गर्भिणी तथा गर्भिणीपतिको पतितोंका अन्न

#गर्भिणी_तथा_गर्भिणीपतिको_पतितोंका_अन्न
#खानेका_प्रायश्चित्त~~~>

यदि गर्भधारण होने के बाद पतितों,बिना जनेऊ के द्विजों का,बाज़ार का,पतितसावित्रीक तथा व्रात्यों का भोजन ग्रहण किया हो तो शुद्धि के लिए ऋग्वेद के तरत्समंदी सूक्त के चार मंत्रों का गर्भिणीपति १०८ बार जप करकें  गर्भिणीपति पञ्चगव्य का पान स्वयं और अपनी पत्नी को करायें---> (क्योंकि पतितों के अन्नसे प्राणमय कोश भी दुषित होते हैं,यह परिहार अवश्य करैं)
तरत्समंदीति चतुर्णां वत्सारः पवमानः सोमो गायत्री  प्रतिग्राह्याऽप्रतिग्राह्यमन्नं वा पतितान्नभक्षण दोष जनितपाप शांत्यर्थं जपे विनियोगः |
ॐतरत्समंदी धावती धारा सुतस्यांधसः | तरत्समंदी धावति ||१||
उस्रावेद वसूनां मर्तस्य देव्यवसः | तरत्समंदी धावति ||२||
ध्वस्रयोः पुरुषंत्योरा सहस्राणि दद्महे | तरत्समंदी धावति ||३||
आययोस्त्रिं शतंतनात्सहस्राणि चदद्महे | तरत्समंदी धावति ||४||
उपवीती द्विजों को स्वयं या ब्राह्मण से जप करवाना चाहिये, और पति को पत्नी के निमित्त दो प्राजापत्य तथा अपने निमित्त चान्द्रायण का आचरण करना चाहिये।

#गर्भिणी_पति_नियमाः~

@मुण्डनं  पिण्डदानं च प्रेतकर्म च सर्वशः || न जीवत्पितृकः कुर्याद्गुर्विणीपतिरेव  च ||हेमाद्रौ||

मुंडन, पिंडदान, और सम्पूर्ण प्रेतकर्म को, जीवत्क्रिया का सदा त्याग करें.

@उदन्वतोम्भसि स्नानं नखकेशादिकर्त्तनम् | अन्तर्वत्न्याः पतिः कुर्वन्नप्रजा जायते ध्रुवम् || मिताक्षरा ||
गर्भिणी के पति को- समुद्रस्नान, नख और केशों(सभी बाल)नहीं कटवाने से तो निश्चय प्रजाहिनता होती हैं ||

@वपनं मैथुनं तीर्थं वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः | श्राद्धं च सप्तमासान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् || आश्वालायन || क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनं च युद्धादि वास्तुकरणं त्वतिदूरयानम् | उद्भाहमौपायनं जलधेश्च गाहमायुः क्षयार्थमिति गर्भिणिकापतीनाम् || का०विधाने|| दहनं वपनं चैव वै गिरिरोहणम् | नाव आरोहणं चैव वर्ज्जयेद्गर्भिणीपतिः || अव्यक्तगर्भापतिरब्धियानं मृतस्य वाहं क्षुरकर्म सङ्गम् || तस्यां तु यत्नेन गयादितीर्थं यागादिकं वास्तुविधिं न कुर्यात् || रत्न-सं०||

मुंडन, मैथुन, तीर्थ, और सातमासके गर्भ के बाद किसी भी प्रकार का श्राद्धका भोजन  न करें, || प्रयोग पारिजात में कहा हैं कि--- क्षौर, शवयात्रा, नखों को काटना, युद्ध, घरका निर्माण(घर बदलना), अत्यन्त दूर गमन,विवाह तथा यज्ञोपवीत और समुद्र स्नान ये गर्भिणीपतिकी आयुको क्षीण करता हैं | गालव ने कहा हैं कि - दाह, मुंडन, चौल, पर्वतपर चढना ,अस्तहोते सूर्य को देखना, नावपर बैठना, ये गर्भिणी का पति त्याग दैं | समुद्रस्नान, मृतकवहन, और स्त्रीसंग, तथा तीर्थयात्रा, अपनेघर यज्ञ, वास्तु न करैं |

#गर्भवती_नियमाः- अङ्गारभस्मास्थिकपालचुल्ली शूर्षदिकेषूपविशेन्नारी | सोलूखलाढ्ये दृषदादिके वा यन्त्रे तुषाढ्ये न तथोपविष्टा || १|| नो मार्ज्जनी गोमयपिण्डकादौ कुर्यान्न वारिण्यवगाहनं सा || अङ्गारभूत्या न नखैर्लिखेत्क्ष्मां कलिं वपुर्भङ्गमथो न कुर्यात् ||२|| नो क्षणंमुक्तकेशी विवशाथ वा स्याद्भुंक्ते न संध्यावसरे न शेते || नामङ्गलं वाचमुदीरयेत्सा शून्यालयं वृक्षतले न यायात् || ३||

@गर्भवती स्त्री अंगार, भस्म, हड्डी, कपाल, चूल्हा, छाज,ऊखल, बिना आसन के पत्थर आदि, झाडू, गोमय के पिंड आदि पर न बैठे || जलमें प्रवेशकर स्नान न करैं, अँगारे की राख से या (कोयलेसे) अथवा नखसे पृथ्वी को न कुरेदे.. कलह और  शरीरभंग अर्थात् अँगडाई न ले, क्षणभर भी खुले बाल न रक्खैं, बिना कपडे़ के न रहैं, सन्ध्या के समय भोजन ओर शयन न करैं, अमंगल वाक्य न कहैं(टी.वी चैनल के प्रसारण न दैखें), शून्य घर( जिसमें  व्यक्ति की संख्या घटती हो परंतु बढती न हो), और वृक्ष के नीचे न जाय ||

@कटुतीक्ष्णकषायाणि अत्युष्णलवणानि च | अयासं च व्यवायं च गर्भिणी वर्जयेत्सदा || वि०ध०||
कडुवा,तीखा,कसैला, अत्यन्त गरम, और ज्यादा नमक का भोजन, और संयोग को  सदा त्यागना चाहिये,,
@गर्भिणी कुञ्जराश्वादिशैलहर्म्म्याधिरोहणम् | व्यायामं शीघ्रगमनं शकटारोहणं त्यजेत् || शोकं रक्तविमोक्षं च साध्वसं कुक्कुटासनम् || व्यवसायं दिवास्वापं रात्रौ जागरणं त्यजेत् || प्र०पारि०|| हरिद्रां कुङ्कुमं चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा | कूर्पासकं च ताम्बूलं माङ्गल्याभरणं शुभम् || केशसंस्कार कबरीकरकर्णविभूषणम् ||भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती दूरयेद्गर्भिणी न हि ||मद०रत्न|| 

कश्यप जी कहते हैं कि--- गर्भिणी ; हाथी, अश्व, पर्वत,महल,आदिपर चढना, और शीघ्रगमन(उतावले चलना), सहवास को छोड़ दे, शोक, किसी भी प्रकार की इजा न हो वह ध्यान रखे, कुकडे की तरह बैठना, ज्यादा परिश्रम करना, दिन में सोना और रात्रि में जागना नहीं चाहिये, स्कंदपुराण में कहा हैं---कपाल में  हलदी और  कुमकुम, चोली(घूँघट) मांगलिक श्रेष्ठ आभूषण, केशों के संस्कार, मोंढीं गूँथना, हाथ और कान के गहनों को भर्ता की आयुष्य इच्छावाली गर्भिणी कदापि त्याग न करैं. |

@चतुर्थे मासि षष्ठे वाप्यष्टमे गर्भिणी यदा | यात्रा नित्यं विवर्ज्या स्यादाषाढे तु विशेषतः |||बृहस्पतिः ||

गर्भके चौथे,छठे,आठवें महिनों में विशेष आषाढ महिने में यात्रा न करैं |

ॐस्वस्ति || पु ह शास्त्री.उमरेठ ||

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