महाअसुर हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रहलाद क्यों भक्त उत्पन्न हुए।

-- महा असुर हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रहलाद क्यों भक्त उत्पन्न हुए? --

एक समय देवताओं के साथ युद्ध में पराजित होकर हिरण्यकश्यपु शक्ति संचय करने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये वन में चला गया। उसकी पत्नी उस समय गर्भिणी थी। इन्द्र ने सोचा कि हिरण्यकश्यपु का पुत्र उससे भी अधिक बलवान होगा और देवताओं को अधिक परेशान किया करेगा, इसलिये उत्पन्न होते ही उसका वध कर देना ठीक रहेगा। इसी लक्ष्य से हिरण्यकश्यपु की गर्भंवती स्त्री को इन्द्र अपने यहाँ उठा ले चला। मार्ग में वह विलाप करती हुई जा रही थी, नारद जी मिल गये। उन्होंने पूछा कि इस अबला को कहाँ लिये जाते हो, क्या उद्देश्य है? इन्द्र ने बताया कि यह हिरण्अकश्यपु की स्त्री है, गर्भवती है, इसके गर्भ से उत्पन्न बालक को तुरन्त मार कर देवताओं का संकट दूर करने के लक्ष्य से इसे अपने लोक में ले जा रहा हूँ। नारद ने कहा कि इसके गर्भ से भगवदभक्त उत्पन्न होगा और अजेय होगा, तुम इसे छोड़ दो। नारद के ये वचन सुन कर इन्द्र उसे छोड़ कर चला गया। नारद उसे अपने आश्रम में ले आये और नित्य उसे भगवान की भक्ति - गाथायें सुनाते रहे।

गर्भवती स्त्री जो बातें सुनती है या जो दृश्य आदि देखती है और जिस वातावरण में वह रहती है, उसका असर गर्भस्थ बालक पर पढ़ता है। प्रहलाद जब पढ़ने जाते थे तो अपने सहपाठियों को ज्ञान - ध्यान की बातें और भगवान की बातें सुनाते थे। उनसे उन लोगों ने पूछा कि आप तो हमारे साथ ही पढ़ते हो, ये बातें तो यहाँ बताई नहीं जातीं और घर में भी दैत्यों के आस - पास ही आप रहते हो, वहाँ भी इस प्रकार की शिक्षा पाने का कोई अवसर नहीं मिलता होगा तो ये सब अच्छी - अच्छी बातें आप को मालूम कैसे हुई जो आप हम लोगों को सुनाते हो?

प्रहलाद ने अपने गर्भकाल की बातें बताईं कि इस प्रकार हमारी माता नारद के आश्रम में पहुँचीं और वहाँ महर्षि नारद उन्हें नित्य ही भगवान की गाथायें जब सुनाया करते थे तो हम माता के गर्भ में सुब सुना करते थे। वहाँ से आने के बाद दैत्यों के वातावरण में माता तो वह सब भूल गई, पर हमको सब याद हैं। वही हम तुम लोगों को सुनाते हैं।

दैत्यराज महा असुर हिरण्यकश्यपु का पुत्र गर्भावस्था में सत्संग की बातें सुन कर भक्तराज पैदा हुआ। आज भी गर्भवती माताओं को उत्तम धार्मिक भक्तिमान वातावरण में रखा जाय, भगवान की अच्छी - अच्छी धार्मिक बातें उनको सुनाई जायें तो आज भी भारत में ध्रुव - प्रहलाद उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु आजकल तो सिनेमाओं और गन्दी पुस्तकों के पढ़ने से फुरसत ही नहीं मिलती। यही कारण है कि उत्पाती और चरित्रहीन सन्तानें पैदा होती हैं और उनके माता - पिता जन्मभर रोते हैं। गर्भवती स्त्री के संस्कार ही गर्भस्थ बालक के संस्कार बनते हैं और वैसी ही उसकी निष्ठा बनती है। पशु के समान सन्तान पैदा कर देना और बात है, किन्तु यदि उत्तम विचारशील चरित्रवान सन्तान चाहते हो तो गर्भकाल में स्त्री को पवित्र वातावरण में रखो। विधिपूर्वक गर्भाधान संस्कार के बाद स्त्री को रजोगुणी - तमोगुणी पदार्थों से बचाओ। गर्भिणी स्त्री की उत्तम भावनायें ही गर्भस्थ बालक के उत्तम संस्कारवान होने का कारण है।

प्रहलाद को यह पुष्ट था कि भगवान सर्वत्र हैं। उन्हें सर्वत्र परमात्मा का ज्ञान था। जहाँ वे देखते थे अपने इष्ट को ही देखते थे। प्रहलाद को निर्विवाद पुष्ट था कि सर्वत्र परमात्मा है। जल, थल, अग्नि में सर्वत्र वे अपने राम को देखते थे। यही कारण था कि जल, अग्नि आदि तत्व  उन्हें कष्ट नहीं पहुँचा सके -- यह थी भारत के एक पाँच वर्ष के बालक की निष्ठा। भारतीय यदि अपने सिद्धान्तों पर आ जायें तो फिर त्रैलोक्य में कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो उन्हें कष्ट दे सके। परन्तु अपने घर की बात भूल कर सब दरिद्र हो रहे हैं। सर्वशाक्तिमान परमात्मा जब अपने अनुकूल हो जाते हैं तो प्रकृति की समस्त शक्तियाँ अपने अनुकूल हो जाती हैं। प्रहलाद को जिस तत्त्व के द्वारा कष्ट देने का प्रयत्न किया जाता था, वही तत्त्व उनके अनुकूल हो जाता था। प्रहलाद को जब अग्नि में डाला गया तो वे हँसते हुए कहते हैं ---

"रामनामजपतां कुतो भयं सर्वतापशमनैकभेषजम्,पश्य तात ममगान्नसन्निधौपावकोऽपि सलिलायतेऽधुना॥"

अर्थात् -- राम - राम जपने वाले को कहाँ भय है? यह (राम - नाम) तो समस्त तापों के (दुःखों के) निवारण की एक औषधि है। हे पिता! देखो मेरे शरीर के पास इस समय अग्नि भी जल का काम कर रही है, अर्थात् ठंडी हो गई है।

बात यह है कि जब तक हम अपने इष्ट को एकदेशीय डिबिया में बन्द करके रखे रहेंगे तब तक जो चाहे हमें दुःख देता रहेगा और अपाहिज की तरह हमें उसके सहन करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। सर्वत्र व्यापक अपने इष्ट को देखने लगो तो जो समीप आयेगा वह इष्ट बनकर, सहयोगी बन कर आयेगा। यही सिद्धान्त है कि जो जैसा होता है उसके समीप आने वाला भी वैसा ही हो जाता है, यदि निष्ठा पक्की है तो।

योगशास्त्र - कर्ता पतंजलि ने यही लिखा है कि -

"अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।"

जिसकी अहिंसा की निष्ठा पुष्ट है उसके निकट सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशु भी अपना हिंसक स्वभाव त्याग कर अहिंसक हो जाते हैं। पर हमारा आधार पुष्ट होना चाहिये, परमात्मा का भरोसा पक्का होना चाहिये। ऐसा नहीं कि जिसके हाथ में माटी का लोआ देखा उसी के पीछे हो लिये। धोबी का कुत्ता, न घर का होता है न घाट का। विचार से काम लेना चाहिये, उदर - परायणता से पीछे अपना सर्वस्व गँवा देना ठीक नहीं। उदर - परायणता तो पशु - पक्षी, कीट - पतंगादि योनियों में भी रहती है। मनुष्य होकर भी यदि उदर - परायण रहे तो मनुष्य - योनि की विशेषता ही क्या? भारतीयों ने पेट को कभी प्रधान नहीं माना। यहाँ आध्यात्म की ही प्रधानता सदा स्वीकार की गई है। महर्षि लोग कन्द - मूल फल खाकर, जल पीकर रहते थे, परन्तु चक्रवर्तियों को भी अपने इशारे पर चलाने का बल रखते थे। हलुवा - पूड़ी, रबड़ी - मलाई खिलाने वाले भक्त लोग उस समय भी रहे होंगे, परन्तु वे समझते थे कि इन लोगों का दिया दुआ यदि हलुवा - पूड़ी खायेंगे तो बुद्धि भ्रष्ट हो जायगी और पतन हो जायगा। जब भीष्म जैसे व्यक्तियों की बुद्धि मलिन धान्य खाने से भ्रष्ट हो गई, तो आजकल के लोगों की बात ही क्या! इसलिये बुद्धि की शुद्धि के लिये धान्य शुद्धि पर सदा विचार रखना चाहिये और भगवान का सहारा लेकर सतोगुणी वृत्ति से जीवन - यापन करने का प्रयत्न करना चाहिये।

-- ब्रह्मलीन जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज ज्योतिर्मठ, बदरिकाश्रम
#जयश्रीसीताराम

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