संतानोत्पत्तिका वैदिक विज्ञान
संतानोत्पत्तिका वैदिक विज्ञान~ चराचर समस्त भूतोंका रस-सार अथवा आधार पृथिवी हैं,पृथिवीका रस जल हैं,जलका रस - उसपर निर्भर करनेवाली ओषधियाँ हैं,ओषधियोंका रस-सार पुष्प हैं,पुष्पका सार फल हैं,फलका रस-आधार पुरुष हैं,पुरुषका रस-सार शुक्र हैं| प्रजापतिने विचार किया कि इस शुक्रकी उपयुक्त प्रतिष्ठाके लिये कोई आधार चाहिये; इसलिये उन्होंने स्त्रीकी सृष्टि की और उसके अधोभाग- सेवनका विधान किया |यहाँ यदि यह कहा जाय कि इस पाशविक क्रियामें तो प्राणिमात्रकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हैं,इसके लिये विधान क्यों किया गया हैं,तो इसका उत्तर यह हैं कि** यह विधान इसलिये बनाया गया कि जिसमें पुरुषोंकी स्वेच्छाचारिता का निरोध हो और इस विज्ञानसे परिचित पुरुषोंके द्वारा केवल श्रेष्ठ संतानोत्पत्तिके लिये ही इसका सेवन किया जाय | इसके लिये प्रजापतिने प्रजननेन्द्रिय को उत्पन्न किया | अतएव इस विषयसे घृणा नहीं करनी चाहिये |
अरुणके पुत्र विद्वान् उद्दालक और नाक-मौद्गल्य तथा कुमारहारीत ऋषिने भी कहा हैं कि बहुत- से ऐसे मरणधर्मा नाममात्रके ब्राह्मण हैं जो निरिन्द्रिय,सुकृतहीन,मैथुन-विज्ञानसे अपरिचित होकर भी मैथुनकर्म में आसक्त होतें हैं| उनकी परलोकमें दुर्गति होती हैं |<~ इससे अशास्त्रीय तथा अबाध मैथुनकर्मका पापहेतुत्व सूचित किया गया हैं | केवल उपनीत द्विजों के लिये -- इस प्रकार मन्थकर्म करके ब्रह्मचर्यधारणपूर्वक पुरुषको पत्नीके ऋतुकाल और योग्य मुर्हूतकी प्रतिक्षा करनी चाहिये | यदि इस बीचमें स्वप्नदोषादिके द्वारा शुक्र-क्षरण हो जाय तो उनकी पुनःप्राप्ति तथा वृद्धिके लिये "# यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद्यदोषधीरप्यसरद्यपः | इदमहं तद्रेत आददे||# तथा " # पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेजः पुनर्भगः | पुनरग्निर्धिष्ण्या यथास्थानं कल्पन्ताम् ||#" इन मन्त्रोंका पाठ करैं (कमसे कम १०८ आवृत्ति दोनौं मंत्रकी साथमें ही )| इससे स्वप्नदोषादि व्याधियोंका नाश होता हैं | यदि कदाचित् जलमें अपनी छाया दीख जाय तो " मयि तेज इन्द्रियं यशो द्रविणं सुकृतम्(मुझे तेज,इन्द्रियशक्ति,यश,धन और पुण्यकी प्राप्ति हो) इस मंत्रको १०८ बार पढैं | ऋतुकालकी तीन रात बीतनेपर जब पत्नी स्नाकर शुद्ध हो जाय,तब पर्वों को छोड़कर शुभ मुर्हूतमें " स्त्रियोंमें मेरी यह पत्नी लक्ष्मीके समान हैं,इसलिये निर्मल वस्त्र पहने हुए हैं" यह विचारकर उस यशस्विनी पत्नीके पास जाकर " हम दोनौं संतानोत्पादन के लिये क्रिया करैंगे" कहकर आमन्त्रण करैं | पत्नीको कामनापरायण करनेके लिए " अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे | स त्वमङ्ग कषायोऽसि दिग्धविद्धामिव मादयेमाममूं मयि || मन्त्रका पति जप करैं | परमात्माका अँश हमारे मन्थरूपी यज्ञ कर्मसे हमें प्राप्त हों यह भावनाके साथ पति पत्नीके साथ सहवास करैं तब चालुप्रक्रिया समय पति यह मंत्रका निरंतर जप करैं-" इन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामि || इस मंत्रपाठ से पत्नी निश्चय ही यशस्विनी- पुत्रवती होती हैं |
ॐस्वस्ति | पु ह शास्त्री उमरेठ |
अरुणके पुत्र विद्वान् उद्दालक और नाक-मौद्गल्य तथा कुमारहारीत ऋषिने भी कहा हैं कि बहुत- से ऐसे मरणधर्मा नाममात्रके ब्राह्मण हैं जो निरिन्द्रिय,सुकृतहीन,मैथुन-विज्ञानसे अपरिचित होकर भी मैथुनकर्म में आसक्त होतें हैं| उनकी परलोकमें दुर्गति होती हैं |<~ इससे अशास्त्रीय तथा अबाध मैथुनकर्मका पापहेतुत्व सूचित किया गया हैं | केवल उपनीत द्विजों के लिये -- इस प्रकार मन्थकर्म करके ब्रह्मचर्यधारणपूर्वक पुरुषको पत्नीके ऋतुकाल और योग्य मुर्हूतकी प्रतिक्षा करनी चाहिये | यदि इस बीचमें स्वप्नदोषादिके द्वारा शुक्र-क्षरण हो जाय तो उनकी पुनःप्राप्ति तथा वृद्धिके लिये "# यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद्यदोषधीरप्यसरद्यपः | इदमहं तद्रेत आददे||# तथा " # पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेजः पुनर्भगः | पुनरग्निर्धिष्ण्या यथास्थानं कल्पन्ताम् ||#" इन मन्त्रोंका पाठ करैं (कमसे कम १०८ आवृत्ति दोनौं मंत्रकी साथमें ही )| इससे स्वप्नदोषादि व्याधियोंका नाश होता हैं | यदि कदाचित् जलमें अपनी छाया दीख जाय तो " मयि तेज इन्द्रियं यशो द्रविणं सुकृतम्(मुझे तेज,इन्द्रियशक्ति,यश,धन और पुण्यकी प्राप्ति हो) इस मंत्रको १०८ बार पढैं | ऋतुकालकी तीन रात बीतनेपर जब पत्नी स्नाकर शुद्ध हो जाय,तब पर्वों को छोड़कर शुभ मुर्हूतमें " स्त्रियोंमें मेरी यह पत्नी लक्ष्मीके समान हैं,इसलिये निर्मल वस्त्र पहने हुए हैं" यह विचारकर उस यशस्विनी पत्नीके पास जाकर " हम दोनौं संतानोत्पादन के लिये क्रिया करैंगे" कहकर आमन्त्रण करैं | पत्नीको कामनापरायण करनेके लिए " अङ्गादङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायसे | स त्वमङ्ग कषायोऽसि दिग्धविद्धामिव मादयेमाममूं मयि || मन्त्रका पति जप करैं | परमात्माका अँश हमारे मन्थरूपी यज्ञ कर्मसे हमें प्राप्त हों यह भावनाके साथ पति पत्नीके साथ सहवास करैं तब चालुप्रक्रिया समय पति यह मंत्रका निरंतर जप करैं-" इन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामि || इस मंत्रपाठ से पत्नी निश्चय ही यशस्विनी- पुत्रवती होती हैं |
ॐस्वस्ति | पु ह शास्त्री उमरेठ |
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