स्त्री धर्म का क्यो विशेष महत्व है।
प्राचीन साहित्य में स्त्रीयोंपर अत्याचार किया गया है,विधवा होनेपर उन्हें विवाहकी आज्ञा नहीं.उनके लिये व्रत उपवास आदि अधिक नियत किये गयें है.उनको अन्य पति करनेका आदेश नहीं दिया जाता,उनकी विशिष्ट रक्षा की जाती है,उनपर विश्वास नहीं किया जाता,उन्हें स्वतन्त्रता नहीं दी जाती,आदि....
#आजकलके ये प्राचीन धर्म शास्त्रोंपर आक्षेप है.वस्तुतः वस्तु स्थितिपर विचार नहीं किया जाता.हमारा प्राचीन साहित्य किसीका भी द्वेषी नहीं रहा;सबका वह हितैषी रहा है.
इसपर यह जानना चाहिये कि स्त्रीजातिकी पवित्रतामें ही कुलका और देशका उद्धार तथा स्त्री-जातिके पतनमें कुलका व देशका पतन अनिवार्य है;इसीलिये हिंदु-जातिके साहित्य में पुरुष की अपेक्षा कन्या वा स्त्रियों की रक्षापर अधिक ध्यान रक्खा गया है.सन्तानमें पिताकी अपेक्षा माताका प्रभाव अधिक पड़ता है.स्त्री-जातिकी अपवित्रतासे सम्पूर्ण जाति ही अपवित्र हो सकती है.चाकू खरबूजेपर गिरे,अथवा खरबूजा चाकूपर गिरे; दोनों ही प्रकारसे खरबूजे की ही हानि है.इस प्रकार स्त्री विकारको प्राप्त होकर अन्य पुरुषपर आसक्त हो जाय,अथवा पुरुष विकारयुक्त होकर अन्य स्त्री में आसक्त हो जाय,दोनों ही प्रकारसे स्त्रीका पतन अवश्यम्भावी है.इसलिये श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुनने भी कहा है-"
#अधर्माभिभवात्_कृष्ण_प्रदुष्यन्ति_कुलस्त्रियः ||
#स्त्रीषु_दुष्टासु_वार्ष्णेय_जायते_वर्णसङ्करः ||१/४१||
अर्थात् हे कृष्ण अधर्म के अधिक बढ़जाने से,कुलकी स्त्रीयाँ दूषित हो जाती है.और हे वार्ष्णेय! स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसङ्कर पैदा हो जातें है.
#सङ्करो_नरकायैव_कुलघ्नानां_कुलस्य_च ||
#पतन्ति_पितरो_ह्येषां_लुप्तपिण्डोदकक्रिया ||१/४२||
वर्णसङ्कर कुलघातियों को और कुलको नरक में ले जानेवाला ही(होता)है.श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन कुलघातियों के पितर भी अपने स्थान से गिर जातें है.
पितरों में एक " अाजान पितर" होतें है और एक "मर्त्य पितर".पितरलोक में रहनेवाले पितर "आजान" है और मनुष्यलोकसे मरकरगये पितर "मर्त्य"है. श्राद्ध और तर्पण न मिलनेसे मर्त्य पितरों का पतन होता है.पतन उन्हीं मर्त्य पितरों का होता है,जो कुटुम्बसे सन्तानसे सम्बन्ध रखतें है,और उनसे श्राद्ध-तर्पण की आशा रखतें है.
#दोषैरेतैः_कुलघ्नानां_वर्णसङ्करकारकैः ||
#उत्साद्यन्ते_जातिधर्माः_कुलधर्माश्च_शाश्वताः ||१/४३||
इन वर्णसङ्कर पैदा करनेवाले दोषों से कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जातें है.
#उत्सन्नकुलधर्माणां_मनुष्याणां_जनार्दन ||
#नरकेऽनियतं_वासो_भवतीत्यनुशुश्रुम ||१/४४||
हे जनार्दन जिनकें कुलधर्म नष्ट हो जातें है,उन मनुष्यों का बहुत कालतक नरकोमें वास होता है.ऐसा हम(शास्त्रोंसे)सुनते आयें है.
मनुने भी कहा है-
#अवेद्यावेदनेन_च,|...जायन्ते वर्णसङ्कराः ||१०/२४||
इससे स्पष्ट हैं कि स्त्रीकी दुष्टता से सारी जातिका पतन उपस्थित हो जाता है.वर्णसङ्करता को हमारें शास्त्रकारों ने बहुत निन्दित समझा है.
इसीलिये हमारे सुदक्ष प्राचीन शास्त्रकारों ने स्त्रीयों के लिये कठोर नियम रक्खे है.इस प्रकार उन्हों ने स्त्री-जाति को सुरक्षित कर दिया.स्त्री-जातिकी सुरक्षा से ही व्यभिचार असम्भव हो जाता है.
#हमारी स्त्री-जातिका तपोमय जीवन है.ऐसी दशा में शास्त्रकारोंपर आक्षेप व्यर्थ है.फिर शास्त्रकारों ने ही स्त्री को कष्ट दिया है,यह बात नहीं.उनको कष्ट स्वयं प्रकृति देती है.प्रतिमास अस्पृश्यता वे ही धारण करतीं है,दस मास गर्भ-धारणका कष्ट वे ही प्राप्त करतीं है,प्रसव-कष्ट जिसमें दाईके या दाक्तरके प्रमादसे प्राण भी संशय में पड़ जाते है-- वे ही सहती है.अपहरणादिक भी स्त्रीयोंके ही होतें है.स्वाभाविक दुर्बलतासे रोग भी इन्हें ही घेरे रहते है.इन सबका कारण क्या है?
कारण है पूर्वजन्म के कर्म.हिंदु-संस्कृति कर्मव्यवस्था को मानती है.पूर्वजन्म के कुछ कर्मविशेष से--- पुरुष योनि से पतित होकर जीव स्त्री-योनिमें जाता है.यत्प्रयुक्त ही कष्ट स्त्री-जातिको मिलते है.कर्मों का क्षय भोग से ही हुआ करता है.तपस्या कष्टप्राप्त्यर्थ हुआ करती है,उस कष्ट से प्राक्तन जन्मों के दुष्कर्मों का क्षय हो जाता है,उसके फल स्वरूप अन्य जन्मों में अधिक सुख की प्राप्ति होती है.वैसे ही स्त्री का जीवन भी तपस्यारूप है.उसमें भी अनिवार्य कष्टोंके मिलनेसे पूर्वजन्मों के कर्मों का क्षय हो जाता है.अग्रिम जन्म उनका सुखजनक होता है.हिंदु-संस्कृति दूरदृष्टिवाली है,उसकी दृष्टि भविष्यत् पर रहती है; अदूरदर्शी सम्प्रदायों के व्यक्ति इस संस्कृति को व्यर्थ ही कलङ्कित करतें है.वे लोग वर्तमान काल को देखतें है; न पूर्वजन्म का विचार करतें है न भविष्यत् जन्म का.वे उन्हें एकान्त सुख देकर,उनका अवशिष्ट पूर्वजन्म का पुण्य भी क्षीण करके,इस जन्म में भी पातिव्रत्य से छुट्टी दिलाकर-- जिससे कि उनकी सद्गति हो सकती है--उन्हें अग्रिम जन्म में सीधा पशुयोनि में भेजना चाहते है.
#जो रोग कड़वी ओषधिसे दूर होने योग्य हो,वहाँपर कड़वी दवाई को छुडा़कर यदि रोगी के हितैषी बननेवाले बन्धु उसे मिठाइयाँ खाने को देतें है,तो स्पष्ट है कि वे लोग रोगी का अवशिष्ट बल भी समाप्तकर उसे राजयक्ष्माका शिकार बनाना चाहतें है.वे बन्धु है या उसके शत्रु ?
वे लोग #यत्तदग्रेऽमृतोपमम् | #परिणामे_विषमिव ||गीता१८/३८||
तथा #यत्तदग्रे_विषमिव_परिणामेऽमृतोपमम् |गीता १८/३७|| इन सुखों के तारतम्य को नहीं सोचते.
फलतः सन्तान शुद्ध हो,धर्मात्मा हो,वर्णसङ्कर न हो-- एतदर्थ विधवा विवाहादि अथवा परपुरुषसङ्गका निषेध किया गया है.इसीलिये स्त्रियोंका कार्यक्षेत्र "घर" बताया गया है."बाहर" नहीं.वेद उसे "(गृहपत्नी||ऋ१०/८५/२६||), " ( गार्हपत्याय जागृहि ||अथर्व १४/१/२१||)," (गृहा वै गार्हपत्यः||शत१/७/४/१८||), कहकर घर के क्षेत्र में ही रहने को कहता है और घरेलू काम देता है--- जैसे कपड़ों का बुनना ->अथर्व १४/२/५१||, पानी भरना,भात पकाने के लिये जल लाना->अथर्व ३/१२/८ और ११/१/१३||, घड़ा उठाना-> अथर्व ११/१/१४||, भोजन तैयार करना-> अथर्व ११/१/२३||, घर में रहना-> अथर्व १४/२/१३||, बीज वपन करना-> अथर्व १४/२/१४||, पति के अनुसार उसके कृत्य में नियुक्त होना,सन्तान का उत्पादन करना->अथर्व१४/११/५५||, इत्यादि.
बहारी कार्यों में रहैंगी तो उनके बच्चोंका पालन नौकरों आदिके अधीन हो जाता है.वेतनग्राही नौकर उस बच्चे की सेवा क्या करेगा? वह मातावाला हृदय कहाँ से लायगा? थकी हुई माता का स्तन्य भी उस बच्चे की पुष्टि क्या करेगा? इधर खाद्य पदार्थ निस्सार मिल रहे है; तब बालकों की आयु बढ़ेगी या घटेगी? अध्यापिकाएँ बनकर धन इकठ्ठा कर --" ममेयमस्तु पोष्या ||अथर्व१४/१/५२|| इस वैदिक विवाह के नियम के विरुद्ध वे "पोष्या" न बनकर "पोषक" बन रही है.जहाँ पहले वे -"गृहस्वामिनी" बनती थीं,वहाँ अब अध्यापिका बनकर पर-पुरुषों(संस्थाके मंत्री,प्रधान आदि)की किङ्करी बनती है और पतिलोग --"(स्त्रीवित्तेनाधमाधमाः) " (स्त्रीयं ये चोपजीवन्ति प्राप्तास्ते मृतलक्षणम्)" के विरुद्ध चल रहे है; दोनों में समानता आ जाने से स्वामिभाव हट रहा है और विवाद बढ़ रहे है.
|| जय श्री राम ||
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