " उपरकी और- उर्ध्वायां दिशि यज्ञः संवत्सरः प्रजापति र्मार्जयंतां" यजमानः शिरसि- ॐआपोहिष्ठा० प्रोक्षणीका जल नैर्ऋतकोणमें कुशाग्रोंसे बहावें- " निर्ऋति देशे कुशाग्रैः अपः सिंचेत्" ॐदुर्मित्र्या स्तस्मै संतु यो स्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्म स्तं हन्मि"| ब्रह्मा के स्थानपर वरणीय ब्राह्मण प्रणीता पात्र लेकर यजमानपत्नीकी अञ्जली में देवें."ब्रह्मा यजमान पत्न्यञ्जलौ पूर्णपात्रस्थ जलं ॐमाहं प्रजां परासिचंयानः| सयावरीस्थन समुद्रेवो स्वं पाथो अपीथ|| प्रणीताका जल पश्चिमकी और मोंड़कर बहादेंवडावे." इति प्रत्यङ्गमुखं निषिच्य" यजमान और यजमानपत्नी को वह बहा हुआ प्रणीता के जलसे प्रोक्षित करें." यजमानं यजमानपत्नीं च प्रोक्षेत्"
अग्निका उपस्थान मुद्रा से करायें. प्रातः स्वस्तिकमुद्रा,मध्याह्ने हस्ताभ्यां दंडवत्मुद्रा, सायं अब्जमुद्रया," ॐचमे स्वश्चमे यज्ञो पचते नमश्च| यत्ते न्यूनं तस्मैत उपयते तिरिक्तं तस्मै ते नमः|| ॐ अग्नये नमः|| ॐस्वस्ति श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां० ईशान कोणमें जाकर कुंडके ईशानमें से भस्म ग्रहण करैं." ऐशानीं गतां विभूतिं गृहित्वा" ॐमानस्तोके० इत्यनेन यथा यथा स्थाने विभूतिं धारयेत्" परिस्तरण निकालकर उत्तरमें विसर्जित करैं." परिस्तरणानि उत्तरे विसृज्य" अग्निका पूर्वकीरितिसे जलसे परिसमुहन करैं, अग्निं परिसमुह्य पर्युक्ष्य," गंधाक्षतपुष्पसे अग्निका पूजन- ॐ विश्वानिनो इति अर्चयित्वा नैवेद्यान्तं सम्पूज्य" कृतं कर्म अग्निरूपीपरमेश्वरः प्रीयताम्"। एकांतमें आचारसे सोना धोंकर रखे हुए जलसे माताका दायाँ स्तन धुँलवाँकर माँ शिशुको स्तनपान करायैं।-" यथाचारं हिरण्योदकेन मातुर्दक्षिण स्तनं प्रक्षाल्य "मात्रा"शिशुं पाययेत् । बिनामंत्र पढै बालिकाको भी। ॐ इमां कुमारो जरांधयतु दीर्घमायुः प्रजीवसे। अस्यै स्तनौ प्रयुंजाना आयुर्वर्चोयशोबलम्।।
ब्राह्मणोंको गाय,सुवर्ण,भूमि,तिल,आदि शक्ति अनुसार(अन्नको छोंड़कर)दान करैं । "ब्राह्मणेभ्यो गो भू तिल हिरण्यादिकमन्नवर्जितं यथाशक्ति दत्त्वा तैराशिषो वाचयेत्। जन्मलग्नमें दुष्टस्थानपर ग्रह हो तो दुषितग्रह प्रीत्यर्थ विशेष दक्षिणा दैं। "जन्मलग्ने दुष्टस्थान स्थित ग्रह जनित पीडा निवृत्तये तत्प्रीत्यर्थ विशेषतो दक्षिणा देया ।
तमर्वतं पंचानां वामदेवोग्निर्गायत्री आशिर्वाद प्रदाने विनियोगः~ ॐ तमर्वतंनसानसि मरुषं न दिवः शिशुं। ममृज्यं ते दिवे दिवे।। बोधद्यन्माहरिभ्यां कुमारः साहदेव्यः। अच्छानहूत उदरं। उतत्या यजता हरीकुमारात्साह देव्यात्। प्रयता सद्य आददे। एषवां देवावश्विना कुमारःसाहदेव्यः। दीर्घायुरस्तु सोमकः। तं युवं देवावश्विना कुमारं साहदेव्यं। दीर्घायुषं कृणोतन।।इति पंचभिराशिषः।।
जहाँ जहाँ संस्कारप्रधान कर्ममें मंत्र पढना हैं वहाँ बालिकाके संस्कार बिनामंत्र करैं-"कुमार्याश्चेतत्ज्जातकर्मामंत्रकं कार्यम्।
कदाचित् रात्रि,संध्या,अथवा ग्रहणमें जन्म हों तो सूतकके बाद या सूतकके मध्यमें भी यह संस्कार कर सकतें हैं-"रात्रौ संध्यायां ग्रहणे जाताशौचांतरे मध्येपिदं कार्यम्।।यदि मृत आशौचमें जन्म हो तो जन्मदिन या मृतसूतक पूर्ण होनेके बाद यह संस्कार करैं।-" मृताशौचमध्ये जात श्चेत्तदैवा शौचांते वा कार्यम्। पिता यदि परदेश हों तो बडेचाचा आदि गोत्रके बड़े आदि क्रमसे संस्कारित कुलकें व्यक्ति! यह संस्कार करैं।-"पितरि ग्रामांतरगते पितृव्यादिर्गोत्रजो ज्येष्ठ क्रमेणेदं कुर्यात्।।
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ






सामवेदे जातकर्म-संस्कार विधानम्~ पिता पुत्र या बालिका का जन्म हुआ यह सुनते ही जबतक जातकर्म~संस्कार कर्म होता हो तबतक नालछेदन तथा स्तनपान न करायें ऐसा पत्नीको तथा जन्मकरानेवाली स्त्रीयोंसे कहैं-"( पिता पुत्रस्य जन्म श्रृत्वा"यावज्जातकर्म क्रियते तावन्नाभिनाल छेदनं स्तनदानं च मा कुरुते"त्युक्त्वा)" पिता हितकर ठंडे जलसे पहनेहुए कपडेसे ही स्नान करकें स्वच्छवस्त्रादि धारणकर आचमन प्राणायाम करैं-"(हृताभिः शीताभिरद्भिः गृहे सचैलं स्नात्वा "आचम्य-प्राणानायम्य " संकल्पः- मम पुत्र वा पुत्री जन्म निमित्तमामश्राद्धं वा हेमेननान्दीश्राद्धं करिष्ये इति संकल्प्य" तदङ्गत्वेन पञ्चोपचारैः गणपतिपूजनं मातृकापूजनं पैषात्मक पुण्याहवाचनं च करिष्ये- गणपतिपूजनं मातृकापूजनं (कच्चे अन्नसे पितृभोजन निमित्त संकल्प या सुवर्णसे सम्पूर्ण नान्दीश्राद्ध करैं) आमान्नेन वा सुवर्णेन नान्दीश्राद्धं पैषात्मक पुण्याहवाचनं च समाप्य।) स्तनपान न करायें हुए तथा शिशुजन्मके मलादि को धुले हुए शिशु को माताकी गोदमें पूर्वाभिमुख रखाकर पुनः आचमन-प्राणायाम करैं-"(अकृत स्तनपानं प्रक्षालितमलं शिशुं मातुरुत्सङ्गे प्राङ्गमुखमवस्थाप्य पुनराचम्य-प्राणानायम्य" ~ देशकालौ संकीर्त्य अस्य(अस्याः) शिशोः गर्भाम्बुपान जनित सकलदोष निबर्हणायुर्मेधाभि वृद्धि बीजगर्भ समुद्भवैनो निबर्हणाय जातकर्माहं करिष्ये)" शुङ्गाकर्मके अनुसार खीलों(डांगर),यव जलसे खलमें लसौंट लैं-"(शुङ्गाकर्मवद्व्रिहियवौ जलेन पेषयेत् तद्यथा-)"जव और खीलौं को खलमें डालें-" (प्रजापतिर्यजुरोषधयः शृंगाेत्थापने विनियोगः- ॐओषधयः सुमनसो भूत्वाऽस्यां वीर्य गुं समाधत्तेयं कर्म करिष्ये..इतिमंत्रेण स्थूणादावकाशे धारयेत् )"पत्थरके खल और जव खीलोंको खरल करने योग्य पत्थरको शुद्ध जलसे साफ करैं -(शिलालोढकौ सुप्रक्षाल्य)किसीका स्पर्श न हो इस तरहसे पिता जौ तथा खीलों में जरुरी जल डालकर लसौंटे-"(प्रत्याहरणवर्ज्जितां शृंगां सुलक्ष्णां पेषययित्वा)" शुद्ध पात्रमें लसौटा हुआ जौ तथा खीलोंका रस रखैं-"(पात्रे कृत्वा)"***अब पहले पुत्रके संस्कार समंत्रक कह रहैं हैं पुत्रीके संस्कार बिना वेदमंत्र पढैं आगे कहैंगे**- दायें हाथकी अनामिका और अंगुठेसे जौखीलोंका रस लेकर"(दक्षिणाङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तद्रसमादाय" इयमाज्ञेति प्रजापतिर्यजुरन्नं शिशोः जिह्वायां मार्जने विनियोगः)"पुत्रकी जिह्वापर मंत्र पढकर बूंद डालैं-"(शिशोः जिह्वायां मन्त्रेण निदधाति"ॐ इयमाज्ञेदमन्नमिदमायुरिदममृतम्।।) पुत्रके मुखमें प्रागल्भनामक अग्निका स्मरण करैं-"(ततः प्रागल्भ नामाग्निं शिशोः मुखे विचिन्तयेत्-" विनियोग- अग्निं दूतेति भरद्वाज गायत्र्यग्निः चिन्तायां विनियोगः
५. २. २ १ २
ॐअग्निन्दूताम्|वृणीमहाइ०००प्रागल्भनामाग्निं चिन्तयामि)" दायें हाथके अंगुठे और अनामिकासे सुवर्णके टुकडे द्वारा घी लेकर मन्त्रके अन्तमें शिशुके मुखमें घीकी बूंद गिरायें"(दक्षिणाङ्गुष्ठानामिकाभ्यां हिरण्येन घृतमादाय पृथक् मंत्राभ्यां शिशोः मुखे जुहुयात् । मेधान्तेति प्रजापतिरनुष्टुप् मित्रावरुणौ सदसस्पतिरिति मेधातिथिर्गायत्री सदसस्पतिः सर्पिप्राशने विनियोगः-" ॐमेधान्ते मित्रावरुणौ मेधामग्निर्दधातु मे। मेधां ते अश्विनौ देवा वाधत्तां पुष्करस्रजौ।।)दूसरे मंत्रसे दूसरीबार बूंद गिरायें-"(ॐसदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधामयासिषम्।।)" बालिका को बिना वेद मंत्र पढैं जौखीलोंका रस जिह्वापर रखैं तथा दो बार घीकी बूंदे "ऐं"वाग्बीज बोलकर रखें-"
ब्राह्मणोंको गाय,सुवर्ण,भूमि,तिल,आदि शक्ति अनुसार(अन्नको छोंड़कर)दान करैं । " (ब्राह्मणेभ्यो गो भू तिल हिरण्यादिकमन्नवर्जितं यथाशक्ति दत्त्वा तैराशिषो वाचयेत्।)" जन्मलग्नमें दुष्टस्थानपर ग्रह हो तो दुषितग्रह प्रीत्यर्थ विशेष दक्षिणा दैं। "(जन्मलग्ने दुष्टस्थान स्थित ग्रह जनित पीडा निवृत्तये तत्प्रीत्यर्थ विशेषतो दक्षिणा देया ।)
नालछेदन करवाँ कर शिशुको एकांतमें माताका दायाँ स्तन धुलवाकर स्तनपान करायें- पान करायैं।-"(ततो नाभिनालं कृन्तत मातुर्दक्षिण स्तनं प्रक्षाल्य "मात्रा"शिशुं पाययेत् ।)" बिनामंत्र पढै बालिकाको भी-"(ॐ इमां कुमारो जरांधयतु दीर्घमायुः प्रजीवसे। अस्यै स्तनौ प्रयुंजाना आयुर्वर्चोयशोबलम्।।)
।।इति सामवेदीय सुबोधिनी पद्धतौ जातकर्म प्रयोगः।।
ॐस्वस्ति।। पु ह शास्त्री.उमरेठ।।




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