नारायण स्मृति से गर्भधारण विषय ज्ञान

भगवती श्रुति माता कहती हैं कि " यह जीव स्वर्ग या नरक से वृष्टि द्वारा पृथ्वी पर आकर अन्न में प्रतिष्ठित हो जाता है फिर पिता में प्रवेश कर वहाँ शुक्र में गर्भरूप हो जाता है । पिता के देह में स्थित वह शुक्र पिता के सभी अंगों से उपजता है । उस दशा में पिता के दो शरीर रहते है एक उसका अपना शरीर और दूसरा उसके शुक्र में स्थित गर्भनामक शरीर। उस गर्भ समेत शुक्र को जब पिता स्त्री में स्थापित कर देता है ! तब वह पिता का पुत्ररूप से पहला जन्म है जो उसने खुद किया है । "

नारायण ! अनादि संसार - प्रवाह में पहला , दू9अ आदि किसी अपेक्षा से ही कह सकते हैं अतः यहाँ साधक को अनुभूयमान मानव जन्म की अपेक्षा त्रिजन्म - प्रक्रिया समझा रहे हैं। पूर्व में किये कर्मानुसार जीव स्वर्ग या नरक जाकर जब पुनः कर्मभूमि पृथ्वी पर लौटता है तब बरसात के सहारे ही । यह प्रसंग उपनिषद् के " पञ्चाग्निविद्या " में समझाया गया है । जीव का लोकान्तरगमन कर्मानुसार होता है । कर्मों में जल की { द्रव्य द्रव्यों की } प्रधानता होती है अतः परलोक से लौटते समय जल के सहारे आना संगत है । जीव स्वर्गादि से पहले बादल के जल में आता है  फिर बरसात गिरने पर धरती पर आकर अन्न में पहुँच जाता है जिसे पिता खाये तो वह उसमें गर्भाकार ग्रहण कर लेता है । स्पष्ट ही है कि इस ढंग में कितनी कम सम्भावना है कि जीव उचित स्थान पर पहुँचकर गर्भ बने अतं उपलब्ध मानव देह में ही तत्त्वज्ञान पाने का प्रयास कर लेना चाहिये । पिता ने खा लिया, फिर भी उसके सभी धातु बनते - बनते अन्त में चरमधातु रेतस् या शुक्र या वीर्य बनता है । गर्भभाव से पहले तक जीव जल - अन्नादि में था तो सही पर उन जल आदि में उसे तादात्म्य नहीं था अतः जल आदि के शोषण - पेषण आदि से उसे कोई कष्ट भी नहीं था । अब उसे गर्भाख्य देह से तादात्म्य हो जाता है । अत एव मातृगर्भ में जाने से पूर्व ही जीव व्यक्त हो जाने के कारण आज- कल जो दुष्प्रचार हो रहा है कि माता के गर्भ में दो - तीन मास तक जीव नहीं होता जिससे तब गर्भपात निर्दोष है , वह सर्वथा गतल है । माता के गर्भ में प्रारम्भ से ही जीव रहता है क्योंकि वह पिता के गर्भ से आता है । अतः कभी भी गर्भपात दोष का ही कार्य है। हर हालत में , प्रथमतः पिता द्वारा खाया जाकर उसके चरम धातु में रहना अति घृणित और कष्टप्रद है। पिता के सभी अंगो से  सारभूत तत्त्व परिपक्व होकर उसका रेतस् बनता है जैसे दही के प्रत्येक बिन्दु से मख्खन निकलता है । अत एव जन्म लेने वाला शरीर अनेक तरह से पिता के सदृश होता है । खाये अन्न का अंश ही सारे शरीर में पहुँचकर तत्तद् अंगों का आकार लेकर क्रमशः शुक्र बनता है अतः सभी अंगों से उसका समुत्थान उचित है । जब पिता के रेतस् से जीव गर्भरूप से पहुँचता है तब पिता का शरीर और वह गर्भ यों दो शरीर इकट्ठे रहते हैं जैसे माता के गर्भ में जीव रहते दो शरीर होते हैं । ऋतुकाल में पिता उस गर्भ - नामक देह को स्त्री के गर्भ में स्थापित करता है । पिता - कर्तृक पुत्रोत्पादन तो इतना ही है , इसके बाद तो माता उसे पुष्ट करेगी अतः पिता के गर्भ से निकलकर माता के गर्भ में आना यह एक जन्म है । पुत्र के रूप में पिता का वह जन्म हुआ । जो प्रौढ देह पिता कहलाता है वह तो उसके भी पिता का दिया हुआ है , स्वयं उसने तो यह पहला ही जन्म लिया जो वह पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ अर्थात् स्त्री - गर्भ में आहित हुआ । जिन तीन जन्मों की यहाँ बात चल रही है उनमें यह प्रथम जन्म है ।

नारायण ! अब द्वितीय जन्म बताने के लिये मातृगर्भ में स्थित का वर्णन करते हैं  ताकि उस हेय अवस्था के प्रति वितृष्णा हो और साधक इसी जीवन में तत्त्वज्ञान पाकर जन्म - संसार- बन्धन से मुक्त होने के लिये अधिकतम प्रयास करे । " स्त्री के योनियन्त्र में घुसकर यह जीव उसके गर्भाशय में पहुँचता है तथा उसके वीर्य अर्थात् शोणित से पोषण प्राप्त कर इस तरह विकसित होने लगता है कि स्त्री - शरीर से गर्भस्थ शरीर यों एक हो जाता है मानो उसक अंग ही हो । यदि इस तरह स्त्री - शरीर से एक न हो तो फोड़ा आदि बीमारी की तरह ही गर्भान्तर्गत भ्रूण उस गर्भिणी को नुकसान पहुँचाता । जैसे देह के यकृत , प्लीहा आदि अंग देह की हानी नहीं करते वैसे भ्रूण उस स्त्रीदेह की कोई हानी नहीं करता और इसीलिये वह स्त्री भी उस गर्भ को यत्नपूर्वक रखती है । "

नारायण ! देहाकार में " जो " विकसित होता है वह पुरुषांश है एवं " जिससे" विकसित होता है वह स्त्री- अंश है जैसे वृक्षाकार में विकसित तो बीज होता है पर विकसित खाद - पानी से होता है । पिता - शरीर में रहते समय गर्भ अस्पष्ट होता है , उसकी वहाँ स्थिति किसी को मालूम नहीं चलती पर माँ के गर्भ में विकसित होते ही वह प्रारम्भ में माता को व बाद में सभी को स्पष्ट पता चलने  लगता है। स्त्रीगर्भ में बढ़ता शरीर अलग होने पर भी स्त्री - शरीर से इस तरह जुड़ा रहता है कि उसी से पोषण आदि लेने पर भी स्वाभाविक रूप से उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाता । स्त्रीदेह और गर्भगत देह हैं तो अलग - अलग पर जब तक गर्भगत देह स्त्रीशरीर से बाऱ नहीं निकलता तब तक उन्हें एक मानकर चलते हैं । अतः अंगों की अंगी से जैसे एकता कह दी जाती है वैसे यहाँ भी जाननी चाहिये ।

नारायण ! गर्भ - पोषण कितने धैर्य और कष्ट से करना पड़ता है यह माताओं को ही पता चलता है । माता के लिये गया - श्राद्ध सिद्धपुर { गुजरात } में करते हैं , वहाँ संकल्प में बहुत विस्तृत वर्णन है कि माँ ने कितनी पीड़ा सहन कर बालक को जन्म दिया ; उसे सुनकर निश्चय होता है कि चाहे जितनी सेवा कर लें , माता से उऋण हो ही नहीं सकते । इतना कष्ट सहकर वह गर्भ को पालती क्यों हैं ? क्योंकि गर्भगत देह उसके पति का है और पति से उसे प्रेम है इसीलिये वह उस भ्रूण को पोषण करती है । पिता इस रहस्य को जानता है अतः वह भी उस स्त्री का विशेष ख्याल रखता है । पति के लिय यह शास्त्रीय कर्तव्य भी है कि गर्भिणी पत्नी का समीचीन पालन - पोषण करे । इस विषय को उपनिषद्  ने इस प्रकार कहा है –

गर्भरूपं भर्तृदेहं यतः सा पालयत्यतः ।
साऽपि भर्त्रा पालनीया तदिष्टाऽन्नादिवस्तुभिः ॥

अर्थात् क्योंकि स्त्री अपने पति के उस शरीर का पालन करती है जो अब स्त्री गर्भ में आ चुका है इसलिये स्त्री को अभिलषित अन्न आदि चीज़ें देकर उसका पालन करना पति का भी कर्तव्य है ।

नारायण ! गर्भ जब चतुर्थ मास में प्रवेश करता है तब माता को बहुधा विविध इच्छाएँ होती हैं जिन्हें " दोहद " कहते है । पति को यथाशक्ति वे इच्छाएँ पूरी करनी चाहिये क्योंकि जिसे इन्द्रिय - सम्बन्धी कामना को तब पूरा नहीं किया जाता , जायमान शिशु की वह इन्द्रिय विकृत हो जाती है ऐसा " सुश्रुत " आदि ने बताया है । अतः अन्न ही नहीं , वस्त्र , यान , शय्या , आभरण आदि की दोहद भी पूरणीय है । पति स्मरण रखे कि उसके देह को वह स्त्री पाल रही है तो वह स्त्री की तब उपेक्षा नहीं कर पायेगा। स्त्री को भी सावधानी से स्वाभाविक इच्छाएँ व्यक्त कर देनी चाहिये ताकि शिशु विकलांग न हो जाये । " स्वाभाविक " इसलिये कि पति पर दबाव डालने के लिये सोची - समझी इच्छाएँ दोहद नहीं होती वरन् जो स्वतः उठती हैं वे ही दोहद हैं और पूरणीय हैं । पौष्टिक  आहार आदि से स्त्री - पालन तो करना चाहिये ही , स्त्री के माध्यम से ही गर्भगत शरीर भी पल जाता है ।

नारायण ! अब द्वितीय जन्म बताते है : " भाता के शरीर में मल - मूत्र के बीच रहकर दसवें महीने में गर्भ उत्पन्न होता है । " यह मैं ही हूँ " ऐसा समझकर पिता उस पुत्र का विधिवत् संस्कार करता है। पुत्र के रूप में अपने शरीर से बाहर निकलना और पत्नी के गर्भ से बाहर निकलना ये क्रमशः दो जन्म हुए । जैसे पिता के शरीर में गर्भ रूप से वास कष्टप्रद है वैसे ही माता के शरीर में भी । मल , मूत्र , रक्त , पीप , वसा , मज्जा आदि सभी घृणित चीज़ों के मध्य , हवा - रोशनी के बिना नौ महीने उल्ट लटके रहना कितना बड़ा दुःख है यह कल्पना कोई भी कर सकता है । साधारण नियम यही है कि दसवें महीने प्रसव होता है , अपवाद रूप से सातवें - आठवें मास में भी कभी - कभी प्रसव हो जाता है । जब माता के गर्भ से निकलता है तब उसके जातकर्म आदि संस्कार पिता करता है क्योंकि उसे लगता है कि वही पुत्र के आकार में पैदा हुआ है और बात भी ठीक ही है क्योंकि उसी का रेतोबिन्दु बढ़कर बालक आकार में उपस्थित हुआ है अतः जैसे अपना नाखून , बाल आदि बढ़ जाने पर भी वह  " मैं " ही रहता है ळैसे बालक भी पिता ही है । इसीलिये वह शास्त्रोक्त संस्कारों से उस शिशु को सम्पन्न करता है अन्यथा परकीय बालकों की तऱ या अपने ही मल आदि की तरह अपने पुत्र का भी विधिवत् संस्कार न करता ! इस प्रकार दूसरा जन्म समझा दिया । श्रुति कहती है –

पितुर्द्वितीयं तज्जन्म पुत्ररूपेण संस्थितम् ।
स्वदराद् दारजठराद् अति जन्मद्वयं क्रमात् ।।

नारायण ! उपरोक्त श्रुति ने " संस्थितम् " कहा अर्थात् संस्थिति ; पुत्र के रूप में अवस्थित होना यही पिता का दूसरा जन्म है । प्रथम जन्म के समय वह केवल गर्भ रूप से स्थित हुआ था , तब वह " पुत्र " कहा - समझा नहीं जा सकता था । अब जब माता के गर्भ से बाहर प्रकट हो गया तब पिता का दूसरा जन्म हुआ । जन्म लेने में गर्भवासादि स्थूल दुःख ही नहीं एक अत्यन्त कष्टकर वैचारिक दुःख भी है यह मन्त्रोद्धरणपूर्वक कहते हैं :

पतिर्जायां विशत्यादौ गर्भो भूत्वा स्वमातरम् ।
जायैव माता सम्पन्नेत्यहो संसारकष्टता ।।
अर्थात् प्रकृत जन्मत्रय के प्रारम्भ में पति गर्भ का रूप धारणकर पत्नी में , किं वा अपनी माता में ही प्रवेश कर जाता है ! ओह ! संसार कैसा कष्ट है कि पत्नी ही  माता हो गयी । इसका आधार यस श्रुति का मन्त्र है :

पतिर्जायां प्रविशति गर्भो भूत्वा स मातरम् ।
तस्यां पुनर्नवो भूत्वा दशमे मासि जायते ॥

नारायण ! जिसके गर्भ में रहा जाये वही माता है । पति अपनी पत्नी के गर्भ में रहता है तो उसकी पत्नी उसकी माता ही हुई । फिर भी जन्म लेना है तो करना यही पड़ेगा अतः यह वैचारिक दुःख हर सहृदय को लज्जित करता है कि उसे अनिवार्यतः मातृगमन का दोष लगता है । इससे भी वैराग्य की तीव्रता होकर मुमुक्षु को शीघ्र ब्रह्मज्ञान पाने में लगाती है । अब आगे तृतीय जन्म पर विचार करेंगे : सावशेष ......

नारायण स्मृतिः




∬ श्री गुरुभ्यो नमः ∬

॥ ब्रह्मचर्य – प्रतिष्ठा ॥
: ( ६ ) :

नारायण ! " मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात् । " बिन्दु ही जीवन है और उसका क्षय मृत्यु है । पंजाबी भाषा में एक लोकोक्ति है " बिन्द बिच जिन्द " बिन्दु ही जीवन है। अग्रेजी भाषा में इसी प्रकार की बाते पायी जाती है । हिन्दू शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि स्वयं परम पिता परमात्मा बिन्दुरूप है , वीर्य की रक्षा और एतदर्थ नियमों के पालन को ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचर्य व्रत या धर्म का पालन कहा गया है । जैसा कि पूर्व में में कहा गया था कि ब्रह्मचर्य का पालन कर देवता और ऋषिगण मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर लेते थे । यह भी कहा जा चुका है कि ईश्वर , वीर्य और जीव में कोई अन्तर नहीं है।

नारायण ! वीर्य का रूप जैसा बतलाया गया है उससे यह स्पष्ट है कि शरीर उसीके आधारपर है और शरीर में उसे धारण करनेपर ही साधनाएँ , कर्तव्य एवं योग की पूर्ति हो सकती है । इस वीर्य के सम्बन्ध में आयुर्वेद शास्त्र में कहा गया है –

रसाद्रकं ततोमांसं मांसान्मेदः प्रजायते ।
मेदसाऽस्थि ततोमज्जामज्जायः शुक्रसम्भवः ॥
धातो रसादौ मज्जान्ते प्रत्येकं क्रमतो रसः ।
अहोरात्रात्स्वयं पंचसार्द्धं दण्ड च तिष्ठति ॥

जो लोग समझते हैं  कि पुष्टिकारक पदार्थ खाने से ही वीर्य की उत्पत्ति होगी , इस लिये खाते और वीर्य क्षय करते जाओ , वे निःसंदेह ही रोगी होंगे , और अकाल मृत्यु उन्हें सप्रेम गले लगायेगी ।

नारायण ! उपर्युक्त श्लोक का सारांश है कि हम जो भोजन करते है पहले वह उदर में जाकर जठराग्नि में पचता है । खाद्य पदार्थ के भली भाँति पच जाने से फिर उसका रस बनता है । इसी रस से रक्त , रक्त से मांस , मांस से मेद , मेद से अस्थि , अस्थि से मज्जा और अन्त में मज्जा से वीर्य बनता है ।

फिर –

रस से लेकर मज्जा तक प्रत्येक धातु पाँच रात - दिन और डेढ़ घड़ी तक अपनी अवस्था में रहती है । इसके बाद वीर्य बनता है । इस प्रकार 1 मास और 9 घड़ी में शरीरस्थ रस वीर्य बनता है । अतिधन्य भगवान् सुश्रुत ने कहा है कि मानव तन का रस 1 मास 9 घड़ी में वीर्य बनता है । स्त्रियों के रज की भी यही क्रिया है ।

नारायण ! आधुनिक विद्वानों का मत है कि शरीर में दो अण्डकोश हैं । इन्हीं दोनों से एक प्रकार का मन उत्पन्न होता है - एक बाह्य और दूसरा आन्तर । इसीसे शरीर संचालित होता है ।

बाह्य वीर्य अण्डकोश का श्रेष्ठ मल है । इसीमें जीव उत्पन्न करने की शक्ति है ।  इसीमें कृमि होते हैं । वीर्य के कृमि दुमदार होते हैं जो वीर्य में सदैव चलते रहते हैं । यही गर्भ धारण करते हैं । जिन मनुष्यों में ये कृमि निर्बल हैं वे सन्तानोत्पत्ति में असफल पाये जाते हैं।

आन्तरवीर्य से शरीर में कान्ति , बल , तेज , तथा पराक्रम उत्पन्न होता है। शरीर में वीर्य का कोई खास स्थान या कोष नहीं बल्कि यह समस्त शरीर में व्याप्त रहता है । इसीलिये तो इसकी रक्षा का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस प्रकार चराचर में - समस्त सृष्टि में परमात्मा विद्यमान है उसी प्रकार शरीर में वीर्य रहता है । जिस प्रकार परमात्मा अदृश्य रूप से प्रकृति का परिचालन करता है उसी प्रकार वीर्य मनुष्य को उसके कर्त्तव्यों की ओर प्रेरणा , क्ष8ता , तेज , बुद्धि आदि प्रदान करता है । बहुधा देखा जाता है कि विषयी और कामी वे ही होते हैं जिनका वीर्य पतला और कमजोर होता है । यह वीर्य मनुष्य शरीर में उसी प्रकार पाया जाता है जैसे तिल में तैल , दूध में मक्खन , गन्ने में मिठास , चन्दनादि में सुगन्ध । रक्त में वीर्य शरीर के कण - कण में व्याप्त है । शरीर के एक - एक अंग में वीर्य है और शरीर धारण करने तथा उसे समुचित रूप से परिचालित  और मानवोचित कर्त्तव्यों की पूर्ति के लिये इसका संग्रह और सबल होना आवश्यक है । जितना ही अधिक यह संग्रहित होगा उतना ही आदमी अपने समस्त कार्यों में , जीवन के सभी पहलुओं में सफल होगा । मानव तन की सफलता इसीके संग्रह और उचित , प्राकृतिक अथवा शास्त्रोक्त व्यय पर है। जिसने इसे खोया उसने अपना सब कुछ खो दिया । विचार करने की बात है कि यह कितना अमूल्य है और कितनी क्रिया - प्रक्रिया के बाद उत्पन्न होता है । फिर क्षणिक एवं कृत्रिम सुख के लिये इस अमूल्य सम्पत्ति का क्षय कर देना क्या बुद्धिमानी है । आज संसार का भयावना रूप वीर्यक्षय और वीर्यहीन पुरुषत्व की देन है । यदि सांसारिक और पारमार्थिक कल्याण की कामना है तो इसकी रक्षा करो - यही ब्रह्मनिष्ठा है , यही मनुष्य जीवन हैं - अन्यथा मानवतनधारी पशु से भी बुरा जीवन है । पशु भी केवल ऋतुकालपर ही उसका व्यय करते हैं ।

नारायण ! मन और वीर्य का घनिष्ट सम्बन्ध है । मानसिक विकास का साधन वीर्य रक्षा है । यदि मानसीक उन्नति करनी है तो बिन्दु का संग्रह करो । इसी प्रकार जीवात्मा का भी सम्बन्ध इसी वीर्य है और समस्त संसार इसीसे परिचालित है । ओज , तेज , बल , बुद्धि ,  पराक्रम , सभी कुछ इसपर निर्भर है । अतएव प्रत्येक व्यक्ति का , वह चाहे स्त्री हो या पुरुष, यह परम कर्तव्य है कि वह अपने रज या वीर्य को अमूल्य निधि समझे और उसका संग्रह करता रहे और किसी भी अवस्था में अपव्यय न होने दे । जीवन का सार यही है । जीवन बिन्दु में है । उसका अभाव मृत्यु है ।

नारायण ! सदाचार में ब्रह्मचर्य का श्रेष्ठ स्थान है । जितने प्रकार के भी तप मानव जीवन में कहे गये हैं उनमें सबसे बड़ा तप ब्रह्मचर्य का है । ब्रह्मचर्य का अर्थ रज और वीर्य की रक्षा करना है । रज और वीर्य से ही मनुष्य जीवन की धारणा होती है । एक बिन्दु रज और वीर्य वह शक्ति रखता है जिससे सृष्टि का प्रलय और उत्थान हो । दूध में जिस प्रकार घृत रहता है रक्त में उसी प्रकार वीर्य या रज । दूध से मख्खन निकल जाने से जिस प्रकार दूध बेकार हो जाता है उसी प्रकार वीर्य या रज के क्षय से रक्त बेकार हो जाता है । पर स्त्री को मातृभाव से देखना और विचार को सदेव उन्नत रखना ही मनोविकार से परे रहना है । यदि पुरुषार्थी और परक्रमी बनना है और सांसारिक कर्तव्यों की पूर्ति की क्षमता लाना है तो इस सर्वश्रेष्ठ तप ब्रह्मचर्य का पालन करें । सावशेष ......

नारायण स्मृतिः


!! श्री गुरुभ्यो नमः !!

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 : वीर्य कैसे बनता है ? :
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विर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है । भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है । आचार्यपाद् सुश्रुत ने अनुग्रह करते लिखा है :

रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते ।
मेदस्यास्थिः ततो मज्जायाः शुक्र संभवः ॥

नाराय ! जो भोजन पचता है , उसका पहले रस बनता है । पाँच दिवस तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है । पाँच दिवस बाद रक्त से मांस , उसमें से 5 - 5 दिन के अन्तर से मेद , मेद से हड्डी , हड्डी से मज्जा और मज्जा से अन्त में वीर्य वनता है । स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे " रज " कहते हैं । इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 धण्टे लग जाते हैं । वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है । एक स्वस्थ्य मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी । महीने की करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में खर्च होता है ।

नारायण ! एक माली था । उसने अपना तन - मन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुन्दर बगीचा तैयार किया ,  जिससे भाँति - भाँति के मधुर सुगन्धयुक्त पुष्प खिले । उन पुष्पों से उसने अर्थात् माली ने बढ़िया इत्र तैयार किया । फिर उसने क्या किया , जानते हैं ? उस इत्र को एक गंदी नाली में बहा दिया । अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को , जिसकी सुगन्ध से उसका घर महकनेवाला था , उसने "मोरी" में अर्थात् नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि " वह माली बड़ा मूर्ख था , पगला था .... " मगर आप अपने - आपमें ही झाँककर देखे , वह माली कहीं और ढूँढ़ने की जरूरत नहीं है , हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं । विचार करेंगे आपका भला होगा ।

नारायण ! वीर्य बचपन से लेकर आज तक , यानी 15 - 20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज , बल और स्फूर्ति देता रहा । अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी , उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो- चार बार यह भूल करने के बाद किसीके समझाने पर संभल भी गया होगा , फिर वही- की - वही भूल नहीं दोहरायी होगी परन्तु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं । अन्त में  पश्चाताप ही हाथ लगता है । अमृत रस को बहा कर । क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति कामांध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परन्तु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है । होगा ही , उसे पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परन्तु उसमें उसने 30 - 40 दिन की कमाई खो दी ।

नारायण ! युवावस्था आने तक वीर्यसंचय होता है । वह शरीर  में ओज के रूप में अर्थात् जीवनीशक्ति के रूप में स्थित रहता है । वह तो वीर्यक्षय से नष्ट होता ही है , अति मैथुन से तो हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है , जिससे युवक कमज़ोर होकर नपुंसक भी बन जाते हैं । फिर वे किसीके सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते । उनका जीवन नारकीय बन जाता है । विचार करना वीर्य निकलने में सुखाभास होता है तो संचय में कितना आनन्द मिलेगा । अपने तेज का रक्षण करिये । परमात्मा इस कार्य में आपकी सहायता करें । 

मरणं बिन्दु - पातेन जीवनं बिन्दु - धारणात् ।

नारायण स्मृति




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