उत्तम संतानके लिये माता- पिता के शुद्धाचरणकी आवश्यक्ता

उत्तम संतानके लिये माता- पिता के शुद्धाचरणकी आवश्यक्ता~ भगवान् वासुदेवने कहा हैं कि- " नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम|| यज्ञरहित पुरुषके लिये यह लोक ही सुखदायक नहीं हैं,फिर परलोककी चर्चा ही क्या है? " सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाचः प्रजापतिः|| अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्|| यज्ञके साथ प्रजाकी सृष्टि करके प्रजापतिने पहले कहा कि इसीसे तुमलोग बढ़ो और यह तुमलोगोके लिये कामधेनु हों.उस यज्ञरूपी कामधेनुके चरणोंके त्यागसे ही संसार विपत्तिके गर्तमें पड़ा हुआ हैं और हजार प्रयत्न करनेपर भी उसके कल्याणका मार्ग निरर्गल नहीं हो रहा हैं. जिस संतानके लिये पूर्वपुरुषोंने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ की हैं,उसी संतानकी वृद्धिसे संसार उब उठा हैं. संतानोके आचरणसे अत्यन्त असंतुष्ट हैं,यहाँतक कि गर्भनिरोधके लिये नयी नयी ओषधियोंका तथा उपचारोंका आविष्कार किया जा रहा हैं और उनके प्रचारके लिये सब ओरसे प्रोत्साहन भी मिल रहा हैं. अब प्रश्न यह हैं कि क्या इस उपायसे अभीष्टकी प्राप्ति सम्भव हैं? क्या इस कृत्रिम उपायसे गर्भनिरोध गर्भपातनके समकक्षका पाप नहीं हैं? " व्यर्थीकारेण शुक्रस्य ब्रह्महत्यामवाप्नुयात्||आश्वालायनोक्तिः||"*शुक्रका व्यर्थीकार भी तो सामाऩ्य पाप नहीं हैं* क्या इससे कुसंतान और सुसंतानकी समस्या हल हो सकती हैं? कहना होगा कि कदापि नहीं. संतान-बाहुल्य शास्त्रसम्मत हैं.कुसंतान का होना ही दोषावह हैं और यह रोका जा सकता हैं. भगवान् कृष्णने कहा हैं कि" यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः|| अर्थात् यज्ञके लिये ही कर्म होना चाहिये.जितने कर्म हैं,उनका अनुष्ठान यज्ञरूपसे ही होना चाहिये.इसीसे हिन्दूके धर्ममें नहाना,खाना,सोना, सब यज्ञरूप हैं.छान्दोग्यश्रृति कहती है-" पुरुषो वाव गौतमाग्निस्तस्य वागेव समित्प्राणो धूमो जिह्वार्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिङ्गाः|| तस्मिन्ने तस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः संभवति|| हे गौतम! पुरुष अग्नि हैं,उसकी   वाणी ही समित् हैं.प्राण धूम हैं.जिह्वा ज्वाला हैं.आँख  अँगारे हैं.कान चिनगारियाँ हैं. उसी अग्निमें देवता अन्नका होम करतें हैं.उस आहुतिसे वीर्य होता हैं." योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव समिद्युपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः|| तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति|| इसी तरह हे गौतम! स्त्री अग्नि हैं.उसका उपस्थ समित् हैं.जो(रति)उस समय बात करता हैं वह धूम हैं. योनि ज्वाला हैं.प्रसङ्ग अँगारा हैं.सुख चिनगारी हैं.उसी अग्निमें देवतालोग वीर्यका होम करतें हैं.उस आहुतिसे गर्भ होता हैं. ________________________________________ इस भाँति भोजनभी यज्ञ हैं.इसका अनुष्ठान देश-कालमें होना चाहिये.केवल शुद्ध अन्नकी( भगवान् को समर्पित करके प्रसादरूप) आहुति देनी चाहिये.इससे शुद्ध वीर्य उत्पन्न होता हैं.जहाँ जो मिला,उसे खा लेनेसे यज्ञ नष्ट हो जाता हैं.और " न हि यज्ञसमो रिपुः" वही यज्ञ अपना शत्रु हो जाता हैं और नाना प्रकारके अनर्थका कारण होता हैं.एवं स्त्रीप्रसङ्ग अथवा गर्भाधान भी यज्ञ हैं.यह विहित देश-काल तथा पात्र पाकर करना चाहिये.नहीं तो इसका परिणाम अतीव भयंकर होता हैं.शरीरमें दारुण व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं. कुसंतानकी उत्पत्तिसे कुल कलंकित होता हैं और यावज्जीवन अत्युग्र यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं. संतानकी कुण्डलीकी बड़ी चिन्ता माता-पिता को होती हैं.परंतु कुण्डलीके मूलाधार गर्भाधानकालकी कोई चिन्ता ही नहीं होती.बच्चोंके विवाह संस्कारके लिये उत्तम से उत्तम मुर्हूत बड़ेसे बड़े ज्योतिषीसे दिखलाया जाता हैं.परंतु सबसे मुख्य और प्रथम संस्कार,जिसे गर्भाधान कहतें हैं, हँसी-खेलकी वस्तु समझा जाता हैं.सभ्य समाज़में उसकी चर्चा भी उठायी नहीं जा सकती,उसका नाम लेना अश्लीलता है.उचित तो यह था कि उसके नियम मनुष्यमात्रको हस्तामलक होतें.स्त्री-पुरुष सब उनसे परिचित होतें और उनके उलङ्घन करनेंमें सौ बार विचार करना पड़ता. बहुत कालसे यह भावना नष्ट हो गयी हैं.इसको जाग्रत् करनेके लिये बहुत समय और आयासकी अपेक्षा हैं.पर यदि संसारमें सुख-शान्ति लानी हैं तो इसे जाग्रत करना पड़ेंगा|| ॐस्वस्ति|| पु ह शास्त्री.उमरेठ.

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