द्वितीयाद्यृतुषु रजस्वला धर्मादि निर्णय
#द्वितीयाद्यृतुषु_रजस्वला_धर्मादि_निर्णय-> २
*#प्रथमेऽहनि_चांडाली_द्वितीये_ब्रह्मघातिनी | #तृतीये_रजकी_प्रोक्ता_चतुर्थेऽहनि_शुद्ध्यति || #भर्तुः_स्पृश्या_चतुर्थेऽह्नि_स्नानेन_स्त्री_रजस्वला | #पञ्चमेऽहनि_योग्या_स्याद्दैवे_पित्र्ये_च_कर्मणि ||भारद्वाजः ||)*
प्रथम रजोदर्शन -->
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के कर्तव्यों के बाद दूसरे ऋतुकाल आदि में रजस्वला के धर्मादि नियम कहतें हैं |
आजकल आधुनिक युवतीयाँ लोगों से सुनीसुनाईं बातों पर विश्वास करकें मनमाना आचरण कर बैठतीं हैं, कपोलकल्पित सिद्धांत --रजस्वलाधर्म पर बैठ़कर -मनमाने दिन या किसी के निर्देश किए हुए दिन में उपवास करें तो वह कहीं भी स्पर्श की अधिकारिणी बनतीं हैं -- यह पाखंड़ युवतीयों को धर्महानि भी करवाता हैं तथा स्व भी पतित होकर अपने भावी संतानों के लिए तथा अनुसरताओं के लिए भी घातक हैं, रजोदर्शन के यम-नियमादि से संतान पर अवश्य शुभाशुभ प्रभाव रहता हैं ----> (आगे विषय पर वेदाज्ञा का विचार करतें हैं)
उपर कहैं हुए भरद्वाज ऋषि के वचन -- रजस्वला स्त्री पहले दिन चांडाली, दुसरे दिन ब्रह्मघातिनी, तीसरे दिन धोबिन मानी जाती हैं, चौथे दिन शुद्ध होती हैं | चौथे दिन स्नान कर के अपने पति को स्पर्श करने योग्य होती हैं | पाँचवें दिन देवकार्य पितृकार्य आदि शुभ कार्य करने योग्य होती हैं |
*( सूतकाद् द्विगुणं शावं शावाद् द्विगुणमार्तवम् | आर्तवाद् द्विगुणा सूतिस्थतोऽपि शावदाहक इति स्मृतेः ||)*
जननसूतक से अधिक मृत्युसूतक में स्पर्शदोष हैं, मृत्युसूतक से अधिक रजस्वला के स्पर्श में दोष हैं और रजस्वला के स्पर्श से अधिक शव को अग्निदेनेवाले के स्पर्श में दोष हैं |
*( शिशोरभ्युक्षणं कार्य बालस्याचमनं स्मृतम् | रजस्वलादि संस्पर्शे स्नातव्यं च कुमारकैः || प्राक्चुडाकरणाद् बालः प्रागन्नप्राशनाच्छिशुः | कुमारकः स विज्ञेयो यावन्मौञ्जीनिबन्धन || हरिहर भाष्ये वृद्धशातातप ||)*
रजस्वला आदि के स्पर्श में शिशु(अन्न प्राशन ६ मास से छोटें बालक या बालिका)को प्रोक्षण(जल की छंटकाव), बालक(चुडाकरण २ वर्ष से पहिले बालक या बालिका) को आचमन (तीन) और कुमार( चुडाकरण के बाद तथा उपनयन से पहले कुमार ब्रा०८/क्ष०११/वै०१२ वर्ष से पहिले तथा आजीवन पुरुष को) कुमारी( २ से १० वर्ष वयवाली )तथा आजीवन स्त्री को स्नान करना चाहिए |
#तैतरीयश्रुति में बालकपर होने वाली असरें कही हैं --- =>
*( मलवद्वाससा न संवदेत् न सहासीत् नास्या अन्नमद्यात् ब्रह्महत्यायै एषा वर्णं प्रतिमुच्यास्ते अधो खल्वाह अभ्यञ्जनं वा व स्त्रिया अन्नमभ्यञ्जनमेव न प्रतिगृह्यं काममन्यदिति | या मलद्वासं सम्भवन्ति यस्ततो जायते सोमिशस्तो यामरण्ये तस्यै स्तेनः यां पराचीं तस्यै ह्नीत, मुख्य प्रगल्भा | या स्नाति तस्या अप्सुमारकः या अभ्यङ्गे तस्यै दुश्चर्मा याथ लिखते तस्यै खलतिरपस्मारी याङ्के तस्यै काणः या दंतो धावते तस्यै श्यावदन् या नखानि निकृन्तते तस्यै कुनखी या कृणत्ति तस्यै क्लीबः या रज्जुं सजति तस्या उद्बन्धुकः या पर्णेन पिबति तस्या उन्मादकः या खर्वेण पिबति तस्यै खर्वः | तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरेदञ्जलिना वा पिबेत् अखर्वेण वा पात्रेण प्रजायै गोपीथाय || तैतरीये ||)*---->
रजोदर्शन के दिनों में मलीन(बिना धुलें) वस्त्र पहनें, किसी के साथ न बैठे, रजस्वला के स्पर्श का न अन्न खायें यह स्पर्शादि ब्रह्महत्या के समान पातक हैं, रजोवती स्त्री का अन्न ग्रहण न करें, मलीन वस्त्र तीन दिन रहैं तो सन्तान अच्छी हो, जो वन में भ्रमण करने जाय उनकी सन्तान स्तेन, जो दूसरे के घर जाय उसके सन्तान ह्लीत तथा मिथ्यावचन वाली, स्नान करने वाली के सन्तान को जलोदर आदि जलसम्बन्धित रोग, जो उबटन लगावे उनकी सन्तान दुश्चर्मवाली(चर्मरोगी), जो लिखे उनकी सन्तान खलित अपस्मारी, जो सुरमा लगावे उसकी सन्तान क्षिणदृष्टिवाली, जो (वनस्पति के दातुँन) करें तो उसकी सन्तान श्यामदन्त, जो नख काटै उसके कुनखी, जो रस्सी बटे उसे उद्बन्धुक जो दौनों से पीवे उनके उन्मादी सन्तान होती हैं, जो खर्व से पिये उसेके बौना पुत्र हो, तीनों दिन अस्पृश्यता का व्रत रखकर अंजलि से जल पिये अथवा प्रजा की रक्षा के निमित्त बड़े पात्र (लौटे इत्यादि) से जल पिये |
सभी प्रकार की रजस्वला स्त्रीयों के लिए --- > *( अञ्जनाभ्यञ्जने स्नानं प्रवासं दन्तधावनम् | न कुर्यात्सार्त्तवा नारी ग्रहाणामीक्षणं तथा ||प्रयोग पारिजाते दक्षः ||)*
अञ्जन, उबटन, स्नान, प्रवास(परदेश जाना= नदी को लाँघना), दातुन से दंतधावन और आकाश में ग्रहों(तारा,ग्रह,नक्षत्र आदि) का दर्शन ऋतुवाली स्त्रीयों को नहीं करना चाहिये |
*( वर्जयेन्मधुमांसं च पात्रे खर्वे च भोजनम् | गन्धं माल्यं दिवास्वापं ताम्बूलं चास्यशोधनम् ||अत्रि ||)*
अत्रि कहतें हैं कि रजोदर्शन के दिनों में मधु, मांस धातु के छोटे पात्र में भोजन, गन्ध, पुष्पमाला, दिन में शयन, ताम्बूल, मुखवास न करें |
*( रजः प्राप्ता चेदधः शयीत भूमौ कार्व्णायसे पाणौ मृन्मये वाश्नीयात् ||हारितः ||)*
रजोदर्शन के दिनों में पृथ्वीपर शयन करें, लोहा हाथ अथवा मट्टी के पात्र में भोजन करें और अञ्जली से जलपान करें) तथा अपने जूठे पात्र को स्वयं स्वच्छ करें अथवा फैंक दे,,,,
*( आहारं गोरसानां च पुष्पालंकारधारणम् | अञ्जनं कंकतं दन्ताः पीठशय्याधिरोहणम् | अग्निसंस्पर्शनं चैव वर्जयेच्च दिनत्रयम् ||विष्णुधर्मे||)*
ऋतुवतीयों को गोरसों(गाय के दूध की सामग्री)का भोजन, पुष्प और आभूषणों का धारण, अञ्जन, कंधी, सुगन्ध लगाना, कुशासन और शैय्यासन(पलंग आदि) पर बैठना तथा अग्नि का स्पर्श तीन दिन तक नहीं करना चाहिये |
*( स्त्रीधर्मिणी त्रिरात्रं तु स्वमुखं नैव दर्शयेत् | स्ववाक्यं श्रावन्नापि यावत्स्नानान्न शुद्ध्यति | सुस्नाता भर्तृवदनमीक्षेन्नान्यस्य कस्यचित् | अथवा मनसि ध्यात्वा भानुं विलोकयेत् || याज्ञवल्क्य ||)*
रजोदर्शन के दिनों में अपना मुख न दैखैं, जबतक चौथे दिन स्नान से शुद्ध न हो तबतक किसी को अपना वचन भी न सुनावेै, स्नान कर स्वामी(पति) का ही मुख देखै और का नहीं अथवा पति न हो तो मन में पति का ध्यान करतें हुए सूर्य का दर्शन करें |
#रात्रौ_निर्णय- *( रजसि जननादौ च रात्रि त्रिभागां कृत्वा आद्यभागद्वयं चेत् पूर्वदिनं ग्राह्यम्, परतस्तूत्तरमिति || सप्तदशदिनपर्यन्तं पुनारजोदृष्टौ स्नानमात्रम् | अष्टादशे एकरात्रम् | ऊनविंशे द्वयहः| विंशतिप्रभृति त्रिरात्रमिति || मिताक्षरा ||)*
जब रात्रि में रजोधर्म अथवा जन्म होय तो रात्रि के तीन भाग करकें पहले दो भाग में हो तो प्रथम दिन लेना तथा तीसरे भाग में हो तो अगला दिन लेना चाहिये | १७ दिन पर्यन्त फिर रजोदर्शन हो तो स्नान मात्र, १८ वें दिन एकदिन, १९ वें दिन दो दिन, २० आदि में ३ दिन नियमों का पालन करें |
*( त्रयोदशदिनादूर्ध्वं प्रायो रजोवतीनामेकादशदिनात्प्रागशुचित्वं नास्ति | एकादशदिने एकरात्रम् | द्वादशे द्विरात्रम् | ऊर्ध्वं त्रिरात्रमिति || आशौच पञ्जिकायां स्मृत्यर्थसार वचन ||)*
१३ दिन के उपरांत प्रायः रजोधर्म वाली स्त्री को ११ वें दिन से प्रथम अशौच नहीं होता, ११ वें दिन एकरात्र, १२ वें दिन दो रात्र, बाद में तेरहवें दिन आदि से तीनरात्रि तक नियमों का पालन करें |
*( रोगेण यद्रजः स्त्रीणामन्वहं हि प्रवृत्तते | नाशुचिस्तु भवेत्तेन यस्माद्वैकारिकं मतम् || प्रयोग पारिजात ||)*
स्त्रियों को रोग से प्रतिदिन जो रजोधर्म होता हैं उससे स्त्री अपवित्र नहीं होती, कारण कि वह विकार से प्राप्त हुआ हैं |
*( साध्वाचारा न तावत्स्यात्स्नातापि स्त्री रजस्वला | यावत्प्रवर्तमानं हि रजो नैव निवर्तते || हेमाद्रौ शंखः ||)*
रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करकें भी साधु आचरण नहीं कर सकतीं जबतक प्रवृत्त हुआ रजोधर्म पूर्णता से निवृत्त न हो जाय | इसलिए अशुद्ध ही जानें |
*( रोगजे वर्त्तमानेपि काले निर्याति कालिकम् | तस्मात्कालेऽप्रमत्ता स्यादन्यथा संकरो भवेत् || ऋष्यश्रृङ्गः ||)*
रोग से हुआ रज वर्त्तमान भी होय तो भी काल (प्रथम रजोदर्शन के दिन) से उत्पन्न हुआ रुधिर नियत काल (प्रति २० वें दिन रज प्रवृत्त हो यह नियम) में निकलता हैं उस समय से २०/२१/२२ वें दिनों में मनुष्य प्रमत्तता न करें अन्यथा (उत्पन्न संतान) वर्णसंकरता करैंगी |
*#रजस्वला_परस्परस्पर्शे_प्रायश्चित्त->*
*( रजस्वलाया रजस्वलान्तरस्पर्शेऽकामतः स्नानं कामतः उपवासः पञ्चगव्यप्राशनं च | असवर्णानां तु #ब्राह्मण्याः क्षत्रियादि स्पर्शे क्रमेण कृच्छ्रार्द्ध, पादोनकृच्छ्र,कृच्छ्राणि | #क्षत्रियादीनां तु कृच्छ्रपाद एव, क्षत्रियादिनां हीनवर्णस्पर्शे त्रिरात्रमुपवासः | #वैश्याशुद्रयाः पूर्वया स्पर्शेऽहोरात्रं द्विरात्रं च | एतच्च कामतः | आकामतश्च प्राक् शुद्धेरनशनम् | आकामतश्चाण्डालादिस्पर्शेप्यनशनमेव प्रक्छुद्धेः | कामतस्तु प्रथमेह्नि त्र्यहः ,द्वितीये द्वयहस्तृतीये एकाहः | श्वस्पर्शे तु द्वयह एकाहो वा | भुञ्जानायाश्चाण्डाल्दिस्पर्शे षड्रात्रम् | उच्छिष्टयोः स्पर्शे तु कृच्छ्र इत्यादि ||मिताक्षरा ||)*
सवर्णा---->रजस्वला अज्ञान से दूसरी रजस्वला का स्पर्श करले तो स्नान, जानकर स्पर्श करे तो उपवास, और पञ्चगव्य का भक्षण करें |
भिन्नजाति- ब्राह्मणी को क्षत्रिया, वैश्या वा शूद्रा स्पर्श करें तो --
ब्राह्मणी+क्षत्रिया के स्पर्श में आधाकृच्छ्र(६ दिन का व्रत), ब्राह्मणी+ वैश्या के स्पर्श में पादोनकृच्छ्र( ९ दिन का व्रत), ब्राह्मणी + शूद्रा के स्पर्श में पूर्णकृच्छ्र(बारहदिन का व्रत) यदि शूद्रा वैश्या क्षत्रिया को ब्राह्मणी स्पर्श करें तो पादकृच्छ्र(तीन रात्र व्रत ) करें तो शुद्ध हो | यदि क्षत्रियाको वेश्या आदि स्पर्श करें तो तीनरात व्रत करें | यदि वैश्या और शूद्रा को अपने से पूर्वजाति की स्त्री छू ले तो अहोरात्र वा दो रात्र व्रत करें, अनजानता से स्पर्श में अनशन व्रत करें |
अज्ञानता से चाण्डाल आदि के छू ले में भी पवित्रता के लिये अनशनव्रत ही कहा हैं, जानकर छू ले ने में ब्राह्मणी ३ दिन, क्षत्रिया दो दिन, वैश्या १ दिन व्रत करें | कुत्ते का स्पर्श हो जाय तो २ दिन अथवा १ दिन व्रत करें | यदि भोजन करती हुई रजस्वला को चाण्डाल आदि का स्पर्श हो जाय तो ६ दिन (अर्द्धकृच्छ्र)व्रत करे, यदि उच्छिष्ट भोजन करती हुई दो रजस्वलाएँ परस्पर छू लें तो कृच्छ्र(१२ दिन व्रत) करें |
*( सर्वत्र बालापत्याया स्पर्शे स्नाने कृते भुक्तिः पश्चादनशनप्रत्याम्नायः ||स्मृत्यर्थ सारे||)*
जिस स्त्री की गोद में बालक हो वह छू ले तो स्नान करने से पवित्र होती हैं और भोजन के बाद स्पर्श करें तो अनशनव्रत करने से शुद्धि होती हैं |
*#प्रायश्चित्तं_यथोक्तमेव_वाच्यं #न_तु_स्नेहलोभादिनाऽनुग्रहः_कार्यः #तथा_सति_पापं_वक्तरि_संक्रमेत् || #पूर्णषोडशवर्षस्य_पूर्णं_प्रायश्चित्तं #पञ्चवर्षन्यूनस्य_न_तु_पापम् ||प्रायश्चित्तेन्दुशे० नागोजी ||*
प्रायश्चित्त का जैसा प्रकार हो वैसा ही कहना चाहए, स्नेह लोभादि के कारण किसी भी पर अनुग्रह नहीं करना चाहिए नहीं तो शास्त्रज्ञवक्ता को पातकी का पाप संक्रमित होता हैं | पूर्ण सोलह वर्ष और तदुपरांत वाले व्यक्ति को सम्पूर्ण कहा हुआ प्रायश्चित्त करना चाहिये, पाँच वर्ष से नन्हें बालक को पाप नहीं, *#तत्रैव-- #षोडशवर्षन्यूनो_बालः ||* सोलह वर्ष से नन्हे तथा पाँचवर्ष के उपरांत को आधा प्रायश्चित्त करना चाहिये |
*#अज्ञानाकामकृते_यदुक्तं #कामकृते_द्विगुणम् #कामतोऽभ्यासे_चतुर्गुणम् ||नागोजी ||*
अनजाने में किए पाप का कहा हुआ मूल प्रायश्चित्त, जानकर किए हुए पातक में दोगुना प्रायश्चित्त तथा वारंवार जानते हुए किए पातक का चारगुना प्रायश्चित्त हैं |
|| जय श्री राम ||
ॐस्वस्ति || शास्त्री पु ह उमरेठ ||
*#प्रथमेऽहनि_चांडाली_द्वितीये_ब्रह्मघातिनी | #तृतीये_रजकी_प्रोक्ता_चतुर्थेऽहनि_शुद्ध्यति || #भर्तुः_स्पृश्या_चतुर्थेऽह्नि_स्नानेन_स्त्री_रजस्वला | #पञ्चमेऽहनि_योग्या_स्याद्दैवे_पित्र्ये_च_कर्मणि ||भारद्वाजः ||)*
प्रथम रजोदर्शन -->
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के कर्तव्यों के बाद दूसरे ऋतुकाल आदि में रजस्वला के धर्मादि नियम कहतें हैं |
आजकल आधुनिक युवतीयाँ लोगों से सुनीसुनाईं बातों पर विश्वास करकें मनमाना आचरण कर बैठतीं हैं, कपोलकल्पित सिद्धांत --रजस्वलाधर्म पर बैठ़कर -मनमाने दिन या किसी के निर्देश किए हुए दिन में उपवास करें तो वह कहीं भी स्पर्श की अधिकारिणी बनतीं हैं -- यह पाखंड़ युवतीयों को धर्महानि भी करवाता हैं तथा स्व भी पतित होकर अपने भावी संतानों के लिए तथा अनुसरताओं के लिए भी घातक हैं, रजोदर्शन के यम-नियमादि से संतान पर अवश्य शुभाशुभ प्रभाव रहता हैं ----> (आगे विषय पर वेदाज्ञा का विचार करतें हैं)
उपर कहैं हुए भरद्वाज ऋषि के वचन -- रजस्वला स्त्री पहले दिन चांडाली, दुसरे दिन ब्रह्मघातिनी, तीसरे दिन धोबिन मानी जाती हैं, चौथे दिन शुद्ध होती हैं | चौथे दिन स्नान कर के अपने पति को स्पर्श करने योग्य होती हैं | पाँचवें दिन देवकार्य पितृकार्य आदि शुभ कार्य करने योग्य होती हैं |
*( सूतकाद् द्विगुणं शावं शावाद् द्विगुणमार्तवम् | आर्तवाद् द्विगुणा सूतिस्थतोऽपि शावदाहक इति स्मृतेः ||)*
जननसूतक से अधिक मृत्युसूतक में स्पर्शदोष हैं, मृत्युसूतक से अधिक रजस्वला के स्पर्श में दोष हैं और रजस्वला के स्पर्श से अधिक शव को अग्निदेनेवाले के स्पर्श में दोष हैं |
*( शिशोरभ्युक्षणं कार्य बालस्याचमनं स्मृतम् | रजस्वलादि संस्पर्शे स्नातव्यं च कुमारकैः || प्राक्चुडाकरणाद् बालः प्रागन्नप्राशनाच्छिशुः | कुमारकः स विज्ञेयो यावन्मौञ्जीनिबन्धन || हरिहर भाष्ये वृद्धशातातप ||)*
रजस्वला आदि के स्पर्श में शिशु(अन्न प्राशन ६ मास से छोटें बालक या बालिका)को प्रोक्षण(जल की छंटकाव), बालक(चुडाकरण २ वर्ष से पहिले बालक या बालिका) को आचमन (तीन) और कुमार( चुडाकरण के बाद तथा उपनयन से पहले कुमार ब्रा०८/क्ष०११/वै०१२ वर्ष से पहिले तथा आजीवन पुरुष को) कुमारी( २ से १० वर्ष वयवाली )तथा आजीवन स्त्री को स्नान करना चाहिए |
#तैतरीयश्रुति में बालकपर होने वाली असरें कही हैं --- =>
*( मलवद्वाससा न संवदेत् न सहासीत् नास्या अन्नमद्यात् ब्रह्महत्यायै एषा वर्णं प्रतिमुच्यास्ते अधो खल्वाह अभ्यञ्जनं वा व स्त्रिया अन्नमभ्यञ्जनमेव न प्रतिगृह्यं काममन्यदिति | या मलद्वासं सम्भवन्ति यस्ततो जायते सोमिशस्तो यामरण्ये तस्यै स्तेनः यां पराचीं तस्यै ह्नीत, मुख्य प्रगल्भा | या स्नाति तस्या अप्सुमारकः या अभ्यङ्गे तस्यै दुश्चर्मा याथ लिखते तस्यै खलतिरपस्मारी याङ्के तस्यै काणः या दंतो धावते तस्यै श्यावदन् या नखानि निकृन्तते तस्यै कुनखी या कृणत्ति तस्यै क्लीबः या रज्जुं सजति तस्या उद्बन्धुकः या पर्णेन पिबति तस्या उन्मादकः या खर्वेण पिबति तस्यै खर्वः | तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरेदञ्जलिना वा पिबेत् अखर्वेण वा पात्रेण प्रजायै गोपीथाय || तैतरीये ||)*---->
रजोदर्शन के दिनों में मलीन(बिना धुलें) वस्त्र पहनें, किसी के साथ न बैठे, रजस्वला के स्पर्श का न अन्न खायें यह स्पर्शादि ब्रह्महत्या के समान पातक हैं, रजोवती स्त्री का अन्न ग्रहण न करें, मलीन वस्त्र तीन दिन रहैं तो सन्तान अच्छी हो, जो वन में भ्रमण करने जाय उनकी सन्तान स्तेन, जो दूसरे के घर जाय उसके सन्तान ह्लीत तथा मिथ्यावचन वाली, स्नान करने वाली के सन्तान को जलोदर आदि जलसम्बन्धित रोग, जो उबटन लगावे उनकी सन्तान दुश्चर्मवाली(चर्मरोगी), जो लिखे उनकी सन्तान खलित अपस्मारी, जो सुरमा लगावे उसकी सन्तान क्षिणदृष्टिवाली, जो (वनस्पति के दातुँन) करें तो उसकी सन्तान श्यामदन्त, जो नख काटै उसके कुनखी, जो रस्सी बटे उसे उद्बन्धुक जो दौनों से पीवे उनके उन्मादी सन्तान होती हैं, जो खर्व से पिये उसेके बौना पुत्र हो, तीनों दिन अस्पृश्यता का व्रत रखकर अंजलि से जल पिये अथवा प्रजा की रक्षा के निमित्त बड़े पात्र (लौटे इत्यादि) से जल पिये |
सभी प्रकार की रजस्वला स्त्रीयों के लिए --- > *( अञ्जनाभ्यञ्जने स्नानं प्रवासं दन्तधावनम् | न कुर्यात्सार्त्तवा नारी ग्रहाणामीक्षणं तथा ||प्रयोग पारिजाते दक्षः ||)*
अञ्जन, उबटन, स्नान, प्रवास(परदेश जाना= नदी को लाँघना), दातुन से दंतधावन और आकाश में ग्रहों(तारा,ग्रह,नक्षत्र आदि) का दर्शन ऋतुवाली स्त्रीयों को नहीं करना चाहिये |
*( वर्जयेन्मधुमांसं च पात्रे खर्वे च भोजनम् | गन्धं माल्यं दिवास्वापं ताम्बूलं चास्यशोधनम् ||अत्रि ||)*
अत्रि कहतें हैं कि रजोदर्शन के दिनों में मधु, मांस धातु के छोटे पात्र में भोजन, गन्ध, पुष्पमाला, दिन में शयन, ताम्बूल, मुखवास न करें |
*( रजः प्राप्ता चेदधः शयीत भूमौ कार्व्णायसे पाणौ मृन्मये वाश्नीयात् ||हारितः ||)*
रजोदर्शन के दिनों में पृथ्वीपर शयन करें, लोहा हाथ अथवा मट्टी के पात्र में भोजन करें और अञ्जली से जलपान करें) तथा अपने जूठे पात्र को स्वयं स्वच्छ करें अथवा फैंक दे,,,,
*( आहारं गोरसानां च पुष्पालंकारधारणम् | अञ्जनं कंकतं दन्ताः पीठशय्याधिरोहणम् | अग्निसंस्पर्शनं चैव वर्जयेच्च दिनत्रयम् ||विष्णुधर्मे||)*
ऋतुवतीयों को गोरसों(गाय के दूध की सामग्री)का भोजन, पुष्प और आभूषणों का धारण, अञ्जन, कंधी, सुगन्ध लगाना, कुशासन और शैय्यासन(पलंग आदि) पर बैठना तथा अग्नि का स्पर्श तीन दिन तक नहीं करना चाहिये |
*( स्त्रीधर्मिणी त्रिरात्रं तु स्वमुखं नैव दर्शयेत् | स्ववाक्यं श्रावन्नापि यावत्स्नानान्न शुद्ध्यति | सुस्नाता भर्तृवदनमीक्षेन्नान्यस्य कस्यचित् | अथवा मनसि ध्यात्वा भानुं विलोकयेत् || याज्ञवल्क्य ||)*
रजोदर्शन के दिनों में अपना मुख न दैखैं, जबतक चौथे दिन स्नान से शुद्ध न हो तबतक किसी को अपना वचन भी न सुनावेै, स्नान कर स्वामी(पति) का ही मुख देखै और का नहीं अथवा पति न हो तो मन में पति का ध्यान करतें हुए सूर्य का दर्शन करें |
#रात्रौ_निर्णय- *( रजसि जननादौ च रात्रि त्रिभागां कृत्वा आद्यभागद्वयं चेत् पूर्वदिनं ग्राह्यम्, परतस्तूत्तरमिति || सप्तदशदिनपर्यन्तं पुनारजोदृष्टौ स्नानमात्रम् | अष्टादशे एकरात्रम् | ऊनविंशे द्वयहः| विंशतिप्रभृति त्रिरात्रमिति || मिताक्षरा ||)*
जब रात्रि में रजोधर्म अथवा जन्म होय तो रात्रि के तीन भाग करकें पहले दो भाग में हो तो प्रथम दिन लेना तथा तीसरे भाग में हो तो अगला दिन लेना चाहिये | १७ दिन पर्यन्त फिर रजोदर्शन हो तो स्नान मात्र, १८ वें दिन एकदिन, १९ वें दिन दो दिन, २० आदि में ३ दिन नियमों का पालन करें |
*( त्रयोदशदिनादूर्ध्वं प्रायो रजोवतीनामेकादशदिनात्प्रागशुचित्वं नास्ति | एकादशदिने एकरात्रम् | द्वादशे द्विरात्रम् | ऊर्ध्वं त्रिरात्रमिति || आशौच पञ्जिकायां स्मृत्यर्थसार वचन ||)*
१३ दिन के उपरांत प्रायः रजोधर्म वाली स्त्री को ११ वें दिन से प्रथम अशौच नहीं होता, ११ वें दिन एकरात्र, १२ वें दिन दो रात्र, बाद में तेरहवें दिन आदि से तीनरात्रि तक नियमों का पालन करें |
*( रोगेण यद्रजः स्त्रीणामन्वहं हि प्रवृत्तते | नाशुचिस्तु भवेत्तेन यस्माद्वैकारिकं मतम् || प्रयोग पारिजात ||)*
स्त्रियों को रोग से प्रतिदिन जो रजोधर्म होता हैं उससे स्त्री अपवित्र नहीं होती, कारण कि वह विकार से प्राप्त हुआ हैं |
*( साध्वाचारा न तावत्स्यात्स्नातापि स्त्री रजस्वला | यावत्प्रवर्तमानं हि रजो नैव निवर्तते || हेमाद्रौ शंखः ||)*
रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करकें भी साधु आचरण नहीं कर सकतीं जबतक प्रवृत्त हुआ रजोधर्म पूर्णता से निवृत्त न हो जाय | इसलिए अशुद्ध ही जानें |
*( रोगजे वर्त्तमानेपि काले निर्याति कालिकम् | तस्मात्कालेऽप्रमत्ता स्यादन्यथा संकरो भवेत् || ऋष्यश्रृङ्गः ||)*
रोग से हुआ रज वर्त्तमान भी होय तो भी काल (प्रथम रजोदर्शन के दिन) से उत्पन्न हुआ रुधिर नियत काल (प्रति २० वें दिन रज प्रवृत्त हो यह नियम) में निकलता हैं उस समय से २०/२१/२२ वें दिनों में मनुष्य प्रमत्तता न करें अन्यथा (उत्पन्न संतान) वर्णसंकरता करैंगी |
*#रजस्वला_परस्परस्पर्शे_प्रायश्चित्त->*
*( रजस्वलाया रजस्वलान्तरस्पर्शेऽकामतः स्नानं कामतः उपवासः पञ्चगव्यप्राशनं च | असवर्णानां तु #ब्राह्मण्याः क्षत्रियादि स्पर्शे क्रमेण कृच्छ्रार्द्ध, पादोनकृच्छ्र,कृच्छ्राणि | #क्षत्रियादीनां तु कृच्छ्रपाद एव, क्षत्रियादिनां हीनवर्णस्पर्शे त्रिरात्रमुपवासः | #वैश्याशुद्रयाः पूर्वया स्पर्शेऽहोरात्रं द्विरात्रं च | एतच्च कामतः | आकामतश्च प्राक् शुद्धेरनशनम् | आकामतश्चाण्डालादिस्पर्शेप्यनशनमेव प्रक्छुद्धेः | कामतस्तु प्रथमेह्नि त्र्यहः ,द्वितीये द्वयहस्तृतीये एकाहः | श्वस्पर्शे तु द्वयह एकाहो वा | भुञ्जानायाश्चाण्डाल्दिस्पर्शे षड्रात्रम् | उच्छिष्टयोः स्पर्शे तु कृच्छ्र इत्यादि ||मिताक्षरा ||)*
सवर्णा---->रजस्वला अज्ञान से दूसरी रजस्वला का स्पर्श करले तो स्नान, जानकर स्पर्श करे तो उपवास, और पञ्चगव्य का भक्षण करें |
भिन्नजाति- ब्राह्मणी को क्षत्रिया, वैश्या वा शूद्रा स्पर्श करें तो --
ब्राह्मणी+क्षत्रिया के स्पर्श में आधाकृच्छ्र(६ दिन का व्रत), ब्राह्मणी+ वैश्या के स्पर्श में पादोनकृच्छ्र( ९ दिन का व्रत), ब्राह्मणी + शूद्रा के स्पर्श में पूर्णकृच्छ्र(बारहदिन का व्रत) यदि शूद्रा वैश्या क्षत्रिया को ब्राह्मणी स्पर्श करें तो पादकृच्छ्र(तीन रात्र व्रत ) करें तो शुद्ध हो | यदि क्षत्रियाको वेश्या आदि स्पर्श करें तो तीनरात व्रत करें | यदि वैश्या और शूद्रा को अपने से पूर्वजाति की स्त्री छू ले तो अहोरात्र वा दो रात्र व्रत करें, अनजानता से स्पर्श में अनशन व्रत करें |
अज्ञानता से चाण्डाल आदि के छू ले में भी पवित्रता के लिये अनशनव्रत ही कहा हैं, जानकर छू ले ने में ब्राह्मणी ३ दिन, क्षत्रिया दो दिन, वैश्या १ दिन व्रत करें | कुत्ते का स्पर्श हो जाय तो २ दिन अथवा १ दिन व्रत करें | यदि भोजन करती हुई रजस्वला को चाण्डाल आदि का स्पर्श हो जाय तो ६ दिन (अर्द्धकृच्छ्र)व्रत करे, यदि उच्छिष्ट भोजन करती हुई दो रजस्वलाएँ परस्पर छू लें तो कृच्छ्र(१२ दिन व्रत) करें |
*( सर्वत्र बालापत्याया स्पर्शे स्नाने कृते भुक्तिः पश्चादनशनप्रत्याम्नायः ||स्मृत्यर्थ सारे||)*
जिस स्त्री की गोद में बालक हो वह छू ले तो स्नान करने से पवित्र होती हैं और भोजन के बाद स्पर्श करें तो अनशनव्रत करने से शुद्धि होती हैं |
*#प्रायश्चित्तं_यथोक्तमेव_वाच्यं #न_तु_स्नेहलोभादिनाऽनुग्रहः_कार्यः #तथा_सति_पापं_वक्तरि_संक्रमेत् || #पूर्णषोडशवर्षस्य_पूर्णं_प्रायश्चित्तं #पञ्चवर्षन्यूनस्य_न_तु_पापम् ||प्रायश्चित्तेन्दुशे० नागोजी ||*
प्रायश्चित्त का जैसा प्रकार हो वैसा ही कहना चाहए, स्नेह लोभादि के कारण किसी भी पर अनुग्रह नहीं करना चाहिए नहीं तो शास्त्रज्ञवक्ता को पातकी का पाप संक्रमित होता हैं | पूर्ण सोलह वर्ष और तदुपरांत वाले व्यक्ति को सम्पूर्ण कहा हुआ प्रायश्चित्त करना चाहिये, पाँच वर्ष से नन्हें बालक को पाप नहीं, *#तत्रैव-- #षोडशवर्षन्यूनो_बालः ||* सोलह वर्ष से नन्हे तथा पाँचवर्ष के उपरांत को आधा प्रायश्चित्त करना चाहिये |
*#अज्ञानाकामकृते_यदुक्तं #कामकृते_द्विगुणम् #कामतोऽभ्यासे_चतुर्गुणम् ||नागोजी ||*
अनजाने में किए पाप का कहा हुआ मूल प्रायश्चित्त, जानकर किए हुए पातक में दोगुना प्रायश्चित्त तथा वारंवार जानते हुए किए पातक का चारगुना प्रायश्चित्त हैं |
|| जय श्री राम ||
ॐस्वस्ति || शास्त्री पु ह उमरेठ ||
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