गर्भाधानातिक्रमण दोष प्रायश्चित्त

गर्भाधानातिक्रमण दोष प्रायश्चित्त क्या पिता को ही करना चाहिये ?

हमारे वैदिकसंस्कारों का प्रयोजन हैं पिता के बैजीक और माता के गार्भिक दोषों का निबर्हण । यथा --> "गार्भैर्होमैर्जातकर्म चौडमौञ्जीनिबन्धनैः। *बैजिकं गार्भिकं* चैनो द्विजानामपमृज्यते।। मनुः २/२७।।"" -- इस कारण से विधापूर्वक गर्भाधान न करने में जितना दोषी पिता हैं उतनी ही दोषी "पति को कर्तव्य का भान न कराने में और स्वैच्छिक जातीयसुख भुगतने में पत्नी भी दोषी हैं, पिता यदि इस कर्तव्य से अज्ञानता के कारण संस्कार विमुख होता हैं तो बैजिकदोष और माता के विमुखता के कारण गार्भिकदोष --  साथ में विधिहिन काम्यप्रवृत्ति केवल जातीयसुख की लिप्सा । इस कारणों से भ्रूण में भी धर्मप्रजा का नहीं अपितु कामप्रजा का विकास होता हैं। (वर्तमान द्विजों का वेदाध्ययनादि कर्तव्यविमूढ़ों के लिये उचित - वेद और वेदव्रतातिक्रमण सहित वेद के अतिक्रमण के चान्द्रायण,ब्रह्मचर्यकर्म लोप के लिये चान्द्रायण और वेदव्रतों के अतिक्रमण के लिये एक,एक यथा चारप्राजापत्य तथा , #गर्भाधानातिक्रमण_के_तीनप्राजापत्य --- कुल ४+३ =७ प्राजापत्य और दो चान्द्रायण।। चतुर्वर्ग चिंता०प्राय०खंड ५२५/५२८/५३१/५०७ पृष्ठेषु।।)

#यह_प्रायश्चित्त_कब_करना_चाहिये ?
सामान्यतः स्त्री की ऋतुकाल षोडश स्त्रीयाँ होती हैं और जबतक स्त्री जन्मराशि से अनुपचयस्थान में आनेवाले चन्द्रमा पर मंगल की दृष्टि का सम्बन्ध नहीं होगा तथा पुरुष की राशि से उपचयस्थ में चन्द्रमा पर गुरु की दृष्टि सम्बन्ध नहीं होगा तबतक गर्भ ठहर नहीं सकेंगा " *( कुजेन्दुहेतु प्रतिमासमार्तवं गते तु पीडर्क्षमनुष्णदीधितौ। अतोऽन्यथास्थे शुभपुंग्रहेक्षिते नरेण संयोगमुपैति कामिनी बृहज्जातक निषेका०४/१।। /// स्त्रीणां गतोऽनुपचयर्क्षमनुष्णरश्मिः संदृश्यते यदि धरातनयेन तासाम्। गर्भग्रहार्तवमुशन्ति तदा न बन्ध्यावृद्धातुराल्पवयसामपि ।।)"* । इसलिये  गर्भाधान संस्कार का प्रारंभिक कर्म यथा ( संस्कार के संकल्प पूर्वक , गणपतिपूजन, पुण्याहवाचन,मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध गर्भाधानादि होम) केवल प्रथम समय होता हैं। परंतु गर्भाधान की प्रधान क्रिया का महत्त्व तो तब सार्थक होती हैं कि जब जब संतानोत्पत्ति की कामना से पत्नी के साथ संयोग हो और दैवयोगवशात् गर्भ का आधान हो, इस प्रधान गर्भाधान प्रधान-विधा की क्रिया गर्भाधानांग (१ सूर्यावलोकन, २पत्नी की नाभि-अभिमर्शन,४ संयोग(अभिगमन-क्रिया), तथा पत्नी का ५- हृदयावलम्भन के मंत्रो प्रमुख हैं।) इसे प्रति संयोग समय किया जाय।
इस प्रकार से बिना गर्भाधान-संस्कार के संयोग हो जाय तो दूसरे संयोग से पहिले उचित तीनप्राजापत्य प्रायश्चित्त करना चाहिये। पत्नी को आधा प्रायश्चित्त उचित हैं ।

यह भी संभव न हुआ तो  पुंसवन संस्कार से पहिले दोगुना प्रायश्चित्त यथा -- तीन प्राजापत्य के दोगुने छः करना चाहिये,पत्नी को सार्धप्राजापत्य का दोगुना तीनप्राजापत्य करना चाहिये, और यदि यह भी संभव न हुआ तो "(कामकृते तद् द्विगुणम्।कामतोऽभ्यासे चतुर्गुणम्।प्राय०शेखर।।)" सीमन्तोन्नयन से पहिले  इसी प्रायश्चित्त का चारगुना प्रायश्चित्त पिता को यथा -  बारह प्राजापत्य और माता को छह प्राजापत्य करने चाहिये।
"(प्राजापत्य प्रायश्चित्त का पूर्ण पृथक् पृथक् क्रम संभव न हो तो पादकृच्छ्र को चतुर्गुण विधा से करतें हुए भी एक प्राजापत्य पूर्ण होता हैं इस तरह ---   द्वितीयादि संयोग से पहिले मूल अथवा असंभवे पुंसवन से पहिले दोगुना या यह भी संभव न हुआ हो तो सीमन्तोन्नयन से पहिले  -- चतुर्गुण प्रायश्चित्त करना चाहिये। यदि पुंसवनसंस्कार विधापूर्वक न किया हो तो पुंसवन-अतिक्रांत का भी पादकृच्छ्र का दोगुना प्रायश्चित्त  सीमन्तोन्नयन से पहिले गर्भाधान-अतिक्रांत प्रायश्चित्त के साथ साथ अधिक करना चाहिये।  न करनेपर संतान्नोत्पत्ति के बाद तो संतान में बैजिकगार्भिक दोष तो रहेगा ही --  फिर भी व्यवस्था हैं कि अगले अगले जातकर्मादि चूडाकरण तक के  संस्कारों से पहिले जो संस्कार का अतिक्रमण हुआ हो उसका प्रायश्चित्त करकें लब्धकालोचित संस्कार को आचरना चाहिये अथवा सचौलोपनय-संस्कार से पहिले अतिक्रांत संस्कारों का प्रायश्चित्त केवल पिता को - गर्भाधान से अन्नप्राशन तक के अतिक्रांत के लिये प्रति अतिक्रांतसंस्कार लोप निमित्त पाद/पादकृच्छ्र का दोगुना और चूडाकरण-अतिक्रान्त का अर्द्धकृच्छ्र का दोगुना - प्रायश्चित्त करना चाहिये --
"(आरभ्याधानमाचौलात्कालातीते तु कर्मणाम्। व्याहृत्याज्यं सुसंस्कृत्य हुत्वा कर्म यथाक्रमम् ( ऐकैकसंस्कारमुद्दिश्य व्याहृतिभिः पृथक् पृथक्)। एतेष्वेकैकलोपेऽपि पादकृच्छ्रं समाचरेत्। चूडायामर्धकृच्छ्रं स्यादापदि त्वेवमीरितम्( आपत्ति-- मृताशौचादि आब्दिकशौचादि विषय)। अनापदि तु सर्वत्र द्विगुणं द्विगुणं चरेत्।। भगवानाश्वालयन।।)"

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