रजस्वला

#रामजी_वैष्णव--->>

रजस्वला स्त्री अपवित्र क्यों होती है?
                  इस विषय पर भारतीय महर्षियों ने ही जाना और तदनुकूल विविध नियमों की रचना की। विदेशों में भी इस संबंध में नए सिरे से अन्वेषण हुआ है और हो भी रही है।

रजोदर्शन क्या है?
 इस विषय का विवेचन करते हुए भगवान धन्वन्तरि ने लिखा है -
मासेनोपचितं काले धमनीभ्यां तदार्तवम्।
ईषत्कृष्ण विदग्धं च वायुर्योनिमुखं नयेत।।
( सुश्रुत शारीरस्थान अ.3 वाक्य 8)
                  अर्थात् - स्त्री के शरीर में वह आर्तव ( एक प्रकार का रूधिर) एक मास पर्यन्त इकट्ठा होता रहता है। उसका रंग काला पड़ जाता है। तब वह धमनियों द्वारा स्त्री की योनि के मुख पर आकर बाहर निकलना प्रारम्भ होता है इसी को रजोदर्शन कहते हैं।
                     रजोदर्शन की उपरोक्त व्याख्या से हमें ज्ञात होता है कि स्त्री के शरीर से निकलने वाला रक्त काला तथा विचित्र गन्धयुक्त होता है। अणुवीक्षणयन्त्र द्वारा देखने पर उसमें कई प्रकार के विषैले कीटाणु पाये गए हैं। दुर्गंधादि दोषयुक्त होने के कारण उसकी अपवित्रता तो प्रत्यक्ष सिद्ध है ही। इसलिए उस अवस्था में जब स्त्री के शरीर की धमनियें इस अपवित्र रक्त को बहाकर साफ करने के काम पर लगी हुई है और उन्हीं नालियों से गुजरकर शारिरीक रामों से निकलने वाली उष्मा तथा प्रस्वेद के साथ रज कीटाणु भी बाहर आ रहे होते हैं, तब यदि स्त्री के द्वारा छुए जलादि में वे संक्रमित होजाएं तथा मनुष्य के शरीर पर अपना दुष्प्रभाव डाल दें, तो इसमें क्या आश्चर्य? अस्पतालों में हम प्रतिदिन देखते हैं कि डाक्टर ड्रेसिंग का कार्य करने से पहले और बाद अपने हाथों तथा नश्तर आदि को - हालांकि वे देखने में साफ सुथरे होते हैं - साबुन तथा गर्म पानी से अच्छी तरह साफ करते हैं। हमने कभी सोचा है? ऐसा क्यों करते हैं? एक मूर्ख की दृष्टि में यह सब, समय साबुन और पानी के दुरूपयोग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, किन्तु डाक्टर जानता है कि यदि वह ऐसा नहीं करे तो वह कितने व्यक्तियों की हत्या का कारण बन जाये। इसी सिद्धांत को यहाँ लिजिए और विचार करें कि उस दुर्गंध तथा विषाक्त किटाणुओं से युक्त रक्त के प्रवहरण काल में स्त्री द्वारा छुई हुई कोई वस्तु क्यों न हानिकारक होगी?
                    " भारतीय मेडिकल एसोसिएशन " ने नवम्बर १९४९ के अंक में डा.रेड्डी तथा डॉ.गुप्ता ने लिखा है कि - पाश्चात्य डॉक्टरों ने भी रजस्वला के स्राव में विषैले तत्वों का अनुसंधान किया है। १९२० में डोक्टर सेरिक ने अनुभव किया कि कुछ फूल रजस्वला के हाथ में देते ही कुछ समय में मुरझा जाते हैं, १९२३ में डाक्टर मिकवर्ग और पाइके ने यह खोज निकाला कि - रजस्वला स्त्री का प्रभाव पशुओं पर भी पड़ता है, उन्होंने देखा कि उसके हाथों में दिए हुए मेंढक के हृदय की गति मन्द पाई गई है। १९३० में डोक्टर लेनजो भी इसी परिणाम पर पहुंचे और उन्होंने अनुभव किया कि कुछ काल तक मेंढक को रजस्वला के हाथ पर बैठा रखने से मेंढक की पाचन शक्ति में विकार आ गया। डॉक्टर पालेण्ड तथा डील का मत है कि यदि खमीर, रजस्वला स्त्री के हाथों से तैयार कराया जायेगा तो कभी ठीक नहीं उतरता। यह सब परिक्षण किए गए प्रयोग है। आप घर पर भी कुछ प्रयोग कर सकते हैं - जैसे तुलसी या किसी भी अन्य पौधे को रजस्वला के पास चार दिनों के लिए रख दिजीये वह उसी समय से मुरझाना प्रारंभ कर देंगे और एक मास के भीतर सूख जाएंगा।
                    रजोदर्शन एक प्रकार से स्त्रीयों के लिए प्रकृति प्रदत्त विरेचन है। ऐसे समय उसे पूर्ण विश्राम करते हुए इस कार्य को पूरा होने देना चाहिए। यदि ऐसा न होगा तो दुष्परिणाम भुगतने पडेंगे।

अतः अनिवार्य है की रजस्वला स्त्री को पुर्ण सम्मान से आराम कराना चाहिए। उस चार दिनों तक वह दिन में शयन न करें, रोवे नहीं, अधिक बोले नहीं, भयंकर शब्द सुने नहीं, उग्र वायु का सेवन तथा परिश्रम न करें क्यों - कि हमारे और आपके भविष्य के लिए यह जरूरी है क्योंकि रजस्वला धर्म संतानोत्पति का प्रथम चरण है।
                      इस विषय पर लिंगपुराण के पूर्वभाग अध्याय ८९ श्लोक ९९ से ११९ में बहुत ही विशद वर्णन किया गया है। उसमें रजस्वला के स्त्री के कृत्य और इच्छित संतानोत्पति के लिए इस कारण को उत्तरदायी बताया गया है इससे शरीर शुद्धि होती है।

#ऋषिपंचमी_का_व्रत! -- ऋषिपंचमी की कथा इस कथा में बताया गया है कि सुमित्र नाम का एक ब्राह्मण था उसकी पत्नी का नाम जयश्री था। जयश्री, वेदों में बताये गये मासिक धर्म के नियमों का पालन नहीं करती थी। मासिक के समय भी यह स्वयं भोजन बनाती और पति को भोजन करवाती। इससे अगले जन्म में जयश्री को कुतिया और ब्राह्मण को बैल के रूप में जन्म लेना पड़ा। इस कारण से महिलाओं को आज भी मासिक धर्म के समय धार्मिक कार्यों में भाग लेने की मनाही रहती हे।



रजस्वलाधर्म का पालन आजकल की स्त्रीयाँ क्यों नहीं करती ?

(१) स्कुलो में इन दिनो के समय अन्योन्य स्पर्श, लेखिनी , नोधपोथी, पुस्तक,पाटी आदि के स्पर्श से भगवती शारदा की अवहेलना करने पर शारदा सृजन की देवी ही "नि:शेष जाड्यापहा " की जगह "विशेष जाड्यता" देकर संकीर्णकलुषित बुद्धि कर देती हैं। इस तरह जिन दिनों में पालन आवश्यक था उस दिनों में पढाई यह एक महत्व का कारण हैं... जिसके कारण सत्यता पर मूँह मोड लेती हैं।
(२) शास्त्रदृष्ट्या लडकीओ को किसी विद्यालय में नहीं पढाया जाता था वे अपने ही घर स्वधर्मनिष्ठ पातिव्रता स्त्रीयों ,वृद्धाओ के पास ही अनेकानेक कलाएँ सिखती थी ,शास्त्र में ६४कलाओ का उल्लेख हैं। पातिव्रत्यधर्म, गृहस्थधर्म, प्रोषितधर्म आदि स्त्रीयों के उचित धर्म अक्षुण्ण परम्परा से ही प्राप्त होता रहता था । श्रृत्यनुसार स्त्रीयों में स्वाभाविकरूप से सोमसूर्याग्नि से भूक्तता होनेपर साडेसातवर्ष में ही एक होशीयार कुशल बन जाती हैं।  स्त्रीयों का उपनयन ही विवाहसंस्कार हैं। पतिसेवा ही गुरुकुल वास हैं। गृहकार्य ही अग्निहोत्र हैं(मनु २/६७) -इस लिए स्त्रीयों के लिए कोई अलग से गुरुकुल नहीं थे।
(३) पहेले की स्त्रीयाँ नौकरी नहीं करती थी सिवा कि "दासी" । दासीयों को भी उन दिनों में छुट्टी मिल जाती थी।  नौकरी करने वाली आधुनिक स्त्रीयाँ भी उचितधर्म का पालन नहीं कर सकती क्योंकि वहाँ अपनी नहीं चलती इसलिए स्वधर्मकर्तव्यविमूढ स्त्रीयों को "दासी" कहने में कोई असत्यता नहीं हैं।
(४) पहेले के समय दिनभर घरों में शैया,खटीया ढली हुई नहीं रहती थी । आजकल पुरेदिन सोफा,पलंग, बैड(खराब), ढले रहते हैं । जिसके कारण दो प्रकार से बुरी आदत पडती हैं (१) बिना समय लैटना ,सो जाना या सोते सोते काम करना (२) रजोधर्म समय घरमें उपयुक्त जगह की कमी हो जाना।
इस तरह पहिले के घरों या झोपडी में रहने वालो को जो घरो में जो रिक्तता मिलती थी वह आज टीवी, फ्रीझ, टेबल, सोफा, बैड , शौचालय आदि ने ले ली हैं । सोफा ,बैड आदि वह चीझ हैं कि जिसके कारण आजकल घरमें कोई भी बहार से आयागया पवित्र या अपवित्र , सूतकी आदि अवस्था का व्यक्ति उसे बैठने में उपयोग करते हैं इस के कारण स्पर्शास्पर्श विवेक भी लुप्त सा हो गया हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार तो घरमें शौचालय का स्थान ही नहीं होना चाहिए क्योंकि घर का पुरे क्षेत्रफल विस्तार की जगह में वास्तुदेवताओ के भिन्न भिन्न पद का नित्य वास हैं, इसलिए गृहसदस्य और देवताओ के नित्यवास के कारण तो वस् धातु सार्थक हैं। *शौचालय का स्थान शस्यवती जमीन न हो तृण आदि से रिक्त हो वहाँ खड्डा करके मलत्याग किया जाता था, फिर उसगड्डे को मिट्टी आदि से ढंक दीया जाता था । सूर्यनारायण की धूप व जमीन की आंतरिक ऊष्मा के कारण वह मल सौखकर जमीनमें मिल जाता था , जो समय रहते पृथ्वी  के थर में परिवर्तित होकर स्थलांतर हो  जाता था।
जब की आज के शौचालयो में जल में ही मलत्याग और जल से ही मलशुद्धि करते हैं । जिसके कारण मल पुरी तरह से सौख भी नहीं पाता और पानी में घूलमिलकर गटरों द्वारा उसका निकास सिधे ही जलाशयो में हो रहा हैं यह विकृति नहीं तो क्या हैं? जलमिट्टी के संयोग का शौचविज्ञान शास्त्रीय हैं।* (सरकार के  शौचालय अभियान  जलाशयों की विकृतिकरण ही हैं , जबकि जहाँ खूल्ली जगहों में शौच करते हैं उस गाँव में मिथ्यातर्क देकर परम्परा को नष्ट भ्रष्ट नहीं करनी चाहिए, जिससे कम जलप्रदूषण हो । (पिता रक्षति कौमारे ००आदि व्यवस्था से तो स्त्रीयाँ प्रत्येक अवस्था में  सुरक्षित ही थी, परंतु स्वतंत्र स्त्री अपनी सुरक्षा चाहे तो  स्वयं अपनी सुरक्षा नहीं कर सकती यह भी शास्त्रो में उल्लेखनीय हैं। इसलिए बलात्कार आदि कुतर्क आजकल की स्वतंत्र स्त्री पर ही ज्यादा हो रहे हैं)
(५) पहिले के मनुष्य संयुक्त परिवार में रहते थे इसलिए गृहकार्य बटकर संभाले जाते थे अथवा तो पत्नी के रजोधर्म के दिनों में पति स्वयं ज्यादाथोडा खाना-पीना अन्य काम कर लेता था, आज भी कुछ ससंतानपतिपत्नी छोटे घरमें रहकर भी पत्नी रजोधर्म के आनेवाले दिनों से पहिले कुछ उपयोगी नास्तापानी बना लेती हैं,कुछ पति स्वयं बना लेता हैं , कुछ संताने वा बिटीया काम में हाथ बढाती हैं। जिसे पालन ही नहीं करना ठूस ठूस कर खाना ही खाना हैं वे पति पालन करना करवाने नहीं चाहते (क्योंकि नौकरी ने पैर जकड़ रखे हैं), अपनी बच्चीयों को बडी होने पर भी भोजन पकाना नहीं सिखलाते,  न तो स्वयं कुछ पकाकर खाना और पत्नी को खिलवाना जानता हैं..
(६)पहेले के मनुष्य ज्यादा कमरे भी न हो ऐसी झोपडी में रहकर भी अन्तर्पट आदि के माध्यम से भी  रजोधर्म का पालन करते थे ,करवाते थे क्योंकि पहिले की स्त्रीयाँ केवल गृहिणी थी, वंदनीया थी ।



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

यज्ञोपवीत 2

संस्कारविमर्श

यज्ञोपवीतम्